77. अब मुझे पता है लोगों के साथ सही तरीके से कैसे पेश आना है

झोउ शूशेंग, चीन

मार्च 2022 में मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया। जिन भाई-बहनों के साथ मैं काम कर रही थी, उनके मार्गदर्शन और मदद से कुछ समय बाद मैं काम में मौजूद कुछ विचलनों और समस्याओं को खोजकर उन्हें सुलझा सकी, धीरे-धीरे काम के नतीजों में थोड़ा सुधार दिखाई देने लगा। मेरे भाई-बहनों ने कहा कि मुझमें कार्यक्षमता है। मैं बहुत खुश थी और मुझे लगा कि भले ही मैंने थोड़े ही समय के लिए प्रशिक्षण लिया था, मेरी काबिलियत अच्छी थी और मैं समस्याओं को खोजकर काम अच्छी तरह से कर सकती थी। मैंने सोचा कि मैं काफी दुर्लभ प्रतिभा हूँ! बाद में बहन लू याओ को कलीसिया में अगुआ चुना गया और वह मेरे साथ काम करने लगी। मैंने उसे काम से परिचित होने और उसे समझने में मदद की। कुछ समय बाद मैंने पाया कि लू याओ अपने काम में सिर्फ थोड़ी-बहुत ही भागीदारी कर पा रही थी, लेकिन जिस काम के लिए वह जिम्मेदार थी, उसे सच में सँभाल नहीं पा रही थी। मुझे थोड़ी घृणा महसूस हुई, “मैंने तुम्हें काम सिखाने में इतना समय और मेहनत लगाई—तुम्हारी प्रगति इतनी धीमी क्यों है! जब मेरे भाई-बहन मुझे काम से परिचित करा रहे थे, जैसे ही कोई मुझे कुछ बताता था, मैं उसे समझ जाती थी और बाद में उससे सीखकर आगे काम कर सकती थी। यह तुम्हारे लिए इतना मुश्किल क्यों है? यह ठीक नहीं है। मुझे तुमसे बात करनी ही पड़ेगी!” इसलिए, मैंने उससे सख्ती से कहा, “मैंने पहले ही बहुत साफ-साफ समझा दिया है कि इन कामों को कैसे करना है। तुम अभी तक उन्हें क्यों नहीं कर सकती? तुम ध्यान दे भी रही हो या नहीं?” लू याओ का चेहरा शर्म से लाल हो गया और उसने चुपचाप अपना सिर नीचा कर लिया। जब मैंने उसे इतना दुखी देखा, मैंने मन ही मन सोचा, “क्या मैंने कुछ ज्यादा ही कह दिया? आखिर लू याओ ने अभी-अभी प्रशिक्षण लेना शुरू किया है और उसे कई कार्यों से परिचित होना है। इसके अलावा वह उम्र में थोड़ी बड़ी है और उसकी याददाश्त भी उतनी अच्छी नहीं है।” लेकिन फिर मैंने दोबारा सोचा, “भले ही मेरा लहजा थोड़ा कठोर था, मैं तो बस जल्द से जल्द काम से परिचित होने में उसकी मदद करना चाहती थी” और मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया।

बाद में मुझे प्रचारक चुना गया और मैं नई चुनी गई अगुआ बहन हान लू को काम से परिचित कराने में मदद कर रही थी। एक बार हम यह आकलन कर रहे थे कि क्या कुछ लोग बाहर निकाले जाने के सिद्धांतों पर खरे उतरते हैं या नहीं। मैंने देखा कि कुछ लोग साफ तौर पर बुरे लोगों के रूप में प्रकट हुए, लेकिन हान लू ने इसका भेद नहीं पहचाना। मेरे मन में थोड़ी घृणा महसूस हुई, “तुमने पहले सफाई का कार्य किया है। क्या हमने पहले इस क्षेत्र में सिद्धांतों के बारे में संगति नहीं की है? तुम प्रगति करने के बजाय पीछे कैसे चली गई हो?” फिर मैंने सोचा कि जब उच्च अगुआओं ने मेरे साथ संगति की थी और भेद पहचानने के संबंध में मेरा मार्गदर्शन किया था, भले ही मुझमें भी कमियाँ थीं, मैं उसकी तरह अयोग्य नहीं थी। इसलिए मैंने हान लू से सख्ती से कहा, “तुम्हें लोगों के सार के अनुसार समस्याओं को देखना होगा! तुम सिर्फ अप्रासंगिक चीजों को नहीं देख सकती!” जब मैंने यह कहा तो हान लू चौंक गई और उसने धीरे से जवाब दिया, “मैं सिद्धांतों को केवल धर्म-सिद्धांतों रूप में समझती हूँ, लेकिन जब मैं अलग-अलग लोगों का सामना करती हूँ तो उनका भेद नहीं पहचान पाती।” जब मैंने यह सुना तो मैं और भी बेचैन और गुस्सा हो गई, “अतीत में मैंने कभी सफाई का कार्य नहीं किया था, लेकिन जैसे ही मुझे समझाया गया, मैं समझ गई। तुमने पहले तो सफाई का कार्य किया है, फिर अब भी तुम में भेद पहचानने की समझ क्यों नहीं है?” फिर मैंने उसे सख्ती से डाँटा, “जब तुम यह कहती हो तो क्या तुम सिर्फ अपने लिए बहाने नहीं बना रही हो? तुमने पहले सफाई का कार्य किया है और हमने पहले सिद्धांतों के बारे में संगति भी की है। अगर तुम अभी भी भेद नहीं पहचान सकती हो तो क्या तुम अपना कर्तव्य बिना ध्यान दिए नहीं कर रही हो?” यह सुनने के बाद हान लू ने अजीब तरह से अपना सिर झुका लिया और एक शब्द भी नहीं कहा। जब मैंने हान लू को देखा तो मैंने मन ही मन सोचा, “क्या मैंने अपनी बातों से उसे बेबस कर दिया है?” लेकिन जब मैंने इन समस्याओं पर ध्यान दिया तो खुद को आवेश में आने से नहीं रोक सकी। बाद में मैंने विचार किया : जब मैं लोगों को विकसित करती हूँ तो मैं लगातार गुस्सा क्यों दिखाती हूँ? उस समय के दौरान मैंने खोजने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की, मैंने अपनी कथनी और करने में खुद पर संयम रखने की पूरी कोशिश की। लेकिन कभी-कभी मैं अपने क्रोध को फूटने से नहीं रोक पाती थी और बाद में मेरे दिल में दर्द होता था। कुछ दिनों बाद हान लू ने मुझे एक सुझाव दिया, कहने लगी कि दूसरों से मेरी अपेक्षाएँ बहुत अधिक हैं और मेरी आवाज का सख्त लहजा दूसरों के लिए मेरी बातों को स्वीकारना मुश्किल बना देता है। जब मैंने हान लू की बात सुनी तो शुरुआत में मैं इसे स्वीकार नहीं सकी। मैंने मन ही मन सोचा, “मैं पहले से ही खुद पर संयम रखने की बहुत कोशिश कर रही हूँ ताकि मैं गुस्सा न दिखाऊँ। तुम अपनी समस्याओं पर चिंतन क्यों नहीं करती? अगर तुम अपना काम ठीक से नहीं कर सकती तो मैं तुम्हारे साथ अच्छी कैसे हो सकती हूँ?” लेकिन मैंने याद किया कि पहले लू याओ ने कहा था कि मैं अपने आध्यात्मिक कद के आधार पर दूसरों से अपेक्षाएँ करती हूँ और अब हान लू भी वही बात कह रही थी। इसमें परमेश्वर की अनुमति थी और मैं अपनी दलीलें जारी नहीं रख सकती थी; मुझे समर्पण करना था।

बाद में जब एक बहन को मेरी दशा के बारे में पता चला तो उसने मेरे लिए परमेश्वर के वचनों के कई अंश ढूँढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अगर कलीसिया के एक अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में तुम्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों की सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने और परमेश्वर की अच्छी गवाही देने में अगुआई करनी है, तो सबसे महत्वपूर्ण बात लोगों का परमेश्वर के वचनों को पढ़ने और सत्य की संगति करने में अधिक समय व्यतीत करने में मार्गदर्शन करना है। इस तरह से, परमेश्वर के चुने हुए लोग मनुष्य को बचाने में परमेश्वर के उद्देश्यों और परमेश्वर के कार्य के प्रयोजन का गहरा ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, और परमेश्वर के इरादों और मनुष्य के लिए उसकी विभिन्न आवश्यकताएँ समझ सकते हैं, और इस प्रकार वे अपना कर्तव्य उचित ढंग से कर सकते हैं और परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं। ... अगर तुम केवल शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देकर भाषण झाड़ते हो और उनकी काट-छाँट करते हो, तो क्या तुम उन्हें सत्य समझा सकते हो और वास्तविकता में प्रवेश करा सकते हो? जिसके बारे में तुम संगति करते हो, अगर वह व्यवहारिक नहीं है, अगर वह शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के अलावा कुछ नहीं है, तो तुम कितना भी उनकी काट-छाँट करो और उन्हें भाषण दो, उसका कोई लाभ नहीं होगा। क्या तुम्हें लगता है कि लोगों का तुमसे डरना और जो तुम उनसे कहते हो वह करना, और विरोध करने की हिम्मत न करना, उनके सत्य को समझने और समर्पण करने के समान है? यह एक बड़ी गलती है; जीवन प्रवेश इतना आसान नहीं है। कुछ अगुआ एक मजबूत छाप छोड़ने की कोशिश करने वाले एक नए प्रबंधक की तरह होते हैं, वे अपने नए प्राप्त अधिकार को परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर थोपने की कोशिश करते हैं ताकि हर व्यक्ति उनके अधीन हो जाए, उन्हें लगता है कि इससे उनका काम आसान हो जाएगा। अगर तुममें सत्य वास्तविकता का अभाव है, तो जल्दी ही तुम्हारे असली आध्यात्मिक कद का खुलासा हो जाएगा और तुम्हारे असली रंग उजागर हो जाएँगे, और तुम्हें हटाया भी जा सकता है। कुछ प्रशासनिक कार्यों में थोड़ी काट-छाँट और अनुशासन स्वीकार्य है। लेकिन अगर तुम सत्य पर संगति करने में अक्षम हो, तो अंत में तुम समस्याएँ हल करने में भी असमर्थ रहोगे और इससे कार्य के नतीजे प्रभावित होंगे। अगर, कलीसिया में चाहे जो भी समस्याएँ आएँ, तुम लोगों को व्याख्यान और दोष देना जारी रखते हो—अगर तुम हमेशा बस अपना आपा खोकर पेश आते हो—तो यह तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव है जो प्रकट हो रहा है, और तुमने अपनी भ्रष्टता का बदसूरत चेहरा दिखा दिया है। अगर तुम हमेशा किसी आसन पर खड़े होकर इसी तरह लोगों को भाषण देते रहे तो समय बीतने के साथ लोग तुमसे जीवन का पोषण प्राप्त नहीं कर सकेंगे, वे कुछ भी व्यावहारिक हासिल नहीं करेंगे, बल्कि उन्हें तुमसे घृणा और मितली आएगी। इसके अलावा, कुछ लोग ऐसे होंगे जो भेद पहचानने की कमी के कारण तुमसे प्रभावित होंगे और इसी तरह दूसरों को भाषण देंगे और उनकी काट-छाँट करेंगे। वे भी इसी तरह क्रोधित हो जाया करेंगे और अपना आपा खो दिया करेंगे। न केवल तुम लोगों की समस्याएँ हल करने में अक्षम होगे—तुम उनके भ्रष्ट स्वभाव को बढ़ावा भी दोगे। और क्या यह उन्हें विनाश के मार्ग पर नहीं ले जा रहा? क्या यह कुकर्म नहीं है? अगुआ को प्राथमिकता से सत्य और जीवन प्रदान करने के बारे में संगति करते हुए अगुआई करनी चाहिए। अगर तुम हमेशा मंच पर खड़े होकर दूसरों को व्याख्यान देते हो, तो क्या वे सत्य समझ पाएँगे? अगर तुम कुछ समय तक इसी तरह से काम करते रहे, तो जब लोग तुम्हारी असलियत देख लेंगे, वे तुम्हें छोड़ देंगे। क्या तुम इस तरह से काम करके लोगों को परमेश्वर के सामने ला सकते हो? तुम निश्चित रूप से नहीं ला सकते; तुम सिर्फ कलीसिया का काम खराब कर सकते हो और परमेश्वर के सभी चुने हुए लोगों को तुमसे घृणा करने और तुम्हें छोड़ देने के लिए बाध्य कर सकते हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “यह मत सोचो कि तुम सब-कुछ समझते हो। मैं तुम्हें बता दूँ कि तुमने जो कुछ भी देखा और अनुभव किया है, वह मेरी प्रबंधन योजना के हजारवें हिस्से को समझने के लिए भी अपर्याप्त है। तो फिर तुम इतने अहंकार से पेश क्यों आते हो? तुम्हारी जरा-सी प्रतिभा और अल्पतम ज्ञान यीशु के कार्य में एक पल के लिए भी उपयोग किए जाने के लिए पर्याप्त नहीं है! तुम्हें वास्तव में कितना अनुभव है? तुमने अपने जीवन में जो कुछ देखा और सुना है और जिसकी तुमने कल्पना की है, वह मेरे एक क्षण के कार्य से भी कम है! तुम्हारे लिए यही अच्छा होगा कि तुम आलोचक बनकर दोष मत ढूँढो। चाहे तुम कितने भी अभिमानी हो जाओ, फिर भी तुम्हारी औकात एक सृजित प्राणी से बढ़कर नहीं है, एक चींटी जितनी भी नहीं है! तुम्हारे पेट में उतना भी नहीं है जितना एक चींटी के पेट में होता है! यह मत सोचो चूँकि तुमने बहुत अनुभव कर लिया है और वरिष्ठ हो गए हो, इसलिए तुम बेलगाम ढंग से हाथ नचाते हुए बड़ी-बड़ी बातें कर सकते हो। क्या तुम्हारे अनुभव और तुम्हारी वरिष्ठता उन वचनों के परिणामस्वरूप नहीं है जो मैंने कहे हैं? क्या तुम यह मानते हो कि वे तुम्हारे परिश्रम और कड़ी मेहनत द्वारा अर्जित किए गए हैं?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, दो देहधारण पूरा करते हैं देहधारण के मायने)। जब मैंने परमेश्वर के वचन पढ़ने समाप्त किए तो मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई। जब से मैं अगुआ बनी थी और मेरे काम के कुछ नतीजे आने लगे थे, तब से मैं आत्म-संतुष्ट और दंभी हो गई थी। मैंने सोचा कि मेरी काबिलियत अच्छी है, मैं बहुत होशियार हूँ और जैसे ही दूसरे मुझे कुछ समझाते हैं, मैं समझ जाती हूँ, इसलिए मैंने अपने भाई-बहनों को नीची नजरों से देखना शुरू कर दिया। जब मैं लू याओ की उसके कार्य में मदद कर रही थी, मैंने देखा कि कुछ समय तक प्रशिक्षण लेने के बाद भी वह स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर सकती थी और मेरे मन में घृणा महसूस हुई। मैंने सोचा कि जब मैं यह कर सकती हूँ तो वह क्यों नहीं और मैं उसे अहंभाव से डाँटने और फटकारने लगी। प्रचारक चुने जाने के बाद जब मैंने हान लू से अपेक्षाएँ रखीं तो मैंने एक बार फिर दूसरों को परखने के लिए खुद को ही मापदंड बना लिया। जब मैंने देखा कि हान लू को सिद्धांतों पर पकड़ नहीं है तो मैंने मन ही मन यह निष्कर्ष निकाल लिया कि वह ध्यान नहीं देती और उसे भी खूब डाँटा-फटकारा। इसका मतलब यह हुआ कि हान लू मेरे साथ अपने संबंध में और भी ज्यादा दबी और बेबस महसूस करने लगी। मुझे एहसास हुआ कि मैं लोगों के साथ सिद्धांतहीन ढंग से पेश आती थी। उनके आध्यात्मिक कद और काबिलियत के अनुसार अलग-अलग तरीके से पेश आने के बजाय मैंने लोगों को मापने के लिए खुद को ही मापदंड बना लिया। जब मेरे भाई और बहन मेरी अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते थे तो मैं उनके प्रति तिरस्कार भाव रखती थी, उन्हें नीचा समझती थी और अहंभाव के साथ उन्हें डाँटती थी। दरअसल परमेश्वर के वचनों के प्रबोधन और मेरे भाई-बहनों के मार्गदर्शन और मदद के बिना, मुझे भी यह कार्य करना नहीं आता। फिर भी मैंने बेशर्मी से इसे अपनी पूँजी के रूप में इस्तेमाल किया और लगातार अपने भाई-बहनों से घृणा की और उन्हें नीची नजरों से देखा। मुझमें सचमुच पूरी तरह से विवेक की कमी थी! अगुआओं और कार्यकर्ताओं से परमेश्वर की अपेक्षाएँ यह हैं कि वे समस्याओं को हल करने के लिए सत्य पर संगति करने में सक्षम हों, अपने भाई-बहनों के काम में किसी भी विचलन और समस्याओं को बताने में सक्षम हों, सिद्धांतों में प्रवेश करने के तरीके पर उनका मार्गदर्शन करें। लेकिन मैं न केवल अपनी जिम्मेदारियों को निभाने में असफल रही, बल्कि मैंने दूसरों को अहंभाव से डाँटा और अपने भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाया। यह अपना कर्तव्य निभाना कैसे हुआ? जब मैंने अपने किए के बारे में सोचा तो मुझे गहरा पछतावा हुआ। मुझमें इतनी मानवता की कमी कैसे हो सकती थी और मैंने अपने भाई-बहनों को जरा भी सच्ची मदद और प्रेम नहीं दिया?

एक दिन मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े और आखिरकार समझ गई कि मैं लोगों के साथ सही व्यवहार क्यों नहीं कर सकती थी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कई प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव हैं जो शैतान के स्वभावों में शामिल हैं, लेकिन जो सबसे स्पष्ट और सबसे अलग है, वह एक अहंकारी स्वभाव है। अहंकार मनुष्‍य के भ्रष्‍ट स्‍वभाव की जड़ है। लोग जितने ज्यादा अहंकारी होते हैं, उतने ही ज्यादा अविवेकी होते हैं और वे जितने ज्यादा अविवेकी होते हैं, उतनी ही ज्यादा उनके द्वारा परमेश्वर का प्रतिरोध किए जाने की संभावना होती है। यह समस्‍या कितनी गम्‍भीर है? अहंकारी स्‍वभाव के लोग न केवल बाकी सभी को अपने से नीचा मानते हैं, बल्कि, सबसे बुरा यह है कि वे परमेश्वर के प्रति कोई सम्मान नहीं रखते और उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता। भले ही लोग परमेश्वर में विश्‍वास करते और उसका अनुसरण करते दिखायी दें, तब भी वे उसे परमेश्वर क़तई नहीं मानते। उन्‍हें हमेशा लगता है कि उनके पास सत्‍य है और वे अपने बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं। यही अहंकारी स्वभाव का सार और जड़ है और इसका स्रोत शैतान में है। इसलिए, अहंकार की समस्‍या का समाधान अनिवार्य है। यह भावना कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ—एक तुच्‍छ मसला है। महत्‍वपूर्ण बात यह है कि एक व्‍यक्ति का अहंकारी स्‍वभाव उसे परमेश्वर, उसकी संप्रभुता और उसकी व्‍यवस्‍था के प्रति समर्पण करने से रोकता है; इस तरह का व्‍यक्ति हमेशा दूसरों पर नियंत्रण स्‍थापित करने व सत्ता के लिए परमेश्वर से होड़ करने की ओर प्रवृत्‍त होता है। इस तरह के व्‍यक्ति के हृदय में परमेश्वर के प्रति तनिक भी भय नहीं होता, परमेश्वर से प्रेम करना या उसके प्रति समर्पण करना तो दूर की बात है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “अगर, अपने हृदय में, तुम वास्तव में सत्य को समझते हो, तो तुम्हें पता होगा कि सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के प्रति समर्पण कैसे करना है, तुम स्वाभाविक रूप से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू कर दोगे। अगर तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह सही है, और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है, तो पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा—ऐसी स्थिति में तुम्हारे परमेश्वर को धोखा देने की संभावना कम से कम होगी। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जान-बूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, उनके कारण तुम खुद को ऊँचा उठाओगे, निरंतर खुद का दिखावा करोगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हारे दिल से परमेश्वर का स्थान छीन लेंगे, और अंततः तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुमसे अपने ही विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजा करवाएँगे। लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन इतनी बुराई करते हैं! बुरे कर्मों के समाधान के लिए, पहले उन्हें अपनी प्रकृति को सुधारना होगा। स्वभाव में बदलाव किए बिना, इस समस्या का मौलिक समाधान हासिल करना संभव नहीं है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। जब मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया तो मैं समझ गई कि अहंकारी प्रकृति ही लोगों के परमेश्वर का प्रतिरोध करने का मूल कारण है। मैंने सोचा कि कैसे मैंने कुछ कार्य अनुभव प्राप्त किया था और अपने कार्य में कुछ नतीजे हासिल किए थे और इसलिए मानती थी कि मेरी काबिलियत अच्छी है और मैं बहुत होशियार हूँ। जब मैं अपनी बहनों का उनके कार्य में मार्गदर्शन कर रही थी, मैं उनके साथ सिद्धांतों के अनुसार पेश नहीं आई और उनके आध्यात्मिक कद और काबिलियत के अनुसार उनसे अपेक्षाएँ नहीं कीं। इसके बजाय मैंने खुद को उन्हें मापने का मानक बना लिया और लगातार अपनी तुलना अपनी बहनों से की। जब मेरी बहनें मेरी अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरीं तो मैंने उनसे घृणा की, उन्हें डाँटा और फटकारा। अपना कर्तव्य निभाने में मैं लोगों के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार पेश नहीं आई, बल्कि लोगों और चीजों को देखने के लिए अपने अनुभवों और परिप्रेक्ष्यों को अपना आधार बनाया। क्या मैं अपने विचारों और दृष्टिकोणों को सत्य सिद्धांतों के रूप में नहीं मान रही थी? मैंने सोचा कि कैसे लू याओ और हान लू दोनों ने अभी-अभी कलीसिया का कार्य करने के लिए प्रशिक्षण लेना शुरू किया था। भले ही उनमें कमियाँ थीं, वे भी कार्य अच्छी तरह से करना चाहती थीं और मुझसे कुछ मदद पाने की उम्मीद करती थीं। लेकिन मैं एक अहंकारी स्वभाव में जी रही थी और उनकी मुश्किलों को बिल्कुल भी नहीं समझती थी। इसके बजाय मैंने अपेक्षाएँ कीं कि वे मेरे जैसी बनें और अगर वे मेरी अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरीं तो उन्हें फटकारा और डाँटा, नतीजतन वे मुझसे बेबस हो गईं। जब मैंने यह समझा तो मैं दिल से डर गई। मैंने कभी नहीं सोचा था कि अहंकारी स्वभाव मुझसे इस तरह की चीजें करवा सकता है और मुझे इसके प्रति इतना सुन्न बना सकता है कि मुझे इसका जरा भी एहसास न हो। मुझे लगा जैसे मैं सच में खतरे में हूँ और मैंने पश्चात्ताप में परमेश्वर से प्रार्थना की, अपने अहंकारी स्वभाव से जीना जारी नहीं रखना चाहती थी।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जिससे पता चला कि सत्य सिद्धांतों के अनुसार लोगों के साथ कैसे पेश आना है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “तुम्हें दूसरों के साथ कैसे व्यवहार करना चाहिए, यह परमेश्वर के वचनों में साफ तौर पर दिखाया या इंगित किया गया है। परमेश्वर मनुष्यों के साथ जिस रवैये से व्यवहार करता है, वही रवैया लोगों को एक-दूसरे के साथ अपने व्यवहार में अपनाना चाहिए। परमेश्वर हर एक व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार करता है? कुछ लोग अपरिपक्व कद वाले होते हैं; या कम उम्र के होते हैं; या उन्होंने सिर्फ कुछ समय के लिए परमेश्वर में विश्वास किया होता है; या वे प्रकृति-सार से बुरे नहीं होते, दुर्भावनापूर्ण नहीं होते, बस थोड़े अज्ञानी होते हैं या उनमें क्षमता की कमी होती है। या वे बहुत अधिक बाधाओं के अधीन हैं, और उन्हें अभी सत्य को समझना बाकी है, जीवन-प्रवेश पाना बाकी है, इसलिए उनके लिए मूर्खतापूर्ण चीजें करने या नादान हरकतें करने से खुद को रोक पाना मुश्किल है। लेकिन परमेश्वर लोगों के मूर्खता करने पर ध्यान नहीं देता; वह सिर्फ उनके दिलों को देखता है। अगर वे सत्य का अनुसरण करने के लिए कृतसंकल्प हैं, तो वे सही हैं, और अगर यही उनका उद्देश्य है, तो फिर परमेश्वर उन्हें देख रहा है, उनकी प्रतीक्षा कर रहा है, परमेश्वर उन्हें वह समय और अवसर दे रहा है जो उन्हें प्रवेश करने की अनुमति देता है। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर उन्हें एक अपराध के लिए भी खारिज कर देगा। ऐसा तो अक्सर लोग करते हैं; परमेश्वर कभी भी लोगों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करता। जब परमेश्वर लोगों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करता, तो लोग दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं? क्या यह उनके भ्रष्ट स्वभाव को नहीं दर्शाता है? यह निश्चित तौर पर उनका भ्रष्ट स्वभाव है। तुम्हें यह देखना होगा कि परमेश्वर अज्ञानी और मूर्ख लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है, वह अपरिपक्व अवस्था वाले लोगों के साथ कैसे पेश आता है, वह मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के सामान्य प्रकाशनों से कैसे पेश आता है और दुर्भावनापूर्ण लोगों के साथ किस तरह का व्यवहार करता है। परमेश्वर अलग-अलग तरह के लोगों के साथ अलग-अलग ढंग से पेश आता है, उसके पास विभिन्न लोगों की अलग-अलग दशाओं को प्रबंधित करने के भी कई तरीके हैं। तुम्हें इन सत्यों को समझना होगा। एक बार जब तुम इन सत्यों को समझ जाओगे, तब तुम मामलों को अनुभव करने का तरीका जान जाओगे और लोगों के साथ सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करने लगोगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों से सीखना चाहिए)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि परमेश्वर लोगों के साथ खासकर सिद्धांतपूर्ण तरीके से पेश आता है। लोगों की काबिलियत और आध्यात्मिक कद के आधार पर परमेश्वर की अपेक्षाएँ अलग-अलग होती हैं। वह सबके लिए एक जैसा तरीका नहीं अपनाता, बल्कि उनकी वास्तविक परिस्थितियों के आधार पर लोगों के साथ निष्पक्षता से पेश आता है। भले ही लू याओ की काबिलियत थोड़ी कमजोर थी, ऐसा नहीं था कि वह पूरी तरह से कार्य करने के लायक नहीं थी। इसके अलावा उसने अपना कर्तव्य लगन से किया और एक बार जब वह समझ गई तो वह समय और प्रयास लगाने में सक्षम थी, इसे अच्छी तरह से करने की पूरी कोशिश कर रही थी। जहाँ तक उन चीजों की बात है जो वह नहीं समझती थी, मुझे धैर्यपूर्वक उसके साथ संगति करने और उसका मार्गदर्शन करने की जरूरत थी। कभी-कभी जब मैं चीजों को साफ-साफ नहीं समझा पाती थी तो मुझे दरअसल उसे कार्य करके समझाने की जरूरत पड़ती थी। आखिरकार जब तुम कोई कर्तव्य करने के लिए प्रशिक्षण लेना शुरू करते हो तो हमेशा परिचित होने की एक प्रक्रिया होती है। भले ही हान लू ने पहले सफाई का कार्य किया था, इसका यह मतलब नहीं था कि वह सब कुछ समझ गई थी और हर चीज की असलियत जान चुकी थी। मुझे उसे डाँटने और फटकारने के बजाय संगति करनी चाहिए थी और उसकी मदद करनी चाहिए थी। यह समझने के बाद मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, अपने भाई-बहनों के साथ निष्पक्ष रूप से और सत्य सिद्धांतों के अनुसार पेश आने को तैयार हो गई, ताकि मैं अपनी जिम्मेदारी पूरी कर सकूँ।

मैंने सोचा कि मेरे इतने अहंकारी होने का कारण यह था कि मैं लगातार अपनी अच्छी काबिलियत और चीजों को जल्दी समझने की अपनी क्षमता को पूँजी के रूप में इस्तेमाल करती थी। बाद में परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद आखिरकार मुझे इस समस्या की कुछ समझ हासिल हुई। परमेश्वर कहता है : “क्या तुम लोग यह कहोगे कि अपना कर्तव्य पर्याप्त ढंग से पूरा करना मुश्किल होता है? वास्तव में, ऐसा नहीं है; लोगों को केवल विनम्रता का रुख अपनाने में सक्षम होना होगा, थोड़ी समझ रखनी होगी और एक उपयुक्त स्थिति अपनानी होगी। चाहे तुम कितने भी शिक्षित हो, चाहे तुमने कोई भी पुरस्कार जीते हों, या तुम्हारी कुछ भी उपलब्धियाँ हों, और तुम्हारा रुतबा और दर्जा कितना भी ऊँचा हो, तुम्हें इन सभी चीजों को छोड़ देना चाहिए, तुम्हें अपनी ऊँची गद्दी से उतर जाना चाहिए—इन सबका कोई मोल नहीं है। चाहे वे महिमामयी चीजें कितनी भी महान हों, परमेश्वर के घर में वे सत्य से बड़ी नहीं हो सकती हैं; क्योंकि ऐसी सतही चीजें सत्य नहीं हैं, और उसकी जगह नहीं ले सकती हैं। तुम्हें यह मसला स्पष्ट होना चाहिए। यदि तुम कहते हो, ‘मैं बहुत गुणी हूँ, मेरे पास एक बहुत तेज दिमाग है, मेरे पास त्वरित सजगता है, मैं शीघ्रता से सीखता हूँ, और मेरी याददाश्त बहुत अच्छी है, इसलिए मैं अंतिम निर्णय लेने योग्य हूँ,’ यदि तुम हमेशा इन चीजों को पूंजी के रूप में उपयोग करते हो, उन्हें कीमती और सकारात्मक मानते हो, तो यह परेशानी वाली बात है। अगर तुम्हारा दिल इन चीजों के कब्जे में है, अगर इन चीजों ने तुम्हारे दिल में जड़ें जमा ली हों, तो तुम्हारे लिए सत्य स्वीकारना मुश्किल हो जाएगा—और इसके दुष्परिणामों की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इस प्रकार, सबसे पहले तुम उन चीजों का त्याग करो, उन्हें नकारो जो तुम्हें प्रिय हों, जो तुम्हें अच्छी लगती हों और जो तुम्हारे लिए बेशकीमती हों। वे चीजें सत्य नहीं हैं; बल्कि वे तुम्हें सत्य में प्रवेश करने से रोक सकती हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि किसी व्यक्ति की काबिलियत और खूबियाँ अंतर्निहित गुण हैं—वे परमेश्वर से आते हैं। इनके होने का यह अर्थ नहीं है कि व्यक्ति के पास सत्य वास्तविकताएँ भी हैं। अतीत में मैं लगातार यह मानती थी कि मेरी काबिलियत अच्छी है, मैं चीजों को जल्दी समझ जाती हूँ और समस्याओं को खोजकर उन्हें हल कर सकती हूँ। मैंने इसे पूँजी के रूप में इस्तेमाल किया और इस पर दंभ महसूस किया। लेकिन अब मैंने देखा कि इस पूँजी पर जीते हुए मैं और भी ज्यादा अहंकारी और दंभी हो गई। मेरी नजरों में दूसरे लोगों का कोई मोल नहीं था और परमेश्वर मेरे दिल में नहीं था। भले ही ये अंतर्निहित गुण काम करने और अपना कर्तव्य निभाने में फायदेमंद हैं, अगर मैं सत्य स्वीकार नहीं सकती तो चाहे मेरी काबिलियत कितनी भी अच्छी हो या मेरी खूबियाँ कितनी भी असाधारण हों, मैं फिर भी केवल परमेश्वर का प्रतिरोध ही कर पाऊँगी।

बाद में कार्य की आवश्यकताओं के कारण मैंने दूसरी कलीसिया के नए चुने गए अगुआओं और कार्यकर्ताओं का काम करने में मार्गदर्शन किया। उनमें से कुछ ने अभी-अभी प्रशिक्षण लेना शुरू किया था और कुछ नए विश्वासी थे और कई ऐसे काम थे जो वे करना नहीं जानते थे। क्योंकि सीसीपी का उत्पीड़न बहुत गंभीर था, हम व्यक्तिगत रूप से चीजों पर चर्चा नहीं कर सकते थे, इसलिए मैंने उनके लिए विस्तृत कार्य प्रक्रियाएँ तैयार कीं। लेकिन बाद में मैंने देखा कि उनके कार्य में अभी भी दिशा का अभाव था और मैं फिर से गुस्सा दिखाने वाली थी, “अतीत में मेरे भाई-बहनों ने भी मेरा इसी तरह मार्गदर्शन किया था और मैं तुरंत समझ गई थी और उसी से दूसरी बातों को भी समझने में सक्षम थी। तुम्हारे साथ यह इतना मुश्किल क्यों है?” जब मैं उन पर गुस्सा करने और उन्हें नीचा दिखाने ही वाली थी, तभी मुझे अचानक परमेश्वर के वचन याद आ गए : “परमेश्वर मनुष्यों के साथ जिस रवैये से व्यवहार करता है, वही रवैया लोगों को एक-दूसरे के साथ अपने व्यवहार में अपनाना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों से सीखना चाहिए)। मैंने सोचा कि वे सभी नए हैं और उनमें से कुछ ने तो अभी-अभी प्रशिक्षण लेना शुरू किया है। यह पूरी तरह से सामान्य था कि वे सिद्धांतों पर तुरंत पकड़ नहीं बना पाएँ। इसके अलावा पत्राचार के दौरान कुछ बातों का अस्पष्ट रह जाना और कुछ बातों को समझना मुश्किल होना स्वाभाविक है। मैंने परमेश्वर से यह खोजने के लिए प्रार्थना की कि उन्हें कार्य करना सीखने में कैसे मदद की जाए। तभी मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “तुम्हें अपनी सारी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए; तुम्हें उन कलीसियाओं का ध्यान रखना चाहिए जिनमें अपेक्षाकृत कमजोर और अपेक्षाकृत खराब कार्य क्षमता वाले लोग प्रभारी हैं। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इन मामलों पर विशेष ध्यान देना चाहिए और इनमें विशेष मार्गदर्शन प्रदान करना चाहिए। विशेष मार्गदर्शन का क्या अर्थ है? तुम्हें सत्य पर संगति करने के अलावा, ज्यादा विशिष्ट और विस्तृत निर्देश और सहायता भी प्रदान करनी चाहिए, जिसके लिए संप्रेषण के संबंध में ज्यादा प्रयास करने की जरूरत पड़ती है। अगर तुम उन्हें कार्य समझाते हो और फिर भी उन्हें समझ नहीं आता है, और वे यह नहीं जानते हैं कि इसे कैसे कार्यान्वित करना है, या भले ही वे इसे धर्म-सिद्धांत के संबंध में समझ जाते हैं, और ऐसा लगता है कि वे जानते हैं कि इसे कैसे कार्यान्वित करना है, लेकिन फिर भी तुम अनिश्चित हो और इस बारे में थोड़ा चिंतित हो कि वास्तविक कार्यान्वयन कैसे होगा, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें उनका मार्गदर्शन करने और उनके साथ कार्य को कार्यान्वित करने के लिए स्थानीय कलीसिया में व्यक्तिगत रूप से गहराई में जाने की जरूरत है। जिन कार्यों को कार्य-व्यवस्थाओं की अपेक्षाओं के अनुसार करने की जरूरत है, उनसे संबंधित विशिष्ट व्यवस्थाओं को करते समय उन्हें सिद्धांत बता दो, जैसे कि पहले क्या करना है और उसके बाद क्या करना है, और लोगों का उचित रूप से कैसे आवंटन करना है—इन सभी चीजों को उचित रूप से व्यवस्थित करो। यह व्यावहारिक रूप से उनके कार्य में उनका मार्गदर्शन करना है, जो कि सिर्फ नारे लगाने और अंधाधुंध आदेश देने और कुछ धर्म-सिद्धांतों के साथ उन्हें व्याख्यान देने और फिर, अपना कार्य खत्म हो चुका मान लेने के विपरीत है—वह विशिष्ट कार्य करने की अभिव्यक्ति नहीं है, और नारे लगाना और आसपास के लोगों पर हुक्म चलाना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी नहीं है। एक बार जब स्थानीय कलीसिया के अगुआ या पर्यवेक्षक कार्य की जिम्मेदारी उठा पाते हैं, और कार्य सही रास्ते पर आ जाता है, और मूल रूप से कोई प्रधान समस्या नहीं रह जाती है, सिर्फ तभी अगुआ या कार्यकर्ता वहाँ से जा सकते हैं(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (10))। मैंने सोचा कि आखिर वे नए सदस्य हैं। उन्हें सत्य की उथली समझ है और सिद्धांतों पर उनकी पकड़ नहीं है, इसलिए जब मैंने उन्हें सिर्फ कार्य की प्रक्रिया ही बताई थी, तो उनके लिए उसे समझ पाना सच में आसान नहीं था। बाद में मैंने और मेरी साझेदार ने उनके लिए हर कार्य की समस्याओं का व्यावहारिक रूप से विश्लेषण किया। हमने विभिन्न समस्याओं के संबंध में सिद्धांतों पर संगति की और उन्हें हल करने के लिए रास्ते बताए। इस तरह कुछ समय तक साथ काम करने के बाद उन सभी को अपने कर्तव्यों में एक दिशा और रास्ता मिल गया। जब मैंने यह नतीजा देखा तो मैं बहुत उत्साहित हुई। मुझे एहसास हुआ कि अगर तुम सिद्धांतों के अनुसार लोगों के साथ व्यवहार करते हो और सचमुच अपने भाई-बहनों को उनका कार्य करने में मार्गदर्शन करते हो तो तुम्हारा दिल सहज महसूस करता है।

इस अवधि के अपने अनुभवों के माध्यम से मुझे अपने अहंकारी स्वभाव की कुछ समझ हासिल हुई और लोगों के साथ व्यवहार करने के सिद्धांतों के बारे में भी और अधिक समझी। भले ही जब मैं अभी भी कम काबिलियत वाले या धीरे-धीरे काम करने वाले भाई-बहनों को देखती हूँ तो मुझे कभी-कभी गुस्सा आता है, मैं तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना कर सकती हूँ और उनके साथ सिद्धांत के अनुसार व्यवहार कर सकती हूँ। इस तरह अपना कर्तव्य निभाने से मेरा दिल और अधिक सहज महसूस करता है।

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