81. गुर्दे की बीमारी के दोबारा होने से सीखे गए सबक
सन् 2000 में मैं 24 साल की थी और उस समय मुझे क्रोनिक ग्लोमेरुलोनेफ्राइटिस का पता चला, जिसमें पेशाब में गंभीर रूप से खून आता था और मेरे पेशाब में प्रोटीन का स्तर खतरनाक हद तक बढ़ गया था। मैं बहुत कमजोर थी और मुझे हर दिन ज्यादा से ज्यादा थकान महसूस होती थी। मैं फर्श पर झाड़ू लगाने के लिए झाड़ू तक नहीं पकड़ पाती थी, कभी-कभी मेरे पति को मुझे उठाकर ऊपर सीढ़ियों पर ले जाना पड़ता था। डॉक्टर ने मुझे इलाज के लिए हार्मोन लेने को कहा और लगभग सात दिन दवा लेने के बाद मेरे लगभग सारे बाल झड़ गए, मेरे शरीर में सूजन आ गई थी, लेकिन मेरी हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। डॉक्टर ने कहा कि इसका एकमात्र इलाज गुर्दे को बदलवाना है। यह सुनकर मैंने सोचा, “यह तो लगभग मौत की सजा ही है? गुर्दा बदलवाने में लाखों युआन का खर्च आएगा और मेरा परिवार इतना खर्च नहीं उठा सकता!” इतनी कम उम्र में मरने के खयाल से मुझे बहुत दुख हुआ और मेरे अंदर जीने की इच्छा बहुत प्रबल थी। बाद में मेरी माँ ने मुझे प्रभु में विश्वास करने के लिए प्रोत्साहित किया और मैंने सोचा, जब मैं इतनी बीमार हूँ, तो कोशिश करने में क्या हर्ज है, इसलिए मैंने प्रभु से प्रार्थना करनी शुरू कर दी। हैरानी की बात है कि सात दिन के बाद जब मैंने जाँच करवाई, तो मेरे ब्लड सीरम प्रोटीन और यूरिन प्रोटीन, दोनों की रिपोर्ट सामान्य आई। मुझे विश्वास ही नहीं हुआ और मैंने सोचा कि शायद जाँच के नतीजों में कोई गलती हो गई है। मेरा इलाज करने वाले डॉक्टरों को भी यह बहुत अद्भुत लगा और उन्होंने इसे एक चमत्कार कहा। उस समय मैंने सोचा, “परमेश्वर ने ही मेरी बीमारी ठीक की है और मुझे अनुग्रह और आशीषें दी हैं, इसलिए अब से मुझे पूरे दिल से परमेश्वर में विश्वास करना चाहिए और मुझे विश्वास है कि परमेश्वर मुझे और भी आशीष देगा।” डॉक्टर ने मुझे यह भी खास तौर पर याद दिलाया, “ध्यान रखना कि तुम्हारा रक्तचाप न बढ़े, क्योंकि उच्च रक्तचाप से तुम्हारी गुर्दे की बीमारी दोबारा उभर सकती है।” उसके बाद मैं सहायक उपचार के तौर पर रक्तचाप की दवा लेती रही और मेरा रक्तचाप सामान्य बना रहा। जल्द ही पेशाब में खून आना बंद हो गया और मुझे शरीर में ताकत महसूस होने लगी।
सन् 2004 में मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार कर लिया और मैं और भी खुश हो गई। मुझे लगा कि मैं कितनी भाग्यशाली हूँ, कि परमेश्वर ने मुझे दूसरा जीवन दिया है और मुझे जीने का मौका दिया है। मुझे लगा कि उसने मुझे अपनी वाणी सुनने और अपने सिंहासन के सामने लौटने का मौका देकर मुझ पर अनुग्रह किया है और उसने मुझे बहुत आशीष दी है। परमेश्वर के प्रेम को चुकाने के लिए कलीसिया ने मुझे जो भी कर्तव्य सौंपा, मैंने उसे उत्साह से पूरा किया, भले ही मेरे पति ने परमेश्वर में मेरी आस्था का विरोध किया, मैं बाधित नहीं हुई और फिर भी अपने कर्तव्यों में लगी रही। सन् 2012 में सुसमाचार का प्रचार करते समय मुझे पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया, रिहाई के बाद मेरे पति ने मेरी आस्था का और भी ज्यादा विरोध किया और आखिरकार उसने मुझे तलाक दे दिया। जिसके बाद मैंने खुद को पूरे समय अपने कर्तव्यों में लगा दिया।
सन् 2017 में मेरा रक्तचाप 180 mmHg तक बढ़ने लगा था और दवा से कोई फायदा होता नहीं दिख रहा था। सन् 2020 तक मैं पूरी तरह से थक चुकी थी, सीढ़ियाँ चढ़ने में ही मेरी साँस फूल जाती थी और मैं अपने कपड़े तक नहीं धो पाती थी। मैं मन-ही-मन चिंतित हुई, “क्या मेरी गुर्दे की बीमारी दोबारा उभर आई है? अगर यह वापस आ गई तो मैं क्या करूँगी?” लेकिन फिर मैंने सोचा, “परमेश्वर ने मुझे पहले भी इतनी गंभीर बीमारी से ठीक किया है, पिछले कुछ सालों में मैंने अपना काम और परिवार छोड़ दिया है और कलीसिया द्वारा सौंपे गए सभी कर्तव्यों के प्रति मैंने समर्पण किया है। मेरे इतने सारे त्याग और खपाने की वजह से परमेश्वर निश्चित रूप से मेरे साथ कुछ नहीं होने देगा।” बाद में मेरी हालत और खराब हो गई, इसलिए मैं डॉक्टर को दिखाने के लिए घर चली गई। मैं जाँच के लिए अस्पताल गई और पता चला कि मेरा रक्तचाप बढ़ा हुआ है, मुझमें खून की गंभीर कमी है और मेरा ब्लड शुगर भी बढ़ गया है। यूरिन टेस्ट की रिपोर्ट भी पॉजिटिव आई। डॉक्टर ने मुझे बताया कि मेरी गुर्दे की बीमारी दोबारा उभर आई है और अगर यह गंभीर हो गई, तो इससे गुर्दा खराब हो सकता है और मौत भी हो सकती है। ये नतीजे देखकर मुझे समझ नहीं आया कि मैं कैसा महसूस करूँ। अपनी आस्था के इन सालों में मैंने अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपने परिवार, करियर और भौतिक सुखों को त्याग दिया था और मैंने सोचा था कि इन त्यागों को करने से परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा। मैंने कभी उम्मीद नहीं की थी कि अंत में मेरी पुरानी बीमारी पहले से भी बदतर होकर वापस आ जाएगी। एक पल के लिए मुझे इन सालों में किए गए त्यागों और प्रयासों पर पछतावा होने लगा। अगर मैंने अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर न छोड़ा होता, तो आज मैं इस अकेली और बेबस स्थिति में न होती, जिसमें मैं अब हूँ। खासकर जब मैंने मेरा इलाज कर रहे डॉक्टर झांग को यह कहते हुए सुना कि मेरी बीमारी के इलाज में तीन साल लगेंगे, तो मैं और भी ज्यादा व्याकुल और चिंतित हो गई और मैंने सोचा, “इन तीन सालों के इलाज में एक लाख युआन से ज्यादा खर्च आएगा। मैं इतने पैसे कहाँ से लाऊँगी?” मैं अपने इलाज के लिए पैसे कमाने के वास्ते काम करने के बारे में सोचने लगी। लेकिन सिर्फ एक महीने काम करने के बाद पुलिस ने मुझे फोन किया और पूछा कि मैं कहाँ हूँ और मुझसे वापस जाकर परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने वाले “तीन कथनों” पर हस्ताक्षर करने को कहा। मुझे डर था कि पुलिस मुझे फिर से गिरफ्तार कर लेगी, इसलिए मुझे वह इलाका छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। मैंने मन ही मन सोचा, “मेरी बीमारी का इलाज अभी भी लगातार चलना जरूरी है और अगर मैं यह इलाका छोड़ती हूँ, तो मुझे डॉक्टर झांग की वह दवा नहीं मिल पाएगी जो वह अपने परिवार के गुप्त नुस्खे से बना रहे हैं। पहले मेरी बीमारी पर सिर्फ डॉक्टर झांग की दवा ही कारगर रही है। एक महीने उनकी दवा लेने के बाद मुझे ऊर्जा महसूस हुई, लेकिन दूसरी पारंपरिक चीनी दवाएँ मुझ पर काम करती नहीं दिखतीं। साथ ही चूँकि पुलिस मुझे गिरफ्तार करने की कोशिश में है, इसलिए मैं काम करके पैसे नहीं कमा सकती और इलाज के लिए पैसे के बिना पता नहीं मैं कब तक जीवित रह पाऊँगी।” उसके बाद मैं वाकई बहुत हताश अवस्था में रही और हर बार जब मैं सोचती कि मेरे पास कुछ भी नहीं बचा है, तो मेरा दिल दर्द से भर जाता था, मैं पहले की तरह अपने कर्तव्यों के लिए उतना जोश नहीं जुटा पाती थी।
एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा :
5. यदि तुम हमेशा मेरे प्रति बहुत निष्ठावान रहे हो, मेरे लिए तुममें बहुत प्रेम है, मगर फिर भी तुम बीमारी की पीड़ा, वित्तीय तनाव, और अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के द्वारा त्यागे जाना सहते हो या जीवन में किसी भी अन्य दुर्भाग्य को सहन करते हो, तो क्या तब भी मेरे लिए तुम्हारी निष्ठा और प्यार बना रहेगा?
6. यदि जिसकी तुमने अपने हृदय में कल्पना की है उसमें से कुछ भी मेरे किए से मेल नहीं खाता, तो तुम्हें अपने भविष्य के मार्ग पर कैसे चलना चाहिए?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (2)
उसके वचनों में ऐसा लगा मानो परमेश्वर आमने-सामने मुझसे सवाल कर रहा हो, मुझे विचार करने को मजबूर कर रहा हो। इन सालों में मैंने त्याग किए थे और अपने कर्तव्य में खुद को खपाया था, इसलिए मैं खुद को परमेश्वर की एक सच्ची विश्वासी समझती थी और मानती थी कि मैं परमेश्वर के प्रति वफादार और समर्पित हूँ। जब मेरी गुर्दे की बीमारी दोबारा लौटी, एक ऐसी बीमारी जिसका इलाज नहीं हो सकता था और जिससे मौत भी हो सकती थी, तो मैंने इसमें परमेश्वर का इरादा नहीं खोजा, बल्कि उसे गलत समझा और उसके बारे में शिकायत की। मुझे तो परमेश्वर के लिए की गई अपनी खपत पर भी पछतावा हुआ और मैं लापरवाही से अपना कर्तव्य करने लगी। क्या मैं इसमें परमेश्वर के साथ विश्वासघात नहीं कर रही थी? मैंने देखा कि इतने सालों की आस्था के बाद भी मुझमें परमेश्वर के प्रति जरा भी वफादारी नहीं थी। मुझे बहुत अपराध बोध हुआ। परमेश्वर ने मुझे बचाने के लिए ऐसी परिस्थितियाँ व्यवस्थित की थीं जो मेरी धारणाओं के अनुरूप नहीं थीं, लेकिन मैं परमेश्वर के श्रमसाध्य इरादे को नहीं समझी, बल्कि नकारात्मक हो गई और अपने काम में ढीली पड़ गई। मुझमें सचमुच मानवता और विवेक की कमी थी! इसके बाद मैं उतनी व्यथित नहीं रही और मुझे अपने कर्तव्य के लिए फिर से कुछ प्रेरणा मिली।
कुछ महीने बाद मुझे शरीर में अभी भी कमजोरी महसूस होती थी, मेरे दिल की धड़कनें बढ़ जाती थीं और मेरी साँस फूलती थी। कभी-कभी तो सीढ़ियाँ चढ़ते समय मुझे किसी के सहारे की जरूरत होती थी। खासकर जब मैं थक जाती थी तो मेरा रक्तचाप बढ़ जाता था। मैंने सोचा कि डॉक्टर ने कहा था कि इस हालत से गुर्दा नाकाम हो सकता है और मुझे चिंता होने लगी, “अगर मैं मर गई तो क्या होगा?” अपनी आस्था के इन सालों में मैंने अपने परिवार और करियर को त्याग दिया था। तो अगर मैं मर गई तो क्या इतने सालों का कष्ट बेकार नहीं चला जाएगा? उस समय मैंने दो अच्छे स्थानीय पारंपरिक चीनी डॉक्टर ढूँढ़े, जड़ी-बूटियों की दवा ली और एक्यूपंक्चर भी करवाया, लेकिन किसी से भी कोई फायदा नहीं हुआ। एक बार कुछ सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद मैं इतनी थक गई कि हाँफते हुए बिस्तर पर गिर पड़ी। मैंने सोचा कि मेरी हालत लगातार बिगड़ती जा रही है, पता नहीं मैं कब मर जाऊँ और मेरा दिल दर्द से भर गया। मैं सोचे बिना नहीं रह सकी, “परमेश्वर! तुम्हारा अनुसरण करने के इन सभी सालों में मैंने अपना परिवार और करियर छोड़ दिया है, मैंने कष्ट सहे हैं और खुद को खपाया है। क्या तुम इस सब की वजह से मेरी बीमारी ठीक करके मुझे कुछ और साल जीने नहीं दे सकते?” बाद में जब मैं शांत होकर अपनी दशा पर विचार और चिंतन करने लगी, तो मुझे आखिरकार एहसास हुआ कि परमेश्वर से इस तरह की माँगें करना अविवेकपूर्ण था। मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया और मैंने उसे पढ़ने के लिए ढूँढ़ निकाला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अहंकार की कई अभिव्यक्तियाँ होती हैं। उदाहरण के लिए, मान लो कि कोई व्यक्ति जो परमेश्वर में विश्वास करता है, उसकी कृपा की माँग करता है—तुम किस आधार पर इसकी मांग कर सकते हो? तुम शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए व्यक्ति हो, एक सृजित प्राणी हो; यह तथ्य कि तुम जीवित हो और सांस लेते हो, यह पहले से ही परमेश्वर की सबसे बड़ी कृपा है। तुम परमेश्वर ने पृथ्वी पर जो कुछ भी बनाया है उसका आनंद ले सकते हो। परमेश्वर ने तुम्हें काफी कुछ दिया है, तो तुम उससे और अधिक की माँग क्यों करते हो? ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग कभी भी अपने भाग्य से संतुष्ट नहीं होते हैं। वे हमेशा सोचते हैं कि वे दूसरों से बेहतर हैं, उनके पास और अधिक होना चाहिए, इसलिए वे हमेशा परमेश्वर से इसकी माँग करते हैं। यह उनके अहंकारी स्वभाव का परिचायक है। चाहे लोग अपने मुँह से न कहें, लेकिन जब वे पहली बार परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करते हैं, तो अपने दिलों में सोच रहे होते हैं, ‘मैं स्वर्ग जाना चाहता हूँ, नरक नहीं। मैं चाहता हूँ कि न केवल मैं, बल्कि मेरा पूरा परिवार आशीष पाए। मैं अच्छा भोजन खाना चाहता हूँ, अच्छे कपड़े पहनना चाहता हूँ, अच्छी चीजों का आनंद लेना चाहता हूँ। मुझे एक अच्छा परिवार, एक अच्छा पति, (या पत्नी) और अच्छे बच्चे चाहिए। अंततः मैं राजा की तरह राज करना चाहता हूँ।’ ये सब सिर्फ उनकी आवश्यकताओं और माँगों से जुड़ा है। उनका यह स्वभाव, ये बातें जो वे अपने दिलों में सोचते हैं, ये असाधारण इच्छाएँ—ये सब मनुष्य की अहंकारी प्रकृति की प्रतीक हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? बात आखिरकार लोगों की हैसियत पर आती है। मनुष्य एक सृजित प्राणी है, जो धूल से उत्पन्न हुआ है; परमेश्वर ने मिट्टी से मनुष्य को बनाया और उसमें जीवन का श्वास फूँका। मनुष्य की ऐसी निम्न हैसियत है, फिर भी लोग बहुत-सी इच्छाएं लेकर परमेश्वर के सामने आते हैं। मनुष्य की हैसियत इतनी निम्न है कि उसे अपना मुँह खोलकर परमेश्वर से कुछ नहीं माँगना चाहिए। तो लोगों को क्या करना चाहिए? उन्हें निंदा की परवाह न करते हुए कड़ी मेहनत करनी चाहिए, पूरे मन से जुटकर काम करना चाहिए और खुशी से समर्पण करना चाहिए। यह खुशी-खुशी नीचता को अपनाने का प्रश्न नहीं है—खुशी-खुशी नीचता को मत अपनाओ; लोग इसी हैसियत के साथ पैदा होते हैं; उन्हें जन्मजात रूप से आज्ञाकारी और नीच होना चाहिए, क्योंकि उनका रुतबा नीच है, और इसलिए उन्हें परमेश्वर से चीजों की माँग नहीं करनी चाहिए, न ही परमेश्वर से असाधारण अपेक्षाएँ रखनी चाहिए। उनमें ऐसी चीजें नहीं मिलनी चाहिए। एक सरल उदाहरण देखो। किसी अमीर परिवार ने एक नौकर रखा। उस अमीर परिवार में इस नौकर की स्थिति विशेष रूप से निम्न थी, लेकिन फिर भी उसने घर के मालिक से कहा : ‘मैं आपके बेटे की टोपी पहनना चाहता हूँ, मैं वैसे चावल खाना चाहता हूँ जैसे आप खाते हैं, आपके कपड़े पहनना चाहता हूँ और आपके बिस्तर पर सोना चाहता हूँ। आप जो भी वस्तुएँ उपयोग करते हैं, चाहे वे सोने की हों या चाँदी की, मुझे वे चाहिए! मैं अपने काम में बहुत योगदान देता हूँ, और आपके घर में रहता हूँ, इसलिए मुझे वे चाहिए!’ मालिक को उसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? मालिक कहेगा : ‘तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम क्या हो, तुम्हारी भूमिका क्या है : तुम एक नौकर हो। मैं अपने बेटे को वह देता हूँ जो वह चाहता है, क्योंकि उसकी हैसियत वह है। तुम्हारी हैसियत, तुम्हारी पहचान क्या है? तुम ये चीजें माँगने के योग्य नहीं हो। तुम्हें जाकर अपना काम करना चाहिए, जाओ और अपनी हैसियत और पहचान के अनुसार अपने कर्तव्य पूरे करो।’ क्या ऐसे व्यक्ति में कोई विवेक है? परमेश्वर में विश्वास रखने वाले बहुत-से लोग ऐसे हैं जिनमें उतना विवेक नहीं है। परमेश्वर में विश्वास करने की शुरुआत से ही, उनके पास गुप्त उद्देश्य होते हैं, और आगे बढ़ते हुए, वे लगातार परमेश्वर से माँगें करते हैं : ‘मैं चाहता हूँ कि पवित्र आत्मा का कार्य मेरा अनुसरण करे क्योंकि मैं सुसमाचार का प्रचार करता हूँ! जब मैं बुरे काम करता हूँ तो तुम्हें मुझे माफ और सहन भी करना होगा! अगर मैं बहुत काम करता हूँ, तो तुम्हें मुझे इनाम देना होगा!’ संक्षेप में, लोग हमेशा परमेश्वर से चीजें चाहते हैं, वे हमेशा लालची रहते हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध की जड़ में अहंकारी प्रकृति है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे सचमुच संतप्त महसूस हुआ। मैं परमेश्वर के वचनों में वर्णित उस सेवक की तरह थी, जिसमें विवेक की पूरी तरह से कमी थी। मालिक ने उसे भोजन, आश्रय और यहाँ तक कि इनाम भी दिया, लेकिन सेवक अपने मालिक का आभारी होना नहीं जानता था। उसने सोचा कि अपने मालिक के लिए कुछ काम करके उसने पुण्य कमाया है और इसलिए उसने अपने मालिक से माँगें कीं, वह मालिक की हर चीज का आनंद लेना चाहता था। मैंने देखा कि यह सेवक सचमुच घमंडी, विवेकहीन और बेशर्म था। मैंने उस समय के बारे में सोचा जब मेरी बीमारी का इलाज नहीं हो सकता था और मैं मौत के कगार पर थी। खासकर जब मैंने अपनी जैसी ही बीमारी वाले लोगों को मरते देखा, तो मेरी निराशा की भावना और बढ़ गई। प्रभु में विश्वास करने के बाद उसने मेरी बीमारी दूर कर दी और मुझे जीने का मौका दिया, बाद में मैं इतनी भाग्यशाली रही कि मैंने परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार किया और सत्य प्राप्त करने और परमेश्वर द्वारा बचाए जाने का अवसर पाया। यह सब परमेश्वर का असाधारण उत्कर्ष और अनुग्रह है। मैंने परमेश्वर से बहुत कुछ पाया है, लेकिन मैं आभारी होना नहीं जानती थी। मैंने सोचा कि थोड़ा-सा कर्तव्य निभाकर मैंने पुण्य कमा लिया है और इसलिए मैंने परमेश्वर से माँगें कीं, उससे मुझे फिर से बीमार न पड़ने देने के लिए कहा। जब मेरी बीमारी दोबारा लौटी और मेरा मौत से सामना हुआ तो मैंने समर्पण नहीं किया। इसके बजाय मैंने बहस की और शिकायत की। मैंने बेशर्मी से माँग की कि परमेश्वर मेरी उम्र बढ़ा दे और मुझे कुछ और साल जीने दे। मात्र एक सृजित प्राणी होने के नाते मुझमें परमेश्वर से माँगें करने की क्या योग्यता थी? परमेश्वर सारी सृष्टि का प्रभु है और यह परमेश्वर ही है जो तय करता है कि किसे आशीष देनी है और किसे नहीं। फिर भी मुझमें परमेश्वर के सामने बहस करने और शर्तें रखने की हिम्मत थी। मैं सचमुच घमंडी और विवेकहीन थी! मैंने यह भी देखा कि मैं पूरी तरह से नीच, लालची और अंतरात्मा से रहित थी। यह सब महसूस करके मुझे अंदर ही अंदर गहरा अपराध बोध हुआ।
एक दिन मैंने फिल्म “उद्धार” में परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा और इससे मुझे अपनी दशा के बारे में कुछ समझ मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “बहुत सारे लोग मुझ में विश्वास करते हैं ताकि हो सकता है मैं उन्हें चंगा कर दूँ। बहुत सारे लोग मुझ में विश्वास करते हैं ताकि हो सकता है मैं उनके शरीर से अशुद्ध आत्माओं को निकालने के लिए अपनी शक्ति का इस्तेमाल करूँ और बहुत-से लोग मुझसे बस शांति और आनंद प्राप्त करने के लिए मुझ में विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ और अधिक भौतिक संपदा माँगने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ इस जीवन को शांति से गुजारने और आने वाले संसार में सुरक्षित और स्वस्थ रहने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल नरक की पीड़ा से बचने के लिए और स्वर्ग के आशीष प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत सारे लोग केवल अस्थायी आराम के लिए मुझ में विश्वास करते हैं, फिर भी आने वाले संसार में कुछ भी हासिल करने का प्रयास नहीं करते। जब मैं लोगों पर अपना क्रोध उतारता हूँ और कभी उनके पास रही सारी सुख-शांति छीन लेता हूँ, तो मनुष्य शंकालु हो जाता है। जब मैं मनुष्य को नरक का कष्ट देता हूँ और स्वर्ग के आशीष वापस ले लेता हूँ, वे क्रोध से भर जाते हैं। जब लोग मुझसे खुद को चंगा करने के लिए कहते हैं और मैं उन पर ध्यान नहीं देता और उनके प्रति अत्यधिक घृणा महसूस करता हूँ; तो लोग मुझे छोड़कर चले जाते हैं और बुरी दवाइयों तथा जादू-टोने का मार्ग खोजने लगते हैं। जब मैं मनुष्य द्वारा मुझसे माँगी गई सारी चीजें वापस ले लेता हूँ, तो वे बिना कोई निशान छोड़े गायब हो जाते हैं। इसलिए मैं कहता हूँ कि लोग मुझ पर इसलिए विश्वास करते हैं, क्योंकि मेरा अनुग्रह अत्यंत विपुल है, और क्योंकि बहुत अधिक लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम आस्था के बारे में क्या जानते हो?)। परमेश्वर ने जो उजागर किया वह मेरी एकदम सही दशा थी। पहले तो मैंने देखा कि परमेश्वर मेरी बीमारी ठीक कर सकता था। मैंने परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लिया और इसलिए मैं पूरी तरह से उसका अनुसरण करने को तैयार थी और अपना कर्तव्य निभाने और अपने परिवार और करियर को त्यागने में सक्षम थी। कलीसिया ने मेरे लिए जो भी कर्तव्य व्यवस्थित किया, मैंने उसे भी पूरा किया। यहाँ तक कि जब सुसमाचार का प्रचार करते समय मुझे गिरफ्तार कर लिया गया, मेरे परिवार ने मुझे ठुकरा दिया या मुझे शारीरिक परेशानी हुई, मैं फिर भी अपने कर्तव्य में लगी रही, क्योंकि मैंने सोचा कि परमेश्वर के लिए खुद को खपाने से वह मुझे बीमार नहीं पड़ने देगा। लेकिन जब मेरी गुर्दे की बीमारी दोबारा लौटी, ज्यादा गंभीर हो गई और मेरे पास इलाज के लिए पैसे नहीं थे, यहाँ तक कि मौत का सामना भी करना पड़ सकता था, तो मैं और ज्यादा कष्ट सहने और खुद को खपाने के लिए तैयार नहीं थी। मैंने शिकायत की कि परमेश्वर मेरी रक्षा नहीं कर रहा था, उसके लिए खुद को खपाने पर पछतावा किया और मैं अपने कर्तव्य में लगनशील नहीं रही, मैंने अपने सालों के प्रयासों और खपत को पूँजी बनाकर परमेश्वर से मुझे कुछ और साल जीने देने की माँग करने की कोशिश की। मुझे एहसास हुआ कि मैं केवल आशीषें पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास करती थी और जब मुझे आशीषें नहीं मिलीं, तो मुझे लगा कि परमेश्वर में विश्वास करके मुझे नुकसान हुआ है, मैंने सच्चे दिल से परमेश्वर में विश्वास करना और अपने कर्तव्य निभाना बंद कर दिया। यहाँ तक कि मैंने ढिठाई से परमेश्वर से आशीषों की माँग की। परमेश्वर में मेरी आस्था छद्म-विश्वासियों के भरपेट निवाले खाने की कोशिश से किस तरह अलग थी? मैंने अपनी आस्था में सत्य नहीं खोजा, बल्कि मैं आशीषों के लिए परमेश्वर से सौदेबाजी करने की कोशिश कर रही थी। ऐसा करके मैं परमेश्वर का इस्तेमाल करने और उसे धोखा देने की कोशिश कर रही थी! मैंने सोचा कि कैसे पौलुस ने शुरू में आशीषें पाने की खातिर प्रभु में विश्वास किया था और जब उसने देखा कि उसने कुछ कष्ट सहे हैं और कुछ त्याग किए हैं, तो उसने सोचा कि वह आशीषों का हकदार है और खुलेआम परमेश्वर से मुकुट माँगा। उसने कहा, “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। अब से मेरे लिए धार्मिकता का एक मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)। उसका मतलब था कि अगर परमेश्वर उसे मुकुट और इनाम नहीं देता, तो परमेश्वर अधार्मिक है। अंत में उसने परमेश्वर के स्वभाव को नाराज किया और परमेश्वर द्वारा दंडित हुआ। अगर मैं बिना बदले इसी तरह चलती रहती तो मेरा अंत भी पौलुस की तरह होता, और मुझे दंडित करके नरक में डाल दिया जाता।
एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक भजन सुना, “मनुष्य का जीवनकाल परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित किया जा चुका है” :
1 बहुत से लोग अक्सर बीमार पड़ जाते हैं और चाहे वे परमेश्वर से कितनी भी प्रार्थना करें, फिर भी वे ठीक नहीं होते। चाहे वे अपनी बीमारी से कितना भी छुटकारा पाना चाहें, लेकिन नहीं पा सकते। कभी-कभी, उन्हें जानलेवा परिस्थितियों का भी सामना करना पड़ सकता है और उन्हें इन परिस्थितियों का सीधे सामना करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। दरअसल, यदि किसी के हृदय में वास्तव में परमेश्वर पर आस्था है, तो उसे सबसे पहले यह जान लेना चाहिए कि व्यक्ति का जीवनकाल परमेश्वर के हाथों में है। व्यक्ति के जन्म और मृत्यु का समय परमेश्वर ने पूर्व नियत किया है। जब परमेश्वर लोगों को बीमारी देता है तो उसके पीछे कोई कारण होता है—उसका महत्व होता है। वे जो महसूस कर सकते हैं वह बीमारी है, लेकिन असल में उन्हें जो दिया गया है वह अनुग्रह है, बीमारी नहीं। लोगों को पहले इस तथ्य को पहचानना चाहिए और इसके बारे में सुनिश्चित होना चाहिए, और इसे गंभीरता से लेना चाहिए।
2 जब लोग बीमारी से पीड़ित होते हैं, तो वे अक्सर परमेश्वर के सामने आ सकते हैं, और विवेक और सावधानी के साथ, वह करना सुनिश्चित कर सकते हैं जो उन्हें करना चाहिए, और दूसरों की तुलना में अपने कर्तव्य से अधिक सावधानी और परिश्रम के साथ पेश आते हैं। जहाँ तक लोगों का सवाल है, यह एक सुरक्षा है, बंधन नहीं। यह निष्क्रिय दृष्टिकोण है। इसके अलावा, हर व्यक्ति का जीवन-काल परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित किया गया है। चिकित्सीय दृष्टिकोण से कोई बीमारी प्राणांतक हो सकती है, लेकिन परमेश्वर के नजरिये से अगर तुम्हारा जीवन अभी जारी रहना चाहिए और तुम्हारा समय अभी नहीं आया है तो तुम चाहकर भी नहीं मर सकते।
3 अगर तुम्हारे पास परमेश्वर का कोई आदेश है और तुम्हारा मिशन अभी तक पूरा नहीं हुआ है तो तुम नहीं मरोगे, फिर भले ही तुम्हें ऐसी कोई बीमारी क्यों न लग जाए जिसे प्राणघातक माना जाता है—परमेश्वर अभी तुम्हें नहीं ले जाएगा। भले ही तुम प्रार्थना न करो, सत्य न खोजो और अपनी बीमारी का इलाज न कराओ या भले ही तुम अपने इलाज में देरी कर दो—फिर भी तुम मरोगे नहीं। यह खास तौर से उन लोगों के लिए सच है जिनके पास परमेश्वर का एक महत्वपूर्ण आदेश है : जब उनका मिशन अभी पूरा होना बाकी है तो उन्हें चाहे कोई भी बीमारी हो जाए, वे तुरंत नहीं मरेंगे; वे अपने मिशन के पूरा होने के अंतिम क्षण तक जियेंगे।
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—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
यह भजन सुनने के बाद मैं समझ गई कि किसी व्यक्ति का जीवन और मृत्यु परमेश्वर के हाथों में है। जब कोई इस दुनिया में आता है, तो उसका अपना एक मिशन होता है और जिस दिन किसी व्यक्ति का जीवन समाप्त होता है, वह उसके मिशन से जुड़ा होता है। जब किसी व्यक्ति की उम्र पूरी हो जाती है और उसका मिशन पूरा हो जाता है, तो उसे मरना ही होता है, भले ही वह बीमार न हो। अगर किसी व्यक्ति ने अपना मिशन पूरा नहीं किया है, तो भले ही उसे कोई जानलेवा बीमारी हो, वह नहीं मरेगा। याद करती हूँ तो मैं बीस एक साल की थी जब मुझे मुश्किल से ठीक होने वाली एक बीमारी हो गई थी। मेरे पास इलाज के लिए पैसे नहीं थे, लेकिन परमेश्वर ने मुझे मरने नहीं दिया, बल्कि उसने मुझे इस समय तक अच्छी तरह से जीने दिया, मैंने देखा कि जीवन और मृत्यु परमेश्वर के हाथों में हैं और परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित हैं। इन बातों का किसी व्यक्ति की बीमारी की गंभीरता से कोई लेना-देना नहीं है। जब पुलिस ने मुझसे “तीन कथनों” पर हस्ताक्षर करने को कहा, तो गिरफ्तारी से बचने के लिए मैं घर छोड़ने को मजबूर थी। मैं अब दवा के लिए डॉक्टर झांग के पास नहीं जा सकती थी और मेरे पास इलाज के लिए पैसे नहीं थे, इसलिए मुझे चिंता हुई कि दवा के बिना मेरी हालत बिगड़ जाएगी और शायद मैं मर जाऊँगी। सच तो यह था कि, भले ही डॉक्टर झांग बहुत कुशल थे, वह किसी व्यक्ति की जान नहीं बचा सकते थे। मुझे याद है, मेरे साथ की एक मरीज का पूरा शरीर सूजा हुआ था और उसे पेशाब नहीं आ रहा था, अपनी पीड़ा के बीच वह डॉक्टर झांग के सामने घुटनों के बल बैठकर अपनी बीमारी ठीक करने की भीख माँगने लगी, लेकिन वह कुछ भी करने में असमर्थ थे। मेरी बीमारी भी उस मरीज जैसी ही थी और डॉक्टर झांग भी कुछ नहीं कर सकते थे। यह परमेश्वर ही था जिसने चमत्कारिक रूप से मेरी बीमारी दूर कर दी और मुझे इतना बड़ा अनुग्रह मिला और मैंने परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता देखी, लेकिन फिर भी मुझे परमेश्वर में आस्था नहीं थी। मैं अब भी सोचती थी कि मेरा जीवन और मृत्यु एक डॉक्टर के हाथों में है। मैं सचमुच बहुत भ्रमित, बहुत अंधी और अज्ञानी थी! मैं अब और विद्रोह नहीं कर सकी, मुझे अपनी बीमारी परमेश्वर के हाथों में सौंपनी थी। तब से चाहे मैं जियूँ या मरूँ, मैं परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने को तैयार रहूँगी और जब तक मैं एक और दिन जियूँगी, मैं अपना कर्तव्य निभाऊँगी।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों को पढ़े : “एक सृजित प्राणी के रूप में व्यक्ति जब सृष्टिकर्ता के सामने आता है तो उसे अपना कर्तव्य निभाना ही चाहिए। यह करना बहुत उचित चीज है और उसे यह जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए। इस शर्त पर कि सृजित प्राणी अपने कर्तव्य निभाएँ, सृष्टिकर्ता ने मानवजाति के बीच और भी बड़ा कार्य किया है, उसने लोगों पर कार्य का एक और चरण पूरा किया है। और वह कौन-सा कार्य है? वह मानवजाति को सत्य प्रदान करता है जिससे उन्हें अपने कर्तव्य निर्वहन करते हुए परमेश्वर से सत्य हासिल करने और इस प्रकार अपने भ्रष्ट स्वभाव त्यागने और शुद्ध होने, परमेश्वर के इरादे पूरा कर पाने और जीवन में सही मार्ग अपना पाने और अंततः परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम होने, पूर्ण उद्धार हासिल कर पाने और शैतान द्वारा दी जाने वाली पीड़ाओं का शिकार न बनने का मौका मिलता है। यही वह अंतिम प्रभाव है जिसे परमेश्वर मानवजाति से कर्तव्य निर्वहन करवाने के माध्यम से हासिल करने की मंशा रखता है। इसलिए परमेश्वर तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया के दौरान महज एक चीज स्पष्ट रूप से देखने और थोड़ा-सा सत्य समझने नहीं देता, वह तुम्हें महज उस अनुग्रह और उन आशीषों का आनंद नहीं लेने देता है जो तुम एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने से प्राप्त करते हो। बल्कि वह तुम्हें शुद्ध होने और बचाए जाने और अंततः सृष्टिकर्ता के मुखमंडल के प्रकाश में रहने का अवसर भी देता है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ने के बाद मेरा दिल रोशन हो गया। परमेश्वर लोगों को अपना कर्तव्य निभाने का अवसर देता है ताकि लोग सत्य का अनुसरण करें और उसे प्राप्त करें, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्याग कर शुद्ध हों और स्वभाव में बदलाव लाकर उद्धार के मार्ग पर चल सकें। लेकिन अपनी आस्था के इन सभी सालों में मैं इस उम्मीद में अपना कर्तव्य निभा रही थी कि परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा और मुझे आशीष देगा और मैंने अपने कर्तव्य को आशीषों के लिए एक सौदेबाजी का जरिया माना। मैं समझ गई कि आस्था को लेकर मेरे विचार गलत थे। अपना कर्तव्य निभाना पूरी तरह स्वाभाविक और न्यायोचित है और इसका आशीषें पाने या दुर्भाग्य सहने से कोई लेना-देना नहीं है। मुझे अपने कर्तव्य में सत्य का अनुसरण करने और अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। मेरे जीवन का सच्चा मूल्य और अर्थ यही है। अगर मैं सिर्फ आशीषों के पीछे भागती हूँ और स्वभाव में बदलाव नहीं खोजती, तो जीवन भर विश्वास करने के बावजूद मैं कभी सत्य प्राप्त नहीं कर पाऊँगी और अंत में मुझे बचाया नहीं जाएगा।
एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “परमेश्वर तुमसे चाहे कुछ भी माँगे, तुम्हें अपनी पूरी ताकत के साथ केवल इस ओर काम करने की आवश्यकता है, और मुझे आशा है कि इन अंतिम दिनों में तुम परमेश्वर के समक्ष उसके प्रति वफादारी निभाने में सक्षम होगे। जब तक तुम सिंहासन पर बैठे परमेश्वर की संतुष्ट मुसकराहट देख सकते हो, तो भले ही यह तुम्हारी मृत्यु का नियत समय ही क्यों न हो, आँखें बंद करते समय भी तुम्हें हँसने और मुसकराने में सक्षम होना चाहिए। जब तक तुम जीवित हो, तुम्हें परमेश्वर के लिए अपना अंतिम कर्तव्य निभाना चाहिए। अतीत में, पतरस को परमेश्वर के लिए क्रूस पर उलटा लटका दिया गया था; परंतु तुम्हें इन अंतिम दिनों में परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहिए, और उसके लिए अपनी सारी ऊर्जा खर्च कर देनी चाहिए। कोई सृजित प्राणी परमेश्वर के लिए क्या कर सकता है? इसलिए तुम्हें पहले से ही अपने आपको परमेश्वर को सौंप देना चाहिए, ताकि वह अपनी इच्छा के अनुसार तुम्हारी योजना बना सके। जब तक इससे परमेश्वर खुश और प्रसन्न होता हो, तो उसे अपने साथ जो चाहे करने दो। मनुष्यों को शिकायत के शब्द बोलने का क्या अधिकार है?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, “संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचनों” के रहस्यों की व्याख्या, अध्याय 41)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गई कि चाहे मुझे कोई भी बीमारी या पीड़ा का सामना करना पड़े, भले ही मैं मर जाऊँ जब तक मैं परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करती हूँ और जो कर्तव्य मुझे निभाना चाहिए उसे पूरा करती हूँ, तो इसे परमेश्वर की स्वीकृति मिलेगी। मैंने सोचा कि कैसे परमेश्वर ने अय्यूब का परीक्षण किया था। अय्यूब ने अपनी विशाल संपत्ति और अपने बच्चों को खो दिया था और उसका पूरा शरीर फोड़ों से भर गया था, लेकिन वह बिना शिकायत किए परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सका और वह परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में अडिग रहा। पतरस ने अपना जीवन परमेश्वर के प्रति समर्पण खोजने और उससे प्रेम करने में बिताया, कभी भी अपने लिए कुछ नहीं माँगा और अंत में उसे परमेश्वर के लिए सलीब पर उलटा लटका दिया गया। वह मृत्यु तक समर्पण के बिंदु पर पहुँच गया, उसने शैतान को पूरी तरह से शर्मिंदा किया और परमेश्वर के लिए शानदार गवाही दी। अय्यूब और पतरस की गवाहियों ने मुझे सचमुच प्रेरित किया। मेरी बीमारी दोबारा लौट आई थी और किसी भी पल मुझे गुर्दा खराब होने का या यहाँ तक कि मौत का सामना करना पड़ सकता था, लेकिन जब तक मैं जीती और साँस लेती रह सकती हूँ, मुझे अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। तब से मैं अपना बचा हुआ जीवन परमेश्वर को देने की इच्छा करने, स्वभाव में बदलाव का अनुसरण करने और अपना कर्तव्य निभाने लगी और अगर किसी दिन मेरी मौत आ भी जाए, तो भी मैं परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करूँगी।
उसके बाद मैंने अपने कर्तव्य में अपना दिल लगाया और मैं समय-समय पर ठीक से व्यायाम भी करती थी, मैंने पाया कि मेरा स्वास्थ्य धीरे-धीरे सुधर गया। मेरा ब्लड शुगर और रक्तचाप स्थिर स्तर पर लौट आए और मैंने पाया कि मैं जो कुछ भी करती थी, उसके लिए मुझमें ऊर्जा थी। मई 2024 के अंत में मुझे जिला अगुआ चुना गया, हालाँकि काम का बोझ ज्यादा होता था, मैं उसे सँभाल पाती थी। कभी-कभी जब मैं काम से थक जाती, तो थोड़ी देर के लिए समुचित आराम कर लेती थी और उसके बाद मैं अपना कर्तव्य निभाने में कोई देरी नहीं करती थी। जब मैंने इस तरह से अभ्यास किया, तो मैंने खुद को परमेश्वर के और करीब महसूस किया और लगन से अपना कर्तव्य पूरा करते हुए मुझे सहज महसूस हुआ।