86. अब सीधे बात करना मुश्किल नहीं है

चेन मिंग, चीन

छोटी उम्र से ही मेरे माता-पिता ने मुझे सिखाया था कि दूसरों के साथ अपने संबंधों में मुझे स्थिति के अनुसार अपने शब्द चुनने चाहिए, अगर मुझे दूसरों में कोई समस्या दिखे भी तो उसका जिक्र नहीं करना चाहिए, जब मैं बोलूँ तो दूसरों की भावनाओं का ध्यान रखना चाहिए और एक सहानुभूतिपूर्ण और मिलनसार व्यक्ति बनना चाहिए। उन्होंने मुझे सिखाया था कि इस तरह से मैं अपने लिए कोई मुसीबत खड़ी नहीं करूँगी और दूसरे लोग मुझे पसंद करेंगे, समाज में अपनी जगह बनाने का यही एकमात्र तरीका था। उस समय मुझे लगा कि यह बात समझ में आती है और मुझे इसी तरह से आचरण करना चाहिए, इसलिए दूसरों के साथ मेरे संबंधों में शायद ही कभी कोई झगड़ा या विवाद होता था। भले ही मुझे दूसरे व्यक्ति में कोई समस्या दिखाई दे, मैं उसे नहीं बताती थी। जब मैंने परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू किया, तब भी मैंने दूसरों के साथ अपने संबंध इसी तरह से निभाए और अपने भाई-बहनों में जो भी समस्याएँ मैंने देखीं, उन्हें मैंने शायद ही कभी बताया या उन्हें उजागर किया। विशेष रूप से उस बहन के साथ मेरा व्यवहार ऐसा था, जिसके साथ मेरी साझेदारी थी। भले ही मैंने उसके कर्तव्य करने के तरीके में समस्याएँ साफ-साफ देखीं और उन्हें उसे बताना चाहा, हर बार जब शब्द मेरी जुबान तक आते, मैं उन्हें वापस निगल जाती थी। मुझे लगातार इस बात की चिंता रहती कि अगर मैंने उसकी समस्याओं को बताया और उसने इसे स्वीकार नहीं किया तो उसकी नजरों में अप्रसन्नता होगा और वह मेरे प्रति पूर्वाग्रही हो जाएगी। बाद में परमेश्वर के वचनों के माध्यम से आखिरकार मैं “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” के पारंपरिक सांस्कृतिक विचार के बारे में कुछ भेद पहचान गई।

अक्टूबर 2021 में बहन लियू लिन मेरी पार्टनर बनी और हम कलीसिया के कार्य के लिए जिम्मेदार थे। कुछ समय बाद मैंने देखा कि वह अपने कर्तव्य के प्रति अपने व्यवहार में कोई बोझ नहीं उठाती थी। वह सुसमाचार कार्य के लिए जिम्मेदार थी, लेकिन वह न जायजा लेती, न उसका पर्यवेक्षण करती, जब अगुआओं ने काम के बारे में पूछताछ की तो उसने कोई रिपोर्ट नहीं दी। मैंने उससे पूछा कि उसने रिपोर्ट क्यों नहीं दी और उसने कहा कि उसकी तबीयत ठीक नहीं है। जब मैंने देखा कि लियू लिन ऐसा कर रही है तो मैं यह बताना चाहती थी कि उसके कर्तव्य के प्रति उसका रवैया बहुत अनादरपूर्ण था और उसमें कोई जिम्मेदारी की भावना नहीं थी। लेकिन जैसे ही शब्द मेरी जुबान पर आए, मैंने उन्हें फिर से मन में ही रखा। मैंने मन ही मन सोचा, “कुछ भी न कहना ही बेहतर है। अगर वह इसे स्वीकार नहीं करती है और मुझे नाखुश नजरों से देखती है तो भविष्य में उसके साथ मेल-जोल रखना बहुत अजीब होगा।” इसलिए मैंने और कुछ नहीं कहा, सोचने लगी कि शायद जब उसकी सेहत थोड़ी बेहतर हो जाएगी तो वह अपने काम में अपना दिल लगाएगी। उस समय लियू लिन ने कहा कि उसकी गर्दन की हड्डी में दर्द होता है, इसलिए मैंने “गुआ शा” से मालिश की, उसे कसरत पर ध्यान देने के लिए कहा, साथ ही प्रोत्साहन के कुछ शब्द भी कहे। लेकिन मैंने उसके कर्तव्य करने के तरीके में समस्याएँ नहीं बताईं। तीन महीने बाद एक दिन एक प्रचारक ने हमारे साथ सुसमाचार प्रचार से संबंधित कुछ विस्तृत कार्यों के बारे में संगति की। बाद में मैंने लियू लिन से पूछा कि क्या उसने इस बारे में अपने भाई-बहनों के साथ संगति की है और इसे कार्यान्वित किया है। उसने कहा, “मैंने तो बस चलते-फिरते इसका जिक्र कर दिया था।” मैं अंदर से गुस्से में थी और उसकी काट-छाँट करना चाहती थी, “तुम कितनी गैर-जिम्मेदार हो। क्या इससे कार्य में देरी नहीं हो रही है?” लेकिन जैसे ही शब्द मेरी जुबान तक आए, मैंने फिर से कुछ नहीं कहा। मैंने मन ही मन सोचा, “अगर मैं सबके सामने उसकी काट-छाँट करती हूँ तो उसकी इज्जत चली जाएगी। वह मेरे प्रति पूर्वाग्रही हो गई तो? क्या वह कहेगी कि मैंने जानबूझकर उसे हमारे भाई-बहनों के सामने शर्मिंदा किया? कुछ भी न कहना ही बेहतर है।” इसलिए मैं उस कार्य को कार्यान्वित करने चली गई और बाद में उसके साथ संगति नहीं की या उसकी समस्याएँ नहीं बताईं।

जून 2022 के अंत में कुछ धर्म-उपदेशों की तत्काल जाँच की जानी थी। झांग टिंग ने इस पर पहले कार्य किया था और इसलिए मैंने लियू लिन से उसके साथ संगति करने को कहा। शाम को मैंने लियू लिन से पूछा कि क्या उसने झांग टिंग के साथ सिद्धांतों के बारे में विस्तार से संगति की है, लेकिन उसने अपने चेहरे पर नाखुश भाव के साथ अधीरता से कहा, “वह यह सब पहले से ही समझती है—इस सब के बारे में इतने विस्तार से बात करने की कोई जरूरत नहीं है!” मैं उसे याद दिलाना चाहती थी, “अगर तुम विस्तार से संगति नहीं करती हो और फिर झांग टिंग को सिद्धांतों के बारे में स्पष्टता नहीं मिलती है तो क्या इससे काम में देरी नहीं होगी?” लेकिन जैसे ही शब्द मेरी जुबान तक आए, मैंने उन्हें फिर से निगल लिया। मैंने सोचा, “जब मैंने अभी-अभी उससे इस बारे में पूछा तो वह सचमुच नाराज लग रही थी। अगर मैं फिर से उसकी कमियाँ बताती हूँ तो वह और भी गुस्सा हो जाएगी। भविष्य में हम एक-दूसरे के साथ मिलकर कैसे रह पाएँगे?” इसलिए मैंने उसकी समस्याएँ नहीं बताईं और बस धीरे से कहा कि उसे भविष्य में चीजों को बदलना होगा। बाद में झांग टिंग के सिद्धांतों को गहराई से न समझ पाने के कारण कार्य फिर से करना पड़ा और जो काम एक दिन में पूरा हो जाना चाहिए था, उसमें दस दिन से अधिक की देरी हो गई। उच्च अगुआओं ने यह कहते हुए एक पत्र भेजा कि हम अपना कर्तव्य निभाने में बोझ नहीं उठा रहे हैं और हमारी कार्यक्षमता अच्छी नहीं है। मुझे अपने दिल में अपराध बोध हुआ। यह देरी मुझसे संबंधित थी। मैंने देखा था कि लियू लिन गैर-जिम्मेदारी से अपना कर्तव्य कर रही थी, लेकिन मैंने अपने रिश्ते को बचाने के लिए कभी भी उसकी समस्याओं को उजागर नहीं किया। इससे काम में देरी हुई। उस दौरान मेरा दिल बहुत दबा हुआ और दर्द से भरा था। जैसे ही मैं शांत हुई, मैंने सोचा, “परमेश्वर इन चीजों से, जिन्हें उसने व्यवस्थित किया है, मुझे क्या सबक सिखाना चाहता है?” मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “प्रिय परमेश्वर, मैंने देखा है कि जिस बहन के साथ मेरी साझेदारी है, वह अपना कर्तव्य निभाने में कोई बोझ नहीं उठाती है और उसने कार्य में देरी की है, लेकिन मैं उसकी समस्याएँ बताने की हिम्मत नहीं करती क्योंकि मुझे डर है कि वह मुझे नाखुश नजरों से देखेगी। प्रिय परमेश्वर, तुम मुझे प्रबुद्ध करो और मेरी अगुआई करो ताकि मैं इस मामले से सबक सीख सकूँ।”

एक दिन मैंने अनुभवजन्य गवाही का एक वीडियो देखा। बहन की गवाही और उसमें उद्धृत परमेश्वर के वचनों ने मुझे अपने बारे में कुछ समझ दी। परमेश्वर कहता है : “सत्य का पालन करना खोखले शब्द बोलना या नारे लगाना नहीं होता। बल्कि इसका मतलब यह होता है कि, जीवन में व्यक्ति का सामना चाहे किसी भी व्यक्ति से हो, अगर यह स्व-आचरण के सिद्धांत, घटनाओं पर दृष्टिकोण या कर्तव्य निर्वहन के मामले से जुड़ा हो, तो उन्हें विकल्प चुनना होता है, और उन्हें सत्य खोजना चाहिए, परमेश्वर के वचनों में आधार और सिद्धांत तलाशने चाहिए और फिर अभ्यास का मार्ग खोजना चाहिए। इस तरह अभ्यास कर सकने वाले लोग वे हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं। कितनी भी बड़ी मुसीबतें आने पर, इस तरह सत्य के मार्ग पर चल पाना, पतरस के मार्ग पर चलना, सत्य का अनुसरण करना है। उदाहरण के तौर पर : लोगों से मेलजोल करते समय किन सिद्धांतों को कायम रखना चाहिए? तुम्हारा मूल दृष्टिकोण यह है कि ‘सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है,’ और यह कि तुम्हें हर किसी के साथ बनाए रखना चाहिए, दूसरों को अपमानित नहीं करना चाहिए, और किसी को नाराज नहीं करना चाहिए, ताकि भविष्य में दूसरों के साथ निभाना आसान रहे। इस दृष्टिकोण से विवश होकर तुम तब मौन रहते हो जब तुम देखते हो कि दूसरे कोई गलत काम कर रहे हैं या सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहे हैं। तुम किसी को नाराज करने के बजाय कलीसिया के काम को नुकसान होने देना पसंद करोगे। तुम चाहे किसी के साथ भी मेलजोल कर रहे हो, तुम उसके भले बने रहना चाहते हो। जब तुम बात करते हो तो तुम हमेशा मानवीय भावनाओं और अपमान से बचने के बारे में सोचते हो और तुम दूसरों को खुश करने के लिए हमेशा मीठी-मीठी बातें करते हो। अगर तुम्हें पता भी चल जाए कि किसी में कोई समस्या है तो भी तुम उन्हें सहन करने का चुनाव करते हो और बस उनकी पीठ पीछे उनके बारे में बातें करते हो, लेकिन उनके सामने तुम अब भी शांति बनाए रखते हो और अपने संबंध कायम रखते हो। तुम अपने इस तरह आचरण करने के बारे में क्या सोचते हो? क्या यह चापलूस व्यक्ति का आचरण नहीं है? क्या यह धूर्तता भरा आचरण नहीं है? यह स्व-आचरण के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। क्या ऐसे आचरण करना नीचता नहीं है? जो इस तरह से कार्य करते हैं वे अच्छे लोग नहीं होते हैं और यह आचरण का श्रेष्ठ मार्ग नहीं है। चाहे तुमने कितना भी दुःख सहा हो और चाहे तुमने कितनी भी कीमतें चुकाई हों, अगर तुम सिद्धांतों के बिना आचरण करते हो तो तुम इस मामले में असफल हो गए हो और परमेश्वर के समक्ष तुम्हें मान्यता नहीं मिलेगी, याद नहीं रखा जाएगा या स्वीकार नहीं किया जाएगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए व्यक्ति में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए)। परमेश्वर के वचन एक दर्पण की तरह साफ हैं। सत्य सिद्धांतों के अनुसार जीवन में आचरण और कार्यकलाप करना ही सत्य का अभ्यास करना है, अपनी भावनाओं की परवाह किए या किसी को ठेस पहुँचने के डर से पीछे हटे बिना। मैंने दूसरों के साथ अपने संबंधों में सत्य सिद्धांतों के अनुसार आचरण नहीं किया। मैं लगातार व्यक्तिगत भावनाओं पर निर्भर रही, लोगों को नाराज करने से डरती थी और अपने आपसी संबंधों को बचाती रही। मैंने देखा कि एक अगुआ के रूप में लियू लिन अपने काम की बिल्कुल भी परवाह नहीं करती थी। उसकी सहकर्मी के रूप में मुझे कर्तव्य करने में उसकी समस्याओं को बताना चाहिए था, लेकिन मुझे डर था कि अगर उसने इसे स्वीकार नहीं किया तो हमारा रिश्ता अजीब हो जाएगा और भविष्य में हमारे लिए साथ रहना मुश्किल हो जाएगा। हमारे मैत्रीपूर्ण संबंध को बनाए रखने के लिए मैंने उसे कुछ गोलमोल शब्दों से प्रोत्साहित किया ताकि उसे यह दिखा सकूँ कि मैं सहानुभूतिपूर्ण और विचारशील हूँ। ऊपरी तौर पर मैंने लियू लिन से झगड़ा या लड़ाई नहीं की और उसकी नजरों में अच्छी बनी रहने की कोशिश की; मैंने उसके साथ अपने संबंध बनाए रखने के लिए बस मीठे-मीठे शब्द बोले, लेकिन कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचा। क्या मेरे कार्यकलाप में जरा भी मानवता थी? मैं बहुत स्वार्थी और बहुत धोखेबाज थी! मैंने सोचा कि कैसे परमेश्वर ईमानदार लोगों से प्रेम करता है, धूर्त और धोखेबाज खुशामदी लोगों से घिन करता है। इस तरह से आचरण करके क्या मैं परमेश्वर की घृणा का पात्र नहीं बन रही थी? मैंने सोचा कि कैसे कर्तव्य परमेश्वर द्वारा मानवजाति को दिया गया एक आदेश है और मुझे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करनी चाहिए। जब मैंने देखा कि लियू लिन के काम करने का तरीका कार्य के लिए बुरा था, मुझे उसे बताना चाहिए था, उसकी मदद करनी चाहिए थी और इस या उस बात से नहीं डरना चाहिए था।

एक दिन एक सभा के दौरान हमने परमेश्वर के वचनों का एक अंश खाया और पीया, जिसने मुझे मेरी समस्याओं के बारे में कुछ समझ दी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “सांसारिक आचरण के फलसफों का एक सिद्धांत कहता है, ‘अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है।’ इसका मतलब है कि इस अच्छी दोस्ती को कायम रखने के लिए अपने मित्र की समस्याओं के बारे में चुप रहना चाहिए, भले ही वे उन्हें स्पष्ट रूप से दिखाई दें। वे लोगों के चेहरे पर वार न करने या उनकी कमियों की आलोचना न करने के सिद्धांतों का पालन करते हैं। वे एक दूसरे को धोखा देते हैं, एक दूसरे से छिपते हैं और एक दूसरे के साथ साजिश में लिप्त होते हैं। यूँ तो वे स्पष्ट रूप से जानते हैं कि दूसरा व्यक्ति किस तरह का है, पर वे इसे सीधे तौर पर नहीं कहते, बल्कि अपना संबंध बनाए रखने के लिए शातिर तरीके अपनाते हैं। ऐसे संबंध व्यक्ति क्यों बनाए रखना चाहेगा? यह इस समाज में, अपने समूह के भीतर दुश्मन न बनाना चाहने के लिए होता है, जिसका अर्थ होगा खुद को अक्सर खतरनाक स्थितियों में डालना। यह जानकर कि किसी की कमियाँ बताने या उसे चोट पहुँचाने के बाद वह तुम्हारा दुश्मन बन जाएगा और तुम्हें नुकसान पहुँचाएगा और खुद को ऐसी स्थिति में न डालने की इच्छा से तुम सांसारिक आचरण के ऐसे फलसफों का इस्तेमाल करते हो, ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो।’ इसके आलोक में, अगर दो लोगों का संबंध ऐसा है तो क्या वे सच्चे दोस्त माने जा सकते हैं? (नहीं।) वे सच्चे दोस्त नहीं होते, एक-दूसरे के विश्वासपात्र तो बिल्कुल नहीं होते। तो, यह वास्तव में किस तरह का संबंध है? क्या यह एक मूलभूत सामाजिक संबंध नहीं है? (है।) ऐसे सामाजिक संबंधों में लोग खुले दिल से की गई चर्चा में शामिल नहीं हो सकते हैं, न ही गहरे संपर्क रख सकते हैं, न यह बता सकते हैं कि वे क्या चाहते हैं। वे अपने दिल की बात या जो समस्याएँ वे दूसरे लोगों में देखते हैं या ऐसे शब्द जो दूसरे लोगों के लिए लाभदायक हों, जोर से नहीं कह सकते। इसके बजाय, वे कहने के लिए अच्छी बातें चुनते हैं ताकि औरों से सद्भावनापूर्ण संबंध बनाए रखें। वे सच बोलने या सिद्धांतों को कायम रखने की हिम्मत नहीं करते, इस प्रकार वे अपने प्रति शत्रुतापूर्ण सोच विकसित करने से दूसरों को रोकते हैं। जब किसी व्यक्ति के लिए कोई भी खतरा पैदा नहीं कर रहा होता है तो क्या वह व्यक्ति अपेक्षाकृत आराम और शांति से नहीं रहता? क्या ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ को प्रचारित करने में लोगों का यही लक्ष्य नहीं है? (है।) स्पष्ट रूप से यह जीवित रहने का एक कुटिल और धूर्त तरीका है जिसमें रक्षात्मकता का तत्त्व है, जिसका लक्ष्य आत्म-संरक्षण है। इस तरह जीते हुए लोगों का कोई विश्वासपात्र नहीं होता, कोई करीबी दोस्त नहीं होता, जिससे वे जो चाहें कह सकें। लोगों के बीच बस एक दूसरे के प्रति रक्षात्मकता होती है, आपसी शोषण होता है और आपसी साजिशबाजी होती है और साथ ही हर व्यक्ति उस रिश्ते से जो चाहता है, वह लेता है। क्या ऐसा नहीं है? मूल रूप से ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ का लक्ष्य दूसरों को ठेस पहुँचाने और दुश्मन बनाने से बचना है, किसी को चोट न पहुँचाकर अपनी रक्षा करना है। यह व्यक्ति द्वारा खुद को चोट पहुँचने से बचाने के लिए अपनाई जाने वाली तकनीक और तरीका है। इसके सार के इन विभिन्न पहलुओं को देखते हुए, क्या लोगों के नैतिक आचरण से यह माँग कि ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ नेक है? क्या यह सकारात्मक माँग है? (नहीं।) तो फिर यह लोगों को क्या सिखा रहा है? कि तुम्हें किसी को नाराज नहीं करना चाहिए या किसी को चोट नहीं पहुँचानी चाहिए, वरना तुम खुद चोट खाओगे; और यह भी कि तुम्हें किसी पर भरोसा नहीं करना चाहिए। अगर तुम अपने किसी अच्छे दोस्त को चोट पहुँचाते हो तो दोस्ती धीरे-धीरे बदलने लगेगी : वे तुम्हारे अच्छे, करीबी दोस्त न रहकर अजनबी या तुम्हारे दुश्मन बन जाएँगे। लोगों को ऐसा करना सिखाने से कौन-सी समस्याएँ हल हो सकती हैं? भले ही इस तरह से कार्य करने से, तुम शत्रु नहीं बनाते और कुछ शत्रु कम भी हो जाते हैं तो क्या इससे लोग तुम्हारी प्रशंसा और अनुमोदन करेंगे और हमेशा तुम्हारे मित्र बने रहेंगे? क्या यह नैतिक आचरण के मानक को पूरी तरह से हासिल करता है? अपने सर्वोत्तम रूप में, यह सांसारिक आचरण के एक फलसफे से अधिक कुछ नहीं है। क्या इस कथन और अभ्यास का पालन करना अच्छा नैतिक आचरण माना जा सकता है? बिल्कुल नहीं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (8))। परमेश्वर के वचनों ने जो उजागर किया वह सटीक रूप से मेरी ही दशा थी। मैं हमेशा दूसरों के साथ अपने संबंधों में बहुत विचारशील और सहानुभूतिपूर्ण रही थी। अगर मुझे दूसरे व्यक्ति में कोई समस्या दिखती थी तो मैं उन्हें बताती नहीं थी, हमारे संबंध खराब होने से डरती रहती थी। खासकर जब मैं लियू लिन के साथ साझेदारी में कर्तव्य कर रही थी, मैंने देखा कि उसके कर्तव्य के प्रति उसका रवैया बहुत अपमानजनक था और इससे कलीसिया के कार्य में देरी हुई थी। मैं उसकी समस्याएँ बताना चाहती थी, लेकिन जब मैंने उसे नाखुश देखा तो ऐसा लगा जैसे मेरा गला घोंटा जा रहा हो और मैं एक शब्द भी नहीं कह सकी, इस डर से कि मैं हमारे संबंध खराब कर दूँगी। मैं जीने के लिए शैतानी मार्गों पर निर्भर थी, जैसे “तुम अच्छे हो, मैं अच्छी हूँ, सब अच्छे हैं,” “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है” और “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” और विशेष रूप से धूर्त और धोखेबाज बन गई थी। मैंने हर मोड़ पर अपने हितों का ध्यान रखा और दूसरों के साथ अपने संबंधों की रक्षा की। मैं बचपन से ही ऐसी थी : जब मुझे दूसरों में समस्याएँ दिखती थीं तो मैं उन्हें साफ-साफ नहीं बताती थी। मैंने सोचा कि यह विचारशील होना और अच्छी मानवता का संकेत है। लेकिन जिन लोगों में सचमुच अच्छी मानवता होती है, उनमें अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठा और जिम्मेदारी की भावना होती है। उनका दिल दूसरे लोगों और परमेश्वर दोनों के प्रति ईमानदार होता है, वे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा कर सकते हैं और जब वे दूसरों को सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करते हुए चीजें करते देखते हैं तो संगति कर सकते हैं, मदद कर सकते हैं, बता सकते हैं और उजागर कर सकते हैं, ताकि लोग तुरंत समझ सकें और सुधार कर सकें। मैं पहले मानती थी कि दूसरों में समस्याएँ देखने पर उनका जिक्र न करना उनकी इज्जत बचाना, उनके प्रति विचारशीलता दिखाना और अच्छी मानवता रखना है। मेरा यह नजरिया गलत था। ऊपरी तौर पर ये पारंपरिक सांस्कृतिक विचार मानवता और नैतिकता के अनुरूप हैं, लेकिन सार में वे लोगों को साजिशें रचने और चालें चलने के लिए उकसाते हैं, लोगों को और भी ज्यादा धूर्त और धोखेबाज बना देते हैं। अगर मैं हमेशा इन पारंपरिक सांस्कृतिक विचारों के अनुसार जीना जारी रखती तो मेरे भ्रष्ट स्वभाव कभी नहीं बदलते और मैं कभी भी सामान्य मानवता को नहीं जी पाती।

खोज में मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “‘अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ कहावत में ‘आलोचना करना’ वाक्यांश अच्छा है या बुरा? क्या ‘आलोचना करना’ वाक्यांश का वह स्तर है, जिसे यह परमेश्वर के वचनों में लोगों के प्रकट या उजागर होने को संदर्भित करता है? (नहीं।) मेरी समझ से ‘आलोचना करना’ वाक्यांश का, जिस रूप में यह इंसानी भाषा में मौजूद है, यह अर्थ नहीं है। इसका सार उजागर करने के एक दुर्भावनापूर्ण रूप का है : इसका अर्थ है लोगों की समस्याएँ और कमियाँ, या कुछ ऐसी चीजें और व्यवहार जो दूसरों को ज्ञात नहीं हैं, या पृष्ठभूमि में चल रहे षड्यंत्रकारी विचार या दृष्टिकोण प्रकट करना। ‘अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ कहावत में ‘आलोचना करना’ वाक्यांश का यही अर्थ है। अगर दो लोगों में अच्छी बनती है और वे विश्वासपात्र हैं, उनके बीच कोई बाधा नहीं है और उनमें से प्रत्येक को दूसरे के लिए फायदेमंद और मददगार होने की आशा है तो उनके लिए सबसे अच्छा यही होगा कि वे एक-साथ बैठें, खुलेपन और ईमानदारी से एक-दूसरे की समस्याएँ सामने रखें। यह उचित है और यह दूसरे की कमियों की आलोचना करना नहीं है। अगर तुम्हें किसी व्यक्ति में समस्याएँ दिखती हैं लेकिन दिख रहा है कि वह व्यक्ति अभी तुम्हारी सलाह मानने को तैयार नहीं है तो झगड़े या संघर्ष से बचने के लिए उससे कुछ न कहो। अगर तुम उसकी मदद करना चाहते हो तो तुम उसकी राय माँग सकते हो और पहले उससे पूछ सकते हो, ‘मुझे लगता है कि तुम में कुछ समस्या है और मैं तुम्हें थोड़ी सलाह देना चाहता हूँ। पता नहीं, तुम इसे स्वीकार पाओगे या नहीं। अगर स्वीकार पाओ तो मैं तुम्हें बताऊँगा। अगर न स्वीकार पाओ तो मैं फिलहाल इसे अपने तक ही रखूँगा और कुछ नहीं बोलूँगा।’ अगर वह कहता है, ‘मुझे तुम पर भरोसा है। तुम्हें जो भी कहना हो, वह अस्वीकार्य नहीं होगा; मैं उसे स्वीकार सकता हूँ’ तो इसका मतलब है कि तुम्हें अनुमति मिल गई है और तुम एक-एक कर उसे उसकी समस्याएँ बता सकते हो। वह न केवल तुम्हारा कहा पूरी तरह से मानेगा, बल्कि इससे उसे फायदा भी होगा और तुम दोनों अभी भी एक सामान्य संबंध बनाए रख पाओगे। क्या यह एक-दूसरे के साथ ईमानदारी से व्यवहार करना नहीं है? (बिल्कुल है।) यह दूसरों के साथ बातचीत करने का सही तरीका है; यह दूसरे की कमियों की आलोचना करना नहीं है। इस कहावत के अनुसार ‘दूसरों की कमियों की आलोचना न करने’ का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है दूसरों की कमियों के बारे में बात न करना, उनकी सबसे निषिद्ध समस्याओं के बारे में बात न करना, उनकी समस्या का सार उजागर न करना और आलोचना करने में ज्यादा मुखर न होना। इसका अर्थ है सिर्फ सतही टिप्पणी करना, वही बातें कहना जो सभी लोगों द्वारा सामान्य रूप से कही जाती हैं, वही बातें कहना जो वह व्यक्ति पहले से ही खुद भी समझता है और उन गलतियों को प्रकट नहीं करना जो व्यक्ति पहले कर चुका है या जो संवेदनशील मुद्दे हैं। अगर तुम इस तरह से कार्य करते हो तो इससे व्यक्ति को क्या लाभ होता है? शायद तुमने उसका अपमान नहीं किया होगा या उसे अपना दुश्मन नहीं बनाया होगा लेकिन तुमने जो किया है, उससे उसे कोई मदद या लाभ नहीं हुआ है। इसलिए, यह वाक्यांश कि ‘दूसरों की कमियों की आलोचना मत करो’ अपने आपमें टाल-मटोल और कपट का एक रूप है, जो लोगों के एक-दूसरे के साथ व्यवहार में ईमानदारी नहीं रहने देता। यह कहा जा सकता है कि इस तरह से कार्य करना बुरे इरादों को आश्रय देना है; यह दूसरों के साथ बातचीत करने का सही तरीका नहीं है। गैर-विश्वासी तो ‘अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ को ऐसे देखते हैं, जैसे उच्च आदर्शों वाले व्यक्ति को यही करना चाहिए। यह स्पष्ट रूप से दूसरों के साथ बातचीत करने का एक कपटपूर्ण तरीका है जिसे लोग अपनी रक्षा के लिए अपनाते हैं; यह बातचीत का बिल्कुल भी उचित तरीका नहीं है। दूसरों की कमियों की आलोचना न करना अपने आप में कपट है और दूसरों की कमियों की आलोचना करने में कोई गुप्त इरादा हो सकता है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (8))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गई कि दूसरों की गलतियाँ निकालना क्या होता है, और कैसे लोगों की गलतियाँ निकालने के बजाय उनकी मदद की जानी चाहिए। दूसरों की गलतियां निकालने में व्यक्तिगत इरादे और साजिशें शामिल होती हैं; इसका उद्देश्य दूसरे व्यक्ति को शर्मिंदा करना या व्यक्तिगत लाभ के लिए प्रतिस्पर्धा करना होता है। दूसरे व्यक्ति की समस्याओं और कमियों को असीमित रूप से बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता है और उन्हें नीचा दिखाया और निंदा की जाती है ताकि आखिरकार अपने लिए लाभ प्राप्त करने का उद्देश्य पूरा हो जाए। लेकिन, लोगों की समस्याओं को बताना और उजागर करना उनकी मदद करने के उद्देश्य से होता है। अगर हमें किसी और में कोई गंभीर समस्या दिखती है जिसे वे खुद नहीं पहचानते तो प्रेमपूर्वक उसे बताना, संगति करना, उजागर करना और उनके आध्यात्मिक कद के अनुसार उसका गहन-विश्लेषण करना उनकी गलतियाँ निकालना नहीं, बल्कि उनकी मदद करना है। सामान्य मानवता वाले लोगों को यही करना चाहिए। मैंने देखा कि लियू लिन अपने कर्तव्य में कोई बोझ नहीं उठाती थी और मैं यह बताना चाहती थी, लेकिन मुझे लगा कि अगर मैंने ऐसा किया तो मैं उसकी गलतियाँ निकाल रही होऊँगी। मेरा यह नजरिया भ्रामक था। अगर मैं किसी इरादे से उसे नीचा दिखाती और शर्मिंदा करती, ताकि उसके भाई-बहनों की उसके बारे में नकारात्मक राय बन जाए और मैं खुद को ऐसा दिखाती जैसे मैं बोझ उठा रही हूँ तो वह उसकी गलतियाँ निकालना होता। लेकिन असल में मेरे ये इरादे नहीं थे। मैं केवल कलीसिया के कार्य की रक्षा करना और उसकी मदद करना चाहती थी, इसलिए यह उसकी गलतियाँ निकालना नहीं था।

बाद में मैंने लियू लिन को देखा। जब मैं उसकी समस्याएँ बताने वाली थी तो मैं दिल में अब भी झिझक रही थी और चिंतित थी कि वह मुझे नाखुश नजरों से देखेगी, इसलिए मैंने सत्य का अभ्यास करने के लिए अगुआई की खातिर अपने दिल में लगातार परमेश्वर को पुकारा। इस समय मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया जो मैंने पहले पढ़ा था और मैंने उसे पढ़ने के लिए खोजा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अगर तुम्हारे पास एक चापलूस का इरादा और दृष्टिकोण है तो तब तुम सभी मामलों में सत्य का अभ्यास नहीं करोगे या सिद्धांतों को कायम नहीं रखोगे और तुम हमेशा असफल होओगे और नीचे गिरोगे। यदि तुम जागरूक नहीं होते और कभी सत्य नहीं खोजते तो तुम छद्म-विश्वासी हो और तुम कभी सत्य और जीवन हासिल नहीं करोगे। तब तुम्हें क्या करना चाहिए? इस तरह की चीजों से सामना होने पर तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी ही चाहिए और उसे पुकारना चाहिए, उससे उद्धार के लिए विनती करनी चाहिए और यह माँगना चाहिए कि वह तुम्हें आस्था और शक्ति दे और सिद्धांतों को कायम रखने में तुम्हें समर्थ बनाए, वो करो जो तुम्हें करना चाहिए, चीजों को सिद्धांतों के अनुसार सँभालो, उस स्थिति में मजबूती से खड़े रहो जहाँ तुम्हें होना चाहिए, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करो और परमेश्वर के घर के कार्य को होने वाले किसी भी नुकसान को रोको। अगर तुम अपने स्वार्थों, अपने अभिमान और एक चापलूस होने के अपने दृष्टिकोण के खिलाफ विद्रोह करने में सक्षम हो और अगर तुम एक ईमानदार, अविभाजित हृदय के साथ वह करते हो जो तुम्हें करना चाहिए तो तुम शैतान को हरा चुके होगे और सत्य के इस पहलू को प्राप्त कर चुके होगे। यदि तुम हमेशा शैतान के फलसफे के अनुसार जीने, दूसरों के साथ अपने संबंध सुरक्षित रखने, कभी भी सत्य का अभ्यास न करने, और सिद्धांतों का पालन न करने की हिम्मत करने पर अड़े रहते हो, तो क्या तुम अन्य मामलों में सत्य का अभ्यास कर पाओगे? तुम्हारे पास अभी भी आस्था या शक्ति नहीं होगी। यदि तुम सत्य नहीं खोजते या स्वीकार नहीं करते, तो क्या परमेश्वर में ऐसी आस्था से तुम सत्य प्राप्त कर पाओगे? (नहीं।) और यदि तुम सत्य प्राप्त नहीं कर सकते, तो क्या तुम बचाए जा सकते हो? नहीं बचाए जा सकते। यदि तुम हमेशा शैतान के फलसफे के अनुसार जीते हो, सत्य वास्तविकता से पूरी तरह वंचित रहते हो, तो तुम कभी भी नहीं बचाए जा सकते(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे शक्ति दी। मैं अब और खुशामदी नहीं रह सकती थी। मुझे निश्चित रूप से सत्य का अभ्यास करना था। चाहे लियू लिन मुझे नाखुश नजरों से देखे या नहीं, मुझे उसकी समस्याओं को बताना था और कलीसिया के हितों की रक्षा करनी थी, परमेश्वर को संतुष्ट करना था। मैंने उसकी समस्याएँ बताने की हिम्मत जुटाई। जब लियू लिन ने यह सुना, हालाँकि वह थोड़ी नाखुश थी, पर उसने अपनी समस्याओं को स्वीकार किया।

बाद में मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “सहयोग क्या होता है? तुम्हें एक-दूसरे के साथ चीजों पर विचार-विमर्श करने और अपने विचार और राय व्यक्त करने में सक्षम होना चाहिए; तुम्हें एक-दूसरे का पूरक बनना चाहिए, परस्पर निगरानी करनी चाहिए, एक-दूसरे से माँगना चाहिए, एक-दूसरे से पूछताछ करनी चाहिए, और एक-दूसरे को स्मरण कराना चाहिए। सामंजस्य के साथ सहयोग करना यही होता है। उदाहरण के लिए मान लो, तुमने अपनी इच्छा के अनुसार किसी चीज को सँभाला और किसी ने कहा, ‘तुमने यह गलत किया, पूरी तरह से सिद्धांतों के विरुद्ध। तुमने सत्य को खोजे बिना, जैसे चाहे वैसे इसे क्यों सँभाला?’ जवाब में तुम कहते हो, ‘बिल्कुल सही—मुझे खुशी है कि तुमने मुझे सचेत किया! यदि तुमने न चेताया होता, तो तबाही मच गई होती!’ यही है एक-दूसरे को स्मरण कराना। तो फिर एक-दूसरे की निगरानी करना क्या होता है? सबका स्वभाव भ्रष्ट होता है, और हो सकता है कि वे परमेश्वर के घर के हितों की नहीं, बल्कि केवल अपने रुतबे और गौरव की सुरक्षा करते हुए अपना कर्तव्य निभाने में लापरवाह हो जाएँ। प्रत्येक व्यक्ति में ऐसी अवस्थाएँ होती हैं। यदि तुम यह जान जाते हो कि किसी व्यक्ति में कोई समस्या है, तो तुम्हें उसके साथ संगति करने की पहल करनी चाहिए, उसे सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाने की याद दिलानी चाहिए, और साथ ही इसे अपने लिए एक चेतावनी के रूप में लेना चाहिए। यही है पारस्परिक निगरानी। पारस्परिक निगरानी से कौन-सा कार्य सिद्ध होता है? इसका उद्देश्य परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना होता है, और साथ ही लोगों को गलत मार्ग पर कदम रखने से रोकना होता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों से मैं समझी कि अपना कर्तव्य निभाने में सहयोग करते समय, हमें एक-दूसरे की निगरानी करनी चाहिए, अगर हम अपने साझेदार को सिद्धांतों का उल्लंघन करते हुए काम करते हुए पाते हैं तो हमें उसे बताना चाहिए, संगति करनी चाहिए और उनकी मदद करनी चाहिए। यह सत्य सिद्धांतों के अनुसार कर्तव्य करना है। यह लोगों को सत्य समझने में मदद कर सकता है और इससे भी बढ़कर कलीसिया के कार्य की रक्षा करता है। साथ ही अगुआओं या कार्यकर्ताओं के रूप में हमें अपने भाई-बहनों के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करना चाहिए। जिन लोगों ने लंबे समय तक परमेश्वर में विश्वास नहीं किया है और उनका आध्यात्मिक कद छोटा है, अगर हम देखते हैं कि वे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर रहे हैं या सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहे हैं तो हमें प्रेमपूर्वक उनकी मदद के लिए संगति करनी चाहिए। जहाँ तक उन लोगों की बात है जिन्होंने कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया है और सिद्धांत समझते हैं, लेकिन अपने काम के प्रति गैर-जिम्मेदार हैं, इसे बताया जाना चाहिए और इसे उजागर किया जाना चाहिए। अगर वे कई बार बताने और उजागर करने के बाद जरा भी पश्चात्ताप नहीं दिखाते हैं तो उन्हें सिद्धांतों के अनुसार बरखास्त कर दिया जाना चाहिए। बाद में मैंने देखा कि कर्तव्य करने के प्रति लियू लिन का रवैया अभी भी नहीं बदला था, इसलिए जब मैंने अपनी एक और साझेदार के साथ इस पर चर्चा की तो हमने उसके व्यवहार की सूचना उच्च अगुआओं को दी। उच्च अगुआओं ने लियू लिन को बरखास्त कर दिया।

बाद में जब मैंने भाई-बहनों के कर्तव्य करने के तरीके में समस्याएँ देखीं तो मैंने अब केवल अपनी इज्जत का ख्याल नहीं रखा और उनके साथ अपने रिश्ते की रक्षा नहीं की। मैं उनके आध्यात्मिक कद के अनुसार उनकी समस्याएँ बता सकती थी और उनकी मदद कर सकती थी। इस तरह से अभ्यास करने से मेरे भाई-बहनों को लाभ हुआ और मेरा दिल शांत हो गया। मैंने अनुभव किया कि अगर तुम परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करते हो तो तुम्हारा दिल शांत और सुकून में रहेगा। परमेश्वर की अगुवाई के लिए उसका धन्यवाद!

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