88. प्रसिद्धि और लाभ के पीछे भागना सही मार्ग नहीं है
जुलाई 2022 में अगुआओं ने देखा कि मैं लिखने में काफी कुशल हूँ तो उन्होंने मेरे लिए कलीसिया में पाठ-आधारित कार्य करने की व्यवस्था कर दी। जब मैंने सोचा कि मैं साठ साल की उम्र में भी पाठ-आधारित कर्तव्य कर सकती हूँ तो मुझे बहुत खुशी हुई। मैंने सोचा, “मैंने पहले भी पाठ-आधारित कर्तव्य किए हैं और सिद्धांतों की कुछ समझ है। अब अगर मैं भरपूर प्रयास करूँ और जी-जान लगाऊँ तो मैं निश्चित रूप से इस कर्तव्य के लिए योग्य बन जाऊँगी।” इसके बाद मैं कार्य में सक्रिय रूप से भाग लेने लगी। भाई-बहनों के साथ कुछ पेचीदा समस्याओं का विश्लेषण करते समय मैं कुछ व्यावहारिक सुझाव दे पाती थी। पर्यवेक्षक अभ्यास के मार्ग साझा कर पाने के लिए मेरी प्रशंसा करता और कहता कि मुझमें क्षमता है। मुझे दूसरे पाठ-आधारित कार्यकर्ताओं के कार्य का मार्गदर्शन करने को कहा गया। बाद में पर्यवेक्षक समस्याओं पर चर्चा करते समय मुझे बुलाता और जब भी भाई-बहनों को कोई समस्या होती तो वे मेरी संगति खोजते। जब मैंने देखा कि मेरी पेशेवर क्षमताओं को सभी ने पहचान लिया है तो मैं बता नहीं सकती कि अपने दिल में मुझे कितनी खुशी हुई, अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए मेरी ऊर्जा दोगुनी हो गई।
कुछ समय बाद पर्यवेक्षक ने मुझे बहन शिन शिन को विकसित करने को कहा। मैंने मन ही मन सोचा, “पर्यवेक्षक ने कहा कि मुझमें क्षमता है और मुझे शिन शिन के कार्य का मार्गदर्शन करने के लिए भी चुना। इससे पता चलता है कि पर्यवेक्षक वास्तव में मुझे महत्व देता है।” इसलिए मैं सहमत हो गई। इसके बाद मैं शिन शिन को अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ बैठकों में ले जाने लगी ताकि धर्मोपदेश लिखने के सिद्धांतों पर संगति की जा सके। शिन शिन एक पक्ष की बात सुनती और बीच-बीच में नोट्स लिखती। वापस आकर हम अपने कार्य में भटकावों के बारे में संगति करते। हम दोनों, एक वृद्ध और एक युवा, बहुत खुशी से साथ कार्य कर रहे थे। कुछ समय बाद मुझे पता चला कि शिन शिन बहुत ही मासूम है। अगर उसे कुछ जानकारी न होती तो उस बारे में पूछ लेती थी। वह नई चीजें सीखने को बहुत इच्छुक रहती थी। उसमें अच्छी काबिलियत थी और नई चीजें तेजी से समझ जाती थी। जब पर्यवेक्षक ने सिद्धांतों के अनुप्रयोग के बारे में संगति की तो वह तुरंत समझ गई। वह सिद्धांतों के मुख्य बिंदुओं को समझने में काफी तेज थी और उन्हें अपने कर्तव्य में जल्दी से लागू करने में सक्षम थी। मैंने मन ही मन सोचा, “शिन शिन इतनी तेजी से प्रगति कर रही है कि जल्दी ही वह मुझसे आगे निकल जाएगी। मुझे आगे चलकर और अधिक प्रयास करने होंगे नहीं तो मैं उससे पीछे रह जाऊँगी। यह तो बड़ी शर्म की बात होगी!” बाद में मैं सिद्धांतों का अध्ययन करने के लिए अतिरिक्त समय देने लगी। मुझे उच्च रक्तचाप रहता है, कभी-कभी तो मैं आराम ही न करती, फिर भले ही मुझे लगता कि बेचैन होने की हद तक मेरा सिर चकरा गया है। मैं अध्ययन करने का कोई अवसर छोड़ने को तैयार नहीं थी क्योंकि मुझे शिन शिन से पीछे रह जाने और नीची नजर से देखे जाने का डर था। एक सभा में अगुआ मौजूद थे। पर्यवेक्षक ने एक प्रश्न किया और हमें जवाब देने को कहा। मैंने मन ही मन सोचा, “अगुआ भी यहाँ हैं। मुझे कोई अच्छा जवाब देना चाहिए—मैं नहीं चाहती कि अगुआ मुझे नीची नजर से देखें।” लेकिन मैंने जितना अधिक कोई अच्छा जवाब सोचने की कोशिश की, सुसंगत रूप से बोल पाने में उतनी ही अक्षम रही। लेकिन शिन शिन एक-एक करके हर सिद्धांत के अनुसार बहुत स्पष्ट रूप से बोल पा रही थी। पर्यवेक्षक ने आह भरते हुए मुझसे कहा, “तुम इतने समय से प्रशिक्षण ले रही हो—सिद्धांतों की तुम्हारी समझ अभी-अभी आई एक बहन जितनी अच्छी क्यों नहीं है?” अगुआओं और कई दूसरे पाठ-आधारित कार्यकर्ताओं ने एक साथ मेरी तरफ मुड़कर देखा। मुझे लगा जैसे मेरा चेहरा शर्म से लाल हो गया है। इच्छा हुई कि धरती फटे और मैं उसमें समा जाऊँ। मैंने सोचा, “पहले मैं शिन शिन का मार्गदर्शन किया करती थी और आज वह हर पहलू में मुझसे आगे निकल गई है। अब मैं अपना यह बूढ़ा चेहरा किसी को कैसे दिखा पाऊँगी? मैं दो साल से पाठ-आधारित कर्तव्य कर रही हूँ और मैं अभी भी उस बहन जितनी अच्छी नहीं हूँ जिसने अभी-अभी प्रशिक्षण शुरू किया है। यह बहुत शर्मनाक है!” पर्यवेक्षक का आह भरना साबित करता है कि वह मुझसे निराश था। वह निश्चित रूप से यही सोच रहा होगा कि इतने समय से प्रशिक्षिण लेकर भी मेरी क्षमता इतनी सीमित कैसे हो सकती है? उस समय, हालाँकि मैं सिद्धांतों का अध्ययन करने के लिए अतिरिक्त समय दे रही थी, फिर भी मैं बहुत प्रगति नहीं कर पा रही थी।
बाद में अगुआओं ने शिन शिन और मुझे अलग कर दिया। हममें से हर एक पर धर्मोपदेशों के एक हिस्से को संसाधित करने की जिम्मेदारी थी। कुछ समय बाद धर्मोपदेशों को संसाधित करने में शिन शिन के नतीजे बेहतर होते गए। अगर पर्यवेक्षक को किसी समस्या के बारे में बात करनी होती तो वह उसे बुलाता था। मुझे याद आया कि एक बार एक पूरी सभा हुई जिसमें पर्यवेक्षक ने केवल शिन शिन द्वारा पूछे गए सवालों पर चर्चा की थी। मैं पिछली सभाएं याद करने लगी जब सबसे ज्यादा ध्यान मुझ पर होता था। अब मेरा प्रभामंडल शिन शिन ने छीन लिया गया था और मैं “क्लास ऑडिटर” बनकर रह गई थी जिससे कोई बात नहीं करता था। मेरा दिल दर्द का उफनता हुआ समंदर बन गया था। मेरे हृदय में एक ऐसी ऊर्जा लबालब भरी थी जो शिन शिन के साथ प्रतिस्पर्धा करके यह देखने को बेताब थी कि कौन बेहतर है। बाद में जैसे ही मैं पर्यवेक्षक को किसी सभा में यह कहते सुनती कि इस तरह के धर्मोपदेश से अच्छे नतीजे मिलते हैं, मैं जल्दी से जाकर उस तरह के धर्मोपदेश को संसाधित करने का प्रयास करती। मैं जल्दी से नतीजे प्राप्त करना चाहती थी ताकि भाई-बहन देख सकें कि मैं दूसरों से कम सक्षम नहीं हूँ। चूँकि मैं उपलब्धियों और लाभ के लिए बेचैन रहती थी और सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य नहीं करती थी, इसलिए आखिरकार मेरे द्वारा संसाधित किए गए अधिकांश धर्मोपदेशों में समस्याएँ रहती थीं। उस दौरान मैं शरीर और मन से थकी हुई रहती थी और कुछ हद तक दबाव में रहती थी, “मुझे स्पष्ट रूप से इन सिद्धांतों की एक निश्चित समझ है, लेकिन मैं जो धर्मोपदेश संसाधित करती हूँ उनमें हमेशा समस्याएँ क्यों होती हैं?” बाद में मैं अपना कर्तव्य करते समय अपनी ऊर्जा इकट्ठा नहीं कर पाती थी। एक दिन शिन शिन मेरे लिए एक धर्मोपदेश लेकर आई ताकि मैं देख सकूँ कि उसकी संगति स्पष्ट है या नहीं। शुरू में मैं उसकी मदद नहीं करना चाहती थी, लेकिन चूँकि उसने पूछा था तो मैं मना नहीं कर पाई। इसलिए मैंने उसे पढ़ा और पाया कि वह वाकई एक सार्थक धर्मोपदेश है, लेकिन उसमें कुछ समस्याएँ तो थीं। मैंने सोचा, “अगर मैं उसे मसले बता दूँ तो जब वह उसे संसाधित करके प्रस्तुत करेगी तो क्या यह उसे फिर से सुर्खियों में नहीं ले आएगा? क्या इससे ऐसा नहीं लगेगा कि उसका पेशेवर स्तर मुझसे ऊँचा है?” इसलिए मैंने केवल औपचारिक रूप से कुछ महत्वहीन अंशों का उल्लेख कर दिया और मुख्य भागों के बारे में कुछ नहीं कहा। उस समय मुझे थोड़ी आत्म-ग्लानि हुई, “मैंने समस्याएँ स्पष्ट रूप से देख ली थीं, लेकिन मैंने खुद को रोक लिया और कुछ नहीं बताया। मैं यह क्या कर रही हूँ?” लेकिन फिर मैंने सोचा, “उसे मेरा प्रभामंडल छीनने को किसने कहा?” जैसे ही मेरे मन में यह विचार आया, मेरे दिल में जो थोड़ी-बहुत आत्म-ग्लानि का भाव था, वह भी जाता रहा। बाद में अंतिम रूप दिए जाने और प्रस्तुत किए जाने से पहले यह धर्मोपदेश लंबे समय लटका रहा। उस पूरे समय के दौरान मैं लगातार शिन शिन के साथ प्रतिस्पर्धा की मनोदशा में जी रही थी। मेरे कर्तव्य निर्वहन के नतीजे लगातार खराब होते जा रहे थे और मेरा दिल अंधकारमय और उदास महसूस कर रहा था। मैं पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन बिल्कुल महसूस नहीं कर पा रही थी। मैं पूरे दिन उलझन में रहती थी। बाद में सभाओं के दौरान पर्यवेक्षक और कई अन्य पाठ-आधारित कार्यकर्ता नियमित रूप से शिन शिन की तेज प्रगति की प्रशंसा किया करते थे। कई पाठ-आधारित कार्यकर्ता शिन शिन से इस बारे में पूछते भी थे। मुझे लगता जैसे मुझे ठंड में छोड़ दिया गया है और मैं भाई-बहनों के सामने अपना सिर ऊँचा नहीं रख पा रही हूँ। मेरा दिल लगातार निराश और दुखी होता गया। कभी-कभी तो मेरी अपना कर्तव्य छोड़ देने की इच्छा होती, लेकिन हिम्मत नहीं होती थी; कभी अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने का मन करता था, लेकिन मेरे पास उसके लिए दिल नहीं था। पूरे दिन मैं उदास और खिन्न रहती थी और अपने कर्तव्य निर्वहन की बिल्कुल इच्छा नहीं होती थी। जब मैं परमेश्वर से प्रार्थना करती तो मेरे पास कहने को कुछ नहीं होता था। विशेष रूप से जब सभाओं के दौरान मैं बहनों को खुलकर संगति करते, बात करते और हंसते हुए देखती तो मेरे दिल में इतनी पीड़ा होती कि लगता जैसे कोई उसे चाकू से काट रहा है। मन करता कि घर चली जाऊँ। बाद में चूँकि मेरी मनोदशा कुछ समय से खराब थी और मुझे उच्च रक्तचाप था, पर्यवेक्षक ने मेरा कर्तव्य किसी और को सौंप दिया।
जब मेरा कर्तव्य किसी और को सौंप दिया गया तो मैं अपने दिल को शांत नहीं कर पा रही थी और तभी मैंने आत्म-चिंतन करना शुरू किया। मैंने विचार किया कि जब शिन शिन को अपने कर्तव्य निर्वहन में नतीजे प्राप्त हुए तो मुझे खुश होना चाहिए था। इसके बजाय मैं नकारात्मक और दुखी क्यों थी? जब मैं खोज रही थी तो मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और आखिरकार मुझे अपनी मनोदशा के बारे में कुछ समझ हासिल हुई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “किसी भी व्यक्ति को स्वयं को पूर्ण, प्रतिष्ठित, कुलीन या दूसरों से भिन्न नहीं समझना चाहिए; यह सब मनुष्य के अभिमानी स्वभाव और अज्ञानता से उत्पन्न होता है। हमेशा अपने आप को दूसरों से अलग समझना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी भी अपनी कमियाँ स्वीकार न कर पाना और कभी भी अपनी भूलों और असफलताओं का सामना न कर पाना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी भी दूसरों को अपने से ऊँचा नहीं होने देना या अपने से बेहतर नहीं होने देना—ऐसा अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; दूसरों की खूबियों को कभी खुद से श्रेष्ठ या बेहतर न होने देना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी दूसरों को अपने से बेहतर विचार, सुझाव और दृष्टिकोण न रखने देना और दूसरे लोगों के बेहतर होने का पता चलने पर खुद नकारात्मक हो जाना, बोलने की इच्छा न रखना, व्यथित और निराश महसूस करना और परेशान हो जाना—ये सभी चीजें अभिमानी स्वभाव के ही कारण होती हैं। अभिमानी स्वभाव तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा के प्रति रक्षात्मक, दूसरों के सुधारों को स्वीकार करने में असमर्थ, अपनी कमियों का सामना करने तथा अपनी असफलताओं और गलतियों को स्वीकार करने में असमर्थ बना सकता है। इसके अतिरिक्त, जब कोई व्यक्ति तुमसे बेहतर होता है, तो यह तुम्हारे दिल में घृणा और जलन पैदा कर सकता है, और तुम स्वयं को विवश महसूस कर सकते हो, कुछ इस तरह कि अब तुम अपना कर्तव्य निभाना नहीं चाहते और इसे निभाने में अनमने हो जाते हो। अभिमानी स्वभाव के कारण तुम्हारे अंदर ये व्यवहार और आदतें प्रकट हो जाती हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर ने उजागर किया कि लोगों का अभिमानी स्वभाव उन्हें खुद को पूर्ण मानने को प्रेरित करता है, वे लगातार सोचते रहते हैं कि वे दूसरों से बेहतर हैं और भीड़ से अलग हैं। जैसे ही कोई उनसे आगे निकल जाता है, उनकी प्रतिष्ठा और रुतबे की इच्छा को झटका लगता है। वे ईर्ष्यालु हो जाते हैं और लोगों से लड़ते हैं। अगर वे सफल नहीं हों तो नकारात्मक हो जाते हैं और उनमें अपने कर्तव्य निर्वहन की ऊर्जा भी नहीं होती है। मेरी भी ठीक यही मनोदशा थी। जब मैंने पहली बार धर्मोपदेशों को समझना शुरू किया तो मैं कुछ मार्गों पर संगति कर पाने योग्य हुई। भाई-बहन मेरा सम्मान करते थे। मुझे लगने लगा कि मैं उनसे बेहतर हूँ और पूरी तरह से उनके सम्मान की पात्र हूँ। जब मैं शिन शिन का मार्गदर्शन करती थी तो शुरुआत में मैं प्रेमपूर्ण हृदय से उसका मार्गदर्शन कर पाती थी। बाद में जब मैंने देखा कि उसमें अच्छी काबिलियत है और उसने तेजी से प्रगति की है, उसके कर्तव्य के नतीजे मुझसे बेहतर हैं और पर्यवेक्षक भी अक्सर उसकी प्रशंसा करता है तो मुझे लगा कि मेरी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा खतरे में हैं। मुझे लगा मैं मुँह दिखाने लायक नहीं रही, मैं वाकई दिल में असहज महसूस कर रही थी इसलिए मैं मन ही मन उसके साथ प्रतिस्पर्धा करने लगी। जब मैंने पर्यवेक्षक को यह कहते हुए सुना कि किस प्रकार के धर्मोपदेश से अच्छे नतीजे मिलते हैं तो मुझे सिद्धांतों पर विचार करने में समय और प्रयास लगाना चाहिए था, इस बात पर विचार करना चाहिए था कि धर्मोपदेशों को किस तरह से बेहतरीन ढंग से संसाधित किया जाए ताकि वे अच्छे नतीजे दें। लेकिन मैं उपलब्धियों और लाभ के लिए उत्सुक रहती थी ताकि अपना सम्मान बचा सकूँ और दूसरों से प्रतिष्ठा पाऊँ, इसलिए मैंने जिन धर्मोपदेशों को संसाधित किया था उनमें कई मसले थे। शिन शिन ने मुझे एक धर्मोपदेश की जाँच करने में मदद करने के लिए कहा, चूँकि मुझे डर था कि वह फिर से सुर्खियाँ बटोर लेगी और मुझसे आगे निकल जाएगी तो मैंने उससे ईमानदारी से बात नहीं की, जबकि मैंने समस्याएँ पहचान ली थीं। हालाँकि मुझे अपने दिल में आत्म-ग्लानि महसूस हुई, लेकिन मैं आत्म-त्याग करने और परमेश्वर की ओर मुड़ने को तैयार नहीं थी। लेकिन मैंने चाहे जितनी योजनाएँ बनाई हों या जो भी चालें चली हों, फिर भी मैं उससे पीछे रह गई। मैं इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर सकी, नकारात्मक और निराश हो गई। मुझमें अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने तक की ऊर्जा नहीं बची थी। वास्तव में शिन शिन की काबिलियत और उसकी समझ दोनों ही मुझसे बेहतर हैं। इसके अलावा वह कड़ी मेहनत करती थी और सिद्धांतों को जल्दी समझ लेती थी। यह पूरी तरह से सामान्य बात थी कि जब वह अपना कर्तव्य निभाती थी तो उसे अच्छे नतीजे मिलते थे। चूँकि प्रतिष्ठा और रुतबे की मेरी इच्छा बहुत प्रबल थी, इसलिए मैं उसके साथ खुले तौर पर और गुप्त रूप से खींच-तान करती थी। मैं बहुत अहंकारी और अज्ञानी थी! मुझमें रत्तीभर भी आत्म-जागरूकता नहीं थी! यह मेरा कर्तव्य निभाना कैसे हुआ? यह स्पष्ट है कि मैं प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भाग रही थी जिसकी वजह से परमेश्वर मुझसे घृणा करता था!
बाद में मैंने इस पर विचार किया। अपने कर्तव्य निभाने में मेरी शुरुआती प्रेरणा परमेश्वर को संतुष्ट करना था, लेकिन कुछ समय तक इस मार्ग पर चलने के बाद मैंने रुतबे के लिए कार्य करना शुरू कैसे कर दिया था? खोज करते समय मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और अपनी गलत खोज के बारे में कुछ समझ हासिल की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “मसीह-विरोधियों के लिए, अगर उनकी प्रतिष्ठा और रुतबे पर हमला किया जाता है और उन्हें छीन लिया जाता है तो यह उनकी जान लेने की कोशिश करने से भी अधिक गंभीर मामला होता है। मसीह-विरोधी चाहे कितने भी उपदेश सुन ले या परमेश्वर के कितने भी वचन पढ़ ले, उसे इस बात का दुख या पछतावा नहीं होगा कि उसने कभी सत्य का अभ्यास नहीं किया है और वह मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चल रहा है, न ही इस बात पर कि उसका प्रकृति सार मसीह-विरोधियों का है। बल्कि उसकी बुद्धि हमेशा इसी काम में लगी रहती है कि कैसे अपने रुतबे और प्रतिष्ठा को बढ़ाया जाए। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी जो कुछ भी करते हैं, दूसरों के सामने दिखावा करने के लिए करते हैं, परमेश्वर के सामने नहीं। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि ऐसे लोग रुतबे से इतना प्यार करते हैं कि वे इसे अपना जीवन समझते हैं, अपने जीवनभर का लक्ष्य समझते हैं। इसके अलावा, चूँकि वे अपने रुतबे से बहुत प्यार करते हैं, वे सत्य के अस्तित्व में विश्वास ही नहीं करते और यह तक कहा जा सकता है कि वे परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते। इस प्रकार, प्रतिष्ठा और रुतबा हासिल करने के लिए वे चाहे जैसे भी गणना करें, लोगों और परमेश्वर को धोखा देने के लिए चाहे जैसा बनावटी वेश बनाएँ, उनके दिलों की गहराइयों में कोई जागरूकता या धिक्कार नहीं होता, चिंतित होने की तो बात ही दूर है। प्रतिष्ठा और रुतबे की अपनी निरंतर खोज में वे, परमेश्वर ने जो किया है उसका भी मनमाने ढंग से खंडन करते हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? अपने दिलों की गहराइयों में मसीह-विरोधी मानते हैं, ‘समस्त प्रतिष्ठा और रुतबा व्यक्ति के अपने प्रयासों से अर्जित किया जाता है। केवल लोगों के बीच अपनी स्थिति मजबूत करके और प्रतिष्ठा और रुतबा हासिल करके ही वे परमेश्वर के आशीषों का आनंद ले सकते हैं। जीवन का मूल्य तभी होता है, जब लोग पूर्ण सत्ता और रुतबा हासिल कर लेते हैं। बस यही मनुष्य की तरह जीना है। इसके विपरीत, परमेश्वर के वचन में जिस तरह से जीने के लिए कहा गया है उस तरह जीना बेकार होगा—यानी हर चीज में परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना, स्वेच्छा से सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होना और एक सामान्य व्यक्ति की तरह जीना—इस तरह के व्यक्ति का कोई आदर नहीं करेगा। इंसान को अपने रुतबे, प्रतिष्ठा और खुशी खुद संघर्ष करके अर्जित करनी चाहिए; ये चीजें सकारात्मक और सक्रिय रवैये के साथ लड़कर जीती और हासिल की जानी चाहिए। कोई तुम्हें ये चीजें थाली में परोसकर नहीं देगा—निष्क्रिय होकर प्रतीक्षा करने से केवल विफलता मिलेगी।’ मसीह-विरोधी इसी प्रकार हिसाब लगाते रहते हैं। मसीह-विरोधियों का यही स्वभाव है। अगर तुम मसीह-विरोधियों से आशा करते हो कि वे सत्य को स्वीकार लेंगे, अपनी गलतियाँ मान लेंगे और असल में पछतावा करेंगे तो यह असंभव है—वे ऐसा बिल्कुल नहीं कर सकते। मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार शैतान जैसा है और वे सत्य से नफरत करते हैं, वे चाहे कहीं भी जाएँ, यहाँ तक कि धरती के अंतिम छोर तक चले जाएँ तो भी प्रतिष्ठा और रुतबा पाने की उनकी महत्वाकांक्षा कभी नहीं बदलेगी और न ही चीजों पर उनके विचार या जिस मार्ग पर वे चलते हैं वह कभी बदलेगा” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि मसीह-विरोधी प्रतिष्ठा और रुतबे को अपना जीवन समझते हैं। वे चाहे किसी भी समूह में हों, वे हमेशा यही चाहते हैं कि उनका सम्मान और पूजा हो। उन्हें लगता है कि इस तरह से बिताया गया जीवन ही मूल्यवान होता है। मसीह-विरोधी केवल लोगों के सामने कार्य करते हैं। वे परमेश्वर की जाँच को नहीं स्वीकारते। जैसे ही उनकी प्रतिष्ठा और रुतबे को नुकसान पहुँचता है, वे लड़ते हैं और झपट लेते हैं, अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को वापस पाने के लिए हर तरह की तिकड़म सोचते हैं। वे कभी भी अपना कर्तव्य व्यवहारिक और संतुष्ट तरीके से नहीं निभाते। यह मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार होता है। परमेश्वर के वचनों से जो बात उजागर हुई, उसने मुझे वाकई प्रभावित किया और डरा भी दिया। मैंने देखा कि मेरा व्यवहार मसीह-विरोधी के समान ही है। बचपन से ही स्कूल और परिवार ने मेरे अंदर जीने के शैतानी नियम भर दिए थे, जैसे “भीड़ से ऊपर उठो”, “आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है”, और “सबसे अलग दिखने का लक्ष्य रखो।” चाहे मैं किसी भी स्थिति में या लोगों के किसी भी समूह में क्यों न रहूँ, मैं दूसरों से सम्मान और प्रशंसा पाने के पीछे भागती थी। मुझे लगता था कि सम्मान पाने से जीवन सार्थक हो जाता है और नीची नजर से देखा जाना जीवन को दयनीय बना देता है। परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी मैं इन शैतानी नियमों पर निर्भर रहकर जी रही थी। उदाहरण के लिए उस समय जब मैं पाठ-आधारित कर्तव्य निभा रही थी तो सबसे पहले मैंने पर्यवेक्षक की स्वीकृति और भाई-बहनों का सम्मान जीता, इसलिए अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय मेरे अंदर बहुत ऊर्जा थी। बाद में जब शिन शिन के कर्तव्यों के नतीजे बेहतर होते गए, यहाँ तक कि मुझसे भी आगे निकल गए तो मेरे लिए उचित यही होता कि मैं उसकी क्षमताओं को आत्मसात कर लेती। इस तरह से कार्य करने से कलीसिया के कार्य को फायदा होता, लेकिन जब मैंने भाई-बहनों को उसके चारों ओर भीड़ लगाते और तरह-तरह के सवाल पूछते देखा तो मुझे लगा कि मुझे ठंड में छोड़ दिया गया है और अनदेखा किया गया है। मुझे लगा कि जो प्रभामंडल मूल रूप से मेरा था, उसे उसने छीन लिया है। मुझे वाकई असहज महसूस हुआ और लगा कि मैं दयनीय तरीके से जी रही हूँ। मैं उससे पीछे नहीं रहना चाहती थी और उसके साथ प्रतिस्पर्धा करने के तरीकों के बारे में सोचती रहती थी। जब वह समस्याओं पर सलाह लेने के लिए मेरे पास आती तो मैं बातें मन में रखती और उससे ईमानदारी से बात न करती। नतीजतन एक अच्छे धर्मोपदेश को बहुत लंबे विलंब के बाद ही अंतिम रूप दिया जा सका जिससे प्रगति बाधित हुई। यह मेरा कर्तव्य निर्वहन करना कैसे हुआ? मैं परमेश्वर का प्रतिरोध कर रही थी! शिन शिन युवा है, अच्छी काबिलियत रखती है और सत्य सिद्धांतों को समझने में भी तेज है। वह विकसित किए जाने लायक थी, यह बहुत सामान्य-सी बात थी कि पर्यवेक्षक सभाओं में उस पर ज्यादा ध्यान देता था। लेकिन मैं अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को बनाए रखने के लिए उसके साथ खींचा-तानी की तिकड़मों के बारे में सोचने में ही अपना दिमाग खपाती रहती थी। अंत में धर्मोपदेश प्रस्तुत करने में देरी हुई, जबकि मैं अंधकार में जा गिरी। वास्तव में शिन शिन के साथ प्रतिस्पर्धा ने मुझे पीड़ा और थकावट दी। लेकिन जब मुझे अनदेखा किया जाता तो मुझसे सहन नहीं होता था और मैं यह साबित करना चाहती थी कि अगर मैं उससे बेहतर नहीं तो उसके जितनी अच्छी तो हूँ ही। जब मैं यह हासिल नहीं कर सकी तो मेरा दिल नकारात्मक और पीड़ित हो गया। मैंने देखा कि मैं शैतानी नियमों से बहुत कसकर बँधी हुई हूँ जैसे कि “भीड़ से ऊपर उठो,” “आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है,” और “सबसे अलग दिखने का लक्ष्य रखो।” मेरे विचार बहुत विकृत थे। बाकी लोगों से अलग दिखने के चक्कर में मैंने जो कुछ भी किया उसने कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी और बाधा पैदा की और परमेश्वर का प्रतिरोध किया। मैंने सचमुच परमेश्वर को मुझसे घृणा करने पर मजबूर कर दिया। अगर मैंने फौरन पश्चात्ताप नहीं किया तो परमेश्वर मुझे प्रकट कर देर-सवेर नष्ट कर देगा। जब मुझे यह बात समझ आई तो मैं पश्चात्ताप और आत्मग्लानि से भर गई। मैंने पश्चात्ताप में परमेश्वर के सामने घुटने टेके, “प्रिय परमेश्वर! तुमने मुझे मेरा कर्तव्य निभाने के लिए ऊपर उठाया, लेकिन मुझमें शर्म नाम की कोई चीज नहीं थी। प्रतिष्ठा और रुतबे की चाह में मैंने अपना कर्तव्य दर-किनार कर दिया था। तुम मुझसे कितनी घृणा करते होगे! प्रिय परमेश्वर! मैं पश्चात्ताप करने को तैयार हूँ, सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलने और भाई-बहनों के साथ मिलकर अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने को तैयार हूँ।”
खोज करते समय मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और सत्य का अनुसरण करने के महत्व को और अधिक स्पष्ट रूप से देखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अगर लोग सिर्फ प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं, अगर वे सिर्फ अपने हितों के पीछे भागते हैं, तो वे कभी भी सत्य और जीवन प्राप्त नहीं कर पाएँगे और अंततः वे ही नुकसान उठाएँगे। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने वालों को ही बचाता है। अगर तुम सत्य स्वीकार नहीं करते, अगर तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव पर आत्म-चिंतन करने और उसे जानने में असमर्थ रहते हो, तो तुम सच्चा पश्चात्ताप नहीं करोगे और तुम जीवन-प्रवेश नहीं कर पाओगे। सत्य को स्वीकारना और स्वयं को जानना तुम्हारे जीवन के विकास और उद्धार का मार्ग है, यह तुम्हारे लिए अवसर है कि तुम परमेश्वर के सामने आकर उसकी जाँच को स्वीकार करो, उसके न्याय और ताड़ना को स्वीकार करो और जीवन और सत्य को प्राप्त करो। अगर तुम प्रसिद्धि, लाभ, रुतबे और अपने हितों के लिए सत्य का अनुसरण करना छोड़ देते हो, तो यह परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को प्राप्त करने और उद्धार पाने का अवसर छोड़ने के समान है। तुम प्रसिद्धि, लाभ, रुतबा और अपने हित चुनते हो, लेकिन तुम सत्य का त्याग कर देते हो, जीवन खो देते हो और बचाए जाने का मौका गँवा देते हो। किसमें अधिक सार्थकता है? अगर तुम अपने हित चुनकर सत्य को त्याग देते हो, तो क्या यह मूर्खतापूर्ण नहीं है? आम बोलचाल की भाषा में कहें तो यह एक छोटे से फायदे के लिए बहुत बड़ा नुकसान उठाना है। प्रसिद्धि, लाभ, रुतबा, धन और हित सब अस्थायी हैं, ये सब धुएँ के गुबार की तरह लुप्त हो जाते हैं, जबकि सत्य और जीवन शाश्वत और अपरिवर्तनीय हैं। अगर लोग प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे दौड़ाने वाले भ्रष्ट स्वभाव दूर कर लें, तो वे उद्धार पाने की आशा कर सकते हैं। इसके अलावा, लोगों द्वारा प्राप्त सत्य शाश्वत होते हैं; शैतान लोगों से ये सत्य छीन नहीं सकता, न ही कोई और उनसे यह छीन सकता है। तुमने अपने हित त्याग देते हो, लेकिन तुम्हें सत्य और उद्धार प्राप्त हो जाते हैं; ये तुम्हारे अपने परिणाम हैं और इन्हें तुम अपने लिए प्राप्त करते हो। अगर लोग सत्य का अभ्यास करने का चुनाव करते हैं, तो वे अपने हितों को गँवा देने के बावजूद परमेश्वर का उद्धार और शाश्वत जीवन हासिल कर रहे होते हैं। वे सबसे ज़्यादा बुद्धिमान लोग हैं। अगर लोग अपने हितों के लिए सत्य को त्याग देते हैं, तो वे जीवन और परमेश्वर के उद्धार को गँवा देते हैं; वे लोग सबसे ज्यादा बेवकूफ होते हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने स्वभाव का ज्ञान उसमें बदलाव की बुनियाद है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करने के बाद मैं समझ गई कि परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने वालों को बचाता है। जो लोग त्याग किए बिना प्रतिष्ठा और रुतबे को कसकर पकड़े रहते हैं, वे कभी भी सत्य नहीं पा सकते, फिर चाहे वे कितने भी परिवेशों का अनुभव कर लें। अंत में परमेश्वर उन्हें हटा देगा क्योंकि उन्होंने परमेश्वर का प्रतिरोध किया। वे बेहद मूर्ख लोग हैं। जब मैंने परमेश्वर के वचनों से अपनी तुलना की तो मैंने पाया कि मैं मूर्ख हूँ। शिन शिन युवा और अच्छी काबिलियत वाली है। यह बहुत स्वाभाविक था कि प्रशिक्षण की अवधि के बाद वह अपना कर्तव्य निभाने में मुझसे बेहतर नतीजे प्राप्त करती। मैं खुद को ठीक से समझ नहीं पाई और इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर सकी कि मैं उसके जितनी अच्छी नहीं हूँ। मैं प्रसिद्धि और लाभ के लिए लड़ने-झगड़ने की मनोदशा में रहती थी। नतीजतन पवित्र आत्मा का कार्य गँवाकर मैं अंधकार में जा गिरी। न केवल मैंने अपने पेशेवर कौशल में कोई प्रगति नहीं की, बल्कि मेरा जीवन प्रवेश भी बरबाद हो गया। मैंने प्रतिष्ठा और रुतबे को अपना कर्तव्य निभाने और सत्य प्राप्त करने से ज्यादा महत्वपूर्ण माना। अंत में मुझे कुछ हासिल नहीं हुआ। क्या यह सरासर मूर्खता नहीं थी? अब मैं चीजों को ज्यादा स्पष्ट रूप से देख सकती थी। प्रतिष्ठा और रुतबा बादलों और धुंध की तरह गायब हो जाते हैं और दूसरों से सम्मान पाने के पीछे भागना व्यर्थ है। अगर मैंने सत्य और जीवन प्राप्त किए बिना सम्मान पा लिया होता तो आखिरकार परमेश्वर मुझे ठुकराकर हटा देता और मैंने उद्धार का अवसर गँवा दिया होता। मैं मूर्ख बनकर प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागती नहीं रह सकती थी। मुझे सत्य सिद्धांतों में प्रयास करना होगा। यह बुद्धिमानी भरा विकल्प था।
कुछ समय बाद मैंने फिर से पाठ-आधारित कर्तव्य निभाना शुरू कर दिया। एक दिन पर्यवेक्षक ने मुझे बताया कि बहन हान ली ने अभी-अभी धर्मोपदेशों को संसाधित करने का प्रशिक्षण शुरू किया है और अभी तक उसे सिद्धांतों की पक्की समझ नहीं है। उसने मुझे उसकी और मदद करने को कहा। इसके बाद मैंने हान ली के साथ धर्मोपदेशों को संसाधित करने के सिद्धांतों के बारे में संगति की। हमने मिलकर धर्मोपदेशों का विश्लेषण किया। मैंने देखा कि हान ली विचारों और राय से भरी हुई है और उसने सिद्धांतों को जल्दी से समझ लिया। मैं उसके लिए खुश थी। कुछ समय बाद पर्यवेक्षक हान ली की तेजी से हुई प्रगति के लिए लगातार प्रशंसा करने लगा। अगुआ ने यह भी कहा कि उसने कभी सोचा नहीं था कि हान ली इतनी तेजी से प्रगति करेगी। जब मैंने यह सुना तो मेरे दिल में ईर्ष्यालु भावना पैदा होने लगी, “पर्यवेक्षक और अगुआ दोनों ही हान ली की प्रशंसा करते और उसे महत्व देते हैं। लेकिन मैं अभी भी एक अनाम मोहरा हूँ!” जब मैंने यह सोचा तो मुझे एहसास हुआ कि मेरी पुरानी समस्या ने मुझे एक बार फिर से आ घेरा है और मैं फिर से अपनी तुलना दूसरों से कर रही हूँ। मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की। मैंने परमेश्वर के इन वचनों के बारे में सोचा : “तुम्हें पहले परमेश्वर के घर के हितों के बारे में सोचना चाहिए, परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना चाहिए, और कलीसिया के कार्य का ध्यान रखना चाहिए। इन चीजों को पहले स्थान पर रखना चाहिए; उसके बाद ही तुम अपनी हैसियत की स्थिरता या दूसरे लोग तुम्हारे बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता कर सकते हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि जब तुम इसे दो चरणों में बाँट देते हो और कुछ समझौते कर लेते हो तो यह थोड़ा आसान हो जाता है? यदि तुम कुछ समय के लिए इस तरह अभ्यास करते हो, तो तुम यह अनुभव करने लगोगे कि परमेश्वर को संतुष्ट करना इतना भी मुश्किल काम नहीं है। इसके अलावा, तुम्हें अपनी जिम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और कर्तव्य पूरे करने चाहिए, और अपनी स्वार्थी इच्छाओं, मंशाओं और उद्देश्यों को दूर रखना चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता दिखानी चाहिए, और परमेश्वर के घर के हितों को, कलीसिया के कार्य को और जो कर्तव्य तुम्हें निभाना चाहिए, उसे पहले स्थान पर रखना चाहिए। कुछ समय तक ऐसे अनुभव के बाद, तुम पाओगे कि यह आचरण का एक अच्छा तरीका है। यह सरलता और ईमानदारी से जीना और नीच और भ्रष्ट व्यक्ति न होना है, यह घृणित, नीच और निकम्मा होने की बजाय न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है। तुम पाओगे कि किसी व्यक्ति को ऐसे ही कार्य करना चाहिए और ऐसी ही छवि को जीना चाहिए। धीरे-धीरे, अपने हितों को तुष्ट करने की तुम्हारी इच्छा घटती चली जाएगी” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। मुझे परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना चाहिए और परमेश्वर के घर के हितों को सबसे पहले रखना चाहिए। हान ली ने तेजी से प्रगति की थी और उसे अपने कर्तव्य निर्वहन में अच्छे नतीजे भी मिले थे। यह कलीसिया के कार्य के लिए फायदेमंद था। मैं अपने दम पर जो कर सकती थी उसकी एक सीमा थी। मुझे दरअसल हान ली के साथ अपनी समझ के बारे में संगति करनी चाहिए थी और कुछ भी छिपाना नहीं चाहिए था। इससे उसे सिद्धांतों को जितनी जल्दी हो सके समझने में मदद मिलती ताकि जिन धर्मोपदेशों को उसने संसाधित किया है, वे मानक के अनुरूप हों। यह अच्छे कर्मों की तैयारी करना भी था। जब मैंने इस तरह सोचा तो मेरे दिल ने उन्मुक्त महसूस किया। अब मुझे हान ली से ईर्ष्या नहीं थी और मैं अब अपनी तुलना उससे नहीं करती थी। बाद में जब मैंने देखा कि मेरे आस-पास के भाई-बहन मुझसे बेहतर हैं तो मैं इसे सही तरीके से ले पा रही थी। जब मुझे ऐसी चीजों का सामना करना पड़ता जो मुझे समझ में नहीं आतीं या जिन्हें मैं नहीं कर पाती थी तो मैं अपना घमंड और अभिमान त्यागकर भाई-बहनों के साथ उन चीजों पर चर्चा करने का अभ्यास करती। कुछ समय तक इसका अभ्यास करने के बाद मुझे लगा कि मैं अपने कर्तव्य और जीवन में प्रवेश करने में प्रगति कर रही हूँ, मेरा दिल विशेष रूप से सहज और शांत महसूस करने लगा। अब मैं प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे को कम महत्वपूर्ण मानती हूँ। ये परमेश्वर के वचनों द्वारा प्राप्त नतीजे हैं। परमेश्वर का धन्यवाद!