90. अगर तुम लगातार खुद को बचाते रहोगे तो अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं कर पाओगे
मैं कलीसिया में धर्मोपदेशों की जाँच कर रही थी। मैं यिलिन और यियांग के साथ काम कर रही थी। अप्रैल 2022 में एक दिन अगुआओं ने एक पत्र भेजा जिसमें कहा गया था, “यिलिन धर्मोपदेशों की जाँच करते समय सिद्धांतों में प्रवेश नहीं करती है और उसके काम के नतीजे अच्छे नहीं हैं। उसे बरखास्त कर देना चाहिए। तुम और यियांग अपने कर्तव्य करने से कुछ नतीजे हासिल कर रही हो, लेकिन हाल ही में धर्मोपदेशों की जाँच के तुम्हारे तरीके में विचलन मिले हैं : तुमने कुछ अहम धर्मोपदेशों की छँटाई कर दी है। तुम्हें फिलहाल रोका जा रहा है और तुम्हारी निगरानी की जाएगी।” जब मैंने यह समाचार देखा तो मेरा दिल सभी प्रकार की भावनाओं से भर गया। यिलिन की काबिलियत मुझसे बेहतर थी, लेकिन उसे भी बरखास्त कर दिया गया था। मेरी काबिलियत और कार्य क्षमता उसके जितनी अच्छी नहीं थी और मुझे सिद्धांतों की अच्छी समझ नहीं थी। अगर मैंने धर्मोपदेशों की जाँच में एक और गलती की तो मुझे निश्चित रूप से बरखास्त कर दिया जाएगा। अब परमेश्वर का कार्य जल्दी ही पूरा होने वाला है। अगर मुझे बरखास्त कर दिया गया और मेरे पास करने के लिए कोई कर्तव्य नहीं हुआ तो क्या मुझे अभी भी उद्धार का मौका मिलेगा? जब मैंने यह सोचा तो मुझे बहुत भारीपन महसूस हुआ। उस दौरान जब भी मैं कोई धर्मोपदेश जाँचती तो मैं उसे कई बार पढ़ती थी, डरती थी कि अगर कोई विचलन दिखाई दिया तो मुझे बरखास्त कर दिया जाएगा। लेकिन मैं गलती करने से जितना ज्यादा डरती, चीजों को सही ढंग से तौलने में उतनी ही कम सक्षम हो जाती और उतनी ही अधिक समस्याएँ और विचलन होते। एक बार हम एक धर्मोपदेश का मूल्यांकन कर रहे थे, जिसमें मुझे लगा कि परतें स्पष्ट हैं और काफी व्यावहारिक तरीके से संगति की गई है। मैंने इसे अगुआओं को देखने के लिए दिया। मैंने कभी उम्मीद नहीं की थी कि अगुआ इसे पढ़ेंगे और कहेंगे, “इस धर्मोपदेश में धार्मिक धारणाओं का समाधान नहीं किया गया है। इसे जमा नहीं किया जा सकता।” मैं हैरान थी, “मैंने इसे कैसे नहीं देखा? अगर अगुआ देखते हैं कि मुझमें सिद्धांतों की समझ नहीं है और मैं अपने कर्तव्य करने में प्रगति नहीं कर रही हूँ तो क्या वे मुझे बरखास्त कर देंगे?” बाद में मैं अपने कर्तव्य करते समय बहुत ही डरपोक और पहल करने में असमर्थ हो गई। धर्मोपदेश की जाँच करते समय मैं अपनी राय स्पष्टता से बताने की हिम्मत नहीं करती थी, क्योंकि मुझे गलती करने, बेनकाब होने और बरखास्त किए जाने का डर था। इसलिए मैं अगुआओं से हर चीज के बारे में पूछती थी और उनसे निर्णय लेने के लिए कहती थी।
एक बार कलीसियाओं ने कुछ धर्मोपदेश भेजे। उन्हें पढ़ने के बाद हमने पाया कि चार धर्मोपदेश काफी व्यावहारिक रूप से लिखे गए थे और उन्हें जमा किया जा सकता था। लेकिन अपने दिल में मैं हिसाब लगा रही थी, “क्या होगा अगर मैंने एक और बेकार धर्मोपदेश जमा कर दिया क्योंकि मैंने इसे गलत तरीके से पढ़ा है? अगर अगुआओं को लगता है कि मैं सिद्धांत नहीं समझती और वे मुझे बरखास्त कर देते हैं तो मैं क्या करूँगी? सुरक्षित रहने के लिए मुझे उन्हें पहले अगुआओं को देखने के लिए देना चाहिए। इस तरह भले ही मैं कोई गलती करूँ, मुख्य जिम्मेदारी मुझ पर नहीं आएगी।” इसलिए मैंने ये धर्मोपदेश अगुआओं को दे दिए। कुछ दिनों के बाद अगुआओं ने तीन धर्मोपदेशों के लिए अपने सुझावों के साथ जवाब दिया, और कहा कि उन्हें जमा किया जा सकता है। लेकिन उन्होंने झांग ली द्वारा दिए गए दूसरे धर्मोपदेश के बारे में कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। मैंने मन ही मन सोचा, “अगर अगुआओं ने जवाब नहीं दिया है तो क्या उन्हें लगता है कि इसमें कोई समस्या है? बेहतर होगा कि मैं इसे जमा न करूँ। इस तरह मैं ऐसी स्थिति से बच सकती हूँ, जहाँ बाद में सिद्धांत की समस्या सामने आए और ऐसा लगे कि मुझमें भेद पहचानने की क्षमता नहीं है। मुझे अगुआओं की प्रतिक्रिया का इंतजार करना चाहिए और फिर तय करना चाहिए कि इसे जमा करना है या नहीं। यह इस तरह से सुरक्षित रहेगा।” इसके बाद मैंने खुद को दूसरे कामों में व्यस्त कर लिया। यह धर्मोपदेश दो सप्ताह तक अटका रहा। इस दौरान यियांग ने मुझे याद दिलाया कि इस धर्मोपदेश को जल्द से जल्द जमा किया जाना चाहिए। मैंने कहा, “इसे जमा करने से पहले अगुआओं की प्रतिक्रिया का इंतजार करो। हमें अल्पकालिक सफलताओं के लिए बहुत उत्सुक नहीं होना चाहिए।” यियांग ने इसके आगे और कुछ नहीं कहा। एक दिन अगुआओं ने एक पत्र भेजा, जिसमें लिखा था, “हमने तुम्हें झांग ली द्वारा लिखे गए धर्मोपदेश को आगे बढ़ाते नहीं देखा। यह कहाँ अटक गया है?” तभी मुझे एहसास हुआ कि अगुआओं ने झांग ली के धर्मोपदेश के बारे में बहुत पहले ही जवाब दे दिया था और कहा था कि इसे प्रूफरीड करके जमा किया जा सकता है। बस हमें अभी तक पत्र नहीं मिला था। जब मुझे यह समाचार मिला तो मेरे दिल में कुछ अवर्णनीय महसूस हुआ। मैं न चाहते हुए भी हैरान हो गई : मैंने स्पष्ट देखा कि झांग ली का धर्मोपदेश काफी व्यावहारिक था और उसकी अपनी भाषा शैली थी। सिद्धांत के अनुसार, इसे जमा किया जाना चाहिए। लेकिन मैं अगुआओं के निर्णय का इंतजार क्यों करती रही? मैं किस भ्रष्ट स्वभाव से नियंत्रित हो रही थी? मैं प्रार्थना करने और खोजने के लिए अपनी मनोदशा को परमेश्वर के सामने लाई।
बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “कई लोग ऐसे होते हैं, जो कर्तव्य पालन की जिम्मेदारी लेने से डरते हैं। उनका डर मुख्यतः तीन तरीकों से प्रकट होता है। पहला यह है कि वे ऐसे कर्तव्य चुनते हैं, जिनमें जिम्मेदारी लेने की आवश्यकता नहीं होती। ... दूसरा तरीका यह है कि जब उन पर कोई कठिनाई आती है या उनका किसी समस्या से सामना होता है तो उनका पहला कदम यह होता है कि उसकी रिपोर्ट किसी अगुआ को कर दी जाए और अगुआ को ही उसे सँभालने और हल करने दिया जाए, और आशा की जाए कि उनके आराम में कोई खलल नहीं पड़ेगा। वे इस बात की परवाह नहीं करते कि अगुआ उस मुद्दे को कैसे सँभालता है, वे खुद उस पर कोई ध्यान नहीं देते—जब तक वे खुद जिम्मेदारी नहीं लेते, तब तक उनके लिए सब ठीक है। क्या ऐसा कर्तव्य-पालन परमेश्वर के प्रति निष्ठा है? इसे अपनी जिम्मेदारी दूसरे के सिर मढ़ना, कर्तव्य की उपेक्षा करना, चालाकियाँ करना कहा जाता है। यह केवल बातें बनाना है; वे कुछ भी वास्तविक नहीं कर रहे हैं। वे मन में कहते हैं, ‘अगर यह चीज मुझे सुलझानी है और मैं गलती कर बैठा तो क्या होगा? जब वे देखेंगे कि किसे दोष देना है, तो क्या वे मुझे नहीं पकड़ेंगे? क्या इसकी जिम्मेदारी सबसे पहले मुझ पर नहीं आएगी?’ उन्हें इसी बात की चिंता रहती है। लेकिन क्या तुम मानते हो कि परमेश्वर सबकी जाँच करता है? गलतियाँ सबसे होती हैं। अगर किसी नेक इरादे वाले व्यक्ति के पास अनुभव की कमी है और उसने पहले कोई मामला नहीं सँभाला है, लेकिन उसने पूरी मेहनत की है, तो यह परमेश्वर को दिखता है। तुम्हें विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर सभी चीजों और मनुष्य के हृदय की जाँच करता है। अगर कोई इस पर भी विश्वास नहीं करता, तो क्या वह छद्म-विश्वासी नहीं है? फिर ऐसे व्यक्ति के कर्तव्य निभाने के मायने ही क्या हैं? इससे वाकई कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे यह कर्तव्य निभाते हैं या नहीं, है न? वे जिम्मेदारी लेने से डरते हैं और जिम्मेदारी से भागते हैं। जब कुछ होता है तो वे तुरंत समस्या से निपटने का तरीका सोचने की कोशिश नहीं करते, बल्कि सबसे पहले वे अगुआ को कॉल करके इसकी सूचना देते हैं। निस्संदेह, कुछ लोग अगुआ को सूचित करते हुए खुद समस्या से निपटने का प्रयास करते हैं, लेकिन कुछ लोग ऐसा नहीं करते, और उनका पहला काम होता है अगुआ को कॉल करना, और कॉल करने के बाद वे बस निष्क्रिय रहकर निर्देशों की प्रतीक्षा करते हैं। जब अगुआ उन्हें कोई कदम उठाने का निर्देश देता है, तो वे वह कदम उठाते हैं; अगर अगुआ कुछ करने के लिए कहता है, तो वे वैसा करते हैं। अगर अगुआ कुछ नहीं कहता या कोई निर्देश नहीं देता, तो वे कुछ नहीं करते और बस टालते रहते हैं। बिना किसी के प्रेरित किए या बिना निगरानी के वे कोई काम नहीं करते। बताओ, क्या ऐसा व्यक्ति कर्तव्य निभा रहा है? अगर वह मेहनत कर भी रहा हो, तो भी उसमें निष्ठा नहीं होती! एक और तरीका है, जिससे किसी व्यक्ति का कर्तव्य निर्वहन करते समय जिम्मेदारी लेने का डर प्रकट होता है। जब ऐसे लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो उनमें से कुछ लोग बस थोड़ा-सा सतही, सरल कार्य करते हैं, ऐसा कार्य जिसमें जिम्मेदारी लेना शामिल नहीं होता। जिस कार्य में कठिनाइयाँ और जिम्मेदारी लेना शामिल होता है, उसे वे दूसरों पर डाल देते हैं, और अगर कुछ गलत हो जाता है, तो दोष उन लोगों पर मढ़ देते हैं और अपना दामन साफ रखते हैं। जब कलीसिया के अगुआ देखते हैं कि वे गैर-जिम्मेदार हैं, तो वे धैर्यपूर्वक मदद की पेशकश करते हैं, या उनकी काट-छाँट करते हैं, ताकि वे जिम्मेदारी लेने में सक्षम हो सकें। लेकिन फिर भी, वे ऐसा नहीं करना चाहते, और सोचते हैं, ‘यह कर्तव्य करना कठिन है। चीजें गलत होने पर मुझे जिम्मेदारी लेनी होगी और हो सकता है कि मुझे बाहर निकालकर हटा भी दिया जाए और यह मेरे लिए अंत होगा।’ यह कैसा रवैया है? अगर उन्हें अपना कर्तव्य निभाने में जिम्मेदारी का एहसास नहीं है, तो वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे निभा सकते हैं? जो लोग वास्तव में खुद को परमेश्वर के लिए नहीं खपाते, वे कोई कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभा सकते, और जो लोग जिम्मेदारी लेने से डरते हैं, वे अपने कर्तव्य निभाने पर सिर्फ देरी ही करेंगे। ऐसे लोग विश्वसनीय या भरोसेमंद नहीं होते; वे सिर्फ पेट भरने के लिए अपना कर्तव्य निभाते हैं। क्या ऐसे ‘भिखारियों’ को निकाल देना चाहिए? बेशक निकाल देना चाहिए। परमेश्वर के घर को ऐसे लोगों की जरूरत नहीं। ये उन लोगों की तीन अभिव्यक्तियाँ हैं जो अपना कर्तव्य निभाने की जिम्मेदारी लेने से डरते हैं। जो लोग अपने कर्तव्य में जिम्मेदारी लेने से डरते हैं वे एक निष्ठावान मजदूर के स्तर तक भी नहीं पहुँच पाते, और कर्तव्य निभाने के लायक नहीं होते हैं। कुछ लोगों को अपने कर्तव्य के प्रति इस प्रकार के रवैये के कारण हटा दिया जाता है। अब भी वे इसका कारण नहीं जानते और शिकायत करते हुए कहते हैं, ‘मैंने अपना कर्तव्य पूरे जोश के साथ निभाया, तो भी उन्होंने मुझे इतनी बेरुखी से बाहर क्यों निकाल दिया?’ उनकी समझ में यह बात अब भी नहीं आती। जो लोग सत्य को नहीं समझते वे जीवन भर यह समझने में असमर्थ रहते हैं कि उन्हें क्यों हटाया गया था। वे अपने लिए बहाने बनाते हैं, और अपना बचाव करते रहते हैं, सोचते हैं, ‘किसी के लिए अपनी रक्षा करना स्वाभाविक है, और उन्हें ऐसा करना चाहिए। किसे अपना थोड़ा सा ख्याल नहीं रखना चाहिए? किसे अपने बारे में थोड़ा सा नहीं सोचना चाहिए? किसे अपने बच निकलने का रास्ता खोल कर रखने की जरूरत नहीं है?’ अगर कोई समस्या आने पर तुम अपनी रक्षा करते हो और अपने लिए बचने का रास्ता रखते हो, पिछले दरवाजे से निकलना चाहते हो, तो क्या ऐसा करके तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो? यह सत्य का अभ्यास करना नहीं है—यह धूर्त होना है। अब तुम परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभा रहे हो। कोई कर्तव्य निभाने का पहला सिद्धांत क्या है? वह यह है कि पहले तुम्हें अपने पूरे दिल से भरसक प्रयास करते हुए वह कर्तव्य निभाना चाहिए और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करनी चाहिए। यह एक सत्य सिद्धांत है, जिसे तुम्हें अभ्यास में लाना चाहिए। अपने लिए बच निकलने का रास्ता, पिछला दरवाजा छोड़कर स्वयं को बचाना, अविश्वासियों द्वारा अपनाए गए अभ्यास का सिद्धांत है और उनका सबसे ऊँचा फलसफा है। सभी मामलों में सबसे पहले अपने बारे में सोचना और अपने हित बाकी सब चीजों से ऊपर रखना, दूसरों के बारे में न सोचना, परमेश्वर के घर के हितों और दूसरों के हितों के साथ कोई संबंध न रखना, अपने हितों के बारे में पहले सोचना और फिर बचाव के रास्ते के बारे में सोचना—क्या यह एक अविश्वासी नहीं है? एक अविश्वासी ठीक ऐसा ही होता है। इस तरह का व्यक्ति कोई कर्तव्य निभाने के योग्य नहीं है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि लोग कर्तव्य करते समय जिम्मेदारी लेने से लगातार डरते हैं। वे गलती करने, बेनकाब होने और बरखास्त किए जाने से डरते हैं। जब चीजें सामने आती हैं तो वे अगुआओं को निर्णय लेने देते हैं, अपने निजी हितों की रक्षा के लिए हमेशा बच निकलने का रास्ता निकालते हैं। यह वही सिद्धांत है जिसका पालन अविश्वासी लोग चीजें सँभालते समय करते हैं। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे दिल पर चाकू से वार किया जा रहा हो। क्या मेरा व्यवहार बिल्कुल ऐसा ही नहीं था? जब यिलिन को बरखास्त किया गया था और मेरे द्वारा जाँचे गए धर्मोपदेशों में विचलन और समस्याएँ मिली थीं और मुझे निगरानी में रखा गया था तो मैं समस्याओं के मूल कारण खोजने और उन्हें सुलझाने के लिए सत्य की खोज करने परमेश्वर के सामने नहीं आई थी। इसके बजाय मुझे फिक्र थी कि मुझे बरखास्त कर दिया जाएगा और मैं कोई कर्तव्य करने में असमर्थ हो जाऊँगी और इसलिए मेरे पास कोई अच्छी संभावना या मंजिल नहीं होगी। मैंने स्पष्ट देखा था कि ये कुछ धर्मोपदेश काफी व्यावहारिक हैं और जमा किए जा सकते हैं, लेकिन मुझे डर था कि अगर विचलन सामने आए तो मेरी अपनी समस्याएँ उजागर हो जाएँगी और मुझे बरखास्त कर दिया जाएगा। इसलिए मैंने अगुआओं को उन पर फैसला लेने के लिए मजबूर किया, बहाना बनाती रही कि मैं इस बारे में निश्चित नहीं हूँ। इस तरह अगर समस्याएँ मिलतीं तो यह अकेले मेरी ही जिम्मेदारी नहीं होती। जब अगुआओं ने जवाब नहीं दिया तो मैंने चीजों को लटका दिया और इंतजार करती रही, नतीजतन एक मूल्यवान धर्मोपदेश तुरंत जमा नहीं किया गया और प्रगति में रुकावट आई। उस समय मैं मानती थी कि मैं पहले की तरह अल्पकालिक सफलताओं के लिए उत्सुक नहीं हूँ। मुझे अपने आप पर पहले जैसा भरोसा भी नहीं रहा था और मेरा मानना था कि जब चीजें सामने आती हैं तो अगुआओं से सुझाव माँगने की क्षमता ही विवेक का प्रतीक है। अब मुझे आखिरकार एहसास हुआ कि मैं अपने घृणित इरादे अंदर ही छिपा रही थी। मैं जिम्मेदारी लेने से डरती थी और खुद को बचाने के लिए मैंने चालाकी भरे तरीके अपनाए थे। मैं बेहद स्वार्थी और नीच, बेहद धूर्त और धोखेबाज थी! अगर मेरे इरादे सही होते तो कलीसिया के कार्य पर विचारशील होने के मामले में मुझे जल्द से जल्द मूल्यवान धर्मोपदेशों की जाँच करनी चाहिए थी ताकि वे परमेश्वर की गवाही दे सकें। यहाँ तक कि अगर समस्याएँ या विचलन होते तो भी मैं तुरंत उनकी समीक्षा कर सकती थी और उन्हें सुलझाने के लिए सत्य खोज सकती थी। इस तरह विचलनों की संख्या कम होती रहती। लेकिन मुझे विश्वास नहीं था कि परमेश्वर हर चीज की जाँच-पड़ताल करता है। मुझे डर था कि अगर मैंने कोई गलती की तो मुझे बरखास्त कर दिया जाएगा और मेरा भविष्य सुनिश्चित नहीं हो पाएगा। मैंने खुद को बचाने के लिए धर्मोपदेश जमा करने में देरी करना पसंद किया। मैं कलीसिया के कार्य के बारे में जरा भी विचारशील नहीं थी। ऐसा करने से न सिर्फ मुझे अच्छा भविष्य और मंजिल नहीं मिलती, बल्कि परमेश्वर की बेइंतहा नफरत भी मेरे ऊपर आती।
बाद में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “कुछ लोग यह नहीं मानते कि परमेश्वर का घर लोगों के साथ उचित व्यवहार कर सकता है। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर के घर में परमेश्वर का और सत्य का शासन चलता है। उनका मानना है कि व्यक्ति चाहे कोई भी कर्तव्य निभाए, अगर उसमें कोई समस्या उत्पन्न होती है, तो परमेश्वर का घर तुरंत उस व्यक्ति से निपटेगा, उससे उस कर्तव्य को निभाने का अधिकार छीनकर उसे दूर भेज देगा या फिर उसे कलीसिया से ही निकाल देगा। क्या वाकई इस ढंग से काम होता है? निश्चित रूप से नहीं। परमेश्वर का घर हर व्यक्ति के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करता है। परमेश्वर सभी के साथ धार्मिकता से व्यवहार करता है। वह केवल यह नहीं देखता कि व्यक्ति ने किसी परिस्थिति-विशेष में कैसा व्यवहार किया है; वह उस व्यक्ति की प्रकृति सार, उसके इरादे, उसका रवैया देखता है, खास तौर से वह यह देखता है कि क्या वह व्यक्ति गलती करने पर आत्मचिंतन कर सकता है, क्या वह पश्चात्ताप करता है और क्या वह उसके वचनों के आधार पर समस्या के सार को समझ सकता है ताकि वह सत्य समझ ले और अपने आपसे घृणा करने लगे और सच में पश्चात्ताप करे। ... अच्छा बताओ, अगर किसी व्यक्ति ने कोई गलती की है लेकिन वह सच्ची समझ हासिल कर पश्चात्ताप करने को तैयार हो, तो क्या परमेश्वर का घर उसे एक अवसर नहीं देगा? जैसे-जैसे परमेश्वर की छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना समापन की ओर बढ़ रही है, ऐसे बहुत-से कर्तव्य हैं जिन्हें पूरा करना है। लेकिन अगर तुम में अंतरात्मा और विवेक नहीं है और तुम अपने उचित काम पर ध्यान नहीं देते, अगर तुम्हें कर्तव्य निभाने का अवसर मिलता है, लेकिन तुम उसे सँजोकर रखना नहीं जानते, सत्य का जरा भी अनुसरण नहीं करते और सबसे अनुकूल समय अपने हाथ से निकल जाने देते हो, तो तुम्हारा खुलासा किया जाएगा। अगर तुम अपने कर्तव्य निभाने में लगातार अनमने रहते हो, और काट-छाँट के समय जरा भी समर्पण-भाव नहीं रखते, तो क्या परमेश्वर का घर तब भी किसी कर्तव्य के निर्वाह के लिए तुम्हारा उपयोग करेगा? परमेश्वर के घर में सत्य का शासन चलता है, शैतान का नहीं। हर चीज में परमेश्वर की बात ही अंतिम होती है। वही इंसानों को बचाने का कार्य कर रहा है, वही सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है। क्या सही है और क्या गलत, तुम्हें इसका विश्लेषण करने की कोई जरूरत नहीं है; तुम्हें बस सुनना और समर्पण करना है। जब तुम्हारी काट-छाँट हो, तो तुम्हें सत्य स्वीकार कर अपनी गलतियाँ सुधारनी चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे, तो परमेश्वर का घर तुमसे तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन का अधिकार नहीं छीनेगा। अगर तुम हमेशा हटाए जाने से डरते रहोगे, बहानेबाजी करते रहोगे, खुद को सही ठहराते रहोगे, तो फिर समस्या पैदा होगी। अगर तुम लोगों को यह दिखाओगे कि तुम जरा भी सत्य नहीं स्वीकारते, और यह कि तर्क का तुम पर कोई असर नहीं होता, तो तुम मुसीबत में हो। कलीसिया तुमसे निपटने को बाध्य हो जाएगी। अगर तुम अपने कर्तव्य पालन में थोड़ा भी सत्य नहीं स्वीकारते, हमेशा प्रकट किए और हटाए जाने के भय में रहते हो, तो तुम्हारा यह भय मानवीय इरादे, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव, संदेह, सतर्कता और गलतफहमी से दूषित है। व्यक्ति में इनमें से कोई भी रवैया नहीं होना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। जब मैंने परमेश्वर के वचनों पर चिंतन किया तो मुझे आखिरकार एहसास हुआ कि मैं लगातार इस बात की चिंता कर रही थी कि अगर मैंने अपना कर्तव्य करते हुए कोई गलती की तो मैं बेनकाब हो जाऊँगी और मुझे बरखास्त कर दिया जाएगा, मेरा भविष्य या मंजिल अच्छी नहीं होगी; इसका मुख्य कारण यह था कि मैंने परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव नहीं समझा था और यह विश्वास नहीं किया था कि परमेश्वर के घर में सत्य का शासन है। परमेश्वर का घर सिद्धांतों के अनुसार लोगों को दूसरा काम सौंपता और बरखास्त करता है। यह लोगों को इसलिए बरखास्त नहीं करता क्योंकि उन्होंने एक या दो चीजें गलत की हैं या उनके काम में कुछ विचलन हैं। इसके बजाय यह लोगों का निरंतर व्यवहार देखता है और देखता है कि क्या वे सत्य स्वीकार सकते हैं, विचलन और समस्याएँ होने पर तुरंत चीजों को बदल सकते हैं। मैंने यिलिन के बारे में सोचा। भले ही उसके पास कुछ काबिलियत और खूबियाँ थीं, वह बस प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागती थी और अल्पकालिक सफलताओं के लिए उत्सुक रहती थी। जब उसके कर्तव्यों में विचलन और समस्याएँ सामने आईं, अगुआओं ने कई मौकों पर उसका मार्गदर्शन करने की कोशिश की, लेकिन उसने आत्म-चिंतन नहीं किया, सिद्धांतों की खोज नहीं की और कार्य में बाधा और गड़बड़ी पैदा की : यही कारण था कि उसे बरखास्त कर दिया गया। इसके विपरीत मेरे आस-पास के लोगों में एक बहन थी जो धर्मोपदेशों की जाँच करते समय अनमने ढंग से काम करती थी और कुछ मूल्यवान धर्मोपदेशों को छाँट देती थी। लेकिन मार्गदर्शन और काट-छाँट के साथ वह इसे स्वीकार कर आत्म-चिंतन कर सकी और चीजों को तुरंत बदल पाई। कलीसिया ने अभी भी उसे कर्तव्य करने का अवसर दिया। दरअसल यिलिन की बरखास्तगी मेरे लिए एक चेतावनी थी। मैंने सोचा कि जब मैं धर्मोपदेशों की जाँच कर रही थी तो इतने सारे विचलन और समस्याएँ क्यों हुईं और मैं इतनी प्रगति क्यों नहीं कर पा रही थी। मुख्य कारण यह था कि मैं अहंकारी और दंभी थी और अपने पुराने तरीकों में फँसी हुई थी। अपने कर्तव्य करने में मैं अनुभव पर भरोसा करती थी और सिद्धांत खोजने के बजाय विनियमों को सख्ती से लागू करती थी। नतीजतन मैंने मूल्यवान धर्मोपदेशों को छाँटकर काम में गड़बड़ी पैदा की। लेकिन अगुआओं ने मुझे अपने कर्तव्य के दौरान होने वाले विचलनों और समस्याओं की वजह से बरखास्त नहीं किया था। उन्होंने मेरे साथ संगति भी की थी ताकि मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव समझने में मदद मिल सके, उन्होंने मुझे पश्चात्ताप करने और बदलने का अवसर दिया था। लेकिन न सिर्फ मैंने यिलिन की बरखास्तगी से सबक नहीं सीखा और अपनी समस्याओं पर विचार नहीं किया, बल्कि मैंने गलत समझा और परमेश्वर के खिलाफ सतर्क हो गई। मैंने मूल्यवान धर्मोपदेश स्पष्ट देखे थे, लेकिन मैंने निर्णय लेने की हिम्मत नहीं की, इसके बजाय इसे अगुआओं पर थोप दिया। मुझे डर था कि अगर मैंने कोई गलती की और मुझे बरखास्त कर दिया गया और मैं अपना कर्तव्य करने में असमर्थ हो गई तो मेरा परिणाम अच्छा नहीं होगा। मैंने परमेश्वर की कल्पना भ्रष्ट मानवता के समान ही की थी, जो लोगों को गलतियाँ करने की अनुमति नहीं देती है और जैसे ही वे गलतियाँ करते हैं, उन्हें हटा देती है। क्या यह परमेश्वर की बदनामी और ईशनिंदा नहीं थी? मैं वाकई बहुत दुष्ट और धोखेबाज थी!
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और अपनी मनोदशा के बारे में अधिक समझ पाई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “लोगों को सच्चे दिल से अपने कर्तव्यों और परमेश्वर के निकट जाना चाहिए। अगर वे ऐसा करते हैं तो वे परमेश्वर का भय मानने वाले लोग होंगे। सच्चे दिल वाले लोग परमेश्वर के प्रति कैसा रवैया रखते हैं? कम-से-कम, उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है, सभी चीजों में परमेश्वर के प्रति समर्पण वाला दिल होता है, वे न तो आशीष के बारे में पूछते हैं न ही दुर्भाग्य के बारे में, वे शर्तों के बारे में नहीं बोलते, वे खुद को परमेश्वर के आयोजन की दया पर छोड़ देते हैं—ये सच्चे दिल वाले लोग होते हैं। जो लोग परमेश्वर के प्रति हमेशा शंकालु होते हैं, हमेशा उसकी पड़ताल करते हैं, उससे सौदेबाजी की कोशिश में लगे रहते हैं—क्या वे सच्चे दिल वाले लोग होते हैं? (नहीं।) ऐसे लोगों के दिलों में क्या होता है? कपट और दुष्टता; वे हमेशा पड़ताल करते रहते हैं। और वे किस चीज की पड़ताल करते हैं? (लोगों के प्रति परमेश्वर के रवैये की पड़ताल।) वे हमेशा लोगों के प्रति परमेश्वर के रवैये की पड़ताल करते रहते हैं। यह कौन-सी समस्या है? और वे इसकी पड़ताल क्यों करते हैं? क्योंकि इससे उनके महत्वपूर्ण हित जुड़े हुए हैं। वे मन-ही-मन सोचते हैं, ‘परमेश्वर ने मेरे लिए ये परिस्थितियाँ रची हैं, उसके कारण मेरे साथ यह घटना घटी। उसने ऐसा क्यों किया? ऐसा और लोगों के साथ तो नहीं हुआ—यह मेरे साथ ही क्यों हुआ? और बाद में इसके क्या परिणाम होंगे?’ वे इन्हीं चीजों की पड़ताल में लगे रहते हैं, वे अपने नफा-नुकसान, आशीष और विपत्तियों की पड़ताल करते हैं। और क्या इन चीजों की पड़ताल करते हुए वे सत्य का अभ्यास कर पाते हैं? क्या वे परमेश्वर के प्रति समर्पण कर पाते हैं? वे ऐसा नहीं कर पाते। और उनके मन में चिंतन-मनन से उत्पन्न होने वाली चीजों की प्रकृति क्या होती है? ये सारी चीजें स्वभावतः उनके निजी हितों का ध्यान रखने के लिए होती हैं, ये सारी-की-सारी उनके अपने लिए हैं। ... जो लोग खास तौर पर अपनी संभावनाओं, भाग्य और हितों को अहमियत देते हैं, वे हमेशा यही पड़ताल करते रहते हैं कि क्या परमेश्वर का कार्य उनकी संभावनाओं, उनके भाग्य और उन्हें आशीष दिलाने में लाभकारी है या नहीं। अंत में उनकी पड़ताल का क्या नतीजा निकलता है? वे सिर्फ परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसका विरोध करते हैं। वे जब अपने कर्तव्य निभाने पर अड़ते भी हैं तो भी इसे अनमने होकर और नकारात्मक मनःस्थिति के साथ निभाते हैं; वे अपने दिल में यह सोचते रहते हैं कि लाभ कैसे उठाएँ, और हारने वालों में कैसे न हों। अपने कर्तव्य निभाते हुए उनके यही इरादे होते हैं, और वे इसमें परमेश्वर के साथ सौदेबाजी का प्रयास कर रहे होते हैं। यह कैसा स्वभाव है? यह धोखेबाजी है, यह एक दुष्ट स्वभाव है। यह कोई मामूली भ्रष्ट स्वभाव भी नहीं रहा, यह दुष्टता तक जा पहुँचा है। और जब किसी व्यक्ति के दिल में इस तरह का दुष्ट स्वभाव होता है, तो यह परमेश्वर के खिलाफ संघर्ष है! तुम्हें इस समस्या के बारे में स्पष्ट होना चाहिए। अगर लोग अपने कर्तव्य निभाते हुए हमेशा परमेश्वर की जाँच-पड़ताल कर सौदेबाजी की कोशिश करते रहे, तो क्या वे अपने कर्तव्य ठीक-से निभा सकते हैं? बिल्कुल भी नहीं। वे अपने मन से और ईमानदारी से परमेश्वर की आराधना नहीं करते, उनके पास ईमानदार दिल नहीं होता, अपने कर्तव्य निभाते हुए वे नजर लगाए रहते हैं, हमेशा खुद को रोके रहते हैं—और इसका क्या नतीजा निकलता है? परमेश्वर उनमें कार्य नहीं करता, और वे उलझ जाते और भ्रमित हो जाते हैं। वे सत्य सिद्धांतों को नहीं समझते, और अपनी मनोरुचि के अनुसार चलते हैं, और हमेशा गड़बड़ा जाते हैं। और वे गड़बड़ा क्यों जाते हैं? उनके दिलों में स्पष्टता का बहुत अभाव होने के कारण, कुछ घटित होने के बाद वे आत्मचिंतन नहीं कर पाते, न ही किसी समाधान तक पहुँचने के लिए सत्य की खोज कर पाते हैं, वे मनमाने ढंग से और अपनी पसंद के हिसाब से काम करने पर तुले रहते हैं—परिणाम यह होता है कि अपने कर्तव्य निभाते हुए वे हमेशा गड़बड़ा जाते हैं। वे कभी भी कलीसिया के काम के बारे में, या परमेश्वर के घर के हितों के बारे में नहीं सोचते, बल्कि सिर्फ अपनी खातिर तिकड़में भिड़ाते रहते हैं, और सिर्फ अपने हितों, गर्व और रुतबे के लिए योजनाएँ बनाते रहते हैं, वे न सिर्फ अपने कार्य अच्छे से नहीं करते हैं, बल्कि कलीसिया के काम में भी देर करवाते और उसे प्रभावित करते हैं। क्या यह रास्ते से भटक जाना और अपने कर्तव्यों की अवहेलना करना नहीं है? अगर कोई अपना कर्तव्य निभाते हुए हमेशा अपने खुद के हितों और बेहतर संभावनाओं के लिए योजना बनाता रहता है, और कलीसिया के कार्य या परमेश्वर के घर के हितों का ध्यान नहीं रखता, तो यह कर्तव्य निभाना नहीं है। यह अपने हित खोजना है, यह अपने फायदे और खुद के लिए आशीष पाने की खातिर काम करना है। इस प्रकार, उनके कर्तव्य पालन के पीछे की प्रकृति बदल जाती है। इसका उद्देश्य सिर्फ परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करना और अपने कर्तव्य-निर्वहन का उपयोग अपने लक्ष्य साधने में करना है। इस तरह कार्य करने से बहुत संभावना है कि परमेश्वर के घर का काम बाधित हो जाए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य सिद्धांत खोजकर ही कोई अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि ईमानदार हृदय वाले लोग अपना कर्तव्य करते समय अपने लाभ, हानि, आशीष या दुर्भाग्य पर विचार नहीं करते। वे परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की कोशिश नहीं करते, बल्कि परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए पूरे दिल और मन से अपना कर्तव्य निभाते हैं। ठीक नूह की तरह—परमेश्वर ने उसे जहाज बनाने के लिए कहा और नूह ने यह विश्लेषण नहीं किया कि वह इसे बना सकता है या नहीं। पूरे दिल से उसने सिर्फ यही सोचा कि कैसे जल्द से जल्द परमेश्वर का आदेश पूरा किया जाए। नूह के शुद्ध, ईमानदार और विनम्र हृदय ने परमेश्वर की स्वीकृति पाई। धोखेबाज और दुष्ट लोग अपने कर्तव्य लगातार जाँच-पड़ताल और निरीक्षण करके करते हैं, हर मोड़ पर अपने भविष्य की संभावनाओं और रास्तों के लिए योजना बनाते हैं। इस तरह के व्यक्ति से परमेश्वर बेइंतहा नफरत करता है। जब मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया तो मुझे लगा कि मेरा दिल छलनी हो गया है। मैंने सोचा कि जिस तरह से मैं अपने कर्तव्य के साथ पेश आई, उसमें बिल्कुल भी सच्चा दिल नहीं दिखा। मैंने परमेश्वर के इरादे के प्रति जरा भी विचारशीलता नहीं दिखाई थी। मैंने इस बारे में नहीं सोचा कि कैसे जल्द से जल्द मानक स्तर पर धर्मोपदेशों की जाँच की जाए, ताकि उनका उपयोग सुसमाचार का प्रचार करने और परमेश्वर की गवाही देने के लिए किया जा सके। इसके बजाय मैंने परमेश्वर के साथ चालाकी से चालें चलीं और खुद को बचाने के लिए हर मोड़ पर उसके खिलाफ सतर्क रही, अगुआओं से हर चीज पर निर्णय लेने के लिए कहती रही। इस तरह के इरादे से अपना कर्तव्य निभाना वाकई मेरे लिए पूरी तरह से धोखेबाजी थी! अपना कर्तव्य करते हुए मैंने हर मोड़ पर अपने भविष्य और मंजिल के बारे में सोचा, मानो कि अगर मैंने कोई गलती नहीं की और बरखास्त नहीं हुई, तो मैं परमेश्वर का कार्य समाप्त होने तक जीवित रहूँगी और अच्छी मंजिल पाऊँगी। परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक और पवित्र है। अपने कर्तव्य करने में परमेश्वर के खिलाफ सतर्क होने की मानसिकता लाकर मैं परमेश्वर का प्रबोधन और मार्गदर्शन पाने में असमर्थ थी। मेरे विचार बहुत अस्पष्ट थे और मैं धर्मोपदेशों में कोई समस्या नहीं देख पा रही थी। ऐसे ही चलता रहा तो कलीसिया के कार्य में केवल बाधा और गड़बड़ी पैदा होगी और समय आने पर मैं वाकई बेनकाब करके हटा दी जाऊँगी। जब मैंने यह समझा तो मेरे दिल में डर पैदा हो गया और मैंने पश्चात्ताप में जल्दी से परमेश्वर से प्रार्थना की।
एक दिन अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े और अभ्यास का मार्ग पाया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “मनुष्य द्वारा अपना कर्तव्य निभाना वास्तव में उस सबकी सिद्धि है, जो मनुष्य के भीतर अंतर्निहित है, अर्थात् जो मनुष्य के लिए संभव है। इसके बाद उसका कर्तव्य पूरा हो जाता है। मनुष्य की सेवा के दौरान उसके दोष उसके क्रमिक अनुभव और न्याय से गुज़रने की प्रक्रिया के माध्यम से धीरे-धीरे कम होते जाते हैं; वे मनुष्य के कर्तव्य में बाधा या विपरीत प्रभाव नहीं डालते। वे लोग, जो इस डर से सेवा करना बंद कर देते हैं या हार मानकर पीछे हट जाते हैं कि उनकी सेवा में कमियाँ हो सकती हैं, वे सबसे ज्यादा कायर होते हैं। ... यद्यपि मनुष्य का कर्तव्य उसके मन और उसकी अवधारणाओं से दूषित है, फिर भी तुम्हें अपना कर्तव्य अवश्य निभाना चाहिए और अपनी वफादारी दिखानी चाहिए। मनुष्य के कार्य में अशुद्धताएँ उसकी क्षमता की समस्या हैं, जबकि, यदि मनुष्य अपना कर्तव्य पूरा नहीं करता, तो यह उसकी विद्रोहशीलता दर्शाता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। “तुम चाहे जो भी कर्तव्य कर रहे हो, अगर तुम सत्य सिद्धांतों के अनुसार सभी चीजें करते रहते हो, केवल तभी माना जाएगा कि तुमने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली है। मानवीय तरीके के अनुसार बेमन से कार्य करना लापरवाह होना है; सिर्फ सत्य सिद्धांतों पर बने रहना ही उचित रूप से अपने कर्तव्य का निर्वहन करना और अपनी जिम्मेदारी पूरी करना है। और जब तुम अपनी जिम्मेदारी पूरी करते हो, तो क्या यह निष्ठा की अभिव्यक्ति नहीं है? यही निष्ठा से अपने कर्तव्य का निर्वहन करने की अभिव्यक्ति है। जब तुममें जिम्मेदारी का यह भाव होगा, यह संकल्प और इच्छा होगी, और अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठा की अभिव्यक्ति होगी, तो ही परमेश्वर तुम पर कृपादृष्टि रखेगा और तुम्हें स्वीकार करेगा” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिया। परमेश्वर की हमसे अपेक्षाएँ बहुत बड़ी नहीं हैं। वह हमसे यह अपेक्षा नहीं करता कि हम सब कुछ बिना किसी गलती के पूर्णता से करें। जब तक हमारे पास ईमानदार दिल है, हम जो कर सकते हैं, उसे पूरे दिल और आत्मा से करते हैं, जब हम उन चीजों का सामना करते हैं जिनकी असलियत हम जान नहीं पाते हैं तो अपने इरादे सही करते हैं, अपने साथ काम करने वाले भाई-बहनों और अगुआओं के साथ इनके बारे में बातचीत करते हैं, साथ मिलकर सिद्धांत खोजते हैं, निष्क्रिय होकर इंतजार नहीं करते और अपनी जिम्मेदारी पूरी करते हें तो परमेश्वर इसे स्वीकारेगा। मैंने तब के बारे में सोचा जब मैं धर्मोपदेशों की जाँच कर रही थी। मैं अहंकारी थी, अनुभव पर निर्भर थी और सत्य सिद्धांत नहीं खोजती थी, इसलिए विचलन हुए। अब मुझे सिद्धांतों पर अधिक प्रयास करना होगा। जब मैं प्रत्येक धर्मोपदेश की जाँच करती हूँ तो मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होना चाहिए और सिद्धांतों के अनुसार चीजों का मूल्यांकन करना चाहिए। भले ही अपने कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में समस्याएँ और विचलन अभी भी होंगे, मुझे उनके साथ सही तरीके से पेश आना होगा, कारणों को सारांशित करना होगा और चीजों को तुरंत बदलना होगा। यह बात समझ आने पर मैंने अब यह नहीं सोचा कि मुझे बरखास्त किया जाएगा या नहीं और अपने कर्तव्य के प्रति अपना दिल समर्पित करने में सक्षम हो गई। उस अवधि में समस्याओं और विचलनों की संख्या धीरे-धीरे कुछ हद तक कम हो गई, मैंने पेशेवर तौर पर और सिद्धांतों के संदर्भ में कुछ लाभ प्राप्त किए। मेरे दिल को बहुत राहत मिली।
बाद में मुझे टीम अगुआ चुना गया। एक बार पर्यवेक्षकों ने एक पत्र भेजा जिसमें बताया गया कि उस समय हमने जो धर्मोपदेश जमा किए थे उनका विषय अस्पष्ट है और यह सत्य पर संगति करने में व्यावहारिक नहीं है। उन्होंने पूछा कि क्या मैंने इसे जाँच लिया था—मैंने समस्याएँ क्यों नहीं देखीं? जब मैंने पत्र पढ़ा तो मेरा दिल बैठ गया। यह सच था कि मैंने ये समस्याएँ नहीं देखी थीं। मैं यह अनुमान लगाने से खुद को नहीं रोक पाई, “अगर पर्यवेक्षकों को यह पता चले कि मैं इतने लंबे समय से यह कर्तव्य कर रही हूँ, लेकिन फिर भी मुझे सिद्धांतों की समझ नहीं है तो क्या वे मुझे इस कर्तव्य के लिए उपयुक्त नहीं समझेंगे और मुझे बरखास्त कर देंगे?” इसके बाद मैं फिर से अपने कर्तव्य करते समय डरपोक और पहल करने में असमर्थ हो गई। भले ही मैं साफ देख सकती थी कि कुछ धर्मोपदेश मूल्यवान हैं, मुझे एक और गलती करने और बेनकाब होने का डर था, इसलिए मैंने उनके मूल्यांकन और जाँच का काम पर्यवेक्षकों पर थोप दिया। मुझे एहसास हुआ कि मेरी मनोदशा गलत है और मैं फिर से अपने भविष्य की संभावनाओं और रास्तों के बारे में सोच रही हूँ। मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश के बारे में सोचा और उसे खोजकर पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “परिस्थिति या कार्य का माहौल चाहे जैसा भी हो, लोग कभी-कभी गलतियाँ करते हैं, और ऐसे क्षेत्र भी हैं जहाँ उनकी काबिलियत, अंतर्दृष्टि और परिप्रेक्ष्य कम पड़ जाते हैं। यह सामान्य है, और तुम्हें इसे सही तरीके से संभालना सीखना होगा। ... तुम्हें तुरंत आत्म-चिंतन करना चाहिए और यह निर्धारित करना चाहिए कि कहीं तुम्हारे पेशेवर कौशल में या तुम्हारे इरादों में कोई समस्या तो नहीं है। जाँच करो कि क्या तुम्हारे क्रियाकलापों में कोई अशुद्धियाँ हैं या कुछ धारणाएँ इसके लिए दोषी हैं। सभी पहलुओं पर चिंतन करो। यदि यह दक्षता की कमी से जुड़ी समस्या है, तो तुम सीखना जारी रख सकते हो, समाधान खोजने में मदद के लिए किसी को ढूँढो, या उसी क्षेत्र के लोगों से परामर्श करो। यदि कुछ गलत इरादे मौजूद हैं, ऐसी समस्या शामिल है जिसे सत्य का उपयोग करके हल किया जा सकता है, तो तुम परामर्श और संगति के लिए कलीसिया अगुआओं या सत्य समझने वाले किसी व्यक्ति को खोज सकते हो। तुम जिस अवस्था में हो, उसके बारे में उनसे बात करो और उन्हें इसे सुलझाने में तुम्हारी मदद करने दो। यदि यह धारणाओं से जुड़ी समस्या है, तो उनकी जाँच करने और उन्हें पहचानने के बाद, तुम उनका गहन-विश्लेषण करके उन्हें समझ सकते हो, फिर उनसे दूर होकर विद्रोह कर सकते हो” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (6))। परमेश्वर के वचनों के इस अंश को पढ़ने के बाद मेरा हृदय स्पष्ट और प्रबुद्ध हो गया। जब मेरे कर्तव्य में विचलन और समस्याएँ आती हैं तो मुझे समस्या के मूल कारण पर विचार करके, उनका सारांश बनाकर और उनकी खोज करके उनसे सही तरीके से निपटना चाहिए। फिर मैंने आत्म-चिंतन किया और पाया कि धर्मोपदेशों की जाँच करते समय मैं अनुभव पर निर्भर थी। जब मैंने देखा कि सामान्य रूपरेखा मौजूद है तो मैंने विवरणों पर विचार नहीं किया। इसका मतलब था कि मुझे कुछ समस्याएँ नहीं मिलीं। इसके बाद मैंने समस्याओं वाले धर्मोपदेश निकाले और अपनी बहनों के साथ उन पर चर्चा की। संवाद और चर्चा के माध्यम से मैंने प्रासंगिक सत्य और सिद्धांत थोड़े और समझे। इन अनुभवों के माध्यम से मैंने वाकई समझा कि सिर्फ अपनी सतर्कता छोड़कर और सत्य की खोज करने का रवैया अपनाकर ही हम परमेश्वर का प्रबोधन और अगुआई प्राप्त कर सकते हैं और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से कर सकते हैं।