93. सत्य का अनुसरण उम्र पर निर्भर नहीं
2003 में, मैंने परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार किया, और उसके कुछ ही समय बाद, मैंने एक अगुआ का कर्तव्य सँभाल लिया। उस समय मैंने पचास की उम्र पार ही की थी और मुझे सेहत की कोई समस्या नहीं थी। दिन में मैं सभाओं में जाती और सुसमाचार का प्रचार करती थी, और रात में चाहे कितनी भी देर से लौटूँ, मैं भाई-बहनों की दशाओं के अनुसार खुद को परमेश्वर के वचनों से लैस करती थी। भले ही यह थोड़ा व्यस्त और थकाऊ था, लेकिन यह सोचकर ही कि मैं अपना कर्तव्य निभा सकती हूँ और भविष्य में परमेश्वर द्वारा बचाई जाऊँगी, मुझे असीम शक्ति मिलती थी। दस साल बीतने के कुछ समय बाद, मेरी सेहत बिगड़ने लगी। पहले तो मेरे पित्ताशय में समस्या हुई और उसे सर्जरी से निकालना पड़ा, फिर मेरी कमर की हड्डी खिसक गई और उसे ठीक करने के लिए सर्जरी की जरूरत पड़ी, दो सर्जरी के बाद साफ लगने लगा कि मेरे शरीर की हालत काफी बदतर हो गई है। मुझे गर्भाशय फाइब्रॉएड और एट्रोफिक इरोसिव गैस्ट्राइटिस जैसी दीर्घकालिक बीमारियाँ भी हो गईं, और मैं कमजोर और हताश हो गई। मेरे पैर अब उतने फुर्तीले नहीं रहे और सीढ़ियाँ चढ़ते समय मुझे कई बार आराम करना पड़ता था। मेरी याददाश्त भी कमजोर हो गई, और कभी-कभी जब मैं परमेश्वर के वचनों के किसी खास पहलू के बारे में पढ़ना चाहती, तो जैसे ही मैं उसे खोजने की कोशिश करती, मुझे याद ही नहीं आता कि मैं क्या पढ़ना चाहती थी। कलीसिया ने मेरी शारीरिक स्थिति के अनुसार मुझे एक समूह में सभा की अगुआई का काम दिया, और जब भाई-बहनों की कोई दशा होती तो मैं उन्हें हल करने में मदद करती, और कभी-कभी जब कलीसिया में मेजबान घरों की कमी होती तो मैं मेजबानी का काम करती थी। भले ही मेरी सेहत पहले जैसी अच्छी नहीं थी, मैं फिर भी कुछ कर्तव्य कर सकती थी और ऊर्जावान महसूस करती थी।
एक बार एक सभा के बाद घर लौटते समय मेरी पुरानी पेट की समस्याएँ बढ़ गईं, और मेरे पेट में दर्द की लहर दौड़ गई। मैं बड़ी मुश्किल से सीधी रहकर घर पहुँची और थोड़ी देर लेटने के बाद ही मुझे थोड़ा बेहतर महसूस हुआ। मेरी खराब सेहत देखकर अगुआ ने मुझे घर पर कभी-कभी भाई-बहनों के लिए सभाओं की मेजबानी करने को कहा। यह व्यवस्था सुनकर मैंने सोचा, “बस, अब खत्म। अब मैं घर पर केवल मेजबानी कर सकती हूँ। जैसे-जैसे मेरी उम्र बढ़ेगी, मेरी सेहत और खराब होती जाएगी। अगर एक दिन मैं मेजबानी का कर्तव्य भी नहीं कर पाई तो मैं कोई भी कर्तव्य नहीं कर पाऊँगी, तो मेरे बचाए जाने की क्या उम्मीद बचेगी?” यह सब सोचकर मैंने सारी हिम्मत खो दी और बहुत हताश हो गई और मैंने सोचा, “मेरी उम्र बढ़ रही है, मेरी याददाश्त कमजोर हो रही है, मुझे परमेश्वर के वचन भी याद नहीं रहते, और मैं जो पढ़ती हूँ, वह भूल जाती हूँ। मैं सत्य कैसे समझ सकती हूँ? मेरी उम्र के लोग चाहे कितना भी अनुसरण करें, वे प्रगति नहीं कर सकते। बस जैसे-तैसे एक-एक दिन गुजारना चाहिए।” कभी-कभी जब मैं खाना बनाती तो मेरी कमर में इतना दर्द होता कि मैं सीधी खड़ी नहीं हो पाती थी, और मुझे पास में एक स्टूल पर बैठकर आराम करना पड़ता था। खासकर जब मेरे पेट में ऐंठन होती, दर्द इतना तेज होता था कि मुझे पता नहीं होता था कि मैं जीऊँगी या मरूँगी। मुझे चिंता होती थी कि कहीं एक दिन मैं गिर न जाऊँ और सभाओं में भी शामिल न हो पाऊँ। जब मैं नौजवानों को अच्छी सेहत के साथ दौड़ते-कूदते देखती, तो मुझे ईर्ष्या होती और मैं सोचती, “जवान होना कितना अच्छा है! वे कहीं भी जा सकते हैं और कोई भी कर्तव्य कर सकते हैं, और उनके बचाए जाने की संभावनाएँ ज्यादा होती हैं। वहीं दूसरी ओर मेरी सेहत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही है और अगर मैं भविष्य में कोई कर्तव्य नहीं कर पाई तो मैं बेकार हो जाऊँगी, और परमेश्वर निश्चित रूप से मुझे त्याग देगा!” मैंने कुछ साल पहले के बारे में सोचा जब मुझे अपने कर्तव्य करते समय सेहत की कोई समस्या नहीं थी, लेकिन इस समय तक मैं 72 साल की हो चुकी थी और मेरा शरीर पहले जैसा बिल्कुल नहीं रहा था। काश, मैं समय को 20 साल पीछे ले जा पाती! इस वजह से मैं अक्सर परेशान रहती थी और नकारात्मक दशा में जीती थी, और मैं सत्य के लिए प्रयास नहीं करना चाहती थी। कभी-कभी मैं समय बिताने के लिए टीवी शो देखती थी, और जब मेरे साथ कुछ होता और मैं भ्रष्टता प्रकट करती तो मैं उसे हल करने के लिए सत्य नहीं खोजती थी, और मैं बस चीजों के बारे में संक्षेप में सोचकर उन्हें जाने देती थी। यहाँ तक कि मेरी प्रार्थनाओं में भी बस कुछ सूखे शब्द होते थे, और मुझे लगता था कि मेरा दिल परमेश्वर से दूर और दूर होता जा रहा है। मैं मन ही मन जानती थी कि इस तरह चलते रहना खतरनाक है, और मैं इस हताशा की दशा को हल करना चाहती थी। लेकिन मेरे पास आगे का कोई खास रास्ता नहीं था।
एक दिन मैंने परमेश्वर के वे वचन पढ़े जो बुजुर्ग लोगों की दशाओं को उजागर करते हैं, और मैंने तुरंत उन वचनों में खुद को देखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “भाई-बहनों के बीच 60 से लेकर 80 या 90 वर्ष तक की उम्र के बड़े-बूढ़े भी हैं, जो अपनी बढ़ी हुई उम्र के कारण भी कुछ मुश्किलों का अनुभव करते हैं। ज्यादा उम्र होने पर भी जरूरी नहीं कि उनकी सोच सही या तार्किक ही हो, और उनके विचार और नजरिये सत्य के अनुरूप हों। इन बड़े-बूढ़ों को भी वही समस्याएँ होती हैं, और वे हमेशा चिंता करते हैं, ‘अब मेरी सेहत उतनी अच्छी नहीं रही, और मैं कौन-से कर्तव्य निभा पाऊँगा वे भी सीमित हो गए हैं। अगर मैं बस यह छोटा-सा कर्तव्य निभाऊँगा तो क्या परमेश्वर मुझे याद रखेगा? कभी-कभी मैं बीमार पड़ जाता हूँ, और मुझे अपनी देखभाल के लिए किसी की जरूरत पड़ती है। जब मेरी देखभाल के लिए कोई नहीं होता, तो मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाता, तो मैं क्या कर सकता हूँ? मैं बूढ़ा हूँ, परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे याद नहीं रहते, और सत्य को समझना मेरे लिए कठिन होता है। सत्य पर संगति करते समय मैं उलझे हुए और अतार्किक ढंग से बोलता हूँ, और मेरे पास साझा करने लायक कोई अनुभव नहीं होते। मैं बूढ़ा हूँ, मुझमें पर्याप्त ऊर्जा नहीं है, मेरी दृष्टि बहुत स्पष्ट नहीं है, और मैं अब शक्तिशाली नहीं हूँ। मेरे लिए सब कुछ मुश्किल होता है। न सिर्फ मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाता, बल्कि मैं आसानी से चीजें भूल जाता हूँ और गलतियाँ कर बैठता हूँ। कभी-कभी मैं भ्रमित हो जाता हूँ, और कलीसिया और अपने भाई-बहनों के लिए समस्याएँ खड़ी कर देता हूँ। मैं उद्धार प्राप्त करना चाहता हूँ, सत्य का अनुसरण करना चाहता हूँ, मगर यह बहुत कठिन है। मैं क्या कर सकता हूँ?’ जब वे इन चीजों के बारे में सोचते हैं, तो यह सोचकर झुँझलाने लगते हैं, ‘मैंने आखिर इतनी बड़ी उम्र में ही परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू क्यों किया? मैं उन लोगों जैसा क्यों नहीं हूँ, जो 20-30 वर्ष के हैं, या जो 40-50 वर्ष के हैं? इतना बूढ़ा हो जाने के बाद ही क्यों मुझे परमेश्वर के कार्य का पता चला? ऐसा नहीं है कि मेरा भाग्य खराब है; कम-से-कम अब तो परमेश्वर के कार्य से मेरा सामना हो चुका है। मेरा भाग्य अच्छा है, और परमेश्वर मेरे प्रति दयालु है! बस सिर्फ एक चीज है जिसे लेकर मैं खुश नहीं हूँ, और वह यह है कि मैं बहुत बूढ़ा हूँ। मेरी याददाश्त बहुत अच्छी नहीं है, और मेरी सेहत उतनी बढ़िया नहीं है, मगर मैं अंदर से बहुत शक्तिशाली हूँ। बात बस इतनी है कि मेरा शरीर मेरी आज्ञा नहीं मानता और सभाओं में थोड़ी देर सुनने के बाद मेरी आँखें बोझिल होने लगती हैं। कभी-कभी मैं प्रार्थना के लिए आँखें बंद कर लेता हूँ और सो जाता हूँ, और परमेश्वर के वचन पढ़ते समय मेरा मन भटकता है। थोड़ी देर पढ़ने के बाद मैं उनींदा हो जाता हूँ और सो जाता हूँ, और वचन मेरे दिमाग में नहीं उतरते। मैं क्या करूँ? ऐसी व्यावहारिक दिक्कतों के साथ भी क्या मैं सत्य का अनुसरण कर उसे समझने में समर्थ हूँ? अगर नहीं, और अगर मैं सत्य-सिद्धांतों के अनुरूप अभ्यास न कर पाऊँ, तो कहीं मेरी पूरी आस्था बेकार न हो जाए? कहीं मैं उद्धार प्राप्त करने में विफल न हो जाऊँ? मैं क्या कर सकता हूँ? मैं बहुत चिंतित हूँ! इस उम्र में अब और कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है। अब चूँकि मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, मुझे कोई चिंता नहीं रही या मैं किसी चीज को लेकर व्याकुल नहीं हूँ, मेरे बच्चे बड़े हो चुके हैं और उनकी देखभाल के लिए या उन्हें बड़ा करने के लिए मेरी जरूरत नहीं है, इसलिए जीवन में मेरी सबसे बड़ी कामना सत्य का अनुसरण करने की है, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने की है और अपनी बची-खुची उम्र में उद्धार प्राप्त करने की है। हालाँकि मेरी असली स्थिति, उम्र से धुंधला गई आँखों की रोशनी, मन की उलझनों, खराब सेहत, अपना कर्तव्य अच्छी तरह न निभा पाने, और यथासंभव कार्य करने पर भी कभी-कभी समस्याएँ खड़ी होते देखकर लगता है कि उद्धार प्राप्त करना मेरे लिए आसान नहीं होगा।’ वे इन चीजों के बारे में बार-बार सोचकर व्याकुल हो जाते हैं, और फिर सोचते हैं, ‘लगता है कि अच्छी चीजें सिर्फ युवाओं के साथ ही होती हैं, बूढ़ों के साथ नहीं। लगता है चीजें जितनी भी अच्छी हों, मैं अब उनका आनंद नहीं ले पाऊँगा।’ वे इन चीजों के बारे में जितना ज्यादा सोचते हैं, जितना झुँझलाते हैं, उतने ही व्याकुल हो जाते हैं। वे अपने बारे में सिर्फ चिंता ही नहीं करते, बल्कि आहत भी होते हैं। ... क्या बूढ़े लोग अपनी उम्र के कारण अब सत्य का अनुसरण नहीं कर सकते? क्या वे सत्य को समझने में सक्षम नहीं हैं? (हाँ, जरूर हैं।) क्या बूढ़े लोग सत्य को समझ सकते हैं? वे कुछ सत्य समझ सकते हैं, वैसे युवा लोग भी सभी सत्य नहीं समझ पाते। बूढ़े लोगों को हमेशा भ्रांति होती है, वे मानते हैं कि वे भ्रमित हैं, उनकी याददाश्त कमजोर है, और इसलिए वे सत्य को नहीं समझ सकते। क्या वे सही हैं? (नहीं।) हालाँकि युवा बूढ़ों से ज्यादा ऊर्जावान और शारीरिक रूप से सशक्त होते हैं, मगर वास्तव में उनकी समझने, बूझने और जानने की क्षमता बूढ़ों के बराबर ही होती है। क्या बूढ़े लोग भी कभी युवा नहीं थे? वे बूढ़े पैदा नहीं हुए थे, और सभी युवा भी किसी-न-किसी दिन बूढ़े हो जाएँगे। बूढ़े लोगों को हमेशा यह नहीं सोचना चाहिए कि चूँकि वे बूढ़े, शारीरिक रूप से कमजोर, बीमार और कमजोर याददाश्त वाले हैं, इसलिए वे युवाओं से अलग हैं। असल में कोई अंतर नहीं है। कोई अंतर नहीं है कहने का मेरा अर्थ क्या है? कोई बूढ़ा हो या युवा, उनके भ्रष्ट स्वभाव एक-समान होते हैं, हर तरह की चीज को लेकर उनके रवैये और सोच एक-समान होते हैं और हर तरह की चीज को लेकर उनके परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण एक-समान होते हैं। इसलिए बूढ़े लोगों को यह नहीं सोचना चाहिए कि बूढ़े होने और युवाओं की तुलना में उनकी असाधारण आकांक्षाओं के कम होने, और उनके स्थिर हो पाने के कारण उनकी महत्वाकांक्षाएँ या आकांक्षाएँ प्रचंड नहीं होतीं, और उनमें कम भ्रष्ट स्वभाव होते हैं—यह एक भ्रांति है। युवा लोग पद के लिए जोड़-तोड़ कर सकते हैं, तो क्या बड़े-बूढ़े पद के लिए जोड़-तोड़ नहीं कर सकते? युवा सिद्धांतों के विरुद्ध काम कर सकते हैं और मनमानी कर सकते हैं, तो क्या बड़े-बूढ़े ऐसा नहीं कर सकते? (हाँ, जरूर कर सकते हैं।) युवा घमंडी हो सकते हैं, तो क्या बड़े-बूढ़े घमंडी नहीं हो सकते? लेकिन बड़े-बूढ़े जब घमंडी होते हैं, तो ज्यादा उम्र के कारण वे उतने आक्रामक नहीं होते और इसलिए यह उनका घमंड तेज-तर्रार नहीं होता। युवा अपने लचीले हाथ-पैर और फुर्तीले दिमाग के कारण अहंकार का ज्यादा स्पष्ट दिखावा करते हैं, जबकि बड़े-बूढ़े अपने सख्त हाथ-पाँव और हठीले दिमाग के कारण अहंकार का कम स्पष्ट दिखावा करते हैं। लेकिन उनके अहंकार और भ्रष्ट स्वभावों का सार एक-समान होता है। ... तो ऐसा नहीं है कि बड़े-बूढ़ों के पास करने को कुछ नहीं है, न ही वे अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ हैं, उनके सत्य का अनुसरण करने में असमर्थ होने की तो बात ही नहीं उठती—उनके लिए करने को बहुत कुछ है। अपने जीवन में जो विविध पाखंड और भ्रांतियाँ तुमने पाल रखी हैं, साथ ही जो विविध पारंपरिक विचार और धारणाएँ, अज्ञानी, जिद्दी, दकियानूसी, अतार्किक और विकृत चीजें तुमने इकट्ठा कर रखी हैं, वे सब तुम्हारे दिल में जमा हो गई हैं और तुम्हें युवाओं से भी ज्यादा वक्त इन चीजों को खोद निकालने, गहन विश्लेषण करने और पहचानने में लगाना चाहिए। ऐसी बात नहीं है कि तुम्हारे पास कुछ करने को नहीं है, या कोई काम न होने पर तुम्हें संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव करना चाहिए—यह न तो तुम्हारा कार्य है न ही तुम्हारी जिम्मेदारी” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर ने मेरी सही दशा उजागर की। हाल ही में मैं परेशानी और चिंता में जी रही थी, हमेशा यह महसूस करती थी कि मैं बूढ़ी हो रही हूँ, मेरी सेहत खराब है और मैं चीजें भूलती रहती हूँ, इसलिए मैं केवल कभी-कभी ही मेजबानी का कर्तव्य सँभाल पाती थी। मुझे चिंता थी कि जैसे-जैसे मेरी उम्र बढ़ेगी और मेरी सेहत बिगड़ेगी, मैं अपने कर्तव्य नहीं निभा पाऊँगी और इस तरह बचाई नहीं जाऊँगी। मैं चाहे कितना भी अनुसरण करूँ, सब बेकार लगता था। इस हताशा की दशा में डूबे रहने के कारण मुझमें परमेश्वर के वचन पढ़ने या सत्य खोजने की कोई प्रेरणा नहीं थी और मैं बस आधे-अधूरे मन से अनुसरण करती थी। अब मुझे एहसास हुआ कि ये मेरे भ्रामक विचार थे। असल में भले ही बुजुर्ग लोग शारीरिक रूप से कमजोर हों और उनमें युवाओं की तुलना में कम ऊर्जा और धीमी प्रतिक्रिया हो, लेकिन सत्य को समझने की उनकी क्षमता और उनके भ्रष्ट स्वभाव युवाओं के समान ही होते हैं। जब तक वे सत्य का अनुसरण करते हैं और अपने भ्रष्ट स्वभावों को सुलझाते हैं, तब तक वे भी बचाए जा सकते हैं। बुढ़ापे के कारण समाज का प्रभाव अधिक गंभीर होता है, अंदर के शैतानी जहर युवाओं की तुलना में अधिक भारी और जिद्दी होते हैं, और विभिन्न पारंपरिक धारणाओं और भ्रष्ट स्वभावों को समझने और उनका गहन-विश्लेषण करने के लिए अधिक समय की जरूरत होती है। उदाहरण के लिए जब मैंने कुछ भाई-बहनों को भ्रष्टता प्रकट करते देखा, तो मैंने उन्हें नीची नजरों से देखा, और अपने दिल में मैंने उनकी आलोचना की और उन्हें छोटा समझा। यह एक घमंडी स्वभाव था। क्या यह कुछ ऐसा नहीं था जिस पर मुझे विचार करना और समझना चाहिए था? लेकिन मैं परमेश्वर के इरादों को नहीं समझी। मैं परेशानी और चिंता की दशा में डूबी हुई थी और सत्य के अनुसरण में मेरा मन नहीं लगता था। क्या मैं इसमें परमेश्वर को गलत नहीं समझ रही थी? अब मुझे एहसास हुआ कि कोई व्यक्ति चाहे जवान हो या बूढ़ा, जब तक वे सत्य के लिए प्यासे हैं और उसका अनुसरण करते हैं, परमेश्वर उन्हें प्रबुद्ध करेगा और उनका मार्गदर्शन करेगा। परमेश्वर उम्र की परवाह किए बिना हमें सत्य से सींचता और प्रदान करता है, और मायने रखने वाली बात यह है कि क्या हम खोजते हैं, क्या हम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने में प्रयास करने को तैयार हैं। परमेश्वर ने इन वचनों में विशेष रूप से बुजुर्गों की दशाओं को संबोधित किया, इस उम्मीद में कि बुजुर्ग अपनी परेशानी और चिंता को छोड़ सकें, सत्य खोजने पर ध्यान केंद्रित कर सकें, और अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में न जीएँ और खुद से आशा न छोड़ें। लेकिन मैंने हमेशा अपनी बुढ़ापे और खराब याददाश्त को सत्य का अनुसरण न करने और खुद को निरंकुश छोड़ने के बहाने के रूप में इस्तेमाल किया, और अगर मैं इसी तरह चलती रही तो नुकसान मेरा ही होगा। परमेश्वर के इरादों को समझने के बाद ही मैं जागी, और एहसास हुआ कि अगर मैं इसी भ्रमित दशा में रही, अपनी भ्रामक और चरम धारणाओं से बँधी रही, तो अंततः मैं सत्य पाने में असफल हो जाऊँगी और मेरे सामने विनाश के अलावा कुछ नहीं बचेगा। मैंने हम बुजुर्गों के लिए उसके आरामदायक वचनों और प्रोत्साहन के लिए परमेश्वर का धन्यवाद किया, और हमारे लिए सत्य के अनुसरण का मार्ग बताने के लिए भी। यह हमारे लिए परमेश्वर का प्रेम है। मैं सत्य का अनुसरण करने का अपना संकल्प नहीं खो सकती थी, मुझे खुद से सही ढंग से निपटना था, परमेश्वर द्वारा मेरे लिए व्यवस्थित हालात में सबक सीखना था, सत्य खोजने और खुद को जानने पर ध्यान केंद्रित करना था, और स्वभाव में बदलाव लाना था। ये वे चीजें थीं जो मुझे करनी थीं।
यह महसूस करते हुए मैंने सोचना शुरू किया, “ऐसा क्यों था कि अतीत में जब मैं अपने कर्तव्य करती थी तो मुझमें हर दिन असीम ऊर्जा होती थी, लेकिन अब जब मैं बूढ़ी हो गई हूँ और मेरा शरीर दिन-ब-दिन कमजोर होता जा रहा है, तो मेरा दिल नकारात्मकता और परेशानी से भर गया है और मैं अब और ऊपर उठने का प्रयास नहीं करना चाहती? मुझे क्या नियंत्रित कर रहा है?” अपनी खोज में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “लोग आशीष पाने, पुरस्कृत होने, ताज पहनने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। क्या यह सबके दिलों में नहीं है? यह एक तथ्य है कि यह सबके दिलों में है। हालाँकि लोग अक्सर इसके बारे में बात नहीं करते, यहाँ तक कि वे आशीष प्राप्त करने का अपना मकसद और इच्छा छिपाते हैं, फिर भी यह इच्छा और मकसद लोगों के दिलों की गहराई में हमेशा अडिग रहा है। लोग चाहे कितना भी आध्यात्मिक सिद्धांत समझते हों, उनके पास जो भी अनुभवजन्य ज्ञान हो, वे जो भी कर्तव्य निभा सकते हों, कितना भी कष्ट सहते हों, या कितनी भी कीमत चुकाते हों, वे अपने दिलों में गहरी छिपी आशीष पाने की प्रेरणा कभी नहीं छोड़ते, और हमेशा चुपचाप उसके लिए कड़ी मेहनत करते हैं। क्या यह लोगों के दिल के अंदर सबसे गहरी दबी बात नहीं है? आशीष प्राप्त करने की इस प्रेरणा के बिना तुम लोग कैसा महसूस करोगे? तुम किस रवैये के साथ अपना कर्तव्य निभाओगे और परमेश्वर का अनुसरण करोगे? अगर लोगों के दिलों में छिपी आशीष प्राप्त करने की यह प्रेरणा दूर कर दी जाए तो ऐसे लोगों का क्या होगा? संभव है कि बहुत-से लोग नकारात्मक हो जाएँगे, जबकि कुछ अपने कर्तव्यों के प्रति प्रेरणाहीन हो जाएँगे। वे परमेश्वर में अपने विश्वास में रुचि खो देंगे, मानो उनकी आत्मा गायब हो गई हो। वे ऐसे प्रतीत होंगे, मानो उनका हृदय छीन लिया गया हो। इसीलिए मैं कहता हूँ कि आशीष पाने की प्रेरणा ऐसी चीज है जो लोगों के दिल में गहरी छिपी है। शायद अपना कर्तव्य निभाते हुए या कलीसिया का जीवन जीते हुए उन्हें लगता है कि वे अपने परिवार त्यागने और खुद को खुशी-खुशी परमेश्वर के लिए खपाने में सक्षम हैं, और अब वे आशीष प्राप्त करने की अपनी प्रेरणा को जानकर इसे दरकिनार भी कर चुके हैं, और अब उससे नियंत्रित या विवश नहीं होते। फिर वे सोचते हैं कि उनमें अब आशीष पाने की प्रेरणा नहीं रही, लेकिन परमेश्वर ऐसा नहीं सोचता है। लोग मामलों को केवल सतही तौर पर देखते हैं। परीक्षणों के बिना, वे अपने बारे में अच्छा महसूस करते हैं। अगर वे कलीसिया नहीं छोड़ते या परमेश्वर के नाम को नहीं नकारते, और परमेश्वर के लिए खपने में लगे रहते हैं, तो वे मानते हैं कि वे बदल गए हैं। उन्हें लगता है कि वे अब अपने कर्तव्य-पालन में व्यक्तिगत उत्साह या क्षणिक आवेगों से प्रेरित नहीं हैं। इसके बजाय, वे मानते हैं कि वे सत्य का अनुसरण कर सकते हैं, और अपना कर्तव्य निभाते हुए लगातार सत्य की तलाश और अभ्यास कर सकते हैं, ताकि उनके भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध हो सकें और वे कुछ वास्तविक बदलाव हासिल कर सकें। लेकिन जब सीधे लोगों की मंजिल और परिणाम से संबंधित कोई बात हो जाती है तो वे किस प्रकार व्यवहार करते हैं? सच्चाई पूरी तरह से प्रकट हो जाती है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन संवृद्धि के छह संकेतक)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मुझे आखिरकार एहसास हुआ कि मैं परेशानी और चिंता में फँस गई थी और खुद से उम्मीद छोड़ दी थी क्योंकि मुझे लगता था कि मैं बूढ़ी हो रही हूँ और भविष्य में कोई कर्तव्य नहीं कर पाऊँगी, और मेरे बचाए जाने या आशीष पाने की कोई उम्मीद नहीं होगी। इस प्रकार मैं नकारात्मकता में जीती रही और परमेश्वर का प्रतिरोध करती रही। अतीत में मैं त्याग कर सकती थी, खुद को खपा सकती थी और अपने कर्तव्यों में खुद को व्यस्त रख सकती थी, और बीमार होने पर भी मैं खुशी-खुशी अपने कर्तव्य करती थी। मुझे लगता था कि जब तक मैं अपने कर्तव्य कर सकती हूँ, तब तक मेरे पास परमेश्वर द्वारा बचाए जाने की उम्मीद है। लेकिन बाद में मेरी बीमारियाँ बढ़ गईं और मेरी सेहत दिन-ब-दिन बिगड़ती गई, और यह संभवाना सामने आ गई कि मैं शायद मेजबानी का कर्तव्य भी न कर पाऊँ। मुझे लगा कि मेरे पास आशीषों की कोई उम्मीद नहीं है, परमेश्वर में विश्वास करना व्यर्थ लगता था, और मेरे लिए जीवन का आनंद लेना बेहतर होगा। इसलिए मैंने टीवी देखकर अपने दिन बिताए, मैंने सत्य के लिए प्रयास करना बंद कर दिया, और मेरी आस्था के प्रति मेरा रवैया आधा-अधूरा हो गया। मैंने किस तरह से ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास किया? मैं सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य नहीं कर रही थी। इसके बजाय मैंने एक अच्छा परिणाम और गंतव्य पाने के लिए परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने के लिए अपने कर्तव्यों के प्रदर्शन का इस्तेमाल किया, और एक बार जब मुझे विश्वास हो गया कि मुझे आशीष नहीं मिलेगी तो मैंने खुद से उम्मीद छोड़ दी। यह मेरी आस्था में मेरे गलत इरादों और विचारों के कारण हुआ था। मैंने उन लोगों के बारे में सोचा जो ईमानदारी से खुद को परमेश्वर के लिए खपाते हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं। जब वे दर्दनाक परीक्षणों का सामना करते हैं तो वे अपने परिणाम और गंतव्य के बारे में भी चिंता कर सकते हैं, लेकिन वे परमेश्वर से प्रार्थना करने और अपनी समस्याओं को हल करने के लिए सत्य खोजने में सक्षम हैं, और वे बिना किसी इनाम के खुशी-खुशी खुद को परमेश्वर के लिए खपाते हैं। वे सिर्फ परमेश्वर की गवाही देने और उसे संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य पूरे करते हैं। लेकिन मैं? भले ही मैंने कई सालों तक परमेश्वर में विश्वास किया, मैंने स्वभाव में बदलाव की तलाश नहीं की या इस पर विचार नहीं किया कि मैंने कितना सत्य अभ्यास किया है, मैंने इस पर विचार नहीं किया कि मैंने अपने कर्तव्य और जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं या नहीं, और मैं केवल आशीष पाने पर केंद्रित थी। जब मेरा दर्द बढ़ गया और मैंने सोचा कि मुझे आशीष नहीं मिल सकता तो मैंने निराशा में हार मान ली। मुझमें परमेश्वर के प्रति किस तरह से कोई वास्तविक ईमानदारी थी? मेरे पहले जो त्याग किए, खुद को खपाया सभी आशीष और लाभ पाने के लिए थे, बस परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने और उसे धोखा देने के प्रयास थे। मैं सचमुच घृणित थी! मैंने पौलुस के बारे में सोचा, जिसने सुसमाचार का प्रचार करने के लिए समुद्रों और देशों की यात्रा की और जिसने महान कार्य किया। लेकिन उसके कर्तव्यों में उसके इरादे आशीष और मुकुट पाने के थे, और अंत में उसका स्वभाव नहीं बदला। उसने यहाँ तक कि खुलेआम परमेश्वर के खिलाफ शोर मचाया, धार्मिकता का मुकुट माँगा। उसने परमेश्वर के स्वभाव को नाराज किया और परमेश्वर द्वारा उसे हटा दिया गया और दंडित किया गया। इसकी रोशनी में खुद को पीछे मुड़कर देखती हूँ तो मैंने देखा कि मेरे कर्तव्यों में मेरा उद्देश्य एक अच्छा परिणाम और गंतव्य पाना था, और मेरे कर्तव्यों में मेरे इरादे गलत थे। मैंने चाहे कितने भी कर्तव्य किए, यह तथ्य कि मेरा भ्रष्ट स्वभाव अपरिवर्तित रहा, फिर भी परमेश्वर को मुझसे घृणा होती। मैंने सोचा कि कैसे परमेश्वर ने हमें शैतान के नुकसान से बचाने के लिए बहुत कुछ कहा है, इतने सतत और गंभीर ढंग से बोला, सब इस उम्मीद में कि हम सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलेंगे। लेकिन मुझमें परमेश्वर के प्रति जरा भी ईमानदारी नहीं थी। मुझमें अंतरात्मा और विवेक बिल्कुल नहीं था! इन बातों का एहसास होने पर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैंने 20 से अधिक वर्षों तक आप पर विश्वास किया है, लेकिन मैंने ईमानदारी से खुद को आपके लिए नहीं खपाया है। मैं स्वार्थी, घृणित और मानवता से रहित हूँ। मैं इतनी भ्रष्ट हूँ, लेकिन आपने मुझसे घृणा नहीं की और आप अभी भी मुझे बचा रहे हैं। मैं अपने गलत इरादों को छोड़ने और अपने कर्तव्यों को पूरा करने को तैयार हूँ!”
इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “प्रत्येक व्यक्ति के लिए परमेश्वर की इच्छा है कि उसे पूर्ण बनाया जाए, अंततः उसके द्वारा उसे प्राप्त किया जाए, उसके द्वारा उसे पूरी तरह से शुद्ध किया जाए, और वह ऐसा इंसान बने जिससे वह प्रेम करता है। चाहे मैं तुम लोगों को पिछड़ा हुआ कहता हूँ या निम्न क्षमता वाला—यह सब तथ्य है। मेरा ऐसा कहना यह प्रमाणित नहीं करता कि मेरा तुम्हें छोड़ने का इरादा है, कि मैंने तुम लोगों में आशा खो दी है, और यह तो बिल्कुल नहीं कि मैं तुम लोगों को बचाना नहीं चाहता। आज मैं तुम लोगों के उद्धार का कार्य करने के लिए आया हूँ, जिसका तात्पर्य है कि जो कार्य मैं करता हूँ, वह उद्धार के कार्य की निरंतरता है। प्रत्येक व्यक्ति के पास पूर्ण बनाए जाने का एक अवसर है : बशर्ते तुम तैयार हो, बशर्ते तुम खोज करते हो, अंत में तुम इस परिणाम को प्राप्त करने में समर्थ होगे, और तुममें से किसी एक को भी त्यागा नहीं जाएगा। यदि तुम निम्न क्षमता वाले हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी निम्न क्षमता के अनुसार होंगी; यदि तुम उच्च क्षमता वाले हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी उच्च क्षमता के अनुसार होंगी; यदि तुम अज्ञानी और निरक्षर हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी निरक्षरता के अनुसार होंगी; यदि तुम साक्षर हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ इस तथ्य के अनुसार होंगी कि तुम साक्षर हो; यदि तुम बुज़ुर्ग हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी उम्र के अनुसार होंगी; यदि तुम आतिथ्य प्रदान करने में सक्षम हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ इस क्षमता के अनुसार होंगी; यदि तुम कहते हो कि तुम आतिथ्य प्रदान नहीं कर सकते और केवल कुछ निश्चित कार्य ही कर सकते हो, चाहे वह सुसमाचार फैलाने का कार्य हो या कलीसिया की देखरेख करने का कार्य या अन्य सामान्य मामलों में शामिल होने का कार्य, तो मेरे द्वारा तुम्हारी पूर्णता भी उस कार्य के अनुसार होगी, जो तुम करते हो” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के सामान्य जीवन को बहाल करना और उसे एक अद्भुत मंजिल पर ले जाना)। “मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंजिल उसकी आयु, वरिष्ठता और उसके द्वारा सही गई पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता और सबसे कम इस आधार पर तय नहीं करता कि वह किस हद तक दया का पात्र है, बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। तुम लोगों को यह समझना चाहिए कि जो लोग परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण नहीं करते, वे सब दंडित किए जाएँगे। यह एक ऐसा तथ्य है जिसे कोई व्यक्ति नहीं बदल सकता। इसलिए जो लोग दंडित किए जाते हैं, वे सब इस तरह परमेश्वर की धार्मिकता के कारण और अपने अनगिनत बुरे कार्यों के प्रतिफल के रूप में दंडित किए जाते हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझी कि परमेश्वर का कार्य यह तरीका नहीं अपनाता कि सबके लिए सब समान है, न ही वह किसी को उसकी क्षमता से परे मजबूर करता है। इसके बजाय, परमेश्वर हर व्यक्ति की वास्तविक स्थिति और पृष्ठभूमि के अनुसार अपेक्षाएँ रखता है। अगर कोई व्यक्ति बूढ़ा है, तो वह उसकी उम्र के अनुसार अपेक्षाएँ रखता है, और अगर किसी व्यक्ति की काबिलियत खराब है, तो वह उसकी काबिलियत के अनुसार अपेक्षाएँ रखता है। जब तक हम सत्य का अनुसरण कर सकते हैं और सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकते हैं, हम सभी के पास बचाए जाने का अवसर है। साथ ही, मैं यह भी समझ गई कि परमेश्वर किसी व्यक्ति का परिणाम उसकी उम्र या त्याग करने की क्षमता के आधार पर निर्धारित नहीं करता, और जो महत्वपूर्ण है वह यह है कि कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है या नहीं और उसके स्वभाव में बदलाव आता है या नहीं। भले ही मेरी सेहत पहले जैसी तगड़ी नहीं थी, परमेश्वर ने मुझे त्यागा नहीं था, और कलीसिया अभी भी मेरी शारीरिक स्थिति के अनुसार, मुझसे मेरी क्षमता के अनुसार सर्वोत्तम कर्तव्य करवा रही थी। शायद मेरी सेहत और बिगड़ जाती और मैं कोई महत्वपूर्ण कर्तव्य नहीं कर पाती, लेकिन मैं अपने भ्रष्ट स्वभावों को सुलझाने के लिए सत्य खोज सकती थी, और अगर भाई-बहन खराब दशा में होते, तो मैं उन्हें सहारा देने और संगति करने के लिए परमेश्वर के वचन भी खोज सकती थी। मैं अपने आस-पास के लोगों को सुसमाचार का प्रचार भी कर सकती थी। ऐसा नहीं है कि मैं कोई कर्तव्य नहीं कर सकती। साथ ही, भले ही मैं बूढ़ी थी और मेरी सेहत खराब थी, लेकिन मेरा दिमाग स्पष्ट था, मेरे कान अभी भी सुन सकते थे और परमेश्वर के वचन सुनने में सक्षम थे, मेरी आँखें अभी भी परमेश्वर के वचन पढ़ सकती थीं, और मेरा मुँह अभी भी बोल सकता था और संगति कर सकता था। जब तक मैं सत्य का अनुसरण करती, मेरे लिए परमेश्वर द्वारा बचाए जाने की उम्मीद थी। अतीत में, मैं सत्य नहीं खोजती थी और लगातार आशीष पाने की इच्छा के तनाव और व्याकुलता में डूबी रहती थी, और मैंने वह समय बर्बाद कर दिया जो सत्य का अनुसरण करने में बिताया जा सकता था। यह कितना बेकार था!
बाद में, भाई-बहनों के याद दिलाने के कारण, मुझे आखिरकार एहसास हुआ कि “जब तक मैं अपना कर्तव्य निभाऊँगी, मुझे आशीष मिलेगा और मैं बचाई जाऊँगी” यह एक भ्रामक दृष्टिकोण है। परमेश्वर कहता है : “मनुष्य के कर्तव्य और उसे आशीष का प्राप्त होना या दुर्भाग्य सहना, इन दोनों के बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। आशीष प्राप्त होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। दुर्भाग्य सहना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें आशीष प्राप्त होते हैं या दुर्भाग्य सहना पड़ता है, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल आशीष प्राप्त करने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें दुर्भाग्य सहने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझाया कि मेरे कर्तव्य करने का आशीष पाने से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसा नहीं है कि मैं अपना कर्तव्य करके, अधिक कर्तव्य करके या अधिक कष्ट सहकर आशीष पा सकती हूँ। यह मेरा भ्रामक दृष्टिकोण था। मैं एक सृजित प्राणी हूँ, परमेश्वर सृष्टिकर्ता है और मेरा कर्तव्य वह है जो मुझे करना चाहिए। इसलिए, मुझे परमेश्वर के वचन सुनने चाहिए और अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए। केवल अपना कर्तव्य करके ही मेरी भ्रष्टता प्रकट हो सकती है, और तभी मुझे खुद को जानने, अपनी भ्रष्टता को त्यागने और परमेश्वर द्वारा बचाए जाने का अवसर मिल सकता है। मैं चाहे कितने भी कर्तव्य करूँ, अगर मैं सत्य का अनुसरण नहीं करती और मेरे जीवन स्वभाव में बिल्कुल भी बदलाव नहीं आता, तो भी मुझे परमेश्वर द्वारा हटा दिया जाएगा। मैंने पतरस के बारे में सोचा, जिसने अपना कर्तव्य करते हुए सत्य का अनुसरण किया और स्वभाव में बदलाव पर ध्यान केंद्रित किया। उसने अपना कर्तव्य केवल परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए किया। उसके कोई अशुद्ध या व्यक्तिगत इरादे नहीं थे और वह परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की कोशिश नहीं कर रहा था, और परमेश्वर ने चाहे उसे कैसे भी परखा या उसका शोधन किया, वह मृत्यु तक समर्पित रहा। क्योंकि वह सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चला, अंततः उसे परमेश्वर की स्वीकृति मिली। मुझे पतरस के उदाहरण का अनुसरण करना था और स्वभाव में बदलाव का अनुसरण करना था। अब, चूँकि मैं सभाओं की मेजबानी कर सकती थी, तो मैं इसे अपनी पूरी क्षमता से करती। अगर एक दिन मैं गंभीर रूप से बीमार हो गई और सभाओं में शामिल होने या अपने कर्तव्य करने में असमर्थ हो गई, तो भी मैं परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित रहती और परमेश्वर से शिकायत या उसे दोष नहीं देती। पीछे मुड़कर देखती हूँ तो मैंने पाया कि मैं परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार करने, इतने सारे सत्यों और रहस्यों को समझने, परमेश्वर के वचन के इतने सारे प्रावधानों का आनंद लेने, और अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानने के लिए परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करने में सक्षम थी। इन बातों ने मुझे दिखाया कि यह परमेश्वर ही था जो मुझे कदम-दर-कदम वहाँ तक ले गया जहाँ मैं पहुँची थी, और मैंने परमेश्वर का इतना प्रेम और अनुग्रह पाया था! इस समझ के साथ, मैं अब अपनी नकारात्मक दशा से बेबस या बंधी हुई महसूस नहीं करती।
इस अनुभव के माध्यम से मुझे एहसास हुआ है कि परमेश्वर धार्मिक है, और कोई व्यक्ति चाहे बूढ़ा हो या जवान, परमेश्वर उन पर समान अनुग्रह करता है, और जब तक हम सत्य का अनुसरण करते हैं, हम परमेश्वर का उद्धार पा सकते हैं। अतीत में, मैं हमेशा महसूस करती थी कि मेरी उम्र और कई बीमारियों के कारण, अगर मैं अपने कर्तव्य नहीं कर पाई तो परमेश्वर मुझे स्वीकार नहीं करेगा। लेकिन ये सिर्फ मेरी धारणाएँ और कल्पनाएँ थीं और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं थीं। अब से, मेरी सेहत कैसी भी हो, मैं सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित करूँगी, आज्ञाकारी रूप से परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित रहूँगी, और परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाने के लिए अपनी पूरी क्षमता से अपने कर्तव्य करूँगी।