94. वास्तविक कार्य करने से मुझे क्या लाभ हुआ

शीरान, चीन

नवंबर 2021 में मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया। शुरुआत में मैंने अपने सहयोगियों से सक्रिय रूप से सीखा और विभिन्न कामों में हिस्सा लिया, भले ही यह थोड़ा व्यस्त और थकाऊ था, फिर भी मुझे वास्तव में संतुष्टि का अनुभव होता था। कुछ समय बाद मुझे पता चला कि मुझे कलीसिया के कार्य की विभिन्न मदों पर गौर करना, उनका अनुवर्तन करना और समस्याओं के समाधान में भाग लेना जरूरी है और इसमें बहुत समय और ऊर्जा लगती है। मैंने सोचा, “अगर मैं असल में हर कार्य में भाग लेता हूँ तो क्या मैं और अधिक व्यस्त और थक नहीं जाऊँगा?” उस समय मैं सुसमाचार कार्य के लिए जिम्मेदार था, लेकिन शुरुआत करते समय मुझे बहुत सी बातें समझ में नहीं आईं थीं और कार्य को अच्छी तरह से करने के लिए मुझे सीखने और खोजने में अधिक समय और ऊर्जा लगानी होती थी। मैंने मो ली के बारे में सोचा, जो पहले एक अगुआ रह चुकी थी और सुसमाचार कार्य लागू करने और उसका अनुवर्तन करने का तरीका मुझसे बेहतर समझती थी। मुझे महसूस हुआ कि सुसमाचार कार्य का पर्यवेक्षण उसके लिए ठीक रहेगा और अगर कोई अनुभवी व्यक्ति काम सँभालता है, तो मेरे लिए चीजें काफी आसान हो जाएँगी। उसके बाद मैंने मो ली को कुछ समय के लिए सुसमाचार कार्य का पर्यवेक्षण करने दिया और मैं हर सभा में बस उससे यही पूछता रहता था कि सुसमाचार कार्य कैसा चल रहा है। जब वह मुझे बताती कि सभी जरूरी काम लागू किए जा चुके हैं, तो मैं उसकी बात सुनता था, इसलिए मैं उससे कोई ब्यौरा नहीं पूछता था और बस उसे काम पर बारीकी से अनुवर्तन करने को कहता था। उस समय मुझे पता था कि एक अगुआ होने के नाते मुझे कार्य के ब्योरों का अनुवर्तन करना होगा, लेकिन मैं खुद को बहुत ज्यादा थकाना नहीं चाहता था। मुझे लगा कि मो ली प्रभारी है तो ठीक है, इसलिए मैं सुसमाचार कार्य के बारे में कम ही पूछताछ करता था। कुछ समय बाद उच्च अगुआओं ने एक पत्र भेजा जिसमें पूछा गया था कि किन संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं को उपदेश दिया जा सकता है और किन्हें नहीं। मैं अवाक रह गया क्योंकि मुझे ये विशिष्ट ब्योरे समझ नहीं आए थे। इसलिए मैंने मो ली से इस बारे में पूछा, लेकिन उसने कहा कि उसे इसकी केवल सामान्य समझ है और उसे हर संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता के बारे में विशेष जानकारी भी नहीं है और असल में उसने उनका अनुवर्तन भी नहीं किया है। यह सुनकर मुझे गुस्सा आ गया और मैंने सोचा, “तुम सुसमाचार कार्य का पर्यवेक्षण कर रही हो, फिर भी तुम्हें इसके ब्योरों की समझ नहीं है! तुम असल कार्य नहीं कर रही हो!” बाद में मैंने ब्योरों पर गौर किया और तब जाकर मुझे पता चला कि मो ली का सुसमाचार कार्य की व्यवस्थाएँ लागू करने का सामान्य तरीका बस भाई-बहनों के साथ उन्हें पढ़ना भर होता था और वह कोई विस्तृत संगति या व्यवस्थाएँ नहीं कर रही थी। जब मैंने भाई-बहनों को यह बताते हुए सुना तो मैं बेचैन हो गया, मैंने सोचा कि मो ली अपने कर्तव्यों में कितनी लापरवाह थी। उसी समय मुझे यह भी एहसास हुआ कि मुख्य मुद्दा मेरे साथ था। मैं आमतौर पर सभाओं के दौरान ही कार्य निपटाता था और भले ही मैं भाई-बहनों से कहता था कि वे अपने कर्तव्यों में और अधिक प्रयास करें और मुश्किलों में परमेश्वर पर भरोसा रखें, मगर असल में मैं सिर्फ धर्म-सिद्धांतों और नारों में ही बातें करता रहता था और शायद ही कभी कार्य के बारे में पूछताछ करता था, जो कि अपने हाथ झाड़ने जैसा था। ठीक सुसमाचार कार्य की तरह मो ली को काम सौंपने के बाद मैं बस उसके काम के अच्छी तरह से पूरा होने का इंतजार करता रहता और आराम से बैठकर उसका फायदा उठाता। मैं इस तरह अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से कैसे निभा पाता? काम में सारी समस्याएँ मेरे आराम में लिप्त रहने और लापरवाही बरतने की वजह से थीं। मुझे याद है कि उस समय सुसमाचार के दो संभावित प्राप्तकर्ता थे, लेकिन चूँकि मैंने समय पर उन पर ध्यान नहीं दिया या उनसे अनुवर्तन नहीं किया, जिससे उन्हें सुसमाचार सुनाने में देरी हो गई। बाद में उपदेशक ने मुझे चेतावनी दी, “तुम एक महीने से अगुआ हो; तुम अभी भी इन कामों को क्यों नहीं समझ पाते? तुम्हें वास्तव में आत्म-चिंतन करना चाहिए।”

अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “नकली अगुआओं के काम की मुख्य विशेषता है धर्म-सिद्धांतों के बारे में बकवास करना और तोते की तरह नारे लगाना। अपने आदेश जारी करने के बाद वे बस मामले से पल्ला झाड़ लेते हैं। वे कार्य के आगे की प्रगति के बारे में कोई सवाल नहीं पूछते; वे यह नहीं पूछते कि कोई समस्या, विचलन या कठिनाई तो उत्पन्न नहीं हुई। वे दूसरों को कोई काम सौंपते ही अपना काम समाप्त हुआ मान लेते हैं। वास्तव में अगुआ होने के नाते कार्य को व्यवस्थित कर लेने के बाद तुम्हें कार्य की प्रगति की खोज-खबर लेनी चाहिए। अगर तुम उस कार्यक्षेत्र से परिचित नहीं हो—यदि तुम्हें इसके बारे में कोई ज्ञान न हो—तब भी तुम अपना काम करने का तरीका खोज सकते हो। तुम जाँच करने और सुझाव देने के लिए किसी ऐसे व्यक्ति को खोज सकते हो, जो इस पर सच्ची पकड़ रखता हो, जो संबंधित पेशे को समझता हो। उसके सुझावों से तुम उपयुक्त सिद्धांत पता लगा सकते हो, और इस तरह तुम काम की खोज-खबर लेने में सक्षम हो सकते हो। चाहे तुम संबंधित पेशे से परिचित हो या नहीं हो या उस काम को समझते हो या नहीं, उसकी प्रगति से अवगत रहने के लिए तुम्हें कम-से-कम उसकी निगरानी तो करनी ही चाहिए, खोज-खबर लेनी चाहिए, उसकी प्रगति के बारे में लगातार पूछताछ करते हुए उसके बारे में सवाल करने चाहिए। तुम्हें ऐसे मामलों पर पकड़ बनाए रखनी चाहिए; यह तुम्हारी जिम्मेदारी है, यह तुम्हारे काम का हिस्सा है। काम की खोज-खबर न लेना, काम दूसरे को सौंपने के बाद और कुछ न करना—उससे पल्ला झाड़ लेना—यह नकली अगुआओं के कार्य करने का तरीका है। कार्य की खोज-खबर न लेना या कार्य के बारे में मार्गदर्शन न देना, आने वाली समस्याओं के बारे में पूछताछ न करना या उनका समाधान न करना और काम की प्रगति या उसकी दक्षता पर पकड़ न रखना—ये भी नकली अगुआओं की अभिव्यक्तियाँ हैं(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (4))। “चूँकि नकली अगुआ कार्य की प्रगति के बारे में जानकारी नहीं हासिल करते, और क्योंकि वे उसमें उत्पन्न होने वाली समस्याएँ तुरंत पहचानने में असमर्थ होते हैं—उन्हें हल करना तो दूर की बात है—इससे अक्सर बार-बार देरी होती है। किसी-किसी कार्य में, चूँकि लोगों को सिद्धांतों की समझ नहीं होती और उसकी जिम्मेदारी लेने या उसका संचालन करने के लिए कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं होता, इसलिए कार्य करने वाले लोग अक्सर नकारात्मकता, निष्क्रियता और प्रतीक्षा की स्थिति में रहते हैं, जो कार्य की प्रगति को गंभीर रूप से प्रभावित करता है। अगर अगुआओं ने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की होतीं—अगर उन्होंने कार्य का संचालन किया होता, उसे आगे बढ़ाया होता, उसका निरीक्षण किया होता, और कार्य का मार्गदर्शन करने के लिए उस क्षेत्र को समझने वाले किसी व्यक्ति को ढूँढ़ा होता, तो बार-बार देरी होने के बजाय काम तेजी से आगे बढ़ता। तभी, अगुआओं के लिए कार्य की स्थिति को समझना और पकड़ हासिल करना महत्वपूर्ण है। निस्संदेह, अगुआओं के लिए यह समझना और पकड़ना भी बहुत आवश्यक है कि कार्य कैसे प्रगति कर रहा है, क्योंकि प्रगति कार्य की दक्षता और उन परिणामों से संबंधित है जो उस कार्य से मिलने चाहिए। अगर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह समझ न हो कि कलीसिया का कार्य कैसा चल रहा है, और वे चीजों की खोज-खबर नहीं लेते या उनका निरीक्षण नहीं करते, तो कलीसिया के कार्य की प्रगति धीमी होनी तय है। यह इस तथ्य के कारण है कि कर्तव्य निभाने वाले ज्यादातर लोग बहुत गंदे होते हैं, उनमें बोझ का भाव नहीं होता, वे अक्सर नकारात्मक, निष्क्रिय और अनमने होते हैं। अगर कोई भी ऐसा न हो जिसमें बोझ का भाव और कार्य-क्षमताएँ हों और जो ठोस ढंग से काम की जिम्मेदारी ले सके, समयबद्ध तरीके से कार्य की प्रगति जान सके, और कर्तव्य निभाने वाले कर्मियों का मार्गदर्शन, निरीक्षण कर सके, और उन्हें अनुशासित कर उनकी काट-छाँट कर सके, तो स्वाभाविक रूप से कार्य-दक्षता बहुत कम होगी और कार्य के परिणाम बहुत खराब होंगे। अगर अगुआ और कार्यकर्ता इसे स्पष्ट रूप से देख तक नहीं सकते तो वे मूर्ख और अंधे हैं। इसलिए, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को काम पर तुरंत गौर करके उसकी खोज-खबर लेकर उसकी प्रगति को समझना होगा और यह देखना चाहिए कि कर्तव्य करनेवालों की ऐसी कौन-सी समस्याएँ हैं जिन्हें हल करने की आवश्यकता है, और यह समझना चाहिए कि बेहतर परिणाम प्राप्त करने के लिए किन समस्याओं का समाधान किया जाना चाहिए। ये सारी चीजें बहुत महत्वपूर्ण हैं और अगुआ के रूप में कार्य करने वाले व्यक्ति को इनके बारे में स्पष्ट होना चाहिए। अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए, तुम्हें नकली अगुआ की तरह नहीं होना चाहिए, जो कुछ सतही काम करता है और फिर सोचता है कि उसने अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाया है। नकली अगुआ अपने काम में लापरवाह और असावधान होते हैं, उनमें जिम्मेदारी का भाव नहीं होता, समस्याएँ आने पर वे उनका समाधान नहीं करते, और चाहे वे जो भी काम कर रहे हों, वे उसे सिर्फ सतही तौर पर करते हैं, और उससे अनमने दृष्टिकोण से पेश आते हैं। वे सिर्फ भारी-भरकम आडंबरी शब्द बोलते हैं, धर्म-सिद्धांत झाड़ते हैं, खोखली बातें करते हैं और अपना काम बेमन से करते हैं। सामान्य तौर पर, नकली अगुआओं के काम करने की यही स्थिति होती है। हालाँकि, मसीह-विरोधियों की तुलना में, नकली अगुआ खुल्लमखुल्ला बुरे काम और जानबूझकर कुकर्म नहीं करते, लेकिन उनके काम की प्रभावशीलता को देखा जाए, तो उन्हें लापरवाह, बोझ न उठाने वाले, गैर-जिम्मेदार और काम के प्रति वफादारी न रखने वाले व्यक्ति के रूप में निरूपित करना उचित है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (4))। परमेश्वर के वचनों ने उस रवैये की तरफ इशारा किया जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को अपने काम में रखना चाहिए, यानी कार्य की प्रगति का सक्रिय रूप से अनुवर्तन, उसके बारे में पूछताछ और उस पर नजर रखना और विभिन्न समस्याओं और कठिनाइयों का समाधान करना, जिससे कार्य की सुचारू प्रगति सुनिश्चित हो सके। ये अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ होती हैं। भले ही कोई अनुभवहीन हो, वे उन लोगों से संपर्क कर सकते हैं जो पेशेवर कौशल समझते हैं और उसके जरिए अभ्यास के सिद्धांत पता लगा सकते हैं ताकि वे कार्य का अनुवर्तन करने में सक्षम हो सकें। लेकिन एक नकली अगुआ कार्य की वर्तमान स्थितियों या प्रगति को नहीं समझता और न ही यह समझता है कि प्रत्येक कार्य से क्या नतीजे हासिल होने चाहिए या लोग कैसा प्रदर्शन कर रहे हैं। वे सतही और लापरवाह तरीके से काम करते हैं, बस औपचारिकता निभाते हैं और असली कार्य नहीं करते, जिसके कारण कार्य में प्रगति नहीं होती। परमेश्वर ने जिस चीज को उजागर किया, वह वास्तव में मेरा व्यवहार था। सुसमाचार कार्य में मैंने अपनी शुरुआती समझ की कमी को एक बहाने के रूप में इस्तेमाल किया और कार्य का पर्यवेक्षण मो ली को सौंप दिया। मैंने सोचा था कि चूँकि वह एक अगुआ रही है और सुसमाचार कार्य से परिचित है, इसलिए वह इसकी जिम्मेदारी लेने में सक्षम होगी, लेकिन बाद में मैंने असल में इस बारे में कोई अनुवर्तन नहीं किया या पूछताछ नहीं की कि कितने संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता हैं जिन्हें उपदेश दिया जा सकता है या भाई-बहनों को अपने कर्तव्यों में क्या समस्याएँ या कठिनाइयाँ आ रही हैं। मैंने यहाँ तक सोचा कि चूँकि मो ली ने कहा था कि सारा कार्य कार्यान्वित किया जा चुका है और उसने किसी भी कठिनाई का जिक्र नहीं किया, तो मुझे ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं है, इसलिए मैंने सुसमाचार कार्य में भाग नहीं लिया। एक अगुआ होने के नाते मुझे कार्य की सभी मदों की प्रगति और दशा का अनुवर्तन करने, उन पर नजर रखने और उनका पर्यवेक्षण करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी और यहाँ तक कि अगर मैं मो ली को सुसमाचार कार्य का पर्यवेक्षण करने भी दूँ, तब भी मुझे उसका अनुवर्तन करना चाहिए, उसकी बारीकी से जाँच करनी चाहिए। अगर कार्य से नतीजे हासिल नहीं हो रहे थे, तो मुझे समय रहते कारणों का पता लगाना चाहिए था और समस्याओं और कठिनाइयों का समाधान करना चाहिए था। लेकिन मैंने काम दूसरों पर थोप दिया और इसमें हाथ न डालने का रवैया अपना लिया और नतीजतन, सुसमाचार कार्य में देरी हो गई। ऊपरी तौर पर लग रहा था कि मैं कोई स्पष्ट बुराई किए या बाधा डाले बिना अपने कर्तव्य निभा रहा हूँ, लेकिन एक अगुआ के रूप में मैं देह को खुश रख रहा था और असली कार्य नहीं कर रहा था और इसके कारण सुसमाचार कार्य में नतीजे हासिल नहीं हो रहे थे। मैं एक नकली अगुआ था और मैं इस कर्तव्य के बिल्कुल भी लायक नहीं था। यह सोचकर मुझे गहरा अफसोस हुआ। मैं अब ऐसा और नहीं कर सकता था और मुझे अपने कर्तव्यों के प्रति अपना दृष्टिकोण तुरंत बदलना था। इसके बाद मैंने वास्तव में सुसमाचार कार्य का अनुवर्तन करना शुरू किया और जब मुझे कार्य में समस्याएँ मिलती थीं तो मैं उन्हें हल करने के लिए संगति करता था। सुसमाचार कार्य में धीरे-धीरे नतीजे हासिल होने लगे। कुछ समय तक काम करने के बाद मुझे लगा कि मैं थोड़ा बदल गया हूँ, लेकिन मुझे आश्चर्य हुआ कि कुछ ही समय बाद मैं फिर से बेनकाब हो गया।

कुछ महीनों बाद मुझे एक अगुआ बनाकर दूसरी कलीसिया में स्थानांतरित कर दिया गया, जहाँ मेरी प्राथमिक जिम्मेदारी कलीसिया के सफाई कार्य की देखरेख करने की थी। मैंने देखा कि छद्म-विश्वासियों और बुरे लोगों को स्वच्छ करने की कुछ सामग्रियाँ अधूरी थीं और उन्हें अतिरिक्त तथ्यात्मक प्रमाणों की आवश्यकता थी, इसलिए मैंने सफाई कार्य कर रहे भाई-बहनों के साथ संगति की। मगर चूँकि उन्होंने अभी-अभी प्रशिक्षण शुरू किया था, इसलिए वे सिद्धांत नहीं पकड़ पाए थे और मुख्य बिंदुओं को नहीं समझ पाए, नतीजतन उन्होंने जो सामग्री जोड़ी थी वह अधूरी थी और उसमें बार-बार संशोधन करने पड़ रहे थे। एक बार मैंने देखा कि उन्होंने जो सामग्री जोड़ी थी उसमें अभी भी विवरणों का अभाव था और मैंने मन ही मन सोचा, “मैंने इन सिद्धांतों पर कई बार संगति की है। हालाँकि वे सिद्धांत रूप में इन्हें समझते हैं, लेकिन व्यवहार में अलग-अलग स्थितियों से सामना होने पर उन्हें समझ नहीं आता कि क्या करें। ऐसा लगता है कि मुझे उन्हें कुछ सामग्री तैयार करने में मार्गदर्शन करना होगा ताकि वे गति पकड़ सकें। इस तरह उनके काम अधिक कुशलता से पूरे होंगे।” लेकिन मैंने फिर से विचार किया, “अगर मैं स्वच्छता सामग्री तैयार करने में उनकी मदद करता हूँ, तो इसमें बहुत समय और ऊर्जा लगेगी। मैं पहले ही अपने कामों में इतना व्यस्त हूँ, तो कौन जाने यह कितना थका देने वाला होगा? इसके अलावा मैं इन कामों को नजरअंदाज नहीं कर रहा हूँ; उन्हें प्रशिक्षण की जरूरत है और अगर मैं बस उनका पर्यवेक्षण और जाँच करता रहूँ तो ठीक रहेगा। केवल इसी तरह वे कुछ प्रगति कर सकते हैं।” इन बातों को ध्यान में रखते हुए मैंने उनके साथ केवल संगति की और विश्लेषण किया और उन्हें इन सामग्रियों को स्वयं पूरा करने दिया। लेकिन पूरक सामग्री में अभी भी कुछ कमियाँ थीं और बहुत सी सामग्रियों पर बार-बार काम करना पड़ा, जिससे प्रगति में गंभीर रूप से देरी हुई। बाद में एक सभा के दौरान उच्च अगुआओं को पता चला कि सफाई कार्य कैसे चल रहा है और उन्होंने मुझे बताया, “भले ही तुमने भाई-बहनों के साथ इन कामों पर संगति की है और विश्लेषण प्रदान किया है, फिर भी उन्हें इनमें से प्रत्येक सामग्री के पूरक कई बार बनाने पड़े हैं और इससे प्रगति में बहुत देरी हुई है। इस समय तुम्हें इन सामग्रियों को एकत्रित करने और व्यवस्थित करने में उनके साथ मिलकर काम करना होगा, उन्हें असल में प्रशिक्षित करना होगा और उनके कर्तव्यों की दक्षता में सुधार करना होगा। यह भी एक अगुआ की जिम्मेदारी होती है।” अगुआओं द्वारा यह बात मेरे सामने रखने पर मुझे कुछ हद तक अपराध-बोध हुआ। अगर मैंने सचमुच इस कार्य में भाग लिया होता, तो यह कार्य इतना लंबा न खिंचता।

सभा के दौरान हमने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “एक और प्रकार का नकली अगुआ होता है, जिसके बारे में हमने अक्सर ‘अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ’ विषय पर संगति करते समय बात की है। इस प्रकार के अगुआओं में कुछ काबिलियत होती है, वे बेवकूफ नहीं होते हैं, उनके पास अपने कार्य करने के तौर-तरीके और विधियाँ होती हैं, और समस्याएँ हल करने के लिए योजनाएँ होती हैं, और जब उन्हें कार्य का कोई अंश दिया जाता है, तो वे उसे अपेक्षित मानकों के लगभग अनुरूप कार्यान्वित कर सकते हैं। वे कार्य के दौरान उत्पन्न होने वाली किसी भी समस्या का पता लगाने में समर्थ होते हैं और उनमें से कुछ समस्याएँ हल भी कर सकते हैं; जब वे कुछ लोगों द्वारा सूचित की गई समस्याएँ सुनते हैं, या वे कुछ लोगों के व्यवहार, अभिव्यक्तियों, बातों और कार्य की जाँच-परख करते हैं, तो उनके दिल में प्रतिक्रिया होती है, और उनकी अपनी राय और एक रवैया होता है। यकीनन, अगर ये लोग सत्य का अनुसरण करें और उनमें दायित्व की भावना हो, तो ये सभी समस्याएँ हल हो सकती हैं। लेकिन, आज हम जिस प्रकार के व्यक्ति पर संगति कर रहे हैं, उसकी जिम्मेदारी के अंतर्गत आने वाले कार्य में समस्याएँ अप्रत्याशित रूप से अनसुलझी रह जाती हैं। ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ये लोग वास्तविक कार्य नहीं करते हैं। वे आराम से प्रेम और कड़ी मेहनत से नफरत करते हैं, वे बस ऊपरी तौर पर लापरवाही से प्रयास करते हैं, उन्हें निठल्ला रहना और रुतबे के फायदों का आनंद लेना पसंद है, उन्हें लोगों पर हुक्म चलाना अच्छा लगता है, और वे बस थोड़े-से होंठ हिलाते हैं और कुछ सुझाव देते हैं और फिर मान लेते हैं कि उनका कार्य पूरा हो गया है। वे कलीसिया के किसी भी वास्तविक कार्य या परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपे गए अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य को गंभीरता से नहीं लेते हैं—उनमें दायित्व की यह भावना नहीं होती है, और भले ही परमेश्वर का घर बार-बार इन बातों पर जोर देता रहे, फिर भी वे उन्हें गंभीरता से नहीं लेते हैं। मिसाल के तौर पर, वे परमेश्वर के घर के फिल्म निर्माण कार्य या पाठ आधारित कार्य में दखल देना या उसके बारे में पूछताछ करना नहीं चाहते हैं, और ना ही वे इस बात की छान-बीन करना चाहते हैं कि इस प्रकार के कार्य किस तरह से प्रगति कर रहे हैं और वे क्या परिणाम हासिल कर रहे हैं। वे बस अप्रत्यक्ष रूप से कुछ पूछताछ कर लेते हैं, और एक बार जब वे जान जाते हैं कि लोग इस कार्य में व्यस्त हैं और यह कार्य कर रहे हैं, तो वे आगे इस पर और ध्यान नहीं देते हैं। यहाँ तक कि जब उन्हें अच्छी तरह से यह मालूम भी होता है कि कार्य में समस्याएँ हैं, तो भी वे उन पर संगति करना और उन्हें हल करना नहीं चाहते हैं, और ना ही वे इस बारे में पूछताछ या छान-बीन करते हैं कि लोग अपने कर्तव्य कैसे कर रहे हैं। वे इन चीजों के बारे में पूछताछ क्यों नहीं करते हैं या इनकी छान-बीन क्यों नहीं करते हैं? उन्हें लगता है कि अगर वे उनकी छान-बीन करेंगे, तो ऐसी बहुत सी समस्याएँ सामने आ जाएँगी जो उनके द्वारा हल की जाने की प्रतीक्षा में होंगी, और वह बहुत ही चिंताजनक होगा। अगर उन्हें हमेशा समस्याएँ सुलझानी पड़ जाए, तो जीवन अत्यंत थकाऊ हो जाएगा! अगर वे बहुत ज्यादा चिंता करेंगे, तो भोजन उनके लिए बेस्वाद हो जाएगा, और वे ठीक से सो नहीं पाएँगे, उन्हें देह में थकावट महसूस होगी, और फिर जीवन तकलीफदेह हो जाएगा। इसीलिए, जब उन्हें कोई समस्या दिखाई पड़ती है, तो वे उससे बचते फिरते हैं और अगर हो सके, तो उसे नजरअंदाज कर देते हैं। इस प्रकार के व्यक्ति में क्या समस्या है? (वह बहुत ही आलसी है।) मुझे बताओ, गंभीर समस्या किन्हें होती है : आलसी लोगों को या खराब काबिलियत वाले लोगों को? (आलसी लोगों को।) आलसी लोगों को गंभीर समस्या क्यों होती है? (खराब काबिलियत वाले लोग अगुआ या कार्यकर्ता नहीं बन सकते, लेकिन जब वे अपनी क्षमताओं के दायरे में आने वाला कोई कर्तव्य करते हैं, तो वे कुछ हद तक प्रभावी हो सकते हैं। लेकिन, आलसी लोग कुछ भी नहीं कर सकते हैं; अगर उनमें काबिलियत हो, तो भी उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।) आलसी लोग कुछ भी नहीं कर सकते हैं। इसे संक्षेप में प्रस्तुत करें, तो वे बेकार लोग हैं; उनमें एक द्वितीय-श्रेणी की अक्षमता है। आलसी लोगों की काबिलियत कितनी भी अच्छी क्यों न हो, वह नुमाइश से ज्यादा कुछ नहीं होती; भले ही उनमें अच्छी काबिलियत हो, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं है। वे बहुत ही आलसी होते हैं—उन्हें पता होता है कि उन्हें क्या करना चाहिए, लेकिन वे वैसा नहीं करते हैं, और भले ही उन्हें पता हो कि कोई चीज एक समस्या है, फिर भी वे इसे हल करने के लिए सत्य की तलाश नहीं करते हैं, और वैसे तो वे जानते हैं कि कार्य को प्रभावी बनाने के लिए उन्हें क्या कष्ट सहने चाहिए, लेकिन वे इन उपयोगी कष्टों को सहने के इच्छुक नहीं होते हैं—इसलिए वे कोई सत्य प्राप्त नहीं कर पाते हैं, और वे कोई वास्तविक कार्य नहीं कर सकते हैं। वे उन कष्टों को सहना नहीं चाहते हैं जो लोगों को सहने चाहिए; उन्हें सिर्फ सुख-सुविधाओं में लिप्त रहना, खुशी और फुर्सत के समय का आनंद लेना और एक मुक्त और शांतिपूर्ण जीवन का आनंद लेना आता है। क्या वे निकम्मे नहीं हैं? जो लोग कष्ट सहन नहीं कर सकते हैं, वे जीने के लायक नहीं हैं। जो लोग हमेशा परजीवी की तरह जीवन जीना चाहते हैं, उनमें जमीर या विवेक नहीं होता है; वे पशु हैं, और ऐसे लोग श्रम करने के लिए भी अयोग्य हैं। क्योंकि वे कष्ट सहन नहीं कर पाते हैं, इसलिए श्रम करते समय भी वे इसे अच्छी तरह से करने में समर्थ नहीं होते हैं, और अगर वे सत्य प्राप्त करना चाहें, तो इसकी उम्मीद तो और भी कम है। जो व्यक्ति कष्ट नहीं सह सकता है और सत्य से प्रेम नहीं करता है, वह निकम्मा व्यक्ति है; वह श्रम करने के लिए भी अयोग्य है। वह एक पशु है, जिसमें रत्ती भर भी मानवता नहीं है। ऐसे लोगों को हटा देना चाहिए; सिर्फ यही परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8))। परमेश्वर उजागर करता है कि नकली अगुआओं के असल कार्य न करने का मुख्य कारण आलस्य है। वे दैहिक सुख-सुविधाओं में लिप्त रहते हैं, लोगों पर हुक्म चलाना पसंद करते हैं और यहाँ तक कि समस्याएँ सामने आने पर भी उनका समाधान नहीं करना चाहते। उन्हें अपने कर्तव्यों के प्रति कोई दायित्व या जिम्मेदारी का बोध नहीं होता और चाहे उनकी योग्यता कितनी भी अच्छी क्यों न हो, वे फिर भी बेकार हैं। ऐसा लगा जैसे परमेश्वर द्वारा उजागर किए गए नकली अगुआओं के विभिन्न व्यवहार मेरे अपने व्यवहार का ही वर्णन थे। हाल के दिनों में मेरा कर्तव्य केवल लोगों पर हुक्म चलाना रहा था। मैं केवल बातें बनाता था और केवल यही पूछता था कि प्राथमिक स्तर पर चीजें कैसी चल रही हैं। मैं नतीजों की तलाश नहीं करता था या समस्याओं का समाधान नहीं करता था और मूलतः मैं असल कार्य नहीं कर रहा था, बल्कि केवल अपने रुतबे के फायदे उठा रहा था। विशेष रूप से मैंने देखा कि परमेश्वर कहता है कि आलसी लोगों के चरित्र में समस्याएँ होती हैं, वे अपने कर्तव्यों में कष्ट सहने और कीमत चुकाने के इच्छुक नहीं होते, उनमें अंतरात्मा और विवेक की कमी होती है, उनका श्रम भी मानक के अनुरूप नहीं होता और परमेश्वर ऐसे लोगों से सचमुच नफरत करता है। इससे मुझे बहुत दुःख हुआ। मैं न सिर्फ अपने कर्तव्य में पूरा दिल और शक्ति लगाकर अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने में नाकाम रहा था, बल्कि मैं परमेश्वर की नजरों में नफरत का पात्र भी बन गया था। एक अगुआ का कर्तव्य निभाने में सक्षम हो पाना परमेश्वर की ओर से पहले ही एक बड़ी उन्नति थी और यह अवसर था जिसे परमेश्वर ने मुझे प्रशिक्षण के लिए दिया था। मुझे यह कर्तव्य पूरा करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए और इससे मेरे जीवन के विकास में भी मदद मिलेगी। मुझे यह स्पष्ट था कि लोगों को बाहर निकालने के लिए सामग्री का आयोजन करने वाले भाई-बहनों ने अभी-अभी प्रशिक्षण शुरू किया था और सिद्धांतों पर उनकी पकड़ नहीं बनी थी और कई बार पूरक सामग्री देने के बाद भी सामग्री अधूरी रहती थी। अगर ऐसा चलता रहा, तो काम में देरी हो जाएगी। मुझे इस मामले पर और गहराई से सोचना चाहिए था और उन्हें विस्तार से मार्गदर्शन देना चाहिए था। मुझे निजी तौर पर उनके साथ मिलकर कुछ सामग्री तैयार करनी थी, ताकि जितना जल्दी संभव हो, वे सिद्धांतों पर पकड़ बना सकें। लेकिन मुझे लगा कि ऐसा करने में बहुत समय और ऊर्जा लगेगी, जिसका मतलब होगा दैहिक पीड़ा और थकान, इसलिए मैं असल में इस समस्या का समाधान नहीं करना चाहता था। मैंने यहाँ तक यह कहकर बहाने भी बनाए कि उन्हें बेहतर होने के लिए खुद प्रशिक्षण लेने की जरूरत है। नतीजतन, सामग्री के कई हिस्सों के लंबे समय तक पूरक नहीं बन पाए। वास्तव में अगर मैंने ज्यादा सोचा होता और कीमत चुकाई होती तो ये समस्याएँ हल हो सकती थीं, लेकिन मैं बस बहुत आलसी था, अपने कर्तव्यों में सिर्फ अपनी देह के बारे में सोचता था। मेरा रवैया लापरवाह था और मुझे काम के प्रति कोई दायित्व या जिम्मेदारी का एहसास नहीं था और नतीजतन, सफाई के कार्य में देरी हो गई। अगर मैं इसी तरह काम करता रहा तो देर-सबेर परमेश्वर मुझे हटा देगा। मैं पहले के जैसे कार्य करता नहीं रह सकता था। मुझे अपनी जिम्मेदारियाँ उठानी चाहिए और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह निभाना चाहिए।

बाद में मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े और मुझे कुछ रास्ते प्राप्त हुए कि अगुआ और कार्यकर्ता असली कार्य कैसे करते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “किसी कार्य के लिए शुरुआती मार्गदर्शन प्रदान करते समय, विशेष परिस्थितियों के लिए विशिष्ट कार्यान्वयन योजनाओं की पेशकश करने के अलावा, औसत काबिलियत और अपेक्षाकृत खराब कार्य क्षमता वाले अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ज्यादा विशिष्ट और विस्तृत मार्गदर्शन दिया जाना चाहिए। वैसे तो ये लोग धर्म-सिद्धांत के संबंध में किसी कार्य के लिए सिद्धांतों और विशिष्ट कार्यान्वयन योजनाओं को समझ पाते हैं, फिर भी उन्हें यह मालूम नहीं होता है कि जब वास्तविक कार्यान्वयन की बात आती है, तो उन्हें कैसे अभ्यास में लाना है। तुम्हें उन कुछ अगुआओं और कार्यकर्ताओं से कैसे पेश आना चाहिए जिनकी काबिलियत खराब है और जिनमें कार्य क्षमता की कमी है? ... तुम्हें अपनी सारी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए; तुम्हें उन कलीसियाओं का ध्यान रखना चाहिए जिनमें अपेक्षाकृत कमजोर और अपेक्षाकृत खराब कार्य क्षमता वाले लोग प्रभारी हैं। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इन मामलों पर विशेष ध्यान देना चाहिए और इनमें विशेष मार्गदर्शन प्रदान करना चाहिए। विशेष मार्गदर्शन का क्या अर्थ है? तुम्हें सत्य पर संगति करने के अलावा, ज्यादा विशिष्ट और विस्तृत निर्देश और सहायता भी प्रदान करनी चाहिए, जिसके लिए संप्रेषण के संबंध में ज्यादा प्रयास करने की जरूरत पड़ती है। अगर तुम उन्हें कार्य समझाते हो और फिर भी उन्हें समझ नहीं आता है, और वे यह नहीं जानते हैं कि इसे कैसे कार्यान्वित करना है, या भले ही वे इसे धर्म-सिद्धांत के संबंध में समझ जाते हैं, और ऐसा लगता है कि वे जानते हैं कि इसे कैसे कार्यान्वित करना है, लेकिन फिर भी तुम अनिश्चित हो और इस बारे में थोड़ा चिंतित हो कि वास्तविक कार्यान्वयन कैसे होगा, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें उनका मार्गदर्शन करने और उनके साथ कार्य को कार्यान्वित करने के लिए स्थानीय कलीसिया में व्यक्तिगत रूप से गहराई में जाने की जरूरत है। जिन कार्यों को कार्य-व्यवस्थाओं की अपेक्षाओं के अनुसार करने की जरूरत है, उनसे संबंधित विशिष्ट व्यवस्थाओं को करते समय उन्हें सिद्धांत बता दो, जैसे कि पहले क्या करना है और उसके बाद क्या करना है, और लोगों का उचित रूप से कैसे आवंटन करना है—इन सभी चीजों को उचित रूप से व्यवस्थित करो। यह व्यावहारिक रूप से उनके कार्य में उनका मार्गदर्शन करना है, जो कि सिर्फ नारे लगाने और अंधाधुंध आदेश देने और कुछ धर्म-सिद्धांतों के साथ उन्हें व्याख्यान देने और फिर, अपना कार्य खत्म हो चुका मान लेने के विपरीत है—वह विशिष्ट कार्य करने की अभिव्यक्ति नहीं है, और नारे लगाना और आसपास के लोगों पर हुक्म चलाना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी नहीं है। एक बार जब स्थानीय कलीसिया के अगुआ या पर्यवेक्षक कार्य की जिम्मेदारी उठा पाते हैं, और कार्य सही रास्ते पर आ जाता है, और मूल रूप से कोई प्रधान समस्या नहीं रह जाती है, सिर्फ तभी अगुआ या कार्यकर्ता वहाँ से जा सकते हैं। कार्य व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करने के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं की नौवीं जिम्मेदारी में पहला विशिष्ट कार्य यही बताया गया है—मार्गदर्शन प्रदान करना। तो फिर, मार्गदर्शन वास्तव में किस प्रकार प्रदान करना चाहिए? अगुआओं और कार्यकर्ताओं को सबसे पहले कार्य-व्यवस्थाओं पर विचार करने और संगति करने का अभ्यास करना चाहिए, कार्य-व्यवस्थाओं की विभिन्न विशिष्ट अपेक्षाओं के बारे में सीखना चाहिए और उन्हें समझना चाहिए, और कार्य-व्यवस्थाओं के भीतर सिद्धांतों को समझने और प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। फिर, उन्हें कार्य-व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करने के लिए सभी स्तरों पर अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर विशिष्ट योजनाओं पर संगति करनी चाहिए। इसके अलावा, उन्हें विशेष परिस्थितियों के लिए विशिष्ट कार्यान्वयन योजनाएँ प्रदान करनी चाहिए और अंत में, उन्हें अपेक्षाकृत कमजोर और अपेक्षाकृत खराब काबिलियत वाले अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ज्यादा विस्तृत और विशिष्ट सहायता और निर्देश देना चाहिए। अगर कुछ अगुआ और कार्यकर्ता कार्य को कार्यान्वित करने में पूरी तरह असमर्थ हैं, तो ऐसी परिस्थितियों में क्या करना चाहिए? उच्च-स्तरीय अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कलीसिया में गहराई तक जाना चाहिए और व्यक्तिगत रूप से कार्य में भाग लेना चाहिए, सत्य की संगति के जरिए वास्तविक मुद्दों को सुलझाना चाहिए, और उन्हें यह सिखाना चाहिए कि कार्य कैसे करना है और सिद्धांतों के अनुसार कार्य को कैसे कार्यान्वित करना है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (10))। परमेश्वर ने अभ्यास का मार्ग बताया है कि अगुआ और कार्यकर्ता असली कार्य कैसे करते हैं। उन भाई-बहनों के लिए जो सिद्धांतों को नहीं समझते और जिनकी कार्यक्षमताएँ कमजोर हैं, हमें उन्हें अधिक विस्तृत और विशिष्ट सहायता और मार्गदर्शन देना चाहिए। परमेश्वर अगुआओं और कार्यकर्ताओं से यही अपेक्षा रखता है। इन भाई-बहनों के लिए जिन्होंने अभी-अभी सफाई कार्य का प्रशिक्षण शुरू किया था और सिद्धांतों पर पकड़ नहीं बना पाए थे, मुझे उन्हें विस्तृत और विशिष्ट मार्गदर्शन देना चाहिए था और वास्तविक कार्य परिदृश्यों में निजी तौर पर सिखाना चाहिए था। लेकिन मैंने अपनी देह की बात पर ध्यान दिया और जो असल कार्य करने की आवश्यकता थी, उसे नहीं किया, जिसके नतीजे में कार्य में देरी हो गई। यह मेरे कर्तव्य का गंभीर उल्लंघन था। मैं कलीसिया के सफाई कार्य के लिए जिम्मेदार था, इसलिए मुझे कलीसिया को छद्म-विश्वासियों से साथ ही उन बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों से भी स्वच्छ करना था, जिन्होंने कलीसिया के जीवन में गड़बड़ी की और बाधा डाली थी, ताकि भाई-बहन एक अच्छा कलीसियाई जीवन जी सकें, वे सत्य की बेहतर संगति कर सकें और जीवन में आगे बढ़ सकें। लेकिन चूँकि मैंने असल कार्य नहीं किया, इसलिए जिन लोगों को कलीसिया से स्वच्छ किया जाना चाहिए था, वे समय पर स्वच्छ नहीं किए गए, जिससे कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचा। इस प्रकार मैं मूलतः बुराई कर रहा था। तब से मैं परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहता था और भाई-बहनों को तुरंत संगति और मार्गदर्शन देना चाहता था ताकि वे जल्दी से सिद्धांतों पर पकड़ बना सकें और अपने कर्तव्य पूरे कर सकें।

कुछ ही समय बाद ऊपरी अगुआओं ने कुछ स्वच्छता सामग्री लौटा दी, जिसे तुरंत तथ्यात्मक प्रमाणों के साथ पूरक करने की आवश्यकता थी। मैंने इसे भाई-बहनों को सौंपने के बारे में सोचा, लेकिन मुझे एहसास हुआ कि वे अभी भी सिद्धांतों पर पकड़ नहीं बना पाए हैं और उन्हें इन सामग्रियों के पूरक बनाने के लिए देने से निश्चित रूप से प्रगति में देरी होगी। इसलिए मैं उनके पास गया और उनके साथ सिद्धांतों का विश्लेषण किया और संगति की। अगुआओं द्वारा बताए गए मुद्दों के आधार पर मैंने पहले उन्हें अपने विचार साझा करने को कहा और उसके बाद मैंने सिद्धांतों का उपयोग करके उनके साथ संगति की कि उनमें क्या कमी थी, जिससे उन्हें कुछ सिद्धांतों पर पकड़ बनाने में मदद मिली। मैंने पाया कि जब मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना चाहता था, तो मुझे उतनी थकान महसूस नहीं होती थी और भाई-बहनों ने भी अपने कर्तव्यों में प्रगति की। इस तरह अभ्यास करने से मुझे मानसिक शांति मिली। भाई-बहनों के साथ सामग्री का विश्लेषण करके मैंने लोगों का भेद पहचानने के सिद्धांतों के बारे में भी और अधिक समझ हासिल की। ये सभी नतीजे असली कार्य करने से प्राप्त हुए।

इस अनुभव के माध्यम से मुझे समझ आया कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए असली कार्य करना बहुत जरूरी है क्योंकि इसका सीधा असर कलीसिया के कार्य की प्रगति पर पड़ता है। साथ ही मुझे यह भी एहसास हुआ कि जब लोग असल में परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपने कर्तव्य निभाते हैं तो वे कुछ नतीजे प्राप्त कर सकते हैं। परमेश्वर का धन्यवाद!

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