96. मैंने अपनी हकलाने की समस्या पर काबू पा लिया
मेरे पिता को हकलाने की समस्या थी और मुझे भी बचपन से यही समस्या थी। जब तक मैं अजनबियों से नहीं मिलती थी, तब तक सब ठीक रहता था, लेकिन जब भी मैं नए लोगों से मिलती थी तो मैं घबरा जाती थी और बोलते समय हकलाने लगती थी। मेरे भाई-बहन मुझसे कहते थे, “देखो तुम कैसे बात करती हो, क्या तुम थोड़ी धीरे नहीं बोल सकती?” उनकी आलोचना ने मुझे बहुत परेशान कर दिया। मेरे अपने भाई-बहन भी मुझे नापसंद करते थे और नीची नजरों से देखते थे। मैं बहुत हीन भावना से ग्रस्त थी और अक्सर शिकायत के कारण रोती थी। प्राथमिक विद्यालय में एक बार जब शिक्षक ने मुझे एक प्रश्न का उत्तर देने के लिए कहा तो मैं बहुत घबरा गई और बात करते हुए मैं अचानक हकलाने लगी, मैं अपनी बात नहीं बोल पा रही थी और मेरे सभी सहपाठी हँसने लगे। यह बहुत अपमानजनक था। उसके बाद जब भी शिक्षक हमसे कुछ पूछता तो मैंने अपना हाथ उठाना बंद कर दिया, क्योंकि मुझे अपने सहपाठियों द्वारा मजाक उड़ाए जाने का डर था। उन वर्षों के ऐसे प्रसंगों ने मेरे बाल मन पर एक छाप छोड़ी। मैं लगातार खुद में कमी और गहरी हीन भावना महसूस करती थी। मैं बहुत उलझन में भी थी, सोचती थी, “मैं दूसरों की तरह धाराप्रवाह क्यों नहीं बोल पाती? मैं क्यों हकलाती हूँ?” शादी के बाद मेरा पति हकलाने पर मुझे चिढ़ाते हुए कहता था, “तुम वयस्क हो, लेकिन तुम ठीक से बात भी नहीं कर पाती। अगर तुम गाय होती तो मैं तुम्हें बहुत पहले ही बेच देता।” अपने बच्चों से बात करते हुए भी मैं कभी-कभी चिंता में हकलाने लगती थी और मेरे बच्चे मुझ पर हँसते थे, “देखो, माँ फिर से हकला रही है। क्या तुम धीरे नहीं बोल सकती?” मेरे बच्चे और पति अक्सर मुझसे ऐसी बातें करते थे। मुझे जीवन में किसी निकम्मे कायर जैसा महसूस हो रहा था और मेरा आत्मसम्मान तार-तार हो गया था। उसके बाद मैं बहुत ज्यादा बात करने से परहेज करने लगी और मैं अजनबियों के सामने बोलने की हिम्मत नहीं करती थी, क्योंकि इस तरह किसी को पता नहीं चलता कि मैं हकलाती हूँ और वे मेरा मजाक नहीं उड़ाते।
2003 में मैंने परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा। मुझे पता था कि मुझे हकलाने की समस्या है, इसलिए जब मैं भाई-बहनों के साथ सभाओं में जाती थी तो मैं शायद ही कभी संगति करती थी। भाई-बहनों ने मुझे और अधिक संगति करने और खुलकर बोलने के लिए प्रोत्साहित किया, कहने लगे कि यही जीवन में आगे बढ़ने का एकमात्र तरीका है। उन्होंने यह भी कहा, “हर किसी में खामियाँ होती हैं, अपनी खामियों को खुद पर हावी मत होने दो।” जब मैंने देखा कि उन्होंने मेरा तिरस्कार नहीं किया, बल्कि मुझे प्रोत्साहित किया और मेरी मदद की तो मैं बहुत प्रभावित हुई और मुझे लगा कि परमेश्वर में विश्वास करना वाकई अद्भुत है। मैंने पहले कभी ऐसी भावना का अनुभव नहीं किया था और तब से मैं इतनी बेबस नहीं हुई।
बाद में मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया। एक दिन उच्च अगुआओं ने मेरे लिए चेंगडोंग कलीसिया में अपना कर्तव्य करने की व्यवस्था की। मैंने मन ही मन सोचा, “अगर मैं चेंगडोंग कलीसिया जाती हूँ और भाई-बहनों को पता चलता है कि मैं हकलाती हूँ तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे मुझ पर हँसेंगे? यह बहुत शर्मनाक होगा! मैं नहीं जाना चाहती।” उच्च अगुआओं ने देखा कि मेरे मन में क्या चल रहा है और मेरे साथ संगति करते हुए कहा कि यह प्रशिक्षण का अवसर है। विवेक के आधार पर मैंने यह पद संभालने की सहमति दे दी। चेंगडोंग कलीसिया में जब मैंने अगुआओं और उपयाजकों के साथ सभा की, मैं कुछ हद तक घबराई हुई थी क्योंकि वे सभी अपरिचित चेहरे थे और मुझे डर था कि अगर मैं हकलाती रही तो वे मुझे नीची नजरों से देखेंगे, इसलिए मैं उम्मीद कर रही थी कि सभा जल्दी खत्म हो जाए। लेकिन मैं जितनी ज्यादा घबराई, उतना ही हकलाती रही और मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई। चारों ओर देखने पर मैंने पाया कि कुछ भाई-बहनों ने अपना सिर झुका रखा था और अन्य चुप थे। मैं बहुत परेशान हो गई। मैंने मन ही मन सोचा, “वे सोच रहे होंगे, ‘यह हकलाने वाली यहाँ कैसे आ गई?’ अगर मैंने संगति नहीं की तो वे कहेंगे कि मेरे पास कोई सत्य वास्तविकता नहीं है, लेकिन अगर मैं आगे बढ़ती हूँ तो मैं बस हकलाती रहूँगी।” मेरे पास संघर्ष करने और संगति जारी रखने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। मैं उस सभा में बहुत ज्यादा हकलाई और बहुत मुश्किल से बात पूरी कर पाई। मैंने शुरू में उनसे उनकी मनोदशा के बारे में पूछने की योजना बनाई थी, लेकिन फिर मैंने सोचा, “अगर उन्हें कोई समस्या या कठिनाई हुई तो क्या होगा? मुझे परमेश्वर के वचनों का उपयोग करके उनके साथ संगति करनी होगी। अगर मैं फिर से हकलाती हूँ तो वे पक्का मुझ पर हँसेंगे। चलो छोड़ो, न पूछना ही बेहतर है।” कुल मिलाकर उस सभा से कोई नतीजा नहीं निकला और जिस काम को कार्यान्वित करने की जरूरत थी, वह भी ठीक से नहीं किया गया, जिससे काम में देरी हुई। घर वापस आते समय मुझे बहुत तकलीफ हुई और मैंने खुद से शिकायत की, “मुझे यह हकलाहट क्यों होती है? दूसरे लोग क्यों नहीं हकलाते?” मैं बहुत हीन भावना में रहती थी, हमेशा सोचती थी कि मैं बाकी सभी से एक कदम पीछे हूँ। उसके बाद जब भी मैं अगुआओं और उपयाजकों के साथ सभाओं में जाती तो मैं खुद को बेबस पाती। मुझे फिर से हकलाने और मजाक उड़ाए जाने या नीची नजरों से देखे जाने का डर था, इसलिए मैंने कम से कम संगति करने की कोशिश की। मैं बस उस काम के बारे में कुछ सामान्य टिप्पणियाँ करती थी जिसे कार्यान्वित करने की जरूरत थी, जिसकी वजह से अच्छे नतीजे नहीं मिल पा रहे थे। मुझे पता था कि हकलाने के चलते लगातार मेरे बेबस होने से काम प्रभावित हो रहा है, इसलिए मैं अक्सर प्रार्थना में परमेश्वर के सामने अपनी मनोदशा को लेकर आती थी, परमेश्वर से अपना मार्गदर्शन करने की कामना करती थी ताकि मैं इससे बेबस न हो जाऊँ। कभी-कभी जब मैं बोलते समय फिर से हकलाती थी तो मैं अपने हाथ से अपना मुँह ढक लेती थी ताकि लोग मेरे होठों को हकलाने से काँपते हुए न देख सकें। सभाओं के दौरान मैं हमेशा दूसरे भाई-बहनों से परमेश्वर के वचन पढ़वाती थी और जब मैं इसे बिल्कुल भी टाल नहीं पाती तो मैं सिर्फ छोटे-छोटे खंड ही पढ़ती थी। इस तरह कम लोगों को पता चलता कि मैं हकलाती हूँ। लेकिन इस तरह जीना बहुत दर्दनाक था। मैं बहुत दमित और थकान महसूस करती थी। इससे मेरा कर्तव्य निर्वहन भी प्रभावित हो रहा था।
एक बार मैंने एक बहन से खुलकर कहा, “मैं बोलते समय हकलाती हूँ और मुझे डर है कि तुम सब मुझे नीची नजरों से देखोगी, इसलिए मुझमें संगति करने की हिम्मत नहीं है।” बहन ने कहा, “मुझे कभी पता भी नहीं चला था कि तुम बोलते समय हकलाती हो। कभी-कभी जब मैं तुम्हें वाक्य के बीच में ही रुक जाते देखती हूँ तो मुझे लगता है कि तुम आगे बोलने के लिए बहुत बेबस हो।” बहन ने मेरा हौसला बढ़ाते हुए कहा, “कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं होता। क्या तुमने कभी किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में सुना है जिसमें कोई खामी न हो? परमेश्वर के वचन हमें बताते हैं कि हर किसी में खामियाँ और कमियाँ होती हैं। इससे बेबस मत रहो, बस ईमानदारी से सत्य का अनुसरण करो। तुम्हारा हकलाना घबराहट के कारण होता है, लेकिन तुम्हें इसके बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है। बस अपने कर्तव्य पर ध्यान दो और धीरे-धीरे तुम अपनी हकलाने की समस्या से बेबस होना बंद कर दोगी।” अपनी बहन को यह कहते हुए सुनकर मुझे कुछ राहत महसूस हुई। बाद में मैंने एक अनुभवजन्य गवाही वीडियो देखा जिसने मेरे दिल को रोशन कर दिया और मुझे बहुत प्रोत्साहित किया। इसमें दिए गए परमेश्वर के वचनों का एक अंश विशेष रूप से मेरी मनोदशा से जुड़ा था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ समस्याएँ ऐसी होती हैं जिन्हें लोग हल नहीं कर सकते हैं। मिसाल के तौर पर, हो सकता है कि तुम दूसरों से बात करते समय घबरा जाते हो; जब तुम्हें स्थितियों का सामना करना पड़ता है तो हो सकता है कि तुम्हारे पास अपने विचार और नजरिये होते हों, लेकिन तुम उन्हें स्पष्टता से कह नहीं पाते हो। जब बहुत सारे लोग मौजूद होते हैं तो तुम विशेष रूप से घबरा जाते हो; तुम बेतुके ढंग से बोलते हो और तुम्हारा मुँह कँपकँपाता है। कुछ लोग तो हकलाते भी हैं; दूसरे लोगों के मामले में, अगर विपरीत लिंग के सदस्य मौजूद होते हैं तो वे खुद को और भी कम स्पष्टता से व्यक्त कर पाते हैं, उन्हें यह पता ही नहीं होता है कि क्या कहना है या क्या करना है। क्या ऐसी स्थिति पर काबू पाना आसान है? (नहीं।) कम-से-कम थोड़े समय में तुम्हारे लिए इस दोष पर काबू पाना आसान नहीं है क्योंकि यह तुम्हारी जन्मजात स्थितियों का हिस्सा है। अगर कई महीनों के प्रशिक्षण के बाद तुम अब भी घबराए रहते हो तो घबराहट दबाव में बदल जाती है, जो तुम्हें बोलने, लोगों से मिलने, सभाओं में हिस्सा लेने या धर्मोपदेश देने से डराकर तुम्हें नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है और ये डर तुम्हें हरा सकते हैं। ... इसलिए अगर तुम इस कमी, इस दोष पर थोड़े समय में काबू पा सकते हो तो ऐसा करो। अगर इस पर काबू पाना कठिन है तो इसे लेकर परेशान मत होओ, इससे संघर्ष मत करो और खुद को चुनौती मत दो। यकीनन, अगर तुम इस पर काबू नहीं पा सकते हो तो तुम्हें नकारात्मक नहीं होना चाहिए। अगर तुम अपने जीवनकाल में इसे कभी दूर न कर पाओ तो भी परमेश्वर तुम्हारी निंदा नहीं करेगा क्योंकि यह तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव नहीं है। तुम्हारा मंच पर आने का भय, तुम्हारी घबराहट और डर, ये अभिव्यक्तियाँ तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव को नहीं दर्शाती हैं; चाहे वे जन्मजात हों या जीवन में बाद के परिवेश के कारण पैदा हुई हों, हद-से-हद वे एक कमी हैं, तुम्हारी मानवता का एक दोष हैं। अगर तुम इसे लंबे समय में या यहाँ तक कि एक जीवनकाल में भी नहीं बदल पाते हो तो भी इसके बारे में सोचते मत रहो, इसे खुद को बेबस मत करने दो और न ही तुम्हें इसके कारण नकारात्मक बनना चाहिए क्योंकि यह तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव नहीं है; इसे बदलने का प्रयास करने या इससे संघर्ष करने का कोई फायदा नहीं है। अगर तुम इसे बदल नहीं पाते हो तो इसे स्वीकार कर लो, इसे मौजूद रहने दो और इसके साथ सही ढंग से पेश आओ क्योंकि तुम इस कमी, इस दोष के साथ-साथ जी सकते हो; तुममें इनका होना परमेश्वर के अनुसरण और अपने कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित नहीं करता है। अगर तुम सत्य स्वीकार कर सकते हो और अपनी पूरी क्षमता से अपने कर्तव्य कर सकते हो तो तुम अभी भी बचाए जा सकते हो; यह तुम्हारे द्वारा सत्य स्वीकार करने और तुम्हारे उद्धार को प्रभावित नहीं करता है। इसलिए तुम्हें अक्सर अपनी मानवता में किसी कमी या दोष से बेबस नहीं होना चाहिए और न ही तुम्हें अक्सर नकारात्मक और हतोत्साहित होना चाहिए या यहाँ तक कि न अपने कर्तव्य छोड़ने चाहिए और न सत्य का अनुसरण करना छोड़ना चाहिए और न उसी कारण से बचाए जाने का मौका खोना चाहिए। ऐसा करना बिल्कुल भी उचित नहीं है; ऐसा कोई बेवकूफ, जाहिल व्यक्ति ही करेगा” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करते हुए मुझे समझ आया कि हकलाना एक मानवीय दोष और कमी है, यह भ्रष्ट स्वभाव नहीं है और इससे किसी व्यक्ति का सत्य का अनुसरण या उसका उद्धार प्रभावित नहीं होता। मैं खुद को एक दोष के कारण लगातार बेबस या नकारात्मक नहीं होने दे सकती थी या सत्य का अनुसरण करना नहीं छोड़ सकती थी, वरना मैं बचाए जाने का अपना मौका गँवा देती और यह अज्ञानतापूर्ण और मूर्खतापूर्ण व्यवहार होता। मैंने इस बात पर चिंतन किया कि कैसे इतने सालों तक मेरी हकलाने की समस्या के कारण, यहाँ तक कि जब मुझे पता था कि मुझे सभाओं के दौरान परमेश्वर का प्रबोधन और मार्गदर्शन पाने के लिए खुलकर बात करनी चाहिए और संगति करनी चाहिए, मैं डरती रही कि मेरे भाई-बहनों को मेरे हकलाने का पता चल जाएगा, इसलिए मैंने संगति करने की हिम्मत नहीं की। चेंगडोंग कलीसिया जाने के बाद मैं अपनी हकलाहट से और भी अधिक बेबस रहने लगी और जितना अधिक मुझे डर लगता कि दूसरे लोग जान जाएँगे, मैं उतनी ही घबरा जाती और मेरी हकलाहट उतनी ही बदतर हो जाती। नतीजतन मुझे सभाओं में बिल्कुल भी आनंद नहीं मिलता। मैंने अगुआओं और उपयाजकों की समस्याओं और कठिनाइयों पर ध्यान नहीं दिया या उनका समाधान नहीं किया, सभाएँ कार्य को ठीक से कार्यान्वित किए बिना ही जल्दबाजी में समाप्त हो जाती थीं। मैं अक्सर अपनी हकलाहट से बेबस हो जाती थी और सभाओं के दौरान खुलकर बात करने और संगति करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थी। इससे न सिर्फ मेरे अपने जीवन प्रवेश को नुकसान हुआ, बल्कि मेरे भाई-बहनों को भी कोई लाभ नहीं हुआ। इससे कलीसिया के कार्य में भी देरी हुई। मैंने देखा कि मैं कितनी मूर्ख और अज्ञानी थी। परमेश्वर कहता है : “अगर तुम इसे लंबे समय में या यहाँ तक कि एक जीवनकाल में भी नहीं बदल पाते हो तो भी इसके बारे में सोचते मत रहो, इसे खुद को बेबस मत करने दो और न ही तुम्हें इसके कारण नकारात्मक बनना चाहिए क्योंकि यह तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव नहीं है; इसे बदलने का प्रयास करने या इससे संघर्ष करने का कोई फायदा नहीं है। अगर तुम इसे बदल नहीं पाते हो तो इसे स्वीकार कर लो, इसे मौजूद रहने दो और इसके साथ सही ढंग से पेश आओ क्योंकि तुम इस कमी, इस दोष के साथ-साथ जी सकते हो; तुममें इनका होना परमेश्वर के अनुसरण और अपने कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित नहीं करता है। अगर तुम सत्य स्वीकार कर सकते हो और अपनी पूरी क्षमता से अपने कर्तव्य कर सकते हो तो तुम अभी भी बचाए जा सकते हो; यह तुम्हारे द्वारा सत्य स्वीकार करने और तुम्हारे उद्धार को प्रभावित नहीं करता है।” परमेश्वर के वचन पढ़कर मेरा दिल जोश और प्रोत्साहन से भर गया। मैंने सोचा कि कैसे बचपन से ही मेरी हकलाने की समस्या के कारण मुझे नीचा दिखाया जाता और तिरस्कृत किया जाता था। मैं अक्सर हीन भावना में डूबी रहती थी, सोचती थी कि मैं दूसरों की तरह अच्छी नहीं हूँ। लेकिन परमेश्वर ने मुझे दूर नहीं किया, यहाँ तक कि मुझे सत्य और उद्धार का ईमानदारी से अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित भी किया। मैंने महसूस किया कि परमेश्वर वाकई लोगों से प्रेम करता है और मेरे दिल पर से भारी बोझ आखिरकार उतर गया। चूँकि परमेश्वर मेरे दोष का तिरस्कार नहीं करता, इसलिए मुझे इसका सही तरीके से सामना करना चाहिए और भले ही मेरा यह दोष मेरे जीवनकाल में कभी न बदले, मुझे इससे बेबस नहीं होना चाहिए। इसके बजाय मुझे सत्य का अनुसरण करने और अपने कर्तव्य अच्छी तरह से करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इन बातों का एहसास होने पर मैं परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, अब मैं तुम्हारा इरादा समझ गई हूँ। मैं अपने दोष और कमियों का सही तरीके से सामना करने और शिकायत करना बंद करने के लिए तैयार हूँ। मैं समर्पण करूँगी और अपना कर्तव्य ठीक से करूँगी।”
प्रार्थना करने के बाद मैंने और चिंतन किया, “मैं हमेशा अपनी हकलाहट की समस्या से क्यों बेबस रहती हूँ? किस तरह का भ्रष्ट स्वभाव इसकी वजह है?” फिर मैंने पढ़ने के लिए परमेश्वर के वचनों की खोज की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “सत्य की खोज करने के बजाय, अधिकतर लोगों के अपने तुच्छ एजेंडे होते हैं। अपने हित, इज्जत और दूसरे लोगों के मन में जो स्थान या प्रतिष्ठा वे रखते हैं, उनके लिए बहुत महत्व रखते हैं। वे केवल इन्हीं चीजों को सँजोते हैं। वे इन चीजों पर मजबूत पकड़ बनाए रखते हैं और इन्हें ही बस अपना जीवन मानते हैं। और परमेश्वर उन्हें कैसे देखता या उनसे कैसे पेश आता है, इसका महत्व उनके लिए गौण होता है; फिलहाल वे उसे नजरअंदाज कर देते हैं; फिलहाल वे केवल इस बात पर विचार करते हैं कि क्या वे समूह के मुखिया हैं, क्या दूसरे लोग उनकी प्रशंसा करते हैं और क्या उनकी बात में वजन है। उनकी पहली चिंता उस पद पर कब्जा जमाना है। जब वे किसी समूह में होते हैं, तो प्रायः सभी लोग इसी प्रकार की प्रतिष्ठा, इसी प्रकार के अवसर तलाशते हैं। अगर वे अत्यधिक प्रतिभाशाली होते हैं, तब तो शीर्षस्थ होना चाहते ही हैं, लेकिन अगर वे औसत क्षमता के भी होते हैं, तो भी वे समूह में उच्च पद पर कब्जा रखना चाहते हैं; और अगर वे औसत क्षमता और योग्यताओं के होने के कारण समूह में निम्न पद धारण करते हैं, तो भी वे यह चाहते हैं कि दूसरे उनका आदर करें, वे नहीं चाहते कि दूसरे उन्हें नीची निगाह से देखें। इन लोगों की इज्जत और गरिमा ही होती है, जहाँ वे सीमा-रेखा खींचते हैं : उन्हें इन चीजों को कसकर पकड़ना होता है। भले ही उनमें कोई सत्यनिष्ठा न हो, और न ही परमेश्वर की स्वीकृति या अनुमोदन हो, मगर वे उस आदर, हैसियत और सम्मान को बिल्कुल नहीं खो सकते जिसके लिए उन्होंने दूसरों के बीच कोशिश की है—जो शैतान का स्वभाव है। मगर लोग इसके प्रति जागरूक नहीं होते। उनका विश्वास है कि उन्हें इस इज्जत की रद्दी से अंत तक चिपके रहना चाहिए। वे नहीं जानते कि ये बेकार और सतही चीजें पूरी तरह से त्यागकर और एक तरफ रखकर ही वे असली इंसान बन पाएंगे। यदि कोई व्यक्ति जीवन समझकर इन त्यागे जाने योग्य चीजों को बचाता है तो उसका जीवन बर्बाद हो जाता है। वे नहीं जानते कि दाँव पर क्या लगा है। ... तो तुम्हें कवरेज मिल जाती है—फिर क्या? लोग तुम्हारे बारे में अच्छी राय रखते हैं—तो क्या? वे तुम्हारी आराधना करते हैं—तो क्या? क्या इनमें से कोई भी चीज साबित करती है कि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है? इसमें से किसी भी चीज का कोई मूल्य नहीं है। जब तुम इन चीजों पर काबू पा लेते हो—जब तुम इनके प्रति उदासीन हो जाते हो और इन्हें महत्वपूर्ण नहीं समझते, जब इज्जत, अभिमान, हैसियत, और लोगों की सराहना तुम्हारे विचारों और व्यवहार को अब नियंत्रित नहीं कर पाते, तुम्हारे कर्तव्य-पालन के तरीके को तो बिल्कुल भी नियंत्रित नहीं करते—तब तुम्हारा कर्तव्य-पालन और भी प्रभावी हो जाता है, और भी शुद्ध हो जाता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मुझे एहसास हुआ कि चाहे किसी की क्षमताएँ या काबिलियत कितनी भी महान क्यों न हो, हर कोई दूसरों से प्रशंसा पाना चाहता है। पीछे मुड़कर देखें तो मैं बचपन से ही हकलाती थी और यहाँ तक कि मेरे भाई-बहन भी मुझसे दूर रहते थे और मुझे नीची नजरों से देखते थे। स्कूल में सहपाठी मेरा मजाक उड़ाते थे, इसलिए मैं वाकई हीन भावना में रहती थी। शादी के बाद मेरा पति और बच्चे भी मेरा मजाक उड़ाते थे, जिससे मेरे आत्म-सम्मान को और अधिक ठेस पहुँचती थी। मैं शिकायत के कारण रोती भी थी। मैं अपने अभिमान को लेकर बहुत चिंतित थी! मैंने सोचा कि कैसे बचपन से ही मैं इन शैतानी जहरों से प्रभावित थी, जैसे कि “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है” और “एक व्यक्ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है।” मैं अपने अभिमान पर विशेष ध्यान देती थी। हकलाने की वजह से मुझे डर था कि लोग मेरा मजाक उड़ाएँगे और मुझे नीची नजरों से देखेंगे, जिसका नतीजा यह हुआ कि मैं अक्सर खुद को नकारात्मकता और तकलीफ की अपरिहार्य भावनाओं में डूबी हुई पाती थी। सभाओं में मुझे जिन बातों पर संगति करनी चाहिए थी, मैं वह नहीं कर पाती थी या वह काम नहीं कर पाती थी जो मुझे अच्छी तरह से करना चाहिए था। लेकिन परमेश्वर के घर ने मेरा तिरस्कार नहीं किया या मेरे दोष के आधार पर मेरे साथ व्यवहार नहीं किया। इसके बजाय मुझे अगुआई के कर्तव्य सौंपे गए, सत्य और उद्धार का उचित तरीके से अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित किया गया। क्या यह परमेश्वर का प्रेम नहीं था? फिर भी अपने अभिमान के प्रति अत्यधिक जुनून ने मुझे अपने कर्तव्य करने से रोक दिया, जो मुझे करने चाहिए थे। क्या यह परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह नहीं था? दरअसल भले ही दूसरे मेरी प्रशंसा करते, परमेश्वर की स्वीकृति के बिना यह बेकार होता। प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागना मेरे जीवन स्वभाव को कभी नहीं बदल सकता और इसके बजाय यह मुझे और भी अधिक नकारात्मक बना देता और आखिरकार अपने कर्तव्य अच्छी तरह से न करने के कारण परमेश्वर मुझे ठुकरा देता और हटा देता। इसका एहसास होने पर मुझे डर भी लगा और अपराध बोध भी हुआ। मैंने कभी नहीं सोचा था कि अभिमान और रुतबे में डूबे रहने के इतने गंभीर अंजाम हो सकते हैं। तब से मैं अभिमान और रुतबे को छोड़ना चाहती थी, अपनी हकलाहट के साथ सही तरीके से पेश आना चाहती थी और अपने भाई-बहनों के साथ सामान्य रूप से संगति करना चाहती थी।
एक दिन मैं अपनी साथी बहन के साथ एक कार्य पर चर्चा कर रही थी और मैं फिर से घबरा गई। मुझे डर था कि अगर मैं हकलाने लगी तो वह मेरे बारे में क्या सोचेगी। उसने पहले बताया था कि मैं वाक्य के बीच में ही बोलना बंद कर देती हूँ और चूँकि हमने लंबे समय तक साथ काम नहीं किया था, इसलिए उसे मेरे हकलाने के बारे में पता नहीं था। मैंने सोचा, “अगर मैं फिर से वाक्य के बीच में ही चुप हो जाती हूँ तो क्या वह मुझसे दूर हो जाएगी?” जब मैं बोल रही थी तो मैं अचानक अटक गई और बोलना बंद कर दिया। बहन ने कहा, “तुम बीच में ही क्यों चुप हो जाती हो? क्या तुम अपनी बात स्पष्टता से व्यक्त नहीं कर सकती?” मैंने मन ही मन सोचा, “क्या वह अब मुझसे दूर हो जाएगी?” मैं कुछ हद तक बेबस महसूस कर रही थी। उसी पल मुझे एहसास हुआ कि मेरी सोच गलत है और मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मुझे डर है कि मेरी बहन मेरे हकलाने की वजह से मुझे नीची निगाह से देखेगी। मैं अब इससे बेबस नहीं होना चाहती। मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मैं अपने दोष से सही तरीके से निपट सकूँ।” प्रार्थना करने के बाद मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया जो मैंने पहले पढ़ा था, इसलिए मैंने उसे फिर से पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “ ” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। जब मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा तो मैं वाकई प्रभावित और प्रेरित हुई, विशेषकर जब परमेश्वर कहता है : “ ” मेरा दोष और खामी कोई नकारात्मक बात नहीं है, न ही यह कोई भ्रष्ट स्वभाव है और अगर मैं लगन से सत्य का अनुसरण करती हूँ और सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य करती हूँ, तो परमेश्वर मेरा मार्गदर्शन करेगा। मुझे अब अपनी हकलाने की समस्या से बेबस नहीं होना चाहिए। भाई-बहन चाहे जो भी सोचें, मुझे अपने दोष के बारे में खुलकर बोलना चाहिए, मुझे शर्मिंदा नहीं होना चाहिए और न ही मुझे बेबस होना चाहिए। मुझे इसका सही तरीके से सामना करना चाहिए। इसलिए मैंने बहन से कहा, “मैं बचपन से ही हकलाती हूँ। मैं भविष्य में धीरे-धीरे बोलने और अपने वाक्य पूरे करने की पूरी कोशिश करूँगी ताकि दूसरे मुझे समझ सकें।” यह कहने के बाद मैं अब और बेबस नहीं हुई।
बाद में जब मैं सभाओं के दौरान परमेश्वर के वचन पढ़ती और अटक जाती तो मैं धीरे-धीरे पढ़ती। कभी-कभी जब मैं घबरा जाती और हकलाने लगती तो मैं एक पल के लिए रुक जाती, अपनी मानसिकता को ठीक करती और फिर बोलने लगती। इससे मुझे थोड़ी मदद मिली। यह परमेश्वर के वचन ही थे जिन्होंने अपने इस दोष को सही ढंग से समझने के लिए मेरा मार्गदर्शन किया। अब मैं इससे बेबस नहीं हूँ और आखिरकार मुक्त महसूस करती हूँ। परमेश्वर का धन्यवाद!