97. मैं अब अपने बेटे की नौकरी को लेकर चिंतित नहीं हूँ

वांग हान, चीन

मेरी तीन बड़ी बहनें हैं। वे और उनके पति सभी सरकारी मंत्रालयों में काम करते हैं। कुछ लोग जन राजनीतिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष हैं, जबकि अन्य सरकारी एजेंसियों में लीडर या प्रमुख हैं। लोग उनसे ईर्ष्या करते हैं और उनका सम्मान करते हैं। बाहरी लोग यही कहते, “अपनी बड़ी बहनों को देखो। हर कोई एक से बढ़कर एक है!” जब भी मैं ऐसी बातें सुनती तो मेरा दिल थोड़ा उदास हो जाता। मेरी बड़ी बहनें सभी इतनी असाधारण थीं जबकि मैं और मेरा पति एक कंपनी में सामान्य प्रबंधन कर्मी ही थे, हमारे पास कोई शक्ति या प्रभाव नहीं था। इससे मुझे सचमुच शर्मिंदगी होती और मैं दूसरों के सामने अपना सिर ऊँचा नहीं रख पाती। मैं सोचने लगी, “मैं इस जीवन में कभी कुछ नहीं कर पाऊँगी। मुझे अपनी उम्मीदें अपने बेटे पर टिकानी हैं, उम्मीद है कि जब वह बड़ा होगा तो उसे जरूर एक अच्छी नौकरी मिल जाएगी। भले ही वह सरकारी कर्मचारी न बने, कम से कम उसे सरकारी एजेंसी या सार्वजनिक संस्थान में जाना चाहिए। अगर मेरा बेटा भीड़ से अलग खड़ा हो जाए और उसे सम्मानजनक नौकरी मिल जाए तो मैं भी उसकी कामयाबी का आनंद ले सकूँगी।” जब मैंने अपने बेटे के लिए योजनाएँ बनानी शुरू की थीं तो उसने अभी प्राथमिक विद्यालय में ही प्रवेश किया था। उस समय वहाँ एक निजी विद्यालय था, जो बेहतर शिक्षा प्रदान करता था। मैंने सिफारिशें लगवाईं और पैसे भी खर्च किए ताकि मेरा बेटा वहाँ जा सके। मैं चाहती थी कि वह अपनी पढ़ाई में अच्छा करे, ताकि भविष्य में वह विश्वविद्यालय में दाखिला ले सके। दुर्भाग्य से मेरा बेटा थोड़ा निराश करने वाला था। न केवल वह मेहनत से पढ़ाई नहीं करता था, बल्कि वह अक्सर स्कूल भी नहीं जाता था। वह हमेशा शिक्षकों से उलझता रहता था और बाद में वह स्कूल भी नहीं जाना चाहता था। मुझे चिंता होने लगी कि अगर वह स्कूल नहीं गया तो उसका जीवन व्यर्थ हो जाएगा। क्या उसके बाद उसके पास कोई अच्छी सँभावनाएँ होंगी? मैं अक्सर उससे कहती थी, “तुम्हें कड़ी मेहनत से पढ़ाई करनी चाहिए। फिर भविष्य में जब तुम किसी अच्छे विश्वविद्यालय में दाखिला लोगे और अच्छी नौकरी पाओगे तो तुम्हें बहुत सम्मान मिलेगा। तुम्हारे सभी बड़े मौसेरे भाई-बहन विश्वविद्यालय में हैं। अगर तुम कड़ी मेहनत से पढ़ाई नहीं करोगे तो भविष्य में तुम्हें कठोर शारीरिक कार्य करना पड़ेगा और तुम्हें जीवन भर लोग नीची नजरों से देखेंगे।” लेकिन मेरा बेटा मेरी बात सुनना नहीं चाहता था और अक्सर मुझसे छिपता था। स्कूल से घर आने के बाद वह कुछ खाता और फिर अपने कमरे में चला जाता और कहता कि उसे अपना होमवर्क करना है। मैं उसकी पढ़ाई के बारे में बात करना चाहती थी, लेकिन वह मेरी बात पर ध्यान नहीं देता था। मैंने मन ही मन सोचा, “अगर मैं तुम्हारी माँ होने के नाते तुम्हें ऐसे ही रहने दूँ और तुम्हारा ख्याल न रखूँ तो क्या तुम भविष्य में सफल हो पाओगे?” मैंने अपनी सारी चिंताएँ और परेशानियाँ लिखकर उसे ईमानदारी से सलाह दी। लेकिन मेरा बेटा मेरी बात मानता ही नहीं था और नियमित रूप से बीच-बीच में स्कूल से अनुपस्थित रहता था। मुझे डर लगने लगा कि वह समाज में गलत रास्ते पर चला जाएगा, इसलिए मैंने किसी से उसे सेना में भर्ती करवाने के लिए कहा। मुझे उम्मीद थी कि वह किसी सैन्य स्कूल में दाखिला ले सकेगा। अगर वह भविष्य में सैन्य अधिकारी बन सकता है तो यह बहुत अच्छा होगा। इस तरह अगर कोई बाद में पूछता, “तुम्हारा बेटा क्या करता है?” मैं आत्म-विश्वास के साथ कह पाती, “मेरा बेटा एक सैन्य अधिकारी है।” इसलिए मैंने उसे पंद्रह साल की उम्र में सेना में भेज दिया। उसकी तीन साल की सेवा पूरी होने के बाद मैं उसे आगे के प्रशिक्षण के लिए सैन्य स्कूल भेजने की खातिर किसी संपर्क का इस्तेमाल करना चाहती थी, लेकिन वह इसके लिए तैयार नहीं हुआ और दृढ़ता से सेना से निकल जाना चाहता था। मैंने उसे समझाने की हर मुमकिन कोशिश की, बेकार ही अपने होंठों की चमड़ी घिसती रही, लेकिन उसने फिर भी सेना से निकल जाना चुना। जब वह वापस लौटा तो उसे रेलवे विभाग में एक साधारण कर्मचारी के रूप में नियुक्त किया गया। इस नौकरी का सामना करते हुए मैं पूरी तरह से असंतुष्ट थी। मेरी बड़ी बहनों के सभी बच्चे सरकारी अधिकारियों के रास्ते पर चले थे। उनके पास सम्मानजनक और प्रतिष्ठित नौकरियाँ थीं, वे बहुत पैसा कमाते थे और जहाँ भी वे जाते थे लोग उनका सम्मान करते थे। लेकिन जब मैंने अपने बेटे को देखा, उसे न तो अच्छी शिक्षा मिली थी और न ही कोई अच्छी नौकरी। वह इतना निराशाजनक कैसे हो सकता है? क्या मैंने उसके लिए सब कुछ नहीं किया? वह कैसे नहीं समझ पाता? उस समय मैं अक्सर अकेले रोती रहती थी और लोगों का सामना करने में मुझे बहुत शर्मिंदगी होती थी। क्या मेरे बेटे का जीवन सचमुच मेरे जैसा औसत और दयनीय होने वाला था? अगर मुझे जानने वाले लोगों को पता चल गया तो कौन जानता है कि वे मेरे बारे में क्या कहेंगे या पीठ पीछे मेरा कैसे मजाक उड़ाएँगे! नहीं। मुझे लगा कि यह ऐसे नहीं चल सकता। मुझे अपने बेटे को फिर से अच्छी नौकरी दिलाने का कोई रास्ता ढूँढ़ना था। मैं उसे जीवन भर एक साधारण कर्मचारी बनकर नहीं रहने दे सकती थी! मैं हर जगह संपर्क ढूँढ़ने लगी। मेरी बड़ी बहनों ने भी कई नियोक्ताओं से संपर्क करने में मदद की, लेकिन आखिरकार मेरे बेटे की कम पढ़ाई के कारण कुछ नहीं हुआ। मैं अपने बेटे के काम को लेकर बहुत परेशान थी, इतना कि मैं दिल से बीमार हो गई। मेरे परिवार के सभी लोगों ने मुझे सलाह दी कि चीजों को अपने तरीके से होने दो, लेकिन मैं हार मानने को तैयार नहीं थी। फिर मैंने अपने पति को किसी ऐसे व्यक्ति से संपर्क करने के लिए बाध्य किया जो मेरे बेटे को दूसरी नौकरी में लगा सके। इसमें बहुत चिंता और बहुत सारा पैसा लगा, लेकिन अंततः मुझे अपने बेटे के लिए अभी भी नई नौकरी नहीं मिली। अपने बेटे के लिए सम्मानजनक नौकरी न मिलने के कारण मैंने उसे तीन साल तक काम पर नहीं जाने दिया—मैंने उसे घर पर ही इंतजार करवाया। मेरा बेटा और ज्यादा बिगड़ता गया। हर दिन अगर वह गेम नहीं खेल रहा होता तो वह बाहर खाना-पीना और मौज-मस्ती कर रहा होता। उन दिनों मैं बस यही सोचती रहती थी कि अपने बेटे को सम्मानजनक नौकरी कैसे दिलवाऊँ। इस वजह से मैं न तो ठीक से खा पाती थी और न ही सो पाती थी और मेरा जीवन कठिन और थकाऊ था। जब मैं बहुत चिंतित थी और मुझे लगा कि मेरे पास आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं है तो सर्वशक्तिमान परमेश्वर का सुसमाचार मेरे पास आया। जब मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा, मैं अक्सर अपने भाई-बहनों के साथ सभा और उनके साथ कर्तव्य करने लगी। ऐसा करके मैं खुश और मुक्त महसूस करती थी। लेकिन जब मैं फुर्सत में होती तो मैं अपने बेटे के काम के बारे में चिंतित होने से खुद को रोक नहीं पाती।

एक दिन मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “जब कोई अपने माता-पिता को छोड़कर स्वावलंबी हो जाता है, तो जिन सामाजिक स्थितियों का वह सामना करता है, और उसके लिए उपलब्ध कार्य व जीवनवृत्ति का प्रकार, दोनों भाग्य द्वारा आदेशित होते हैं और उनका उसके माता-पिता से कोई लेना देना नहीं होता। कुछ लोग महाविद्यालय में अच्छे मुख्य विषय चुनते हैं और अंत में स्नातक की पढ़ाई पूरी करके एक संतोषजनक नौकरी पाते हैं, और अपने जीवन की यात्रा में पहली विजयी छलांग लगाते हैं। कुछ लोग कई प्रकार के कौशल सीखकर उनमें महारत हासिल कर लेते हैं, लेकिन फिर भी कोई अनुकूल नौकरी और पद नहीं ढूँढ़ पाते, करियर की तो बात ही छोड़ दो; अपनी जीवन यात्रा के आरम्भ में ही वे अपने आपको हर एक मोड़ पर कुंठित, परेशानियों से घिरा, अपने भविष्य को निराशाजनक और अपने जीवन को अनिश्चित पाते हैं। कुछ लोग बहुत लगन से अध्ययन करने में जुट जाते हैं, फिर भी उच्च शिक्षा पाने के अपने सभी अवसरों से बाल-बाल चूक जाते हैं; उन्हें लगता है कि उनके भाग्य में सफलता पाना लिखा ही नहीं है, उन्हें अपनी जीवन यात्रा में सबसे पहली आकांक्षा ही शून्य में विलीन होती लगती है। ये न जानते हुए कि आगे का मार्ग निर्बाध है या पथरीला, उन्हें पहली बार महसूस होता है कि मनुष्य की नियति कितने उतार-चढ़ावों से भरी हुई है, इसलिए वे जीवन को आशा और भय से देखते हैं। कुछ लोग, बहुत अधिक शिक्षित न होने के बावजूद, पुस्तकें लिखते हैं और बहुत प्रसिद्धि प्राप्त करते हैं; कुछ, यद्यपि पूरी तरह से अशिक्षित होते हैं, फिर भी व्यवसाय में पैसा कमाकर सुखी जीवन गुज़ारते हैं...। कोई व्यक्ति कौन-सा व्यवसाय चुनता है, कोई व्यक्ति कैसे जीविका अर्जित करता है : क्या लोगों का इस पर कोई नियन्त्रण है कि वे अच्छा चुनाव करते हैं या बुरा चुनाव? क्या वो उनकी इच्छाओं एवं निर्णयों के अनुरूप होता है? अधिकांश लोगों की ये इच्छाएं होती हैं—कम काम करना और अधिक कमाना, बहुत अधिक परिश्रम न करना, अच्छे कपड़े पहनना, हर जगह नाम और प्रसिद्धि हासिल करना, दूसरों से आगे निकलना, और अपने पूर्वजों का सम्मान बढ़ाना। लोग सब कुछ बेहतरीन होने की इच्छा रखते हैं, किन्तु जब वे अपनी जीवन-यात्रा में पहला कदम रखते हैं, तो उन्हें धीरे-धीरे समझ में आने लगता है कि मनुष्य का भाग्य कितना अपूर्ण है, और पहली बार उन्हें समझ में आता है कि भले ही इंसान अपने भविष्य के लिए स्पष्ट योजना बना ले, भले ही वो महत्वाकांक्षी कल्पनाएँ पाल ले, लेकिन किसी में अपने सपनों को साकार करने की योग्यता या सामर्थ्य नहीं होता, कोई अपने भविष्य को नियन्त्रित नहीं कर सकता। सपनों और हकीकत में हमेशा कुछ दूरी रहेगी; चीज़ें वैसी कभी नहीं होतीं जैसी इंसान चाहता है, और इन सच्चाइयों का सामना करके लोग कभी संतुष्टि या तृप्ति प्राप्त नहीं कर पाते। कुछ लोग तो अपनी जीविका और भविष्य के लिए, अपने भाग्य को बदलने के लिए, किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं, हर संभव प्रयास करते हैं और बड़े से बड़ा त्याग कर देते हैं। किन्तु अंततः, भले ही वे कठिन परिश्रम से अपने सपनों और इच्छाओं को साकार कर पाएं, फिर भी वे अपने भाग्य को कभी बदल नहीं सकते, भले ही वे कितने ही दृढ़ निश्चय के साथ कोशिश क्यों न करें, वे कभी भी उससे ज्यादा नहीं पा सकते जो नियति ने उनके लिए तय किया है। योग्यता, बौद्धिक स्तर, और संकल्प-शक्ति में भिन्नताओं के बावजूद, भाग्य के सामने सभी लोग एक समान हैं, जो महान और तुच्छ, ऊँचे और नीचे, तथा उत्कृष्ट और निकृष्ट के बीच कोई भेद नहीं करता। कोई किस व्यवसाय को अपनाता है, कोई आजीविका के लिए क्या करता है, और कोई जीवन में कितनी धन-सम्पत्ति संचित करता है, यह उसके माता-पिता, उसकी प्रतिभा, उसके प्रयासों या उसकी महत्वाकांक्षाओं से तय नहीं होता, बल्कि सृजनकर्ता द्वारा पूर्व निर्धारित होता है(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। मैंने इस अंश को कई बार पढ़ा। जितना मैंने इसे पढ़ा, उतना ही मुझे लगा कि परमेश्वर ने जो कहा वह बिल्कुल सच था। जैसा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं, मेरे पास हमेशा अपने विचार और योजनाएँ थीं और मुझे उम्मीद थी कि मेरे बेटे को सम्मान और प्रतिष्ठा के साथ एक अच्छी नौकरी मिल जाएगी। लेकिन इनमें से कुछ भी मनुष्यों की योजना के माध्यम से हासिल नहीं किया जा सकता है, क्योंकि परमेश्वर हम सबकी नियतियों का संप्रभु है और उनकी व्यवस्था करता है। हम अपने प्रयासों और संघर्षों पर निर्भर होकर अपनी इच्छाओं को पूरा नहीं कर सकते। मैंने अपने बच्चे को छोटी उम्र में एक निजी स्कूल में भेजने के लिए बहुत पैसा लगाया। यह सब इसलिए था ताकि वह कड़ी मेहनत से पढ़ाई करे, भविष्य में अच्छी नौकरी और अच्छी संभावनाएँ हासिल करे। लेकिन वह तो सुनने को तैयार ही नहीं था और अक्सर स्कूल नहीं जाता था। मैंने निष्ठा और ईमानदारी से उसे पढ़ाने की कोशिश की, लेकिन न केवल उसने मेरी बात नहीं सुनी, बल्कि वह मुझसे बचता भी रहा। बाद में मैंने उसे सेना में शामिल होने के लिए भेज दिया, उम्मीद जताई कि भविष्य में वह सैन्य स्कूल जाएगा और एक अधिकारी बनेगा। लेकिन उसने फिर भी मेरी बात नहीं मानी, सेना से निकलने पर जोर दिया और नतीजतन एक साधारण रेलकर्मी बन गया। मैं शांत बैठने को तैयार नहीं थी क्योंकि मेरे बेटे की नौकरी मेरी उम्मीदों से कोसों दूर थी। मैंने हर जगह तलाश की, अपने जान-पहचान वालों से मदद ली, सिफारिशें लगवाने की कोशिश की और मैं अपने बेटे को आदर्श नौकरी दिलाने के लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार थी। लेकिन कई वर्षों की यातना, बहुत सारा पैसा और प्रयास खपाने के बाद भी आखिरकार मेरी इच्छाएँ पूरी नहीं हुईं। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि एक व्यक्ति अपने पूरे जीवन में क्या काम करेगा, यह उसकी कड़ी मेहनत, महत्वाकांक्षा या कामना से तय नहीं होता। परमेश्वर बहुत पहले ही यह व्यवस्था कर चुका है कि कोई व्यक्ति इस जीवन में क्या काम करेगा और उसकी नियति क्या है। यह मुझ पर निर्भर नहीं करता कि मेरा बेटा कौन सा काम कर सकता है और उसकी संभावनाएँ क्या होंगी। यह परमेश्वर द्वारा पहले से निर्धारित है। मैं चाहे कितनी ही योजनाएँ बना लूँ या लोगों से अपने संपर्कों का इस्तेमाल करने के लिए कहूँ, सब किसी काम का नहीं था; यह सब व्यर्थ था। न केवल इस तरह से जीना थकाऊ था, बल्कि मैंने अपने बेटे को भी बिगाड़ दिया था। जब मुझे यह बात समझ में आई तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। मैं अपने बेटे को परमेश्वर को सौंपने और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने के लिए तैयार थी। प्रार्थना करने के बाद मुझे बहुत अधिक आराम मिला।

बाद में मेरे बेटे के नियोक्ता के दो सहकर्मी मेरे घर आए और पता लगाया कि क्या चल रहा है। उन्होंने कहा कि मेरे बेटे ने कई साल से काम नहीं किया है और अगर वह ऐसा ही करता रहा तो वह खुद ही बर्खास्त हो जाएगा। जब मैंने यह खबर सुनी तो मुझे फिर से अंदर से द्वंद्व महसूस हुआ, “क्या मेरा बेटा भविष्य में केवल एक साधारण कर्मचारी ही रहेगा?” मैं अभी भी इसे स्वीकारने के लिए तैयार नहीं थी, इसलिए मैंने अपने बेटे से पूछा, “अगर तुम अभी काम पर वापस जाते हो तो भविष्य में तुम बस एक कर्मचारी ही रहोगे। तुम क्या करना चाहते हो?” मुझे इसकी उम्मीद नहीं थी, लेकिन मेरा बेटा काम पर जाने के लिए तैयार हो गया। उस समय मैंने परमेश्वर के इन वचनों के बारे में सोचा : “कोई भी अन्य निष्पक्ष स्थितियाँ किसी व्यक्ति के ध्येय को, जो सृष्टिकर्ता द्वारा पूर्वनिर्धारित किया जाता है, प्रभावित नहीं कर सकतीं। सभी लोग अपने-अपने परिवेश में जिसमें वे बड़े होते हैं, परिपक्व होते हैं; तब क्रमशः धीरे-धीरे, अपने रास्तों पर चल पड़ते हैं, और सृष्टिकर्ता द्वारा नियोजित उस नियति को पूरा करते हैं। वे स्वाभाविक रूप से, अनायास ही लोगों के विशाल समुद्र में प्रवेश करते हैं और जीवन में भूमिका ग्रहण करते हैं, जहाँ वे सृष्टिकर्ता के पूर्वनिर्धारण के लिए, उसकी संप्रभुता के लिए, सृजित प्राणियों के रूप में अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करना शुरू करते हैं(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। परमेश्वर मेरे बेटे की नियति की व्यवस्था पहले ही कर चुका है और यह भी कि वह जीवन भर क्या काम करेगा। अब मेरा बेटा बड़ा हो गया है और मुझे उसे जाने देना चाहिए। चूँकि वह काम पर जाने को तैयार था, इसलिए मुझे उसे जाने देना चाहिए। कुछ समय बाद मेरा बेटा अपने नियोक्ता के पास काम करने चला गया।

पलक झपकते ही कुछ साल बीत गए। हालाँकि मैं अपने बेटे की नौकरी के मुद्दे को कुछ हद तक भूलने में सक्षम थी, लेकिन चीनी नववर्ष और अन्य छुट्टियों के मौके पर जब पूरा परिवार एक साथ होता था और मैं अपनी बड़ी बहनों को उनके अपने बेटों की सफलताओं के बारे में बात करते हुए सुनती थी तो मैं निराश हो जाती थी। मुझे हमेशा ऐसा लगता था कि मैं उनसे कमतर हूँ और मैं अपनी बात नहीं कह पाती थी। मेरे दिल में एक भावना थी जिसे मैं बयान नहीं कर सकती थी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “प्रिय परमेश्वर, तुम्हारे वचनों से मैंने समझा है कि तुम लोगों के भाग्य पर संप्रभु हो। लेकिन जब मैं अपनी बड़ी बहनों को अपने-अपने बेटों की सफलताओं के बारे में बात करते हुए सुनती हूँ तो मुझे दुख क्यों होता है, मानो मैं उनसे हीन हूँ? प्रिय परमेश्वर, अपनी समस्याएँ समझने में तुम मेरा मार्गदर्शन करो।”

एक दिन मैंने भक्ति के दौरान परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “वास्तव में, मनुष्य के आदर्श चाहे कितने भी ऊँचे क्यों न हों, उसकी इच्छाएँ चाहे कितनी भी यथार्थपरक क्यों न हों या वे कितनी भी उचित क्यों न हों, वह सब जो मनुष्य हासिल करना चाहता है और खोजता है, वह अटूट रूप से दो शब्दों से जुड़ा है। ये दो शब्द हर व्यक्ति के जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, और ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें शैतान मनुष्य के भीतर बैठाना चाहता है। वे दो शब्द कौन-से हैं? वे हैं ‘प्रसिद्धि’ और ‘लाभ।’ शैतान एक बहुत ही सौम्य तरीका चुनता है, एक ऐसा तरीका जो मनुष्य की धारणाओं के बहुत ही अनुरूप है और जो बहुत आक्रामक नहीं है, ताकि वह लोगों से अनजाने में ही जीवित रहने के अपने साधन और नियम स्वीकार करवा ले, जीवन लक्ष्य और जीवन की दिशाएँ विकसित करवा ले और जीवन की आकांक्षाएँ रखवाने लगे। लोग अपने जीवन की आकांक्षाओं के बारे में चर्चा करने के लिए जिन शब्दों का इस्तेमाल करते हैं वे चाहे कितने ही आडंबरपूर्ण क्यों न लगते हों, ये आकांक्षाएँ ‘प्रसिद्धि’ और ‘लाभ’ से अटूट रूप से जुड़ी होती हैं। कोई भी महान या प्रसिद्ध व्यक्ति—या वास्तव में कोई भी व्यक्ति—जीवन भर जिन सारी चीजों का पीछा करता है वे केवल इन दो शब्दों से जुड़ी होती हैं : ‘प्रसिद्धि’ और ‘लाभ’। लोग सोचते हैं कि एक बार उनके पास प्रसिद्धि और लाभ आ जाए तो उनके पास वह पूँजी होती है जिसका इस्तेमाल वे ऊँचे रुतबे और अपार धन-संपत्ति का आनंद लेने के लिए कर सकते हैं और जीवन का आनंद लेने के लिए कर सकते हैं। उन्हें लगता है कि एक बार उनके पास प्रसिद्धि और लाभ आ जाए तो उनके पास वह पूँजी होती है जिसका इस्तेमाल वे सुख खोजने और देह के उच्छृंखल आनंद में लिप्त रहने के लिए कर सकते हैं। लोग जिस प्रसिद्धि और लाभ की कामना करते हैं उनकी खातिर वे स्वेच्छा से, यद्यपि अनजाने में, अपने शरीर, दिल और यहाँ तक कि अपनी संभावनाओं और नियतियों समेत वह सब जो उनके पास है, शैतान को सौंप देते हैं। वे ऐसा बिना किसी हिचकिचाहट के, बिना एक पल के संदेह के करते हैं और बिना कभी यह जाने करते हैं कि वे वह सब कुछ वापस पा सकते हैं जो कभी उनके पास था। लोग जब इस प्रकार खुद को शैतान को सौंप देते हैं और उसके प्रति वफादार हो जाते हैं तो क्या वे खुद पर कोई नियंत्रण बनाए रख सकते हैं? कदापि नहीं। वे पूरी तरह से और बुरी तरह शैतान से नियंत्रित होते हैं। वे पूरी तरह से और सर्वथा दलदल में धँस जाते हैं और अपने आप को मुक्त कराने में असमर्थ रहते हैं(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि जब मैंने अपनी बड़ी बहनों को अपने बेटों की सफलता की प्रशंसा करते देखा तो मैं परेशान हो गई क्योंकि मैं प्रसिद्धि और लाभ को बहुत अधिक महत्व देती थी। मैं शैतान द्वारा लोगों में डाले गए गलत विचारों और दृष्टिकोणों के अनुसार जी रही थी, जैसे “आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है” और “सबसे अलग दिखने और श्रेष्ठ बनने का लक्ष्य रखो।” मुझे विश्वास था कि अगर मेरे पास प्रसिद्धि और लाभ होगा तो मेरे पास सब कुछ होगा, मैं जहाँ भी जाऊँगी, लोग मुझसे ईर्ष्या करेंगे और मेरा सम्मान करेंगे, मैं प्रतिष्ठा का आनंद लूँगी। मुझे लगा कि मैं दूसरों के सामने सिर उठाकर खड़ी हो पाऊँगी और आत्मविश्वास के साथ बोल पाऊँगी। मुझे लगा कि इस तरह जीने से ही मुझे सम्मान मिलेगा। जब मैंने देखा कि मेरी बड़ी बहनें और उनके पति सभी सम्मानित व्यक्ति हैं और जहाँ भी वे जाते हैं, उनका सम्मान किया जाता है तो मुझे बहुत ईर्ष्या हुई और मैं उनके जैसी बनना चाहती थी। मैं सम्मान पाना चाहती थी, प्रसिद्धि और लाभ दोनों का आनंद लेना चाहती थी। जब मैं अपनी इच्छाएँ पूरी नहीं कर पाई तो मैंने अपने बेटे पर उम्मीदें टिका दीं, उम्मीद जताई कि उसे एक सम्मानजनक नौकरी मिलेगी। इस तरह मैं सिर उठाकर खड़ी हो पाऊँगी और प्रतिष्ठा के साथ जी पाऊँगी। इसके लिए मैं अपने बेटे को आगे बढ़ाने के लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार थी। लेकिन चीजें वैसी नहीं हुईं जैसी मैंने चाही थीं। मेरे बेटे ने मेरी बात नहीं मानी और आखिरकार एक कर्मचारी बन गया। जब मैंने देखा कि मेरी उम्मीदें धरी की धरी रह गई हैं तो मुझे बहुत दुख हुआ। मुझे लगातार ऐसा लगता था कि मैं दूसरों के सामने अपना सिर नहीं उठा सकती हूँ और मैं हर दिन कष्ट में जीती थी। मैं अपने बेटे को औसत, साधारण जीवन जीते हुए नहीं देखना चाहती थी और अपने बेटे को फिर से नई नौकरी दिलाने के लिए पैसे खर्च किए और अपने संपर्कों का सहारा लिया। आखिरकार मैंने बहुत पैसे खर्च किए, लेकिन उसे नई नौकरी दिलाने में सफल नहीं हुई। मेरा बेटा हर दिन घर पर बेकार पड़ा रहता था और धीरे-धीरे निकम्मा होता जा रहा था। मैं प्रसिद्धि और लाभ के पीछे भागती रही, बस अपनी इज्जत और हितों की परवाह करती रही। मैंने अपने बेटे की भावनाओं पर बिल्कुल भी विचार नहीं किया और उसे उन सपनों को पूरा करने के लिए मजबूर किया जिन्हें मैं खुद साकार नहीं कर पाई थी। अपने बेटे को बाधा पहुँचाने की तो बात ही छोड़ दो, मैं घोर दुख में भी जी रही थी। ये सभी शैतानी विचार और दृष्टिकोण लोगों को केवल नुकसान पहुँचाते हैं। वे अदृश्य बेड़ियों की तरह हैं, जो मुझे कसकर जकड़े हुए हैं, ये मुझे इस बात के लिए तैयार करते हैं कि मैं उन पर समय और प्रयास खपाऊँ और साथ ही मुझे मूर्ख बनाते हैं। मैं कितनी निपट मूर्ख थी! जब मैं यह बात समझ गई तो ऐसा लगा मानो मेरे दिल की बरसों पुरानी गाँठ अचानक खुल गई हो। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन के बिना मैं प्रसिद्धि और लाभ के अनुसरण के दलदल में गहराई तक धँस गई होती, खुद को निकालने में असमर्थ हो जाती। मैंने परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद दिया! अब मुझे अपने अतीत में किए गए गलत अनुसरणों की कुछ समझ थी और मैं कुछ हद तक यह भेद पहचानने में सक्षम थी कि शैतान कैसे लोगों को भ्रष्ट करता है। मैं शैतान के विचारों और दृष्टिकोणों के अनुसार जीते रहने के लिए तैयार नहीं थी और मैंने अपने बेटे के काम में हस्तक्षेप करना बंद करने का संकल्प लिया।

उसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और सीखा कि अपने बेटे की नौकरी से कैसे सही तरीके से पेश आना है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर ने तय किया है कि कोई आदमी एक साधारण श्रमिक होगा, और इस जीवन में, वह बस अपना पेट भरने और तन ढंकने के लिए थोड़ी-बहुत मजदूरी कमा पाएगा, पर उसके माँ-बाप उस पर एक बड़ी हस्ती, धनी व्यक्ति, और उच्च अधिकारी बनने का दबाव डालते हैं, उसके बालिग होने से पहले उसके भविष्य के लिए योजना बनाने और चीजें व्यवस्थित करने लगते हैं, कई तरह की तथाकथित कीमतें चुकाते हैं, उसके जीवन और भविष्य को काबू करने की कोशिश करते हैं। क्या यह बेवकूफी नहीं है? (बिल्कुल है।) ... कोई भी माँ-बाप अपने बच्चों को भिखारी बनते नहीं देखना चाहता। मगर फिर भी, उन्हें इस बात पर जोर देने की जरूरत नहीं है कि उनके बच्चे संसार में आगे बढ़कर उच्च अधिकारी या समाज के उच्च वर्ग में प्रमुख व्यक्ति बनें। समाज के उच्च वर्ग में होने में क्या अच्छा है? संसार में ऊपर उठने में क्या अच्छा है? ये चीजें दलदल हैं, ये अच्छी चीजें नहीं हैं। क्या कोई सेलिब्रिटी, कोई महान हस्ती, महामानव, या ऊँचे पद और रुतबे वाला व्यक्ति बनना अच्छी बात है? एक सामान्य व्यक्ति का जीवन सबसे आरामदायक होता है। थोड़ा गरीब, कठिन, थका देने वाला जीवन, थोड़े खराब भोजन और कपड़ों के साथ जीने में क्या हर्ज है? कम से कम, एक बात तो तय है, क्योंकि तुम समाज के उच्च वर्ग के सामाजिक प्रवृत्तियों के बीच नहीं रहते, तो तुम कम से कम, पाप और परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाली चीजें कम करोगे। एक सामान्य व्यक्ति के तौर पर, तुम्हें इतने बड़े या बार-बार के प्रलोभन का सामना नहीं करना पड़ेगा। भले ही तुम्हारा जीवन थोड़ा कठिन होगा, पर कम से कम तुम्हारी आत्मा थकेगी नहीं। जरा सोचो इस बारे में, एक श्रमिक होने के नाते, तुम्हें बस दिन में तीन बार भोजन करने की चिंता होगी। अगर तुम कोई अधिकारी हो तो तुम्हारी चिंताएँ अलग होती हैं। तुम्हें लड़ना होता है, और यह पता नहीं होता कि कब तुम्हारा पद सुरक्षित नहीं रहेगा। और यह इसका अंत नहीं होगा, जिन लोगों को तुमने नाराज किया है वे तुमसे बदला लेने की कोशिश करेंगे, और तुम्हें सजा देंगे। मशहूर हस्तियों, महान लोगों और अमीर लोगों के लिए जीवन बहुत थकाऊ होता है। अमीर लोगों को हमेशा यह डर लगा रहता है कि वे भविष्य में इतने अमीर नहीं रहेंगे, और अगर ऐसा हुआ तो वे जीते नहीं रह पाएँगे। मशहूर हस्तियों को हमेशा चिंता रहती है कि उनका प्रभामंडल गायब हो जाएगा, और वे हमेशा अपने प्रभामंडल की रक्षा करना चाहते हैं, उन्हें डर है कि इस युग और प्रवृत्तियों के द्वारा उन्हें निकाल दिया जाएगा। उनका जीवन बहुत थकाऊ होता है! माँ-बाप कभी भी इन चीजों की असलियत नहीं देखते और हमेशा अपने बच्चों को इस संघर्ष के केंद्र में धकेल देना चाहते हैं, उन्हें इन शेरों की गुफाओं और दलदल में भेज देना चाहते हैं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (18))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझाया कि मुझे अपने बेटे की नौकरी के बारे में परमेश्वर की संप्रभुता और पूर्वनिर्धारण के प्रति समर्पण करना चाहिए। कर्मचारी होने में कुछ भी बुरा नहीं है : तुम अपना पेट भर सकते हो, तन ढक सकते हो और सामान्य जीवन जी सकते हो। क्या यह बहुत अच्छा नहीं है? लेकिन मैं हमेशा चाहती थी कि मेरा बेटा सरकारी अधिकारी बनने का रास्ता अपनाए या सैन्य अधिकारी बने और किसी सरकारी विभाग में प्रवेश करे। मैंने देखा कि मैं सत्ता और रुतबे की पूजा कर रही थी और जो मैं कर रही थी वह मेरे बेटे को रसातल में धकेल रहा था! ऊपर से सरकारी एजेंसियाँ सम्मानजनक लगती हैं। जो लोग बाहर आते हैं वे सभी सूट और चमड़े के जूते पहनते हैं। वे सभी बहुत प्रतिष्ठित दिखते हैं। लेकिन असल में यह सबसे अंधकारमय जगह है। मेरी बड़ी बहनों के बेटों को ही ले लो। भले ही वे अपने संगठनों में वरिष्ठ प्रमुख हैं, उनके पास बहुत शक्ति और प्रभाव है, लेकिन वे खुशहाल जीवन नहीं जीते हैं। वे केवल यही बात करते हैं कि अपने रुतबे की रक्षा के लिए संपर्कों का इस्तेमाल कैसे करें। उन्हें यही चिंता रहती है कि एक दिन वे अपने पद गँवा देंगे और दूसरों द्वारा सताए जाएँगे। वे सचमुच चाकू की धार पर जी रहे हैं। अगर तुम किसी सरकारी एजेंसी में काम करते हो तो यह तय सा है कि तुम विभिन्न प्रकार के शक्ति संघर्षों में फँस जाओगे और तुम चाहकर भी बच नहीं सकते। कुछ लोग उनकी सेवा करने के लिए अपना जीवन लगा देते हैं, शैतान के साथी बन जाते हैं। अंतरात्मा, नैतिक आधार रेखा, आत्म-आचरण और मानवीय गरिमा सब गायब हो जाते हैं। वे हर तरह का खराब काम करते हैं और बहुत से रूपों में बुराई करते हैं। आखिरकार वे शैतान के लिए बलिदान हो जाते हैं। लेकिन मैं इसे समझ नहीं पाई और यहाँ तक कि अपने बेटे को भी सरकारी एजेंसियों की ओर धकेल दिया। मैं सचमुच बहुत मूर्ख थी! परमेश्वर लोगों के लिए जिस काम की व्यवस्था करता है वह सामान्य जीवन जीने के लिए पर्याप्त होता है। जैसा कि परमेश्वर कहता है : “भोजन और वस्‍त्र से संतुष्ट रहना चाहिए(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (20))। मैं बहुत साल से परमेश्वर में विश्वास कर रही थी लेकिन मैंने कभी परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता को नहीं जीया था। चीजों के बारे में मेरा नजरिया बहुत ज्यादा नहीं बदला था और किस चीज का अनुसरण करना है इस बारे में मेरे नजरिए वही थे जो सांसारिक लोगों के होते हैं। मैं सत्ता की पूजा करती थी और प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे का अनुसरण करती थी। यहाँ तक कि मैंने अपना लक्ष्य पाने के लिए अपने बेटे को रसातल और दलदल की ओर धकेल दिया। अगर मैंने अपने बेटे को राजनीतिक करियर में भेजा होता तो उसे संघर्षों में घसीटा जाता और दूसरों के साथ खुलेआम और गुप्त रूप से संघर्ष करना पड़ता। उसे पूरे दिन इस व्यक्ति से सावधान या उस व्यक्ति से सतर्क होना पड़ता, उसे षड्यंत्र रचने पड़ते और धोखे देने पड़ते। कौन जानता है कि वह किस तरह की चीजें करता! अपने अभिमान और प्रतिष्ठा को संतुष्ट करने के लिए अपने बेटे को उस जगह पर धकेलना—क्या यह मेरे बच्चे को नुकसान नहीं पहुँचा रहा था? भले ही मेरा बेटा अब एक साधारण कर्मचारी है और वह थोड़ा शारीरिक कष्ट झेलता है और थोड़ा थक जाता है, लेकिन उसका जीवन उसके मौसेरे भाइयों जितना थकाऊ नहीं है। न ही वह साजिश और संघर्ष में फँस गया है। उसे पद खोने की चिंता करने की जरूरत नहीं है और उसका जीवन आरामदेह और सहज है। वह खुद का भरण-पोषण भी कर सकता है। क्या यह बढ़िया नहीं है? परमेश्वर की व्यवस्थाएँ हमेशा उचित होती हैं।

बाद में मैं परमेश्वर के वचनों के माध्यम से खोज कर रही थी। माता-पिता के नाते हमें हमेशा अपने बच्चों से भीड़ से अलग दिखने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। तो अपने बच्चों के साथ व्यवहार करने का सही तरीका क्या है? मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “माँ-बाप की अपने बच्चों से की जाने वाली अपेक्षाओं के सार का विश्लेषण करके हम देख सकते हैं कि ये अपेक्षाएँ स्वार्थी हैं, ये मानवता के विरुद्ध हैं, और इसके अलावा इनका माँ-बाप की जिम्मेदारियों से कोई लेना-देना नहीं है। जब माँ-बाप अपने बच्चों पर अपनी विभिन्न अपेक्षाएँ और आवश्यकताएँ थोपते हैं, तो वे अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं कर रहे होते। तो फिर, उनकी ‘जिम्मेदारियाँ’ क्या हैं? सबसे बुनियादी जिम्मेदारियाँ जो माँ-बाप को निभानी चाहिए, वे हैं अपने बच्चों को बोलना सिखाना, उन्हें दयालु बनने और बुरे इंसान न बनने की सीख देना, और सकारात्मक दिशा में उनका मार्गदर्शन करना। ये उनकी सबसे बुनियादी जिम्मेदारियाँ हैं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (18))। “माँ-बाप को बस अपने बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी हैं और उनका अच्छे से पालन-पोषण करके उन्हें बालिग करना है। उन्हें अपने बच्चों को प्रतिभाशाली व्यक्तियों के रूप में विकसित करने की जरूरत नहीं है। क्या यह हासिल करना आसान है? (बिल्कुल है।) ऐसा करना आसान है—तुम्हें अपने बच्चों के भविष्य या जीवन के लिए कोई जिम्मेदारी उठाने, या उनके लिए कोई योजना बनाने की जरूरत नहीं है, या यह पहले से तय करने की जरूरत नहीं है कि वे किस तरह के लोग बनेंगे, भविष्य में उनका जीवन कैसा होगा, बाद में वे किस सामाजिक संबंधों के जाल में पाए जाएँगे, भविष्य में इस दुनिया में उनका जीवन स्तर कैसा होगा, या लोगों के बीच उनका रुतबा कैसा होगा। तुम्हें इन चीजों को पहले से तय करने या इन्हें नियंत्रित करने की जरूरत नहीं है; तुम्हें बस माँ-बाप होने के नाते अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी हैं। यह इतना आसान है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (18))। परमेश्वर के वचनों से मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। बच्चों के वयस्क होने से पहले उनके प्रति माता-पिता की जिम्मेदारियाँ हैं कि उन्हें बड़ा करें और वयस्क बनाएँ और सही मार्ग पर चलने के लिए उनका मार्गदर्शन करें। माता-पिता को अपने वयस्क बच्चों को जाने देना चाहिए और उन्हें अपना जीवन जीने देना चाहिए। जब बच्चों को मदद की जरूरत होती है तो माता-पिता अपनी वास्तविक परिस्थितियों के अनुसार उनकी मदद कर सकते हैं। अब मेरा बेटा वयस्क है। उसके पास अपने विचार हैं और वह अपने विकल्प खुद चुनता है। मुझे अपनी कामनाएँ पूरी करने के लिए उसके जीवन में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और उसके जीवन की योजना नहीं बनानी चाहिए। मैं जो कर सकती हूँ, वह यह है कि जब वह मुश्किल में हो तो मैं उसे सुझाव और सलाह दे सकती हूँ, उसका सकारात्मक मार्गदर्शन कर सकती हूँ। लेकिन वह क्या चुनता है, यह उस पर निर्भर करता है। भविष्य में क्या वह हमेशा एक कर्मचारी बना रहेगा, वह किन लोगों और चीजों के संपर्क में आएगा, वह किस तरह का जीवन जिएगा, इस सब की व्यवस्था परमेश्वर द्वारा की जा चुकी है। ये मेरे नियंत्रण में नहीं हैं। मैं जो कर सकती हूँ वह है समर्पण करना और माता-पिता की जिम्मेदारियाँ पूरी करना। मैं अपने बेटे की नौकरी को लेकर अब और चिंता नहीं करती और खुद को नहीं थकाती हूँ, मैं अब और इससे शर्मिंदा और बाधित नहीं होती हूँ। मैं अपने दिल को शांत कर सकती हूँ और अपने कर्तव्यों में अपना दिल झोंक सकती हूँ। इस तरह से जीने से मेरा दिल सहज और तनावमुक्त होता है।

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