43. दूसरों को विकसित करने से मुझे जो हासिल हुआ
मैं और यांग चेन यिंगगुआंग कलीसिया में पाठ-आधारित कार्य का पर्यवेक्षण करती थीं। सितंबर 2024 के मध्य में, अगुआओं ने एक पत्र भेजा जिसमें कहा गया था कि चेनशिन कलीसिया की बहन झाओ शुए को अभी-अभी वहाँ के पाठ-आधारित कार्य के लिए पर्यवेक्षक चुना गया है, लेकिन वह अभी भी कार्य के विभिन्न पहलुओं और धर्मोपदेशों की समीक्षा के सिद्धांतों से अपरिचित थी। इसलिए उन्होंने पूछा कि क्या हम कुछ समय निकालकर उसका मार्गदर्शन करने में मदद कर सकती हैं और कहा कि अगर उसे जल्दी विकसित किया जा सका, तो यह कलीसिया के कार्य के लिए फायदेमंद होगा। मैंने मन ही मन सोचा, “हम अपने मुख्य कार्य में पहले से ही काफी व्यस्त हैं, तो इसके ऊपर झाओ शुए का मार्गदर्शन करने में मदद करने से क्या हमारा और भी समय नहीं लगेगा? अगर हमारे कार्य की प्रभावशीलता कम हो गई, तो क्या अगुआ यह नहीं कहेंगे कि हमने अपने कर्तव्य पूरे नहीं किए? इसके अलावा, उसका मार्गदर्शन करना मेरा मुख्य कार्य नहीं है, भले ही उसका कार्य प्रभावी हो जाए, उच्च अगुआ हमारी प्रशंसा नहीं करेंगे।” मुझे लगा कि यह एक ऐसा काम होगा जिसमें सराहना नहीं मिलेगी और इसलिए मैं इसे स्वीकार नहीं करना चाहती थी। लेकिन अगर मैंने मना कर दिया, तो क्या अगुआ यह नहीं कहेंगे कि मुझमें करुणा की कमी है? काफी सोचने के बाद, मैं सहमत हो गई।
शुरुआत में, झाओ शुए सलाह माँगने के लिए लिखती और हम जल्द से जल्द जवाब देते। 25 सितंबर को, झाओ शुए ने हमें समीक्षा के लिए एक धर्मोपदेश भेजा। यांग चेन और मैंने जब इसकी समीक्षा की, तो हमें धर्मोपदेश में कई समस्याएँ मिलीं, कोई प्रगति करने से पहले हमें इस पर लंबे समय तक चर्चा करनी पड़ी। मुद्दों का जवाब देने के बाद भी, कुछ क्षेत्र ऐसे थे जिनके बारे में मैं निश्चित नहीं थी और मुझे चिंता थी कि मेरे मार्गदर्शन में कुछ विचलन हो सकते थे, इसलिए मैंने धर्मोपदेश को देखने के लिए दूसरे भाई-बहनों को भेजा और उन्होंने भी कुछ सुझाव दिए। उस समय, मुझे लगा कि झाओ शुए का मार्गदर्शन करने में बहुत समय लग रहा है। इससे न केवल हमें देरी हो रही थी, बल्कि कभी-कभी इसमें समूह के अन्य सदस्यों का समय भी लग जाता था। धर्मोपदेश की जाँच का कार्य अपने आप में एक बड़ा काम था और अगर यह ऐसे ही चलता रहा, तो क्या इससे हमारा अपना कार्य प्रभावित नहीं होगा? उसके बाद, झाओ शुए हमें लगातार धर्मोपदेश भेजती रही और विभिन्न मुद्दों पर जवाब माँगती रही। कुछ मुद्दों को समझना हमारे लिए मुश्किल था, इसलिए हमें उन पर विचार करने और चर्चा करने में समय बिताना पड़ा और इस वजह से, मुझे अपनी कलीसिया में धर्मोपदेश कार्य का जायजा लेने के लिए कम समय मिला और कुछ कामों में देरी हो गई। 20 अक्टूबर को, अगुआओं ने हमें एक पत्र भेजकर पूछा, “कुछ दिन पहले हमने जिन कई पाठ-आधारित कार्यकर्ताओं के बारे में पूछा था, उनके बारे में आपने हमें प्रतिक्रिया क्यों नहीं दी है?” तब मुझे एहसास हुआ कि मैं जवाब देना भूल गई थी। मैंने सोचा, “अगुआओं को जरूर लगता होगा कि मैं काम को टाल रही हूँ और दायित्व के एहसास के साथ अपने कर्तव्य नहीं कर रही हूँ। अगर हमारे कार्य के नतीजे गिरते हैं, तो अगुआ जरूर कहेंगे कि मैंने अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया है।” कुछ दिनों बाद, मुझे मदद माँगते हुए झाओ शुए का एक और पत्र मिला। मैं इससे थोड़ी नाखुश हुई और मुझे लगा कि उसका मार्गदर्शन करने से मेरा मुख्य कार्य प्रभावित होगा, ऐसा करना ठीक नहीं है और यह एक रुकावट थी। मुझे एहसास हुआ कि मेरी मानसिकता सही नहीं है, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उससे अपनी मानसिकता बदलने के लिए मेरा मार्गदर्शन करने को कहा। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “जो सत्य से प्रेम करते हैं और जिनमें सत्य वास्तविकता होती है, वही लोग तब आगे आ सकते हैं, जब परमेश्वर के घर के काम को और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उनकी आवश्यकता होती है, वही लोग खड़े होकर, बहादुरी और कर्तव्य-निष्ठा से, परमेश्वर की गवाही दे सकते हैं, सत्य पर संगति कर सकते हैं, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को सही मार्ग पर ले जा सकते हैं और उन्हें परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पित होने में सक्षम बना सकते हैं। यही जिम्मेदारी का रवैया है और परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता दिखाने की अभिव्यक्ति है। यदि तुम लोगों में यह रवैया नहीं है, चीजों से निपटने में तुम एकदम लापरवाह रहते हो और सोचते हो, ‘मैं अपने कर्तव्य के दायरे में ही चीजों को करूँगा, लेकिन मुझे किसी और चीज की परवाह नहीं है। यदि तुम मुझसे कुछ पूछोगे तो मैं तुम्हें जवाब दूँगा—यदि मैं अच्छे मूड में हुआ तो जवाब दूँगा, नहीं तो जवाब नहीं दूँगा। यही मेरा रवैया है,’ तो इस तरह का स्वभाव भ्रष्ट स्वभाव है, है न? केवल अपनी हैसियत, अपनी प्रतिष्ठा और अभिमान की रक्षा करना, और केवल अपने हित से चीजों की रक्षा करना—क्या ऐसा करना एक न्यायोचित उद्यम की रक्षा करना है? क्या यह परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना है? इन ओछे, स्वार्थी मंसूबों के पीछे सत्य से विमुख रहने वाला स्वभाव है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से, मैंने देखा कि जो लोग सच्चे मन से परमेश्वर में विश्वास करते हैं और सत्य से प्रेम करते हैं, उनमें अपने कर्तव्यों के प्रति दायित्व और जिम्मेदारी का एहसास होता है। चाहे वह कलीसिया के कार्य की जरूरतें हों या भाई-बहनों को मदद की जरूरत हो, वे अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने में सक्षम होते हैं। अगर कोई केवल अपने काम की परवाह करता है, दूसरों को मुश्किलें आने और उन्हें मदद की जरूरत होने पर मदद के लिए हाथ बढ़ाने को तैयार नहीं होता, तो यह स्वार्थी, नीच और सत्य से विमुख होने का स्वभाव है। मैंने सोचा कि झाओ शुए को अभी-अभी पर्यवेक्षक चुना गया है। वह कार्य से परिचित नहीं थी और उसने सिद्धांतों को अच्छी तरह से आत्मसात नहीं किया था। चूँकि वह हमसे सवाल पूछ रही थी, तो उसे कार्य में जरूर मुश्किलें आई होंगी और मुझे उसका मार्गदर्शन करने और उसकी मदद करने की पूरी कोशिश करनी चाहिए थी। लेकिन मैं केवल अपने काम की परवाह करना चाहती थी। मैं झाओ शुए का मार्गदर्शन करने में समय बिताना और कीमत चुकाना नहीं चाहती थी, क्योंकि मुझे लगा कि इससे मेरे कार्य के नतीजे प्रभावित होंगे। क्या मैं स्वार्थी और नीच नहीं बन रही थी? यह एहसास होने पर, लोगों को विकसित करने के प्रति मेरी मानसिकता थोड़ी बदल गई और जब झाओ शुए ने कुछ सवालों के साथ फिर से लिखा, तो मैंने पहल करके, अपना पूरा जोर लगाकर जवाब दिया। लेकिन मुझे अपनी स्वार्थी, नीच भ्रष्ट प्रकृति का ज्यादा ज्ञान नहीं था और मैं अभी भी मामलों का सामना करते समय अपनी भ्रष्टता प्रकट किए बिना नहीं रह सकी।
अक्टूबर के अंत में, झाओ शुए ने हमें एक और धर्मोपदेश भेजा और हमसे यह जाँचने के लिए कहा कि क्या उसमें कोई समस्या है। मैं जानती थी कि उसे इस धर्मोपदेश की जल्दी है, लेकिन फिर मैंने देखा कि धर्मोपदेश बहुत लंबा था। इसे पूरा पढ़ने और जवाब भेजने में बहुत समय लगता। मैंने मन ही मन सोचा, “यह धर्मोपदेश हमारी जिम्मेदारी के दायरे में नहीं है और अगर हम इसे संपादित भी करते हैं, तो हमें इसका कोई श्रेय नहीं मिलेगा। यह सचमुच एक ऐसा काम होगा जिसमें कोई सराहना नहीं मिलेगी!” इसलिए मैंने तुरंत जवाब नहीं दिया। अगली दोपहर, मेरे पास ज्यादा काम नहीं था, तो यांग चेन ने मुझे इसे जाँचने की याद दिलाई और तभी मैंने इसे समीक्षा के लिए निकाला। मैंने पाया कि इसमें बहुत सारी समस्याएँ थीं। यांग चेन के साथ इस पर चर्चा करने के बाद, मैंने झाओ शुए को लिखा और इस बारे में उससे संवाद किया, जिसमें बहुत समय लगा। बाद में, मैंने सोचा कि धर्मोपदेश का जवाब देने में मेरा बहुत अधिक समय लगेगा और अगर मैं यह समय और ऊर्जा अपनी जिम्मेदारी के क्षेत्र में कार्य का जायजा लेने में लगाऊँ, तो न केवल कार्य के नतीजे बेहतर होंगे, बल्कि अगुआ भी हमें बहुत सम्मान देंगे। लेकिन अब मुझे अपना समय और ऊर्जा दूसरों के कार्य का मार्गदर्शन करने में लगाना पड़ रहा था और भले ही उस कार्य से नतीजे मिलते, वे हमारे नहीं गिने जाते, इसलिए मैंने सोचा कि कितना अच्छा हो अगर मुझे अब झाओ शुए का मार्गदर्शन न करना पड़े। लेकिन झाओ शुए अभी भी स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं कर सकती थी, इसलिए इसे यूँ ही टाल देने का कोई आसान तरीका नहीं था। मैं जानती थी कि मुझे अभी भी झाओ शुए का मार्गदर्शन करते रहना है, लेकिन मैं हमेशा इस बारे में मन मारकर काम करती थी और यह कीमत नहीं चुकाना चाहती थी।
बाद में, मैंने मसीह-विरोधियों के चरित्र को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन पढ़े और मुझे अपनी समस्याओं की कुछ और समझ मिली। परमेश्वर कहता है : “मसीह-विरोधियों में कोई जमीर, विवेक या मानवता नहीं होती। वे न केवल शर्म से बेपरवाह होते हैं, बल्कि उनकी एक और खासियत भी होती है : वे असाधारण रूप से स्वार्थी और नीच होते हैं। उनके ‘स्वार्थ और नीचता’ का शाब्दिक अर्थ समझना कठिन नहीं है : उन्हें अपने हित के अलावा कुछ नहीं सूझता। अपने हितों से संबंधित किसी भी चीज पर उनका पूरा ध्यान रहता है, वे उसके लिए कष्ट उठाएँगे, कीमत चुकाएँगे, उसमें खुद को तल्लीन और समर्पित कर देंगे। जिन चीजों का उनके अपने हितों से कोई लेना-देना नहीं होता, वे उनकी ओर से आँखें मूँद लेंगे और उन पर कोई ध्यान नहीं देंगे; दूसरे लोग जो चाहें सो कर सकते हैं—मसीह-विरोधियों को इस बात की कोई परवाह नहीं होती कि कोई विघ्न-बाधा पैदा तो नहीं कर रहा, उन्हें इन बातों से कोई सरोकार नहीं होता। युक्तिपूर्वक कहें तो वे अपने काम से काम रखते हैं। लेकिन यह कहना ज्यादा सही है कि इस तरह का व्यक्ति नीच, अधम और कुत्सित होता है; हम उन्हें ‘स्वार्थी और नीच’ के रूप में निरूपित करते हैं। ... मसीह-विरोधी चाहे जो भी कार्य करें, वे कभी परमेश्वर के घर के हितों पर विचार नहीं करते। वे केवल इस बात पर विचार करते हैं कि कहीं उनके हित तो प्रभावित नहीं हो रहे, वे केवल अपने सामने के उस छोटे-से काम के बारे में सोचते हैं, जिससे उन्हें फायदा होता है। उनकी नजर में, कलीसिया का प्राथमिक कार्य बस वही है, जिसे वे अपने खाली समय में करते हैं। वे उसे बिल्कुल भी गंभीरता से नहीं लेते। वे केवल तभी हरकत में आते हैं जब उन्हें काम करने के लिए कोंचा जाता है, केवल वही करते हैं जो वह करना पसंद करते हैं और केवल वही काम करते हैं जो उसके अपने रुतबे और सत्ता को कायम रखने के लिए होता है। उसकी नजर में परमेश्वर के घर द्वारा व्यवस्थित कोई भी कार्य, सुसमाचार फैलाने का कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों का जीवन प्रवेश महत्वपूर्ण नहीं हैं। चाहे अन्य लोगों को अपने काम में जो भी कठिनाइयाँ आ रही हों, उन्होंने जिन भी मुद्दों को पहचाना और रिपोर्ट किया हो, उनके शब्द कितने भी ईमानदार हों, मसीह-विरोधी उन पर कोई ध्यान नहीं देते, वे उनमें शामिल नहीं होते, मानो इन मामलों से उनका कोई लेना-देना ही न हो। कलीसिया के काम में उभरने वाली समस्याएँ चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न हों, वे पूरी तरह से उदासीन रहते हैं। अगर कोई समस्या उनके ठीक सामने भी हो, तब भी वे उस पर लापरवाही से ही ध्यान देते हैं। जब ऊपरवाला सीधे उनकी काट-छाँट करता है और उन्हें किसी समस्या को सुलझाने का आदेश देता है, तभी वे बेमन से थोड़ा-बहुत काम करके ऊपरवाले को दिखाते हैं; उसके तुरंत बाद वे फिर अपने धंधे में लग जाते हैं। जब कलीसिया के काम की बात आती है, व्यापक संदर्भ की महत्वपूर्ण चीजों की बात आती है तो वे इन चीजों में रुचि नहीं लेते और इनकी उपेक्षा करते हैं। जिन समस्याओं का उन्हें पता लग जाता है, उन्हें भी वे नजरअंदाज कर देते हैं और समस्याओं के बारे में पूछने पर लापरवाही से जवाब देते हैं या आगा-पीछा करते हैं और बहुत ही बेमन से उस समस्या की तरफ ध्यान देते हैं। यह स्वार्थ और नीचता की अभिव्यक्ति है, है न? इसके अलावा, मसीह-विरोधी चाहे कोई भी काम कर रहे हों, वे केवल यही सोचते हैं कि क्या इससे वे सुर्खियों में आ पाएँगे; अगर उससे उनकी प्रतिष्ठा बढ़ती है तो वे यह जानने के लिए अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाते हैं कि उस काम को कैसे करना है, कैसे अंजाम देना है; उन्हें केवल एक ही फिक्र रहती है कि क्या इससे वे औरों से अलग नजर आएँगे। वे चाहे कुछ भी करें या सोचें, वे केवल अपनी प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे से सरोकार रखते हैं। वे चाहे कोई भी काम कर रहे हों, वे केवल इसी स्पर्धा में लगे रहते हैं कि कौन बड़ा है या कौन छोटा, कौन जीत रहा है और कौन हार रहा है, किसकी ज्यादा प्रतिष्ठा है। वे केवल इस बात की परवाह करते हैं कि कितने लोग उनकी आराधना और सम्मान करते हैं, कितने लोग उनका आज्ञा पालन करते हैं और कितने लोग उनके अनुयायी हैं। वे कभी सत्य पर संगति या वास्तविक समस्याओं का समाधान नहीं करते। वे कभी विचार नहीं करते कि अपना काम करते समय सिद्धांत के अनुसार चीजें कैसे करें, न ही वे इस बात पर विचार करते हैं कि क्या वे निष्ठावान रहे हैं, क्या उन्होंने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर दी हैं, क्या उनके काम में कोई विचलन या चूक हुई है या अगर कोई समस्या मौजूद है तो वे यह तो बिल्कुल नहीं सोचते कि परमेश्वर क्या चाहता है और परमेश्वर के इरादे क्या हैं। वे इन सब चीजों पर रत्ती भर भी ध्यान नहीं देते। वे केवल प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के लिए, अपनी महत्वाकांक्षाएँ और जरूरतें पूरी करने का प्रयास करने के लिए कार्य करते हैं। यह स्वार्थ और नीचता की अभिव्यक्ति है, है न? यह पूरी तरह से उजागर कर देता है कि उनके हृदय किस तरह उनकी महत्वाकांक्षाओं, इच्छाओं और बेसिर-पैर की माँगों से भरे होते हैं; उनका हर काम उनकी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से नियंत्रित होता है। वे चाहे कोई भी काम करें, उनकी महत्वाकांक्षाएँ, इच्छाएँ और बेसिर-पैर की माँगें ही उनकी प्रेरणा और स्रोत होती हैं। यह स्वार्थ और नीचता की विशिष्ट अभिव्यक्ति है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण चार : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों से, मैंने देखा कि मसीह-विरोधी विशेष रूप से स्वार्थी और नीच होते हैं और केवल वही काम करते हैं जो उनकी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को फायदा पहुँचाते हैं। जो चीजें उनकी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को फायदा नहीं पहुँचातीं, उन्हें वे महज छोटे-मोटे काम मानते हैं, उनके लिए कष्ट उठाने या कीमत चुकाने को तैयार नहीं होते और यहाँ तक कि उनकी उपेक्षा और अनदेखी भी करते हैं। उन्हें अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा करनी ही होती है, भले ही इसका मतलब कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाना हो। वे जिस मार्ग पर चलते हैं, वह परमेश्वर का प्रतिरोध करने का मार्ग है। झाओ शुए का मार्गदर्शन करते समय मैंने ठीक ऐसा ही व्यवहार किया था। मुझे लगा कि यह मेरी जिम्मेदारी के दायरे में नहीं है और मैं जानती थी कि उसका अच्छी तरह से मार्गदर्शन करने में बहुत समय और ऊर्जा लगेगी, भले ही उसके कार्य से नतीजे मिलें, उनका श्रेय मुझे नहीं दिया जाएगा और मुझे दूसरों से कोई प्रशंसा भी नहीं मिलेगी, इसलिए मैं यह कीमत चुकाने को तैयार नहीं थी। मैंने सोचा, ऐसा करने के बजाय, अपनी जिम्मेदारी के दायरे में आने वाले कार्य का जायजा लेने में अधिक समय बिताना बेहतर होगा। इस तरह, न केवल कार्य के नतीजे बेहतर होंगे, बल्कि अगुआ भी मुझे बहुत सम्मान देंगे। इसलिए जब झाओ शुए का मार्गदर्शन करने की बात आई तो मैं मन मारकर काम करती थी। जब मैंने उसके सवालों का जवाब दिया भी तो मैं टालमटोल करती रही। मैं अच्छी तरह जानती थी कि झाओ शुए ने अभी-अभी पर्यवेक्षक के रूप में शुरुआत की थी और वह कार्य से बहुत परिचित नहीं थी, न ही उसने सिद्धांतों को अच्छी तरह से आत्मसात किया था, लेकिन मैं उसकी मदद करने और सहारा देने की कीमत नहीं चुकाना चाहती थी। मैं सचमुच स्वार्थी और नीच थी! मैं “बिना पुरस्कार के कभी कोई काम मत करो” और “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” जैसे शैतानी विषों के सहारे जी रही थी। कुछ भी करते समय, मैं यह विचार करती थी कि क्या इससे मुझे व्यक्तिगत रूप से फायदा होगा और मैं केवल तभी समय लगाने और कीमत चुकाने को तैयार होती थी जब इससे मुझे कुछ हासिल होता। मैंने देखा कि मैं वास्तव में परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य पूरा नहीं कर रही थी, बल्कि अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर काम कर रही थी। परमेश्वर की नजरों में, मैं वास्तव में अपना कर्तव्य नहीं निभा रही थी, बल्कि अपना उद्यम चला रही थी और मैं एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही थी। अंत में, मुझे न केवल परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिलती, बल्कि वह मुझसे बेइंतहा नफरत करता और मुझे हटा देता। यह एहसास होने पर, मैं जल्दी से परमेश्वर से पश्चात्ताप करना चाहती थी और अब अपने स्वार्थी, नीच भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार नहीं जीना चाहती थी।
एक दिन, अपनी भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और इसने स्पष्ट किया कि अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से कैसे निभाया जाए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “मुझे बताओ, लोगों को उचित कर्म कैसे करने चाहिए और उन्हें ये ऐसी किस दशा और स्थिति में करने चाहिए ताकि इसे अच्छे कर्म तैयार करना माना जाए? कम-से-कम, उन्हें सकारात्मक और सक्रिय रवैया रखना चाहिए और अपना कर्तव्य करते समय वफादार होना ही चाहिए, सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में समर्थ होना चाहिए और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करनी चाहिए। सकारात्मक और सक्रिय होना सबसे महत्वपूर्ण है; अगर तुम हमेशा निष्क्रिय रहते हो तो यह समस्या वाली बात है। यह ऐसा है मानो तुम परमेश्वर के घर के सदस्य नहीं हो और तुम अपना कर्तव्य नहीं कर रहे हो, मानो तुम्हारे पास वेतन कमाने के लिए इसे करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है क्योंकि नियोक्ता की माँग है कि तुम इसे करो—तुम इसे स्वेच्छा से नहीं कर रहे हो, बल्कि बहुत निष्क्रिय रूप से कर रहे हो। अगर इसमें तुम्हारे हित शामिल नहीं होते तो तुम ऐसा बिल्कुल भी नहीं करते। या अगर किसी ने तुमसे ऐसा करने के लिए नहीं कहा होता तो तुम ऐसा बिल्कुल भी नहीं करते। तो फिर इस दृष्टिकोण से चीजें करना अच्छे कर्म करना नहीं है। इसलिए इस तरह के लोग बहुत मूर्ख होते हैं; वे जो कुछ भी करते हैं उसमें निष्क्रिय होते हैं। वे वह चीज नहीं करते हैं जिसे वे करने के बारे में सोच सकते हैं और न ही वे वह चीज करते हैं जिसे वे समय और ऊर्जा से पूरा कर सकते हैं। वे बस प्रतीक्षा करते हैं और देखते हैं। यह परेशान करने वाली और बहुत दयनीय बात है। मैं क्यों कहता हूँ कि यह बहुत दयनीय है? सबसे पहली बात, ऐसा नहीं है कि तुम्हारी काबिलियत अपर्याप्त है; दूसरी बात, ऐसा नहीं है कि तुम्हारा अनुभव अपर्याप्त है; तीसरी बात, ऐसा नहीं है कि तुम्हारे पास इसे करने की उचित स्थितियाँ नहीं हैं। तुम्हारे पास यह कार्य करने की काबिलियत है और अगर तुम समय और ऊर्जा लगाओ तो इसे करने में सक्षम होगे, लेकिन तुम ऐसा नहीं करते, तुम अच्छे कर्म बनाने में असफल रहते हो। यह बहुत अफसोसजनक है। मैं क्यों कहता हूँ कि यह अफसोसजनक है? ऐसा इसलिए कि अगर तुम कई वर्षों बाद वापस इस पर नजर डालो तो तुम्हें अफसोस होगा और तब अगर तुम उस वर्ष, उस महीने और उस दिन पर वापस जाकर उस कार्य को करना चाहो तो चीजें बदल चुकी होंगी और वह समय पहले ही गुजर चुका होगा। तुम्हें उस जैसा दूसरा मौका नहीं मिलेगा; जब वह मौका गुजर जाता है तो वह गुजर जाता है, जब वह खो जाता है तो वह खो जाता है। अगर तुम बढ़िया खाना खाने या बढ़िया कपड़े पहनने जैसे दैहिक सुखों से वंचित रह जाते हो तो इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि ये चीजें खोखली हैं और इनका तुम्हारे जीवन प्रवेश या अच्छे कर्मों की तैयारी या तुम्हारे गंतव्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। लेकिन, अगर कोई चीज परमेश्वर के तुम्हारे प्रति रवैये और मूल्यांकन से जुड़ी है या यहाँ तक कि तुम जिस मार्ग पर चलते हो उससे और तुम्हारे गंतव्य से भी जुड़ी है तो इसे करने का अवसर खो देना बहुत ही अफसोसजनक है। वह इसलिए क्योंकि यह भविष्य में तुम्हारे अस्तित्व के मार्ग पर एक दाग छोड़ जाएगा और पछतावा उत्पन्न करेगा और तुम्हें अपने पूरे जीवन में इसकी भरपाई करने का कभी कोई दूसरा मौका नहीं मिलेगा। ... बल्कि, अगर तुम इस कार्य को उचित रूप से सँभालते हो और भरसक प्रयास से इसे अच्छी तरह से करते हो तो तुम अपने दिल में शांति और सुकून महसूस करोगे और तुमने परमेश्वर को निराश नहीं किया होगा। जब तुम परमेश्वर के सामने आओगे तो तुम आत्म-विश्वासी हो सकोगे और अपना सिर उठाकर खड़े हो सकोगे। लेकिन अगर तुम यह कार्य नहीं करते हो या इसे लापरवाही से करते हो तो भले ही तुम्हारी वजह से कोई नुकसान न हुआ हो, फिर भी व्यक्तिगत रूप से तुम्हारे लिए यह एक जीवन भर का पछतावा होगा! यह एक अथाह काली खाई जैसा होगा जिससे तुम जीवन भर दर्द और बेचैनी महसूस करोगे। जब भी यह कहा जाता है कि व्यक्ति को अपना कर्तव्य करने में वफादार और ईमानदार होना चाहिए और अपना भरसक प्रयास करना चाहिए तो तुम्हारा दिल इतना दर्दनाक महसूस करेगा मानो उसे सुइयों से भोंका जा रहा हो। तुम उस मामले को लेकर खुश, गर्वित या सम्मानित महसूस नहीं करोगे। इसके विपरीत यह पीड़ा जीवन भर तुम्हारे साथ रहेगी। अगर किसी व्यक्ति में अंतश्चेतना की जागृति है तो उसे इस तरह का दुख महसूस होगा। और परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से क्या? परमेश्वर जब इस मामले को निरूपित करने के लिए सत्य सिद्धांतों का उपयोग करेगा, तो तुम पाओगे कि इसकी प्रकृति तुम जितना महसूस करते हो उसकी तुलना में कहीं ज्यादा गंभीर है” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (11))। परमेश्वर के वचनों से, मुझे एहसास हुआ कि केवल सकारात्मक और सक्रिय रूप से अपना कर्तव्य करने की परमेश्वर की अपेक्षाओं का पालन करके, परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होकर और कलीसिया के कार्य को बनाए रखकर ही कोई वास्तव में अपना कर्तव्य निभा सकता है और अच्छे कर्म तैयार कर सकता है। अगर मैं जो सोच सकती थी, उसे सक्रिय रूप से नहीं करती या अगर मैं करती भी, लेकिन नकारात्मकता, निष्क्रियता और संकोच के साथ, तो यह मेरे कर्तव्य में वफादारी की कमी को दर्शाता और इससे परमेश्वर की घृणा और बेइंतहा नफरत झेलनी पड़ती। मैंने सोचा कि कैसे मैंने एक पर्यवेक्षक के रूप में अधिक समय तक प्रशिक्षण लिया था और कैसे सिद्धांतों को थोड़ा आत्मसात किया था, इसलिए मैं झाओ शुए द्वारा भेजे गए धर्मोपदेशों में कुछ समस्याएँ देख सकती थी। भले ही कुछ समस्याएँ अधिक जटिल थीं और उनमें अधिक समय की आवश्यकता थी, चर्चा के बाद उन्हें स्पष्ट किया जा सकता था। लेकिन मुझे एहसास हुआ कि इन समस्याओं से निपटने में मेरा बहुत समय लग जाता था और इससे मेरी अपनी जिम्मेदारी के क्षेत्र में जायजा लेने के कार्य में देरी होती थी। इससे हमारी कलीसिया के कार्य की प्रगति धीमी हो गई। तब मुझे चिंता हुई कि अगर यह ऐसे ही चलता रहा, तो हमारे कार्य की प्रभावशीलता कम हो जाएगी और इससे मेरी प्रतिष्ठा और रुतबे पर असर पड़ेगा। इसलिए, मैं झाओ शुए का मार्गदर्शन जारी रखने को तैयार नहीं थी। मैंने देखा कि अपने कर्तव्य में, मैं केवल अपने मान-सम्मान और रुतबे पर विचार कर रही थी, मुझमें दूसरों को विकसित करने के कार्य के दायित्व का कोई एहसास नहीं था, हमेशा अपने हितों का हिसाब-किताब लगाती रहती थी और मैं न तो कलीसिया के समग्र कार्य पर विचार कर रही थी, न ही परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील थी। क्या मैं वही नहीं कर रही थी जो अविश्वासी करते हैं? मैंने सचमुच परमेश्वर को निराश किया था!
बाद में, मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “परमेश्वर के इरादों के प्रति तुम जितने अधिक विचारशील रहोगे, तुम्हारा बोझ उतना अधिक होगा और तुम जितना ज्यादा बोझ वहन करोगे, तुम्हारा अनुभव भी उतना ही ज्यादा समृद्ध होगा। जब तुम परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहोगे, तो परमेश्वर तुम पर एक बोझ डाल देगा, और उसने तुम्हें जो काम सौंपें हैं, उनके बारे में वह तुम्हें प्रबुद्ध करेगा। जब परमेश्वर द्वारा तुम्हें यह बोझ दिया जाएगा, तो तुम परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते समय सभी संबंधित सत्य पर ध्यान दोगे। यदि तुम्हारे ऊपर भाई-बहनों के जीवन की मनोदशा से जुड़ा कोई बोझ है तो यह बोझ है जो परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपा गया है, और तुम प्रतिदिन की प्रार्थना में इस बोझ को हमेशा अपने साथ रखोगे। परमेश्वर जो करता है वही तुम पर डाल दिया गया है, और तुम वो करने के लिए तैयार हो जिसे परमेश्वर करना चाहता है; परमेश्वर के बोझ को अपना बोझ समझने का यही अर्थ है। इस बिंदु पर, परमेश्वर के वचन को खाते और पीते समय, तुम इस तरह के मामलों पर ध्यान केन्द्रित करोगे, और तुम सोचोगे कि मैं इन समस्याओं को कैसे सुलझा पाऊँगा? मैं अपने भाइयों और बहनों को मुक्ति और आध्यात्मिक आनंद प्राप्त करने के योग्य कैसे बना सकता हूँ? तुम संगति करते समय इन मुद्दों को हल करने पर ध्यान दोगे, और परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते समय तुम इन मुद्दों से संबंधित वचनों को खाने-पीने पर ध्यान दोगे। तुम उसके वचनों को खाते-पीते समय भी बोझ उठाओगे। एक बार जब तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं को समझ लोगे, तो तुम्हारे मन में तुम स्पष्ट हो जाओगे कि तुम्हें किस मार्ग पर चलना है। यह पवित्र आत्मा की वह प्रबुद्धता और रोशनी है जो तुम्हारे बोझ का परिणाम है, और यह परमेश्वर का मार्गदर्शन भी है जो तुम्हें प्रदान किया गया है। मैं ऐसा क्यों कहता हूं? यदि तुम्हारे ऊपर कोई बोझ नहीं है, तब तुम परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते समय इस पर ध्यान नहीं दोगे; बोझ उठाने के दौरान जब तुम परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हो, तो तुम परमेश्वर के वचनों का सार समझ सकते हो, अपना मार्ग खोज सकते हो, और परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रह सकते हो। इसलिए, तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह तुम पर और अधिक बोझ डाले और तुम्हें और भी बड़े काम सौंपे, ताकि तुम्हारे आगे अभ्यास करने के लिए और अधिक मार्ग हों, ताकि तुम्हारे परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने का और ज्यादा प्रभाव हो; ताकि तुम उसके वचनों के सार को प्राप्त करने में सक्षम हो जाओ; और तुम पवित्र आत्मा द्वारा प्रेरित किए जाने के लिए और भी सक्षम हो जाओ” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पूर्णता प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहो)। परमेश्वर के वचनों से, मुझे एहसास हुआ कि दायित्व परमेश्वर की ओर से आशीषें हैं। परमेश्वर हमें जो दायित्व देता है, उनके माध्यम से हमें सत्य सिद्धांत खोजने के लिए परमेश्वर के सामने आने को प्रेरित किया जाता है, जिससे हम परमेश्वर का प्रबोधन और मार्गदर्शन पाते हैं और अधिक सत्य समझते हैं। इस तरह, हम जीवन में और तेजी से बढ़ सकते हैं। अगुआओं ने कलीसिया के समग्र कार्य को बनाए रखने में झाओ शुए का मार्गदर्शन करने के लिए हमारी व्यवस्था की; इससे हमें और अधिक प्रशिक्षण का अवसर भी मिला। वास्तविक कठिनाइयों और समस्याओं ने मुझे सत्य सिद्धांत खोजने के लिए प्रेरित किया, जिससे मैं और अधिक हासिल कर सकी। सच तो यह है कि झाओ शुए ने कुछ ऐसे सवाल पूछे थे जिन्हें मैं स्पष्ट रूप से समझा नहीं सकती थी, और इससे पता चला कि मैं भी इन क्षेत्रों में सत्य को पूरी तरह से नहीं समझती थी। दायित्व के इस एहसास के साथ परमेश्वर से खोजने और प्रार्थना करने और कुछ सत्य सिद्धांतों को पढ़ने के बाद, मैं समस्याओं को और अधिक स्पष्ट रूप से समझने में सक्षम हुई। झाओ शुए का मार्गदर्शन करने में मदद करने के मामले में, भले ही मैंने कुछ समय और ऊर्जा लगाई, इस प्रक्रिया के दौरान, मैंने परमेश्वर से अधिक प्रार्थना की और सत्य सिद्धांतों को अधिक बार खोजा और अनजाने में, मैंने कुछ लाभ पाए और अपनी कमियों को भी पूरा किया। मैंने सचमुच अनुभव किया कि दायित्व वास्तव में परमेश्वर की ओर से आशीषें हैं और मुझे एहसास हुआ कि मुझे अब दूसरों को विकसित करने को एक रुकावट नहीं समझना चाहिए। झाओ शुए की जिम्मेदारी का एक बड़ा क्षेत्र था, अगर वह स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकती, तो इससे कलीसिया के कार्य को लाभ होता, इसलिए मुझे अपने व्यक्तिगत हितों को अलग रखकर धर्मोपदेश कार्य को अच्छी तरह से करने के लिए झाओ शुए के साथ सहयोग करना था।
बाद में, मैंने सचेत रूप से अपने व्यक्तिगत हितों को अलग रखा, धर्मोपदेशों के मुद्दों पर विचार करने के लिए अपने मन को शांत किया और उनमें मौजूद समस्याओं पर झाओ शुए के साथ चर्चा की। धीरे-धीरे, धर्मोपदेशों के मुद्दों पर विचार करने और उनका जवाब देने से मैं धर्मोपदेशों के मूल्यांकन के सिद्धांतों पर और अधिक स्पष्ट हो गई और दूसरों के धर्मोपदेशों से, मेरी सोच व्यापक हुई। यह सचमुच परमेश्वर का अनुग्रह था! बाद में, मैंने सोचा कि क्या मुझे झाओ शुए के लिए हाल के धर्मोपदेशों के मुद्दों का सारांश तैयार करना चाहिए। इस तरह, वह अगली बार उनसे बच सकती थी। यह धर्मोपदेशों की गुणवत्ता में सुधार के लिए और भी अधिक फायदेमंद होता। लेकिन फिर मैंने सोचा, “मैंने पहले ही उसके साथ धर्मोपदेश पर चर्चा करने में बहुत समय बिताया है और अगर मैं मुद्दों का सारांश भी तैयार करूँ और बारीकियों पर संवाद करूँ, तो इसमें और भी अधिक समय लगेगा। क्या इससे मेरे अपने काम में देरी नहीं होगी? इतना ही काफी होना चाहिए!” मुझे एहसास हुआ कि मैं स्वार्थी और नीच बन रही थी और आसान रास्ता अपनाने की कोशिश कर रही थी। मैंने चुपचाप परमेश्वर से प्रार्थना की, अपने खिलाफ विद्रोह किया और मैंने झाओ शुए को वे समस्याएँ और विचलन बताए जो हमने खोजे थे। इस तरह से अभ्यास करने से, मुझे अपने दिल में काफी शांति महसूस हुई। बाद में, झाओ शुए का मार्गदर्शन करते समय, मैंने अपनी जिम्मेदारियों के भीतर धर्मोपदेश कार्य का जायजा लेने के लिए भी समय निकाला। नवंबर में, हमारी कलीसिया द्वारा प्रस्तुत किए गए धर्मोपदेशों की संख्या अक्टूबर से भी अधिक थी और झाओ शुए की मदद करने से कार्य की प्रभावशीलता में गिरावट नहीं आई। परमेश्वर के अनुग्रह के लिए उसका धन्यवाद!