511  परमेश्वर की इंसान से अंतिम अपेक्षा

1

अगर तू सेवा करने वाला है,

तो क्या वफादारी से कर सकता है सेवा परमेश्वर की,

बिना निष्क्रिय या बिना लापरवाह हुए?

जान ले तू अगर, कभी सराहता नहीं तुझे परमेश्वर,

जीवनभर सेवा करेगा फिर भी तू डटा रहकर?

तेरी तमाम कोशिशों के बावजूद अगर, बेपरवाह है तुझसे परमेश्वर,

क्या फिर भी काम करेगा तू उसके लिये गुमनामी में रहकर?

कुछ ख़र्च किया तूने परमेश्वर की ख़ातिर अगर,

पूरी नहीं हुईं छोटी-छोटी मांगें तेरी मगर,

तो क्या इल्ज़ाम देगा परमेश्वर को मायूस और नाराज़ होकर?

हमेशा वफादार है, प्यार करता है तू परमेश्वर से अगर,

फिर भी रोग सताते हैं, मुफलिसी में रहता है तू,

दोस्त भी त्याग देते हैं, दूर चले जाते हैं परिजन तुझसे,

या आ जाती है कोई और बदकिस्मती तुझ पर,

क्या फिर भी अटल रहेगी वफादारी, प्यार तेरा?


2

परमेश्वर जो काम करता है,

बिल्कुल मेल नहीं खाते हैं उनसे तेरे ख़्वाब अगर,

तो कैसे चलेगा तू अपने भविष्य के पथ पर?

नहीं मिलती हैं कभी भी वो चीज़ें तुझे अगर

जिनके पाने की आशा तूने परमेश्वर से की थी कभी

क्या फिर भी रह सकता है तू परमेश्वर का अनुयायी बनकर?

नहीं देखा है परमेश्वर के काम का प्रयोजन और मायने तूने अगर,

बिना आंके, क्या उसका आज्ञापालन कर सकता है तू?

क्या सहेज सकता है वचन उसके, कही हैं जो बातें उसने,

तमाम काम वो जो किये हैं उसने इंसान के संग रहकर?

क्या बन सकता है वफादार अनुयायी परमेश्वर का तू,

सह सकता है दुख तू उसके लिये जीवनभर,

भले ही न मिले तुझे कुछ भी अगर?

क्या चल सकता है तू बिना विचार किये, बिना योजना बनाए,

या बिना तैयारी किये जीने के लिये अपने भविष्य पथ पर?

क्या ये कर सकता है तू परमेश्वर के लिये?


—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (2) से रूपांतरित

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