650  परमेश्वर के कोप का प्रतीक

1

ईश्वर का स्वभाव उसी में निहित है।

ये समय के साथ बदले नहीं;

ये स्थान के साथ बदले नहीं।

ये तो है उसका अंतर्निहित सार।

वो चाहे जिस पर भी काम करे,

उसका सार न बदले कभी,

न ही बदले उसका धार्मिक स्वभाव।


क्रोध दिलाने पर, ईश्वर जिसे प्रकट करे

वो है उसका अंतर्निहित स्वभाव।

उसके क्रोध का सिद्धांत न बदले,

न बदले उसकी हैसियत और पहचान।

वो इसलिए क्रोधित नहीं होता कि उसका सार

या स्वभाव बदल जाता है,

बल्कि वो इंसान के विरोध से अपमानित होता है।


ईश्वर द्वारा कोप की अभिव्यक्ति

प्रतीक है बुरी ताकतों के मिटने की;

प्रतीक है कि शत्रु ताकतें नष्ट की जाएँगी।

देखो ईश्वर का धार्मिक स्वभाव कितना अनूठा है;

देखो ईश्वर का कोप कितना अनूठा है।


2

इंसान का ईश्वर को खुलकर उकसाना

चुनौती दे ईश्वर की हैसियत और पहचान को।

ईश्वर की नज़र में ये इंसान का उससे लड़ना है।

उसका क्रोध भड़काना है।

ऐसे समय इंसान के पाप अनियंत्रित हो जाते,

इसलिए ऐसे समय स्वाभाविक है

ईश्वर के कोप का प्रकट होना, प्रस्तुत होना।


ईश्वर द्वारा कोप की अभिव्यक्ति

प्रतीक है बुरी ताकतों के मिटने की;

प्रतीक है कि शत्रु ताकतें नष्ट की जाएँगी।

देखो ईश्वर का धार्मिक स्वभाव कितना अनूठा है;

देखो ईश्वर का कोप कितना अनूठा है।


—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II से रूपांतरित

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