सत्य का अनुसरण कैसे करें (12)
पिछली बार हमने किस विषय के बारे में संगति की थी? हमने तीन पहलुओं—जन्मजात स्थितियाँ, मानवता और भ्रष्ट स्वभाव—की कुछ विशिष्ट अभिव्यक्तियों के बारे में संगति की थी। हमने इन विशिष्ट अभिव्यक्तियों पर चर्चा की थी और इस तरीके से यह भेद पहचाना था कि वे इन तीनों पहलुओं में से किस पहलू से संबंधित हैं। अगर तुम लोग दैनिक जीवन में इन अभिव्यक्तियों को देखो जिनके बारे में हमने संगति की थी तो तुम मूलतः उन्हें निरूपित और श्रेणीबद्ध कर सकते हो—जैसे कि क्या वे जन्मजात स्थितियों से संबंधित हैं या मानवता से संबंधित हैं या फिर भ्रष्ट स्वभावों से संबंधित हैं। जहाँ तक उन अभिव्यक्तियों का प्रश्न है जिनके बारे में संगति नहीं की गई थी, तो क्या अब तुम लोग जानते हो कि उन्हें इन सिद्धांतों के अनुसार या उनके द्वारा अभिव्यक्त किए गए सार के अनुसार कैसे श्रेणीबद्ध करना है? (हमें लगता है कि हम इस मामले में पहले से कुछ हद तक बेहतर हैं—हम इस दिशा में मनन करने में समर्थ हैं, लेकिन हम अभी तक भेद पहचानने में समर्थ होने के बिंदु तक पूरी तरह से नहीं पहुँचे हैं।) तुम आमतौर पर उन अभिव्यक्तियों का भेद पहचान सकते हो जिनके बारे में हमने संगति की थी, लेकिन जहाँ तक उन अभिव्यक्तियों का प्रश्न है जिनके बारे में संगति नहीं की गई थी और जिनका इससे पहले संगति की गई अभिव्यक्तियों से कोई संबंध नहीं है, तो तुम्हें नहीं पता कि तुम उनका भेद पहचानने में समर्थ हो या नहीं। (सही कहा।) पिछले कुछ धर्मोपदेशों में हमने जन्मजात स्थितियों के भीतर रुचियों, शौक और खूबियों की कुछ अभिव्यक्तियों और साथ ही इन पहलुओं से संबंधित उन मुद्दों पर भी संगति की थी जो लोगों में अभिव्यक्त होते हैं। हमने इन मुद्दों के संबंध में लोगों का जो रवैया और अभ्यास का मार्ग होना चाहिए उसके बारे में और साथ ही उन लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाओं के बारे में भी संगति की थी जिनमें रुचियाँ, शौक और खूबियाँ होती हैं। इस बारे में संगति मुख्य रूप से लोगों को उन विचारों और दृष्टिकोणों के बारे में—साथ ही अभ्यास के उस मार्ग के बारे में भी जो उन्हें समझना चाहिए—बताने के लिए है जो उनके पास रुचियों, शौक और खूबियों के संबंध में होने चाहिए और साथ ही इन पहलुओं में शामिल परमेश्वर के इरादों और अपेक्षाओं के बारे में भी बताने के लिए है जिन्हें उन्हें समझना चाहिए। रुचियों, शौक और खूबियों के मुद्दों के संबंध में हमने सिर्फ सामान्य अर्थ में संगति की थी और इस बारे में विशिष्ट रूप से संगति नहीं की थी कि इन मामलों में लोगों के क्या त्रुटिपूर्ण विचार और दृष्टिकोण हैं, वे अभ्यास के कौन-से त्रुटिपूर्ण मार्ग अपना सकते हैं या इस मामले में परमेश्वर की अपेक्षाओं के संबंध में उनकी क्या त्रुटिपूर्ण समझ हैं। तो चलो, अब हम इन मुद्दों के आधार पर जो लोगों में हैं, उन विशिष्ट मुद्दों पर विस्तार से संगति करें जिन्हें लोगों को रुचियों, शौक और खूबियों के संबंध में समझना चाहिए।
क्या तुम लोगों ने ध्यान दिया है कि तुम लोगों में रुचियों, शौक और खूबियों के संबंध में कौन-सी भ्रामक या विकृत समझ हैं? क्या ऐसा है कि ज्यादातर मुद्दों के मामले में तुम लोग सिर्फ उसी हद तक समझते हो जहाँ तक मैं संगति करता हूँ और उसके बाद तुम न तो चिंतन करते हो और न ही कही गई बातों की तुलना अपने जीवन की चीजों से करते हो, फिर भी तुम लोगों को लगता है कि तुम सब कुछ समझते हो और मुद्दों को बहुत सरल मानते हो? सबसे पहले इस प्रश्न के बारे में सोचो : क्या रुचियों और शौक और खूबियों में कोई अंतर है? (हाँ।) क्या अंतर है? अगर तुम यह देख सकते हो कि इनमें अंतर है तो वे किस तरह से भिन्न हैं? (कोई रुचि या शौक होने का मतलब सिर्फ यह है कि व्यक्ति को एक विशेष चीज सच में पसंद है, इसका आवश्यक रूप से यह मतलब नहीं है कि व्यक्ति में उस क्षेत्र में कोई खूबी है।) अंतर के मुख्य बिंदू लगभग बता दिए गए हैं—यह करीब-करीब ऐसा ही है। मानवता के परिप्रेक्ष्य से रुचियों और शौक का मतलब है व्यक्ति की किसी विशेष प्रकार की विशेषीकृत गतिविधि या एक तरह की चीज में रुचि होना, उसका उस पर ध्यान देने या उसे करने का इच्छुक होना। यानी उसकी व्यक्तिगत पसंद का अपेक्षाकृत झुकाव उन चीजों की तरफ होता है जिनमें उसकी रुचि होती है और जिनके बारे में वह जुनूनी होता है। इस संबंध में पेशेवर कौशलों के प्रति उसकी बस जरा-सी पसंद नहीं होती है बल्कि उसकी उनमें बहुत ज्यादा रुचि होती है, जो पसंद या जूनून के उस स्तर को पार कर जाती है जो उसका आम चीजों के प्रति हो सकता है। रुचियाँ और शौक यही होते हैं। लेकिन उसकी जिस विशेषीकृत गतिविधि या चीज में रुचि होती है और जिसके बारे में वह जुनूनी होता है उसके प्रकार के संबंध में, उसकी काबिलियत के लिहाज से क्या वह उसमें निपुण होता है, क्या वह उसे अच्छी तरह से कर सकता है और वह उसे किस स्तर तक कर सकता है—इनमें से कुछ भी निश्चित नहीं है। इसलिए, रुचियों और शौक का मतलब वे चीजें हैं जिनमें लोगों की रुचि होती है और जिन्हें वे पसंद करते हैं, जिन चीजों में वे बार-बार शामिल होने को तैयार रहते हैं और दैनिक जीवन में जिन पर ध्यान देने और जिन्हें करने के लिए समय और ऊर्जा लगाने को तैयार रहते हैं। जहाँ तक यह प्रश्न है कि वे इन चीजों को कितनी अच्छी तरह से कर सकते हैं, तो यह उनकी काबिलियत और इस बात पर निर्भर करता है कि वे इनमें निपुण हैं या नहीं। मान लो कि यह कोई ऐसी चीज है जिसमें उनकी विशेष रूप से रुचि है और जिसके बारे में वे विशेष रूप से जुनूनी हैं और साथ ही वे इसमें निपुण भी हैं—यानी इस चीज में रुचि होने और इसके बारे में जुनूनी होने के अतिरिक्त वे इसे बहुत अच्छी तरह से कर भी सकते हैं, महत्वपूर्ण नतीजे भी हासिल कर सकते हैं और बड़ी-बड़ी उपलब्धियाँ भी प्राप्त कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में, इस रुचि और शौक में उनकी निपुणता औसत व्यक्ति से बेहतर होती है और उनकी ग्रहण क्षमता, सीखने की रफ्तार और इस क्षेत्र के सिद्धांतों पर पकड़ बनाने की उनकी रफ्तार औसत व्यक्ति से ज्यादा होती है। जब ऐसी अभिव्यक्तियाँ मौजूद होती हैं तब इसे खूबी होना कहा जाता है। दूसरे लोगों को स्वतंत्र रूप से कोई चीज अच्छी तरह से कर सकने से पहले औपचारिक, लंबे समय के पेशेवर प्रशिक्षण, शिक्षा, ज्ञान प्राप्ति और अभ्यास से गुजरने की और संबंधित पेशेवरों से मार्गदर्शन, अगुआई, जाँच, मानकीकरण और सलाह वगैरह-वगैरह प्राप्त करने की जरूरत पड़ सकती है। हालाँकि खूबियों वाले लोगों में पेशेवर प्रशिक्षण या व्यवस्थित शिक्षा से गुजरे बिना आमतौर पर उन पेशेवर कौशलों के बारे में एक विशेष स्तर का बोध होता है जिनमें वे निपुण होते हैं। उनके पास इस क्षेत्र में कुछ व्यावहारिक समझ, प्रायोगिक अनुभव या व्यक्तिगत उपलब्धियाँ होती हैं। और पेशेवर प्रशिक्षण से इस क्षेत्र में उनकी खूबी और भी ऊँचे स्तर तक पहुँच सकती है। संक्षेप में, खूबी होने का मतलब है उन चीजों में जिनमें व्यक्ति की रुचि है और जिसके बारे में वह जुनूनी है, बहुत ही निपुण होना और औसत व्यक्ति से आगे निकलना। “निपुण” होने का क्या मतलब है? (किसी विशेष क्षेत्र में खूबी होना, इन चीजों के बारे में अपेक्षाकृत जानकार होना और उन्हें सहज दक्षता से सँभालना।) किसी चीज में निपुण होना सिर्फ उसके बारे में जानकार होना नहीं है; बल्कि इसका मतलब इस क्षेत्र में असाधारण योग्यता और अपेक्षाकृत मजबूत जन्मजात प्रतिभा होना है। यहाँ तक कि दूसरों से संकेतकों के बिना भी वे ऐसी चीजें समझ सकते हैं जिन्हें दूसरे बूझ नहीं पाते हैं। और किसी प्रतिष्ठित शिक्षक से औपचारिक प्रशिक्षण या अनुदेशन को साथ मिलाकर वे इस क्षेत्र में और भी बेहतर कर सकते हैं। कोई खूबी होने की बात करते समय इसका मतलब होता है कि व्यक्ति किसी विशेष रुचि या शौक में विशेष रूप से मजबूत है और उस क्षेत्र में उसकी असाधारण योग्यता है। इस क्षेत्र में उसकी समझने की क्षमता, उसकी ग्रहण क्षमता और उसकी सीखने की क्षमता ये सभी असाधारण रूप से मजबूत हैं और वह इस पर बहुत जल्दी पकड़ बना लेता है। वह इस क्षेत्र में औसत व्यक्ति की तुलना में काफी निपुण होता है। कोई खूबी होने का यही मतलब है।
अब जब तुम समझते हो कि खूबियाँ क्या होती हैं तब आओ, हम रुचियों और शौक के बारे में बात करें। रुचियों और शौक, और खूबियों में क्या अंतर है? क्या रुचियाँ और शौक खूबियों के समान हैं? (वे समान नहीं हैं।) रुचियाँ और शौक खूबियों के समान क्यों नहीं हैं? (क्योंकि किसी चीज में रुचि होने का आवश्यक रूप से मतलब उसे अच्छी तरह से करने में समर्थ होना नहीं है और न ही आवश्यक रूप से इसका मतलब उसमें निपुण होना है; इसके अलावा इसका आवश्यक रूप से यह मतलब नहीं है कि व्यक्ति उस चीज को बहुत जल्दी समझ सकता है।) रुचियाँ और शौक होने का मतलब है कि तुम्हें चीजों की एक खास श्रेणी पसंद है, लेकिन वह तुम्हारी खूबी है या नहीं, यह बात तुम्हारी समझने की क्षमता, तुम्हारी सीखने की क्षमता और तुम्हारी ग्रहण क्षमता पर निर्भर करती है क्योंकि ये इस क्षेत्र से संबंधित हैं, और साथ ही यह बात तुम्हारी स्वाभाविक अभिक्षमता और तुम इसमें स्वाभाविक रूप से निपुण हो या नहीं, इस पर निर्भर करती है। अगर तुम इसमें निपुण हो तो यह तुम्हारी खूबी है। अगर तुम इसमें निपुण नहीं हो और यह सिर्फ तुम्हारी व्यक्तिगत पसंद है—एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें तुम्हारी रुचि है—लेकिन तुम्हारी काबिलियत कमजोर है और तुम्हारी स्वाभाविक अभिक्षमता में कमी है, मतलब कि इस रुचि और शौक के संबंध में तुममें समझने की क्षमता कम है, तुम इसमें बिल्कुल भी निपुण नहीं हो, इसे अनाड़ीपन से करते हो, तुममें कुशलता की कमी है और तुम इस क्षेत्र में कोई नतीजा हासिल नहीं करते हो तो यह क्षेत्र तुम्हारी खूबी नहीं है—यह तुम्हारे लिए सिर्फ रुचि और शौक के स्तर पर बना रहता है। यह सिर्फ तुम्हारी रुचि और शौक क्यों है, तुम्हारी खूबी क्यों नहीं है? क्योंकि तुम इसमें निपुण नहीं हो। उदाहरण के लिए, कुछ लोग कहते हैं, “मुझे सच में गायन पसंद है।” उन्हें यह कितना पसंद है? सुबह जिस पल उनकी आँख खुलती है तब से वे पॉप गाने चलाते रहते हैं; वे हर तरह के गाने सुनते हैं जिसमें विदेशी गाने, पश्चिमी और चीनी ऑपेरा भी शामिल हैं—वे ऐसी कोई भी चीज सुनना पसंद करते हैं जिसे संगीत माना जाता है। वे गाना भी चाहते हैं, लेकिन एक बड़ी समस्या है—वे स्वाभाविक रूप से सुर-बधिर होते हैं या इस क्षेत्र में बस उनमें कोई खूबी होती ही नहीं है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो कई वर्षों तक गायन का अध्ययन करने के बाद भी सही तकनीकें नहीं ढूँढ़ सकते हैं। वे नहीं जानते हैं कि सबसे मधुर तरीके से कैसे गाना है, अपने गायन को कैसे दिल को छू लेने वाला बनाना है या अपने गायन से अच्छे नतीजे कैसे हासिल करने हैं। वैसे तो बचपन से ही वे गायन पसंद करते हैं और यह उनकी रुचियों और शौक में से एक होता है, लेकिन अपनी जन्मजात स्थितियों की सीमाओं के कारण उनकी रुचि और शौक एक रुचि और शौक के स्तर तक ही बने रह सकते हैं—यह कोई खूबी नहीं है। उदाहरण के लिए, जब कोई गायन में निपुण व्यक्ति भजन सीखता है तब वह केवल तीन बार गाकर उसकी मुख्य धुन गा सकता है। और चार-पाँच बार गाने के बाद वह लगभग पूरा गाना गा सकता है। हालाँकि जो लोग गाने सुनने का आनंद लेते हैं लेकिन गायन में निपुण नहीं होते हैं, वे तीन बार सुनने के बाद भी हो सकता है कि सामान्य धुन को याद रखने में असमर्थ हों। यहाँ तक कि पाँच बार सुनने के बाद भी हो सकता है कि वे अब भी उसे गाने में असमर्थ हों और उन्हें लगातार बोल या शीट संगीत को देखने की जरूरत पड़े। जब वास्तव में गायन की बात आती है तब वे गाने का भाव नहीं समझ सकते या सही स्वर स्थान नहीं ढूँढ़ सकते। वे बोल याद रखने में भी विफल हो जाते हैं और कभी-कभी वे धुन से भी हट जाते हैं। इसके अलावा, अपेक्षाकृत भावपूर्ण गाने गाते समय वे भावनाओं की अभिव्यक्ति को कभी भी उचित रूप से नियंत्रित नहीं कर सकते हैं। दूसरे लोग कहते हैं कि उनका गायन सुनने में अप्रिय लगता है और आनंददायक नहीं होता है, लेकिन वे हतोत्साहित नहीं होते हैं या हार नहीं मानते हैं—वे फिर भी सीखने और गाने में लगे रहते हैं। यकीनन गायन एक व्यक्तिगत स्वतंत्रता और व्यक्तिगत अधिकार है; कोई उन पर प्रतिबंध नहीं लगा रहा है। लेकिन आज हम जिस बारे में संगति कर रहे हैं, वह रुचियों और शौक, और खूबियों में अंतर है। इन अभिव्यक्तियों को देखते हुए, उनकी रुचि और शौक कोई ऐसी चीज नहीं है जिसमें वे निपुण हों। तो हमें इस मामले के बारे में स्पष्ट रूप से संगति क्यों करनी होगी? लोगों को यह समझने में मदद करने के लिए कि उनकी रुचियाँ और शौक उनकी खूबियों के समान नहीं हैं। अगर तुम्हारी जन्मजात स्थितियों के सभी पहलुओं के आधार पर तुम किसी विशेष क्षेत्र में निपुण नहीं हो तो भले ही यह तुम्हारी रुचि और शौक हो, तुम्हारी जन्मजात स्थितियों की सीमाएँ यह तय करती हैं कि तुम्हारी रुचि और शौक तुम्हारी खूबी नहीं है। वैसे तो यह तुम्हें सच में पसंद है, इस हद तक कि तुम इससे अपने जीवन जितना ही प्रेम करते हो, लेकिन बदकिस्मती से यह बस वह है ही नहीं जिसमें तुम निपुण हो। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों को नृत्य करना सच में पसंद होता है। जब भी उन्हें संगीत सुनाई देता है तब उनका शरीर ताल और धुन के साथ हिलने-डुलने लगता है और हिलते-डुलते हुए वे बहुत ही खुशी महसूस करते हैं। हालाँकि उनके प्राकृतिक नैन-नक्श अच्छे नहीं हैं, उनका कद ज्यादा लंबा नहीं है, उनके हाथ-पैर विशेष रूप से लंबे नहीं हैं और उनकी शारीरिक बनावट भी विशेष रूप से आकर्षक नहीं है। कुल मिलाकर उनका नृत्य देखने में बहुत मोहक नहीं होता है। लेकिन उन्हें बस नृत्य करना पसंद है और कभी-कभी वे सार्वजनिक स्थानों पर या सड़क के किनारे पूरी तरह से आत्म-संतुष्टि से नृत्य करते हैं। राह चलते लोगों को यह बेतुका लगता है, फिर भी वे ऐसे नाचते हैं मानो आसपास कोई है ही नहीं, वे इस बात से पूरी तरह से बेपरवाह होते हैं कि दूसरे लोग उन्हें कैसे देखते हैं, मानो उन्हें बिल्कुल भी कोई जागरूकता न हो। वे इस हद तक इसके प्रति जुनूनी होते हैं। वैसे तो उन्हें लगता है कि वे बहुत अच्छी तरह से नृत्य करते हैं, लेकिन वास्तव में वे इसमें निपुण नहीं होते हैं। वे नृत्य के सार पर पकड़ नहीं बना सकते हैं और न ही उन्हें पता होता है कि नृत्य की कौन-सी गतियाँ उचित हैं, कौन-सी गतियाँ सुंदर हैं और कौन-सी गतियाँ भिन्न-भिन्न प्रकार की मानव भावनाओं को व्यक्त करने में बेहतर ढंग से समर्थ हैं। यानी वे नृत्य से संबंधित बहुत-से पहलुओं को सच में नहीं समझते हैं। यहाँ तक कि पेशेवर शिक्षक के मार्गदर्शन लेने और पेशेवर नृत्यशाला से प्रशिक्षण लेने पर भी वे अपनी जन्मजात काबिलियत के लिहाज से इसमें निपुण नहीं होते हैं और इसके सार पर पकड़ नहीं बना सकते हैं। इसलिए उनकी जन्मजात स्थितियों के सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए, नृत्य करना उन्हें पसंद तो है लेकिन वह ऐसा कुछ नहीं है जिसमें वे निपुण हैं। भले ही उन्हें यह सच में अच्छा लगता हो और वे इसके नशे में चूर हो जाते हों, कैमरे या दर्पण के सामने नृत्य करते समय अपनी खुद की गतियों और अंदाज की तारीफ करते हों, लेकिन अगर हम वास्तविक परिस्थिति को देखें तो वे नृत्य में निपुण नहीं होते हैं। दूसरे शब्दों में, नृत्य उनकी सिर्फ रुचि और शौक है, उनकी खूबी नहीं है।
कुछ लोगों को साहित्य सच में अच्छा लगता है। उन्हें लेख लिखना, कविता पाठ करना और लिखना अच्छा लगता है, उन्हें साहित्यिक मंच अच्छे लगते हैं और उन्हें उपन्यास और विभिन्न साहित्यिक कृतियाँ पढ़ना भी अच्छा लगता है, चाहे वे विदेशी हों या देशी, आधुनिक हों या शास्त्रीय—उन्हें ये सभी कृतियाँ अच्छी लगती हैं। उन्हें वे विभिन्न परिभाषिक शब्द और भाषा-शैलियाँ अच्छी लगती हैं जिनका लेखक अपनी साहित्यिक कृतियों में उपयोग करते हैं और उन्हें वे विभिन्न विचार भी अच्छे लगते हैं जिन्हें लेखक अपनी कृतियों में व्यक्त करते हैं। क्या यह उनकी रुचि और शौक है? (हाँ।) यह बिल्कुल स्पष्ट है कि यह उनकी रुचि और शौक है। व्यक्ति की जिस चीज में रुचि होती है, उसको अपने दिल और दिमाग में जो अच्छा लगता है, वह जन्मजात होता है—यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे वह जीवन में बाद में अर्जित करता है और यह उसके माता-पिता या परिवार द्वारा विकसित की गई चीज तो और भी कम है। कुछ लोग साहित्य पसंद करते हैं और उन्होंने कई साहित्यिक कृतियाँ पढ़ी होती हैं। कुछ लोगों ने विश्वविद्यालय में साहित्य का व्यवस्थित रूप से अध्ययन किया होता है। कुछ लोगों ने तो साहित्य के पेशेवर प्रोफेसर के रूप में भी कार्य किया होता है या वे साहित्य से संबंधित कार्यों और पेशों में संलग्न होते हैं, यहाँ तक कि वे लंबे समय से इन पेशों में होते हैं; उन्होंने अपना ज्यादातर जीवन अपनी रुचि और शौक से संबंधित मामलों को सँभालने में बिताया होता है; व्यावहारिक रूप से उनके जीवन के हर दिन में वह साहित्य शामिल होता है जिसमें उनकी रुचि होती है और जिसके बारे में वे जुनूनी होते हैं। लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि उनकी रुचि और शौक सही मायने में उनकी खूबी है? आवश्यक रूप से नहीं—तुम्हें यह देखना होगा कि क्या उनके पास साहित्य का ऐसा ज्ञान या ऐसे विचार और दृष्टिकोण हैं जो आम लोगों से बेहतर या विशिष्ट हैं। अगर साहित्य में उन्होंने जिस पर पकड़ बनाई है और जो बूझा है, वह सिर्फ वही है जो उन्होंने किताबों से सीखा है या जिसमें सिर्फ पारंपरिक सामान्य ज्ञान शामिल है जिसे कोई भी सीख सकता है और जिस पर कोई भी पकड़ बना सकता है तो इसे खूबी नहीं माना जा सकता है। उदाहरण के लिए, अगर तुम उन्हें कोई लेख लिखने के लिए कहते हो तो उसमें कोई व्याकरण-संबंधी त्रुटि नहीं होती है, उसमें विराम चिह्नों का सही ढंग से उपयोग किया गया होता है, अनुच्छेद अच्छी तरह से संरचित होते हैं और लेख की कुल मिलाकर संरचना काफी अच्छी होती है। यहाँ तक कि पूरे लेख में अलंकृत भाषा का भी बहुत उपयोग किया गया होता है। लेकिन इसमें एक समस्या है—जब किसी विशेष बात, किसी विशेष दृष्टिकोण या किसी विशेष कथानक को व्यक्त करने की बात आती है तब उनके पास अभिव्यक्ति की कोई अनूठी विधि नहीं होती है और न ही उनके पास अभिव्यक्ति की विशेष रूप से कलात्मक या चतुर विधियाँ होती हैं। ये गुण उनकी सभी साहित्यिक कृतियों में गैर-मौजूद होते हैं। यानी उनके लेख काफी अच्छी तरह से संरचित और बेहद पेशेवर दिखाई देते हैं जिनमें ध्यान से चुने हुए शब्द होते हैं, लेकिन उनमें विचारों और दृष्टिकोणों, परिघटनाओं या कथानकों को व्यक्त करने की वह अनूठी विधि नहीं होती है जो एक कुशल साहित्य वृत्तिक में होनी चाहिए। उनके ज्यादातर लेख अपेक्षाकृत औसत दर्जे के होते हैं। विचारों की अभिव्यक्ति का उनका ढाँचा और तरीका विशेष रूप से कठोर, कड़ा और हठधर्मी होता है; वे न तो नवोन्मेषी होते हैं और न ही अनूठे होते हैं, उनमें बुद्धिमत्ता और चतुराई की कमी होती है और उन्हें निश्चित रूप से सुरुचिपूर्ण नहीं माना जा सकता है। यह परिघटना क्या दर्शाती है? (वे लेखन में निपुण नहीं हैं और न ही उनमें इसके लिए कोई अभिक्षमता है।) वे लेखन में निपुण नहीं हैं और वे घटनाओं की पृष्ठभूमि या ऐसी कहानियों के मूलरूप के आधार पर लचीले ढंग से कहानियों की रचना नहीं कर सकते हैं। अंत में जब लोग उनके लेख और साहित्यिक कृतियाँ पढ़ते हैं तब वे सभी एक ही फॉरमूले पर बनी हुई नीरस और घिसी-पिटी लगती हैं। हम ऐसा क्यों कहते हैं कि वे नीरस और घिसी-पिटी लगती हैं? कुल मिलाकर उनके लेख काफी अच्छी तरह से संरचित, मानकीकृत और पेशेवर लगते हैं; जब तकनीकी पहलुओं की बात आती है तब औसत व्यक्ति को आलोचना करने के लिए कम चीजें मिलेंगी—यहाँ तक कि संरचना भी लगभग हमेशा एक जैसी ही होती है। वैसे तो वे साहित्यिक कृतियों के विभिन्न रूपों को सीख सकते हैं जिनमें विदेशी पद्य, गद्य और कथा लेखन शामिल हैं, लेकिन वे उन्हें अपनी साहित्यिक रचना के अनुसार ढालने या उपयोग करने में कभी सक्षम नहीं होते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके साहित्यिक कौशल और उपलब्धि का स्तर हमेशा रुचियों और शौक के स्तर पर ही बना रहेगा, वह कभी भी खूबी के स्तर तक नहीं पहुँचेगा। यह संभव है कि उन्हें साहित्य का बहुत ज्ञान हो, लेकिन उनके पास सच में कोई साहित्यिक उपलब्धि नहीं होती है। दूसरे शब्दों में, साहित्य में उनका कोई नवप्रवर्तन नहीं होता है, वे अपनी खुद की कोई प्रतिनिधिक रचना नहीं रच सकते हैं और उनमें अनूठे विचारों और दृष्टिकोणों, और अभिव्यक्ति के अनूठे तरीके की कमी होती है। इससे यह सिद्ध होता है कि साहित्य उनकी खूबी नहीं है। उनके पास साहित्य के बारे में शिक्षा और सामान्य ज्ञान सिर्फ इसलिए होता है क्योंकि इस क्षेत्र में उनकी रुचि और शौक है, लेकिन साहित्य में उनकी कोई खूबी नहीं होती है। देखो, बहुत से लोग किताबें पढ़ते हैं जिनमें विभिन्न साहित्यिक कृतियाँ शामिल होती हैं; बहुत से लोग साहित्य प्रेमी या साहित्य रचनाकार होने का दावा करते हैं, लेकिन साहित्य रचना में लगे लोगों में से कितने लोगों के पास सच में अपनी खुद की रचनाएँ हैं? कितने लोगों ने ऐसी साहित्यिक कृतियाँ लिखी हैं जो समय की कसौटी पर खरी उतर सकती हैं और उत्कृष्ट साहित्य बन सकती हैं? बहुत कम, है ना? इनमें से ज्यादातर लोगों में साहित्य में जरा-सी जन्मजात रुचि और जुनून होता है और बाद में वे पेशेवर स्कूलों में सीखते हैं, प्रशिक्षण लेते हैं और अभ्यास करते हैं और साहित्य से संबंधित कार्य स्वीकार करते हैं। वैसे तो वे साहित्य से संबंधित कार्य में लगे रहते हैं जिससे ऐसा संकेत मिलता प्रतीत हो सकता है कि यह रुचि और शौक जीवन भर उनके साथ रहने में समर्थ है, लेकिन इस क्षेत्र में कार्य करते हुए वे कितनी पूर्ण कृतियाँ रचते हैं, वे कितने योगदान देते हैं और उनकी कितनी मौलिक रचनाएँ हैं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि साहित्य में उनमें कोई खूबी है या नहीं। बहुत से लोग ऐसे पेशे में लग जाते हैं जो उन्हें अच्छा लगता है और जिसके बारे में वे जुनूनी होते हैं और उससे वे आजीविका या कुछ लाभ हासिल करते हैं, लेकिन उन्हें इस पेशे में अच्छे नतीजे नहीं मिलते हैं। यह इस बात को साबित करने के लिए काफी है कि उन्हें जो पेशा अच्छा लगता है और जिसके बारे में वे जुनूनी हैं, वह उनकी खूबी नहीं है। दूसरी तरफ, कुछ लोग अपनी रुचियों और शौक से संबंधित पेशे में नहीं होने के बावजूद वास्तविक उपलब्धियाँ हासिल करने में समर्थ होते हैं क्योंकि यह उनकी खूबी है। उदाहरण के लिए, ऐसे कुछ आविष्कारक हैं जिन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्ट योगदान दिए हैं, जिन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में अपनी अनूठी शैलियों की शुरुआत की है और वे विभिन्न क्षेत्रों में मुख्य हस्तियाँ रहे हैं वगैरह-वगैरह। इसलिए इन स्थितियों को देखते हुए, रुचियाँ और शौक होने का आवश्यक रूप से मतलब उन क्षेत्रों में खूबी होना नहीं है। हालाँकि कुछ लोग रुचियों और शौक, और खूबियों के बीच संबंध का भेद नहीं पहचान सकते हैं। उन्हें लगता है कि उनकी रुचियाँ और शौक उनकी खूबियाँ हैं, लेकिन जिस क्षेत्र में उनकी रुचि है और जिसके बारे में वे जुनूनी हैं उसमें बहुत सारे वर्षों तक लगे रहने के बाद भी उन्हें सच में कोई नतीजा नहीं मिलता है। इन चीजों पर स्पष्टता हासिल करने के बाद लोगों को अपनी रुचियों और शौक, और अपनी खूबियों से कैसे पेश आना चाहिए? यह बहुत आसान है—उन्हें उनसे सही ढंग से पेश आना चाहिए। अगर परमेश्वर का घर यह चाहता है कि तुम किसी ऐसे विशेष क्षेत्र में कोई कर्तव्य करो जिसमें तुम्हारी रुचियों और शौक से संबंधित पेशेवर ज्ञान, कौशल या प्रतिभाएँ शामिल हैं तो तुम्हें उससे कर्तव्य करने के सिद्धांतों के अनुसार पेश आना चाहिए—तुम्हें न तो उसे अस्वीकार करना चाहिए, न बड़े-बड़े विचार बोलने चाहिए और न ही उतावला होना चाहिए। अगर यह कोई ऐसी चीज है जिसमें तुम निपुण नहीं हो, यह तुम्हारी क्षमता से परे कोई चीज है जिसे तुम नहीं कर सकते हो तो नकारात्मक मत बनो और न ही परमेश्वर के बारे में शिकायत करो; तुम्हें इससे सही ढंग से पेश आने में समर्थ होना चाहिए। इससे सही ढंग से पेश आने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि अगर तुम्हें लगता है कि इस क्षेत्र में तुम्हारी रुचियाँ और शौक अनूठे हैं, लेकिन इससे संबंधित कार्य को करते समय तुम कभी भी परमेश्वर के घर की अपेक्षाएँ पूरी नहीं कर पाते हो और न ही तुम कभी परमेश्वर के घर द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों को प्राप्त कर पाते हो तो तुम जो कुछ भी हासिल कर सकते हो तुम्हें वह हासिल करना चाहिए। परमेश्वर कभी भी मछलियों को जमीन पर रहने या सूअरों को उड़ने को मजबूर नहीं करता है। परमेश्वर जानता है कि तुम कितना हासिल कर सकते हो और तुम कितना भार उठा सकते हो। ज्यादा अनुभव होने पर तुम्हें भी यह पता चल जाएगा। वास्तविक हालातों और अपनी जन्मजात स्थितियों के आधार पर तुम जितना हासिल करने में समर्थ हो उतना हासिल करो—अपने लिए चीजों को मुश्किल मत बनाओ। अगर तुम सक्षम हो तो खुद को रोककर मत रखो; अगर तुम सक्षम नहीं हो तो नकारात्मक मत बनो या खुद को अपनी क्षमता से परे जाने के लिए मजबूर मत करो—इससे सही ढंग से पेश आओ।
तुम्हें परमेश्वर में विश्वास रखते हुए इतने सारे वर्ष हो गए हैं और तुममें से ज्यादातर लोगों को अपना कर्तव्य करते हुए तीन वर्षों से भी ज्यादा समय हो गया है—यह सिर्फ एक-दो वर्षों की बात नहीं है कि तुम परमेश्वर के घर में एक विशेष कर्तव्य कर रहे हो। तो तुम जो कर्तव्य करते हो या जो विशेष पेशेवर कार्य करते हो, उसके संबंध में, क्या तुम इस बारे में अपने दिल में स्पष्ट हो कि तुम कितना प्राप्त कर सकते हो, किस स्तर तक पहुँच सकते हो और तुम अपनी क्षमताओं का कितना और किस हद तक उपयोग कर सकते हो? (हाँ।) तुम इन सब के बारे में लगभग स्पष्ट हो। कुछ लोग अभी तक किसी विशेष कर्तव्य में प्रवीणता तक नहीं पहुँचे हैं क्योंकि उन्होंने बहुत कम अभ्यास किया है। हालाँकि दूसरे लोग बहुत सारे वर्षों से यह कार्य कर रहे हैं और उन्होंने बहुत सारा अभ्यास किया है, लेकिन फिर भी वे परमेश्वर के घर द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। वे इस क्षेत्र में बहुत निपुण नहीं हैं। वैसे तो उन्हें यह कर्तव्य करना सच में अच्छा लगता है और वे इस कर्तव्य को करने के बारे में जुनूनी हैं और इसे करके सम्मानित और खुश महसूस करते हैं, लेकिन वे इसमें बस निपुण नहीं हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर के घर की अपेक्षाएँ क्या हैं, वे उन्हें किसी भी तरह से पूरी नहीं कर सकते। ऐसा नहीं है कि वे विद्रोही और उद्दंड हैं और न ही ऐसा है कि वे अपने हिस्से की जिम्मेदारी पूरी नहीं करते हैं; बल्कि ऐसा है कि उनकी जन्मजात स्थितियाँ इसे हासिल नहीं कर सकती हैं और उनकी जन्मजात स्थितियों की सीमाएँ हैं। तो फिर क्या किया जाना चाहिए? बस चीजों को अपने ढर्रे पर चलने दो—नकारात्मक मत बनो, कमजोर मत बनो और न ही शिकायत करो या अपने दिल में यह महसूस करो कि यह अन्यायपूर्ण है। कुछ लोग कहते हैं, “मुझे नृत्य करना अच्छा लगता है, लेकिन मैं नृत्य करने में पैदाइशी अनाड़ी हूँ और मैं आकर्षक नहीं हूँ। मैं नृत्य कर्तव्य करना चाहता हूँ लेकिन नहीं कर सकता। तो फिर मुझे क्या करना चाहिए? मैं सच में नृत्य करना चाहता हूँ।” नृत्य करने की तुम्हारी इच्छा तुम्हारी व्यक्तिगत इच्छा और तुम्हारी पसंद है, लेकिन क्या परमेश्वर को तुम्हारी पसंदें पूरी करनी ही पड़ेंगी? नहीं करनी पड़ेंगी। परमेश्वर के घर के सिद्धांत हैं जिनकी वह अपेक्षा करता है और उसकी शर्तें हैं। कौन-सा व्यक्ति कौन-सा कार्य करेगा, इसका चयन सिद्धांतों पर आधारित होता है। तुम अपनी व्यक्तिगत इच्छा, व्यक्तिगत पसंद या व्यक्तिगत मिजाज के आधार पर जबरन यह माँग नहीं कर सकते कि परमेश्वर का घर तुम्हें संतुष्ट करे—यह अनुचित है। अगर तुम इस क्षेत्र में कर्तव्य करने के लिए उपयुक्त नहीं हो तो अपने दिल में चुपचाप उन लोगों के लिए आशीषों की कामना करो जो इस क्षेत्र में कर्तव्य कर सकते हैं। तुम जो भी कर सकते हो, बस वह करो या तुम पर्दे के पीछे के गुमनाम कार्यकर्ता बन सकते हो—मार्गदर्शन और जाँच में मदद कर सकते हो, नृत्य वीडियो के पूर्वाभ्यास या प्रोडक्शन के बाद के संपादन में मदद कर सकते हो, विभिन्न सामग्रियाँ खोजने में मदद कर सकते हो या सत्य की तलाश करने में मदद कर सकते हो। ऐसे बहुत सारे कार्य हैं जो विभिन्न क्षेत्रों में किए जा सकते हैं और तुम्हारी रुचियों और शौक से संबंधित कार्य का दायरा व्यापक है। तुम्हें आवश्यक रूप से पर्दे पर होने वाला व्यक्ति होने की जरूरत नहीं है—तुम पर्दे के पीछे का कार्य अंशकालिक रूप से भी स्वीकार सकते हो। यह भी अपना कर्तव्य करना है। इस तरीके से तुम अपना कर्तव्य करने के जरिए अपनी व्यक्तिगत कामनाएँ भी पूरी करते है और परमेश्वर को संतुष्ट करने के सिद्धांत और मानक पर भी खरे उतरते हो—यह कितना बढ़िया है! क्या यह एक तीर से दो शिकार करना नहीं है? (हाँ।) चूँकि परमेश्वर ने तुम्हारी जन्मजात स्थितियों के हिस्से के रूप में तुम्हें इस क्षेत्र में खूबियाँ नहीं दी हैं, इसलिए तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं है। तुम सिर्फ इस कारण से शिकायत नहीं कर सकते, बड़बड़ा नहीं सकते या नाराजगी नहीं रख सकते कि तुममें इस क्षेत्र में जन्मजात रूप से कमी है और तुम इस क्षेत्र में प्रतिभा चयन के लिए परमेश्वर के घर के मानक को पूरा नहीं कर सकते, और फिर तुम इस क्षेत्र में कर्तव्य करने के अनिच्छुक नहीं हो सकते, यहाँ तक कि परमेश्वर का घर तुमसे इसे करने की अपेक्षा करता है, तो फिर तुम इसे करने से इनकार नहीं कर सकते—ऐसा करना अनुचित है। यह कर्तव्य करने का सही रवैया नहीं है। तुम जो भी कर सकते हो, बस उसे करो। तुम इसे करने से इनकार नहीं कर सकते, यहाँ तक कि परमेश्वर का घर तुमसे इसे करने की अपेक्षा करता है, तो फिर तुम सिर्फ इसलिए इसे करने से इनकार नहीं कर सकते क्योंकि तुम इसके लिए उपयुक्त नहीं हो या इसमें निपुण नहीं हो। ऐसा करके तुम अपना कर्तव्य नहीं कर रहे हो—तुम अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं को पूरा कर रहे हो और अपना खुद का उद्यम चला रहे हो। तुम अपना कर्तव्य परमेश्वर के प्रति समर्पण के रवैये से नहीं कर रहे हो और न ही परमेश्वर के प्रति सच्चाई और वफादारी के रवैये से कर रहे हो। यह अनुचित है। यह ऐसी चीज है जो लोगों को समझनी चाहिए। एक चीज तो यह है कि रुचियों, शौक और खूबियों को सही ढंग से समझो; इसके अलावा रुचियों, शौक और खूबियों से सही ढंग से पेश आओ।
कुछ लोगों को लेख लिखना और साहित्य से संबंधित कार्य करना अच्छा लगता है। वे हमेशा लेखों को सुधारना और प्रूफरीडिंग करना चाहते हैं, हर रोज लेखों के साथ कार्य करना चाहते हैं। हालाँकि कई कारणों से—व्यक्तिपरक कारणों से भी और वस्तुनिष्ठ कारणों से भी—वे इस कार्य के लिए उपयुक्त नहीं होते हैं। एक चीज तो यह है कि साहित्य के क्षेत्र में उनके पास आधारभूत ज्ञान की कमी होती है; दूसरी चीज यह है कि उनकी काबिलियत अपेक्षाकृत खराब होती है और उनमें समझने की क्षमता नहीं होती है। इसलिए, भले ही वे साहित्य के बारे में जुनूनी हों और कई वर्षों तक अभ्यास करते रहें, फिर भी वे लेखन क्षमता प्राप्त करने के मानक तक नहीं पहुँच सकते हैं। हालाँकि परमेश्वर का घर यह अपेक्षा करता है कि पाठ आधारित कार्य में जुटने के लिए लोगों में कम-से-कम मूलभूत काबिलियत हो। अगर उनकी काबिलियत पाठ आधारित कार्य करने के लिए उपयुक्त नहीं है और यहाँ तक कि उनके द्वारा लेखों को सुधारना और प्रूफरीडिंग करना भी मानक के अनुरूप नहीं हैं तो वे सिर्फ कोई दूसरा कर्तव्य ही चुन सकते हैं। हो सकता है कि वे कुछ सामान्य मामलों वाले कार्य करने या कुछ सामग्री इकट्ठा करने के लिए बस किसी तरह उपयुक्त हों। संक्षेप में, अपने दिल में उन्हें जो पाठ आधारित कार्य अच्छा लगता है, वह ऐसा कुछ है जिसे वे नहीं कर सकते हैं—भले ही उन्हें पाठ आधारित कार्य करने से बरखास्त न किया जाए, वे सिर्फ कुर्सियाँ ही तोड़ेंगे और उन्हें कोई वास्तविक नतीजा नहीं मिलेगा। लोगों को ऐसा मामला शुद्ध तरीके से कैसे समझना चाहिए? (उन्हें परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना और विवेकी होना सीखना चाहिए।) यह सामान्य दिशा है—लोगों को विशिष्ट रूप से कैसे अभ्यास करना चाहिए? अगर यह कोई ऐसा व्यक्ति है जिसमें विकृतियों की संभावना है तो वह कहेगा, “हर कोई कहता है कि रुचियाँ और शौक परमेश्वर द्वारा दिए जाते हैं, वे जन्मजात स्थितियाँ हैं। चूँकि परमेश्वर ने मुझे यह रुचि और शौक दिया है, तो निश्चित रूप से परमेश्वर ने मुझे इससे संबंधित कार्य में जुटने के लिए नियत किया है। चूँकि यह परमेश्वर द्वारा नियत किया गया है, तो परमेश्वर के घर में इस रुचि और शौक से संबंधित कार्य मुझे दिया जाना चाहिए—इसमें मुझे हिस्सा मिलना चाहिए। अगर मुझे यह कार्य करने के लिए नहीं कहा जाता है तो यह लोगों के साथ समस्या है—इसका मतलब है कि लोग मुझे नीची नजर से देखते हैं, इसका मतलब है कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं को नहीं पता कि लोगों का आकलन कैसे करना है। इधर मैं हूँ, एक गुणी व्यक्ति, लेकिन यहाँ कोई भेद पहचानने वाला प्रतिभा का पारखी नहीं है, जो मेरी प्रतिभा पहचान सके! मुझे साहित्य बहुत ही पसंद है और मैं इसमें सच में निपुण हूँ—लेखों को सुधारना मेरे लिए बहुत ही ज्यादा आसान है। मुझे सुसमाचार का प्रचार करने या शारीरिक श्रम करने के लिए भेजना—क्या यह अखरोट तोड़ने के लिए हथौड़े का उपयोग करना नहीं है? क्या यह प्रतिभाशाली व्यक्ति को बरबाद करना नहीं है? क्या यह सोने को मिट्टी में मिला देने जैसा नहीं है? मैं कुछ नहीं कर सकता—नीची छत के तले सिर झुकाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं होता! लेकिन एक कहावत है : सच्चा सोना अंततः चमकता ही है। बस प्रतीक्षा करनी होगी—शायद परमेश्वर मेरा शोधन कर रहा है, मेरी परीक्षा ले रहा है। एक दिन मैं निश्चित रूप से उस कार्य में जुट जाऊँगा जो परमेश्वर ने मेरे लिए नियत किया है, वह कार्य जो मेरी रुचि से संबंधित है। अच्छी चीजें प्रतीक्षा करने लायक होती हैं। जब तुम सब लोग हटा दिए जाओगे तब वही मेरे चमकने का समय होगा—तभी वह समय होगा जब मुझे अपने कौशलों का उपयोग करने का मौका मिलेगा! जैसे कि कहावत है, ‘सज्जन के बदला लेने में देर क्या और सबेर क्या’ और ‘जहाँ जीवन है वहाँ आशा है।’” तुम इन दृष्टिकोणों के बारे में क्या सोचते हो? ये गलत हैं, है ना? ऐसे लोग निश्चित रूप से ख्याली पुलाव पका रहे हैं और यहाँ तक कि दीर्घकालिक योजनाएँ भी बना रहे हैं, लेकिन उनमें वास्तव में वास्तविक क्षमता है या नहीं, यह अज्ञात है। कुछ लोग तो यह तक महसूस करते हैं कि उनके साथ अन्याय हुआ है और कहते हैं, “मैं स्वाभाविक रूप से गुणी साहित्यिक प्रतिभा हूँ, लेकिन फिर भी मुझे शारीरिक श्रम करने के लिए भेज दिया गया है जहाँ मैं दिन भर कीचड़ में सना रहता हूँ। और मैं इस बारे में किससे गुहार लगा सकता हूँ? मैं कुछ नहीं कर सकता—परमेश्वर ने इसी तरीके से इसकी योजना बनाई है। मेरे पास क्या विकल्प है?” दरअसल प्रूफरीडिंग टीम पहले ही उनकी परीक्षा ले चुकी है और उनकी लेखन क्षमता अपर्याप्त है। उनके पास कोई साहित्यिक आधार नहीं है, यहाँ तक कि वे सही विराम चिह्नों का भी उपयोग नहीं करते हैं। जहाँ वाक्य को तोड़ना चाहिए या विराम देना चाहिए, वहाँ वे अल्पविराम का उपयोग करते हैं। फिर भी वे खुद को साहित्यिक प्रतिभा के धनी मानते हैं, उनका विश्वास है कि शारीरिक श्रम करना प्रतिभा की बरबादी है। उनके दिल शिकायतों से भरे हुए हैं : “मैं साहित्य के प्रति प्रेम के साथ पैदा हुआ था। बचपन में मुझे कहानियों की किताबें पढ़ना पसंद था। जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ, मैं प्रसिद्ध लोगों की कृतियाँ पढ़ना पसंद करने लगा। मैंने देशी लेखकों की भी और विदेशी लेखकों की भी कई उत्कृष्ट साहित्यिक कृतियाँ पढ़ी हैं; मैंने नाटक, गद्य, पद्य सहित सभी विधाओं से बहुत सारी कृतियाँ पढ़ी हैं। पाठ आधारित कार्य करना मेरे लिए बहुत आसान है; लेख लिखना मेरे लिए बच्चों का खेल है। लेकिन अब मुझे देखो—मुझे गंदा, थका देने वाला श्रम करने को मजबूर कर दिया गया है। साहित्य के प्रति मेरा प्रेम जो मेरे आधे जीवन मेरे साथ रहा है, उसको परमेश्वर के घर में नकार दिया गया है। जीवन भर मैंने जो सारा ज्ञान इकट्ठा किया है, उसका परमेश्वर के घर में कोई उपयोग नहीं हुआ है—मेरे साहित्यिक करियर का अंत हो गया है! मुझे सोचा करता था कि परमेश्वर का घर वह जगह है जहाँ सत्य के पास शक्ति होती है, जहाँ निष्पक्षता और धार्मिकता के पास शक्ति होती है। मेरे जैसे व्यक्ति को—एक महान प्रतिभा को, एक साहित्य प्रेमी को—दुनिया में नजरअंदाज कर दिया गया और नीची नजर से देखा गया, मुझे अपने कौशल उपयोग में लाने का कोई मौका नहीं मिला। मैंने सोचा था कि परमेश्वर के घर में मैं अपने बचे हुए प्रयास लगा पाऊँगा। जोश से भरपूर मैंने प्रूफरीडिंग टीम के लिए साइन अप किया और सिर्फ यही पाया कि मेरा चयन नहीं हुआ है। जरा मुझे देखो—मैं जो यहाँ खड़ा हूँ, कौन कह सकता है कि मैं एक साहित्य प्रेमी हूँ, एक साहित्यिक प्रतिभा हूँ? इस गंदे, थका देने वाले श्रम के कारण मेरी सारी स्वाभाविक साहित्यिक प्रतिभा मिट चुकी है। अब मेरे मुँह से जो चीजें निकलती हैं वे सिर्फ अशिष्ट और गँवारू शब्द ही होते हैं।” वे अपने दिलों में बहुत दुखी महसूस करते हैं। वैसे तो वे जोर से कहते हैं कि वे परमेश्वर के आयोजन के प्रति समर्पण करते हैं और परमेश्वर का घर उनसे जो भी करने को कहेगा, वे करेंगे, लेकिन अपने दिलों में उनके पास गलत आत्म-मूल्यांकन होता है, उन्होंने गलती से अपनी रुचियों और शौक को अपनी खूबियाँ मान ली हैं, उन्हें कुछ ऐसा मान लिया है जो परमेश्वर के उपयोग के लिए उपयुक्त है, उन्हें अपनी जगह नहीं मिली है, उन्होंने अपनी वास्तविक स्थिति को नहीं पहचाना है, वे अपना खुद का माप नहीं जानते हैं और उन्हें यह नहीं मालूम कि क्या उनकी रुचियाँ और शौक वास्तव में वही हैं जिनमें वे निपुण हैं—वे इन सब बातों के बारे में अस्पष्ट और अनजान हैं, लेकिन फिर भी वे साहित्यिक प्रतिभा के धनी होने का दावा करते हैं, बस खुद को साहित्यिक गुरु पुकारने से रह जाते हैं। इसका अंतिम नतीजा क्या होता है? (वे कलीसिया की व्यवस्थाओं के बारे में शिकायतों से भरे होते हैं और अपने दिलों में समर्पण करने के अनिच्छुक होते हैं।) अपने दिलों में उन्हें लगातार लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है। वैसे तो अपना कर्तव्य करते समय वे कामचोरी नहीं करते हैं और पूरी मेहनत कर सकते हैं—बस मुश्किल से समर्पण करते हैं—लेकिन अपने गलत आत्म-मूल्यांकन के कारण उन्हें लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है। उनके मन में एक विचार बार-बार कौंध उठता है : “दुनिया में तेज घोड़े तो बहुत सारे हैं, लेकिन घोड़ों के पारखी लोग थोड़े-से हैं।” कौन-से तेज घोड़े? घोड़ों के कौन-से पारखी लोग? चूँकि किसी खास क्षेत्र में उनकी जरा-सी रुचि और जूनून होता है और बाद में वे उसका सुव्यवस्थित रूप से अध्ययन करते हैं, इसलिए वे खुद को बेमिसाल समझते हैं, खुद को “तेज घोड़ा” समझते हैं और मानते हैं कि वे प्रतिभाशाली हैं। क्या यह आत्म-जागरूकता की कतई कमी नहीं है? वे बस यही मानते हैं कि रुचियाँ और शौक परमेश्वर द्वारा दिए गए हैं लेकिन वे यह पहचानने में विफल हो जाते हैं कि परमेश्वर ने उन्हें क्या काबिलियत दी है। वे इस बारे में अस्पष्ट होते हैं कि क्या वे वास्तव में उन चीजों में निपुण हैं जिनमें उनकी रुचि है और जिनके बारे में वे जुनूनी हैं और क्या वे वास्तव में अपनी रुचियों और शौक से संबंधित कार्य और कर्तव्य अच्छी तरह से कर सकते हैं, क्या वे उनमें योग्य हैं और क्या वे उनकी जिम्मेदारी उठा सकते हैं। वे इस बारे में अस्पष्ट हैं और इस बारे में नहीं जानते हैं। क्या यह बहुत परेशानी वाली बात नहीं है? (हाँ।) क्योंकि वे अपनी जगह पहचान नहीं सकते या ढूँढ़ नहीं सकते, इसलिए उन्हें लगता है कि उनके साथ बहुत अन्याय हुआ है। वे बाहर से क्या प्रदर्शित करते हैं? वे अक्सर आहें भरते हैं और परमेश्वर के सामने बार-बार अपना संकल्प व्यक्त करते हैं, यह उम्मीद करते हैं कि एक दिन परमेश्वर उनके लिए एक अवसर बनाएगा, उनकी शिकायतों का निवारण करेगा, उनके लिए न्याय कायम रखेगा और उन्हें अपनी रुचियों और शौक से संबंधित कर्तव्य करने की उनकी कामना पूरी करने की अनुमति देगा। वह गीत देखो जिसे वे अक्सर गाते हैं : “मैं आगे के मार्ग के बारे में नहीं सोचता।” अगली पंक्ति क्या है (“मेरा एकमात्र परम कर्तव्य परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चलना है।”) जिनके पास वास्तव में यह आध्यात्मिक कद है, जिनके पास वास्तव में यह वास्तविकता है और जो सही मायने में परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चलने में समर्थ हैं, उनके लिए यह गीत गाना पूरी तरह से उपयुक्त है—यह बिल्कुल उचित है। लेकिन जब इस तरह का व्यक्ति यह गीत गाता है तब उसकी भावनात्मक अवस्था क्या होती है? वह इसे किस स्थिति में गा रहा होता है? (जब वह शिकायत कर रहा होता है और उसे लगता है कि उसके साथ अन्याय हुआ है।) तो जब वह गाता है तब क्या वह जो गाता है वह आक्रोश से भरा नहीं होता है? (हाँ।) वह जो गाता है वह शिकायतों, उद्दंडता और असंतोष से भरा होता है—यह दुख और आक्रोश के सिवाय और कुछ नहीं होता। जिस समय तुम उसे यह गीत गाते हुए सुनते हो यह वही समय होता है जब वह सबसे ज्यादा उदास होता है। चीन में एक कहावत है—वह क्या है? “पुरुष गाकर दुख व्यक्त करते हैं, महिलाएँ रोकर दुख व्यक्त करती हैं और बूढ़ी दादी-नानी निरर्थक चीजें बड़बड़ाकर दुख व्यक्त करती हैं।” देखो, विभिन्न प्रकार के लोग अपना दुख विभिन्न तरीकों से व्यक्त करते हैं। कुछ महिलाएँ जब ऐसी परिस्थिति का सामना करती हैं तब वे बस रोती रहती हैं, चुपके-चुपके लगातार अपने आँसू पोंछती रहती हैं। वे इसे जाने नहीं दे सकती और हर बार जब वे इसके बारे में सोचती हैं तब उनकी आँखें आँसुओं से लाल हो जाती हैं और उनके दिलों को यह महसूस होता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है और वे व्यथित महसूस करती हैं। वे इस मामले को सही तरीके से बस सँभाल ही नहीं पाती हैं। दरअसल यह बहुत ही सरल मामला है—रुचियाँ और शौक, और खूबियाँ सहज रूप से दो अलग-अलग चीजें हैं। अगर तुममें कोई विशेष खूबी है, चाहे वह तुम्हारी रुचि और शौक ही क्यों न हो, तो तुम उस खूबी से संबंधित कार्य के लिए बहुत अच्छी तरह से उपयुक्त हो—यानी तुम्हारी जन्मजात काबिलियत, प्रतिभा या योग्यता तुम्हें उस विशेष चीज को करने में निपुण बनाती है और तुम उसे अच्छी तरह से कर सकते हो—ऐसे में जब तुम वह कार्य करते हो तब तुम कुछ निश्चित नतीजे हासिल कर सकते हो और वह तुम्हारे द्वारा किए जाने के लिए अपेक्षाकृत उपयुक्त होता है। लेकिन अगर तुम्हारी इस क्षेत्र में सिर्फ रुचि और शौक है और इसमें तुम्हारी कोई खूबी नहीं है तो जरूरी नहीं कि तुम उसे अच्छी तरह से कर सको। यह बहुत ही सरल मामला है। लोगों की जिद और विकृत समझ, और साथ में उनकी बेवकूफी और अनाड़ीपन के कारण जब वे उस कार्य को करने में असमर्थ होते हैं जिसमें उनकी रुचि है तो वे हतोत्साहित, हताश और नकारात्मक हो जाते हैं और शिकायत करते हैं, वे सभी तरह की नकारात्मक भावनाओं से लबालब भरे होते हैं। इसलिए, लोगों के लिए अपनी रुचियों, शौक और खूबियों की वास्तविक स्थिति को समझना बहुत जरूरी है। जैसे ही वे समझ जाएँ, उन्हें उनसे सही ढंग से पेश आना होगा—यह एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि उन्हें परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना होगा और परमेश्वर के घर द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य पूरा करना होगा। अगर परमेश्वर का घर तुमसे किसी विशेष क्षेत्र में तुम्हारा कर्तव्य करने की अपेक्षा करता है, लेकिन तुम कार्य के इस क्षेत्र में निपुण नहीं हो, तुम्हारी उसमें सिर्फ रुचि है और तुम उसके बारे में सिर्फ जुनूनी हो और उस कार्य को करने के शौकीन हो और फिर भी परमेश्वर के घर द्वारा अपेक्षित निम्नतम मानक के अनुसार तुम उसके लिए मुश्किल से योग्य हो सकते हो तो तुम्हें समर्पण करना चाहिए और अपनी जिम्मेदारी पूरी करने का प्रयास करना चाहिए—इनकार करने या ठुकराने के लिए सभी प्रकार के वस्तुनिष्ठ बहाने मत ढूँढ़ो। यकीनन अगर विभिन्न क्षेत्रों में तुम्हारी जन्मजात स्थितियाँ सीमित हैं या तुम्हारी कुछ वास्तविक समस्याएँ हैं और परमेश्वर का घर तुम्हें इस क्षेत्र में कर्तव्य करने की अनुमति नहीं दे सकता है तो तुम्हें शिकायतें नहीं होनी चाहिए और न ही तुम्हें नकारात्मक या कमजोर होना चाहिए। तुम जो भी कर सकते हो, बस उसे करो। जहाँ तक तुम्हारी रुचियों और शौक का प्रश्न है, उन्हें अपने लिए रखो—कलीसिया के लोग दखलंदाजी नहीं करेंगे और न ही वे तुमसे कुछ चीजों में रुचि रखने या उनके बारे में जुनूनी होने का अधिकार छीनेंगे। वह तुम्हारा निजी मामला है। हालाँकि जब कर्तव्य करने की बात आती है तब तुम्हें अपनी रुचियों, शौक और खूबियों से संबंधित सभी विभिन्न मुद्दों को स्पष्ट रूप से समझना होगा और तुम्हें उन सभी से सही ढंग से पेश आने में समर्थ होना होगा—यह सबसे महत्वपूर्ण चीज है। तुम समझ रहे हो? (हाँ।)
बहुत-से लोगों की किसी विशेष क्षेत्र में रुचियाँ और शौक होते हैं। ऐसे भी कुछ लोग होते हैं जिनकी कोई रुचि या शौक नहीं होता है। यानी जब किसी भी पेशे या प्रकार की विशिष्ट गतिविधियों की बात आती है या उन विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों की बात आती है जिनके संपर्क में दुनिया में लोग बार-बार आते हैं तब उनकी कोई विशेष रुचि या शौक नहीं होता है—वे बस आम लोग हैं। उदाहरण के लिए, अगर कोई उनसे पूछता है कि क्या वे साहित्य के बारे में जुनूनी हैं, क्या वे आमतौर पर डायरी लिखते हैं या लेख लिखते हैं तो वे कहते हैं, “मैं इसके बारे में जुनूनी नहीं हूँ और न ही मैं इसमें निपुण हूँ। जैसे ही मैं पढ़ना-लिखना शुरू करता हूँ, मुझे सिरदर्द होने लगता है।” अगर उन्हें कुछ सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक कृतियाँ पढ़ने को दी जाती हैं तो उन्हें वे बोझिल लगती हैं और वे अपने दिलों में पूरी तरह से अनिच्छुक होते हैं। कुछ तो यहाँ तक कहते हैं, “हर समय पाठ को घूरते रहने से मेरी आँखों पर जोर पड़ता है और मैं बूढ़ा हो जाता हूँ, इसलिए मुझे साहित्य पसंद नहीं है।” अगर तुम उनसे पूछते हो कि क्या उन्हें नृत्य करना पसंद है तो वे कहते हैं, “नृत्य कोई उचित काम नहीं है, यह तो लोग तब करते हैं जब वे निठल्ले होते हैं और जब उनके पास करने के लिए कुछ बेहतर नहीं होता है। मुझे नृत्य करना पसंद नहीं है।” देखो, वे इसे पसंद नहीं करते हैं और इसके लिए एक कारण भी ढूँढ़ लेते हैं, और कहते हैं कि यह उचित काम नहीं है। दूसरे लोग परमेश्वर की स्तुति करने के लिए नृत्य करते हैं—यह कितनी सकारात्मक चीज है! परमेश्वर की स्तुति करने के लिए गीत गाना, नृत्य करना, वीणा और सारंगी बजाना—यह प्राचीन काल से किया जा रहा है; यह ऐसी चीज है जिसे परमेश्वर स्वीकारता है, तो यह उचित काम कैसे नहीं हो सकता? लेकिन उनके लिए, वे जो भी चीज पसंद नहीं करते हैं उसे नीचा दिखाते हैं और उसके बारे में नकारात्मक रूप से बोलते हैं। जब उनसे पूछा जाता है, “तुम्हें नृत्य करना पसंद नहीं है—तो क्या तुम्हें गीत गाना पसंद है?” “क्या ‘गीत गाना’? जैसे ही मैं गीत गाना शुरू करता हूँ, मैं बेसुरा हो जाता हूँ। मुझे खुद इसे सुनना असहनीय लगता है। मुझे गीत गाना पसंद नहीं है। यह तो सिर्फ अब परमेश्वर में विश्वासी के रूप में मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ भजन और अनुभवजन्य भजन सीखने शुरू किए हैं। परमेश्वर में विश्वास रखने से पहले मैंने कभी भी गीत नहीं गाए; जब दूसरे गाते थे तब मैं सुनने को भी तैयार नहीं होता था।” “तो फिर जब तुम्हारा मिजाज खुश होता है तब तुम खुद को कैसे व्यक्त करते हो?” “जब मेरा मिजाज खुश होता है तब मैं बस एक झपकी ले लेता हूँ।” “तो जब तुम दर्दनाक मामलों का सामना करते हो और तुम्हारा मिजाज दुखी होता है तब तुम क्या करते हो?” “तब मैं कुछ नाश्ता कर लेता हूँ या बस एक झपकी ले लेता हूँ।” “तुम्हें गीत गाना पसंद नहीं है—तो क्या तुम्हें संगीत सुनना पसंद है?” “मुझे उसमें रुचि नहीं है और मुझे समझ नहीं आता कि संगीत में क्या व्यक्त किया जा रहा है। तुम सब लोग कहते हो कि संगीत लोगों की विभिन्न भावनाओं को व्यक्त करता है, यह लोगों के विचारों और अनुभूतियों को व्यक्त करता है, लेकिन मुझे ये चीजें समझ नहीं आती हैं और मैं इनसे जुड़ नहीं पाता हूँ। संगीत एक उच्च कला है—मेरे जैसा तुच्छ व्यक्ति संगीत से जुड़ नहीं सकता है और मुझे यह पसंद नहीं है।” “क्या तुम्हें अच्छा भोजन पसंद है?” “मुझे अच्छा भोजन भी पसंद नहीं है। मैं कुछ भी खा सकता हूँ। मैं रूखे व्यक्ति के रूप में पैदा हुआ। मैं मक्के का आटा खा सकता हूँ, मैं केक खा सकता हूँ, मैं चीनी भोजन या पश्चिमी भोजन खा सकता हूँ—कुछ भी खा सकता हूँ। और अगर मुझे भूख लगी हो और मेरे पास खाने के लिए कुछ न हो तो मैं कुत्ते का भोजन भी खा सकता हूँ।” ऐसे लोग इस हद तक असभ्य होते हैं। कुछ महिलाओं से पूछो, “क्या तुम्हें सौंदर्य-प्रसाधन पसंद हैं?” वे कहती हैं, “मुझे उनमें कोई रुचि नहीं है। मैं जैसी भी पैदा हुई, वैसी ही दिखती हूँ—जो भी मेरी तरफ देखना चाहता हो, देख सकता है और जो भी मेरी तरफ देखना नहीं चाहता हो, वह बस अपनी नजरें फेर सकता है!” कुछ पुरुषों से पूछो, “क्या तुम्हें इलेक्ट्रॉनिक सामान या मशीनी चीजें जैसे कि कार पसंद हैं?” वे कहते हैं, “इन चीजों को पसंद करने का क्या फायदा? ये मन को खाली कर देती हैं और दिमाग को थका देती हैं। अगर मेरे पास समय हो तो झपकी लेना या यूँ ही गपशप करना बेहतर होगा!” उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता है और उनकी कोई रुचि या शौक नहीं होता है। चाहे यह जैविक हो, तकनीकी हो, उच्च-स्तरीय हो या निम्न-स्तरीय हो, उन्हें इनमें से कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। जब उनसे पूछा गया, “ये चीजें जो मानवीय गुणों से जुड़ी हैं, चाहे वे परिष्कृत हों या व्यापक आकर्षण वाली हों—तुम्हें इनमें से कुछ भी अच्छी नहीं लगती है। तो क्या तुम्हें छोटे जानवर, जैसे कि बिल्लियाँ, कुत्ते और पक्षी अच्छे लगते हैं?” “वे तो मुझे और भी कम अच्छे लगते हैं। जानवर लोगों से बात नहीं कर सकते हैं—उन्हें पसंद करने का क्या फायदा?” कुछ लोगों को कुत्तों में रुचि होती है। वे अक्सर कुत्तों से बातें करते हैं और कुत्ते तो मनुष्यों की बोली भी समझ सकते हैं। कुछ लोगों का कोई शौक नहीं होता है और उन्हें किसी भी चीज में रुचि नहीं होती है—ऐसे बहुत सारे लोग हैं। कुछ लोग कहते हैं, “हम कुछ रुचियों और शौक के साथ पैदा होते हैं—ये परमेश्वर द्वारा दिए जाते हैं। विशेष रूप से हममें से वे लोग जिनके पास किसी खास क्षेत्र में कोई खूबी है, वे लोग जो इस क्षेत्र में असाधारण और उत्कृष्ट प्रतिभा के साथ पैदा हुए हैं—यह सब परमेश्वर का अनुग्रह है, परमेश्वर का उत्कर्ष है, परमेश्वर का हमें कृपादृष्टि से देखना है। विशेष रूप से आजकल परमेश्वर के घर में हमारी रुचियों, शौक या खूबियों से संबंधित कोई कर्तव्य स्वीकारना हमारी पहचान और मूल्य को बेमिसाल रूप से और भी सम्मानजनक और असाधारण बनाता है। जिनके पास कोई शौक या खूबियाँ नहीं होती हैं, वे सिर्फ कुछ मूलभूत श्रम और ऐसा कार्य कर सकते हैं जिसमें ज्यादा तकनीकी कौशल की जरूरत नहीं होती है, जैसे कि मेजबानी करना, खाना पकाना और सफाई करना या सब्जियाँ उगाना, सूअर पालना और मुर्गियों को खाना खिलाना। तो क्या लोगों की रुचियों, शौक और खूबियों के लिहाज से लोगों में उच्च-निम्न, कुलीन-नीच का भेद नहीं किया जाता है? क्या उनके बीच कोई पदानुक्रमिक अंतर नहीं है?” क्या यह दृष्टिकोण सही है? (नहीं।) देखो, परमेश्वर ने कुछ लोगों को खूबियाँ दी हैं, कुछ लोगों के लिए कुछ विशेष रुचियाँ और शौक नियत किए हैं, जबकि कुछ दूसरे लोगों के लिए परमेश्वर ने कुछ भी नियत नहीं किया है—उनमें बिल्कुल कोई खूबी नहीं है, वे न तो गीत गा सकते हैं और न ही नृत्य कर सकते हैं, वे साहित्य नहीं समझते हैं और वे सभी प्रकारों के व्यावसायिक कौशलों से पूरी तरह से अनजान हैं। इत्तेफाक से हो सकता है कि कोई मेजबान परिवार दो कुत्ते रखता हो, इसलिए ऐसे किसी व्यक्ति से जिसमें कोई खूबी नहीं है, कुत्तों को खाना खिलवाना उपयुक्त होना चाहिए—यह सबसे आसान काम है। लेकिन कुत्तों को खाना खिलाने के अलावा, वह उन्हें सैर के लिए नहीं ले जाता है और उसे उनकी देखभाल करना भी नहीं आता है। एक-दो वर्ष उससे खाना खाने के बाद, कुत्ते भी उसे अपना मालिक नहीं मानते हैं और उसके करीब नहीं आते हैं। मुझे बताओ, यह किस तरह का व्यक्ति है? उन लोगों की तुलना में जिनकी किसी विशेष क्षेत्र में रुचियाँ और शौक या खूबियाँ हैं, क्या इसमें कोई अंतर नहीं है? स्पष्ट रूप से, ये दो प्रकार के लोग हैं जिनकी जन्मजात स्थितियों में भिन्नताएँ हैं : एक प्रकार का व्यक्ति श्रेष्ठता की मजबूत भावना के साथ जीता है, वह समृद्ध और भरपूर जीवन जीता है, जबकि दूसरे प्रकार का व्यक्ति बिना किसी श्रेष्ठता के बोध के खोखला जीवन जीता है। तो अगर इस सिद्धांत के आधार पर रुतबे और मूल्य में भिन्नताओं के अनुसार लोगों में भेद किया जाता है, तो क्या यह उचित है? (नहीं।) तो फिर किस सिद्धांत के अनुसार उनमें भेद करना उचित है? मुझे बताओ, क्या लोगों के बीच भिन्नताएँ होती हैं? (हाँ।) ये भिन्नताएँ कहाँ होती हैं? लोगों में कैसे भेद किया जाना चाहिए? कम-से-कम यह तो देखना ही चाहिए कि क्या वे सत्य से प्रेम करते हैं—सत्य के प्रति उनके रवैये के आधार पर उनके सार, उनकी उच्चता और निम्नता, उनकी कुलीनता और नीचता और उनकी श्रेणी में भेद किया जाना चाहिए। सैद्धांतिक रूप से, क्या इस तरह से बड़ी आसानी से लोगों में भेद नहीं किया जा सकता है? (हाँ।) क्या लोगों में भेद करने का यह तरीका अच्छा है? (हाँ।) लेकिन क्या इस तरीके से उनमें भेद करना कुछ ज्यादा ही सरल है? कुछ लोगों में कोई जन्मजात खूबियाँ नहीं होती हैं और न ही उनकी कोई रुचियाँ या शौक होते हैं—वे बहुत ही मामूली, बहुत ही सरल लोग होते हैं। हालाँकि वे सत्य से प्रेम करते हैं, सत्य समझते हैं, उन्हें सत्य का अनुभव और समझ होती है और जब वे सत्य के बारे में संगति करते हैं तब वे परमेश्वर के वचनों की अपनी समझ को साझा कर सकते हैं; वे जीवन प्रवेश में औसत व्यक्ति से बेहतर होते हैं। वे बहुत-से लोगों की मदद कर सकते हैं। तो क्या तुम कह सकते हो कि ऐसे लोग नीच और बेकार होते हैं? (नहीं।) सैद्धांतिक रूप से, सत्य के प्रति लोगों के रवैये के आधार पर उनके सार, उनकी उच्चता और निम्नता, उनकी कुलीनता और नीचता और उनकी श्रेणी में भेद किया जाना चाहिए, लेकिन ठीक कैसे उनमें भेद किया जाना चाहिए? आज हम इसी के बारे में संगति करेंगे।
किसी व्यक्ति में सहज रूप से कोई रुचियाँ, शौक और खूबियाँ हैं या नहीं, यह परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत है। अगर परमेश्वर तुम्हें ये चीजें देता है तो तुम्हारे पास वे होती हैं; अगर परमेश्वर तुम्हें ये चीजें नहीं देता है तो तुम्हारे पास वे नहीं होती हैं—तुम उन्हें सीख नहीं सकते हो और न ही अनुकरण के जरिए उन्हें हासिल कर सकते हो। हालाँकि अगर तुम्हारे पास किसी विशेष क्षेत्र में कोई खूबी है और तुम कहते हो, “इस खूबी से संबंधित कर्तव्य करना बहुत ही ज्यादा थका देने वाला है; मुझे यह खूबी नहीं चाहिए” तो भले ही तुम इसे न चाहो, फिर भी तुम इसे हटा नहीं सकते और न ही कोई इसे तुमसे छीन सकता है। जो तुम्हारे पास है उसे दूसरे लोग छीन नहीं सकते हैं; जो तुम्हारे पास नहीं है उसे तुम छीन नहीं सकते और न ही उसके लिए होड़ करके उसे हासिल कर सकते हो। यह सब कुछ परमेश्वर की पूर्वनियति से संबंधित है। हालाँकि, इसके बावजूद परमेश्वर द्वारा तुम्हें कोई विशेष रुचि, शौक या खूबी दिए जाने का यह मतलब नहीं है कि परमेश्वर को तुमसे तुम्हारी रुचि, शौक या खूबी से संबंधित कोई कर्तव्य या कार्य करवाना ही पड़ेगा। कुछ लोग कहते हैं, “चूँकि मुझे इस क्षेत्र में कोई कर्तव्य करने या इससे संबंधित कार्य करने के लिए नहीं कहा गया है, तो फिर मुझे ऐसी रुचि, शौक या खूबी क्यों दी गई?” परमेश्वर ने ज्यादातर लोगों को हर व्यक्ति की विभिन्न स्थितियों के आधार पर कुछ रुचियाँ और शौक दिए हैं। यकीनन ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जिन्हें ध्यान में रखा जाता है : एक बात तो यह है कि यह लोगों की आजीविका और उत्तरजीविता के लिए है; दूसरी बात यह है कि यह लोगों के जीवन को समृद्ध बनाने के लिए है। कभी-कभी व्यक्ति के जीवन में कुछ विशेष रुचियाँ और शौक जरूरी होते हैं, वे चाहे मनोरंजन और मनबहलाव के लिए हों या इसलिए हों ताकि वह कुछ उचित काम कर सके जिससे उसका मानव जीवन सफल हो जाए। यकीनन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इसे किस पहलू से देखा जाता है, परमेश्वर द्वारा दिए जाने के पीछे कोई कारण होता है और नहीं देने के लिए भी परमेश्वर के अपने कारण और आधार होते हैं। हो सकता है कि तुम्हारे मानव जीवन या तुम्हारी उत्तरजीविता के लिए यह जरूरी न हो कि परमेश्वर तुम्हें रुचियाँ, शौक और खूबियाँ दे, और तुम दूसरे साधनों से अपनी आजीविका बनाए रख सकते हो या अपने मानव जीवन को समृद्ध और सफल बना सकते हो। संक्षेप में, चाहे परमेश्वर ने लोगों को रुचियाँ, शौक और खूबियाँ दी हों या न दी हों, यह खुद लोगों के साथ कोई मुद्दा नहीं है। अगर किसी व्यक्ति के पास खूबियाँ न भी हो, तो भी यह उसकी मानवता का दोष नहीं है। लोगों को इसे सही ढंग से समझना चाहिए और इससे सही ढंग से पेश आना चाहिए। अगर व्यक्ति के पास कुछ विशेष रुचियाँ, शौक और खूबियाँ हैं तो उसे उन्हें संजोना चाहिए और उनका सही ढंग से उपयोग करना चाहिए; अगर उसके पास ये नहीं हैं तो उसे शिकायत नहीं करनी चाहिए। रुचियों, शौक और खूबियों के परिप्रेक्ष्य से यही वास्तविक स्थिति है। हालाँकि किसी व्यक्ति के पास ये चीजें हैं या नहीं, यह बात उसके मूल्य, रुतबे या पहचान को नहीं दर्शाती है। तो यह लोगों को क्या बताती है? भले ही परमेश्वर ने तुम्हें परिष्कृत रुचियाँ, शौक और खूबियाँ दी हों—ये तुम्हारी निजी संपत्ति हैं, ये तुम्हारी लाभप्रद स्थितियाँ हैं—ये तुम्हारे पास होने का मतलब यह नहीं है कि तुम किसी और से ज्यादा नेक हो, तुम्हारे पास किसी और की तुलना में कुछ भी करने के लिए ज्यादा सुविधाएँ या विशेषाधिकार हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि व्यक्ति के पास कौन-सी जन्मजात स्थितियाँ हैं, परमेश्वर की नजर में वह भ्रष्ट मानवजाति का सदस्य है। वैसे तो जन्मजात स्थितियों में भ्रष्टता के तत्व नहीं होते हैं, फिर भी वे सभी लोग जिनके पास जन्मजात स्थितियाँ हैं, वे शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जा चुके हैं और वे शैतानी स्वभावों के अनुसार जीते हैं। उनका जीवन सार उनका शैतानी भ्रष्ट स्वभाव है। इसलिए, तुम्हारी जन्मजात स्थितियाँ चाहे किसी भी तरह की हों और तुम्हारे पास रुचियाँ, शौक और खूबियाँ चाहे हों या न हों, परमेश्वर की नजर में चूँकि सभी लोगों का जीवन सार एक जैसा है, इसलिए तुम्हारा मूल्य दूसरों के मूल्य के समान है। लोगों को यह स्पष्ट रूप से देखना चाहिए कि भले ही उनके पास कुछ लाभप्रद स्थितियाँ हों या कुछ विशेष सुविधाएँ हों, मानव सार और भ्रष्ट स्वभाव के लिहाज से सभी लोगों का सार एक जैसा ही है और सभी लोग एक जैसे ही हैं। उन्हें परमेश्वर की ताड़ना और न्याय से गुजरना होगा और ये सभी वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर बचाना चाहता है। लोगों के देह के जीवन सार के लिहाज से लोग एक जैसे हैं। हालाँकि दूसरे परिप्रेक्ष्य से लोगों के बीच कुछ भिन्नताएँ होती हैं और हमें इन भिन्नताओं के बारे में विस्तार से संगति करने की जरूरत है। इन भिन्नताओं की पहचान कैसे की जानी चाहिए? उनकी जाँच लोगों की उत्पत्तियों से की जानी चाहिए। “उत्पत्तियों” का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि व्यक्ति ने किससे पुनर्जीवन लिया है—भिन्नताएँ इस आधार पर की जाती हैं कि वह अस्तित्व में कैसे आया और वह किससे आया। मोटे तौर पर कहा जाए तो यह मानवजाति तीन श्रेणियों में विभाजित है। पहली श्रेणी में वे लोग हैं जो जानवरों से पुनर्जन्म लिए हुए हैं, दूसरी श्रेणी में वे हैं जो विभिन्न दानवों से पुनर्जन्म लिए हुए हैं और तीसरी श्रेणी में वे हैं जो मनुष्यों से पुनर्जन्म लिए हुए हैं। ये तीनों श्रेणियाँ ठीक जड़ से लोगों में भेद करती हैं। उनका लोगों में भेद कर सकने का कारण यह है कि विभिन्न श्रेणियों के लोगों की उत्पत्तियाँ एक जैसी नहीं होती हैं। तो फिर कोई कैसे जान सकता है कि किसने जानवरों से, किसने दानवों से और किसने इंसानों से पुनर्जन्म लिया हुआ है? इसे इस आधार पर निर्धारित किया जाना चाहिए कि वह कैसे जीता है और वह कौन-सी विशेषताएँ प्रदर्शित करता है। क्या तुमने पहले कभी ऐसी जानकारी सुनी है, चाहे लोककथाओं में हो या किसी और माध्यम से? (हाँ।) तो यह विषय तुम लोगों के लिए पूरी तरह से अपरिचित नहीं है, है ना? (नहीं, यह नहीं है।) तुम लोग सबसे पहले किनके बारे में सुनना चाहते हो—जानवरों से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों के बारे मे, दानवों से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों के बारे मे, मनुष्यों से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों के बारे मे? (पहली श्रेणी।) पहली श्रेणी वे हैं जो जानवरों से पुनर्जन्म लिए हुए हैं। अगर तुम लोग इस मामले की सच्चाई सही मायने में जान जाते हो तो क्या तुम लोगों के जीवन पर इसका कोई प्रभाव पड़ेगा? क्या यह परेशानी या बाधाएँ लाएगी? (हो सकता है मैं सोचना शुरू कर दूँ कि मैंने किससे पुनर्जन्म लिया है।) कुछ लोगों के लिए एक बार जब वे सच में जान जाते हैं कि वे किस श्रेणी से हैं और खुद को किसी विशेष श्रेणी के अनुरूप पाते हैं, तब अगर वे सचमुच मनुष्यों से पुनर्जन्म लिए हुए होते हैं तो वे इस बारे में खुशकिस्मत और काफी अच्छा महसूस करते हैं। लेकिन अगर वे मनुष्यों से पुनर्जन्म नहीं लिए हुए होते हैं तो क्या उन्हें ये बात परेशान करने वाली नहीं लगेगी? (हाँ।) इससे कुछ विशेष मुश्किलें और कुछ असहजता भी आएगी, है ना? (हाँ।) चूँकि इससे असहजता और कुछ मुश्किलें आ सकती हैं, तो क्या लोगों के लिए यह जानना बेहतर है या नहीं जानना? (मुझे लगता है कि जानना बेहतर होगा।) यह किस तरीके से बेहतर होगा? (यह जानकर व्यक्ति इस संबंध में सत्य समझ सकता है और इसके अतिरिक्त, वह अपने आस-पास के कुछ लोगों, घटनाओं और चीजों का भेद पहचानने में समर्थ हो जाएगा।) तो फिर चलो हम इस बारे में संगति करें।
आओ, सबसे पहले हम उन लोगों के बारे में संगति करें जो पशुओं से पुनर्जन्म लेते हैं। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, पशुओं से पुनर्जन्म लेने का मतलब है कि ऐसे व्यक्ति ने किसी पशु से पुनर्जन्म लिया। पशुओं का दायरा काफी व्यापक है—जहाँ तक यह प्रश्न है कि कितने प्रकार के पशु मनुष्यों के रूप में पुनर्जन्म ले सकते हैं, यह हमारी संगति के दायरे में नहीं है। संक्षेप में, ऐसे लोगों की एक श्रेणी है जिनका पिछला अस्तित्व किसी पशु के रूप में था, यानी उनकी मूल पहचान या सृजित श्रेणी सृजित मानवजाति में नहीं आती थी। उनकी शुरुआती, पहली जैविक श्रेणी किसी पशु की थी। इसलिए परमेश्वर की नजर में जैविक जगत के भीतर उनकी पहचान किसी पशु की है। इस पुनर्जन्म में वे मनुष्य बन गए हैं, यानी इस पशु ने अब पशुओं के बीच पुनर्जन्म नहीं लिया है, बल्कि इसके बजाय इसने एक मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म लिया है, एक निश्चित समय पर, एक निश्चित परिवार, वंश और देश में जन्म लिया है। किसी पशु का मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म लेने का मतलब है कि उसने मनुष्य के रूप में जन्म तो लिया है, लेकिन उसका पिछला अस्तित्व मनुष्य के रूप में नहीं था—वह किसी पशु के रूप में था। इससे पहले उसका अस्तित्व पशु लोक के भीतर था, वह पशुओं के बीच पुनर्जन्म ले रहा था; अब इस पुनर्जन्म में वह पशु लोक के भीतर नहीं रहा। उसकी पहचान बदल गई है और वह मानवजाति का सदस्य बन गया है। इसे ही पशुओं का मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म लेना कहते हैं। जब कोई पशु मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म लेता है तब उसका रूप-रंग और सहज प्रवृत्तियाँ मूल रूप से मानवजाति के भीतर किसी भी व्यक्ति के समान होती हैं। यानी उसमें मनुष्य की विशेषताएँ पूरी तरह से होती हैं—वह बिल्कुल सीधा चल सकता है, उसमें मानव चेहरे की विशिष्टताएँ और रूप-रंग होते हैं और वह मानव सोच, मानव सहज प्रवृत्तियाँ और एक सामान्य मानव जीवन रख सकता है और उसमें भाषा की अनूठी मानव क्षमता भी होती है। इसे ही किसी पशु का मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म लेना कहते हैं। यानी उसके शारीरिक रूप, बाहरी रूप-रंग और शारीरिक जीवन विशेषताओं से तुम सिर्फ मानवीय विशिष्टताएँ ही देख सकते हो; कोई भी पाशविक विशिष्टता दिखाई नहीं देती है। तो तुम यह कैसे जान सकते हो कि उसने किसी पशु से पुनर्जन्म लिया है? लोग इसी के बारे में सबसे ज्यादा चिंतित रहते हैं। यकीनन यह देखना संभव है कि उसने किसी पशु से पुनर्जन्म लिया है। अगर पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों और मनुष्यों से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों में कोई अंतर नहीं होता तो इस श्रेणी के लोगों में कोई स्पष्ट विशेषताएँ नहीं होतीं। चूँकि पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों और सच्चे मनुष्यों से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों के बीच स्पष्ट अंतर होते हैं, ठीक इसी कारण से लोगों की इन दोनों श्रेणियों की विशेषताओं के आधार पर उनमें आसानी से भेद किया जा सकता है। तो पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों की विशेषताएँ क्या हैं? पहली विशेषता यह है कि उनमें विकृत समझ होती है। दूसरी विशेषता यह है कि वे विशेष रूप से सुन्न होते हैं। तीसरी विशेषता यह है कि वे विशेष रूप से भ्रमित होते हैं। चौथी विशेषता यह है कि वे बेवकूफ होते हैं। ये अकेली चार विशेषताएँ किसी पशु से पुनर्जन्म लिए हुए व्यक्ति और एक सच्चे मनुष्य के बीच के अंतर को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं।
पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों की पहली विशेषता यह है कि उनमें विकृत समझ होती है। सबसे पहले, विकृति में क्या शामिल है? इसमें उनके विचारों और दृष्टिकोणों से जुड़ी समस्याएँ शामिल हैं; इसमें चीजों को देखने, बूझने और समझने की उनकी संज्ञानात्मक क्षमताएँ भी शामिल हैं। इस श्रेणी के लोग न तो किसी चीज को सही ढंग से बूझ सकते हैं और न ही किसी चीज को सही ढंग से देख सकते हैं। लोगों और चीजों को देखने का उनका तरीका और साथ ही उनका स्व-आचरण और क्रियाकलाप विशेष रूप से बेतुके, जिद्दी और बेहूदे होते हैं—जो सामान्य मानवता की सोच और चीजों के बारे में सामान्य मानवता के विचारों और दृष्टिकोणों के साथ पूरी तरह से असंगत होते हैं। यकीनन, विकृत बूझ वाले लोग सत्य समझने या उसे जानने लगने के आस-पास बिल्कुल नहीं होते हैं। सत्य उनकी पहुँच से पूरी तरह से परे होता है, फिर सत्य सिद्धांतों को समझने की बात तो रहने ही दो। जब यह बात आती है कि वे किसी वस्तु या व्यक्ति से कैसे पेश आते हैं, तब उनके दृष्टिकोण पूरी तरह से विकृत होते हैं। तुम्हारे उनके साथ संगति करने के बाद वे इसे सिद्धांत के लिहाज से तो समझ जाते हैं, लेकिन बाद में उनका ज्ञान वैसा ही विकृत बना रहता है। फिर जब तुम उदाहरण देकर चीजों को ज्यादा स्पष्ट और विशिष्ट रूप से समझाते हो तब उस समय तो शायद वे समझ जाएँ, लेकिन बाद में जब उनके सामने उसी तरह की चीज आती है तब उनका दृष्टिकोण ठीक वैसा ही विकृत बना रहता है, और चाहे उनके साथ किसी भी तरह से संगति की जाए, इससे उनका दृष्टिकोण ठीक नहीं होता है। इसके अलावा, उनकी यह अवस्था—चीजों को बूझने का यह तरीका—बिना बदले अनिश्चित काल तक बना रहेगा। किसी की भी सत्य की संगति उन्हें बदल नहीं सकती; अगर मैं संगति करूँ और धर्मोपदेश दूँ, तो भी उनके विकृत विचार और दृष्टिकोण और चीजों को समझने का विकृत तरीका नहीं बदल सकता। ऐसे लोग बहुत परेशान करने वाले लोग होते हैं। उदाहरण के लिए, जब वे कुछ गलत चीज करते हैं और तुम उनसे कहते हो, “तुमने जो किया वह गलत था, यह सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है; इसमें व्यक्तिगत मिलावट थी” तब वे कहेंगे, “मैंने यह जानबूझकर नहीं किया। मैंने उसे इस इरादे से नहीं किया कि उसका यह नतीजा निकले। चूँकि तुम सभी लोग बहुत अच्छे हो, तुम लोगों के पास सत्य है और तुम लोग जानते हो कि चीजें कैसे करनी है, तो इसे मुझसे करवाने के बजाय तुम लोग खुद क्यों नहीं कर लेते? तुम कहते हो कि मैंने इसे गलत तरीके से किया—क्या यह सिर्फ इसलिए नहीं है क्योंकि मैं तुम्हें अप्रिय लगता हूँ? चूँकि तुम सभी लोगों में मानवता है और अकेला मैं ही हूँ जिसमें मानवता नहीं है, इसलिए मैं तो बस नर्क में जाऊँगा और तुम सभी लोग स्वर्ग जा सकते हो!” यहाँ तक कि वे तर्कों से अपना बचाव करने और खुद को सही ठहराने का प्रयास भी कर सकते हैं और जवाबदेही से पल्ला झाड़ने के लिए बहाने भी बना सकते हैं। वे यह मानने से इनकार करते हैं कि उन्होंने गलत किया, उनके पास सही रवैया नहीं होता है और वे भविष्य में खुद को सुधारने का वादा नहीं करते हैं और न ही यह कहते हैं कि वे समझते हैं कि अगली बार उन्हें कैसे कार्य करना चाहिए। वे इस तरीके से कभी नहीं समझेंगे और मानवता के परिप्रेक्ष्य से इस मामले को कभी भी शुद्ध तरीके से नहीं बूझेंगे। कुछ लोग तो ऐसे भी होते हैं जो जब तुम उनके कार्य में समस्याओं की तरफ ध्यान दिलाते हो और उनके साथ सत्य पर संगति करते हो तब कहते हैं, “क्या तुम मुझे नीची नजर से नहीं देख रहे हो? क्या यह सिर्फ इसलिए नहीं है कि मैं अनपढ़ हूँ और देहात से हूँ? क्या यह सिर्फ इसलिए नहीं है कि मेरा रुतबा निम्न है? यहाँ तक कि परमेश्वर भी मेरा तिरस्कार नहीं करता, तो तुम्हें ऐसा करने का क्या अधिकार है?” वे यह कभी नहीं मानेंगे कि उन्होंने गलती की और न ही फिर सत्य की तलाश करेंगे, यह देखने के लिए कभी आत्म-चिंतन नहीं करेंगे कि उन्होंने कहाँ गलती कर दी और न ही उसे हल करने के लिए अभ्यास का सही मार्ग ढूँढ़ेंगे। वे कभी भी ऐसा क्यों नहीं करेंगे? क्योंकि वे मनुष्य नहीं हैं। उनमें सामान्य मानवीय सोच नहीं है और वे उत्पन्न होने वाली गलतियों को उस तरीके से नहीं सँभाल सकते जैसे कोई सामान्य मनुष्य सँभालेगा। गलतियों के प्रति उनका वह रवैया नहीं है जो किसी सामान्य मनुष्य का होना चाहिए। क्या कभी तुम लोगों के सामने ऐसे लोग आए हैं? सबसे बढ़िया यह होगा कि तुम स्वयं भी साथ में आत्म-चिंतन करो, यह देखने के लिए कि तुम्हारा विवेक सामान्य है या नहीं। उदाहरण के लिए, किसी ने फर्श पर पोंछा लगाया है और उसके बाद सतह अभी भी काफी गीली है। कोई दूसरा व्यक्ति इस बात से अनजान है और वह उस पर चलने लगता है और फिसल जाता है। वह व्यक्ति उठता है और दूसरे व्यक्ति से कहता है, “तुमने पोंछा लगाने के बाद फर्श को उचित रूप से नहीं सुखाया। तुम्हें लोगों को याद दिलाने के लिए इस बारे में कुछ हिदायतों वाला बोर्ड लगाना चाहिए था! यह तो शुक्र है कि मैं जवान हूँ—अगर मैं गिर गया, तो वापस उठ सकता हूँ। लेकिन अगर यह कोई बुजुर्ग होता तो क्या उसकी हड्डी नहीं टूट जाती? तुम वाकई पर्याप्त विचारशील नहीं थे!” क्या ये शब्द उचित और सामान्य हैं? (हाँ, ये सामान्य हैं।) पोंछा लगाने वाला व्यक्ति इस काम को करते समय पर्याप्त विचारशील नहीं था, इसलिए अगली बार उसे ज्यादा विचारशील होना चाहिए। चूँकि कोई इसके कारण गिरा, इसलिए यह स्पष्ट है कि उसने इस मामले में गलती की। यह असावधानी थी और कोई भी उसकी निंदा नहीं कर रहा है—उसे बस इसे सुधारने की जरूरत है। लेकिन वह किसी मनुष्य के परिप्रेक्ष्य से या मनुष्य की सोच के साथ इस मामले पर सही ढंग से और तर्कसंगत रूप से विचार करने या इसे सँभालने में असमर्थ है। इसके बजाय वह पलटकर कहेगा, “तुम देख नहीं सकते थे कि फर्श गीला है? तुम अंधे हो क्या? तुम फिसले और गिर गए—तुम्हारे साथ यही होना चाहिए! तुम अपनी आँखों का उपयोग नहीं करते हो तो क्या वह मेरी गलती है? जब फर्श पर पोंछा लगाया जा चुका है तो यकीनन वह गीला होगा—तुम उस पर चले ही क्यों? ऐसा तो है नहीं कि मैंने तुम्हें वहाँ चलने के लिए कहा हो। बस यह मान लो कि यह तुम्हारी बदकिस्मती थी कि तुम गिर गए। इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है!” क्या ये शब्द तर्कसंगत हैं? (नहीं।) वे तर्कसंगत नहीं हैं—इसे बोलचाल की भाषा में कैसे कहते हैं? वे वाहियात हैं। तुमने फर्श पर पोंछा लगाया लेकिन उसे सुखाया नहीं जिसके कारण कोई फिसल गया—हालाँकि तुम्हारे लिए अपराध बोध और अफसोस व्यक्त करना पूरी तरह से जरूरी नहीं है, फिर भी कम-से-कम तुम्हें अपनी गलती के संबंध में दूसरों की चेतावनियों और संकेतकों को स्वीकार तो करना चाहिए। तुम्हें पूछना चाहिए, “क्या तुम्हें चोट लगी है? क्या तुम्हें जाँच या इलाज के लिए अस्पताल जाने की जरूरत है? मैं पूरी जिम्मेदारी लेता हूँ।” यही सही रवैया है। व्यक्ति को इसी तरीके से मानवता के परिप्रेक्ष्य से ऐसी चीज से जो उसने गलत की, तर्कसंगत रूप से पेश आना चाहिए और उस पर आत्म-चिंतन करना चाहिए। लेकिन पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों में कोई मानवता नहीं होती है और उनमें विकृत समझ होती है। वे कभी भी इस तरीके से बात नहीं करेंगे और न ही वे कभी भी किसी मुद्दे पर इस तरीके से विचार करेंगे। इसके बजाय वे मनमाने ढंग से अतार्किक होंगे। उन्होंने पोंछा लगाने के बाद फर्श नहीं सुखाया जिसके कारण कोई फिसल गया; तो फिर अगली बार उन्हें बस इसे भिन्न तरीके से करने, ज्यादा ध्यान देने और गलती को ठीक करने की जरूरत है—बस। यह मुद्दा हल हो जाएगा। यह बहुत ही सरल मामला है : कोई भी इस बारे में कुछ नहीं कहता है और कोई भी इसके लिए उस व्यक्ति की निंदा नहीं करता है। उसे कोई कानूनी जिम्मेदारी उठाने की भी जरूरत नहीं है। लेकिन वह तथ्यों को स्वीकार करने से इनकार कर देता है, और बल्कि कहता है, “ओह, तो तुम सब अच्छे लोग हो, सिर्फ तुम लोग ही मानवता वाले हो! मैं जरूर कोई बुरा व्यक्ति हूँ! मैं जानबूझकर दूसरों को नुकसान पहुँचाता हूँ! मेरे बुरे इरादे हैं! तुम सब लोग स्वर्ग जाओगे और मैं नरक में जाऊँगा!” मुझे बताओ, क्या कोई सामान्य व्यक्ति ऐसी बकवास कर सकता है? (नहीं।) सिर्फ पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोग ही सब चीजों को एक विशेष रूप से चरम, जिद्दी और बेहूदा परिप्रेक्ष्य से देखते हैं। मामूली-सी बात पर—ऐसी चीज पर जो पूरी तरह से जायज है—वे अपनी जबान से अतार्किक, भ्रामक दलीलों की झड़ी लगा सकते हैं जिससे दूसरे लोग समझ नहीं पाते हैं कि वे हँसें या रोएँ। अगर उनकी काट-छाँट की जाती है तो वे कैसे व्यवहार करते हैं? वे खुद को सही ठहराने और अपना बचाव करने के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं, यह समझाते हैं कि उन्होंने जिस तरीके से कार्य किया उसका क्या कारण था और इसके लिए उन्होंने कितना कष्ट सहा, और वे सभी तरह के कारण देते हुए उल्टे बहस करते हैं। जब तुम उनके साथ इस बारे में संगति करते हो कि उनकी काट-छाँट क्यों की गई, जब वे गलतियाँ करते हैं तब उन्हें वे गलतियाँ कैसे ठीक करनी चाहिए और कैसे उन्हें सत्य सिद्धांतों की तलाश करनी चाहिए और इस मामले को सँभालने के क्या सिद्धांत हैं, तब वे एक भी शब्द स्वीकारने से इनकार कर देते हैं। इसके बजाय वे अपने गुस्से और नाराजगी को अपने भीतर रोके रखते हैं और उन्हें लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है और वे अपमानित महसूस करते हैं। पर्दे के पीछे वे दूसरों से शिकायत तक करते हैं, कहते हैं, “हुँह! मैंने उन मुद्दों पर विचार नहीं किया था और मेरा जानबूझकर उसे उस तरीके से करने का इरादा नहीं था। फिर भी वे मेरी निंदा करते हैं और कहते हैं कि मैं गड़बड़ कर रहा था और बाधा डाल रहा था—क्या मैं सच में इतना बुरा हूँ? क्या मैं बुरा व्यक्ति हूँ?” जब सत्य सिद्धांतों की बात आती है तब वे उन्हें पूरा करने से हमेशा चूक जाएँगे और उन्हें कभी नहीं समझेंगे; उनकी समझ हमेशा विशेष रूप से विकृत और विशेष रूप से बेहूदी होती है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि किस सत्य सिद्धांत पर संगति की जाती है, जब वह उन तक पहुँचता है तब वह एक अकेले वाक्यांश, एक अकेले कार्य करने के तरीके में बदल जाता है—यह एक औपचारिकता, एक अनुष्ठान, एक विनियम बन जाता है। यह सिर्फ सत्य सिद्धांतों को एकतरफा तरीके से समझने का मामला नहीं है; बल्कि उनकी समझ विशेष रूप से बेहूदी और बेतुकी होती है। इस प्रकार का व्यक्ति जिस तरीके से सत्य समझता है वह विशेष रूप से अनाड़ी और बेवकूफी भरा दिखता है। यह किस हद तक बेवकूफी भरा है? इस हद तक कि लोगों को उस पर तरस तक नहीं आता है, बल्कि लोगों को सीधे नफरत महसूस होती है, वे समझ नहीं पाते हैं कि वे हँसें या रोएँ और वे पूरी तरह से निरुत्तर हो जाते हैं। चीजें पहले ही इस हद तक स्पष्ट कर दी गई हैं कि अब कुछ भी और कहना फिजूल है—इसके आगे और शब्द कहना नासमझी होगी। इन लोगों से सत्य सिद्धांतों के बारे में बात करते रहने का कोई मतलब नहीं है। वे चाहे कोई भी मामला सँभालें, यहाँ तक कि दैनिक जीवन की छोटी से छोटी बात भी, वे उसे ऐसे ही असामान्य, बेहूदा और विकृत तरीके से सँभालते हैं। वे मानव विवेक की सीमाओं के भीतर मामलों को देखने और सँभालने में अक्षम हैं। सभी चीजों पर उनका परिप्रेक्ष्य ऐसा जिद्दी और ऐसा बेहूदा होता है—किसी भी मामले के बारे में वे जो नजरिए व्यक्त कर सकते हैं, उन्हें सुनने के बाद तुम जीवन भर घिनौना महसूस करोगे। अगर तुम उनकी बातें सुनते समय भोजन कर रहे हो तो हो सकता है कि तुम्हें तुरंत उल्टी आ जाए। मुझे बताओ, आखिर कितने विकृत होंगे वे लोग? पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों की यह एक प्रमुख विशेषता है—वे जिद्दी और बेहूदे होते हैं। मानवता के परिप्रेक्ष्य से यह जिद्दीपन और बेहूदापन मुख्य रूप से मानवता की सामान्य सोच की कमी है। वे किसी भी मुद्दे पर मानवता की सामान्य सोच के अनुसार विचार करने में असमर्थ होते हैं—वे चरम, विकृतियों की ओर प्रवण और जिद्दी होते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम सत्य, वस्तुनिष्ठ तथ्यों या विशिष्ट स्थितियों के बारे में कैसे संगति करते हो, वे अपने तर्क से कसकर चिपके रहते हैं और उसे छोड़ने से इनकार करते हैं। वे सोचते हैं, “विवेक मेरे पक्ष में है और मैंने तुम्हें ऐसा कुछ नहीं दिया है जिसका तुम मेरे खिलाफ उपयोग कर सको। मैं बस इसी तर्क से चिपका रहूँगा और यही सत्य बन जाएगा। तुम्हारी कही कोई भी बात किसी काम की नहीं होगी!” पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों की यह एक विशेषता है—उनकी बूझ विकृत होती है।
पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों की एक और अभिव्यक्ति यह है कि वे बहुत सारे लोगों, घटनाओं और चीजों का सामना करते समय विशेष रूप से सुन्न होते हैं। वे न सिर्फ मामलों को जिद्दी और विकृत तरीके से देखते हैं, बल्कि वे यह भी बिल्कुल समझ नहीं सकते कि जो भी चीज उत्पन्न होती है उसकी प्रकृति, सार या मूल कारण क्या है, वह क्या प्रभाव ला सकती है या उसके कारण क्या नतीजे हो सकते हैं। वे अभी भी इन चीजों को समझ नहीं सकते और इनके प्रति अनजान बने रहते हैं, यहाँ तक कि तब भी जब कुछ लोगों ने पहले ही कुछ चीजें कह दी हों या कर दी हों या कुछ चिन्ह और संकेत प्रकट कर दिए हों—यह ऐसा है मानो वे बेवकूफ हों। जब तक वे उन्हें समझ पाते हैं तब तक मामला पहले ही समाप्त हो चुका होता है और नतीजे पहले ही उत्पन्न हो चुके होते हैं। इतने सारे सत्य सुनने के बाद भी वे नहीं जानते हैं और उन्हें आभास नहीं हो सकता है कि उनके आस-पास के लोग किस तरह के हैं, उनका सार क्या है या वे क्या करने में सक्षम हैं। कुछ लोग ऐसी चीजें कहते हैं जो स्पष्ट रूप से समस्यात्मक होती हैं, फिर भी वे इसका आभास नहीं कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, जब कुछ लोग शेखी बघारते हैं, बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, दिखावा करते हैं और अपनी शान दिखाते हैं, तो यह स्पष्ट रूप से घमंडी स्वभाव का प्रकाशन है, लेकिन पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोग फिर भी इस समस्या को समझ नहीं सकते हैं। बल्कि वे सोचते हैं कि ये लोग सक्षम हैं, वे उनकी तारीफ करते हैं और उनका सम्मान करते हैं और यहाँ तक कि ऐसे लोगों का बाद में अनुसरण तक करना चाहते हैं। यह दिखाता है कि वे सुन्न हैं। स्पष्ट बुरे लोग और बुरे कर्म, भ्रष्ट स्वभावों के स्पष्ट प्रकाशन, जिस दिशा में चीजें स्पष्ट रूप से जा रही हैं—ऐसे लोग इनमें से कुछ भी समझ नहीं सकते हैं। वे नहीं जानते हैं कि मामले का सार क्या है या समस्या की जड़ क्या है; उन्हें इसका बिल्कुल भी आभास नहीं हो सकता है, उन्हें तो इसकी जानकारी तक नहीं होती है। वे वही लोग हैं जिन्हें हम अक्सर बिना आत्मा की लाशें कहते हैं। जब सत्य सिद्धांतों से संबंधित मामलों की बात आती है तब इस प्रकार का व्यक्ति और भी कम खरा उतरता है। ऐसे लोगों को तुम बताते हो कि उन्हें किस सिद्धांत के अनुसार अभ्यास करना चाहिए, लेकिन वे नहीं समझते हैं; वे सिर्फ उन विनियमों को याद कर लेते हैं जिनका उन्हें पालन करना चाहिए। वे उन सिद्धांतों को नहीं समझ सकते हैं जिनके बारे में तुम संगति करते हो, वे उनसे परे हैं। तुम उनमें एक विशेष अवस्था की तरफ उनका ध्यान दिलाते हो, जो भ्रष्ट स्वभाव के उनके प्रकाशन की अभिव्यक्ति है, लेकिन उन्हें लगता है कि तुम किसी और के बारे में बात कर रहे हो। अगर वे मौखिक रूप से यह मान भी लेते हैं कि उनमें भी इस तरह का भ्रष्ट स्वभाव है, तो भी वे यह नहीं पहचानते हैं कि उन्होंने ऐसे कौन-से शब्द कहे हैं या कौन-से क्रियाकलाप किए हैं जो इस अवस्था या इस अभिव्यक्ति से मेल खाते हैं। वे समझते नहीं हैं और न ही वे जानते हैं कि तुम किस बारे में बात कर रहे हो। सभाओं के दौरान सत्य के बारे में संगति करते समय जब दूसरे लोग पहले ही अगले विषय पर जा चुके होते हैं, वे तब भी पिछले विषय पर बात करने के लिए चर्चा को वापस मोड़ देते हैं। क्या यह मंदबुद्धि और सुन्न होना नहीं है? जब दूसरे लोग बोलते हैं तब वे उनके साथ रफ्तार बनाए नहीं रख सकते हैं—इसलिए नहीं कि उनकी सोच रफ्तार नहीं बनाए रख सकती है, बल्कि इसलिए कि उनकी काबिलियत अपर्याप्त है और कम पड़ जाती है। जब कुछ बुरे लोग उन्हें धोखा देने, उनके साथ खिलवाड़ करने या उन्हें सताने का प्रयास करते हैं तब उन्हें इसका आभास नहीं हो सकता है, बल्कि इसके बजाय वे बुरे लोगों से भाई-बहनों की तरह पेश आते हैं और उनके साथ घनिष्ठता से मिलजुलकर रहते हैं और उनके द्वारा नुकसान पहुँचाए जाने के बाद ही उन्हें एहसास होता है कि उन्हें उल्लू बनाया गया है। फिर वे सोचते हैं, “मैं कितना बेवकूफ हूँ! मुझे नहीं पता कि लोगों को कैसे आंकना है, मुझे नहीं पता कि लोगों का भेद कैसे पहचानना है! इस बार मैंने सच में अपना सबक सीख लिया है—आगे से मैं किसी पर भी विश्वास नहीं करूँगा, मैं सिर्फ खुद पर विश्वास करूँगा। यही सबसे बड़ी बुद्धिमानी है!” एक बार धोखा खाने के बाद उन्हें लगता है कि उन्हें अंतर्दृष्टि प्राप्त हो गई है और वे यह तक सोचते हैं कि अब वे ज्यादा होशियार हैं, एक छोर से दूसरे छोर पर चले जाते हैं। पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोग हर मामले के प्रति सुन्न होते हैं। उदाहरण के लिए, एक ऐसा ही व्यक्ति पशुपालन और पौधरोपण का प्रभारी था। एक दिन तापमान में गिरावट आई और मैंने उससे कहा, “आज रात तापमान शून्य से पाँच डिग्री कम रहेगा। क्या उन पौधों और पशुओं को सँभाला नहीं जाना चाहिए जो ठंड बर्दाश्त नहीं कर सकते?” यह सुनने के बाद उसने उत्तर दिया, “मेरे पास एक सूती गद्दीदार जैकेट है और रात को मैं रजाई और कंबल लेकर सोता हूँ, इसलिए मुझे ठंड नहीं लगेगी।” क्या उसे मेरी बात समझ आई? इस उत्तर के आधार पर स्पष्ट रूप से वह नहीं समझा। क्या यह सुन्न होना नहीं है? (है।) अगर मैंने यह कहा होता, “आज रात तापमान शून्य से पाँच डिग्री नीचे रहेगा। अगर फूल आँगन में रह गए तो वे जमकर मर जाएँगे। जो पशु ठंड के प्रति संवेदनशील हैं और जो कमजोर हैं, उन्हें खलिहानों में रखा जाना चाहिए। तुम्हें दरवाजे पर एक अतिरिक्त पर्दा टाँगना चाहिए और खलिहानों में जहाँ से ठंडी हवा के झोंके आते हैं उन जगहों पर पैबंद लगा देने चाहिए।” यह सुनने के बाद वह एक पल के लिए बात को मन में तोलता और कहता “ओह, तुम पशुओं और पौधों के बारे में बात कर रहे थे। तो फिर क्या बस फूलों को भीतर ले आना ठीक नहीं होगा? इतने सारे पशु हैं और तुमने यह नहीं बताया कि कौन-से पशु ठंड के प्रति संवेदनशील हैं और कौन-से नहीं, किन्हें भीतर ले आना चाहिए और किन्हें नहीं।” बिल्कुल, मैंने स्पष्ट नहीं किया—लेकिन क्या तुम सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं कर सकते? तुम्हें यह एहसास तक नहीं है कि सर्दियों में बाहर छोड़े गए फूल जम कर मर सकते हैं और अगर मैं तुम्हें यह चीजें नहीं सौंपता हूँ तो तुम उन्हें नहीं करोगे—यह किस तरह की समस्या है? क्या यह सुन्न होना नहीं है? (हाँ।) यह दिखाता है कि वह सुन्न है। उदाहरण के लिए, बाहर धूप निकली हुई है और कपड़े बाहर आँगन में सूखने के लिए टँगे हुए हैं और कोई कहता है, “लगता है दोपहर में बारिश होने वाली है। क्या बाहर सूख रहे कपड़े भीग जाएँगे?”—ये शब्द चेतावनी का संकेत देते हैं। सामान्य मानवीय सोच वाला व्यक्ति यह सुनेगा और सोचेगा, “मुझे ध्यान देना चाहिए—जब आसमान में बादल छा जाएँगे तब मैं जल्दी से कपड़े भीतर ले आऊँगा।” लेकिन जो लोग सामान्य मानवता की सोच नहीं रखते हैं, वे इसके बारे में सचेत नहीं होंगे। जब तुम कहते हो कि दोपहर में बारिश होने वाली है तब वे यह सुनते हैं और सोचते हैं, “ऐसा कहने का क्या मतलब है? इससे मेरा कोई लेना-देना नहीं है। मैं तो भीतर रहूँगा, इसलिए अगर बारिश होती है तो मैं नहीं भीगूँगा। इसके अलावा, बारिश होने के बारे में मैं क्या कर सकता हूँ? मुझे यह बताने का कोई फायदा नहीं है!” उन्हें बस यह समझ ही नहीं आता कि उन्हें यह क्यों बताया जा रहा है या यह मामला क्यों उठाया जा रहा है। तो तुम्हें उनसे कैसे बात करनी होगी ताकि वे वास्तव में समझ सकें? तुम्हें उन्हें बताना होगा, “दोपहर में इतने बजे बारिश होगी। बारिश होने से पहले जब तुम आसमान में बादल छाते देखो तब जल्दी से कपड़े भीतर ले आना। अगर तुमने ऐसा नहीं किया तो वे भीग जाएँगे और उन्हें दोबारा धोना पड़ेगा। साथ ही, कपड़े इकट्ठा करते समय यह भी देख लेना कि आँगन में ऐसी कोई और चीज तो नहीं है जो गीली नहीं होनी चाहिए या बारिश में पड़ी नहीं रहनी चाहिए और अगर हो, तो उसे भी भीतर ले आना।” तुम्हें उन्हें इस तरह से निर्देश देना होगा। अगर तुम उन्हें इस तरह से निर्देश नहीं देते हो तो उन्हें यह समझ नहीं आएगा कि उन्हें कपड़े भीतर लाने की जरूरत है और न ही उन्हें यह समझ आएगा कि उन्हें ऐसी कोई और चीज इकट्ठा करनी है जिस पर बारिश नहीं पड़नी चाहिए। वे ये चीजें नहीं करेंगे। क्यों? क्योंकि वे बहुत ही ज्यादा सुन्न हैं, उनके पास सामान्य मानवता की सोच नहीं है और वे सामान्य मानवता के मानक को पूरा नहीं करते हैं। यानी उनकी बुद्धिमत्ता और काबिलियत सामान्य मानवता के मानक तक नहीं पहुँचती है। पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोग ऐसे होते हैं। ऐसे व्यक्ति से कुछ करने के लिए कहते समय, भले ही मैं पहले ही कई बार उन्हें निर्देश दे चुका हूँ और उन्होंने पहले भी कई बार इसे किया हो, फिर भी मुझे उन्हें फिर से निर्देश देना पड़ता है। अगर मैं उन्हें निर्देश नहीं देता हूँ तो उन्हें समझ नहीं आएगा कि क्या करने की जरूरत है और न ही वे उसे करने में समर्थ होंगे। इसलिए जब भी उनके सामने इस तरह का कोई काम आता है तब तुम्हें उन्हें बताना होगा कि ठीक-ठीक क्या करने की जरूरत है और इसे कैसे करना है और उन्हें प्रक्रिया के हर चरण पर निर्देश देना होगा। अगर तुम एक अकेली चीज भी छोड़ देते हो तो वे उस चीज को नहीं करेंगे या शायद वे पूरी चीज को ही गड़बड़ कर देंगे। और फिर अगर तुम उनकी समस्याओं की तरफ उनका ध्यान दिलाते हो तो वे ढेरों विकृत दलीलों के साथ उत्तर देंगे और फिर से मनमाने ढंग से अतार्किक व्यवहार करने लगेंगे। यह सुन्न होने की अभिव्यक्ति है।
पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों की यह विशेषता, उनकी सुन्नता, बहुत ही स्पष्ट है। उदाहरण के लिए, सत्य पर संगति से वे धर्म-सिद्धांत के लिहाज से यह समझते हैं कि यह भेद कैसे पहचाना जाए कि कोई कलीसियाई अगुआ वास्तविक कार्य करता है या नहीं, वह मानकों के अनुरूप अगुआ है या नहीं या क्या वह नकली अगुआ या मसीह-विरोधी है। लेकिन जब यह भेद पहचानने की बात आती है कि उनका अपना कलीसियाई अगुआ किस श्रेणी में आता है तब भले ही वे कलीसियाई अगुआ द्वारा प्रस्तुत की गई कुछ अभिव्यक्तियों को देख लें, फिर भी वे नहीं जानते कि उनका भेद कैसे पहचानना है। अगर तुम उनसे पूछते हो, “क्या तुम्हारा कलीसियाई अगुआ वास्तविक कार्य करता है?” तो वे कहते हैं, “मैं उसे हर रोज सभाओं में व्यस्त रहते हुए और चीजें व्यवस्थित करते हुए इधर-उधर भागते हुए देखता हूँ, उसने भाई-बहनों को पुस्तकें वितरित कीं और सुसमाचार कार्य पर अनुवर्ती कार्रवाई की।” फिर तुम पूछते हो, “तो फिर वह अपना कार्य कितनी अच्छी तरह से करता है? क्या वह सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति है?” वे उत्तर देते हैं, “उसने अपना करियर और परिवार छोड़ दिया है। यहाँ तक कि जब उसके माता-पिता मिलने आए तब भी वह अपना कर्तव्य करने में इतना व्यस्त था कि उनसे मिल ही नहीं पाया। वह जरूर सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति है, है ना?” वे कलीसियाई अगुआ की इन बाहरी अभिव्यक्तियों को ही देखते हैं; लेकिन अगुआ गुप्त रूप से चाहे कितने भी बुरे कर्म करे, अगर वे इसे देखते भी हैं, तो भी वे इसे समस्या नहीं मानते हैं, वे नहीं जानते हैं कि यह एक समस्या है। चाहे इनमें से कितनी भी चीजें उनके सामने घटती हों, ऐसा लगता है जैसे उन्होंने कभी कुछ देखा ही नहीं, मानो वे लोगों के बीच नहीं बल्कि किसी दूसरी ही दुनिया में रह रहे हों। क्या ऐसे लोग अत्यधिक सुन्न नहीं हैं? (हाँ।) यह सुन्न होना है। जब उनके सामने कोई ऐसा व्यक्ति आता है जिसमें दुष्ट आत्माओं का कार्य है, जो हमेशा अलौकिक मामलों पर ध्यान देता है और हमेशा उन चीजों के बारे में बात करता है जिनका उसे आभास होता है, और हमेशा ऐसी चीजें कहता है, “मैंने एक आवाज सुनी, परमेश्वर ने मुझे प्रबुद्ध किया, परमेश्वर ने मुझे रोशन किया, परमेश्वर ने मेरा मार्गदर्शन किया, परमेश्वर ने फिर से मेरे भीतर कोई चीज प्रकट की” तब सुन्न लोग सोचते हैं, “वह सही मायने में परमेश्वर से प्रेम करता है। उसे प्रकाशन प्राप्त हुए हैं—मुझे क्यों नहीं हुए?” उन्हें बस यह ऐहसास ही नहीं होता कि यह दुष्ट आत्माओं का कार्य है। जब एक दिन वह व्यक्ति अचानक पागल हो जाता है, सबके सामने बड़ा तमाशा करता है, जमीन पर लोटता है और सड़कों पर नंगा दौड़ता है, तब जाकर उन्हें अंततः समझ आता है कि यह एक दुष्ट आत्मा है। दरअसल उस व्यक्ति के पागल हो जाने से पहले ही बहुत सारे संकेत मौजूद थे, और ये अभिव्यक्तियाँ उसका एक ऐसे व्यक्ति के रूप में निरूपण करने जिस पर दुष्ट आत्मा का कार्य है और उसे हटाकर पहले ही सँभाल लिए जाने के लिए पर्याप्त होतीं। लेकिन वे सुन्न हैं, इन बातों को समझ नहीं सकते और उन्हें यह एहसास नहीं है कि ऐसे व्यक्ति को कलीसिया में रहने देने के क्या नतीजे सामने आ सकते हैं—क्या यह विपत्तियाँ आने का कारण नहीं बन सकता? कुछ दुष्ट आत्मा और दुष्ट दानव तो लोगों को नुकसान पहुँचाने की हद तक भी पहुँच जाते हैं, फिर भी सुन्न लोग उन्हें वैसे नहीं देख पाते जैसे वे वास्तव में हैं। वे यह तक मानते हैं कि ऐसे व्यक्ति वाकई परमेश्वर से प्रेम करते हैं जोश से भरे हुए हैं, अक्सर देर रात तक जागकर परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं और भजन सीखते हैं, कई दिनों तक न खाते हैं और न ही सोते हैं, लेकिन फिर भी थकान महसूस नहीं करते हैं। भले ही यह स्पष्ट रूप से असामान्य है, फिर भी वे दावा करते हैं कि यह परमेश्वर के लिए प्रेम है। क्या वे हद से ज्यादा सुन्न नहीं हैं? एक चीज तो यह है कि सुन्न लोग मामलों की असलियत नहीं जान सकते; वे मुद्दों के सार की असलियत जानने के लिए सतही परिघटनाओं से परे देखने में असमर्थ होते हैं। इसलिए, उनके लिए किसी भी मुद्दे का सटीकता से निरूपण करना बहुत मुश्किल होता है। इसके अलावा, सुन्न लोगों में सोचने के सामान्य तरीके नहीं होते हैं या चीजों को पहचानने की क्षमता नहीं होती है, इसलिए वे अपने आस-पास हो रही बहुत-सी घटनाओं से पूरी तरह से बेखबर होते हैं। ऐसे लोग किसी जगह पर कई वर्षों तक रह सकते हैं और फिर भी उनसे यह पूछे जाने पर कि “वहाँ की जलवायु कैसी है? मौसमी पैटर्न क्या हैं? क्या वह रहने के लिए आरामदेह जगह है?” वे उत्तर नहीं दे पाते हैं। वे कहते हैं, “जलवायु के बारे में क्या? मुझे नहीं पता। बहरहाल, फूल अप्रैल में खिलते हैं, पत्ते सितंबर या अक्टूबर के आस-पास पीले पड़ जाते हैं और गिरने लगते हैं और जब सर्दियाँ आती हैं तब बर्फबारी का समय होता है।” अगर पूछा जाए, “स्थानीय रीति-रिवाज किस तरह के हैं? सामाजिक व्यवस्था कैसी है? क्या वहाँ नस्लीय भेदभाव है? सरकार की नीतियाँ कैसी हैं? वे दूसरी जगहों से आने वाले लोगों से कैसे पेश आते हैं?” तो वे पूरी तरह से अनजान होते हैं, हक्के-बक्के होकर ताकते रहते हैं, कुछ भी कहने में असमर्थ होते हैं। यहाँ तक कि जब सबसे महत्वपूर्ण मामले—धार्मिक विश्वास के प्रति सरकार के रवैये—की बात आती है तब भी वे कुछ नहीं कह सकते हैं, बस यही उत्तर देते हैं, “देखो, हम वहाँ रहते हैं और सरकार हमें कभी भी परेशान नहीं करती है।” वे लकड़ी के पुतलों की तरह होते हैं, सभी चीजों से पूरी तरह से बेखबर होते हैं—यह चरम सुन्नता है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो कहते हैं कि वे अपना कर्तव्य करने में बहुत ही ज्यादा व्यस्त रहते हैं और उनके पास इन चीजों का सारांश प्रस्तुत करने का समय नहीं है—क्या यह बस एक बहाना नहीं है? (हाँ।) यह स्पष्ट है कि यह एक बहाना है। क्या ऐसी सरल चीजों के लिए सोच-समझकर ध्यान देने और रिकॉर्ड रखने की जरूरत पड़ती है? नहीं पड़ती। अगर तुममें सामान्य मानवता की सोच है तो किसी जगह तीन वर्ष से ज्यादा समय तक रहने के बाद तुम्हें मूल रूप से स्थानीय जलवायु, रीति-रिवाजों, जीवनशैली की आदतों, धार्मिक विश्वास से संबंधित स्थिति, और सरकार की नीतियों और दूसरी जगहों से आने वाले लोगों के प्रति उसके रवैये की गहरी समझ हो जानी चाहिए। तुम्हें इस जानकारी के बारे में विशेष रूप से जानने, पता लगाने या उसे इकट्ठा करने की जरूरत नहीं होगी—तुम्हें बस पता होगा। सामान्य मानवता की सोच वाला कोई भी व्यक्ति इन चीजों को बहुत स्वाभाविक रूप से गहराई से समझ सकता है। अगर तुम उन मुद्दों को भी गहराई से समझने में असमर्थ हो जिन्हें सामान्य लोग गहराई से समझ सकते हैं और स्पष्ट रूप से देख सकते हैं तो यह क्या बताता है? यह बताता है कि तुम्हारे पास सामान्य मानवता की सोच या तर्क-शक्ति नहीं है और तुम सामान्य मानवता के मानक को पूरा नहीं करते। इस प्रकार के व्यक्ति का सामान्य मानवता के मानक को पूरा करने में विफल होने का मूल कारण यह है कि उसने मनुष्यों से नहीं बल्कि पशुओं से पुनर्जन्म लिया है। तुम समझ रहे हो? (हाँ।) अगर व्यक्ति की सुन्नता की विशेषता बहुत स्पष्ट है तो यह समस्या के बारे में बहुत कुछ बयान करता है।
पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों की विशेषताओं के संबंध में अभी-अभी हमारी संगति से तुम लोगों ने क्या समझा? क्या तुम लोगों ने गौर किया—कि विकृत समझ और सुन्नता, ये दोनों विशेषताएँ इस श्रेणी के लोगों में बहुत ही सुस्पष्ट होती हैं? (हाँ।) इन लोगों में ये दो अभिव्यक्तियाँ क्यों होती हैं? उनकी मानवता में किसकी कमी है? (सामान्य सोच की।) यह कुछ हद तक उपयुक्त है—उनके पास मानवीय बुद्धिमत्ता नहीं होती है। ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है जैसे इन लोगों में खराब काबिलियत है—आखिर यह कितनी खराब है? वे विकृतियों के प्रति प्रवृत्त भी हैं और वे सुन्न भी हैं; जब कुछ ऐसे मुद्दों की बात आती है जिनका सामान्य मानवता वाले लोग बार-बार सामना करते हैं और जिन्हें वे स्वतंत्र रूप से सँभाल सकते हैं और हल कर सकते हैं, तब ये लोग कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं और उन्हें हल नहीं कर सकते हैं, वे बहुत ही बचकाने, बेहूदे और अपरिपक्व लगते हैं। ज्यादा गंभीर बात यह है कि इनमें से कुछ लोगों में स्वतंत्र रूप से जीवित रह पाने की क्षमता नहीं होती है—वे स्वयं अपना भरण-पोषण नहीं कर सकते हैं और चाहे वे कार्य करने के लिए बाहर जाएँ या किसी भी तरह का काम करें, वे असमर्थ ही होते हैं। वे चाहे कहीं भी जाएँ, नियोक्ता या तो उन्हें रखना नहीं चाहते या उन्हें बरखास्त कर देते हैं। इसके अलावा, मुख्य चीज यह है कि अपने जीवन के दायरे में विभिन्न मुद्दों, जैसे कि जीवन के आम मुद्दों और यहाँ तक कि कुछ तुच्छ मामलों से भी सामना होने पर वे उन्हें अच्छी तरह से सँभाल नहीं सकते। यहाँ तक कि वे एक बहुत ही सरल मुद्दे को भी गड़बड़ कर सकते हैं; वे हमेशा बस आँख मूँदकर विनियमों को लागू कर देते हैं। चीजों को सँभालने के लिए वे जिन विधियों और तरीकों का उपयोग करते हैं, वे अत्यधिक बेवकूफी भरे और बेढंगे होते हैं; उनके पास वे विधियाँ और साधन नहीं होते जिनका उपयोग एक वयस्क दुनिया की चीजों से निपटने के लिए करेगा। इससे यह बहुत ही स्पष्ट हो जाता है कि उनके पास मानवीय बुद्धिमत्ता नहीं होती है। उदाहरण के लिए मान लो, ऐसा ही एक व्यक्ति बीमार हो जाता है और उसकी तबीयत हमेशा खराब रहती है। वह कुछ जानकारी खोजता है और उसमें लिखा होता है कि यह कोई गंभीर बीमारी या बड़ी बीमारी हो सकती है; वह भयभीत हो जाता है और जाँच के लिए जल्दी से अस्पताल चला जाता है। डॉक्टर कहता है, “यह बीमारी बहुत गंभीर है। इसमें मृत्यु दर अत्यधिक ज्यादा है। अगर इलाज नहीं किया गया तो यह और गंभीर हो जाएगी और मृत्यु हो जाएगी। सर्जरी ही इसे ठीक करने का एकमात्र तरीका है। अगर तुमने सर्जरी नहीं करवाई तो तुम ज्यादा-से-ज्यादा तीन महीने जिंदा रहोगे।” यह सुनकर वह अत्यधिक भयभीत हो जाता है और उसे पता नहीं होता कि क्या करे। निदान की पुष्टि करने के लिए आगे कोई भी परीक्षण करवाए बिना वह बस डॉक्टर की बात मान लेता है और सर्जरी करवाने का फैसला कर लेता है। ऑपरेशन से पहले वह यह तक नहीं पूछता कि क्या सावधानियाँ बरतने की जरूरत है, ऑपरेशन पूरा हो जाने के बाद दुष्प्रभाव होंगे या नहीं—उसे ये प्रश्न पूछने तक नहीं आते, और वह डॉक्टर के डर से आज्ञाकारी ढंग से ऑपरेशन टेबल पर लेट जाता है। अंत में सर्जरी के बाद उसे यहाँ-वहाँ बेचैनी महसूस होने लगती है और दवा लेने से भी कोई फायदा नहीं पहुँचता है। बाद में वह दूसरों से सुनता है कि इस बीमारी के लिए सर्जरी की जरूरत नहीं है, यह वास्तव में कोई गंभीर बीमारी नहीं है और व्यायाम से और कुछ आम दवाएँ लेने से यह धीरे-धीरे ठीक हो जाएगी और न तो बढ़ेगी और न ही बिगड़ेगी। पैसे कमाने के लिए डॉक्टर कभी-कभी भयावह बयान देते हैं ताकि लोग डर जाएँ और सुन्न व्यक्ति के पास अपना खुद का कोई विचार नहीं होता और वह निर्णय नहीं ले सकता; डॉक्टर की बात सुनकर वह बुरी तरह से डर जाता है और जब डॉक्टर उसे सर्जरी करवाने के लिए कहता है तब वह सर्जरी करवा लेता है। जब उसके साथ ऐसे मामले होते हैं तब अगर उसके आस-पास कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसके पास अपने खुद के विचार हों और जो दृढ़-निश्चयी हो और जिसके पास चीजों को जाँचने में उसकी मदद करने के लिए बुद्धिमत्ता हो तो वह घुमावदार रास्ता लेने से बच पाएगा और थोड़ा कम कष्ट सहेगा। लेकिन अगर उसे ऐसे मामलों को, विशेष रूप से बड़े मामलों को, अकेले ही सँभालने के लिए छोड़ दिया जाए तो वह या तो इस तरफ या फिर उस तरफ भटकेगा, उसे या तो ठगा जाएगा या फिर उसका नुकसान किया जाएगा; वह हमेशा चरम उपाय करता है। वह ऐसे मामलों को सँभालने के सिद्धांतों के आधार पर या उनके लिए आमतौर पर उपयोग किए जाने वाले तरीकों और विधियों के आधार पर चीजों को व्यापक रूप से मापने और फिर उनसे पेश आने का सबसे उचित और तर्कसंगत तरीका ढूँढने में बस असमर्थ है। कोई भी उसे धोखा दे सकता है, उसके साथ खिलवाड़ कर सकता है, उस पर दबाव डाल सकता है और उसे गुमराह कर सकता है। कुछ लोग पूछते हैं, “क्या इन लोगों के अपने विचार या राय नहीं होती हैं?” वास्तव में ऐसा नहीं है कि उनके अपने विचार या राय नहीं हैं—देखो, जब वे गलत कर्म करते हैं और भ्रामक तर्क बोलते हैं तब वे निश्चित रूप से अपनी राय पर अडिग रहते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन सही चीजें कहता है, वे नहीं सुनते और अगर कोई व्यक्ति सही चीजें कहे, तो भी वे उद्दंड होते हैं और बस अपनी भ्रामक, उलझी हुई दलीलों पर अड़े रहते हैं। फिर भी जब दैनिक जीवन में उत्पन्न होने वाली समस्याओं का सामना करने और उनसे सही ढंग से पेश आने और उन्हें सँभालने के लिए सामान्य विवेक और सामान्य सोच का उपयोग करने की वास्तव में जरूरत पड़ती है तब उन्हें पता ही नहीं होता कि उन्हें सँभालने के लिए कौन-सी विधि या प्रक्रिया का उपयोग करना है, उन्हें पता ही नहीं होता कि उनसे कैसे पेश आना है, उनके पास कोई तरीके या विधियाँ नहीं होतीं और न ही उनके अपने कोई विचार या रायें होती हैं। अंत में वे दूसरों द्वारा सिर्फ नियंत्रित ही किए जा सकते हैं—वे वही करते हैं जो दूसरे उन्हें करने के लिए कहते हैं। सामान्य मानवता की बुद्धिमत्ता की कमी होना पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों की विशेषता है। तो फिर वे अपनी भ्रामक, उलझी हुई दलीलों पर अड़े रहने में समर्थ कैसे हैं, यहाँ तक कि उन्हें जोर से बोलने और हर जगह फैलाने में भी समर्थ कैसे हैं? इससे साबित होता है कि अपनी बुद्धिमत्ता के लिहाज से वे यह भेद पहचानने में अक्षम हैं कि सत्य क्या है और भ्रामक तर्क क्या है, क्या सामान्य तार्किकता के अनुरूप है और क्या नहीं—वे इन चीजों में अंतर नहीं कर सकते; इसलिए जब तुम ऐसा तर्क साझा करते हो जो सही है तब वे उसे स्वीकार नहीं कर सकते और न ही वे उसे समझते हैं। वे बस अपने विकृत, उलझे हुए तर्क पर अड़े रहते हैं और उसे सही मानते हैं। चाहे कोई और उनसे बात करने के लिए किसी भी विधि का उपयोग करे, चाहे उसके बोलने का तरीका कितना भी अच्छा या बुद्धिमानी भरा हो, पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोग इसे आत्मसात नहीं कर सकते और न ही इसे समझते हैं—उनका काम तमाम हो चुका है। यह दिखाता है कि उनमें सामान्य मानवता की बुद्धिमत्ता नहीं है। दैनिक जीवन के सबसे सामान्य मामले पर भी जब तुम उनके साथ तर्क करते हो तब वह उनकी समझ में नहीं आता—वे तब भी अपनी उलझी हुई तार्किकता पर अड़े रहते हैं। जब लोग इसे देखते हैं तब वे सोचते हैं, “यह व्यक्ति इतना अजीब क्यों है? इस पर तर्क का कोई असर क्यों नहीं होता? यह मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति जैसा भी है और ऐसा भी जैसे अभी परिपक्व नहीं हुआ हो—वह हमेशा बचकाने ढंग से क्यों बोलता है?” लेकिन वे बच्चे नहीं हैं—जब वे पचास या साठ वर्ष के होते हैं तब भी ऐसे होते हैं और जब वे अस्सी वर्ष के हो जाते हैं तब भी वे ऐसे ही होते हैं। जीवन भर वे कम बुद्धिमत्ता वाले व्यक्ति ही बने रहते हैं; जीवन भर उनमें सामान्य मानवीय सोच या सामान्य मानवीय बुद्धिमत्ता नहीं होती है। यह पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों की विशेषता है। क्या यह विशेषता स्पष्ट है? (हाँ।) उदाहरण के लिए, मान लो कि एक बेवकूफ महिला है जो दिखने में थोड़ी-बहुत सुंदर है और किसी घटिया बदमाश द्वारा पटाए जाने के बाद वे दोनों साथ रहने लगते हैं। यह घटिया बदमाश हर समय बाहर इश्कबाजी करता फिरता है, लेकिन जब इस महिला को पता चलता है तब वह गुस्सा नहीं होती है—जो भी हो, जब तक वह आदमी उसके साथ अच्छी तरह से व्यवहार करता है तब तक उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। बाद में यह घटिया बदमाश किसी और के साथ रिश्ता बना लेता है, लेकिन जब इस महिला को पता चलता है तब वह परवाह नहीं करती और अब भी उस घटिया बदमाश के साथ अटूट निष्ठा से बनी रहती है। वह यह तक कहती है, “जब तक वह मुझे छोड़ नहीं देता तब तक मुझे कोई समस्या नहीं है।” कोई उसे सलाह देता है, “वह पहले से ही इतना गिर चुका है—तुम्हें उसके साथ रहना बंद कर देना चाहिए।” वह कहती है, “नहीं, मैं उसके बिना नहीं रह सकती। वह मुझसे प्रेम करता है और वह मुझे अच्छा लगता है!” ऐसा व्यक्ति इस घटिया बदमाश के साथ जीवन भर रहने और कष्ट सहने के लायक ही है—वह बस यह भेद पहचान ही नहीं सकती कि अच्छा व्यक्ति क्या होता है या सभ्य व्यक्ति क्या होता है। वह एक घटिया बदमाश के साथ प्रेम संबंध बनाती है और यह भी सोचती है कि वह उससे सही मायने में प्रेम करता है। वह घटिया बदमाश उससे कुछ मीठे-मीठे शब्द कहता है और उसे कुछ बढ़िया भोजन खरीदकर देता है और बस यूँ ही उससे चिकनी-चुपड़ी बातें करके अपनी बाँहों में भर लेता है। वह उसके साथ ऐसे खिलवाड़ करता है मानो प्ले-डोह से खेल रहा हो। जब वह उसकी पीठ पीछे इश्कबाजी करता फिरता है और इस महिला को पता चल जाता है तब वह बस कुछ ही शब्दों से बिगड़े मामले को शांत कर देता है, उसे धोखा देता है और वह महिला बस इसकी असलियत जान ही नहीं सकती। अंत में वह घटिया बदमाश उसकी सारी संपत्ति और घर हड़प लेता है और फिर उसे छोड़ देता है। वह उसे यह कहकर कोसती है कि उसमें कोई जमीर नहीं है, लेकिन वह यह बिल्कुल नहीं कहती कि वह इसलिए धोखा खा गई क्योंकि वह लोगों की असलियत नहीं जान सकती। उस घटिया बदमाश ने दूसरों को धोखा क्यों नहीं दिया, लेकिन उसे धोखा देने में क्यों समर्थ रहा? क्या ऐसा इसलिए नहीं है कि वह महिला बेवकूफ है? इस तरह के व्यक्ति की मुख्य विशेषताएँ यह हैं कि वह हर चीज को समझने और उससे पेश आने में जिद्दी और बेहूदा होता है और उसमें सामान्य मानवता की बुद्धिमत्ता नहीं होती है। यही कारण है कि हम कहते हैं कि उसने पशुओं से पुनर्जन्म लिया है। क्योंकि वह पशु है, इसलिए उसमें मानवीय बुद्धिमत्ता नहीं है। यह तथ्य कि उसमें मानवीय बुद्धिमत्ता नहीं है यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि उसके भीतर जो सार है वह मनुष्यों का सार नहीं है। इसलिए वह मानवीय मामलों का सामना नहीं कर सकता या उन मुद्दों को सँभाल नहीं सकता और हल नहीं कर सकता जिन्हें सँभालने और हल करने में सामान्य मनुष्यों को समर्थ होना चाहिए। यहाँ तक कि जब बात उसके अपने दैनिक जीवन की चीजों—उसके दैनिक भोजन, मूलभूत जरूरतों और साथ ही पारस्परिक रिश्तों और आस-पास के परिवेश—के प्रति उसके दृष्टिकोण की आती है, तब भी वह बहुत सुन्न होता है। इसके अलावा, जब उसके सामने ऐसे कुछ मामले आते हैं जिनका उसे सामना करने और सँभालने की जरूरत होती है तब उसके पास सामान्य लोगों की बुद्धिमत्ता नहीं होती है, फिर बुद्धिमानी की तो बात ही रहने दो। जब वह इन मुद्दों का सामना करता है तब वह उन्हें बड़ी मुश्किल से, बहुत थकावट से और बेहद अनाड़ीपन से सँभालता है। वह इतना बूढ़ा हो चुका है और उसने इतना लंबा जीवन जिया है : वह चीजों को इस तरीके से कैसे सँभाल सकता है? वह जो चीजें कहता है वे बहुत ही घिनौनी और बहुत ही अजीब क्यों लगती हैं? वह सामान्य लोगों की तरह बात क्यों नहीं करता है? उसने इतने वर्षों तक जीवन जिया है और बहुत सारी चीजें अनुभव की हैं, फिर भी इतने सरल मामले को सँभालते समय वह इस तरह से कैसे व्यवहार कर सकता है? उसके पास मानवता की सबसे मूलभूत सीमाएँ या वे सबसे मूलभूत सिद्धांत तक नहीं हैं जो लोगों के पास होने चाहिए।
विकृत समझ होने और सुन्न होने, इन दो विशेषताओं के अलावा पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों की एक और विशेषता यह होती है कि वे विशेष रूप से भ्रमित होते हैं। अतीत में जब हमने सत्य पर संगति की थी तब हमने सिर्फ व्यापक रूपरेखा और दिशा के बारे में ही बात की थी—यह संगति अपेक्षाकृत सामान्य थी। जहाँ तक सत्य के विभिन्न विवरणों का प्रश्न है, हमने उन पर विशिष्ट रूप से संगति नहीं की थी, बल्कि सिर्फ कुछ वैचारिक कथनों और विषय-वस्तु पर ही चर्चा की थी। संगति के इन वर्षों में सत्य के विभिन्न पहलुओं पर विशिष्ट रूप से और विस्तार से संगति की गई है। लेकिन पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोग जब अब संगति में बोले जा रहे शब्दों को सुनते हैं तब उन्हें लगता है कि वे करीब-करीब वही हैं जो इससे पहले की संगति में बोले गए थे और बस बातों को पेश करने के तरीके कुछ हद तक बदल गए हैं, विषय-वस्तु कुछ हद तक पहले से समृद्ध हो गई है और पहले की तुलना में संगति की मात्रा काफी बढ़ गई है। और इसलिए वे चकित हैं कि ऐसा क्यों है कि सुनने के इस लंबे समय में वे बस लगातार और उलझन में पड़ते जा रहे हैं। उन्होंने बहुत सारे वर्षों से धर्मोपदेश सुने हैं, लेकिन उन्होंने इससे कुछ भी प्राप्त नहीं किया है। जब यह बात आती है कि कैसे आचरण करना है, दूसरों से कैसे पेश आना है, खुद को कैसे जानना है, परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे करना है और विशेष रूप से, परमेश्वर और उसके वचनों से कैसे पेश आना है तब शुरू से ही वे इन चीजों को समझने में असमर्थ रहे हैं और अब भी वे इन्हें समझ नहीं सकते। यह कोई मामूली स्तर का भ्रमित होना नहीं है, बल्कि गंभीर स्तर का भ्रमित होना है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सत्य के विभिन्न पहलुओं को कितने विशिष्ट रूप से समझाया जाता है, वे इन सभी को आपस में मिला देते हैं। सिर्फ कुछ नारों और धर्म-सिद्धांतों पर ही उनकी गहरी पकड़ बनती है, जैसे कि “हमें परमेश्वर के लिए खुद को खपाना चाहिए, परमेश्वर के प्रति वफादार होना चाहिए और अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से करना चाहिए!” वे कुछ विनियमों, नारों और सिद्धांतों से चिपके रहते हैं और सोचते हैं कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं। जितनी ज्यादा विशिष्टता से तुम संगति करते हो, वे उतने ही ज्यादा चकरा जाते हैं और उतना ही ज्यादा उन्हें महसूस होता है कि यह उनकी समझ से परे है, यह पहले ही बेहतर था जब संगति सरल हुआ करती थी। इसके अलावा, व्याख्या जितनी ज्यादा विस्तृत होती है, उन्हें उतनी ही ज्यादा मुश्किलें आती हैं : “मैं इतनी विस्तृत चीज को कैसे याद रख सकता हूँ? पहले अभ्यास करना बहुत सरल हुआ करता था। ऐसा क्यों है कि अब जितनी ज्यादा हम संगति करते हैं, उतने ही ज्यादा उसमें कथन होते हैं? ऐसा क्यों है कि जितना ज्यादा कहा जाता है, उतना ही कम मैं जानता हूँ कि अभ्यास कैसे करना है? कर्तव्य करना बहुत आसान हुआ करता था—यह बस छोड़ देना, खुद को खपाना, भाग-दौड़ करना, सुसमाचार का खूब प्रचार करना और परमेश्वर की खूब गवाही देना था। अब सत्य के बाकी सभी पहलुओं की तरह कर्तव्य करने के बारे में सत्यों को भी विस्तार से समझाया गया है, लेकिन इन चीजों को जितना ज्यादा समझाया जाता है, मुझे ये चीजें उतनी ही कम समझ आती है और उतनी ही ये मेरी समझ से परे होती हैं।” व्याख्या जितनी ज्यादा विस्तृत होती है, ये सत्य उनकी समझ से उतने ही ज्यादा परे होते हैं—क्या यह भ्रमित होना नहीं है? वे बुरी तरह से भ्रमित हैं, है ना? हालाँकि सत्य के विभिन्न पहलुओं को विस्तार से समझा दिया गया है, फिर भी वे कुछ वैचारिक और पारिभाषिक पदों को लेकर अभी भी उलझन में हैं और भ्रमित हैं। उदाहरण के लिए, वे न तो जानते हैं और न ही यह असलियत देख सकते हैं कि बुरे लोग क्या होते हैं या नकली अगुआ क्या होते हैं; वे यह भी नहीं जानते हैं कि अच्छी मानवता क्या होती है और बुरी मानवता क्या होती है और न ही वे सत्य-सिद्धांतों का अभ्यास करने और विनियमों का पालन करने के बीच का अंतर जानते हैं। ये सभी विशिष्ट मुद्दे उनके लिए पूरी तरह से उलझे हुए हैं। यहाँ तक कि उन्हें ये वैचारिक चीजें भी समझ नहीं आती हैं—उनकी सोच अव्यवस्थित है। इसके अलावा, वे चाहे जो भी करें, उन्हें सिद्धांत नहीं मिलते, उनके पास अनुसरण करने के लिए चरण नहीं होते हैं, कोई ठोस योजना नहीं होती है और उन्हें यह नहीं पता होता है कि उन्हें कौन-सी विधियाँ अपनानी चाहिए या क्या नतीजे प्राप्त करने चाहिए; वे यह भी स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते हैं कि किसी विशेष तरीके से कार्य करने के क्या नतीजे होंगे। वे मन में सोचते हैं, “मैं इन चीजों की चिंता क्यों करूँ? अगर मुझे नहीं पता कि किसी चीज को कैसे करना है तो मैं उसे बस आँख मूँदकर कर डालूँगा—जो भी हो, जब तक मेरा दिल परमेश्वर के प्रति ईमानदार है तब तक यह काफी है।” देखो, ऐसे लोग हद से ज्यादा भ्रमित होते हैं, है ना? वे कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखते आए हैं, फिर भी उन्हें नहीं पता कि वे सत्य के किन पहलुओं को समझने लगे हैं और न ही उन्हें यह पता है कि उन्होंने सत्य का अभ्यास किया है या नहीं। इस बारे में पूछे जाने पर कि क्या उनके पास जीवन प्रवेश है, वे कहते हैं, “ऐसा है, मैं कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखता आया हूँ और मैंने अपना परिवार छोड़ दिया है।” वे इन सब चीजों के बारे में अस्पष्ट हैं—यह बुरी तरह से भ्रमित होना है। सभाओं में गाने और नृत्य करने के दौरान उनमें भरपूर ऊर्जा होती है, लेकिन जब सत्य पर धर्मोपदेशों और संगति का समय आता है तब उन्हें नींद आने लगती है, सैंडमैन आ जाता है और हो सकता है कि वे सो भी जाएँ। जब कार्य करने की बात आती है तब वे प्रयास करने को तैयार रहते हैं और कहते हैं, “आओ, हम अपने कर्तव्य अच्छी तरह से करें और परमेश्वर के प्रति अपनी निष्ठा अर्पित करें!” लेकिन जब सत्य पर संगति करने की बात आती है तब अगर उनसे पूछा जाता है, “क्या तुमने हाल ही में कोई लाभ प्राप्त किया है? क्या तुमने पहचान लिया है कि तुमने कौन-से भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किए हैं? उन्हें पहचान लेने के बाद क्या तुमने उन्हें हल करने का कोई मार्ग ढूँढ़ लिया है?” तो वे उत्तर देते हैं, “पता नहीं। मैंने उन्हें थोड़ा-सा पहचान लिया है, लेकिन मुझे नहीं पता कि मैंने जो पहचाना है वह सही है भी या नहीं। दोनों ही सूरतों में, मैं बस आगे बढ़ा और वैसे ही अभ्यास कर लिया, लेकिन मुझे नहीं पता कि यह सटीक था भी या नहीं।” वे किसी भी चीज की असलियत नहीं देख सकते हैं और उनका मन भ्रमित और अस्पष्ट रहता है। उन्हें नहीं पता कि वे किसमें निपुण हैं और न ही वे जानते हैं कि उनमें किस चीज की कमी है। भ्रष्ट स्वभावों को जानने लगने के बारे में संगति के दौरान वे मान लेते हैं कि उनमें भ्रष्ट स्वभाव हैं, कि वे झूठ भी बोलते हैं और कभी-कभी ढुलमुल होते हैं और कामचोरी करते हैं। लेकिन वास्तविक परिस्थितियों से सामना होने पर अगर तुम उनसे पूछते हो, “तुमने क्यों ढुलमुल ढंग से कार्य किया और कामचोरी की? तुमने चालबाजी क्यों की?” तो वे कहते हैं, “मैंने नहीं किया! मैंने जानबूझकर ऐसा नहीं किया—मुझे लगा कि इसे करने का यही उचित तरीका है, इसलिए मैंने इसे ऐसे किया।” मान लो कि कोई उन्हें उजागर कर देता है और कहता है, “तुमने सोचा कि इसे उस तरीके से करना उचित है, लेकिन क्या तुम्हारे भीतर कोई व्यक्तिगत इरादे या योजनाएँ थीं? क्या तुम जानते हो कि आत्म-चिंतन कैसे करना है? क्या तुम जानते हो कि इसे उस तरीके से करने के क्या नतीजे सामने होंगे?” वे जवाब देते हैं, “जब तक मेरे इरादे बुरे नहीं होते तब तक यह ठीक है।” “क्या बुरे इरादे नहीं होना सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के समान है?” “मैं नहीं जानता।” वे कुछ भी नहीं जानते। उन्होंने बहुत सारे सत्य सुने हैं, बहुत सारी संगति की है और अपने दैनिक जीवन में उनका ऐसे सभी तरह के मुद्दों से सामना हुआ है जो सत्य से संबंधित हैं, लेकिन वे अभी भी हर सत्य के बारे में अस्पष्ट और संदेहास्पद हैं। वे यह नहीं बता सकते हैं कि कौन-सी चीजें सत्य हैं और कौन-सी नहीं, और न ही वे यह जानते हैं कि स्थितियों से सामना होने पर सत्य का अभ्यास कैसे करना है। वे इस बारे में अस्पष्ट हैं कि उनके क्रियाकलाप और व्यवहार सत्य-सिद्धांतों से मेल खाते हैं या नहीं और वे चीजों को बस ऐसे किसी भी तरीके से करते हैं जो उन्हें लगता है कि अच्छा है। क्या यह भ्रमित होना नहीं है? (हाँ।) वे जो कुछ भी करते हैं उसमें उनका कोई सिद्धांत नहीं होता है और न ही किसी व्यक्ति के साथ पेश आने में उनके कोई सिद्धांत होते हैं। उदाहरण के लिए, जब बुरे लोगों से पेश आने की बात आती है तब कुछ बुरे लोगों के पास कुछ खूबियाँ या पेशेवर कौशल होते हैं और वे अभी भी कुछ समय के लिए सेवा कर सकते हैं—तो फिर ऐसे लोगों को सेवा करने की अनुमति दी जा सकती है। लेकिन कुछ लोग इस बात को बस समझ ही नहीं सकते : “क्या परमेश्वर बुरे लोगों को नापसंद नहीं करता? तो अब भी उनका उपयोग क्यों किया जा रहा है?” जब तुम उनसे यह संगति करते हो कि यह बुद्धिमानी है और एक सिद्धांत भी है, तब वे इस पर विचार करते हैं और सोचते हैं, “कौन-सा सिद्धांत? क्या यह बस लोगों को धोखा देना नहीं है? क्या यह लोगों का शोषण करना नहीं है?” वे इसे इसी तरह से देखते हैं। मुझे बताओ, क्या उनमें सामान्य मानवता की सोच है? वे नहीं जानते कि वास्तविक हालातों के अनुसार कार्य करने के लिए सिद्धांतों को कैसे पहचानना है—क्या वे सामान्य मानवीय बुद्धिमत्ता के स्तर तक पहुँच सकते हैं? (नहीं।) सामान्य मानवता की सोच और सामान्य बुद्धिमत्ता वाले सभी लोग इस मामले को समझ सकते हैं और इस पर पकड़ बना सकते हैं, लेकिन पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोग इस सरल मामले पर भी पकड़ नहीं बना सकते। तो फिर यह कैसे संभव है कि वे सत्य समझ सकते हैं? वे अक्सर एक चीज कहते हैं, “पिछली बार तुमने इस मामले के बारे में ऐसा कहा था। आज तुम कुछ भिन्न क्यों कह रहे हो? तुम्हारे शब्द भरोसे के लायक नहीं हैं—तुम उन्हें यूँ ही कभी भी कैसे बदल सकते हो?” वे नहीं जानते कि अब इस मामले की स्थिति भिन्न है, इसलिए इसे सँभालने का दृष्टिकोण भी बदलना चाहिए। हालाँकि सिद्धांत और लक्ष्य वही रहते हैं। बस यही है कि मामले को सँभालने की विधि बदल गई है—इसे विशिष्ट हालातों के अनुसार समायोजित किया जाता है और इस मामले की स्थिति के आधार पर जब भी जरूरत हो अनुकूलित किया जाता है और प्रतिक्रिया की जाती है ताकि बेहतर नतीजे प्राप्त हों। जब पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों के सामने ऐसे मामले आते हैं तब वे उनकी असलियत नहीं देख सकते हैं। उनका मानना है कि सत्य सिद्धांत विनियम हैं और उनका हर समय बिना किसी बदलाव के पालन किया जाना चाहिए। इसलिए जब तुम सत्य सिद्धांतों के आधार पर कोई चीज करने की विधि को समायोजित करते हो तब उन्हें यह समझ नहीं आता और न ही वे इसे स्वीकार कर सकते हैं। उनमें से कुछ लोग तुम्हारी निंदा तक कर सकते हैं और तुम्हारे खिलाफ उपयोग करने के लिए कोई मौका तक ढूँढ़ सकते हैं। भीतर से वे किसी भी चीज का सार या प्रकृति स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते हैं। उनके विचार भ्रमित हैं। जब वे किसी चीज को देखते हैं तब बस उस पर विनियम लागू कर देते हैं; उन्हें कभी पता नहीं होता कि उसे सत्य सिद्धांतों के आधार पर कैसे मापना है और न ही उन्हें यह पता होता है कि उसे उसके विकास के नियम के आधार पर हल करने और उस पर प्रतिक्रिया करने के लिए विभिन्न विधियाँ कैसे अपनानी हैं। पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों में यह भ्रमित होने की विशेषता बहुत स्पष्ट होती है, है ना? (हाँ।)
पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोग दूसरों का भेद पहचानने में असमर्थ होते हैं। जब वे किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जो बहुत ईमानदारी से बोलता है, लेकिन चीजों को कुछ हद तक कपटपूर्ण ढंग से करता है तब वे यह असलियत नहीं देख सकते हैं कि वह वास्तव में किस तरह का व्यक्ति है, वह वास्तव में सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति है या नहीं। ऐसी पेचीदा स्थितियों से सामना होने पर जिनके लिए द्वंद्वात्मक सोच की जरूरत होती है, वे चकरा जाते हैं और उन्हें समझने में असमर्थ होते हैं और यह नहीं जानते कि उन्हें कैसे आँकना है। वे अपनी सोच में भ्रमित होते हैं; उनकी सोच उलझे हुए जंजाल जैसी होती है और वे अपने विचारों को कभी भी सुलझा नहीं सकते। तुम उन्हें चाहे कितनी ही बार सिद्धांत बताओ, वे नहीं जानते कि विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों का भेद पहचानने के लिए सत्य सिद्धांतों को कैसे लागू करना है। उदाहरण के लिए, जब समस्याओं की रिपोर्ट करने की बात आती है तब वे वास्तविक स्थिति के आधार पर चीजों की सटीकता से रिपोर्ट नहीं कर सकते। कुछ अगुआ कुछ वास्तविक कार्य करने में सक्षम होते हैं, लेकिन कुछ मामलों में उनके कार्य के निर्वहन में कुछ विचलन हो सकते हैं और वे भ्रष्ट स्वभावों की कुछ अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित कर सकते हैं; हालाँकि उनकी मानवता और कार्य क्षमता के लिहाज से वे लगभग मानक के अनुरूप होते हैं। फिर भी कुछ भ्रमित लोग यह तथ्य नहीं देखते हैं कि ये अगुआ वास्तविक कार्य कर सकते हैं और न ही वे उनकी मानवता के गुणों को देखते हैं—इसके बजाय वे रिपोर्ट करने के लिए विशिष्ट रूप से उनके दोषों, कमियों और कुछ छोटे-मोटे, मामूली मुद्दों को चुनते हैं। इसके विपरीत, वे पक्के मसीह-विरोधी और बुरे लोग, वे लोग जो बड़ी-बड़ी बुराइयाँ करते हैं, वे कोई भी वास्तविक कार्य करने में अक्षम होते हैं और दूसरों को गुमराह करने के लिए सिर्फ शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते हैं, वे बाहरी रूप से बड़े धूमधाम से चीजें करते हैं लेकिन वास्तव में उनकी मानवता मानक के अनुरूप नहीं होती है, उन्होंने जो मार्ग चुना है वह गलत है, उनकी मानवता बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों की मानवता है और वे जिस मार्ग पर चलते हैं वह मसीह-विरोधियों का मार्ग है, सत्य का अनुसरण नहीं करने वाला मार्ग है और फिर भी ये भ्रमित व्यक्ति इन चीजों की असलियत नहीं देख सकते। वे देखते हैं कि ये लोग अपना कार्य करते समय बड़ा तामझाम करते हैं और वे मान लेते हैं कि उनमें अगुआई की प्रतिभा और संगठनात्मक कौशल हैं, वे कार्य को अच्छी तरह से कर सकते हैं। जहाँ तक यह प्रश्न है कि उनका कार्य वास्तव में क्या नतीजे उत्पन्न करता है, उन्होंने पश्चात्ताप किया है या नहीं और क्या वे बदल गए हैं या क्या उनकी मानवता मानक के अनुरूप है, वे इनमें से कुछ भी नहीं जानते हैं। अगर वे मसीह-विरोधियों द्वारा गुमराह और नियंत्रित कर लिए जाएँ तो भी उन्हें इसकी कोई खबर नहीं होगी; वे मसीह-विरोधियों का अनुसरण करेंगे और उनकी आज्ञा मानेंगे, लेकिन फिर भी यही विश्वास करेंगे कि वे परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हैं, सुसमाचार का प्रचार कर रहे हैं और परमेश्वर की गवाही दे रहे हैं। वास्तव में मसीह-विरोधी बहुत पहले ही उनका नियंत्रण ले चुके होंगे; वे परमेश्वर में विश्वास नहीं रख रहे होंगे, बल्कि लोगों का अनुसरण कर रहे होंगे, दानवों और शैतानों का अनुसरण कर रहे होंगे—फिर भी उन्हें यह पता नहीं होगा। भीतर से वे बहुत पहले ही अंधकार से भर चुके होंगे, वे बहुत पहले ही परमेश्वर की उपस्थिति खो चुके होंगे और वे बहुत पहले ही पवित्र आत्मा का कार्य खो चुके होंगे। क्योंकि वे बहुत सुन्न होते हैं, क्योंकि उनकी समझ विकृत होती है और क्योंकि वे किसी भी सत्य सिद्धांत को नहीं समझते हैं, इसलिए वे चीजों की असलियत नहीं देख सकते और लोगों का भेद पहचानने में असमर्थ होते हैं। वे न सिर्फ समस्याओं की रिपोर्ट नहीं करते हैं या मसीह-विरोधियों को नहीं हटवाते हैं, बल्कि वे उनका बचाव भी करते हैं। इसके विपरीत जब उन अगुआओं और कार्यकर्ताओं की बात आती है जो कुछ वास्तविक कार्य करने में सही मायने में सक्षम हैं तब अगर उनमें उन्हें छोटी-मोटी कमियाँ या छोटे-मोटे मुद्दे दिखाई दे जाते हैं तो वे उनकी रिपोर्ट करने और ये मुद्दे उठाने पर अड़ जाते हैं, भले ही वे सिद्धांत के मामले न हों। वे बुरी तरह से भ्रमित हैं! वे सिद्धांत के किसी भी मामले की असलियत नहीं देख सकते—यहाँ तक कि जब यह बात आती है कि उन्हें दैनिक जीवन में किसके साथ मेलजोल रखना चाहिए, वे किससे सहायता और लाभ प्राप्त कर सकते हैं या उन्हें किससे दूर रहना चाहिए तब वे इन चीजों का भेद नहीं पहचान सकते या उनकी असलियत नहीं देख सकते। उनमें से कुछ लोगों के छद्म विश्वासियों और अविश्वासियों के साथ बहुत अच्छे संबंध होते हैं, वे सोचते हैं कि ये लोग ज्ञानी हैं, उनमें काबिलियत है और इसलिए उनकी मदद कर सकते हैं और मेलजोल रखे जाने के लिए वे बहुत ज्यादा योग्य हैं। यहाँ तक कि वे बार-बार उन लोगों की तारीफ भी करते हैं जिन्हें वे पूजते हैं, कहते हैं कि वे बहुत सक्षम हैं और उनकी बहुत प्रतिष्ठा है। वे शैतानों को मूर्तियों की तरह पूजते हैं—क्या यह भ्रमित होना नहीं है? (है।)
भ्रमित होने का विशिष्ट रूप से क्या मतलब है? (खराब काबिलियत होना।) यह सामान्य पदों में है—विशिष्ट रूप से, भ्रमित होने का मतलब है कि व्यक्ति के पास किसी भी चीज का भेद पहचानने के लिए सटीक विचार और दृष्टिकोण नहीं हैं और किसी भी चीज को देखने में उसके पास कोई सिद्धांत या आधार नहीं है और इस पर उसके विचार भ्रमित हैं। यह एक पहलू है। इसके अतिरिक्त, इस प्रकार के लोग सही-गलत और काले-सफेद में भेद नहीं कर सकते हैं—वे अक्सर नकारात्मक चीजों को सकारात्मक चीजें समझने की भूल कर बैठते हैं और सकारात्मक चीजों को नकारात्मक कहते हैं। वे यह भेद नहीं पहचान सकते हैं कि सकारात्मक चीजें क्या हैं और नकारात्मक चीजें क्या हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग कहते हैं, “तुम जिस परमेश्वर में विश्वास रखते हो, वह सिर्फ एक व्यक्ति है।” वे इस पर विचार करते हैं और कहते हैं, “नहीं, यह सही नहीं है। मैं जिसमें विश्वास रखता हूँ, वह परमेश्वर है। अगर वह सिर्फ एक व्यक्ति होता तो वह सत्य कैसे व्यक्त कर सकता था? मैं जिसमें विश्वास रखता हूँ, वह परमेश्वर है—मैं इस बारे में निश्चित हूँ।” इस बिंदु पर वे भ्रमित नहीं हैं। लेकिन जब कोई कहता है, “तुम जिस परमेश्वर में विश्वास रखते हो, वह बहुत सारा पैसा लेकर फरार हो गया है और ऐश करने के लिए अमेरिका भाग गया है” तब वे चकरा जाते हैं और गुमराह हो जाते हैं। अगर बुद्धिमत्ता वाला कोई व्यक्ति ये बातें सुनता तो वह यह भेद पहचान लेता कि यह एक मनगढ़ंत अफवाह है। इसे “बहुत सारा पैसा लेकर फरार होना” कैसे कहा जा सकता है? कस्टम्स से गुजरते समय हर कोई कड़ी जाँच से गुजरता है और हर व्यक्ति कितनी नकदी ले जा सकता है वह विनियमित होता है। क्या उतनी छोटी-सी रकम को लाना “बहुत सारा पैसा लेकर फरार होना” माना जाएगा? इसके अलावा, यह पैसा किसका है? अगर कोई दूसरे लोगों के पैसों का गबन करता या उन्हें हड़प लेता तो उसे “बहुत सारा पैसा लेकर फरार होना” कहा जाता—लेकिन अगर यह उसका अपना पैसा है तो क्या उसे “बहुत सारा पैसा लेकर फरार होना” कहा जा सकता है? यह “पैसा लेकर फरार होना” नहीं है, बल्कि सामान्य रूप से पैसा लेकर चलना है। यह एक पहलू है। इसके अलावा, “फरार” का क्या मतलब है? कोई अपराध करने के बाद भागने वाले भगोड़े को “फरार” कहा जाता है। क्या देहधारी मसीह ने कोई अपराध किया? उसने तो बस बहुत सारे सत्य व्यक्त किए और चीन की मुख्य भूमि पर न्याय का अपना कार्य किया, लोगों का एक ऐसा समूह प्राप्त किया जिसने उसका अनुसरण किया और इसके लिए उसने सीसीपी का क्रूर दमन और उन्मादी गिरफ्तारियाँ सहीं। अंत में उसके पास विदेशों में परमेश्वर का कार्य जारी रखने के लिए कुछ लोगों की अगुआई करके उन्हें देश से बाहर ले जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। इसे “बहुत सारा पैसा लेकर फरार होना” कैसे कहा जा सकता है? यह एक सामान्य सफर था जिसमें पूरी तरह से सामान्य तरीके से कस्टम्स से गुजरना और संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए विमान पकड़ना शामिल था। उसने देश इसलिए छोड़ा क्योंकि सीसीपी उसका पीछा कर रही थी और उसके पास आराम करने और ठहरने की कोई जगह नहीं थी। सीसीपी के तानाशाही शासन में न सिर्फ धार्मिक स्वतंत्रता नहीं है, बल्कि परमेश्वर में विश्वास रखने पर गिरफ्तारी और उत्पीड़न भी किया जाता है; जहाँ तक उस मसीह का प्रश्न है जो मानवजाति को बचाने के लिए सत्य व्यक्त करता है, अगर उसे पकड़ लिया जाता तो वह मृत्युदंड और सूली पर चढ़ाए जाने का सामना करता। सिर्फ कार्य की जरूरतों के कारण ही मसीह ने एक लोकतांत्रिक और स्वतंत्र देश में जाने का फैसला किया और संयुक्त राज्य अमेरिका आने से पहले उसने सामान्य माध्यमों से पासपोर्ट और वीजा प्राप्त किया। अमेरिका में उसका कोई दोस्त या रिश्तेदार नहीं है, वह इस जगह से अपरिचित है और एक आम जीवन जीता है, घर का बना सादा खाना खाता है—वहाँ “ऐश करने” जैसा कुछ भी नहीं है। क्या “ऐश करना” सिर्फ उन लोगों का जुमला नहीं है जिनके गुप्त इरादे हैं? क्या यह झूठ नहीं है? मसीह अमेरिका में एक आम व्यक्ति का जीवन जीता है : घरेलू शैली वाला भोजन करता है, उसने शानदार भोजन का आनंद लेने के लिए एक बार भी किसी महँगे रेस्टोरेंट में डिनर नहीं किया है, कभी किसी महँगे होटल में ठहरना तो और भी कम है और वह घूमने के लिए मुश्किल से कभी जाता है—बस आस-पास के इलाकों में घूमना ही काफी होता है। इनमें से कोई भी चीज उसके लिए कोई विशेष आकर्षण नहीं रखती है। कुछ लोग भोजन करना पसंद करते हैं और ऐसी हर चीज का स्वाद लेना चाहते हैं जो उन्होंने पहले कभी नहीं खाई हो, यहाँ तक कि वे भोजन को सिर्फ चखने के लिए उसे हवाई जहाज से भी मँगवा लेते हैं। क्या मैंने कभी ऐसा किया है? कभी नहीं। फिर भी कुछ गुप्त इरादों वाले लोगों ने इसके संबंध में बात का बतंगड़ बना दिया है! ये लोग दानव हैं। वे परमेश्वर के दुश्मन के रूप में पैदा हुए थे और उनका इस तरह से कार्य करना उनकी जन्मजात प्रकृति है; वे लोगों को धोखा देने और परमेश्वर को बदनाम करने के लिए मुख्य रूप से झूठ पर भरोसा करते हैं। इस बारे में शक नहीं किया जा सकता कि वे दानव हैं। तो फिर जो व्यक्ति इन दानवों के झूठों पर विश्वास कर सकता है वह किस किस्म का है? यकीनन वह भी दानव ही होगा—सिर्फ दानव ही दानवों के शब्दों पर विश्वास करते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “जिस मसीह में तुम लोग विश्वास रखते हो, वह बहुत सारा पैसा लेकर भाग गया” और वे तुरंत इस बात पर पूरी तरह से विश्वास कर लेते हैं और इसे स्वीकार लेते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “जिस मसीह में तुम लोग विश्वास रखते हो, वह अमेरिका भाग गया और वहाँ ऐश कर रहा है, वह इतने सारे पकवान खाता है कि वह उनसे थक चुका है, वह आलीशान होटल में रहता है, आलीशान कारों में इधर-उधर घूमता है, उसके पास एक निजी रसोइया और सहायक हैं और वह मशहूर सुंदर जगहों पर जाने के लिए विदेश जाता है—वह ऐश करने में अपना सारा समय बिता रहा है।” जैसे ही ये भ्रमित लोग शैतान द्वारा गुमराह कर दिए जाते हैं, वे तुरंत इन बातों पर विश्वास कर लेते हैं। मैं कहता हूँ कि ऐसे लोगों को शैतान के हवाले कर देना चाहिए—वे परमेश्वर में विश्वास रखने के योग्य नहीं हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उन्होंने कितने धर्मोपदेश सुने हैं, वे बस समझते ही नहीं हैं और अब भी इन अफवाहों पर विश्वास कर सकते हैं। ऐसे लोग मनुष्य नहीं हैं। अगर वे मनुष्य नहीं हैं तो वे क्या हैं? वे पशु हैं। जबकि वे बुरे लोग नहीं हैं, लेकिन वे बुरी तरह से भ्रमित हैं, अच्छे-बुरे, सकारात्मक-नकारात्मक, सही-गलत, सत्य-दुष्टता और उलझे हुए तर्क में भेद करने में असमर्थ हैं। ऐसे लोगों को दूर कर दिया जाना चाहिए—अगर वे अपने आप नहीं चले जाते हैं तो उन्हें कलीसिया से दूर कर दिया जाना चाहिए। उन्हें तुरंत बरखास्त कर दिया जाना चाहिए और हम खुशी-खुशी उन्हें अलविदा कह देंगे। सीसीपी के पास कलीसिया द्वारा लोगों को बाहर निकाल देने का वर्णन करने का अपना एक तरीका है, उसका कहना है कि लोगों को बाहर निकाल देना और निष्कासित करना शक्ति का प्रदर्शन है। देखो, दानव और शैतान हर मामले को ऐसे बेहूदे तरीके से समझते हैं। इससे सिर्फ यह उजागर होता है कि सीसीपी के बहुत-से क्रियाकलाप शक्ति का प्रदर्शन करने की खातिर किए जाते हैं; इसलिए वह कलीसिया द्वारा लोगों को दूर किए जाने की व्याख्या शक्ति के प्रदर्शन के रूप में करती है। वह मान लेती है कि दूसरे भी उसी की तरह सोचते हैं। वह कभी नहीं समझेगी कि कलीसिया इसे पूरी तरह से सत्य और परमेश्वर के वचनों के आधार पर करती है—कलीसिया को शुद्ध करना कलीसिया के प्रशासनिक आदेशों का हिस्सा है। क्या दानव दुष्ट नहीं हैं? (वे हैं।) वे सच में दुष्ट हैं! और भ्रमित लोग बहुत सारे हैं—इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि दानव कितने दुष्ट हैं, भ्रमित लोग यह नहीं देख सकते कि वे दुष्ट हैं। जब दानव परमेश्वर के बारे में अफवाहें गढ़ते हैं, परमेश्वर का अपमान करते हैं और उसकी ईश-निंदा करते हैं तब भ्रमित लोग हर शब्द पर विश्वास कर लेते हैं। लेकिन परमेश्वर के वचन चाहे कितने भी वास्तविक और सकारात्मक हों, वे उन पर विश्वास नहीं करते। चाहे परमेश्वर के वचन लोगों को कितना भी लाभ पहुँचाएँ, वे उसे देख नहीं सकते। लेकिन जैसे ही शैतान एक अकेला शब्द भी बोलता है, तो वे गुमराह हो जाते हैं और बिना किसी प्रश्न के उस पर विश्वास कर लेते हैं। यह कहा जा सकता है कि वे शैतान जैसे हैं, लेकिन शैतान वास्तव में उन्हें नहीं चाहता है। क्यों? क्योंकि उनके जैसे बेवकूफ लोग, ऐसे निरे बेअक्ल लोग शैतान के लिए भी बहुत ही ज्यादा नासमझ हैं। तुम कुछ भी करने में अक्षम हो, इसलिए शैतान बस तुम्हें परमेश्वर में विश्वास नहीं रखने और परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने के लिए गुमराह करता है—शैतान तुम्हारे जैसे किसी को नहीं चाहता है। तुम संभवतः क्या कर सकते हो? क्या तुममें जासूसी करने के कौशल हैं? तुममें तो मानवीय बुद्धिमत्ता तक नहीं है। तुम तीन वाक्य पूरे करने से पहले ही अपनी पहचान उजागर कर दोगे। अगर तुम सीसीपी के लिए जासूस बनना चाहते तो भी सीसीपी तुम्हें नहीं चाहती। क्योंकि तुम बेवकूफ हो, भ्रमित हो, तुम्हें धोखा देना बहुत आसान है और तुममें मानवीय बुद्धिमत्ता नहीं है, इसलिए शैतान भी तुम्हें नीची नजर से देखता है और तुम्हें नहीं चाहता है। इसलिए जब परमेश्वर का घर तुमसे अपना कर्तव्य करने के लिए कहता है तब यह परमेश्वर द्वारा तुम्हारा उन्नयन करना है—ऐसा महसूस मत करो कि तुम्हारे साथ अन्याय हुआ है। तुम शैतान की कही हर बात पर विश्वास कर लेते हो, लेकिन चाहे परमेश्वर ने कितना भी कार्य किया हो या परमेश्वर ने कितने भी वचन कहे हों, तुम उन पर विश्वास नहीं करते। तुम्हें परमेश्वर में कोई सच्चा विश्वास नहीं है और तुम संदेह से भरे रहते हो। शैतान एक शब्द बोलता है और तुम उसके द्वारा बंदी बना लिए जाते हो। तुम किस तरह के नीच व्यक्ति हो? तुममें क्या गरिमा है? तुम्हारा क्या मूल्य है? तुम सिर्फ एक भ्रमित व्यक्ति हो और कुछ नहीं, फिर भी तुम सोचते हो कि तुम बहुत अच्छे हो और खुद को नेक मानते हो। तुम शैतान के बहुत ही स्पष्ट झूठों तक का भेद नहीं पहचान सकते और न ही तुम उनके पीछे शैतान के उद्देश्य को पहचान सकते हो—क्या यह अत्यधिक भ्रमित होना नहीं है? सीसीपी कहती है, “जिस मसीह में तुम लोग विश्वास रखते हो, वह बहुत सारा पैसा लेकर फरार हो गया और संयुक्त राज्य अमेरिका में ऐश कर रहा है।” जब ये भ्रमित लोग यह बात सुनते हैं तब एक पल के लिए उनके दिलों की धड़कन रुक जाती है : “क्या ऐसा है? मुझे इस बारे में पता कैसे नहीं चला? क्या वह मेरे द्वारा चढ़ाए गए सारे पैसे लेकर फरार हो गया? कलीसियाई कार्य के लिए उसका उपयोग नहीं हुआ, है ना? यह उसके व्यक्तिगत मौजमस्ती के लिए खर्च किया गया है, है ना? इसका उपयोग उसने अपने लिए अच्छा भोजन, बढ़िया कपड़े और कीमती गहने खरीदने के लिए किया है, है ना? मुझे तो इसका आनंद लेने का मौका तक नहीं मिला—मैंने यह उसे चढ़ाया और उसने इसका उपयोग अपने खुद के आनंद के लिए कर लिया। मैं इसे स्वीकारने से एकदम इनकार करता हूँ। मुझे अब और विश्वास नहीं है! मुझे अपना पैसा वापस चाहिए!” अगर तुम पैसे चढ़ाने पर पछता रहे हो तो परमेश्वर का घर तुम्हें यह वापस कर सकता है, लेकिन उस पल से तुम्हें परमेश्वर के घर से पूरी तरह से अलग कर दिया जाएगा। तुमने बहुत सारे वर्षों से धर्मोपदेश सुने हैं—तुम्हें मुफ्त में कितना सत्य मिला है? तुमने इतने वर्षों से परमेश्वर के अनुग्रह, आशीष, सुरक्षा और देखभाल का आनंद लिया है—क्या तुमने एक भी पैसा खर्च किया है? क्या परमेश्वर ने कभी तुमसे पैसा माँगा है? परमेश्वर का अनुग्रह, आशीष, देखभाल और सुरक्षा—तुम्हारा अपना जीवन भी—सब कुछ तुम्हें परमेश्वर द्वारा प्रदान किया गया था। क्या परमेश्वर तुम्हें जो प्रदान करता है उसे तुम पैसों से खरीद सकते हो? तुम उसके बदले में क्या दे सकते हो? क्या तुम अपने उन कुछ गंदे सिक्कों से उसका सौदा कर सकते हो? ये चीजें अनमोल खजाने हैं—तुम उनके बदले कुछ भी नहीं दे सकते; कोई भी नहीं दे सकता! ये तुम्हें इसलिए प्रदान किए गए हैं क्योंकि परमेश्वर ऐसा करने के लिए इच्छुक है, क्योंकि परमेश्वर तुम्हें अनुग्रह दिखाता है और परमेश्वर तुमसे एक सृजित प्राणी की तरह पेश आता है। ये वे चीजें नहीं हैं जिन्हें तुमने पैसों से खरीदा और न ही ये कोई कीमत चुकाने के बदले में मिली चीजें हैं। भ्रमित लोग इन चीजों की असलियत नहीं देख सकते हैं। वे अपने दिलों में हमेशा उलझन में रहते हैं; वे हमेशा सोचते हैं, “क्या परमेश्वर के पास कोई गहरा राज है? क्या धर्मोपदेश देने के अलावा ऐसी और भी बहुत-सी चीजें नहीं हैं जो हमें स्पष्ट की जानी चाहिए और समझाई जानी चाहिए? क्या कोई स्पष्टीकरण, कोई हिसाब नहीं होना चाहिए? क्या उसके निजी जीवन और पर्दे के पीछे के उसके शब्दों और क्रियाकलापों का सबके सामने खुलासा नहीं किया जाना चाहिए?” बहुत-से भ्रमित लोगों की यही मानसिकता होती है—हो सकता है कि वे ऐसी बातें जोर से न कहें, लेकिन वे अपने दिलों में यही सोचते हैं। क्या परमेश्वर को भ्रष्ट मानवजाति को उन सब चीजों का खुलासा करने की जरूरत है जो वह करता है? परमेश्वर ने पहले ही बहुत सारे सत्य व्यक्त कर दिए हैं और यह सबसे महान किस्म का खुलासा है—यह सभी लोगों को प्रकट करता है। अगर तुम यह नहीं मानते कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सत्य है तो तुम्हें परमेश्वर का बिल्कुल भी कोई ज्ञान नहीं है। अगर तुम परमेश्वर के बारे में मनमानी टिप्पणियाँ करते हो तो तुम परमेश्वर पर आक्रमण कर रहे हो और उसका विरोध कर रहे हो। परमेश्वर ने पहले ही सारा सत्य सार्वजनिक कर दिया है ताकि लोग चीजों को देखने के लिए सत्य का उपयोग कर सकें। व्यक्ति को लोगों को कैसे देखना चाहिए, उसे चीजों को कैसे देखना चाहिए और उसे अपने आचरण और कार्य में कौन-से दृष्टिकोण और सिद्धांत रखने चाहिए—यह सब कुछ परमेश्वर के वचनों में है। अगर तुम लोग अभी भी यह नहीं जानते और इस बारे में स्पष्ट नहीं हो तो इसका कारण यह है कि तुम भ्रमित हो—तुम एक भ्रमित व्यक्ति हो। भ्रमित लोग परमेश्वर और परमेश्वर के घर के मामलों के बारे में जानने के अयोग्य हैं—दानव तो और भी कम—क्योंकि भ्रमित लोगों और दानवों को किसी भी सत्य की कोई समझ नहीं होती है; उनका इन मामलों में आँख मूँदकर विनियम लागू करने के प्रति झुकाव होता है, वे इनके बारे में आँख मूँदकर निर्णय लेते हैं और आँख मूँदकर इनकी निंदा करते हैं। उनमें भेद पहचानने की कोई क्षमता नहीं होती और न ही कोई सिद्धांत होता है। यह निस्संदेह कहा जा सकता है : भ्रमित लोग और दानव परमेश्वर के घर में रहने के अयोग्य हैं—उन्हें दफा हो जाना चाहिए! भ्रमित लोगों और बेतुके लोगों के पास सत्य समझने की मूलभूत स्थितियाँ नहीं होती हैं और न ही उनके पास उद्धार प्राप्त करने की मूलभूत स्थितियाँ होती हैं—उन्हें शैतान द्वारा कभी भी और कहीं भी बंदी बना लिया जा सकता है। मुझे बताओ, परमेश्वर ने आखिर कब पशुओं को धर्मोपदेश दिया है या सत्य समझाया है? इस तरह, लोगों का बहुत सारे धर्मोपदेश सुनने में समर्थ होना, चाहे वे सत्य समझ सकते हों या नहीं, यह पूरी तरह से परमेश्वर के अनुग्रह और परमेश्वर के उन्नयन के कारण है। अगर तुम हमेशा परमेश्वर पर संदेह करते हो और सोचते हो, “क्या मैं जिस पर विश्वास करता हूँ वह वास्तव में सच्चा परमेश्वर है? क्या परमेश्वर का वास्तव में अस्तित्व है? क्या परमेश्वर वास्तव में सभी चीजों पर संप्रभु है? क्या परमेश्वर वास्तव में लोगों के प्रति अच्छा है या सिर्फ ढोंग कर रहा है? क्या परमेश्वर वास्तव में सत्य है और क्या वह वास्तव में लोगों को बचा सकता है?”—अगर तुम इस तरीके से सोचते हो और परमेश्वर से इस रवैये से पेश आते हो तो तुम मृत्यु के लायक हो। देर-सवेर परमेश्वर एक विशेष परिवेश का इंतजाम करेगा जिसके जरिए वह तुम्हें शैतान के हवाले कर देगा और परमेश्वर के साथ तुम्हारा रिश्ता पूरी तरह से टूट जाएगा। तुम्हारा और परमेश्वर का रिश्ता अब एक सृजित प्राणी और सृष्टिकर्ता का रिश्ता नहीं रहेगा और उस पल से तुम्हारा परमेश्वर से कोई लेना-देना नहीं रहेगा।
हमने अभी-अभी जिस पर संगति की वह पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों की तीसरी अभिव्यक्ति थी—कि वे अविवेकपूर्ण होते हैं। एक और अभिव्यक्ति है, जो यह है कि वे बेवकूफ होते हैं। बेवकूफी भी बुद्धिमत्ता से संबंधित है—तो आखिर ये लोग कितने बेवकूफ होते हैं? कौन-सी अभिव्यक्तियाँ बेवकूफी दर्शाती हैं? कुछ लोग सुसमाचार का प्रचार करते समय कहते हैं, “परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहो! परमेश्वर के पास सिर रखने तक की कोई जगह नहीं है। परमेश्वर के इरादे श्रमसाध्य हैं! परमेश्वर का कार्य आसान नहीं है—यह दुष्कर है!” जब अविश्वासी यह सुनते हैं तो वे कहते हैं, “तुम यह क्या बड़बड़ कर रहे हो?” ये शब्द अविश्वासियों की समझ से परे हैं। वे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, इसलिए वे नहीं जानते कि इन शब्दों का क्या मतलब है या इनकी पृष्ठभूमि क्या है। तो क्या तुम्हारा ये चीजें कहना बेवकूफी भरा नहीं है? (हाँ।) यह किस तरीके से बेवकूफी भरा है? ये चीजें गलत श्रोताओं को संबोधित की गई हैं, है ना? (हाँ।) कुछ अविवेकपूर्ण लोगों को गिरफ्तार करने के बाद दुष्ट पुलिस पूछताछ करती है : “तुम लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हो—परमेश्वर तुम लोगों से क्या करने के लिए कहता है? क्या तुम नहीं जानते कि परमेश्वर में विश्वास रखना गैर-कानूनी है? तुम लोगों ने कानून का उल्लंघन किया है। राज्य ऐसे विश्वास की अनुमति नहीं देता है!” दरअसल ये दुष्ट पुलिस अधिकारी बस कुछ कीचड़ ढूँढ़ रहे हैं जिसका वे परमेश्वर में विश्वास रखने वालों को अपराधी ठहराने के लिए उपयोग कर सकें, लेकिन इस तरह का बेवकूफ व्यक्ति इसकी असलियत देखने में विफल हो जाता है। वह कहता है, “परमेश्वर में हमारा विश्वास गैर-कानूनी नहीं है। परमेश्वर हमें ईमानदार लोग बनने, सही मार्ग पर चलने और अच्छा व्यक्ति बनने के लिए कहता है।” जब दानव यह बात सुनते हैं तब वे कहते हैं, “चूँकि परमेश्वर तुम लोगों से ईमानदार लोग बनने के लिए कहता है, तो फिर हमें बताओ—तुम लोगों की कलीसिया के अगुआ कौन हैं? तुम लोगों की कलीसिया का पैसा कहाँ रखा है? ईमानदारी से बोलो! अगर तुम ईमानदारी से नहीं बोले तो तुम्हारा परमेश्वर तुम्हारी निंदा करेगा!” यह सुनकर इस तरह का बेवकूफ व्यक्ति हक्का-बक्का रह जाता है। क्या यह बेवकूफ होना नहीं है? कोई दानवों से ईमानदारी से कैसे बात कर सकता है? कोई दानवों को परमेश्वर का सत्य कैसे बता सकता है? चाहे कुछ भी हो जाए, उन्हें कभी नहीं बताना चाहिए। ऐसे बेवकूफ लोग भी होते हैं जो पुलिस से पूछते हैं, “तुम लोग हमेशा हमें क्यों गिरफ्तार करते हो? तुम हमेशा हम परमेश्वर में विश्वासी लोगों के लिए चीजें मुश्किल क्यों बना देते हो? तुम हमेशा हमारे बारे में अफवाहें क्यों गढ़ते हो?” क्या वे वास्तव में नहीं जानते कि वे ऐसा क्यों करते हैं? क्या वे उनसे उत्तर पाने की उम्मीद करते हैं? क्या उन्हें उत्तर मिलेगा? उनसे कारण पूछना—क्या यह बेतुका नहीं है, क्या यह बेवकूफ होना नहीं है? लेकिन ये बेवकूफ लोग सचमुच में ऐसी बेवकूफी भरी चीजें पूछ सकते हैं। वे बस समझते ही नहीं हैं और पूछते रहते हैं, “सीसीपी क्यों हमेशा हमें सताती है? वह क्यों हमेशा हम परमेश्वर में विश्वासी लोगों को गिरफ्तार करती है और यहाँ तक कि हमारे बारे में अफवाहें भी गढ़ती है? हमें स्पष्ट रूप से सताया जा रहा है और हम घर नहीं लौट सकते हैं, फिर भी वह कहती है कि हमने अपने परिवारों को छोड़ दिया है। ये दानव अपने शब्दों को तथ्यों पर आधारित नहीं करते! क्या यह पूरी तरह से मनगढ़ंत नहीं है? हम तो बस परमेश्वर की गवाही देने और परमेश्वर के वचनों का प्रसार करने के लिए कुछ कलात्मक प्रदर्शन वीडियो बनाते हैं—दानव और शैतान क्यों इससे इतनी ज्यादा नफरत करते हैं? वे हमेशा मेरे परिवार और रिश्तेदारों को डराने-धमकाने के लिए मेरे घर जाते हैं, यहाँ तक कि निगरानी कैमरे भी लगाते हैं—क्यों?” क्या यह पूछने की जरूरत भी है? क्या यह कहना बेवकूफी नहीं है? अगर तुमने अभी-अभी परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया हो तो यह नहीं समझना कि क्या चल रहा है, एक सामान्य बात होगी। लेकिन तुम्हें परमेश्वर में विश्वास रखते हुए बहुत सारे वर्ष हो चुके हैं—फिर भी तुम्हें कैसे नहीं पता? और अगर तुम्हें पता है तो फिर तुम पूछते क्यों हो? कुछ लोग अभी भी नहीं समझ सकते : “हमने कभी भी पार्टी या राज्य का विरोध नहीं किया है, हम कभी भी राजनीतिक गतिविधियों में शामिल नहीं हुए हैं, हमने कभी भी सरकार या उसके शासन का तख्ता पलटने का प्रयास नहीं किया है, हमने कभी भी उसके शासन के लिए कोई खतरा उत्पन्न नहीं किया है—तो फिर सीसीपी क्यों हमेशा हमें गिरफ्तार करती है और सताती है? हम हमेशा छिपे रहते हैं, चाहकर भी घर नहीं जा पाते या अपने परिवारों को फोन नहीं कर पाते। मुझे समझ नहीं आता—सीसीपी क्यों हमेशा हमारे लिए चीजें मुश्किल बना देती है?” अगर तुम सच में इसकी असलियत नहीं देख सकते तो फिर तुम हद से ज्यादा जाहिल हो—तुम सच में बेवकूफ हो। मान लो, एक महिला है जो एक अविश्वासी व्यक्ति से शादी करती है। जब वे डेट कर रहे थे तब उसने कहा था, “मैं भी तुम्हारे साथ विश्वास रखूँगा—हम एक साथ स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करेंगे।” वह बहुत अच्छी तरह से बोला था, लेकिन दरअसल वह एक छद्म-विश्वासी है, एक दानव है—वह बस उसे झूठे वादों से बहका रहा था। लेकिन जब वह परमेश्वर के लिए खुद को खपाने के लिए सब कुछ छोड़ देती है तब वह आगबबूला हो जाता है। वह उसे सभाओं में शामिल नहीं होने देता, उसे अपना कर्तव्य नहीं करने देता और उसे परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ने देता। यह बेवकूफ महिला अब भी हैरान होती है, “वह पहले तो ऐसा नहीं था। वह मुझसे बहुत प्रेम करता था, मेरी बहुत परवाह करता था, मुझे बहुत अच्छी तरह से समझता था और परमेश्वर में मेरे विश्वास का पूरा समर्थन करता था। अब वह एक बिल्कुल अलग व्यक्ति जैसा क्यों लगता है? पहले तो वह भी विश्वास रखता था—वह क्यों ऐसा बन गया है?” कई वर्षों के दौरान जब वह अपना कर्तव्य करते हुए घर से दूर है तब वह लगातार इस मामले पर विचार करती है : “मेरा पति कोई और महिला ढूँढ़ ही नहीं सकता। वह सबसे ज्यादा मुझसे प्रेम करता है। मैं उसकी इकलौती हूँ, मैं उसका पहला प्रेम हूँ। वह कभी किसी और महिला से प्रेम नहीं करेगा। इसके अलावा, मेरा पति एक सीधा-सादा पुरुष है और उसके पास कोई विशेष योग्यता या कौशल नहीं है—आखिर कौन उसके साथ रहना चाहेगा?” दरअसल वह जब ऐसा सोचती है तब भी अपने दिल में असहज महसूस करती है। वह उम्मीद करती है कि उसका पति अभी भी उसकी प्रतीक्षा कर रहा होगा। लेकिन वास्तव में, जब वह घर पर ही थी तब भी, क्योंकि वह हर रोज परमेश्वर में विश्वास रखने और अपना कर्तव्य करने में व्यस्त रहती थी, उसके पति को पहले ही कोई दूसरी महिला मिल चुकी थी। फिर भी वह सोचती है कि यह असंभव है : “और कोई भी व्यक्ति दूसरी महिला ढूँढ़ सकता है, लेकिन वह ऐसा नहीं कर सकता। वह उस तरह का व्यक्ति है ही नहीं! जब मैं घर पर थी, तब उसने यह तक कहा था कि वह परमेश्वर में विश्वास रखना चाहता है!” मुझे बताओ, क्या वह बहुत ही ज्यादा बेवकूफ नहीं बन रही है? (हाँ।) कई वर्षों से वह घर पर नहीं रही है—न सिर्फ उसका पति किसी और को ढूँढ़ चुका है, बल्कि उसके बच्चे और माता-पिता भी उसे ठुकरा चुके हैं। उसे बहुत पहले ही उस परिवार का सदस्य मानना बंद कर दिया गया है। कौन जाने वे उसके पीठ पीछे उसका कितना अपमान करते हैं या उससे कितनी गहरी नफरत करते हैं। फिर भी वह इसकी असलियत नहीं देख सकती है—मुझे बताओ, क्या यह बेवकूफी नहीं है? (हाँ।) वह किस हद तक बेवकूफ है? इस हद तक कि उसमें सामान्य मानवीय बुद्धिमत्ता की पूरी तरह से कमी है; इसलिए वह लोगों और चीजों को देखने के लिए सामान्य मानवीय सोच का उपयोग नहीं कर सकती है। वह चीजों को देखने और मापने के लिए हमेशा अपने बचकाने, विकृत, मूर्खतापूर्ण विचारों और दृष्टिकोणों का उपयोग करती है। अंत में वह अक्सर खुद को मुश्किल स्थितियों में फँसा लेती है, बहुत निष्क्रिय हो जाती है और बहुत जाहिल तरीके से कार्य करती है। क्या यह बेवकूफी नहीं है? (हाँ।) इस तरह के कुछ बेवकूफ लोग हैं। बेवकूफ होने का मतलब है कि उनमें सामान्य मानवता की बुद्धिमत्ता नहीं होती है, इसलिए लोगों और चीजों को देखते समय या मामलों को सँभालते समय उन्हें अच्छे नतीजे हासिल करने में समर्थ बनाने के लिए उनके पास मूलभूत सिद्धांतों का सहारा नहीं होता है, है ना? (हाँ।)
संक्षेप में, अगर पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों को सत्य का मानक के रूप में उपयोग करते हुए मापा जाए तो उनकी प्राथमिक विशेषता यह है कि वे मूलतः उस पर खरे नहीं उतरते हैं—यह एक उच्च मानक है। अगर उन्हें सामान्य मानवता की बुद्धिमत्ता से मापा जाता है तो वे अपने दैनिक जीवन में सामने आने वाले लोगों, घटनाओं, चीजों या स्थितियों को सामान्य मानवता की सोच से देखने तक में असमर्थ होते हैं। सच पूछो तो दैनिक जीवन में ऐसे लोग अपने भोजन, कपड़े, आश्रय या परिवहन का स्वतंत्र रूप से प्रबंध तक नहीं कर सकते हैं और न ही वे इन मुद्दों के प्रति स्वतंत्र रूप से प्रतिक्रिया कर सकते हैं और उन्हें सँभाल सकते हैं। अगर वे भूख से दम तोड़े बिना जैसे-तैसे गुजारा करने में कामयाब हो जाते हैं तो भी विभिन्न मामलों को सँभालने में अपनी अभिव्यक्तियों से, ऐसे लोग बहुत मूर्ख और अनाड़ी लगते हैं, वे सच्ची सामान्य मानवता वाले लोग होने से बहुत दूर होते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ पशुओं को ही ले लो—उन्हें अपने आप यह नहीं पता होता है कि उनके लिए कितनी मात्रा में खाना उचित है। अगर लोग उन्हें निश्चित समय पर और नपी-तुली मात्रा में चारा खिलाएँ, सिर्फ तभी वे स्वस्थ तरीके से खा सकते हैं। उदाहरण के लिए, कुत्तों की ही बात ले लो, अगर उन्हें खुलकर खाने को छोड़ दिया जाए, मात्रा पर कोई पाबंदी न रहे तो वे बहुत ही ज्यादा खा लेंगे। वे तब तक खाते रहेंगे जब तक कि वे अपना पेट ठसाठस भर नहीं लेते और शारीरिक रूप से और खाने में असमर्थ नहीं हो जाते। इसलिए पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों की एक बहुत ही स्पष्ट विशेषता यह है कि वे अपने जीवन के बहुत सारे पहलुओं को स्वतंत्र रूप से सँभाल नहीं सकते हैं। वे ऐसा स्वतंत्र रूप से क्यों नहीं कर सकते? वह इसलिए क्योंकि उन्हें कभी पता नहीं होता कि ऐसी चीजें करने के क्या सिद्धांत हैं, मूलभूत स्थितियाँ क्या हैं या उन्हें कौन-सी सीमाएँ नहीं लाँघनी चाहिए। यह ठीक कुछ पशुओं जैसा है जब वे खाना खाते हैं—उन्हें पता नहीं होता कि खाने की कितनी मात्रा उचित है। अगर लोग उनका ध्यान न रखें तो वे तब तक खाते रहेंगे जब तक कि उनका पेट ठसाठस भर नहीं जाता और वे मर नहीं जाते। अगर उनका ध्यान रखने और उन्हें खाना खिलाने के लिए कोई है तो हो सकता है कि उनकी सेहत ठीक रहे। यह विशेषता पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों में भी बहुत स्पष्ट होती है। ठीक वैसे ही जैसे कुछ लोग कहते हैं : “वे बिना यह जाने कि वे भूखे हैं या उनका पेट भरा हुआ है, खाते हैं और बिना यह जाने कि दिन है या रात, सोते हैं।” तो क्या ऐसे लोगों में मानवता की बुद्धिमत्ता होती है? यह बहुत स्पष्ट है कि उनमें नहीं होती है। जहाँ तक इस तरह के विचार हैं जैसे कि साल के चारों मौसमों में जैसे-जैसे शरीर विभिन्न स्थितियों का अनुभव करता है तो अपने स्वास्थ्य को नियंत्रित करने के लिए किस तरह से भोजन करना चाहिए, किस मौसम में कौन-से खाद्य पदार्थ स्वास्थ्यकर हैं और कौन-से अस्वास्थ्यकर, जीवन जीने के कौन-से तरीके स्वास्थ्यकर हैं और कौन-से अस्वास्थ्यकर—सामान्य व्यक्ति को बीस वर्ष की आयु में शायद इन बातों का पता न हो, लेकिन तीस वर्ष की आयु में उसे इनमें से कुछ बातें पता होती हैं और चालीस वर्ष की आयु में तो उसे इससे भी ज्यादा बातें पता होती हैं। पचास वर्ष की आयु में वे अपनी वास्तविक शारीरिक स्थिति के आधार पर जीने की ऐसी नियमावली संक्षेप में बना चुके होंगे जो उनके लिए उपयुक्त है, और यह मूलतः स्थापित और निश्चित हो चुकी होगी और आगे इसमें कोई बड़ा बदलाव नहीं होगा। लेकिन पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोग भले ही अस्सी वर्ष तक जीवित रहें, फिर भी वे जीने की नियमावली संक्षेप में नहीं बनासकते। वे या तो बहुत ज्यादा भोजन करते हैं या फिर बहुत ही कम और या तो उनका पेट खराब हो जाता है या उन्हें बदहजमी हो जाती है। उन्हें पता ही नहीं होता कि कौन-सी स्वास्थ्य समस्याएँ जीवनशैली की किन आदतों या किन खाद्य पदार्थों के कारण होती हैं—वे बस बेहूदगी से भोजन करते हैं। अगर तुम उनसे उनके शारीरिक गठन के लिए उपयुक्त या अनुपयुक्त खाद्य पदार्थों और विभिन्न जानकारियों के आधार पर उपयुक्त आहार नियम या आहार का तरीका संक्षेप में बताने के लिए कहो तो वे ऐसा नहीं कर सकेंगे। उदाहरण के लिए, कोई ऑनलाइन व्यक्ति कहता है कि अंडे के छिलकों में ज्यादा मात्रा में कैल्शियम होता है और अंडे के छिलके खाने से उनकी कैल्शियम की पूर्ति हो सकती है तो वे इस पर सोच-विचार करते हैं : “मैं ज्यादा लंबा नहीं हूँ क्योंकि मुझमें कैल्शियम की कमी है—मैं कैल्शियम की पूर्ति करने के लिए अंडे के छिलके खाऊँगा।” लेकिन जैसा कि पता चलता है, कुछ समय तक अंडे के छिलके खाने के बाद ऐसा लगता है कि उनके कैल्शियम के स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ है। मुझे बताओ, क्या यह विकृत नहीं है? जब तुम्हें ऑनलाइन ऐसी जानकारी मिलती है कि अंडे के छिलकों में ज्यादा मात्रा में कैल्शियम होता है और इसे कैल्शियम अनुपूरक के रूप में उपयोग किया जा सकता है तो तुम्हें इसे कैसे समझना चाहिए? यह बिल्कुल स्पष्ट है कि जो लोग अंडे के छिलके खाते हैं उनमें विकृति की संभावना होती है। उनकी समझ गलत है, इसलिए उनका अभ्यास विकृत, अव्यावहारिक और मूर्खतापूर्ण होता है। तो फिर इसे समझने का सही तरीका क्या है? भले ही अंडे के छिलकों में ज्यादा मात्रा में कैल्शियम हो, लेकिन वे ऐसी चीजें नहीं हैं जिन्हें हम खा सकें। वे वास्तव में कैल्शियम के अनुपूरक के समान प्रभाव दे सकते हैं या नहीं, यह अभी भी अज्ञात है और भले ही ये तुम्हारे कैल्शियम के स्तर को बढ़ा सकते हों तो भी तुम इसे अवशोषित कर सकोगे या नहीं यह भी अनिश्चित है। इसके अलावा, क्या ऐसा कोई प्रमाण है कि अंडे के छिलके कैल्शियम के अनुपूरक हो सकते हैं? क्या इस दावे को सत्यापित किया गया है? दरअसल ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो कैल्शियम की पूर्ति कर सकती हैं और ये सभी चिकित्सकीय रूप से प्रमाणित हैं। अगर तुम इन प्रमाणित विधियों को स्वीकारने से इनकार करते हो तो तुम बेहूदे व्यक्ति हो। क्या तुम कैल्शियम की पूर्ति करने के लिए बस कैल्शियम की गोलियाँ नहीं ले सकते? यह सबसे आसान विधि है। ये पेट या दाँतों को नुकसान नहीं पहुँचाती हैं, इनका स्वाद अच्छा होता है और तुम इनके प्रभाव महसूस कर सकते हो। क्या यह सही समझ नहीं है? (हाँ।) लेकिन विकृत समझ वाले लोग इसे इस तरीके से नहीं समझते—वे चीजों को चरम पर ले जाते हैं। उनका मानना है, “अगर कोई कहता है कि अंडे के छिलके तुम्हारी कैल्शियम की पूर्ति कर सकते हैं तो अंडे के छिलके खाना ठीक ही होगा। अगर तुम्हें अपनी कैल्शियम की पूर्ति करनी है तो तुम्हें अंडे के छिलके खाने ही होंगे।” वे इस बात पर भी विचार नहीं करते कि क्या इन्हें खाकर शरीर अवशोषित कर सकता है। यह विकृत समझ को दर्शाता है, यह अति करना है। अगर कोई कहे, “केले के छिलके में ज्यादा मात्रा में विटामिन होते हैं और इसे खाने से तुम्हारी सुंदरता निखर सकती है” तो क्या तुम लोग इसे खाओगे? (नहीं।) क्यों नहीं? (क्योंकि परमेश्वर द्वारा बनाए गए कुछ खाद्य पदार्थों को प्राकृतिक व्यवस्था के अनुसार छीलने के बाद खाना चाहिए। छिलका खाने पर जोर देना चीजों को चरम पर ले जाना है। अगर कोई अपनी सुंदरता बढ़ाने के लिए अपनी विटामिन की पूर्ति बढ़ाना चाहता है तो उसे ऐसे खाद्य पदार्थ खाने चाहिए जो सामान्य रूप से खाने योग्य हैं और साथ ही सुंदरता बढ़ाने वाले प्रभाव भी रखते हैं।) यह सही समझ है। लेकिन उस अतिवादी बेवकूफ को देखो—वह इसे इस तरीके से नहीं समझता। वह छिलका खाने के लिए खुद को मजबूर करने पर अड़ा है और यहाँ तक कहता है, “मुझे अपने देह के खिलाफ विद्रोह करना होगा। मुझे एक विशिष्ट पोषक तत्व का स्तर बढ़ाने के लिए केले का छिलका खाना होगा।” लेकिन वह यह नहीं सोचता, “केले के छिलके का स्वाद अच्छा नहीं होता है। यह भोजन नहीं है। मैं इसे नहीं खाऊँगा। इसके बजाय मैं ऐसा कुछ और क्यों नहीं खा लेता जिसमें यह पोषक तत्व है?” क्या यह सही समझ नहीं है? (हाँ।) अगर तुम इस तरह से फर्क कर सकते हो, अगर तुम चीजों को इस तरह से समझ सकते हो तो यह प्रमाणित करता है कि तुममें मानवीय बुद्धिमत्ता है। लेकिन अगर तुम इस तरह से फर्क नहीं कर सकते और जैसे ही तुम सुनते हो कि केले के छिलके में एक खास पोषक तत्व होता है, तुम उसे खाने की जिद करते हो, भले ही उसका स्वाद खराब हो—तो तुम बेवकूफ हो, तुम किसी पशु से पुनर्जन्म लिए हुए व्यक्ति हो और तुममें सामान्य मानवता की सोच नहीं है। कोई भी पाखंड या भ्रांति ऐसे लोगों को गुमराह कर सकती है और वे विभिन्न सूचनाओं की सटीकता या सत्यता का भेद पहचानने में बस असमर्थ होते हैं—वे हमेशा धोखा खा जाते हैं। यह सब कुछ इस बात की अभिव्यक्ति है कि पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोग विभिन्न विशिष्ट मामलों से कैसे पेश आते हैं—वे बेहद बेवकूफ होते हैं, उनकी समझ विकृत और बेतुकी होती है और वे हर चीज को चरम पर ले जाते हैं। जब लोग कहते हैं कि शोध किसी चीज को खाने योग्य बताता है तब इसका मतलब यह नहीं है कि तुम्हें उसे खाना ही होगा और न ही इसका मतलब यह है कि कोई और चीज उसकी जगह नहीं ले सकती। अगर तुम कहते हो कि सत्य की जगह कोई सैद्धांतिकी नहीं ले सकती है तो यह वस्तुनिष्ठ और सटीक है। लेकिन ये पोषक तत्व भौतिक पदार्थ हैं—यह असंभव है कि इनका कोई विकल्प ही न हो। परमेश्वर ने नाना प्रकार के खाद्य पदार्थ बनाए हैं और ऐसे बहुत सारे खाद्य पदार्थ हैं जिनमें विभिन्न पोषक तत्व होते हैं। लोग अपने व्यक्तिगत शारीरिक गठन, आयु वर्ग और वर्तमान स्वास्थ्य स्थिति के आधार पर सटीक चयन कर सकते हैं—विनियमों पर कायम रहने की कोई जरूरत नहीं है। जो लोग चरम पर चले जाते हैं वे कोई जानकारी सुनने के बाद उससे सही ढंग से पेश नहीं आ सकते और न ही उसका भेद पहचान सकते हैं। वे हमेशा इन चीजों से गुमराह हो जाते हैं और अंत में कहते हैं, “ऑनलाइन सब कुछ झूठ होता है—एक भी शब्द सच नहीं होता!” देखो, अब वे दूसरे चरम पर चले गए हैं। तुम ऑनलाइन जाकर जानकारी ढूँढ़ सकते हो, लेकिन इसका भेद पहचानने के लिए और क्या उपयोग में लाना है और क्या खारिज करना है इसका सही विकल्प चुनने के लिए तुम्हें यह पता होना चाहिए कि मानव बुद्धि का और मानव सोच के सही तरीके का उपयोग कैसे करना है। अगर कोई चीज तुम्हारे लिए लाभदायक है तो तुम उसका उपयोग कर सकते हो; अगर यह तुम्हारे लिए लाभदायक या उपयुक्त नहीं है तो तुम उसे एक संदर्भ या एक प्रकार का सामान्य ज्ञान मान सकते हो। मानव सोच वाले लोग इसी तरीके से अभ्यास करते हैं। जिन लोगों में मानव सोच नहीं होती है, वे एक ऐसे तरीके से अभ्यास करते हैं जो या तो बाईं तरफ भटक जाता है या दाईं तरफ—वे या तो धोखा खाते हैं या हर बात पर पूरी तरह से अविश्वास करते हैं। वे ऐसे मामलों का ध्यान से भेद पहचानने में असमर्थ होते हैं। ऐसे लोग जिस तरीके से विभिन्न तरह की सूचनाओं से पेश आते हैं या वास्तविक जीवन के मामलों को सँभालते हैं उसमें वे विशेष रूप से जिद्दी, बेहूदे, अविवेकपूर्ण और मूर्ख दिखाई देते हैं। जो लोग इतने मूर्ख होते हैं, जो उचित-अनुचित या सही-गलत में भेद नहीं पहचान सकते—वे अपने जीवन का हर दिन कैसे गुजारते हैं? उनके व्यवहार करने के तरीके को देखकर ही तुम्हें चिंता होने लगती है—क्या अब भी तुम कोई उम्मीद कर सकते हो कि वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाएँगे?
एक महिला ने एक घटिया बदमाश से शादी की और वह सोचती है, “मेरा पति मुझसे बहुत प्रेम करता है। मुझे सच्चा प्रेम मिल गया है, मुझे प्रेम हो गया है” और वह बहुत आनंदित महसूस करती है। लेकिन दूसरे लोग उसके पति की तरफ देखते हैं और समझ जाते हैं कि वह तो मनुष्य तक नहीं है—वह एक दानव है—और ताज्जुब करते हैं कि कैसे वह अब भी नशे में चूर हो सकती है और इतना आनंद ले सकती है। वे भी उसके लिए चिंतित रहते हैं और उसकी तरफ से आशंकित रहते हैं। अंत में उस आदमी से उसके बच्चे होने के बाद उसे लात मारकर एक तरफ कर दिया जाता है और उसके पास कोई सहारा नहीं होता है—उसका जीवन असहनीय रूप से मुश्किल हो जाता है! पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों द्वारा की गई बेवकूफियों से यह स्पष्ट है कि वे जैसे-तैसे जीने और गुजारा करने में जो कामयाब होते हैं यह काफी हद तक परमेश्वर के अनुग्रह के कारण होता है। परमेश्वर उन्हें साँस देता है ताकि वे जीवित रह सकें और उन्हें भोजन देता है ताकि वे गुजारा कर सकें। आसमान में पक्षियों, जमीन पर छोटे पशुओं और यहाँ तक कि चींटियों के पास भी खाने के लिए भोजन होता है—मनुष्यों के लिए तो यह और भी कितना ज्यादा सच है? चूँकि तुमने मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म लिया है, इसलिए परमेश्वर तुम्हें गुजारा करने के लिए साधन देता है। या तो कोई तुम्हारा भरण-पोषण करता है या तुम्हारे पास कोई ऐसी शक्ति होती है जो तुम्हें अपनी आजीविका बनाए रखने देती है। यह परमेश्वर का अनुग्रह है। परमेश्वर तुम्हें भूखा मरने नहीं देता है, बल्कि तुम्हें गुजारा करने का एक तरीका देता है ताकि तुम बुढ़ापे तक, अंत तक जी सको। परमेश्वर के अनुग्रह के बिना और फिर जिस काबिलियत के साथ पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोग जन्म लेते हैं, उनमें सामान्य सोच की गैर-मौजूदगी और समस्याओं को सँभालने की जरा-सी भी क्षमता की गैर-मौजूदगी, इन सबके चलते वे अपने लिए आजीविका कमा सकने में भी कामयाब नहीं हो सकते थे। दूसरे परिप्रेक्ष्य से, पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोग वास्तव में बहुत धन्य होते हैं। सभी पहलुओं में उनकी क्षमताओं और उनकी बुद्धिमत्ता पर विचार करते हुए, उनके लिए इस जटिल और दुष्ट संसार में आजीविका कमाना वास्तव में असंभव होगा। लेकिन क्योंकि परमेश्वर सभी सृजित प्राणियों पर अनुग्रह दिखाता है और उसमें सभी सृजित प्राणियों के लिए दया है, इसलिए तुमने चाहे किसी पशु से पुनर्जन्म लिया हो या मनुष्य से, परमेश्वर की दृष्टि में अगर तुम एक सृजित प्राणी हो और उसने तुम्हें साँस दी है तो वह तुम्हें सामान्य रूप से वह प्रदान करता है जो तुम्हें जीने और गुजारा करने के लिए चाहिए, जो तुम्हारे जीवन को निरंतर बने रहने देता है और तुम्हें जीना जारी रखने में समर्थ बनाता है। इसलिए अगर तुम कहते हो, “मैं पैसे कमाने के लिए बाहर गया हूँ और मैंने संघर्ष किया है, अपना भरण-पोषण किया है ताकि मैं सुपोषित और स्वस्थ रहूँ—क्या मैं ठीक-ठाक नहीं कर रहा हूँ? क्या तुम मुझे बेवकूफ कहकर मेरा अपमान नहीं कर रहे हो?” तो तुम गलत हो। यह तथ्य कि तुम पैसे कमा सकते हो और अपना भरण-पोषण कर सकते हो आवश्यक रूप से, सही मायने में तुम्हारी अपनी क्षमता के कारण नहीं है—इसमें निन्यानवे प्रतिशत परमेश्वर का अनुग्रह है। परमेश्वर तुम्हें कुछ ताकत देता है और इस तरह से तुम्हें भोजन के लिए पैसे कमाने के लिए कड़ी मेहनत करने में समर्थ बनाता है; वह तुम्हें एक विशेष शक्ति और साथ ही स्वस्थ शरीर देता है और इस तरह से तुम्हें नौकरी करने, पैसा कमाने, परिवार का भरण-पोषण करने और गुजारा करने में समर्थ बनाता है। इन चीजों को करने में तुम्हारे समर्थ होने का आधार क्या है? यह सब परमेश्वर द्वारा तुम्हें वह सबसे मूलभूत जन्मजात स्थिति देने पर आधारित है जो तुम्हें सामान्य मानव श्रम करने में समर्थ बनाती है, जो अंततः तुम्हें अपना भरण-पोषण करने और अपनी आजीविका बनाए रखने देती है। संक्षेप में, चाहे कुछ भी हो, चाहे तुम बेवकूफ हो या अविवेकपूर्ण, इस समय मनुष्य के बाहरी रूप-रंग वाले सृजित प्राणी के रूप में तुम्हें अपनी पहचान और अपना मूल्य पता होना चाहिए। इसके अलावा, तुम्हें सही ढंग से समझना चाहिए कि परमेश्वर ने तुम्हें क्या प्रदान किया है, परमेश्वर ने तुम्हारा क्या भरण-पोषण किया है और परमेश्वर का अनुग्रह और दया क्या हैं। अगर तुम पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों की कई विशेषताओं से मेल खाते हो और तुम्हें लगता है कि तुम निश्चित रूप से लोगों की इस श्रेणी से संबंधित हो तो तुम्हें क्या करना चाहिए? इसे सँभालना आसान है : चाहे तुम्हारी उत्पत्ति कुछ भी हो, चाहे तुममें स्वाभाविक रूप से मानवीय बुद्धिमत्ता और मानवीय सोच हो या नहीं हो, सच्चाई यह है कि अब तुम्हारी एक मानवीय पहचान है। चूँकि तुम्हारी एक मानवीय पहचान है, इसलिए तुम्हें मानव का कर्तव्य पूरा करना चाहिए—अपनी भरसक क्षमता से जितना हो सके उतना करो और जो एक मानव को करना चाहिए उसे अधिकतम संभव सीमा तक पूरा करो और अच्छी तरह से करो। कुछ लोग कहते हैं, “तुमने कहा कि पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों में विकृत समझ, सुन्नता, अविवेकपूर्ण होने और बेवकूफी जैसी विशेषताएँ होती हैं—इसका मतलब है कि उनमें मानवीय बुद्धिमत्ता नहीं होती है। इनमें से ज्यादातर लोग सत्य बिल्कुल नहीं समझते—वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से और उचित रूप से कैसे कर सकते हैं?” अगर तुमसे सख्त मानकों की अपेक्षा नहीं की जाती है तो तुम इसे अच्छी तरह से और उचित ढंग से कर सकते हो क्योंकि आखिरकार अब तुम्हारी एक मानवीय पहचान है; जब तक तुम आज्ञाकारी हो और उलझी हुई दलीलें नहीं बकते हो तब तक तुम इसे हासिल कर सकते हो। अगर तुम ये दो बातें भी पूरी नहीं कर सकते तो मैं कहता हूँ कि तुम सच में खतरे में हो और तुम्हें कलीसिया से दूर कर देना ही पड़ेगा। अगर तुम कहते हो, “मैं ये दोनों बातें पूरी कर सकता हूँ। मैं उलझी हुई दलीलें नहीं बकूँगा और मैं सही कथन स्वीकारता हूँ। मुझे जो भी करने को कहा जाएगा, मैं करूँगा; और मुझे यह जैसे भी करने को कहा जाएगा, मैं वैसे ही करूँगा”—अगर तुम सच में इस तरह से अभ्यास कर सकते हो तो फिर तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से और उचित ढंग से पूरा करने में समर्थ होगे। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने अपना कर्तव्य अच्छी तरह से और उचित ढंग से किया है और मैं इसे सत्य सिद्धांतों के अनुसार भी करना चाहता हूँ।” अगर अपना कर्तव्य अच्छी तरह से और उचित ढंग से करने में समर्थ होने की नींव पर सत्य सिद्धांतों की तरफ प्रयास करने का तुम्हारा सही मायने में इरादा है तो तुम जिस भी स्तर तक पहुँच सकते हो, वह ठीक है—इसके लिए कोई अपेक्षा नहीं है। जब तक तुम जिद्दी और मूर्ख नहीं हो, उलझी हुई दलीलें नहीं बकते हो, अपने खुद के तर्कों पर जोर नहीं देते रहते हो, अविवेकपूर्ण तरीके से कार्य नहीं करते हो और कोई बेवकूफी करने पर उसे मान लेने से इनकार नहीं करते हो तब तक यह काफी है। जहाँ तक सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने का प्रश्न है, तुम जितना करने में समर्थ हो, उतना कर सकते हो; जो भी तुम्हें लगता है कि तुम कर सकते हो, बस वही करो। इस प्रकार के व्यक्ति के लिए अपेक्षाएँ ऊँची नहीं हैं क्योंकि उसके लिए सत्य सिद्धांतों को प्राप्त करना कुछ हद तक मुश्किल होता है। इसलिए, उसकी जन्मजात स्थितियों के आधार पर उससे सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने की सख्ती से अपेक्षा नहीं की जाती है। उससे अपेक्षा क्यों नहीं की जाती है? क्योंकि वह ऐसा करने में अक्षम होता है। अगर तुम इस अपेक्षा पर अड़ जाते हो कि वह सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करे तो यह एक मछली को जमीन पर रहने के लिए मजबूर करने जैसा होगा। उदाहरण के लिए, कुछ पशुओं को ले लो—अगर तुम उनसे हर बार सही मात्रा में खाने और बहुत ज्यादा नहीं खाने और अपना पेट नहीं बढ़ाने की अपेक्षा करते हो तो क्या वे ऐसा कर सकते हैं? वे नहीं कर सकते हैं। वे एक ही बार में जितना हो सके उतना खाते जाते हैं जब तक कि शारीरिक रूप से वे और नहीं खा सकते। पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोग भी ऐसे ही होते हैं। अगर तुम उनसे सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने की अपेक्षा करते हो तो वे ऐसा नहीं कर सकते। तो क्या इसका मतलब है कि ऐसे लोगों से उम्मीद छोड़ दी है? नहीं, उनसे उम्मीद नहीं छोड़ी है। लेकिन उनसे उम्मीद नहीं छोड़ देने का मतलब उनसे सत्य सिद्धांतों को समझने या सत्य सिद्धांतों में प्रवेश करने की अपेक्षा करना नहीं है। इसका मतलब बस उनसे सही ढंग से पेश आना है, उन्हें वह करने देना है जो करने में वे सक्षम हैं। यह उनके कर्तव्य करने की योग्यताओं को रद्द करना नहीं है और न ही यह सत्य का अनुसरण करने की उनकी योग्यताओं को रद्द करना है और यह उद्धार प्राप्त करने की उनकी योग्यताओं को रद्द करना तो और भी कम है। इसका मतलब सिर्फ इतना है कि उनसे सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने की सख्ती से अपेक्षा नहीं की जाती है और न ही उनसे सभी चीजों में सत्य सिद्धांतों को प्राप्त करने की सख्ती से अपेक्षा की जाती है। यानी उन्हें उतना ही करना चाहिए जितना करने में वे सक्षम हैं। जब तक वे जानबूझकर गड़बड़ियाँ उत्पन्न करने का प्रयास नहीं करते, सिद्धांत के महत्वपूर्ण मामलों की बात आने पर उलझी हुई दलीलें नहीं बकते या बेतहाशा गलत कर्म नहीं करते हैं तब तक यह काफी है। ऐसे लोगों के लिए अपेक्षाएँ ज्यादा नहीं हैं। तुम समझ रहे हो? (हाँ।)
जहाँ तक उन लोगों का प्रश्न है जिन्होंने पशुओं से पुनर्जन्म लिया है, तो हमने उनके सार की कुछ अभिव्यक्तियों पर संगति की है। यकीनन ऐसी कुछ अभिव्यक्तियाँ हैं जिनके बारे में हमने ज्यादा विस्तार से बात नहीं की है। अगर हम उनके बारे में ज्यादा विस्तार से बात करें तो हो सकता है कि कुछ लोग इसे बर्दाश्त न कर पाएँ, इसलिए हमने ज्यादा सामान्य तौर पर बात की है और कुछ बातें अनकही छोड़ दी हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारा पुनर्जन्म किससे हुआ है, अंततः अब तुम्हारी एक मानवीय पहचान है। चूँकि तुम्हारी एक मानवीय पहचान है, इसलिए तुम अपनी छवि और अपनी गरिमा की परवाह करते हो, इसलिए हम तुम्हारी थोड़ी गरिमा बचा लेंगे—हम इस पहलू पर बहुत ज्यादा विस्तार से बात नहीं करेंगे। हम पहले जिस पर चर्चा कर चुके हैं, मूलतः चीजें वैसी ही हैं—उससे अपनी तुलना करो। मान लो कि तुम्हारी अभिव्यक्तियाँ उन लोगों की अभिव्यक्तियों से मेल खाती हैं जिन्होंने पशुओं से पुनर्जन्म लिया है और तुम अपने दिल में काफी परेशान महसूस करते हो—यह महसूस करते हो कि चूँकि तुम्हारी इस तरह की पहचान है, एक लिहाज से तुम्हारा मूल्य घट गया है और दूसरे लिहाज से तुम्हारी सत्यनिष्ठा का अपमान हुआ है और तुम्हारी गरिमा को चुनौती दी गई है। तुम नहीं जानते कि परमेश्वर से अपने रिश्ते को कैसे सँभालना है और अचानक तुम्हें महसूस होता है कि तुम्हारा रुतबा गिर गया है, तुम दूसरों से नीचे हो, अब तुम अपने बारे में कुछ भी सम्मानजनक महसूस नहीं करते, अब तुम ऐसा महसूस नहीं करते कि तुम्हारा चरित्र नेक है या तुम सम्मान के योग्य हो और अचानक तुम्हें अपने दिल में महसूस होता है कि तुम्हारे पास कोई उम्मीद या सहारा नहीं है और तुम्हारा भावी गंतव्य अधर में लटका हुआ है। क्या ये अच्छी अभिव्यक्तियाँ होंगी? (नहीं।) तो क्या तुम्हें सकारात्मक बदलाव नहीं लाना चाहिए? (हाँ।) चूँकि ये अभिव्यक्तियाँ अच्छी नहीं हैं और न ही इस तरह की समझ अच्छी है, तो क्या किया जाना चाहिए? हमें ऐसे लोगों के लिए कोई रास्ता ढूँढ़ निकालना होगा ताकि उन्हें थोड़ा बेहतर महसूस हो। यह उन्हें शांत करने या बेवकूफ बनाने के बारे में नहीं है—यह उन्हें इस मामले से सही ढंग से पेश आने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने का प्रयास करने में समर्थ बनाने के बारे में है। तो उन्हें क्या करना चाहिए? पशुओं से पुनर्जन्म लिए हुए लोगों को इस मामले को कैसे समझना चाहिए? सबसे पहले, परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसी व्यक्ति का पुनर्जन्म किससे हुआ है, यह परमेश्वर द्वारा नियत होता है—लोगों को इस फैसले में राय देने का कोई अधिकार नहीं है। मान लो कि तुम इन लोगों में से एक हो। अगर तुमसे चुनने के लिए कहा जाए तो क्या तुम पशु के रूप में पुनर्जन्म लेना चुनोगे या मनुष्य के रूप में? (मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म लेना।) तुम उसे क्यों चुनोगे? (क्योंकि सिर्फ अगर हम मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म लें तो ही हमें परमेश्वर जो कहता है वह सुनने और उसके वचनों को समझने का अवसर मिल सकता है।) और अगर तुमने पशु के रूप में पुनर्जन्म लिया तो? (तो हमारे पास परमेश्वर के वचन सुनने का कोई अवसर नहीं होगा।) इसका मतलब है कि तुम्हें परमेश्वर की आवाज सुनने का कभी मौका नहीं मिलेगा। इसलिए, चूँकि तुम एक पशु होने के नाते जानते हो कि मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म लेना अच्छी चीज है, इसलिए तुम्हें परमेश्वर का और ज्यादा धन्यवाद करना चाहिए—तुम्हें उसके बारे में शिकायत नहीं करनी चाहिए। तुम्हें मनुष्य होने का अवसर देने के लिए परमेश्वर का धन्यवाद करना चाहिए—और वह भी एक हजार वर्ष में एक बार मिलने वाला अवसर है। आखिर परमेश्वर लोगों को बचाने के लिए देहधारी हुआ और ज्यादातर लोगों को उद्धार का यह अनुग्रह प्राप्त नहीं हुआ है, जबकि तुम्हें प्राप्त हुआ है—तुम्हें परमेश्वर की आवाज सुनने और परमेश्वर को सत्य व्यक्त करते हुए सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। यह तुम्हारा आशीष है। यह कुछ ऐसा है जो तुम एक सृजित जीवरूप में कई जन्मों या कई युगों में भी प्राप्त नहीं कर सकते थे, भले ही तुम इसके लिए भीख ही क्यों न माँगते। परमेश्वर ने तुम्हें ठीक इस युग में चुना, तुम्हें मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म लेने, परमेश्वर के घर में रहने और मानवजाति के साथ मिलकर एक सृजित प्राणी का कर्तव्य करने की अनुमति दी, तुम्हारी पहचान को पशु से मानवजाति के सदस्य में रूपांतरित किया और तुम्हें मनुष्य का कर्तव्य करने की अनुमति दी। यह बहुत ही बड़ा सम्मान और विशेषाधिकार है! यह कुछ ऐसा है जिसकी बहुत सारे सृजित जीवरूप सिर्फ कामना ही कर सकते हैं, उसे कभी प्राप्त नहीं कर सकते—और फिर भी तुमने इसे प्राप्त किया है और आज इसका आनंद ले रहे हो। यह अवसर अत्यंत दुर्लभ है; किसी भी सृजित जीवरूप के लिए यह एक हजार वर्ष में एक बार मिलने वाला अवसर है। इसलिए, तुम्हें न सिर्फ निराशा में नहीं डूबना चाहिए और शिकायत नहीं करनी चाहिए, और न ही परेशान होना चाहिए या यह सोचना चाहिए कि तुम्हारा रुतबा दूसरों से नीचा है, बल्कि इसके विपरीत तुम्हें वास्तव में सौभाग्यशाली महसूस करना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर का धन्यवाद करना चाहिए—उस अवसर के लिए परमेश्वर का धन्यवाद करो जो उसने तुम्हें दिया है, उसके द्वारा तुम्हारे उन्नयन के लिए उसका धन्यवाद करो, क्योंकि उसने जो किया है वह बहुत ही महान है : उसने जो किया है वह सृजित प्राणियों के प्रति सच में अनुग्रह और दया है। परमेश्वर से इस अनुग्रह को स्वीकारने के बाद तुम्हें एहसानमंद महसूस करना चाहिए कि उसने तुम्हारी पहचान और तुम्हारा वर्ग बदल दिया है। लेकिन तुम सिर्फ उसका धन्यवाद करके इस बात को समाप्त नहीं कर सकते—तुम्हें उसका धन्यवाद करने से आगे यह भी सोचना होगा कि इस अवसर का लाभ कैसे उठाया जाए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारी मूल पहचान क्या थी, अब जब तुम मनुष्य के रूप में अपना कर्तव्य कर सकते हो तब यह अपनी पहचान बदलने और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना वर्ग बदलने का अच्छा अवसर है। तो तुम यह बदलाव कैसे कर सकते हो? पहला मुख्य बिंदु अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से करना है। अगर तुम अपनी जन्मजात स्थितियों की विभिन्न सीमाओं के कारण सिर्फ कड़ी मेहनत और शारीरिक श्रम करने, गंदे और थकाऊ कार्य करने में ही सक्षम हो और तुम्हारी पहचान और मूल्य के आधार पर तुम जो कर्तव्य कर सकते हो वह हमेशा सिर्फ इसी दायरे के भीतर रह सकता है जिसमें किसी राहत या सुधार की संभावना नहीं है तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें किस सिद्धांत का पालन करना चाहिए? हम चाहे किसी भी अभिव्यक्ति को देखें, चाहे यह तुम्हारी बुद्धिमत्ता हो, तुम्हारा चरित्र हो या तुम्हारी जन्मजात स्थितियाँ हों, अगर लोगों के बीच तुम्हारा मूल्य हमेशा ऐसा ही रहेगा—तुम हमेशा विकृत समझ वाले निकम्मे, बेवकूफ, भ्रमित, सुन्न, मंदबुद्धि व्यक्ति ही रहोगे और तुम्हारा मूल्य कभी नहीं बढ़ेगा—तो तुम्हें अपने कर्तव्य से कैसे पेश आना चाहिए? यह सबसे महत्वपूर्ण है। मान लो कि तुम्हारा मूल्य कभी नहीं बढ़ेगा और लोगों के बीच तुम्हारी कभी कोई गरिमा नहीं होगी। परमेश्वर की नजर में तुम हमेशा के लिए एक ही स्थान पर स्थिर हो—तुम बस यही हो। तुम्हारे वर्ग की कुछ स्पष्ट विशेषताएँ हो सकती हैं जो तुममें ऊपरी तौर पर दिखाई देती हैं, और तुम कभी भी पशु से सच्चे मनुष्य में नहीं बदलोगे। तुम्हारे पास उद्धार प्राप्त करने की कोई उम्मीद नहीं है क्योंकि तुम सत्य नहीं समझ सकते और तुममें मानवीय बुद्धिमत्ता तक नहीं है। तुम दर्शनों के सत्य नहीं समझते और परमेश्वर के घर में तुम्हें नहीं पता कि सुसमाचार का प्रचार कैसे करना है, तुम पेशेवर कौशलों से संबंधित हर तरह के कर्तव्य पर खरे नहीं उतरते हो और उसके मानक पूरे नहीं करते हो—तुम हमेशा गंदे और थकाऊ कामों को करने में ही फँसे रहोगे और तुम्हारे पास अपनी स्थिति को सकारात्मक दिशा देने का कोई रास्ता नहीं है। यह मानते हुए कि तुम ऐसे ही हो, तुम क्या करोगे? क्या तुम परमेश्वर में विश्वास रखना बंद कर दोगे? क्या तुम खुद पर से भरोसा खो दोगे? यहाँ तक कि क्या कुछ लोग अपनी जान भी ले लेंगे? क्या वे कहेंगे, “मैं अब और जीना नहीं चाहता। वैसे भी मेरे पास बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं है—इस तरह से जीने का क्या मतलब है?” तुम चाहे कितना भी प्रयास करो, कितने भी कर्मठ हो, कितना भी संघर्ष करो या कितनी भी बड़ी कीमत चुकाओ, अगर तुम्हारा मूल्य कभी नहीं बदलेगा और परमेश्वर के घर में तुम हमेशा एक ऐसे व्यक्ति के रूप में रहोगे जो कड़ी मेहनत करता है और खून-पसीना बहाता है, एक ऐसा दीन-हीन व्यक्ति जिसके पास कोई गरिमा नहीं है और जिसे हर कोई नीची नजर से देखता है, तो जब यह बात आती है कि तुम अपने कर्तव्य, परमेश्वर के आदेश और सृष्टिकर्ता की विभिन्न अपेक्षाओं से कैसे पेश आते हो तब तुम्हें अभ्यास का कौन-सा तरीका चुनना चाहिए? यही सबसे महत्वपूर्ण है। साधारण तौर पर और सैद्धांतिक रूप से तुम्हारा मूल्य और पहचान निर्दिष्ट हैं, लेकिन दरअसल अभी लोगों के बीच और परमेश्वर की नजरों में तुम्हारी सच्ची पहचान वही है जो मनुष्य की होती है। मैं क्यों कहता हूँ कि यह वही है जो मनुष्य की होती है? क्योंकि तुम जो कर्तव्य कर सकते हो, तुम्हारे दैनिक प्रकाशन और तुम्हारी जन्मजात स्थितियों की विभिन्न सहज क्षमताएँ, मनुष्य के लिए जो सामान्य है उसी के मूलभूत दायरे में आती हैं—तुममें मनुष्य होने की ये मूलभूत स्थितियाँ हैं। बस इस बिंदु के लिहाज से तुम्हें अपने कर्तव्य से कैसे पेश आना चाहिए? पशु सत्य सिद्धांत नहीं समझते, वे नहीं जानते कि अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से कैसे करना है, अपने कर्तव्य को मजबूती से कैसे पकड़कर रखना है या अपने कर्तव्य को पूरी लगन से कैसे करना है और अंत तक सेवा करने में लगे रहना है—पशु ये बातें नहीं समझते हैं। लेकिन अब, एक मनुष्य के रूप में तुम ये चीजें समझते हो और जानते हो, इसलिए तुम्हें इन्हें हासिल करना होगा। चूँकि तुम इन चीजों को हासिल करने में सक्षम हो, इसलिए परमेश्वर इस सिद्धांत के आधार पर तुमसे अपेक्षाएँ रखेगा। हालाँकि, क्योंकि तुम अपनी पहचान से असंतुष्ट हो और तुम्हें लगता है कि परमेश्वर अन्यायी है, इसलिए अगर तुम हतोत्साहित हो जाते हो, उसके बारे में शिकायत करते हो, यह महसूस करते हो कि तुम्हारा जीवन अपमानजनक और अशोभनीय है और फिर अपना कर्तव्य करना छोड़ देते हो, यहाँ तक कि जिसे करने में तुम सक्षम हो उसे भी करने से इनकार कर देते हो—तो तुम पूरी तरह से विद्रोही हो। परमेश्वर की नजर में तुम एक सृजित प्राणी के रूप में मानक-स्तर के नहीं हो; तुम एक विचलन हो। तो तुम्हें क्या करना चाहिए? चाहे तुम्हारा मूल्य सम्मानजनक हो या नीचा और चाहे तुम कहीं से भी आए हो या तुम्हारी जन्मजात स्थितियों में कोई भी समस्या क्यों न हो, संक्षेप में, तुम जो कुछ भी करने में सक्षम हो, उसे करने का भरसक प्रयास करो और उसे अच्छी तरह से करने का भरसक प्रयास करो। अगर भरसक प्रयास करने के बाद भी तुम सत्य सिद्धांतों पर खरे नहीं उतरते हो तो परमेश्वर का एक न्यूनतम मानक है जो सभी तरह के लोगों से अपेक्षित है : जब तक तुम अपना सर्वस्व देते हो, अपनी ईमानदारी दिखाते हो और अपनी निष्ठा अर्पित करते हो तब तक तुम मानक स्तर के होगे। परमेश्वर हर व्यक्ति से सौ प्रतिशत हासिल किए जाने की अपेक्षा नहीं करता—साठ प्रतिशत पर्याप्त है। परमेश्वर क्या चाहता है? परमेश्वर एक रवैया चाहता है—अगर तुम्हारा रवैया यह इच्छा करना है कि तुम एक सृजित प्राणी का कर्तव्य करो, तुम्हें जो चीजें करनी चाहिए और हासिल करनी चाहिए, उन्हें बिना कोई पछतावा रखे अच्छी तरह से करो तो यह रवैया परमेश्वर द्वारा स्वीकार किया जाता है। परमेश्वर इस रवैये को स्वीकृति देगा, और यह तुम्हारी रक्षा करेगा ताकि तुम मार्ग के अंत तक पहुँच सको। कुछ लोग कहते हैं, “जब मैं मार्ग के अंत तक पहुँच जाऊँगा तब क्या होगा?” मैं तुम्हें अभी नहीं बताऊँगा—मैं तुम्हें बाद में बताऊँगा। जब तुम मार्ग के अंत तक पहुँच जाओगे तब तुम्हें पता चल जाएगा। संक्षेप में, अभी जो चीज सबसे ज्यादा मायने रखती है वह यह है कि तुम इस मामले से कैसे पेश आते हो, तुम उस कर्तव्य से कैसे पेश आते हो जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है और तुम उस कर्तव्य को कैसे पूरा करते हो जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है। यह कर्तव्य चाहे कुछ भी हो, जब तक यह ऐसा कुछ है जो परमेश्वर के घर द्वारा तुम्हें सौंपा गया है तब तक तुम्हें इसे पूरा करने के लिए अपना सर्वस्व देना होगा। जब तुम अपनी समस्याओं को पहचान लेते हो तब तुम्हें यह भरसक प्रयास करना होगा कि तुम उलझे हुए तर्क न दो, ऐसी चीजें न करो जो परमेश्वर को ठेस पहुँचाती हैं और ऐसी बातें न करो जो परमेश्वर को नाराज करती हैं; बल्कि तुम्हें ऐसी चीजें करनी होंगी जो लोगों और परमेश्वर के घर को लाभ पहुँचाती हैं और ऐसी चीजें कहनी होंगी जो लोगों और परमेश्वर के घर को लाभ पहुँचाती हैं। तुममें से कुछ लोग कहते हैं, “तब भी मैं फिलहाल इसके लिए सक्षम नहीं हूँ।” तो फिर अपना समय लो—अधीर मत हो। अगर तुम इसे आज नहीं कर सकते तो इसे कल करना। अगर तुम इसे इस वर्ष नहीं कर सकते तो इसे अगले वर्ष करने का प्रयास करना। बस अपना समय लो। लेकिन अगर जिस समय लोगों के परिणामों की घोषणा की जाती है उस समय तक भी तुमने इसे हासिल नहीं किया तो तुम्हें खुद ही इसके नतीजे भुगतने होंगे। तुम्हारे व्यवहार का हिसाब कोई और नहीं चुकाएगा। समझे? (हाँ।) इस मामले को हल करना आसान होना चाहिए—यह सब व्यक्ति की तार्किकता और इस पर निर्भर करता है कि वह इन वचनों को समझ सकता है या नहीं। अगर तुम उन्हें समझ सकते हो तो इन चीजों को हल करना बहुत आसान होगा। भले ही कुछ व्यक्ति कहें कि यह थोड़ा मुश्किल है, लेकिन जब तक वे इस दिशा में प्रयास करते रहेंगे तब तक उन्हें अंततः कुछ परिणाम अवश्य मिलेंगे। अगर तुम इस मार्ग पर नहीं चलते हो तो शायद तब भी तुम बचे रह पाओ, लेकिन जहाँ तक यह प्रश्न है कि अंत में कौन-सा परिणाम तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा होगा—यह कहना मुश्किल है; कोई भी इसकी गारंटी नहीं दे सकता और न ही कोई तुम्हें इस बारे में कोई आश्वासन देगा।
आज का विषय सुनकर तुम लोग कैसा महसूस कर रहे हो? तुम लोग शायद भावनात्मक रूप से काफी परेशान महसूस कर रहे हो, है ना? परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करने के बाद से लोग जिन विषयों का सामना करने के सबसे कम इच्छुक होते हैं, यह उनमें से एक है, है ना? क्या यह सेवाकर्मी होने के विषय से भी ज्यादा चिंताजनक और स्वीकारने में कठिन नहीं है? क्या इसे स्वीकारना मुश्किल है? तुम वास्तव में स्वीकारने में समर्थ हो, है ना? (सही कहा।) अगर लोग परमेश्वर की पहचान के बारे में निश्चित हैं और उन्हें अपनी खुद की जगह मिल गई है तो ये वचन और इस तरह का मुद्दा लोगों के लिए बहुत ज्यादा कठिन नहीं होने चाहिए—बस कुछ व्यक्तियों को ही इनसे कुछ मुश्किल हो सकती है। लेकिन यह सुनने के बाद ज्यादातर लोगों के इस खोज में लग जाने की संभावना नहीं है कि उनका मूल्य और पहचान सच में क्या हैं। अगर वे पशुओं से पुनर्जन्म लेने वाले लोगों की कुछ अभिव्यक्तियों से सच में मेल खाते हैं तो भी वे इससे सही ढंग से पेश आने में समर्थ होंगे और कुछ समय बाद उन्हें ठीक महसूस होगा, है ना? (हाँ।) तो आज के लिए हम यहीं तक संगति करेंगे। अलविदा!
20 जनवरी 2024