सत्य का अनुसरण कैसे करें (3)
पिछले कुछ समय से हम सत्य के अनुसरण के विषय पर संगति कर रहे हैं। इस विषय की विषयवस्तु काफी व्यापक है, लेकिन विषयवस्तु चाहे कितनी भी व्यापक हो, वह उन कुछ मुद्दों से अलग नहीं की जा सकती जो दैनिक जीवन में लोगों के सामने आते हैं, जो इस बात से संबंधित होते हैं कि वे लोगों और चीजों को किस तरह देखते हैं और कैसे आचरण और कार्य करते हैं, है ना? (हाँ।) ये लोगों के जीवन के वास्तविक मुद्दे हैं। ये लोगों के दैनिक जीवन से अलग नहीं हैं, न ही ये लोगों की सामान्य मानवता से अलग हैं। इन मुद्दों में विभिन्न चीजों के प्रति लोगों के रवैये और विचार और साथ ही वे सभी प्रकार के प्रमुख मामले शामिल हैं जिनका लोग अपने अस्तित्व और अपनी जीवन-यात्रा में सामना करते हैं। हमारी पिछली संगति की विषयवस्तु “सत्य का अनुसरण कैसे करें” में “त्याग देना” के अंतर्गत अभ्यास के एक पहलू से संबंधित थी—अपने और परमेश्वर के बीच की बाधाओं और परमेश्वर के प्रति अपनी शत्रुता को त्याग देना। इस अभ्यास में क्या शामिल है? इसमें लोगों और परमेश्वर के बीच का संबंध शामिल है, है ना? (हाँ।) पिछली कुछ संगतियों की विषयवस्तु इस बात से संबंधित थी कि व्यक्ति को परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों और मानकों के अनुसार सभी प्रकार के लोगों और सभी प्रकार की चीजों को कैसे देखना चाहिए और सभी प्रकार के लोगों और सभी प्रकार की चीजों को कैसे सँभालना चाहिए। हमारी पिछली संगति की विषयवस्तु लोगों और परमेश्वर के बीच के रिश्ते से संबंधित थी और उसमें लोगों को बताया गया कि उन्हें उन विभिन्न धारणाओं और कल्पनाओं को कैसे त्याग देना चाहिए जो परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं हैं, परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं हैं और सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं। ये वास्तविक समस्याएँ हैं जो परमेश्वर में विश्वास करने की यात्रा और अस्तित्व रखने की प्रक्रिया में लोगों और परमेश्वर के बीच मौजूद रहती हैं। हमने “अपने और परमेश्वर के बीच की बाधाओं और परमेश्वर के प्रति अपनी शत्रुता को त्याग देना” के इस बड़े विषय को चार पहलुओं में विभाजित किया था : पहला है धारणाएँ और कल्पनाएँ, दूसरा है अनुचित माँगें, तीसरा है सतर्कता और संदेह, और चौथा है जाँच-पड़ताल और ताक-झाँक। हमने अपनी संगति धारणाओं और कल्पनाओं से शुरू की। धारणाओं और कल्पनाओं के अंतर्गत पहला बिंदु परमेश्वर के कार्य से संबंधित है—अर्थात, परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों की क्या धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं। हमने इस पर कुछ संगति की। इस बिंदु पर हमारी संगति इस बात से संबंधित थी कि लोग परमेश्वर के कार्य को किस प्रकार देखते हैं और परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों के ज्ञान और विचारों में क्या विचलन, धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं; ये धारणाएँ और कल्पनाएँ ऐसी चीजें हैं जिन्हें लोगों को त्याग देना चाहिए। अगर लोग इन धारणाओं और कल्पनाओं को त्याग दें और सत्य खोजें तो वे परमेश्वर के कार्य को जानने में समर्थ होंगे और उन्हें परमेश्वर के वचनों की शुद्ध समझ होगी। जब परमेश्वर का कार्य लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप नहीं होता तो उन्हें आत्म-चिंतन करना चाहिए और स्वयं को जानने का प्रयास करना चाहिए, और उन्हें अपनी धारणाएँ और कल्पनाएँ भी त्याग देनी चाहिए, बजाय इसके कि वे यह आकलन करने के लिए उन पर निर्भर रहें कि परमेश्वर का कार्य कैसा होना चाहिए या परमेश्वर अपने कार्य से लोगों पर क्या प्रभाव हासिल करना चाहता है। परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ उनके जीवन प्रवेश और परमेश्वर के प्रति उनके रवैये पर सीधा प्रभाव डालती हैं, इसलिए ये धारणाएँ और कल्पनाएँ भी ऐसी चीजें हैं जिन्हें लोगों को त्याग देना चाहिए। उदाहरण के लिए, हमने संगति की कि परमेश्वर लोगों की अंतर्निहित काबिलियत, व्यक्तित्व, सहज प्रवृत्तियाँ आदि नहीं बदलता, लोगों के जन्मजात गुण और उनकी देह की सहज प्रवृत्तियाँ परमेश्वर के कार्य के लक्ष्य नहीं हैं, और उसका कार्य लोगों के भ्रष्ट स्वभावों और लोगों के भीतर की उन चीजों को लक्षित करता है जो परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करती हैं और परमेश्वर के साथ असंगत हैं। अगर लोग कल्पना करते हैं कि परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य उनकी काबिलियत, उनकी सहज प्रवृत्तियाँ, यहाँ तक कि उनका व्यक्तित्व, आदतें, जीने के ढर्रे आदि बदलना है तो दैनिक जीवन में उनके अभ्यास का हर एक पहलू उनकी धारणाओं और कल्पनाओं से प्रभावित और नियंत्रित होगा, और अनिवार्य रूप से कई विकृत अंश या चरम चीजें होंगी। ये विकृत अंश और चरम चीजें सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं और वे लोगों को सामान्य मानवता के जमीर और विवेक से भटका देंगी और सामान्य मानवता के पथ से अलग कर देंगी। उदाहरण के लिए, मान लो अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में तुम मानते हो कि परमेश्वर लोगों की काबिलियत, क्षमताएँ, यहाँ तक कि उनकी सहज प्रवृत्तियाँ भी, बदलना चाहता है; अगर तुम सोचते हो कि ये वे चीजें हैं जिन्हें परमेश्वर बदलना चाहता है तो तुम्हारे अनुसरण किस तरह के होंगे? तुम्हारे अनुसरण विकृत और जुनूनी होंगे—तुम श्रेष्ठ काबिलियत का अनुसरण करना चाहोगे और विभिन्न प्रकार के कौशल सीखने और विभिन्न प्रकार के ज्ञान में निपुणता प्राप्त करने पर ध्यान केंद्रित करोगे ताकि तुम्हें श्रेष्ठ काबिलियत और श्रेष्ठ क्षमताएँ, श्रेष्ठ अंतर्दृष्टि और आत्म-विकास प्राप्त हो जाएँ, यहाँ तक कि कुछ ऐसी क्षमताएँ भी विकसित हो जाएँ जो सामान्य लोगों से श्रेष्ठ हों—इस प्रकार तुम बाहरी क्षमताओं और प्रतिभाओं पर ध्यान दोगे। तो फिर ऐसे अनुसरणों के लोगों पर क्या परिणाम होते हैं? वे न केवल सत्य के मार्ग पर चलने में असफल होंगे, बल्कि उसके बजाय वे फरीसियों का मार्ग अपनाएँगे। वे आपस में प्रतिस्पर्धा करेंगे कि किसकी काबिलियत श्रेष्ठ है, किसमें श्रेष्ठ गुण हैं, किसका ज्ञान श्रेष्ठ है, किसकी क्षमताएँ अधिक हैं, किसमें अधिक शक्तियाँ है, लोगों के बीच किसकी प्रतिष्ठा अधिक है और लोग किसका आदर-सम्मान करते हैं। इस प्रकार, वे न केवल सत्य का अभ्यास करने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में असमर्थ होंगे, बल्कि वे सत्य से दूर ले जाने वाले मार्ग पर चल पड़ेंगे।
परमेश्वर का कार्य लोगों के भ्रष्ट स्वभावों और सत्य का उल्लंघन करने वाले उनके विभिन्न भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों को उनकी सामान्य मानवता के दायरे में रूपांतरित करना है, ताकि उनके जमीर और विवेक बहाल किए जा सकें और इष्टतम बनाए जा सकें। दूसरे शब्दों में, जितना अधिक तुम सत्य समझोगे, उतने ही अधिक तुम्हारे जमीर और विवेक सामान्य हो जाएँगे और वे एक लाभकारी दिशा में विकसित भी होते रहेंगे; यह बिल्कुल भी अलौकिक नहीं है। इस “सामान्य” शब्द से मेरा क्या तात्पर्य है? अगर लोगों में जमीर की जागरूकता और न्याय की भावना हो तो वे दयालु बनेंगे—मनुष्य के शब्दों में कहें तो, वे समझदार, ईमानदार, तर्कसंगत होंगे और हठी या विकृतियों की ओर प्रवृत्त नहीं होंगे। यही वह प्रभाव है जिसे परमेश्वर लोगों की मानवता के संबंध में प्राप्त करना चाहता है। जैसे-जैसे लोग अधिकाधिक सत्य समझते हैं, उसका एक आकस्मिक प्रभाव यह होता है कि उनकी मानवता अधिकाधिक सामान्य होती जाती है। लेकिन अगर लोग अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार अनुसरण करते हैं तो ये धारणाएँ और कल्पनाएँ उनके अनुसरणों पर बहुत अधिक नकारात्मक प्रभाव डालेंगी और उनका नकारात्मक मार्गदर्शन करेंगी और उन्हें तमाम तरह के विकृत, हठपूर्वक अनुसरण किए जाने वाले, चरम और भ्रामक मार्गों पर ले जाएँगी। उदाहरण के लिए, अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में लोग मानते हैं कि परमेश्वर का कार्य लोगों की मानवता को उन्नत करना और लोगों को इंसानी प्रवृत्तियों, इंसानी काबिलियत, यहाँ तक कि इंसान की आयु और लिंग से भी ऊपर उठने में समर्थ बनाना है। जब लोगों में ऐसी धारणाएँ होती हैं तो वे इस दिशा में अनुसरण करेंगे, प्रयास करेंगे और टटोलेंगे। तब वे किन चीजों पर ध्यान केंद्रित करेंगे? एक ओर वे ज्ञान, योग्यताओं, कौशलों, गुणों और प्रतिभाओं पर ध्यान केंद्रित करेंगे; दूसरी ओर वे अलौकिकता पर ध्यान केंद्रित करेंगे। क्या तुम लोग जानते हो कि अलौकिकता की क्या अभिव्यक्तियाँ होती हैं? (क्या इसका मतलब यह है कि कुछ चीजों में लोग बिना कोई कीमत चुकाए सीधे गुणात्मक बदलावों से गुजरेंगे?) यह ऐसा है जैसे कोई व्यक्ति आम तौर पर परमेश्वर के वचन न पढ़ता हो लेकिन उसके साथ कुछ हो जाए और परमेश्वर के वचन अचानक उसके मन में प्रकट हो जाएँ, या जैसे कोई व्यक्ति कभी गाने या नाचने में समर्थ न रहा हो लेकिन प्रेरित किए जाने के बाद वह अचानक गा और नाच सकता हो, और बहुत अच्छा नाच सकता हो, या जैसे किसी ने कभी कोई विदेशी भाषा नहीं सीखी हो लेकिन अचानक वह कोई विदेशी भाषा बोल सकता हो। क्या ये चीजें अलौकिक हैं? (हाँ।) उदाहरण के लिए, मान लो तुम्हें किसी जरूरी मामले में बाहर जाना है लेकिन तुम गाड़ी चलाना नहीं जानते और हताशा में तुम प्रार्थना करते हो, और तुरंत पूरी तरह से उत्साहित महसूस करते हो और अचानक तुम्हें गाड़ी चलाना आ जाता है, यहाँ तक कि तुम एक अनुभवी ड्राइवर की तरह स्थिरता से गाड़ी चलाते हो। कोई तुमसे पूछता है, “तुम इतनी अच्छी तरह गाड़ी कैसे चला लेते हो?” तुम कहते हो, “मुझे भी नहीं पता। यह सब परमेश्वर का किया हुआ है; मैं पवित्र आत्मा द्वारा प्रेरित था। देखो, मेरे ये हाथ अब मेरे अपने हाथ नहीं हैं; इन्हें पवित्र आत्मा थामे हुए है!” वास्तव में पवित्र आत्मा ऐसा नहीं कर रहा है; बल्कि एक अलग तरह की आत्मा तुममें प्रवेश कर गई है और तुम्हें बहका रही है, जिससे तुम एक अलग व्यक्ति बन गए हो और खुद को नियंत्रित नहीं कर सकते। क्या यह अपनी अंतर्निहित क्षमताओं से परे जाना नहीं है? यह अलौकिक है, है ना? (हाँ।) अलौकिक का क्या अर्थ है? क्या यह एक अच्छी परिघटना है? (नहीं, यह व्यक्ति को असामान्य बनाती है।) अगर तुम बिना कुछ समय तक अध्ययन किए या बिना किसी विशेषज्ञ के मार्गदर्शन के अचानक कोई भाषा जान लेते हो, कोई कौशल प्राप्त कर लेते हो या कोई ज्ञान समझ लेते हो तो यह अलौकिक है। अगर किसी व्यक्ति का जीवन स्वभाव सत्य का अनुसरण, खोज, प्रतीक्षा या चीजों का अनुभव करने की जरूरत पड़े बिना ही बदल गया है तो क्या यह एक भयानक बात नहीं है? (हाँ, है।) अगर तुम्हारे मन और अवचेतन में अभी भी कई धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं तो तुम्हें उन्हें त्याग देना चाहिए और उनका अनुसरण नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे परमेश्वर के कार्य का सच्चा ज्ञान नहीं हैं और वे परमेश्वर के कार्य के तरीकों और सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं। परमेश्वर का कार्य तुम्हारी सामान्य मानवता से कतई परे नहीं जाएगा और तुममें परमेश्वर के कार्य द्वारा प्राप्त प्रभाव तुम्हारी सामान्य मानवता को एक उन्नत, अलौकिक मानवता में रूपांतरित करने वाला बिल्कुल नहीं है। इसके अलावा, परमेश्वर तुम्हें सामान्य व्यक्ति से असामान्य व्यक्ति में रूपांतरित नहीं करेगा। मान लो, परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने की प्रक्रिया में तुम्हारा जमीर उत्तरोत्तर संवेदनशील होता जाता है और तुममें शर्म की अधिक भावना विकसित होती है। तुम दयालु बनते हो, परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होने में समर्थ होते हो और कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने में समर्थ होते हो। इसके अलावा, तुम्हारे शब्द और कार्य तुम्हारे जमीर और विवेक के विरुद्ध नहीं जाते, तुम धीरे-धीरे सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में समर्थ हो जाते हो और परमेश्वर के वचनों के आधार पर सभी प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों को पहचान सकते हो। यह साबित करता है कि परमेश्वर में अपने विश्वास में तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो, वह सही है। लेकिन मान लो, तुम अभी भी प्रार्थना करते समय कोई आवाज सुनने पर ध्यान केंद्रित करते हो और परमेश्वर से खोज और विनती करते समय किसी प्रेरणा, प्रकाश की चमक या अलौकिक प्रकाशन की प्रतीक्षा करते हो। इसके अलावा, तुम्हारे जमीर और विवेक किसी भी तरह से बहाल या सही नहीं किए गए हैं और तुममें न्याय की भावना नहीं आई है या तुमने परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं किया है। यह साबित करता है कि तुम्हारे अनुसरण में और जिस मार्ग पर तुम चल रहे हो उसमें समस्याएँ हैं और यह भी कहा जा सकता है कि तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर बिल्कुल भी नहीं चले हो। तुम अक्सर अवचेतन रूप से एक अलौकिक व्यक्ति बनने की कोशिश भी करते हो और अक्सर महसूस करते हो कि तुम्हें देह से ऊपर उठना चाहिए—अगर तुम खाना न खाओ तो भी भूख न लगे और अगर तुम कई दिनों तक सोओ नहीं या आराम न करो तो भी थकान या नींद नहीं आए—और जिन चीजों को तुम नहीं समझते या जिन्हें तुमने अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में नहीं सीखा है, उनकी तत्काल आवश्यकता पड़ने पर तुम उन्हें अचानक समझने और उन पर महारत हासिल करने की कोशिश करते हो। अलौकिक चीजों के बारे में ये सभी कल्पनाएँ इंसानी धारणाओं और कल्पनाओं से आती हैं। चूँकि लोगों ने परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं किया है, इसलिए वे प्राकृतिक रूप से उसके कार्य के बारे में कल्पनाओं से भरे होते हैं। वास्तव में, परमेश्वर का कार्य सबसे वास्तविक और व्यावहारिक चीज है। परमेश्वर कभी लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार कार्य नहीं करता; वह लोगों पर इस प्रकार का कार्य कभी नहीं करता। वह केवल बहुत ही विशेष परिस्थितियों में और बहुत कम लोगों पर थोड़ा-बहुत अलौकिक कार्य करता है, लेकिन यह कार्य महज अस्थायी और विशेष परिस्थितियों में ही आवश्यक होता है—यह कार्य करने का वह तरीका नहीं है जो परमेश्वर के उद्धार के अंतर्गत लोगों में अक्सर अभिव्यक्त होता है। अपने प्रबंधन कार्य में परमेश्वर लोगों को बचाना चाहता है, उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव त्यागने और उद्धार प्राप्त करने में समर्थ बनाना चाहता है, और परमेश्वर जिस मूल तरीके से कार्य करता है वह लोगों को सत्य प्रदान करना है, ताकि वे सत्य समझने के बाद सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास कर सकें। इसलिए, चाहे तुम्हारे मन और अवचेतन में कोई भी धारणाएँ या कल्पनाएँ हों, चाहे तुम्हारी धारणाएँ और कल्पनाएँ कितनी भी तर्कसम्मत हों या वे तुम्हारी आध्यात्मिक आवश्यकताएँ कितनी भी पूरी करती हों—चाहे कारण कुछ भी हों, वे हमेशा धारणाएँ और कल्पनाएँ ही रहेंगी और तुम्हें उन्हें त्याग देना चाहिए और उनसे चिपके नहीं रहना चाहिए। चाहे परमेश्वर का कार्य किसी भी सीमा तक किया जाए और चाहे वह कितने भी लंबे समय तक चले, लोग हमेशा लोग ही रहेंगे और कभी देवदूत नहीं बनेंगे। अगर तुम सफेद बालों, सफेद रंग से पुते हुए चेहरे, सफेद कमीज और सफेद पैंट के साथ सिर से पाँव तक सफेद हो जाओ और चाहे तुम दो पंख लगा लो, तो भी तुम देवदूत नहीं बन सकते—लोग हमेशा लोग ही रहेंगे। इसके अलावा, यहाँ “लोग” से तात्पर्य सामान्य मानवता के जमीर और विवेक वाले लोगों से है, असाधारण लोगों से नहीं, और असामान्य लोगों से तो बिल्कुल भी नहीं। ये लोग बिल्कुल भी अलौकिक नहीं होते, लेकिन वे परमेश्वर में विश्वास न करने वाले उन गैर-विश्वासियों से इस मायने में स्पष्ट रूप से भिन्न होते हैं कि वे बुराई नहीं करते, सत्य समझने के बाद उसे व्यवहार में ला सकते हैं और यह समझते हैं कि लोगों और चीजों को कैसे देखना है, और वे परमेश्वर के वचनों, परमेश्वर की अपेक्षाओं और सत्य सिद्धांतों के आधार पर आचरण और कार्य करते हैं, बजाय इसके कि वे अपने भ्रष्ट स्वभावों और शैतान द्वारा लोगों में डाले जाने वाले विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों के अनुसार जिएँ। परमेश्वर में विश्वास करने की प्रक्रिया में लोगों ने अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार चाहे कितने भी लंबे समय तक अनुसरण किया हो, और चाहे उन्हें कितना भी लगे कि उन्होंने कितना कुछ प्राप्त कर लिया है, परमेश्वर की नजर में इसका कोई महत्व नहीं है और परमेश्वर इसमें से कुछ भी याद नहीं रखता। जब मैं यह कहता हूँ तो मैं किसकी ओर संकेत कर रहा हूँ? जैसे कि अगर तुम अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर अपनी देह की तमाम विभिन्न सामान्य आवश्यकताएँ नियंत्रित करते हो या अपनी सहज प्रवृत्तियाँ, काबिलियत, क्षमताएँ, व्यक्तित्व, जीने के पैटर्न और जीने की आदतें बदलने की भरसक कोशिश करते हो, तो चाहे तुम इन चीजों को नियंत्रित करने और बदलने की कितनी भी भरसक कोशिश करो, भले ही तुम कुछ परिणाम प्राप्त करने में समर्थ हो, इसका मतलब यह नहीं कि तुम सत्य के अभ्यास के मार्ग पर पहले ही कुछ प्राप्त कर चुके हो, और इससे भी बढ़कर, इसका मतलब यह नहीं कि तुम पहले से ही सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो—परमेश्वर इन चीजों को याद नहीं रखता। क्या तुम समझ गए? (हाँ।)
हालाँकि लोगों की धारणाएँ और कल्पनाएँ अदृश्य होती हैं और बाहरी तौर पर लोगों को कुछ कहने या करने या किसी भी तरह के मार्ग पर चलने के लिए बाध्य नहीं करतीं, फिर भी वे लोगों के हृदय की गहराई में और उनके अवचेतन में, उनके विचारों और अंतर्मन को कसकर नियंत्रित करती हैं। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग जिन चीजों से प्रेम करते हैं और जिनका अनुसरण करते हैं, वे उनकी धारणाओं और कल्पनाओं से पूरी तरह मेल खाती हैं और ये चीजें मानव-देह की जरूरतें भी पूरी करती हैं और सभी प्रकार की इंसानी इच्छाएँ और जिज्ञासाएँ संतुष्ट करती हैं। उदाहरण के लिए, अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में लोग मानते हैं कि परमेश्वर का कार्य उन्हें असाधारण प्राणियों में रूपांतरित करने का इरादा रखता है जो साधारण लोगों से भिन्न होते हैं और पवित्र आत्मा द्वारा प्रेरित किए जाने पर वे कई भाषाएँ बोलने में समर्थ होंगे। यह स्पष्ट रूप से लोगों की आंतरिक क्षमताओं और सामान्य मानवता के दायरे से परे है, लेकिन बहुत हद तक यह उनके अहंकार, जिज्ञासा और प्रतिस्पर्धा को संतुष्ट करता है। दूसरे शब्दों में, सत्य प्राप्त करने से पहले लोग कुछ अलौकिक चीजें पसंद करते हैं और ये चीजें उन्हें साधारण लोगों से महत्वपूर्ण, श्रेष्ठ और अलग महसूस कराती हैं—यही वह चीज है जिसे भ्रष्ट मानवजाति चाहती है और जिसकी चाहत रखती है। हर कोई मानवजाति में सबसे श्रेष्ठ दिखना, बाकी सबसे से अलग दिखना, अनोखा और अद्वितीय होना और दूसरों द्वारा आदर और सराहना पाना चाहता है। उदाहरण के लिए, भ्रष्ट मानवजाति में एक चलन है कि अगर किसी चीज का सिर्फ एक ही नग बनता है तो जो लोग धनी और प्रतिष्ठित होते हैं, वे बेताब होकर उसे खरीदने के लिए होड़ लगा देते हैं। वे ऐसा किस हद तक करेंगे? इस हद तक कि वह वस्तु अपनी मूल कीमत से कई गुना, यहाँ तक कि दस गुना से भी ज्यादा कीमत पर बिकने लगती है। जो व्यक्ति इसे खरीदने में कामयाब रहता है वह सोचता है, “देखो, मैंने यह चीज झपट ली, जो दुनिया में इकलौती है। मैं सचमुच बहुत शक्तिशाली हूँ, है ना? मैं दूसरों से बेहतर हूँ, है ना? दूसरा कोई भी मेरे जितना सक्षम नहीं है!” अपने मन में वह स्वयं से प्रसन्न होता है और सोचता है कि वह खास, असाधारण और बेहद सक्षम है। यह कैसा स्वभाव है? (अहंकार।) यह अहंकारी स्वभाव के कारण होता है। कुछ लोग दूसरे व्यक्ति के जैसे कपड़े पहनने पर असहज महसूस करते हैं। अगर वे ऐसे कपड़े पहनते हैं जिन्हें दूसरे लोग नहीं खरीद सकते और जिसे उन्होंने पहले कभी नहीं देखा होता और जिसे देखने वाला हर व्यक्ति ईर्ष्यालु हो जाता है, तो उन्हें कैसा लगता है? (वे स्वयं पर प्रसन्न होते हैं।) वे स्वयं पर प्रसन्न होते हैं, और वे सोचते हैं कि उन जैसा दूसरा कोई नहीं है और वे बाकी सबसे श्रेष्ठ हैं। यह कैसा स्वभाव है? (अहंकार।) यह भी अहंकारी स्वभाव के कारण होता है। देखो, लगभग 100% लोगों की यही मानसिकता होती है : अगर उन्होंने किसी तकनीकी या पेशेवर कौशल में महारत हासिल कर ली होती है तो वे सोचते हैं कि वे दूसरों से बेहतर हैं और कोई भी उतना अच्छा नहीं है जितने वे हैं। अगर कोई और भी उसी तकनीकी या पेशेवर कौशल में महारत हासिल कर लेता है तो वे उस व्यक्ति से ईर्ष्या करेंगे और बेताबी से चाहेंगे कि कोई भी उनकी बराबरी न कर सके। उनकी ऐसी मानसिकता क्यों होती है? (वे ऐसा बनना चाहते हैं जैसा कोई और नहीं है।) अगर वे अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो इस पेशेवर कौशल में निपुण हैं तो वे अपने समूह के औसत व्यक्ति से श्रेष्ठ हैं। इस तकनीकी या पेशेवर कौशल का ज्ञान होते हुए भी वे डरते हैं कि दूसरे लोग इसे उनसे सीख लेंगे। अगर दूसरे उनसे मदद माँगें तो क्या वे उन्हें सिखाएँगे? (नहीं, वे नहीं सिखाएँगे।) वे तुम्हें सिर्फ कुछ साधारण चीजें ही सिखाएँगे; जहाँ तक सबसे महत्वपूर्ण और जरूरी चीजों का सवाल है, वे उन्हें किसी को नहीं सिखाएँगे और वे तुम्हें उन्हें खुद समझने के लिए छोड़ देंगे। वे असल में क्या सोच रहे होते हैं? “अगर मैं इसे तुम्हें सिखा दूँ तो मैं अलग कैसे दिखूँगा? अगर हर कोई इसे कर सके तो क्या मैं एक आम आदमी नहीं बन जाऊँगा? अगर तुम लोगों में से कोई इसे करना नहीं जानता तो मैं यहाँ सबसे श्रेष्ठ व्यक्ति हूँ और तुम सभी लोगों को मेरी चापलूसी करनी होगी—इस तरह मैं महत्वपूर्ण महसूस करूँगा, है ना? क्या मैं तुम लोगों में से सबसे ऊँचे रुतबे वाला और सबसे सक्षम व्यक्ति नहीं हूँ? मैं तुम लोगों में से सबसे श्रेष्ठ हूँ, है ना?” किसी पेशेवर या तकनीकी कौशल का कुछ ज्ञान होते हुए भी वे इस बात से बहुत डरते हैं कि दूसरे लोग उनसे इसे सीख लेंगे, और वे नहीं चाहते कि दूसरे उन जैसे बनें। अगर किसी के पास उनके जैसा पेशेवर या तकनीकी कौशल या विशेषता है तो वे परेशान हो जाएँगे, इसलिए वे दूसरों से आगे निकलने के लिए कुछ न कुछ सीखने के तरीके सोचते रहते हैं। वे दूसरों से श्रेष्ठ होना चाहते हैं और महत्वपूर्ण महसूस करने के लिए हमेशा दूसरों से आगे निकलना चाहते हैं। क्या यह सही अनुसरण है? (नहीं।) ठीक इसीलिए कि भ्रष्ट मनुष्यों में ऐसी लालसाएँ और अनुसरण होते हैं, वे प्राकृतिक रूप से परमेश्वर के कार्य के बारे में तरह-तरह की धारणाएँ और कल्पनाएँ विकसित कर लेते हैं और दूसरों से श्रेष्ठ बनने, रुतबा और प्रतिष्ठा पाने, महत्वपूर्ण महसूस करने, ऐसा बनने जैसा कोई ओर न हो, यहाँ तक कि दूसरों की नजर में अतिमानव या असाधारण व्यक्ति बनने की कोशिश करते हैं। इसलिए लोगों को परमेश्वर के कार्य के बारे में ये धारणाएँ और कल्पनाएँ त्याग देनी चाहिए। विशिष्ट रूप से बात करें तो इसका अभ्यास कैसे किया जाना चाहिए? श्रेष्ठ गुणों या प्रतिभाओं के पीछे मत भागो और अपनी काबिलियत या मूल-प्रवृत्तियों को बदलने का प्रयास मत करो, बल्कि अपनी अंतर्निहित स्थितियों—जैसे कि काबिलियत, क्षमताओं और मूल-प्रवृत्तियों—के तहत परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य निभाओ और हर चीज परमेश्वर की माँग के अनुसार करो। परमेश्वर ऐसी किसी चीज की माँग नहीं करता है जो तुम्हारी क्षमताओं या काबिलियत से परे हो—तुम्हें भी अपने लिए चीजें कठिन नहीं बनानी चाहिए। अगर तुम जो समझते हो और जो प्राप्त कर सकते हो उसके आधार पर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करते हो और तुम्हारी खुद की स्थितियाँ जिसकी अनुमति देती है उसी के अनुसार तुम अभ्यास करते हो, तो यह ठीक है। उदाहरण के लिए, अगर तुम्हारी काबिलियत और प्रतिभा तुम्हें केवल टीम अगुआ की भूमिका के लिए उपयुक्त बनाती है तो टीम अगुआ के रूप में अच्छा काम करो, इस भूमिका के दायरे में आने वाले सभी कार्यों और पेशेवर कौशलों को श्रेणीबद्ध करो, उन्हें एक-एक करके निपटाओ, और उन तरीकों और सिद्धांतों के अनुसार उन्हें लागू करो जो परमेश्वर ने तुम्हें सिखाए हैं—इस तरह तुम परमेश्वर को संतुष्ट कर पाओगे। मान लो तुम अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार चलते हो और सोचते हो, “चूँकि मैं टीम अगुआ बनने में सक्षम हूँ, इसलिए अगर मैं बेहतर करने के लिए और अधिक प्रयास करता हूँ, थोड़ी कठिनाई सहता हूँ और थोड़ी कीमत चुकाता हूँ और पवित्र आत्मा मुझ पर महान कार्य करता है, तो क्या मैं एक कलीसिया का अगुआ या निर्णय लेने वाले समूह का अगुआ नहीं बन पाऊँगा? लोग सोच सकते हैं कि मुझमें यह क्षमता नहीं है, लेकिन मैं परमेश्वर से विनती करूँगा—परमेश्वर के लिए कुछ भी हासिल करना मुश्किल नहीं है! मैं टीम अगुआ नहीं बनना चाहता। मैं परमेश्वर से प्रार्थना करूँगा, उससे कहूँगा कि वह मुझे इससे बड़ा काम करने दे, मुझे अगुआ या कार्यकर्ता बनने दे।” क्या ऐसा अनुसरण सही है? (नहीं, यह गलत है।) तुम इसे गलत क्यों कहते हो? (ऐसे लोग हमेशा ऐसी चीजें करना चाहते हैं जो उनकी काबिलियत और योग्यताओं से परे हैं और वे अपनी काबिलियत और प्रतिभा के आधार पर अपना काम करने में, अपने उचित स्थान पर बने रहने में समर्थ नहीं होते।) हमेशा अतिमानव बनने की चाहत रखना उचित नहीं; यह वह नहीं है जिसका एक सामान्य व्यक्ति को अनुसरण करना चाहिए।
कुछ लोग अक्सर कहते हैं, “परमेश्वर के लिए कुछ भी कठिन नहीं है”; यह कहावत एक तथ्य है और हर कोई इसे समझ सकता है। लेकिन कुछ लोगों की समझ विकृत होती है, वे मानते हैं कि लोगों के लिए जो कुछ भी करना असंभव है, उसे परमेश्वर प्रार्थना करने भर से उनके लिए कर सकता है और परमेश्वर पर इस तरह भरोसा करके लोग अपनी सहज प्रवृत्तियों से परे जा सकते हैं और अतिमानव बन सकते हैं। क्या वास्तव में ऐसा है? (ऐसा नहीं है।) “परमेश्वर के लिए कुछ भी कठिन नहीं है” यह कहावत स्पष्ट रूप से परमेश्वर की शक्ति और उसका सार, परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और सभी चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता को संदर्भित करती है—ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे परमेश्वर न कर सके। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि लोगों को सामान्य मानवता से परे जाकर अलौकिक बनना चाहिए; परमेश्वर चाहे कितना भी सर्वशक्तिमान हो, वह लोगों पर जो कार्य करता है वह उनकी सामान्य मानवता पर आधारित होता है और सामान्य मानवता के दायरे में किया जाता है। परमेश्वर सभी चीजों का आयोजन और संचालन करता है, वह लोगों, घटनाओं और चीजों का संचालन करता है, ताकि वे उसके द्वारा तमाम तरह की चीजें संपन्न किए जाने के लिए सेवा करें, वे तथ्य पूरे करें जिन्हें वह संपन्न करने वाला है। जिस अवधि में परमेश्वर तमाम तरह की चीजें संपन्न करता है, उसमें लोग अभी भी सामान्य मानवता में होते हैं—उनका कुछ भी नहीं बदलता और वे अभी भी मनुष्य होते हैं। परमेश्वर चाहे कितना भी सर्वशक्तिमान हो और किसी चीज पर संप्रभुतापूर्वक शासन करने या कुछ संपन्न करने के लिए परमेश्वर चाहे कोई भी तरीका अपनाए, सृजित मनुष्य हमेशा सृजित मनुष्य ही रहते हैं; वे अभी भी सामान्य मानवता में रहते हैं और किसी भी तरह से अलौकिक नहीं होते। क्या तुम सभी लोग कहोगे कि ये तथ्य हैं? (हाँ।) “अलौकिक नहीं होने” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि जब परमेश्वर लोगों, घटनाओं और चीजों का आयोजन करता है तो लोग परमेश्वर के आयोजन के अधीन जिए बिना, जीवित बचे रहे बिना, हर चीज किए बिना और वर्तमान क्षण में जिए बिना नहीं रह सकते। लेकिन जब तुम वर्तमान क्षण में जीते हो तो क्या तुम्हारी चेतना धुँधली होती है? (नहीं।) तुम अभी भी सचेत रहते हो। तो क्या तुम्हारी काबिलियत में तुरंत सुधार हो गया है या बदलाव आ गया है? (नहीं।) यह वैसी ही रहती है जैसी मूल रूप में थी। तो क्या तुम्हारी सहज प्रवृत्तियाँ तुरंत बदल गई हैं? नहीं, वे भी नहीं बदली हैं। परमेश्वर की संप्रभुता, आयोजनों और व्यवस्थाओं के तहत, चाहे तुम कितनी भी चीजों का अनुभव करो, तुम्हारे व्यक्तित्व, आदतों, जीने के ढर्रों और तुम्हारी सामान्य मानवता की काबिलियत, योग्यताओं और विभिन्न कार्यों में जरा भी परिवर्तन नहीं होता। बात बस इतनी है कि जब लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हैं तो वे अपने-अपने परिवेश में तमाम तरह की चीजों और लोगों का अनुभव करते हैं, जिसका अंतिम परिणाम यह होता है कि परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने की प्रक्रिया में उन्हें अंतर्दृष्टि प्राप्त होती है और वे कुछ सबक सीखते हैं। अगर वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हैं तो वे सत्य और परमेश्वर को जानने के संदर्भ में फल प्राप्त करने में समर्थ होते हैं। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने की प्रक्रिया में लोगों की सोच सामान्य होती है, उनकी चेतना धुँधली नहीं होती और उनकी काबिलियत, योग्यताएँ और सहज प्रवृत्तियाँ बिना किसी बदलाव के वैसी ही रहती हैं जैसी वे मूल रूप में थीं। इसलिए, “परमेश्वर के लिए कुछ भी कठिन नहीं है” यह कहावत परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और सभी चीजों के परमेश्वर के आयोजन को संदर्भित करती है। इसका अर्थ लोगों को अलौकिक बनाना या सृजित मनुष्यों का सार बदलना नहीं है। परमेश्वर लोगों का सार नहीं बदलता; मनुष्य अभी भी मनुष्य ही रहते हैं, और चाहे तुम पुरुष हो या स्त्री, इस संबंध में कोई बदलाव नहीं होता। परमेश्वर हर चीज का आयोजन करता है, और परमेश्वर सर्वशक्तिमान है; जो परमेश्वर के पास है और जो वह स्वयं है वह यही है, और यही है जो परमेश्वर रखता है। “परमेश्वर के लिए कुछ भी कठिन नहीं है” का अर्थ यह नहीं कि लोग अलौकिक हो गए हैं, न ही इसका अर्थ यह है कि लोग सर्वशक्तिमान हैं। भले ही कुछ व्यक्ति कभी-कभी कुछ ऐसी चीजें हासिल कर लेते हों जो उनकी काबिलियत या उनकी शारीरिक प्रवृत्ति से परे होती हैं, लेकिन यह पवित्र आत्मा का कार्य होता है। यह परमेश्वर ही है जिसने उन्हें यह गुण प्रदान किया है; ऐसा नहीं है कि वे इस क्षमता के साथ पैदा हुए थे। ऐसा इसलिए है क्योंकि सृजित मनुष्यों में वह सब बदलने की क्षमता नहीं है जो परमेश्वर ने नियत किया है। मैं इंसानी सहज प्रवृत्ति के मामले में एक सरल उदाहरण दूँगा। उदाहरण के लिए, जब लोग कोई डरावनी आवाज सुनते हैं तो वे भयभीत हो जाते हैं और सहज रूप से दुबक जाते हैं। चाहे तुम्हारी उम्र कितनी भी हो, तुम बचपन से ऐसे ही रहे हो और मृत्यु तक ऐसे ही रहोगे—यह सहज प्रवृत्ति है। “सहज प्रवृत्ति” का क्या अर्थ है? यह भौतिक शरीर का एक अंतर्निहित कार्य है और यह कभी नहीं बदलेगा। केवल अंतर्निहित सहज प्रवृत्तियाँ होने से ही सामान्य व्यक्ति सामान्य मानवता का जीवन और अस्तित्व बनाए रख सकता है, इसलिए मनुष्य की सहज प्रवृत्तियाँ ऐसी चीज नहीं हैं जिन्हें परमेश्वर बदलने का इरादा रखता है। क्या तुम इसे समझ गए? (हाँ।) “परमेश्वर सर्वशक्तिमान है” का क्या अर्थ है? (इसका अर्थ है परमेश्वर का अधिकार और उसकी सर्वशक्तिमत्ता।) क्या इसका लोगों से कोई लेना-देना है? (इसका लोगों से कोई लेना-देना नहीं है और इसका यह अर्थ नहीं है कि लोग अलौकिक कार्य कर सकते हैं।) इसका यह अर्थ नहीं है कि परमेश्वर के नियंत्रण में लोग सर्वशक्तिमान होते हैं; जब लोग परमेश्वर के नियंत्रण में होते हैं तब भी वे सर्वशक्तिमत्ता प्राप्त नहीं कर सकते। ऐसा क्यों है? (क्योंकि लोग परमेश्वर नहीं हैं; लोग केवल सृजित प्राणी हैं, जबकि परमेश्वर अद्वितीय है।) यह सही है, ऐसा ही है। लोग हमेशा लोग ही रहेंगे। वे कोई दूसरी प्रजाति नहीं बन जाएँगे, और बेशक, वे परमेश्वर तो बिल्कुल भी नहीं बनेंगे; लोगों के गुण नहीं बदलेंगे। लोगों के गुण नहीं बदलेंगे, तो क्या उनकी सहज प्रवृत्तियाँ बदलेंगी? (नहीं, वे नहीं बदलेंगी।) लोगों की सहज प्रवृत्तियाँ नहीं बदलेंगी, न ही उनके जीने की आदतें और जीने के ढर्रे या परमेश्वर द्वारा प्रदत्त अंतर्निहित व्यक्तित्व बदलेंगे। उदाहरण के लिए, जीने के ढर्रे को ही ले लो। अधिकांश प्राणियों की तरह मनुष्य सूर्योदय के बाद काम करते हैं और सूर्यास्त के बाद आराम करते हैं। जब वे सुबह उठते हैं और उनका मस्तिष्क अच्छी तरह से विश्राम कर लेता है और उनका शरीर आराम महसूस करता है, तो वे काम शुरू कर देते हैं; रात में जब उनका शरीर थकने लगता है और वे जम्हाई लेते हैं और उनका दिमाग थक जाता है, तो वे आराम की अवस्था में प्रवेश करने लगते हैं—यह जीने का एक बहुत ही सामान्य ढर्रा है। यह मनुष्यों का एक सामान्य गुण है और यह एक इंसानी प्रवृत्ति भी है और बेशक यह जीने का एक ढर्रा भी है जिसे परमेश्वर ने मानवजाति के लिए स्थापित किया है। यह ढर्रा सूर्य, चंद्रमा और तारों के घूर्णन और सूर्य के उदय और अस्त होने के मुताबिक तय होता है। अगर तुम जीने का यह ढर्रा तोड़ देते हो तो अल्पावधि में तो शायद कोई बड़ी समस्या न हो—जब तुम्हें कभी-कभी थकान महसूस हो और तुम सोना चाहो, तो तुम आत्म-संयम बरत सकते हो और थोड़ी चाय या कॉफी पी सकते हो, और तुम्हारी शारीरिक थकान कुछ हद तक कम हो जाएगी—लेकिन लंबे समय में तुम्हारे शरीर में समस्याएँ उत्पन्न हो जाएँगी। उसमें समस्याएँ क्यों उत्पन्न हो जाएँगी? क्योंकि तुमने जीने के उस ढर्रे का उल्लंघन किया है जिसे परमेश्वर ने लोगों के लिए स्थापित किया है। जब तुम्हारे शरीर में समस्याएँ पैदा होंगी और तुम डॉक्टर के पास जाओगे तो वह कहेगा, “तुम्हें रात को जल्दी सो जाना चाहिए, 10 बजे सोकर सुबह 4 या 5 बजे उठ जाना चाहिए; कुछ महीनों में तुम फिर से ठीक हो जाओगे।” डॉक्टर की सलाह मानने के तीन महीने बाद तुम्हारे शरीर की सभी तकलीफों के लक्षण मूलतः गायब हो जाएँगे, इसलिए तुम मन ही मन सोचोगे, “यह बात निकलकर आई है कि मेरी शारीरिक समस्याएँ कोई गंभीर बीमारी नहीं थीं, बल्कि मेरे द्वारा अपने जीवन में इस सामान्य ढर्रे का पालन न करने के कारण थीं।” देखो, क्या तुम यह नहीं कहोगे कि लोगों के जीने के ढर्रे तोड़े नहीं जा सकते? (हाँ।) इंसानों के जीने का यह ढर्रा दूसरे जीवों जैसा ही है; वे सभी सूर्योदय के बाद काम करते हैं और सूर्यास्त के बाद आराम करते हैं। बेशक, उल्लू जैसे कुछ जीव भी हैं जो दिन में आराम करते हैं और रात में बाहर आकर सक्रिय होते हैं; उनके जीने का ढर्रा इंसानों और दूसरे जीवों से अलग है, लेकिन अगर तुम उनके इस ढर्रे को तोड़ना चाहो, तो यह नामुमकिन होगा। इसके अलावा, कुछ जीव सर्दियों में शीतनिद्रा में चले जाते हैं। क्या मनुष्यों में ऐसा ढर्रा होता है? (नहीं।) नहीं, मनुष्यों को शीतनिद्रा में जाने की जरूरत नहीं होती। मनुष्यों के जीने का एक ढर्रा है—वे प्रति सप्ताह एक-दो दिन आराम करते हैं, वे सूर्योदय के बाद काम करते हैं और सूर्यास्त के बाद आराम करते हैं, और काम और आराम का यह सामान्य ढर्रा निरंतर बनाए रखते हैं, और इस तरह उनके जीवन की रक्षा की जा सकती है और उनका अस्तित्व बना रह सकता है। मनुष्यों के जीने के अपने ढर्रे होते हैं और ये ढर्रे परमेश्वर द्वारा स्थापित किए गए थे। ये सभी अर्थपूर्ण हैं और इन सभी का उद्देश्य मानवजाति का सामान्य जीवन और अस्तित्व बनाए रखना है। इसलिए, परमेश्वर का कार्य मनुष्य के जीवन और अस्तित्व के ढर्रे बिल्कुल नहीं तोड़ेगा जैसा कि लोग कल्पना करते हैं कि वह ऐसा करेगा, और तुम्हें भी यह धारणा और कल्पना त्याग देनी चाहिए। अगर मनुष्य परमेश्वर द्वारा उनके लिए स्थापित ये ढर्रे बलपूर्वक तोड़ेंगे या अगर मनुष्य अलौकिक चीजों के बारे में कुछ विचारों से नियंत्रित होने के कारण उन्हें लगातार बदलना चाहेंगे तो यह मूर्खता होगी। अगर तुम सोचते हो कि इन्हें बदलने से तुम्हारा जीवन उन्नत होगा और तुम्हारी मानवता में सुधार होगा तो इन्हें बदलने की कोशिश करो और देखो कि तुम कितने समय तक जी पाते हो, देखो कि आने वाले दिनों में चीजें कैसे बदलती हैं और क्या तुम्हारी सामान्य मानवता उन्नत होती है और क्या तुम अतिमानव, या कोई देवदूत, बनते हो। अगर तुम मानते हो कि परमेश्वर के कार्य में एक अलौकिक तत्त्व होना चाहिए और उसे तुम्हारे जीने के ढर्रे बदलने चाहिए, और तुम भी खुद को मानवातीत बनाने के लिए उन्हें बलपूर्वक बदलना चाहते हो, तो तुम इसे आजमा सकते हो। हो सकता है कई वर्षों की कोशिश के बाद तुम वास्तव में अपने जीवन और अस्तित्व के ढर्रे बदल दो। ऐसा केवल एक ही स्थिति में हो सकता है, वह यह कि तुम्हारा भौतिक शरीर अस्तित्व में नहीं रहेगा, उस बिंदु पर तुम वास्तव में अलौकिक हो जाओगे और धुएँ के गुबार में बदल जाओगे, और तुम एक “आकाशीय प्राणी” में परिवर्तित होकर अमर हो जाओगे। अगर तुम अपना भौतिक शरीर सामान्य और स्वस्थ रखना चाहते हो और सामान्य अवस्था में रहते हुए परमेश्वर का कार्य और उसके वचन स्वीकारने में समर्थ होना चाहते हो, तो तुम्हें अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर तथाकथित अतिमानव बनने या तथाकथित उन्नत मानवता का अनुसरण करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए; बल्कि तुम्हें सामान्य मानवता में जीना चाहिए, अपनी सामान्य मानवता के जीवन और अस्तित्व का ढर्रा बनाए रखना चाहिए और अपनी सामान्य मानवता की सहज प्रवृत्ति भी बनाए रखनी चाहिए। परमेश्वर से अनुचित माँगें मत करो; ये सब अनुचित माँगें तुम्हारी कल्पनाओं और धारणाओं से आती हैं। तुम्हारी सहज प्रवृत्तियाँ, जीने के ढर्रे इत्यादि वे चीजें नहीं हैं जिन्हें परमेश्वर बदलना चाहता है, न ही ये वे चीजें हैं जिन्हें वह अपने कार्य से बदलना चाहता है। एक बचाया गया व्यक्ति निश्चित रूप से ऐसा व्यक्ति नहीं होता जो धारणाओं और कल्पनाओं से भरा हो, और वह अतिमानव या असामान्य व्यक्ति तो बिल्कुल नहीं होता। बल्कि, वह सामान्य मानवता और जमीर और विवेक वाला व्यक्ति होता है, ऐसा व्यक्ति जो परमेश्वर के वचनों पर ध्यान देने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार लोगों और चीजों को देखने, और आचरण और कार्य करने में समर्थ होता है; वह ऐसा व्यक्ति होता है जो सभी चीजों में परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकता है, जो बिल्कुल भी अलौकिक नहीं होता और जिसकी मानवता विशेष रूप से सामान्य और व्यावहारिक होती है।
सामान्य मानवता में रहने वाले लोग कई शारीरिक प्रवृत्तियों और शारीरिक आवश्यकताओं से भी प्रतिबंधित होते हैं। उदाहरण के लिए, कभी-कभी लोग अपने कर्तव्य कुछ दिनों के लिए इसलिए टाल सकते हैं क्योंकि वे बहुत थक हुए या बीमार हैं और उन्हें आराम की जरूरत है; कभी-कभी तनावपूर्ण परिवेश के कारण वे भयभीत हो सकते हैं और अपने कर्तव्य निभाने के लिए शांतचित्त नहीं हो पाते; या वे अक्सर अपने हृदय में कृतज्ञता और उदासी की भावना महसूस कर सकते हैं क्योंकि अपनी सीमित काबिलियत और योग्यताओं के कारण वे किसी विशेष प्रकार के कार्य या कर्तव्य में सक्षम नहीं हो सकते—ये सभी सामान्य अभिव्यक्तियाँ हैं जो सामान्य मानवता के दायरे में आती हैं। कभी-कभी लोग भावनाओं और शारीरिक आवश्यकताओं से बेबस हो सकते हैं और कभी-कभी वे शारीरिक प्रवृत्तियों या समय और व्यक्तित्व के प्रतिबंधों के अधीन हो सकते हैं—यह सामान्य और प्राकृतिक है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग बचपन से ही काफी अंतर्मुखी होते हैं; वे बात करना पसंद नहीं करते हैं और दूसरों से मेलजोल रखने में उन्हें दिक्कतें आती हैं। यहाँ तक कि तीस या चालीस वर्ष के वयस्क हो जाने के बाद भी वे इस व्यक्तित्व से उबर नहीं पाते हैं : वे अभी भी बोलने में कुशल या संप्रेषण में अच्छे नहीं होते, न ही वे दूसरों के साथ मेलजोल रखने में अच्छे होते हैं। अगुआ बनने के बाद उनके व्यक्तित्व का यह गुण उनके कार्य को कुछ हद तक सीमित और बाधित करता है, और उन्हें अक्सर इसके कारण तनाव और हताशा होती है जिससे वे बहुत बेबस महसूस करते हैं। अंतर्मुखी होना और बात करना पसंद नहीं करना सामान्य मानवता की अभिव्यक्तियाँ हैं। चूँकि ये सामान्य मानवता की अभिव्यक्तियाँ हैं, तो क्या उन्हें परमेश्वर के प्रति अपराध माना जाता है? नहीं, ये अपराध नहीं हैं और परमेश्वर उनके साथ सही तरह से व्यवहार करेगा। चाहे तुम्हारी समस्याएँ, दोष या खामियाँ कुछ भी हों, इनमें से कोई भी चीज परमेश्वर की नजर में मुद्दा नहीं है। परमेश्वर सिर्फ यह देखता है कि तुम किस तरह से सत्य की तलाश करते हो, किस तरह से सत्य का अभ्यास करते हो, किस तरह से सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हो और सामान्य मानवता की अंतर्निहित स्थितियों के तहत परमेश्वर के मार्ग पर चलते हो—परमेश्वर इन्हीं चीजों को देखता है। इसलिए, सत्य सिद्धांतों से संबंधित मामलों में काबिलियत, सहज-ज्ञान, व्यक्तित्व, आदतें और सामान्य मानवता के जीवन जीने के तरीके जैसी बुनियादी स्थितियों को अपने आप पर प्रतिबंध मत लगाने दो। यकीनन, इन बुनियादी स्थितियों पर काबू पाने का प्रयास करने में अपनी ताकत और समय भी मत लगाओ और न ही इन्हें बदलने का प्रयास करो। मिसाल के तौर पर, अगर तुम्हारा व्यक्तित्व अंतर्मुखी है और तुम्हें बात करना पसंद नहीं है, तुम्हें भाषा का प्रभावी ढंग से उपयोग करना नहीं आता है और तुम लोगों के साथ मेलजोल रखने और बातचीत करने में कुशल नहीं हो, तो इनमें से कोई भी चीज समस्या नहीं है। हालाँकि बहिर्मुखी लोग बात करना पसंद करते हैं लेकिन ऐसा नहीं है कि वे जो कुछ भी कहते हैं वह उपयोगी या सत्य के अनुरूप होता है, इसलिए अंतर्मुखी होना कोई समस्या नहीं है और तुम्हें इसे बदलने का प्रयास करने की जरूरत नहीं है। तुम कह सकते हो, “अगर मैं एक साधारण अनुयायी होता, तो मेरे लिए अंतर्मुखी व्यक्तित्व का होना कोई समस्या न होती; लेकिन अब मैं एक अगुआ हूँ, इसलिए क्या मुझे अपना अंतर्मुखी व्यक्तित्व बदलने की जरूरत नहीं है?” अगर तुम वाकई इसे बदलना चाहते हो, तो तुम दूसरों के साथ मिलने-जुलने का तरीका सीख सकते हो, या इस बात के लिए एक नियम बना सकते हो कि तुम कितना बोलते हो, कितने मामले सँभालते हो और एक दिन में कितनी तरह के लोगों से व्यवहार करते हो। अगर तुममें वाकई अपना अंतर्निहित व्यक्तित्व बदलने की क्षमता है, तो बेशक, तुम्हारे कलीसिया का कार्य करने के संबंध में यह अनिवार्यतः कोई बुरी बात नहीं है। लेकिन अगर तुम अंतर्मुखी व्यक्तित्व के साथ पैदा हुए हो और तुम शब्दों का इस्तेमाल अच्छी तरह नहीं कर पाते, सामाजिक मेलजोल में माहिर नहीं हो और दूसरों से बातचीत या संवाद करना नहीं जानते, तो इसे कोई नहीं बदल सकता। कुछ लोगों का व्यक्तित्व अंतर्मुखी होता है, वे दूसरों से बातचीत या संवाद करने के इच्छुक नहीं होते, और इसके अलावा, उनके पास कहने के लिए ज्यादा कुछ नहीं होता। उन्हें हमेशा लगता है कि कुछ उपयोगी कहना ही सही है और अनावश्यक चीजें कहने की कोई जरूरत नहीं है, इसलिए वे ज्यादा कुछ कहने के इच्छुक नहीं होते। कुछ लोगों के लिए ऐसा इसलिए हो सकता है कि वे बहुत छोटे हैं और उनके पास कोई जीवन का अनुभव नहीं है और शब्दों की कमी है; दूसरे लोगों के लिए ऐसा हो सकता है कि वे अब युवा नहीं हैं और उनके पास पहले से ही जीवन का अनुभव है, लेकिन फिर भी उनका व्यक्तित्व अंतर्मुखी होता है। अगर तुम इस तरह के व्यक्तित्व को बदलने की कोशिश करते हो और उसे बदलने के लिए हर तरह के नजरिये अपनाते हो तो मैं तुम्हें बता दूँ, तुम उसे जीवन भर नहीं बदल पाओगे, क्योंकि परमेश्वर इस तरह का काम नहीं करता। इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारा चेहरा या रूप तुम्हारे पिता जैसा है या माता जैसा या किसी अन्य रिश्तेदार जैसा, यह रूप नहीं बदलेगा, और इससे भी बढ़कर, विशेषकर तुम्हारा व्यक्तित्व नहीं बदलेगा। कुछ लोग कहते हैं, “अंतर्मुखी व्यक्तित्व बदलना मुश्किल है, तो क्या बहिर्मुखी व्यक्तित्व बदलना आसान है?” बहिर्मुखी व्यक्तित्व बदलना भी उतना ही मुश्किल है। बहिर्मुखी लोगों को बात करना बहुत पसंद होता है और उनके पास कहने के लिए बहुत कुछ होता है; अगर तुम उन्हें न बोलने या कम बोलने के लिए कहो तो वे खुद को नियंत्रित नहीं कर सकते, और अगर कोई उन्हें बोलने से रोकता है तो यह उनसे उनका जीवन छीनने जैसा होता है। अगर किसी अंतर्मुखी व्यक्ति का किसी बहिर्मुखी व्यक्ति के साथ मेल-जोल कराया जाए, तो क्या वे एक-दूसरे को प्रभावित करेंगे? शुरुआत में वे एक-दूसरे को कुछ हद तक प्रभावित कर सकते हैं; अपनी इज्जत बचाने के लिए दोनों लोग एक-दूसरे के प्रति उदार और सहिष्णु होंगे या एक-दूसरे को समझते हुए सहनशीलता दिखाएँगे। लेकिन समय के साथ वे एक-दूसरे को जान जाएँगे और एक-दूसरे के व्यक्तित्व की स्पष्ट समझ प्राप्त कर लेंगे, और उन्हें एक-दूसरे के प्रति इतना सहनशील और विचारशील व्यवहार करने की जरूरत नहीं रहेगी, इसलिए वे जल्दी ही अपनी मूल अवस्था में लौट जाएँगे। अगर तुम्हारा व्यक्तित्व पहले अंतर्मुखी था, तो तुम अब भी अंतर्मुखी हो; जब तुम बोलते और बातचीत करते हो तो तुम बस कुछ शब्द या वाक्य ही बोलते हो, और तुम्हारे पास कहने के लिए और कुछ नहीं होता। अगर कोई पूछता है, “क्या तुम बाहर गए थे?” तो तुम जवाब देते हो, “गया था।” फिर अगर वह पूछे, “तुम वापस कब आए?” तो तुम जवाब देते हो, “अभी-अभी।” तुम यह नहीं बताते कि क्या हुआ, और वह नहीं बताते जो वह व्यक्ति सुनना चाहता है। इसके विपरीत, बहिर्मुखी लोग मशीनगन की तरह लगातार शब्दों के गोले दागते रहते हैं, और अगर तुम उन्हें टोक दो, तो भी कुछ देर बाद वे फिर बोलने लगेंगे। क्या किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व में बदलाव आना आसान है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) यह एक ऐसी चीज है जो हर सृजित मनुष्य के साथ जन्म से ही होती है। इसका भ्रष्ट स्वभावों या व्यक्ति की मानवता के सार से कोई लेना-देना नहीं है; यह बस अस्तित्व की एक अवस्था है जिसे लोग बाहर से देख सकते हैं, और एक तरीका है जिससे व्यक्ति लोगों, घटनाओं और चीजों के साथ पेश आता है। कुछ लोग खुद को अच्छी तरह अभिव्यक्त कर लेते हैं जबकि कुछ लोग नहीं कर पाते; कुछ लोग चीजों का वर्णन करना पसंद करते हैं जबकि कुछ लोग नहीं करते; कुछ अपने विचार अपने तक ही रखना पसंद करते हैं जबकि कुछ लोग अपने विचार अपने भीतर रखना पसंद नहीं करते बल्कि उन्हें जोर से व्यक्त करना चाहते हैं ताकि हर कोई उन्हें सुन सके, और तभी उन्हें खुशी महसूस होती है। ये वे अलग-अलग तरीके हैं जिनसे लोग जिंदगी और लोगों, घटनाओं और चीजों से निपटते हैं; यह लोगों का व्यक्तित्व है। तुम्हारा व्यक्तित्व ऐसी चीज है जो तुम्हारे साथ पैदा हुई है। अगर तुम कई कोशिशों के बाद भी इसे बदलने में नाकाम रहे हो तो मैं तुम्हें बता दूँ, तुम अब थोड़ा आराम कर सकते हो; खुद को इतना थका देने की जरूरत नहीं है। इसे बदला नहीं जा सकता, इसलिए इसे बदलने की कोशिश मत करो। तुम्हारा मूल व्यक्तित्व जो भी रहा है, वही तुम्हारा व्यक्तित्व बना रहता है। उद्धार प्राप्त करने के लिए अपने व्यक्तित्व को बदलने का प्रयास मत करो; यह एक भ्रामक विचार है—तुम्हारा जो भी व्यक्तित्व है, वह एक वस्तुनिष्ठ तथ्य है और तुम उसे नहीं बदल सकते। इसके वस्तुनिष्ठ कारणों के लिहाज से, परमेश्वर अपने कार्य में जो परिणाम प्राप्त करना चाहता है उसका तुम्हारे व्यक्तित्व से कोई लेना-देना नहीं है। तुम उद्धार प्राप्त कर सकते हो या नहीं, यह भी तुम्हारे व्यक्तित्व से संबंधित नहीं है। इसके अलावा, तुम सत्य का अभ्यास करने वाले व्यक्ति हो या नहीं और तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है या नहीं, इसका भी तुम्हारे व्यक्तित्व से कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए, इस कारण से अपने व्यक्तित्व को बदलने का प्रयास मत करो कि तुम कुछ विशेष कर्तव्य कर रहे हो या कार्य की किसी विशेष मद के पर्यवेक्षक के रूप में सेवा कर रहे हो—यह एक गलत विचार है। तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हारा व्यक्तित्व या जन्मजात स्थितियाँ चाहे कुछ भी हों, तुम्हें सत्य सिद्धांतों का पालन करना चाहिए और उनका अभ्यास करना चाहिए। अंत में, परमेश्वर यह आकलन नहीं करता है कि तुम उसके मार्ग पर चलते हो या नहीं या तुम अपने व्यक्तित्व के आधार पर उद्धार प्राप्त कर सकते हो या नहीं, वह इस आधार पर भी आकलन नहीं करता है कि तुम्हारे पास कौन-सी जन्मजात काबिलियत, कौशल, क्षमताएँ, गुण या प्रतिभाएँ हैं और यकीनन वह यह भी नहीं देखता कि तुमने अपनी दैहिक सहज प्रवृत्तियों और जरूरतों को कितना सीमित किया है। इसके बजाय परमेश्वर यह देखता है कि उसका अनुसरण करते हुए और अपना कर्तव्य निर्वहन करते हुए क्या तुम उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव कर रहे हो, क्या तुममें सत्य का अनुसरण करने की इच्छा और संकल्प है और अंत में, क्या तुम सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के मार्ग पर चलने में सफल हुए हो। परमेश्वर यही देखता है। क्या तुम इसे समझते हो? (हाँ, हम समझते हैं।)
कुछ महिलाएँ जब कार्य करती हैं तब उसमें तेजी से प्रगति करती हैं, वे आकाश में चमकने वाली बिजली की तरह तेज और ऊर्जावान होती हैं और तुरंत और दृढ़ निर्णय लेती हैं; उनका व्यक्तित्व बिल्कुल पुरुषों जैसा होता है। आजकल उनका वर्णन करने के लिए कौन-सा लोकप्रिय शब्द इस्तेमाल किया जाता है? मर्दाना महिलाएँ। अब “मर्दाना महिलाएँ” मूर्ख, बड़ी, भारी-भरकम गँवार नहीं रहीं जिन्हें लोग इस शब्द से संबोधित किया करते थे। यह कोई अपमानजनक शब्द नहीं है; बल्कि यह एक प्रशंसात्मक शब्द है। लेकिन परमेश्वर इस प्रशंसात्मक शब्द को कैसे देखता है? तुम आकाश में चमकने वाली बिजली की तरह तेज और ऊर्जावान हो, और अपने कार्यों में साहस से और दृढ़तापूर्वक निर्णय करते हो, लेकिन तुम्हारे अभ्यास के सिद्धांत और तुम्हारे कार्यों का आधार क्या है? क्या वह आधार सत्य है? क्या वह आधार परमेश्वर के वचन हैं? यही कुंजी है। अगर कोई पुरुष अपने कार्यों में धीमा और सावधान है, तो गैर-विश्वासियों के शब्दों में, वह बँधे हुए पैरों वाली स्त्री के समान है—कुछ लोग तो यह कहते हुए अपमानजनक शब्द का भी प्रयोग करते हैं कि वह “थोड़ा महिलाओं जैसा” है—लेकिन परमेश्वर उसे कैसे देखता है? चाहे कोई व्यक्ति आकाश में चमकने वाली बिजली की तरह तेज और ऊर्जावान हो और चीजें करने में साहस और दृढ़ता से निर्णय लेता हो, या बँधे हुए पैरों वाली महिला की तरह कार्य करता हो और अपने कार्यों में थोड़ा महिलाओं जैसा हो, क्या इनमें से कोई भी चीज समस्या है? (नहीं।) क्या आकाश में चमकने वाली बिजली की तरह तेज और ऊर्जावान होना, और साहस और दृढ़ता से निर्णय लेना एक मजबूत बिंदु है? (नहीं, अनिवार्य रूप से नहीं।) तो क्या बँधे हुए पैरों वाली महिला की तरह व्यवहार करना एक कमजोरी है? (उसी तरह, नहीं, अनिवार्य रूप से नहीं।) हालाँकि दो शब्दों “मर्दाना महिलाएँ” और “थोड़ा महिलाओं जैसा” में से एक प्रशंसनीय है और दूसरा अपमानजनक, लेकिन इन दो प्रकार के व्यवहारों या काम करने के तरीकों का सार इनके शाब्दिक अर्थों के आधार पर नहीं आँकना चाहिए। उसे आँकने के लिए क्या इस्तेमाल करना चाहिए? (यह कि व्यक्ति जिसका अभ्यास करता है वह परमेश्वर का वचन है या नहीं।) उसे आँकने के लिए उसके कार्यों के आधार का और साथ ही उस प्रभाव का इस्तेमाल करना चाहिए, जिसे वह प्राप्त करने का इरादा रखता है। अगर उसके कार्यों का आधार परमेश्वर का वचन और सत्य सिद्धांत हैं तो यह तगभग 90 प्रतिशत निश्चित है कि वह कोई गलत काम नहीं कर रहा है। अगर वह न केवल सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता है, बल्कि इसके अतिरिक्त, वह जो प्रभाव प्राप्त करना चाहता है वह परमेश्वर की गवाही और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना और अधिक भाई-बहनों का आध्यात्मिक उन्नयन करना है, तो हम 100 प्रतिशत निश्चित हो सकते हैं कि वह कोई गलत काम नहीं कर रहा है। चाहे वह साहसपूर्वक और दृढ़ता से निर्णय करता हो या बँधे हुए पैरों वाली महिला की तरह—चाहे वह बाहरी तौर पर कैसे भी व्यवहार करता हो—यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि उसके कार्यों का आधार सत्य सिद्धांत हैं या नहीं, और उसके कार्यों का लक्ष्य और वह प्रभाव जो वह अपने कार्यों के जरिये प्राप्त करना चाहता है, परमेश्वर के घर के हितों और कलीसिया के कार्य की रक्षा करना और अधिक लोगों का आध्यात्मिक उन्नयन करना है या नहीं। तो क्या उसके कार्यों का स्वरूप महत्वपूर्ण है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) चाहे तुम मर्दाना महिला हो या बँधे हुए पैरों वाली महिला की तरह हो, परमेश्वर इसे नहीं देखता; यह वह मानक नहीं है जिसका इस्तेमाल परमेश्वर लोगों को आँकने के लिए करता है। इसलिए अगर कोई महिला मर्दाना महिला जैसी प्रतीत होती है और अपने कार्यों में वह आकाश में चमकने वाली बिजली की तरह तेज और ऊर्जावान है, और साहस से और दृढ़तापूर्वक निर्णय लेती है, तो क्या यह प्रशंसा और सम्मान के योग्य है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) क्या आकाश में चमकने वाली बिजली की तरह तेज और ऊर्जावान होना और साहस से और दृढ़तापूर्वक निर्णय लेना चीजें करने का एक सिद्धांत है? (नहीं।) चाहे तुम पुरुष हो या महिला, साहस से और दृढ़तापूर्वक निर्णय लेने वाला होना और आकाश में चमकने वाली बिजली की तरह तेज और ऊर्जावान होना चीजें करने का एक सिद्धांत नहीं है। तो, चीजें करने का क्या सिद्धांत है? (व्यक्ति को सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए, और जो प्रभाव प्राप्त करने का वह इरादा रखता है वह परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना और अधिक लोगों का आध्यात्मिक उन्नयन करना होना चाहिए—यह एक सिद्धांत है।) यह एक ठोस सिद्धांत है। अगर तुम इस सिद्धांत के अनुसार कार्य करते हो तो तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो; अगर तुम इस सिद्धांत के अनुसार कार्य नहीं करते तो मेरी दृष्टि में वह अभिव्यक्ति जो तुम्हारे साहस से और दृढ़तापूर्वक निर्णय लेने वाला होने, आकाश में चमकने वाली बिजली की तरह तेज और ऊर्जावान होने को सबसे उपयुक्त रूप से परिभाषित करती है, वह है “उन्मादी होकर बुरी चीजें करना”। यह स्पष्ट है कि उन्मादी होकर बुरी चीजें करना सत्य सिद्धांतों के आधार पर कार्य करना नहीं है; हालाँकि तुम अपने कार्यों में निर्णायक और निस्संकोच प्रतीत होते हो और एक अगुआ या राजा जैसा भाव रखते हो, लेकिन वास्तव में तुम उन्मादी होकर बुरी चीजें करते हो। उन्मादी होकर बुरी चीजें करने के क्या परिणाम होते हैं? इससे विघ्न-बाधाएँ पैदा होती हैं और कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचता है। तो क्या परमेश्वर इसे याद रखेगा? (नहीं।) परमेश्वर न केवल इसे याद नहीं रखेगा, बल्कि वह इसकी निंदा भी करेगा। तो तुम कहते हो कि तुम एक मर्दाना महिला हो, और अपने कार्यों में आकाश में चमकने वाली बिजली की तरह तेज और ऊर्जावान हो, और साहस से और दृढ़तापूर्वक निर्णय करते हो, लेकिन क्या यह उपयोगी है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) केवल सत्य खोजना और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना ही सच्ची क्षमता कही जा सकती है; केवल यही सत्य का अभ्यास करना और सत्य का अनुसरण करना है, और केवल यही है जो सामान्य मानवता वाले लोगों को करना चाहिए। मान लो तुम कहते हो, “यह बस मेरा व्यक्तित्व है और यह बदल नहीं सकता, तो मुझे क्या करना चाहिए?” इसका एक आसान समाधान है। तुम्हारा मिजाज तेज है या धीमा, यह कोई समस्या नहीं है; इससे बाधित मत हो। तुम सिद्धांतों के अनुसार चीजें करना चाहते हो इसके लिए तुम्हें अपने कार्य करने का तरीका बदलने के लिए कड़ी मेहनत करने की भी जरूरत नहीं है। तुम्हारा तरीका चाहे जो भी हो, अगर तुम्हारे कार्यों का आधार सत्य सिद्धांत हैं, और जो प्रभाव तुम प्राप्त करते हो वह परमेश्वर की गवाही, परमेश्वर के हितों और परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा करना है, तो ये अच्छे कर्म हैं और परमेश्वर इन्हें याद रखेगा। इसके विपरीत, चाहे तुम बाहरी तौर पर बँधे हुए पैरों वाली महिला की तरह नम्र और संयमित व्यवहार करो, या तुम किसी अगुआ या राजा की तरह, आकाश में चमकने वाली बिजली की तरह तेज और ऊर्जावान हो—तुम्हारे कार्यों का बाहरी रूप चाहे जो भी हो—अगर तुम सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं करते तो तुम विघ्न-बाधाएँ पैदा कर रहे हो और ये बुरे कर्म हैं, और परमेश्वर इनकी निंदा करेगा, और इन्हें याद नहीं रखेगा। यह ये आँकने का सिद्धांत है कि कोई व्यक्ति अच्छा है या बुरा। क्या तुम समझ गए? (हाँ।) तो अब जबकि हमने इन चीजों पर संगति कर ली है, क्या तुम्हें इस बात की कुछ समझ है कि परमेश्वर के कार्य के बारे में लोगों की क्या धारणाएँ और कल्पनाएँ होती हैं? (हाँ।) अब जबकि तुम उन्हें समझते हो, तो क्या तुम उन कुछ विचलनों के बारे में जानते हो जो लोगों में परमेश्वर में विश्वास करने और सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया में आते हैं? क्या तुम इस बारे में भी स्पष्ट हो कि तुम्हें अभ्यास कैसे करना चाहिए? (हाँ, हम स्पष्ट हैं।)
लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं को समझने का उद्देश्य एक ओर लोगों को इन धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार जीने और गलत जीवन-पथ पर चलने से रोकना है। दूसरी ओर, इसका उद्देश्य लोगों को—इन धारणाओं और कल्पनाओं को त्यागते हुए—सामान्य मानवता के भीतर रहने और अपनी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य सहजता और आनंद से निभाने और खुद को वे चीजें करने के लिए मजबूर न करने में सक्षम बनाना है जिन्हें वे करने में असमर्थ हैं। अगर कोई ऐसी चीज है जिसे तुम हासिल कर सकते हो और जो तुम्हें हासिल करनी ही चाहिए, तो उसे करने में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास लगा दो; अगर कोई चीज तुम्हारी काबिलियत और क्षमता से परे है, तो उसमें सहयोग पाने के लिए किसी को खोजो या अन्य भाई-बहनों से मदद माँगो, और उसे अपनी पूरी क्षमता से करो—ये सिद्धांत हैं। संक्षेप में, लोगों को इस विषय में जो समझना चाहिए वह यह है कि जिस अवधि में परमेश्वर कार्य करता है उस दौरान परमेश्वर के वचन स्वीकार करने की प्रक्रिया में और प्रत्येक व्यक्ति की मानवता की अंतर्निहित बुनियादी स्थितियों के दायरे में उसकी मानवता धीरे-धीरे एक अच्छी दिशा में विकसित हो रही है, न कि विकृत, अलौकिक या असामान्य हो रही है। इसलिए, अगर जो कर्तव्य तुम निभाते हो उसमें कोई तकनीकी या व्यावसायिक कौशल शामिल है तो उस कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने के लिए तुम्हें उस तकनीकी या व्यावसायिक कौशल को कर्मठतापूर्वक सीखने और उसमें गहरे पैठने का प्रयास करना चाहिए। तुम्हें “परमेश्वर सर्वशक्तिमान है और जो कुछ लोगों के लिए करना असंभव है, उसे परमेश्वर कर सकता है अगर हम उससे प्रार्थना करें” जैसे विचारों और दृष्टिकोणों और अलौकिक चीजों के बारे में कल्पनाओं के आधार पर, खुद कौशल सीखने का प्रयास किए बिना, परमेश्वर द्वारा कार्य किए जाने की आँख मूँदकर प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। तुम्हें अपना पूरा दिल, पूरी शक्ति और पूरा मन वह कार्य करने में लगाना चाहिए जो तुम्हारी काबिलियत द्वारा हासिल किए जा सकने के दायरे में है, और जब बात उसकी हो जो तुम्हारी काबिलियत और योग्यताओं से परे है, तो अपने लिए चीजें कठिन मत बनाओ, खुद पर किसी तरह का भार, बोझ या दबाव मत डालो, बल्कि उसे सहजता से करो। उदाहरण के लिए, कंप्यूटर-कौशल सीखने की बात ले लो। मान लो, तुम्हारी उम्र बढ़ रही है, और तुम्हारी उम्र, तुम्हारी काबिलियत और तुम्हारी वर्तमान स्थितियों को देखते हुए सिर्फ टाइपिंग सीखना ही तुम्हारे लिए एक बड़ी उपलब्धि है। अगर तुम भाई-बहनों से संपर्क करना और ऑनलाइन काम करना भी सीख सको तो यह पहले ही काफी अच्छा है। लेकिन तुम कभी संतुष्ट नहीं होते और अभी और पाने की चाहत रखते हो—तुम प्रोग्राम लिखना और नेटवर्क को सुरक्षित रखना सीखना चाहते हो, कुछ ऐसा काम करना चाहते हो जो सिर्फ नेटवर्क इंजीनियर और हाईटेक कर्मचारी ही कर सकते हैं। क्या यह मूर्खतापूर्ण नहीं है? (हाँ, है।) तुम ये चीजें नहीं सीख सकते, इसलिए तुम नकारात्मक हो जाते हो और परमेश्वर से शिकायत करते हो : “हे परमेश्वर, मैं ये चीजें क्यों नहीं सीख सकता? तुमने मुझे ऐसी काबिलियत क्यों दी? मैं इतना बूढ़ा हूँ—तुम मुझे फिर से जवान क्यों नहीं बना सकते? क्या परमेश्वर सर्वशक्तिमान नहीं है?” तुम्हारा ऐसे विचार रखना और ऐसी माँगें करना गलत है। “वही करना जो अपनी शक्ति के भीतर है और अपनी काबिलियत, योग्यताओं और सहज प्रवृत्तियों का अतिक्रमण न करने” का क्या अर्थ है? तुम्हारी काबिलियत और योग्यताएँ तुम्हें जो कुछ हासिल करने देती हैं, परमेश्वर तुमसे वही चाहता है। जो कुछ तुम्हारी पहुँच से परे है, परमेश्वर तुमसे उसकी अपेक्षा नहीं करता, और तुम्हें भी खुद से उसकी माँग नहीं करनी है। अगर तुम कोई चीज नहीं कर सकते तो दूसरे लोग कर सकते हैं; परमेश्वर यह माँग नहीं करता कि तुम ही उसे करो। तुम कहते हो, “मैं बूढ़ा हूँ—मुझे वीडियो अपलोड करना नहीं आता, मुझे नेटवर्क को सुरक्षित रखना भी नहीं आता, और प्रोग्राम लिखना तो बिल्कुल भी नहीं आता,” और फिर भी तुम इन चीजों को सीखने पर जोर देते हो—क्या तुमने कभी पूछा है कि परमेश्वर का घर तुमसे यह कार्य करवाना भी चाहता है या नहीं? क्या तुमने अपना कार्य ठीक से किया है? क्या तुमने वह कार्य ठीक से किया है जिसे तुम्हारी काबिलियत तुम्हें करने देती है? अगर तुमने उसे ठीक से नहीं किया है और तुम फिर भी उन चीजों को करने की कोशिश करने पर जोर देते हो जो तुम्हारी पहुँच से बाहर और तुम्हारी समझ से परे हैं और जिन्हें तुम अपने पूरे जीवनकाल में भी नहीं सीख पाओगे, तो तुम्हें क्या लगता है, तुम खुद से संघर्ष कर रहे हो या परमेश्वर से? क्या यह बहुत परेशानी वाली बात नहीं है? (हाँ, है।) तुम हमेशा खुद से आगे निकलकर अतिमानव बनना चाहते हो, लेकिन परमेश्वर ने तुमसे ऐसा करने की अपेक्षा नहीं की है। तुम्हारे अतिमानव बनना चाहने की एक ही वजह हो सकती है, वो यह कि तुम दिखावा करना चाहते हो और तुम बुढ़ापे के आगे हार नहीं मानोगे या झुकोगे नहीं। तुम जो कष्ट सहते हो और कीमत चुकाते हो वह अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने के लिए नहीं करते; तुम अपना कर्तव्य शिष्ट आचरण करने और अपने उचित स्थान पर दृढ़ता से डटे रहने के सिद्धांत के अनुसार नहीं कर रहे हो। तुम अपनी काबिलियत और योग्यताओं को चुनौती देकर यह साबित करना चाहते हो कि तुम बूढ़े नहीं हो। “मुझमें अभी भी दम है,” तुम सोचते हो। “मैं बाकी लोगों जितना ही अच्छा हूँ, मैं वो सब कर सकता हूँ जो दूसरे लोग कर सकते हैं!” क्या यह अर्थपूर्ण है? (नहीं।) यह अर्थपूर्ण नहीं है। तुम यह जो भी प्रयास कर रहे हो, वह व्यर्थ और बेकार है। अगर तुम अपना पूरा दिल, पूरा दिमाग और पूरी ताकत उस काम को सही ढंग से करने में लगाओ जो तुम्हारी स्थितियाँ तुम्हें करने देती हैं तो परमेश्वर संतुष्ट होगा। खुद को चुनौती मत दो और न ही अपनी सीमाओं के परे जाने का प्रयास करो। परमेश्वर जानता है कि तुम्हारी काबिलियत और क्षमताएँ कैसी हैं। परमेश्वर ने तुम्हें जो काबिलियत और क्षमताएँ दी हैं, वे उसके द्वारा बहुत पहले से पूर्वनिर्धारित हैं। हमेशा इनसे आगे निकलने की इच्छा करने का मतलब घमंडी होना और खुद को ज्यादा आँकना है; यह मुसीबत को दावत देना है और अंततः असफलता ही हाथ लगेगी। क्या ऐसे लोग अपने उचित कार्यों के प्रति लापरवाह नहीं हो रहे हैं? (हाँ।) वे नियमों का पालन करने वाले तरीके से आचरण नहीं कर रहे हैं और एक सृजित प्राणी के कर्तव्य पूरे करने के लिए उन्होंने अपनी उचित स्थितियों को मजबूती से नहीं थामा हुआ है—वे अपने क्रियाकलापों में इन सिद्धांतों का पालन नहीं कर रहे हैं, बल्कि हमेशा दिखावा करने का प्रयास कर रहे हैं। एक कहावत है : “एक बुजुर्ग औरत तुम्हें दिखाने के लिए लिपस्टिक लगाती है।” “बुजुर्ग औरत” किस उद्देश्य से ऐसा करेगी? (अपनी नुमाइश करने के लिए।) बुजुर्ग औरत तुम्हें दिखाना चाहती है : “एक बुजुर्ग औरत के रूप में मैं आम नहीं हूँ—मैं तुम्हें कुछ खास दिखाऊँगी।” वह नहीं चाहती कि उसे नीची नजर से देखा जाए, बल्कि वह चाहती है कि उसका अत्यधिक आदर और सम्मान किया जाए; वह अपनी सीमाओं को चुनौती देना चाहती है और अपनी क्षमताओं से आगे निकलना चाहती है। क्या यह घमंडी प्रकृति नहीं है? (हाँ, है।) अगर तुम घमंडी प्रकृति के हो तो इसका मतलब है कि तुम अपनी सीमाओं में नहीं रहते हो, तुम अपने पद के अनुरूप तरीके से आचरण नहीं करना चाहते हो। तुम हमेशा खुद को चुनौती देना चाहते हो। दूसरे लोग जो कुछ भी कर सकते हैं, तुम भी उसे करने में समर्थ होना चाहते हो। जब दूसरे ऐसी चीजें करते हैं जिनसे वे सबसे अलग दिखते हैं, उन्हें नतीजे हासिल होते हैं या वे योगदान करते हैं और उन्हें सभी से तारीफें मिलती हैं, तो तुम बेचैन, ईर्ष्यालु और असंतुष्ट हो जाते हो। फिर तुम अपना मौजूदा कार्य छोड़कर किसी ऐसे कार्य की जिम्मेदारी लेना चाहते हो जो तुम्हें चमकने दे और अत्यधिक सम्मान भी हासिल करना चाहते हो। लेकिन जब तुम कोई ऐसा कार्य करने में सक्षम हो ही नहीं जिससे तुम सबसे अलग दिखो, तो क्या यह समय की बर्बादी नहीं है? क्या यह अपने उचित कार्यों के प्रति तुम्हारा लापरवाह होना नहीं है? (हाँ, है।) उचित कार्यों के प्रति लापरवाह मत हो क्योंकि उनके प्रति लापरवाह होने का नतीजा अच्छा नहीं होगा। इससे न केवल चीजों में देरी होती है और समय बर्बाद होता है जिससे दूसरे लोग तुम्हें नीची नजर से देखने लगते हैं, बल्कि इससे परमेश्वर भी तुमसे नफरत करने लगता है और अंत में तुम खुद को सताकर काफी नकारात्मक बन जाते हो। व्यक्ति की उम्र चाहे जो भी हो—चाहे वह युवा हो, अधेड़ हो या बुजुर्ग हो—उसकी काबिलियत और प्रतिभा की सीमाएँ हैं; कोई भी पूर्ण नहीं है। पूर्ण व्यक्ति होने की बात भूल जाओ, हर चीज करना जानने, हर चीज कर पाने और हर चीज समझ पाने की बात भूल जाओ—अगर तुम्हारा स्वभाव ऐसा है तो यह परेशानी की बात है।
परमेश्वर के कार्य में ऐसा क्यों है कि जब वह सभी प्रकार के लोगों से किसी विषय या किसी प्रकार के मुद्दे पर बात करता है, तो वह अलग-अलग अवस्थाओं और स्थितियों को संबोधित करते हुए एक ही चीज के बारे में बार-बार बोलता है? जिन लोगों में आध्यात्मिक समझ नहीं होती वे सोचते हैं, “इस तरह से बोलना बहुत विस्तृत और उबाऊ है; हम इसे पहले से ही समझते हैं।” हो सकता है तुम पहले से ही समझते हो लेकिन दूसरे न समझते हों; और अगर तुम समझते भी हो, तो क्या तुम विभिन्न अवस्थाओं की समस्याओं का समाधान कर सकते हो? अगर नहीं कर सकते, तो इसका मतलब है कि तुम अभी भी पूरी तरह से नहीं समझते, इसलिए ऐसा दिखावा मत करो कि तुम समझते हो। लोगों की तमाम अवस्थाएँ अलग-अलग होती हैं। एक बार जब प्रत्येक प्रकार के व्यक्ति की तमाम अवस्थाओं के बारे में बात कर ली जाती है और तमाम विभिन्न अवस्थाएँ शामिल कर ली जाती हैं—अर्थात् एक बार जब किसी निश्चित प्रमुख मुद्दे के भीतर सभी प्रकार के लोगों की तमाम अवस्थाओं पर चर्चा कर ली जाती है और हर कोई सत्य के इस पहलू को समझ लेता है—केवल तभी इस मुद्दे को स्पष्ट रूप से समझाया गया होता है। मेरा इससे क्या तात्पर्य है? वह यह है कि हर कोई अपनी स्थितियों में रहते हुए अलग-अलग समस्याएँ विकसित करता है; हर किसी की समस्याएँ अलग-अलग होती हैं और हर किसी का व्यक्तित्व, उसकी खूबियाँ, और जो चीजें करने में वह अच्छा होता है वे भी, अलग-अलग होती हैं। इसलिए, हर किसी की अपनी व्यक्तिगत स्थितियाँ, अपनी कठिनाइयाँ और अपने अलग-अलग विचार और दृष्टिकोण होते हैं। लेकिन चाहे लोगों की स्थितियाँ कितनी भी अलग हों और चाहे उनकी क्षमताएँ, काबिलियत, दृष्टितल, व्यक्तित्व और आदतें कितनी भी अलग हों, मनुष्यों के भ्रष्ट स्वभाव और प्रकृति सार समान ही होते हैं। अर्थात्, चाहे लोगों की मानवता की विभिन्न स्थितियाँ कितनी भी भिन्न हों, लोगों में लक्षण समान होते हैं। मनुष्यों में लक्षण समान क्यों होते हैं? क्योंकि जिस स्वभाव सार पर मनुष्य जीवित रहने के लिए निर्भर करता है, वह समान ही होता है। इसलिए, सभी प्रकार के लोगों की अवस्थाएँ और समस्याएँ उजागर हो जाने के बाद मनुष्यों को परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सत्यों और सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने की आवश्यकता है, और तब मानवजाति की सामान्य समस्याओं का समाधान हो जाएगा। तुम्हारा व्यक्तित्व या काबिलियत चाहे जो भी हो, तुम चाहे कितने भी सक्षम हो और चाहे तुम पुरुष हो या स्त्री, या तुम पश्चिम में पैदा हुए हो या पूर्व में, या तुम दक्षिण से हो या उत्तर से, अगर तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव सत्य स्वीकारने, परमेश्वर के वचनों का न्याय और ताड़ना स्वीकारने और सत्य का अभ्यास करने के जरिये हल हो जाते हैं, तो तुम्हारी कठिनाइयाँ हल हो जाएँगी। इसका अर्थ है कि मानवजाति की सामान्य समस्याओं के संदर्भ में लोगों में उत्पन्न होने वाली सभी विभिन्न अवस्थाओं का भी समाधान किया जा सकता है। लोगों में विभिन्न अवस्थाएँ क्यों उत्पन्न होती हैं? ऐसा इसलिए है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति में जो मानवता होती है, उसकी अंतर्निहित स्थितियाँ भिन्न होती हैं। उदाहरण के लिए, अगर तुम दक्षिण में रहते हो, और तुम्हारी जीने की आदतें और ढर्रे दक्षिणवासियों जैसे हैं, और तुममें कुछ ऐसे व्यक्तित्व और जीवनशैली संबंधी लक्षण भी विकसित हो जाते हैं जो दक्षिणवासियों के लिए विशिष्ट हैं, तो इस प्रकार की पृष्ठभूमि के साथ तुममें कुछ विशेष धारणाएँ और कल्पनाएँ, विशेष विचार और दृष्टिकोण और विशेष अवस्थाएँ विकसित हो जाएँगी। अगर तुम उत्तर में पैदा हुए होते, तो तुम्हारा व्यक्तित्व और जीने की आदतें उत्तरवासियों जैसी होतीं, या तुम्हारी कुछ ऐसी अवस्थाएँ होतीं जो उत्तरवासियों के रीति-रिवाजों, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, शिक्षा-पद्धतियों और अन्य ऐसी चीजों से उत्पन्न होती हैं जो उत्तरवासियों में अंतर्निहित होती हैं। इस प्रकार, दक्षिण और उत्तर में रहने वाले लोगों में उत्पन्न होने वाली अवस्थाएँ भिन्न होती हैं। लेकिन एक ही समस्या से उत्पन्न होने वाली अवस्थाओं का मूल कारण और सार एक ही होता है, इसलिए उन सभी का समाधान एक ही सत्य से किया जा सकता है। ऐसे में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम उत्तर से हो या दक्षिण से, या पूर्व से या पश्चिम से; अगर तुम एक सृजित मनुष्य हो, तुम्हारी सभी समस्याएँ सत्य से हल की जा सकती हैं। क्या तुम समझ गए? क्या यह मुद्दा जटिल है? (अब जबकि मैंने इसकी व्याख्या सुन ली है, मुझे लगता है कि यह अब जटिल नहीं है।) तुम ऐसा क्यों कहते हो कि यह मुद्दा जटिल नहीं है? (हालाँकि लोगों की स्थितियाँ, पृष्ठभूमि और व्यक्तित्व भिन्न होते हैं और इससे प्राकृतिक रूप से विभिन्न अवस्थाएँ जन्म लेती हैं, फिर भी इन विभिन्न अवस्थाओं का मूल कारण एक ही होता है और लोगों का भ्रष्ट सार भी एक ही होता है। लोग चाहे कितना भी भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करें, उसका समाधान उन्हीं सत्यों से किया जा सकता है; इसलिए, सत्य प्रत्येक व्यक्ति की समस्याएँ हल कर सकते हैं।) लोग चाहे दक्षिण से हों या उत्तर से, पूर्व से हों या पश्चिम से, चाहे वे पुरुष हों या स्त्रियाँ, युवा हों या वृद्ध, और चाहे उनकी स्थितियाँ कैसी भी हों, उनके भ्रष्ट स्वभाव एक जैसे ही होते हैं, और इन भ्रष्ट स्वभावों से उत्पन्न विभिन्न अवस्थाओं, विचारों, दृष्टिकोणों और सत्य के प्रति रवैयों में एक आम विशेषता होती है। यह आम विशेषता क्या होती है? इन भ्रष्ट स्वभावों से उत्पन्न होने वाली हर चीज शैतान की होती है और सत्य के अनुरूप नहीं होती; बेशक, अधिक विशिष्ट रूप से कहें तो, यह कहा जा सकता है कि वह सत्य के विपरीत होती है। इसलिए, भ्रष्ट मनुष्य की जातियों, धर्मों या संस्कृतियों में चाहे कितने भी अंतर हों, और चाहे लोगों की त्वचा पीली, गोरी, भूरी या काली हो, वे सभी भ्रष्ट मनुष्य हैं और सभी मनुष्यों में परमेश्वर का विरोध करने का एक ही सार होता है। यह चीज उनमें आम होती है। इसलिए, चाहे लोग किसी भी देश से हों या किसी भी जाति के हों, उन्हें सामूहिक रूप से भ्रष्ट मनुष्य कहा जाता है। अर्थात्, चाहे लोगों की ये जातियाँ अपनी त्वचा के रंग, रूप, जीने की आदतों या जातीय संस्कृति के मामले में श्रेष्ठ हों या निम्न, गरीब हों या अमीर, और चाहे उन्होंने जो भी शिक्षा प्राप्त की हो, हर हाल में, वे नियम जिन पर वे अपने अस्तित्व के लिए निर्भर करते हैं, शैतान से आते हैं, सत्य के साथ असंगत और परमेश्वर के प्रति प्रतिरोधी होते हैं। अगर लोग उच्च धार्मिक पृष्ठभूमि वाली समृद्ध, कुलीन जाति के हों, तो भी उनका सार भ्रष्ट मनुष्यों का ही होता है, वे अभी भी शैतान के समान ही होते हैं जो परमेश्वर का विरोध करता है, वे अभी भी भ्रष्ट मनुष्य ही होते हैं, वे सभी परमेश्वर के विरोधी होते हैं, वे सब वे लोग हैं जिनका परमेश्वर के कार्य के अंतर्गत न्याय और ताड़ना की जाती है, और उनमें से जो सत्य स्वीकार सकते हैं, वे वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर बचाना चाहता है। इसका निहितार्थ क्या है? वह यह है कि तुम्हें बचाए जाने से पहले, चाहे तुम्हारी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, शैक्षिक पृष्ठभूमि और धार्मिक पृष्ठभूमि कितनी भी ऊँची हो, तुम्हारा सार अभी भी परमेश्वर का विरोधी और परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण ही होता है। इस प्रकार, मनुष्यों का सार उनकी त्वचा के रंग, उनके धर्म, जन्मभूमि या उनकी शैक्षिक या सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के कारण नहीं बदलेगा। इसी प्रकार, चाहे व्यक्ति किसी भी जाति का हो, वह अपनी स्थितियों के कारण परमेश्वर की दृष्टि में कुलीन या नीच नहीं बनेगा। तो परमेश्वर की दृष्टि में लोगों के कुलीन या नीच होने के मूल्यांकन का क्या मानक है? केवल एक ही मानक है और वह यह है कि तुम सत्य स्वीकारते हो या नहीं। अगर तुम सत्य स्वीकारते हो, तो चाहे तुम्हारी जाति या त्वचा का रंग कुछ भी हो, तुम कुलीन हो। अगर तुम सत्य नहीं स्वीकारते, तो भले ही तुम कहो, “मेरी त्वचा गोरी है, बाल सुनहरे हैं और आँखें नीली हैं, और मेरा परिवार पीढ़ियों से शाही परिवार रहा है,” इसका कोई फायदा नहीं है! अगर तुम मनुष्यों में कुलीन हो, तो भी अगर तुम सत्य नहीं स्वीकारते तो परमेश्वर की नजर में तुम अभी भी एक भ्रष्ट मनुष्य हो, तुम किसी भी अन्य भ्रष्ट मनुष्य के समान हो—कोई अंतर नहीं है। चाहे मानवजाति के कितने भी सदस्य तुम्हारा आदर करें, तुम्हारी आराधना करें और तुम्हें भेंट चढ़ाएँ, इससे कोई लाभ नहीं होगा और परमेश्वर की नजर में तुम्हारा रुतबा, तुम्हारी पहचान और तुम्हारा सार नहीं बदलेगा। मानवजाति के मूल्यांकन के लिए परमेश्वर का मानक—जो निस्संदेह मानवजाति के मूल्यांकन के लिए परमेश्वर द्वारा नियत उच्च मानदंड और मानक भी है—सत्य के आधार पर उसका मूल्यांकन करना है। अगर तुम सत्य से प्रेम करते हो और उसका अभ्यास करते हो, तो तुम कुलीन हो; अगर तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते, तो तुम्हारी यह पुरानी देह एक भ्रष्ट मनुष्य है; इसका मूल्य एक दमड़ी भी नहीं है, और यह जमीन पर रहने वाली चींटी के बराबर भी मूल्यवान नहीं है। उन सूक्ष्मजीवों को छोड़कर जिन्हें लोग देख नहीं सकते, चींटियाँ सभी जीवित प्राणियों में अपेक्षाकृत छोटी हैं। उनके जीने के ढर्रे, अस्तित्व के नियम और सहज प्रवृत्तियाँ परमेश्वर द्वारा निर्धारित नियमों का पूरी तरह से पालन करती हैं। उनके काम-और-आराम की समय-सारणी जलवायु और चारों ऋतुओं के घटते-बढ़ते तापमान के अनुसार बदलती है और वे इन नियमों और विधियों को अग्रसक्रिय रूप से कभी नहीं बदलेंगी। लेकिन मनुष्य अलग हैं। मनुष्य हमेशा यथास्थिति और दुनिया बदलना चाहते हैं, वे हमेशा महत्वाकांक्षाएँ रखते हैं और लगातार विश्वासघात और विद्रोह में लगे रहते हैं। हालाँकि चींटियों में सत्य स्वीकारने की क्षमता नहीं होती, न ही उनमें सत्य समझने की क्षमता होती है, फिर भी कम से कम वे परमेश्वर का विरोध नहीं करतीं। मनुष्य अलग हैं; वे परमेश्वर पर आक्रमण करने और उसका विरोध करने के लिए अग्रसक्रिय रूप से आगे आएँगे। इसलिए, परमेश्वर की नजर में, जिन मनुष्यों ने सत्य प्राप्त नहीं किया है और जिन्हें बचाया नहीं गया है, उनका कोई मूल्य नहीं है। क्या यह एक तथ्य नहीं है? (यह तथ्य है।) इस तथ्य के आधार पर लोगों का मूल्यांकन और चरित्र-चित्रण करना सत्य सिद्धांतों के पूर्णतः अनुरूप है। इन मुद्दों पर संगति के जरिये लोगों को मनुष्य के सार और उस प्रभाव के बारे में जो परमेश्वर का कार्य हासिल करना चाहता है, सही विचार और समझ होनी चाहिए। सत्य के इस पहलू को समझने के बाद क्या लोगों को सुसमाचार सुनाते समय या उनके साथ जुड़ते और संगति करते समय तुम कम बाधित नहीं होगे, चाहे वे किसी भी प्रकार के व्यक्ति हों—चाहे उनकी धार्मिक पृष्ठभूमि हो या न हो, समाज में उनकी प्रतिष्ठा और रुतबा हो या निम्न सामाजिक रुतबा हो, और चाहे वे गोरे हों या अश्वेत? (हाँ।) अगर तुम ये सत्य नहीं समझते तो तुम हमेशा अन्य जातियों के लोगों को उच्च दृष्टि से देखोगे या महसूस करोगे कि तुम उनकी थाह नहीं पा सकते और नहीं जानते कि उनके साथ संगति या मेलजोल कैसे करें। क्या ये सत्य समझना तुम लोगों को उन लोगों के साथ जुड़ने में मदद नहीं करता? यह तुम लोगों को संपूर्ण मानवजाति को सही रवैये और सही दृष्टिकोण से देखने में मदद करेगा। सत्य समझने का यही लाभ है। जब तुम सत्य समझते हो, तो चीजों के प्रति तुम्हारा परिप्रेक्ष्य सही होगा और वह अपेक्षाकृत उदार भी होगा, उतना संकीर्ण नहीं। अन्यथा एक अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में तुममें हमेशा आत्मविश्वास की कमी रहेगी। पहले, तुम्हें लगेगा कि तुम्हारे पास जीवन का अनुभव नहीं है। दूसरे, तुम्हें लगेगा कि तुम्हारे पास पर्याप्त अनुभव नहीं हैं। तीसरे, तुम्हें लगेगा कि तुम बोलने में अच्छे नहीं हो और ज्यादातर लोगों की असलियत नहीं जान पाते; खासकर जब तुम बुजुर्ग लोगों को देखते हो, तो तुम डरोगे और घबराओगे और बोलने की हिम्मत नहीं करोगे। कुछ लोग कहते हैं, “खासकर जब मैं देखता हूँ कि लंबे समय से धर्म में विश्वास रखने वालों को बाइबल का कुछ ज्ञान है, तो मुझे समझ नहीं आता कि उन्हें सुसमाचार कैसे सुनाऊँ, और मैं डर जाता हूँ और खुद को उनसे हीन समझता हूँ।” तुम बहुत सारे सत्य समझते हो तो फिर तुम्हें किस बात का डर है? क्या यह मामलों की असलियत जानने में असमर्थ होना नहीं है? जब लोग सत्य समझ लेते हैं तो उन्हें इन मामलों और समस्याओं को सुलझाने में समर्थ होना चाहिए, और वे अब इन चीजों से बाधित नहीं होंगे।
आज हमने जिन विषयों पर संगति की है, उनके जरिये तुम लोगों ने सत्य के किन पहलुओं को समझा है? क्या तुम्हें परमेश्वर का कार्य और परमेश्वर लोगों को कैसे बचाता है, लोगों को बचाने के परमेश्वर के तरीके और लोगों के वे पहलू जिन्हें परमेश्वर बदलता है, स्पष्ट हैं? (हाँ।) अब जबकि तुम्हें ये चीजें स्पष्ट हैं, तो क्या तुम सत्य का अभ्यास करने और हर चीज का मूल्यांकन सत्य से करने का महत्व और भी ज्यादा महसूस नहीं करते? (हाँ।) क्या तुम यह और भी ज्यादा नहीं सोचते कि सत्य का अनुसरण करना और उसे समझना अत्यंत महत्वपूर्ण है? अगर व्यक्ति सत्य नहीं समझता तो वह किसी भी मामले की असलियत नहीं जान सकता, वह सभी प्रकार के लोगों की असलियत नहीं जान सकता, और वह सभी देशों और जातियों के लोगों की असलियत नहीं जान सकता, और इसलिए वह मूर्ख है, मंदबुद्धि है। जब कुछ लोग चश्मा पहनने वाले लोगों को देखते हैं तो मान लेते हैं कि वे प्रोफेसर या बुद्धिजीवी हैं, इसलिए वे बाधित महसूस करते हैं और बोलने की हिम्मत नहीं करते, और जब भी वे लंबे और सुंदर लोगों को देखते हैं, तो वे उनसे हीन महसूस करते हैं। क्या सत्य समझने के बाद लोग मूल रूप से इन चीजों से प्रभावित नहीं होंगे? इसका एक पहलू तो यह है कि वे खुद को बाधित नहीं करेंगे; दूसरा पहलू यह है कि वे—कुछ हद तक—लोगों और चीजों से निपटने के संबंध में अपना रवैया और दृष्टिकोण सुधारेंगे और उन्हें इस बारे में कुछ अंतर्दृष्टि भी प्राप्त होगी। यह उनके कर्तव्य निर्वहन के लिए लाभदायक होगा, खासकर जब बात सभी स्तरों पर अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा कार्य के निर्वहन की हो। परमेश्वर के कार्य के लक्ष्य और उसका वास्तविक महत्व समझने के बाद लोगों को अपनी अंतर्निहित स्थितियों का सही ढंग से सामना करने के लिए कैसे कार्य करना चाहिए? कितने सिद्धांत हैं? (मैं जो सोच सकता हूँ वह यह है कि लोगों को अपने व्यक्तित्व, काबिलियत और अन्य स्थितियों को सही ढंग से देखना चाहिए, अलौकिक चीजों का अनुसरण करना और अतिमानव बनने की कोशिश करना बंद कर देना चाहिए, जो कुछ वे करने में सक्षम हैं उसे अपनी पूरी क्षमता से करना चाहिए और खुद को वे चीजें हासिल करने पर मजबूर नहीं करना चाहिए जो उनकी पहुँच से परे हैं। इस तरह, उनका जीवन अधिक मुक्त होगा और उनकी मानवता अधिक से अधिक सामान्य होती जाएगी।) सबसे पहले, अगर तुम मूर्खतापूर्ण या बेवकूफी भरी चीजें करने से बचना चाहते हो, तो तुम्हें पहले अपनी स्थितियाँ समझनी होंगी : तुम्हारी काबिलियत कैसी है, तुम्हारी खूबियाँ क्या हैं, तुम किसमें अच्छे हो और किसमें अच्छे नहीं हो, साथ ही तुम अपनी उम्र, लिंग, अपने ज्ञान और अपनी अंतर्दृष्टियों और जीवन के अनुभव के आधार पर क्या कर सकते हो और क्या नहीं कर सकते। अर्थात् तुम्हें इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए कि तुम जो कर्तव्य निभाते हो और जो काम करते हो उसमें तुम्हारे मजबूत बिंदु और कमजोरियाँ क्या हैं और तुम्हारे व्यक्तित्व की कमियाँ और खूबियाँ क्या हैं। जब तुम अपनी स्थितियों, खूबियों और कमियों के बारे में स्पष्ट हो जाते हो, तब तुम्हें यह देखना चाहिए कि किन खूबियों और मजबूत बिंदुओं को बनाए रखना चाहिए, किन कमियों और खामियों पर काबू पाया जा सकता है और किन पर बिल्कुल भी काबू नहीं पाया जा सकता—इन चीजों के बारे में तुम्हें स्पष्ट होना चाहिए। यह स्पष्टता हासिल करने के लिए एक ओर तुम्हें सत्य खोजना चाहिए, परमेश्वर के वचनों की अपनी वास्तविक स्थिति से तुलना करके इन बातों पर चिंतन करना चाहिए और इन बातों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, और साथ ही, परमेश्वर से इन चीजों को प्रकट करने की प्रार्थना करनी चाहिए। दूसरी ओर, तुम अपने आस-पास के भाई-बहनों से भी पूछ सकते हो और उनसे अनुबोधन और संकेत प्राप्त कर सकते हो। इस तरह, तुम्हें अपनी गहरी समझ प्राप्त होगी, और खुद को जानने के मामले में तुम्हारे पास अधिक विचार और सूत्र होंगे। कुछ समस्याएँ ऐसी होती हैं जिन्हें लोग हल नहीं कर सकते हैं। मिसाल के तौर पर, हो सकता है कि तुम दूसरों से बात करते समय घबरा जाते हो; जब तुम्हें स्थितियों का सामना करना पड़ता है तो हो सकता है कि तुम्हारे पास अपने विचार और नजरिये होते हों, लेकिन तुम उन्हें स्पष्टता से कह नहीं पाते हो। जब बहुत सारे लोग मौजूद होते हैं तो तुम विशेष रूप से घबरा जाते हो; तुम बेतुके ढंग से बोलते हो और तुम्हारा मुँह कँपकँपाता है। कुछ लोग तो हकलाते भी हैं; दूसरे लोगों के मामले में, अगर विपरीत लिंग के सदस्य मौजूद होते हैं तो वे और भी कम बोधगम्य होते हैं, उन्हें यह पता ही नहीं होता है कि क्या कहना है या क्या करना है। क्या इस पर काबू पाना आसान है? (नहीं।) कम-से-कम थोड़े समय में तुम्हारे लिए इस दोष पर काबू पाना आसान नहीं है क्योंकि यह तुम्हारी जन्मजात स्थितियों का हिस्सा है। अगर कई महीनों के अभ्यास के बाद भी तुम घबराते हो तो घबराहट दबाव में बदल जाएगी, जो तुम्हें बोलने, लोगों से मिलने, सभाओं में हिस्सा लेने या धर्मोपदेश देने से डराकर तुम्हें नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगी और ये डर तुम्हें कुचल देंगे। तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम इस मुद्दे पर सोच-विचार कर सकते हो और दूसरों से इस बारे में बात कर सकते हो; देखो कि जब दूसरे लोगों के सामने यह समस्या आती है तो उनकी मानसिकता क्या होती है और वे इसे कैसे सुलझाते हैं और फिर तुम्हें भी इसी तरह से अभ्यास करना चाहिए। मान लो, आज की सभा में तुम काफी अच्छे फॉर्म में हो; तुम प्रसन्नचित्त हो, और इससे भी बढ़कर, परमेश्वर के वचन पढ़ने से तुम प्रभावित भी हो, और खुद को अभिव्यक्त करने की एक खास इच्छा महसूस कर रहे हो। संयोग से यह एक छोटा समूह है जिसमें कुछ ही लोग हैं, इसलिए तुम कुछ शब्द संगति करने की कोशिश करते हो और इसे लेकर काफी अच्छा महसूस करते हो, घबराते नहीं हो। ऐसे में, जब तुम किसी दबाव में नहीं होते और तुमने बिल्कुल भी तैयारी नहीं की होती, तो तुम खुलकर खुद को अभिव्यक्त करते हो, और हर कोई इससे सचमुच प्रभावित और आत्मिक रूप से प्रेरित होता है। क्या यह प्रगति नहीं है? बस छोटे समूहों में, जहाँ कम लोग हों, बोलने और संगति करने का अभ्यास शुरू करो, और धीरे-धीरे तुम सामान्य रूप से बोल पाओगे और तुम्हारी घबराहट धीरे-धीरे कम होती जाएगी। इस तरह अभ्यास करने से सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त होंगे। पहले, इसका अभ्यास करने के लिए एक छोटा समूह, जिसमें कम लोग हों, या एक अनौपचारिक माहौल चुनो, जहाँ तुम बिना किसी तैयारी के इस तरह बातचीत और संगति करो मानो गपशप कर रहे हो, ताकि अपनी यह कमी दूर कर सको। कभी-कभी, एक मिनट बोलने के बाद तुम्हें थोड़ी घबराहट महसूस हो सकती है, जितना ज्यादा तुम बोलते हो उतना ही तुम्हें आत्मविश्वास कम होता महसूस हो सकता है और जितना तुम जारी रखते हो उतना ही तुम्हारे पास कहने के लिए कम बचेगा; ऐसे मामलों में और मत बोलो—जल्दी से अपनी बात खत्म करो और रुक जाओ। कभी-कभी, तुम्हारे कुछ देर बोलने के बाद हर कोई सुनने का इच्छुक हो सकता है और बहुत मुक्त महसूस कर सकता है; ऐसे माहौल में तुम्हारी घबराहट और तनाव तुम्हें पता चले बिना ही दूर हो जाएँगे। सिर्फ ऐसी ही परिस्थितियों में तुम्हारी यह कमी धीरे-धीरे सुधर सकती है—लेकिन इस पर काबू नहीं पाया जा सकेगा। अगर तुम्हें लगता है कि एक महीने के प्रशिक्षण के बाद भी तुम्हारी स्थिति में ज्यादा सुधार नहीं हुआ है और तुम्हारे दिल में ऐसा दबाव भी पैदा हो गया है जिससे तुम और ज्यादा घबरा जाते हो, जो तुम्हारे सामान्य कार्य, जीवन और कर्तव्य के निर्वहन को प्रभावित करता है तो तुम्हें प्रशिक्षण जारी रखने की जरूरत नहीं है। अगर तुम अपना कर्तव्य सामान्य रूप से कर पाते हो तो इतना ही काफी है। बस अपने कर्तव्य को अच्छी तरह निभाने पर ध्यान केंद्रित करो—यह सही है। उस कमी, उस दोष को अपने दिल में रखो, खामोशी से परमेश्वर से प्रार्थना करो और फिर बोलने और लोगों से मिलने-जुलने के लिए उपयुक्त अवसर ढूँढ़ो, हर शब्द को साफ-साफ, सुव्यवस्थित और स्पष्ट ढंग से बोलकर तुम जो भी कहना चाहते हो उसे व्यक्त करो। इस तरह तुम्हारी कमी, यह दोष, धीरे-धीरे सुधर जाएगा। संभव है कि एक-दो वर्ष बाद तुम उम्र के साथ ज्यादा परिपक्व हो जाओ और अपने आस-पास के लोगों से ज्यादा परिचित हो जाओ और उनकी नजर, राय और जब सभी एक साथ होते हैं तो उस दौरान बना माहौल अब तुम्हारे लिए दबाव, बंधन या बेबसी पैदा न करे—तब हो सकता है कि इन लोगों के बीच तुम्हारा दोष काबू में आ जाए और दूर हो जाए। इसी प्रकार के व्यक्ति में इस दोष का सबसे गंभीर रूप होता है; वह सिर्फ ऐसे परिवेशों में लंबे समय तक तपतपा कर और प्रशिक्षण लेकर ही इसे दूर कर पाता है। यकीनन, ऐसे लोग भी हैं जो तीन से पाँच महीने की छोटी अवधि में धीरे-धीरे इस दोष को दूर कर लेते हैं। वे आम परिस्थितियों में दूसरों से मिलते-जुलते और बातचीत करते समय घबराते नहीं हैं, सिवाय तब जब उन्हें बड़े अवसरों का सामना करना पड़ता है। इसलिए अगर तुम इस कमी, इस दोष पर थोड़े समय में काबू पा सकते हो तो ऐसा करो। अगर इस पर काबू पाना कठिन है तो इसे लेकर परेशान मत होओ, इससे संघर्ष मत करो और खुद को चुनौती मत दो। यकीनन, अगर तुम इस पर काबू नहीं पा सकते हो तो तुम्हें नकारात्मक महसूस नहीं करना चाहिए। अगर तुम अपने जीवनकाल में इसे कभी दूर न कर पाओ तो भी परमेश्वर तुम्हारी निंदा नहीं करेगा क्योंकि यह तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव नहीं है। तुम्हारा मंच पर आने का भय, तुम्हारी घबराहट और डर—ये अभिव्यक्तियाँ तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव को नहीं दर्शाती हैं; चाहे वे जन्मजात हों या जीवन में बाद के परिवेश के कारण पैदा हुई हों, हद-से-हद वे एक कमी हैं, तुम्हारी मानवता का एक दोष हैं। अगर तुम इसे लंबे समय में, यहाँ तक कि अपने जीवनकाल में भी नहीं बदल पाते हो तो भी इसके बारे में सोचते मत रहो, इसे खुद को बेबस मत करने दो और न ही तुम्हें इसके कारण नकारात्मक बनना चाहिए क्योंकि यह तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव नहीं है; इसे बदलने का प्रयास करने या इससे संघर्ष करने का कोई फायदा नहीं है। अगर तुम इसे बदल नहीं पाते हो तो इसे स्वीकार कर लो, इसे मौजूद रहने दो और इसके साथ सही ढंग से पेश आओ क्योंकि तुम इस कमी, इस दोष के साथ-साथ जी सकते हो—तुममें इसका होना परमेश्वर के अनुसरण और अपने कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित नहीं करता है। अगर तुम सत्य स्वीकार कर सकते हो और अपनी पूरी क्षमता से अपने कर्तव्य कर सकते हो तो तुम अभी भी बचाए जा सकते हो; यह तुम्हारे द्वारा सत्य स्वीकार करने और तुम्हारे उद्धार प्राप्त करने को प्रभावित नहीं करता है। इसलिए तुम्हें अक्सर अपनी मानवता में किसी कमी या दोष से बेबस नहीं होना चाहिए और न ही तुम्हें अक्सर नकारात्मक और हतोत्साहित होना चाहिए या यहाँ तक कि न अपने कर्तव्य छोड़ने चाहिए और न सत्य का अनुसरण करना छोड़ना चाहिए और न उसी कारण से बचाए जाने का मौका खोना चाहिए। ऐसा करना बिल्कुल भी उचित नहीं है; ऐसा कोई बेवकूफ, जाहिल व्यक्ति ही करेगा।
कुछ लोग गाते समय केवल मध्यम सुरों तक ही पहुँच पाते हैं और चाहे कितना भी अभ्यास कर लें, उच्च सुरों तक नहीं पहुँच पाते। तो इसके बारे में क्या किया जा सकता है? बस मध्यम और निम्न सुरों के दायरे में ही गाओ; उन्हीं सुरों को अच्छी तरह से गाना ठीक है। अगर तुम यह कहते हुए लगातार खुद को चुनौती देते रहना चाहते हो, “मैं मध्यम सुरों को अच्छा गा सकता हूँ। मैं खुद को उच्च सुरों तक पहुँचने की चुनौती देना चाहता हूँ,” तो अगर तुम इस चुनौती में सफल हो जाओ, तो भी यह निरर्थक होगा, और इसका मतलब यह नहीं होगा कि तुमने सत्य प्राप्त कर लिया है। ज्यादा से ज्यादा, इसका मतलब बस इतना होगा कि तुमने एक अतिरिक्त कौशल हासिल कर लिया है, तुम एक अतिरिक्त कर्तव्य निभा सकते हो, तुम कुछ और गीत गा सकते हो, और तुम थोड़ा और ज्यादा चर्चा में रह सकते हो। लेकिन इससे क्या होगा? क्या ज्यादा चर्चा में रहने का मतलब यह है कि तुम सत्य का ज्यादा अभ्यास कर रहे हो? क्या इन दोनों चीजों के बीच कोई संबंध है? (नहीं।) अगर तुम मध्यम सुरों को गा सकते हो तो उन्हें अच्छी तरह गाओ। अगर तुम उच्च सुरों को अच्छी तरह नहीं गा सकते लेकिन उन्हें गाने के लिए जोर लगाते हो और अंततः सही ढंग से नहीं गा पाते और थकान से खुद को बीमार भी कर लेते हो, तो परमेश्वर इसे याद नहीं रखेगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम उच्च सुरों को गा सकते हो या मध्यम सुरों को, अगर तुम अच्छा गा सकते हो और वफादार रह सकते हो और बिना लापरवाही किए या धूर्तता और ढिलाई बरते, या बिना बेतहाशा दुष्कर्म किए, या भव्य लगने वाले विचार झाड़े बिना अपने कर्तव्य में सर्वस्व दे सकते हो, और तुम—चाहे तकनीक के संदर्भ में हो या भावना, तान संबंधी गुणवत्ता और सुरों के संदर्भ में—एक मानक, सुंदर तरीके से गाने का प्रयास करते हो जो दिल को छू जाए, और इस तरह गाने का प्रयास करते हो जो लोगों को भावुक कर सके, परमेश्वर के सामने लोगों के दिल शांत कर सके और जब लोग तुम्हें सुनें तो उन्हें आत्मिक उन्नयन मिले, तो यह मानक स्तर के तरीके से अपना कर्तव्य निभाना है। अगर तुम हमेशा अपनी सीमाओं को चुनौती देना चाहते हो और हमेशा व्यक्तिगत सफलताएँ हासिल करना और खुद से आगे निकलना चाहते हो, तो यह अपना शैतानी भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करना है और यह अपना कर्तव्य निभाना नहीं है। अपना काम ठीक से करने और जो कुछ तुम ठीक से कर सकते हो उसे करने के बाद अपने खाली समय में अपने कर्तव्य के लिए कुछ उपयोगी चीज सीखना ठीक है, लेकिन परमेश्वर इसकी अपेक्षा नहीं करता। मान लो, तुम मध्यम सुरों को अच्छे से गाते हो और अपने खाली समय में उच्च सुरों को गाने का अभ्यास करते हो। कुछ समय बाद तुम्हें सफलता मिलती है और दो-तीन साल की कड़ी मेहनत के बाद तुम उच्च सुरों को भी अच्छी तरह से गाने में समर्थ हो जाते हो। तुम मध्यम और उच्च दोनों सुरों को गाने में और ये दोनों कर्तव्य पूरे करने में समर्थ हो; तुम ये दोनों कर्तव्य सत्य सिद्धांतों के अनुसार निभाने और पूरे मन से, बिना किसी लापरवाही, धूर्तता या ढिलाई के या भव्य लगने वाले विचार झाड़े बिना गाने में समर्थ हो। यह और भी बेहतर है, यह एक अच्छा कर्म है, और परमेश्वर इसे याद रखेगा। लेकिन मान लो, तुम इसे हासिल नहीं कर सकते, और फिर भी हमेशा सोचते हो, “परमेश्वर को मुझसे बहुत उम्मीदें हैं, अगर मैं सिर्फ बीच के सुरों को गाता हूँ तो क्या मैं धूर्त और सुस्त नहीं हूँ? परमेश्वर संतुष्ट नहीं है!” यह तुम्हारी अपनी कल्पना है। तुम परमेश्वर के बारे में अटकलें लगा रहे हो, और “कुलीन लोगों को तुच्छ लोगों के मानदंड से मापने” के अभ्यास में संलग्न हो। परमेश्वर ने तुमसे ऐसी कोई अपेक्षाएँ नहीं की हैं। परमेश्वर तुमसे यही अपेक्षा करता है कि तुम अपनी अंतर्निहित काबिलियत और क्षमताओं के दायरे में वह काम अच्छी तरह से करो जो तुम्हें करना चाहिए, और अगर तुम परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों के अनुसार उसे अच्छी तरह से करते हो, तो परमेश्वर तुम्हें पहले ही पूरे अंक दे चुका होगा। लेकिन अगर तुम जो काम करने में समर्थ हो उसे अच्छी तरह से करने की कोशिश नहीं करते, और तुम उसे सिद्धांतों के अनुसार नहीं करते, हमेशा धूर्त और सुस्त रहते हो और हमेशा भव्य लगने वाले विचार झाड़ना चाहते हो, और गायन की विभिन्न तकनीकों का अभ्यास नहीं करते, लेकिन फिर भी अपनी सीमाओं को चुनौती देना चाहते हो, तो तुम्हारा ऐसा करना विवेकहीन है, यह अहंकार और अज्ञानता की अभिव्यक्ति है, और परमेश्वर इससे प्रसन्न नहीं होगा। वह यह बिल्कुल नहीं कहेगा, “यह व्यक्ति मध्यम सुरों को गा सकता है और उच्च सुरों को भी गाने की कोशिश कर रहा है। हालाँकि यह उच्च सुरों को अच्छी तरह नहीं गा सकता, लेकिन यह इसकी कर्तव्यनिष्ठा है, और यह काफी है।” परमेश्वर तुम्हें इस नजर से नहीं देखेगा, इसलिए अपने बारे में अच्छा महसूस मत करो। परमेश्वर सिर्फ यह देखता है कि क्या तुम अपने पद के अनुरूप तरीके से आचरण करते हो और क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सृजित प्राणी के कर्तव्यों का निर्वहन अच्छी तरह से करता है। वह यह देखता है कि परमेश्वर द्वारा तुम्हें दी गई अंतर्निहित परिस्थितियों के तहत, क्या तुम अपने कर्तव्य निर्वहन में अपना पूरा दिल और ताकत लगाते हो और क्या तुम सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हो और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप परिणाम प्राप्त करते हो। अगर तुम इन सभी चीजों को पूरा कर पाते हो तो परमेश्वर तुम्हें पूरे अंक देता है। मान लो तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार चीजें नहीं करते और अगर तुम कड़ी मेहनत और प्रयास करते भी हो तो भी वह सब अपनी शान दिखाने और दिखावा करने के लिए होता है और तुम सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं करते या परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्त्तव्य-प्रदर्शन में अपना पूरा दिल और शक्ति नहीं लगाते। उस स्थिति में, तुम्हारी अभिव्यक्तियाँ और व्यवहार परमेश्वर के लिए घृणित है। परमेश्वर उनसे नफरत क्यों करता है? परमेश्वर कहता है कि तुम उचित कार्यों पर ध्यान केंद्रित नहीं कर रहे हो, तुमने अपने कर्तव्य निर्वहन में अपना पूरा दिल, शक्ति या मन नहीं लगाया है और तुम सही मार्ग पर नहीं चल रहे हो। परमेश्वर ने तुम्हें जो काबिलियत, गुण और प्रतिभाएँ दी हैं, वे पहले से ही पर्याप्त हैं—बात बस इतनी है कि तुम संतुष्ट नहीं हो, अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित नहीं हो, तुम्हें कभी भी अपनी जगह पता नहीं होती है, तुम हमेशा बड़ी-बड़ी बातें कहने और दिखावा करने की इच्छा रखते हो जिससे अंत में तुम अपने कर्तव्यों में गड़बड़ कर देते हो। परमेश्वर ने तुम्हें जो काबिलियत, गुण और प्रतिभाएँ दी हैं, तुमने उनका उपयोग नहीं किया है, तुमने पूरा प्रयास नहीं किया है और तुमने कोई परिणाम प्राप्त नहीं किया है। हालाँकि तुम काफी व्यस्त रहते होगे, लेकिन परमेश्वर कहता है कि तुम एक विदूषक जैसे हो, ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो अपनी जगह जानता है और अपने उचित कार्यों पर ध्यान केंद्रित करता है। परमेश्वर ऐसे लोगों को पसंद नहीं करता है। इसलिए, चाहे तुम्हारी योजनाएँ और लक्ष्य कुछ भी हों, अगर तुम अंततः परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों के अनुसार अपने पूरे हृदय, अपने पूरे मन और अपनी पूरी शक्ति के साथ, उस अंतर्निहित काबिलियत, गुणों, प्रतिभाओं, क्षमताओं और अन्य स्थितियों के आधार पर अपना कर्तव्य नहीं निभाते जो परमेश्वर ने तुम्हें दी हैं, तो परमेश्वर याद नहीं रखेगा कि तुमने क्या किया है, और तुम अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे होगे, बल्कि तुम बुराई कर रहे होगे।
क्या तुमने अपनी जन्मजात स्थितियों—यानी अपनी खुद की स्थितियों, खूबियों और कमियों—से सही तरीके से निपटने के अभ्यास का सिद्धांत समझ लिया है? (हाँ।) पहला कदम क्या है? पहले, परमेश्वर द्वारा दिए गए अंतर्निहित और मौजूदा गुणों, क्षमताओं और शक्तियों का, और उन तकनीकी या व्यावसायिक कौशलों का भी, जिन्हें तुम प्राप्त और हासिल कर सकते हो, भरपूर इस्तेमाल करो और पीछे मत हटो। अगर तुम इन सभी बातों के संदर्भ में परमेश्वर को संतुष्ट कर चुके हो और तुम्हें लगता है कि तुम अभी और भी ऊँचाइयाँ छू सकते हो, तो जो कुछ तुम्हारी काबिलियत हासिल कर सकती है उसके दायरे में उन तकनीकी या व्यावसायिक कौशलों पर गौर करो जिनमें तुम सुधार कर सकते हो या सफलता प्राप्त कर सकते हो। तुम अपनी काबिलियत से जो प्राप्त कर सकते हो, उसके आधार पर सीखना और सुधार करना जारी रख सकते हो। तो व्यक्ति को परमेश्वर के कार्य के बारे में अपनी धारणाएँ और कल्पनाएँ त्यागने का अभ्यास कैसे करना चाहिए? सबसे पहले, तुम्हें यह समझना है कि तुम्हारी जन्मजात स्थितियाँ क्या हैं, परमेश्वर ने तुम्हें क्या दिया है, तुम्हें उन चीजों का इस्तेमाल कैसे करना चाहिए, और उनकी पूरी क्षमता को कैसे उजागर करना चाहिए और उनका अधिकतम लाभ कैसे उठाना चाहिए, और अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभाने के लिए उन्हें बाधाओं के बजाय बुनियादी स्थितियों में कैसे बदलना चाहिए। अपनी खूबियों को समझो और उन्हें काम में लाओ। अपनी कमियों और दोषों को समझो और अगर तुम उन्हें थोड़े समय में बदल सकते हो तो बदल दो; अगर उन्हें बदलना आसान नहीं है तो उन्हें पाप में गिरने का कारण या अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में रुकावट मत बनने दो, उनसे बाधित या प्रभावित मत हो, और उन्हें अपने हाथ-पैर बाँधने वाली बेड़ियाँ मत बनने दो। उदाहरण के लिए मान लो, तुम खराब स्वास्थ्य और कमजोर शारीरिक बनावट के साथ पैदा हुए हो, और तुम लगातार इस पर काबू पाना चाहते हो, और एक सामान्य व्यक्ति की तरह खाना-पीना और देर तक जागना चाहते हो, लेकिन परमेश्वर ने तुम्हें वह पूँजी नहीं दी है। तो तुम्हें अपनी स्थितियों के अनुसार हर दिन का सामना करना चाहिए और परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। खुद को चुनौती मत दो और अपनी कमियों और दोषों को पाप में गिरने का कारण और परमेश्वर का अनुसरण करने, अपना कर्तव्य निभाने और सत्य का अनुसरण करने के अपने मार्ग में रुकावटें मत बनने दो; उन्हें अपने नकारात्मक होने का कारण मत बनने दो, और इससे भी बढ़कर, सत्य का अनुसरण करना या अपना कर्तव्य निभाना मत छोड़ो, या सिर्फ इसलिए दूसरों से ईर्ष्या और घृणा मत करो क्योंकि तुममें कुछ कमियाँ, दोष और अपर्याप्तताएँ हैं—इनमें से कुछ नहीं होना चाहिए। तुम्हें अपनी कमियाँ और दोष सही ढंग से समझने चाहिए; अगर तुम उन्हें बदल नहीं सकते तो तुम्हें उन्हें रहने देना चाहिए, और फिर परमेश्वर के इरादे समझने के लिए सत्य खोजना चाहिए, और उन्हें सही ढंग से समझने में सक्षम होना चाहिए और उनसे बाधित नहीं होना चाहिए। तुम्हें ऐसा क्यों करना है? यही वह विवेक है जो सामान्य मानवता में होना चाहिए। अगर तुम्हारी मानवता का विवेक सामान्य है तो तुम्हें अपनी कमियों और दोषों का सही तरीके से सामना करना चाहिए; तुम्हें उन्हें मान और स्वीकार लेना चाहिए। यह तुम्हारे लिए फायदेमंद है। उन्हें स्वीकारने का मतलब उनसे बेबस होना नहीं है और न ही इसका मतलब उनके कारण अक्सर नकारात्मक होना है, बल्कि इसका मतलब उनसे बेबस न होना है, यह पहचानना है कि तुम भ्रष्ट मानवजाति के एक साधारण सदस्य हो जिसमें अपने खुद के दोष और कमियाँ हैं और कुछ भी शेखी बघारने लायक नहीं है, कि यह परमेश्वर ही है जो लोगों को उनका कर्तव्य निभाने के लिए उन्नत करता है और परमेश्वर उनमें अपने वचन और जीवन को क्रियान्वित करने का इरादा रखता है, ताकि वे उद्धार प्राप्त कर सकें और शैतान के प्रभाव से बच सकें—कि यह पूरी तरह से परमेश्वर द्वारा लोगों को उन्नत करना है। दोष और कमियाँ हर किसी में होती हैं। तुम्हें अपने दोषों और कमियों को अपने साथ मौजूद रहने देना चाहिए; उनसे मत बचो या उन्हें मत छिपाओ और उनके कारण अक्सर अंदर से दमित महसूस मत करो या यहाँ तक कि उनके कारण हमेशा हीन महसूस मत करो। तुम हीन नहीं हो; अगर तुम पूरे दिल से, पूरी शक्ति से, पूरे मन से और अपनी पूरी क्षमता से अपना कर्तव्य निभा सकते हो और तुम्हारा दिल ईमानदार है तो परमेश्वर के सामने तुम सोने जितने बेशकीमती हो। अगर अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम कीमत नहीं चुका सकते और तुममें निष्ठा नहीं है तो अगर तुम्हारी जन्मजात स्थितियाँ औसत व्यक्ति से बेहतर भी हों, तो भी तुम परमेश्वर के सामने बेशकीमती नहीं हो, तुम्हारी कीमत रेत के एक कण जितनी भी नहीं है। क्या तुम समझ गए? (हाँ।) चाहे वह तुम्हारा प्राकृतिक रूप हो, तुम्हारी प्राकृतिक काबिलियत और प्रतिभाएँ या तुम्हारी मानवता के किसी पहलू की कमियाँ और अपर्याप्तताएँ, उन्हें खुद को बेबस और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी निष्ठा और समर्पण को प्रभावित मत करने दो, उन्हें सत्य के तुम्हारे अनुसरण को प्रभावित मत करने दो, और बेशक, इससे भी बढ़कर उन्हें तुम्हारे उद्धार के बड़े मामले को प्रभावित मत करने दो। तुम्हें अपनी कमियों और अपर्याप्तताओं का सही ढंग से सामना करना चाहिए और उन्हें अपने साथ सह-अस्तित्व में रहने देना चाहिए, अर्थात् तुम्हें अब उन्हें बदलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वे तुम्हारे पूरे दिल, दिमाग और शक्ति से किए जाने वाले तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को जरा भी प्रभावित नहीं करेंगी, और बेशक, वे सिद्धांतों के अनुसार किए जाने वाले तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को भी प्रभावित नहीं करेंगी, और परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में तुम्हारे जीवन भर के सत्य के अनुसरण को तो बिल्कुल भी प्रभावित नहीं करेंगी, या इस बात को प्रभावित नहीं करेंगी कि तुम लोगों या चीजों को कैसे देखते हो और सत्य के अनुसरण की प्रक्रिया में तुम कैसे आचरण और कार्य करते हो। बेशक, तुम्हें हमेशा यह सोचते हुए खुद से माँगें नहीं करनी चाहिए, “यह दोष मत दिखाओ, दूसरों को मेरी कमियाँ मत दिखाओ, और दूसरों को मुझे नीची नजर से मत देखने दो!” अगर तुम ऐसा करते हो तो तुम बहुत थकाऊ जीवन जियोगे। अगर तुम अपनी कमियों और खामियों को अपने साथ सह-अस्तित्व में रहने देते हो, तो उन्हें अस्तित्व में रहने दो, और अगर दूसरे तुम्हारी कमियाँ देख भी लें, तो यह तुम्हारे लिए फायदेमंद भी हो सकता है, और एक सुरक्षा भी, जो तुम्हें अहंकारी और घमंडी बनने से रोकेगी। बेशक, कई लोगों को अपनी कमियाँ और खामियाँ प्रकट करने के लिए साहस की जरूरत होती है। कुछ लोग कहते हैं, “हर कोई अपनी खूबियाँ और गुण प्रकट करता है। कौन जानबूझकर अपनी कमजोरियाँ और खामियाँ प्रकट करेगा?” ऐसा नहीं है कि तुम जानबूझकर उन्हें प्रकट करते हो, बल्कि तुम उन्हें प्रकट होने देते हो। उदाहरण के लिए, अगर तुम डरपोक हो और अक्सर बहुत सारे लोगों के आस-पास होने पर बोलते समय घबरा जाते हो, तो तुम दूसरों से यह कहने की पहल कर सकते हो, “मैं बोलते समय आसानी से घबरा जाता हूँ; मैं बस यह चाहता हूँ कि हर कोई मेरी स्थिति समझे और मेरी आलोचना न करे।” तुम अपनी कमियाँ और खामियाँ हर किसी के सामने प्रकट करने की पहल करो, ताकि वह तुम्हारी स्थिति समझ सके और तुम्हें सहन कर सके, और ताकि हर कोई तुम्हें जान जाए। जितना ज्यादा हर कोई तुम्हें जानेगा, तुम्हारा दिल उतना ही ज्यादा शांत होगा, और तुम अपनी कमियों और खामियों से उतने ही कम बाधित होगे। यह असल में तुम्हारे लिए फायदेमंद और मददगार होगा। हमेशा अपनी कमियाँ और खामियाँ छिपाना यह साबित करता है कि तुम उनके साथ सह-अस्तित्व में नहीं रहना चाहते। अगर तुम उन्हें अपने साथ सह-अस्तित्व में रहने देते हो, तो तुम्हें उन्हें प्रकट करना होगा; शर्मिंदा या हतोत्साहित महसूस मत करो, और खुद को दूसरों से हीन मत समझो, या यह मत सोचो कि तुम बेकार हो और तुम्हारे बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं है। जब तक तुम सत्य का अनुसरण कर सकते हो और अपना कर्तव्य सिद्धांतों के अनुसार पूरे दिल, पूरी शक्ति और पूरे मन से निभा सकते हो और तुम्हारा हृदय सच्चा है और तुम परमेश्वर के प्रति लापरवाह नहीं हो, तब तक तुम्हारे बचाए जाने की उम्मीद है। अगर कोई कहता है, “देखो तुम कितने निकम्मे और डरपोक हो। तुम कुछ शब्द बोलने पर ही इतने घबरा जाते हो और तुम्हारा पूरा चेहरा लाल हो जाता है,” तो तुम्हें कहना चाहिए, “मुझमें खराब काबिलियत है और मैं अच्छी तरह नहीं बोल पाता। अगर तुम लोग मुझे प्रोत्साहित करो, तो मुझे बोलने का अभ्यास करने का साहस मिलेगा।” यह मत सोचो कि तुम निकम्मे हो या शर्मिंदगी का कारण हो। चूँकि तुम जानते हो कि तुम्हारी मानवता में ये दोष और समस्याएँ हैं, इसलिए तुम्हें उनका सामना करना चाहिए और उन्हें स्वीकारना चाहिए। उनकी वजह से किसी भी तरह प्रभावित मत हो। रही बात कि ये दोष और खामियाँ कब बदलेंगी, तो इसकी चिंता मत करो। बस इस तरह सामान्य रूप से जीने और अपना कर्तव्य निभाने पर ध्यान केंद्रित करो। तुम्हें बस यह याद रखना है : मानवता के ये दोष और खामियाँ नकारात्मक चीजें या भ्रष्ट स्वभाव नहीं हैं, और अगर वे भ्रष्ट स्वभाव नहीं हैं तो वे तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन या सत्य के तुम्हारे अनुसरण को प्रभावित नहीं करेंगी, और तुम्हारे उद्धार की प्राप्ति को तो वे बिल्कुल भी प्रभावित नहीं करेंगी; बेशक, इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि वे इस बात को प्रभावित नहीं करेंगी कि परमेश्वर तुम्हें कैसे देखता है। क्या इससे तुम्हारा मन शांत नहीं होता? (हाँ, होता है।) अगर तुम्हें अभी भी दूसरे लोगों द्वारा तुच्छ समझे जाने की चिंता है, तो यह तुम्हारे अहंकारी स्वभाव की समस्या है और तुम्हें इस अहंकारी स्वभाव का समाधान करना चाहिए। अपने दोषों और खामियों से सही तरीके से निपटने के लिए यही अभ्यास का मार्ग है। क्या इस तरह अभ्यास करने से तुम्हारे लिए इन चीजों को त्यागना और इनसे अब और बाधित नहीं होना आसान नहीं हो जाता है? (हो जाता है।)
क्या व्यक्ति के सामान्य कर्तव्य निर्वहन और उसकी मानवता के दोषों और खामियों का एक-दूसरे पर प्रभाव पड़ेगा? (परमेश्वर की संगति के जरिये अब मैं समझता हूँ कि मानवता के दोष और खामियाँ भ्रष्ट स्वभाव नहीं हैं, और वे लोगों के सामान्य कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित नहीं करेंगी। अगर लोग सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य निभाते हैं तो उन्हें अच्छे परिणाम प्राप्त होंगे। जहाँ तक मानवता के दोषों और अपर्याप्तताओं का प्रश्न है, अगर हम उन पर काबू पाने में समर्थ हैं तो हम ऐसा कर सकते हैं। अगर हम उन्हें थोड़े समय में दूर नहीं कर सकते तो हमें उन्हें मौजूद रहने देना चाहिए और उन्हें सही तरीके से हल करने में समर्थ होना चाहिए।) अगर तुम्हारी शिक्षा का स्तर कम है, लेकिन तुम्हें अपने कर्तव्य में शैक्षिक ज्ञान का उपयोग करने की आवश्यकता है, तो क्या यह एक प्रकार की कमी नहीं है? (है।) तो यह कठिनाई कैसे हल की जा सकती है? (मैं अपनी शिक्षा के स्तर के आधार पर कोई कर्तव्य निभाने के बजाय अपने लिए उपयुक्त कोई कर्तव्य निभा सकता हूँ। या, अगर यह कर्तव्य मेरे लिए उपयुक्त है लेकिन इसके लिए एक निश्चित मात्रा में शैक्षिक ज्ञान की आवश्यकता है, तो मैं अपने साथ सहयोग करने के लिए कुछ शिक्षित भाई-बहनों की तलाश कर सकता हूँ—हम अपनी कमजोरियों की भरपाई के लिए एक-दूसरे की खूबियों का उपयोग कर सकते हैं और यह कर्तव्य एक-साथ पूरा कर सकते हैं।) क्या सत्य शिक्षा के निम्न स्तर की भरपाई कर सकता है? (कर सकता है, क्योंकि जब व्यक्ति के पास सत्य होता है तो वह चीजों की असलियत जान सकता है।) शिक्षा ज्ञान के स्तर की चीज है। चाहे तुम कितने भी ज्ञानी क्यों न हो, अगर तुम सत्य नहीं समझते, तो बोलते या लेख लिखते समय तुम केवल सही व्याकरण इस्तेमाल कर पाओगे, तुम सत्य से संबंधित मुद्दे स्पष्ट रूप से समझाने या हल करने में समर्थ नहीं हो पाओगे। इसलिए, शिक्षा महत्वपूर्ण नहीं है; सत्य शिक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण है। निस्संदेह, अगर तुम्हारे पास शिक्षा का आधार नहीं है, और अगर जो कर्तव्य तुम निभाते हो उसमें शैक्षिक ज्ञान शामिल है, तो तुम उसमें सक्षम नहीं होगे। लेकिन अगर तुम सत्य समझते हो तो तुम दूसरों का मार्गदर्शन कर सकते हो—तुम सत्य सिद्धांतों के लिहाज से जाँच कर सकते हो। अगर तुम्हारी शिक्षा का स्तर कम है और तुममें खुद को अभिव्यक्त करने की क्षमता नहीं है, और तुम सत्य पर धर्मोपदेश देना या संगति करना चाहते हो, तो तुम अपने प्रारूप व्यवस्थित करने में मदद के लिए कोई शिक्षित व्यक्ति खोज सकते हो। फिर जब तुम संगति करोगे या धर्मोपदेश दोगे, तो तुम्हारे लिए नतीजे प्राप्त करना आसान हो जाएगा। लेकिन कम से कम तुम्हें सत्य समझना होगा। अगर तुम सत्य नहीं समझते, और तुम अशिक्षित भी हो, तो तुम शैक्षिक ज्ञान से जुड़े कर्तव्य नहीं निभा पाओगे, इसलिए तुम्हें अपने शैक्षिक स्तर के अनुरूप कर्तव्य निभाना चाहिए। क्या इससे समस्या हल नहीं होती? (होती है।) तो, सत्य का अनुसरण करना सबसे महत्वपूर्ण चीज है, चाहे तुम इसे किसी भी परिप्रेक्ष्य से देखो। तुम मानवता की खराबियों और कमियों से बच सकते हो, लेकिन सत्य का अनुसरण करने के मार्ग से कभी नहीं बच सकते। चाहे तुम्हारी मानवता कितनी भी पूर्ण या महान क्यों न हो या चाहे दूसरे लोगों की तुलना में तुममें कम खामियाँ और खराबियाँ हों और तुम्हारे पास ज्यादा शक्तियाँ हों, इससे यह प्रकट नहीं होता है कि तुम सत्य समझते हो और न ही यह सत्य की तुम्हारी तलाश की जगह ले सकता है। इसके विपरीत, अगर तुम सत्य का अनुसरण करते हो, बहुत सारा सत्य समझते हो और तुम्हें इसकी पर्याप्त रूप से गहरी और व्यावहारिक समझ है, तो इससे तुम्हारी मानवता की कई खराबियों और समस्याओं की भरपाई हो जाएगी। मिसाल के तौर पर, मान लो कि तुम दब्बू और अंतर्मुखी हो, तुम हकलाते हो और तुम ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हो—यानी, तुममें बहुत सारी कमियाँ और अपर्याप्तताएँ हैं—लेकिन तुम्हारे पास व्यावहारिक अनुभव है और वैसे तो तुम बात करते समय हकलाते हो, फिर भी तुम स्पष्टता से सत्य की संगति कर सकते हो और यह संगति हर सुनने वाले को उन्नत करती है, समस्याएँ हल करती है, लोगों को नकारात्मकता से उबरने में सक्षम बनाती है और परमेश्वर के बारे में उनकी शिकायतें और गलतफहमियाँ दूर करती है। देखो, वैसे तो तुम अपने शब्दों को हकलाकर बोलते हो, फिर भी वे समस्याएँ हल कर सकते हैं—ये शब्द कितने महत्वपूर्ण हैं! जब आम लोग उन्हें सुनते हैं तो वे कहते हैं कि तुम एक अशिक्षित व्यक्ति हो और जब तुम बोलते हो तो व्याकरण के नियमों का पालन नहीं करते हो और कभी-कभी तुम जिन शब्दों का उपयोग करते हो, वे वाकई उपयुक्त नहीं होते हैं। हो सकता है कि तुम क्षेत्रीय भाषा या रोजमर्रा की भाषा का उपयोग करते हो और तुम्हारे शब्दों में वह उत्कृष्टता और शैली नहीं होती है जो वाक्पटुता से बोलने वाले उच्च-शिक्षित लोगों में होती है। लेकिन तुम्हारी संगति में सत्य वास्तविकता होती है, यह लोगों की कठिनाइयाँ हल कर सकती है और जब लोग इसे सुनते हैं तो उसके बाद उनके चारों तरफ के सारे काले बादल छँट जाते हैं और उनकी सभी समस्याएँ सुलझ जाती हैं। देखो, क्या सत्य को समझना महत्वपूर्ण नहीं है? (है।) मान लो कि तुम सत्य नहीं समझते हो और भले ही तुम्हारे पास कुछ शैक्षिक ज्ञान हो और तुम वाक्पटुता से बोलते हो, लेकिन जब हर कोई तुम्हें बोलते हुए सुनता है तो वह सोचता है, “तुम्हारे शब्द सिर्फ धर्म-सिद्धांत हैं, उनमें रत्ती भर भी सत्य वास्तविकता नहीं है और वे वास्तविक समस्याएँ बिल्कुल भी हल नहीं कर पाते हैं तो क्या तुम्हारे ये सारे शब्द खोखले नहीं हैं? तुम सत्य नहीं समझते हो। क्या तुम बस एक फरीसी नहीं हो?” वैसे तो तुमने बहुत-से धर्म-सिद्धांत बोले, लेकिन समस्याएँ अनसुलझी रह गई हैं और तुम सोचते हो, “मैं तो बहुत सच्चाई और गंभीरता से बोल रहा था। तुम लोगों को मेरी बातें क्यों समझ में नहीं आई हैं?” तुमने ढेरों धर्म-सिद्धांत बोले लेकिन जो नकारात्मक थे वे नकारात्मक ही रह गए हैं और जिन लोगों को परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ थीं, उनमें वे गलतफहमियाँ अब भी हैं और उनके कर्तव्यों के निर्वहन में जो भी कठिनाइयाँ मौजूद हैं उनमें से कोई भी हल नहीं हुई है—इसका मतलब है कि तुमने जो शब्द बोले वे सिर्फ बेहूदा बातें थीं। चाहे तुम्हारी मानवता में कितनी भी कमियाँ और दोष क्यों न हों, अगर तुम्हारे बोले गए शब्दों में सत्य वास्तविकता है तो तुम्हारी संगति समस्याएँ हल कर सकती है; अगर तुम्हारे बोले गए शब्द धर्म-सिद्धांत हैं और उनमें जरा-सा भी व्यावहारिक ज्ञान नहीं है तो चाहे तुम कितनी भी बातें क्यों न करो, तुम लोगों की वास्तविक समस्याएँ हल करने में समर्थ नहीं होगे। चाहे लोग तुम्हें कैसे भी क्यों न देखें, जब तक तुम जो चीजें कहते हो वे सत्य के अनुरूप नहीं होतीं और वे लोगों की दशाओं को संबोधित नहीं कर पातीं या लोगों की कठिनाइयाँ हल नहीं कर पातीं तब तक लोग उन्हें नहीं सुनना चाहेंगे। तो ज्यादा महत्वपूर्ण क्या है : सत्य या लोगों की अपनी स्थितियाँ? (सत्य ज्यादा महत्वपूर्ण है।) सत्य का अनुसरण करना और सत्य को समझना सबसे महत्वपूर्ण चीजें हैं। इसलिए चाहे तुम्हारी मानवता या तुम्हारी जन्मजात स्थितियों के लिहाज से तुममें कोई भी कमी क्यों न हो, तुम्हें उनसे बेबस नहीं होना चाहिए। बल्कि तुम्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए और सत्य को समझकर अपनी विभिन्न कमियों की भरपाई करनी चाहिए और अगर तुम्हें खुद में कुछ कमियों का पता चलता है तो तुम्हें उन्हें जल्दी से ठीक कर लेना चाहिए। कुछ लोग सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते हैं, बल्कि वे हमेशा अपनी मानवता में कठिनाइयों, दोषों और कमियों को हल करने और अपनी मानवता की समस्याओं को सुधारने पर ध्यान केंद्रित करते हैं और यह पता चलता है कि वे स्पष्ट नतीजे प्राप्त किए बिना कई वर्षों तक प्रयास करते हैं और इसके फलस्वरूप वे खुद से निराश हो जाते हैं और सोचते हैं कि उनकी मानवता बहुत ही ज्यादा खराब है और वे सुधार के योग्य नहीं हैं। क्या यह बहुत बेवकूफी भरी बात नहीं है?
कुछ लोग सज्जन, सहनशील और धैर्यवान दिखाई देते हैं; वे परिष्कार के साथ बोलते हैं और आकाश में चमकने वाली बिजली जैसी तेजी और जोश से और प्रभावशाली उपस्थिति के साथ काम करते हैं। उनकी मानवता बिल्कुल पूर्ण प्रतीत होती है और उनकी चाल-ढाल अगुआई करने वाले व्यक्ति जैसी होती है। लेकिन वे कोई भी सत्य बिल्कुल नहीं समझते, वे हर तरह की समस्या का समाधान करने के लिए धर्म-सिद्धांतों का इस्तेमाल करने की कोशिश करते हैं और कोई भी ठोस काम करने या कार्य-व्यवस्थाएँ लागू करने में असमर्थ होते हैं। क्या वे बेकार नहीं होते? वे मानक फरीसी होते हैं। बाहरी तौर पर फरीसी बेदाग पोशाक पहने, गरिमामय और संतुलित होते हैं; वे सभ्य, शिष्टाचार में पारंगत, विनम्र, प्रेमपूर्ण, सहनशील और धैर्यवान होते हैं। उनका आचरण असाधारण रूप से उचित होता है और वे दूसरों से विशेष सौम्यता, विनम्रता और दीनता से बात करते हैं। तुम उनमें कोई भी कमी, छिद्र या दोष नहीं देख सकते। उनकी मानवता से आँकें तो, वे विशेष रूप से विश्वसनीय, अंतर्दृष्टि वाले, परिष्कृत और शालीन लगते हैं, बिल्कुल चीनी लोगों द्वारा बताए गए सुसंस्कृत और शिष्ट सज्जनों की तरह। उनकी मानवता पूर्ण दिखाई देती है और बाहरी तौर पर उनमें कोई दोष नहीं पाया जा सकता, लेकिन क्या वे परमेश्वर के इरादे समझते हैं? क्या वे तमाम तरह की चीजें करने के सिद्धांत समझते हैं? ये लोग हर सभा में घंटों बोल सकते हैं, और जो लोग सत्य नहीं समझते वे यह सोचकर उनकी सराहना में दंडवत हो जाते हैं कि वे बहुत वाक्पटुता से बोलते हैं और खुद को बहुत स्पष्ट और तार्किक ढंग से व्यक्त करते हैं। लेकिन जो लोग वाकई सत्य समझते हैं, वे इन व्यक्तियों को सुनने के बाद जान जाते हैं कि वे जो कुछ भी बोलते हैं वह सब धर्म-सिद्धांत होता है और वह लोगों की समस्याएँ लक्षित करके उनकी वास्तविक कठिनाइयाँ हल नहीं करता। ये व्यक्ति लोगों की वास्तविक कठिनाइयों की अवहेलना करते हैं और सिर्फ खोखले धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करना और ऊँचे और खोखले सिद्धांतों के बारे में अंतहीन बातें करना जानते हैं। बोलने के बाद वे यह सोचकर खुद से बहुत प्रसन्न भी होते हैं कि वे सत्य समझते हैं और उनके पास सत्य वास्तविकता है। वास्तव में, वे सिर्फ अपनी मानवता के बाहरी रूप को छिपाना चाहते हैं, ताकि वह पूर्ण और सुंदर, ऊँचा और भव्य दिखाई दे। लेकिन उनका सार और उनके भ्रष्ट स्वभाव, जो परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं, जरा भी नहीं बदले होते हैं। परमेश्वर के बारे में उनकी धारणाएँ, उसके प्रति उनका विद्रोह, परमेश्वर के बारे में उनकी गलतफहमियाँ, सतर्कता और संदेह, और खासकर परमेश्वर के प्रति उनकी अनुचित माँगें और अत्यधिक इच्छाएँ उनके पूरे मन को भर देती हैं। वे सत्य का अनुसरण बिल्कुल नहीं करते, न ही वे सत्य जरा भी स्वीकारते हैं। इसलिए, उनकी मानवता को “पूर्ण” कहना “पूर्ण” शब्द का अपमानजनक अर्थ में प्रयोग करना है, क्योंकि कोई भी मानवता पूर्ण नहीं होती; उनकी “पूर्णता” विशुद्ध रूप से दिखावा और छद्मवेश होती है। दोषरहित मानवता का अस्तित्व नहीं है; वह एक दिखावा है, उस पर विश्वास मत करो। कोई व्यक्ति बाहर से जितना अधिक पूर्ण दिखाई देता है, उतना ही अधिक तुम्हें उससे सावधान रहना चाहिए, उसे देखना चाहिए और उसका भेद पहचानना चाहिए। तुम उसका भेद कैसे पहचानते हो? उसके साथ ज्यादा मेलजोल करो, उससे ज्यादा बातचीत करो और देखो कि क्या वह खुद को समझता है। मान लो वह कहता है, “मैं राक्षस हूँ, मैं शैतान हूँ, मैं परमेश्वर का प्रतिरोध करता हूँ, मैं भ्रष्ट हूँ! मैं पापी हूँ, महापापी, परमेश्वर मुझसे प्रसन्न नहीं होता, परमेश्वर मुझसे घृणा करता है!” या, “मैं अंधा और मूर्ख हूँ, बेचारा और दयनीय हूँ! मैं गंदा हूँ, मैं मैला हूँ!” क्या इन शब्दों में कोई वास्तविक तथ्य है? क्या कोई ठोस समझ है? (नहीं।) उसे अपने भ्रष्ट स्वभावों की जरा भी समझ नहीं है; वह इस तथ्य को स्वीकारता तक नहीं कि उसमें भ्रष्ट स्वभाव हैं। वह बस कुछ खोखले शब्द और कुछ धर्म-सिद्धांत बोलना सीखता है। ये खोखले शब्द और धर्म-सिद्धांत वह समझ नहीं होती, जो उसके द्वारा अपने हृदय की गहराइयों में महसूस या अनुभव की गई चीजों से आती है; ये सिर्फ अच्छे लगने वाले शब्द होते हैं, ये सब एक दिखावा होते हैं जिसे वह पेश कर रहा होता है। अगर तुम फिर उससे उसके अनुभवों के बारे में पूछो, कि उसने अपने भ्रष्ट स्वभावों को कैसे समझा, और अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करने के लिए वह किस तरह की काट-छाँट से गुजरा है और फिर उसने परमेश्वर के कौन-से वचन पढ़े हैं, तो वह ऐसे व्यवहार करता है मानो उसने तुम्हारी बात सुनी ही न हो, और वह फिर से ढेरों बेकार शब्द बोलेगा : “मेरी काबिलियत खराब है, मैं पापी पैदा हुआ था, मैं गोबर के ढेर में पड़ा एक नीच व्यक्ति हूँ, मैं परमेश्वर के उद्धार के योग्य नहीं हूँ! मुझमें भ्रष्ट स्वभाव हैं, और मैं जहाँ भी हूँ, परमेश्वर की गवाही देने में सक्षम नहीं हूँ; मुझे बस रुतबा रखना पसंद है।” अगर तुम उससे पूछो कि उसने कैसे इसका समाधान करने की कोशिश की है, तो वह अभी भी तुम्हें कोई बेतुका जवाब देगा : “लोगों के पास रुतबा नहीं होना चाहिए; एक बार उन्हें रुतबा मिला नहीं कि वे गए काम से। रुतबे का अनुसरण करना एक अत्यधिक इच्छा है। बस, सबसे कम महत्वपूर्ण व्यक्ति बनने की कोशिश करो, और चाहे कहीं भी जाओ, सबसे निचले स्टूल पर बैठो, सबसे कम दिखाई देने वाली जगह पर बैठो। लोगों को विनम्र होना चाहिए; इसे ही विनम्रता कहते हैं।” क्या वह किसी ठोस बदलाव से गुजरा है? क्या उसे कोई वास्तविक अनुभव हुआ है? (नहीं।) इनमें से कुछ भी नहीं हुआ है। क्या उसे अपने भ्रष्ट स्वभावों की कोई समझ है? (नहीं।) उसे उनकी कोई समझ नहीं है। तो क्या वह सत्य या परमेश्वर के वचन स्वीकारता है? (नहीं।) जो लोग यह नहीं स्वीकारते कि उनमें भ्रष्ट स्वभाव हैं, वे कभी सत्य नहीं स्वीकारते। अगर वे सत्य स्वीकारते, तो वे अपने हर शब्द और कर्म की और भ्रष्टता के अपने प्रकटीकरण की तुलना परमेश्वर के वचनों से करते। जब वे भ्रष्टता प्रकट करते तो वे आत्मचिंतन करते, खुद से पूछते कि अमुक संदर्भ में उन्होंने भ्रष्टता प्रकट क्यों की, और उस समय वे क्या सोच रहे थे और किसके द्वारा शासित थे। परमेश्वर के वचनों के जरिये उजागर होने और तुलना करने से उन्हें पता चल जाता कि यह एक भ्रष्ट स्वभाव है और वे उतने पवित्र या शुद्ध नहीं हैं जितनी उन्होंने कल्पना की थी, अंततः उनमें भी छल, स्वार्थपूर्ण इरादे, महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ हैं और वे ऐसे लोग बिल्कुल नहीं हैं जिनके पास सत्य वास्तविकता हो। क्या उन्हें ऐसे अनुभव हुए हैं? नहीं। उन्होंने बहुत शब्द कहे हैं, लेकिन एक भी तथ्य ऐसा नहीं है जो साबित करे कि वे स्वीकारते हैं कि उनमें भ्रष्ट स्वभाव हैं। वे कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास कर रहे हैं, फिर भी उन्हें सत्य का कोई अनुभव नहीं है। वे सिर्फ धर्म-सिद्धांत बोलते हैं, सिर्फ यह सोचते हैं कि अपनी मानवता की खामियों और दोषों को छिपाने के लिए कैसे एक मुखौटा लगाया जाए और खुद को कैसे सुशोभित किया जाए। वे बाहरी व्यवहारों, क्रियाकलापों, चेहरे की अभिव्यक्तियों, आचरण और झूठी आध्यात्मिकता की चाल-ढाल से खुद को सुशोभित करते हैं, जबकि अपने भ्रष्ट स्वभावों को अपने भीतर कसकर, मजबूती से और सुरक्षित रूप से लपेटे रखते हैं। वे परमेश्वर द्वारा मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों के बारे में उजागर किए जाने वाले विभिन्न मुद्दे या कथन जरा भी नहीं स्वीकारते, न ही उन पर ध्यान देते हैं और न ही उन्हें दिल से लगाते हैं; वे बस अपनी मानवता के बाहरी रूप पर ध्यान देते हैं। फिर अगर तुम उनसे परमेश्वर के वचनों की उनकी समझ के बारे में बात करने के लिए कहो, कि क्या उन्हें उसकी ताड़ना और न्याय के वचनों, मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों को उजागर करने वाले उसके वचनों या परमेश्वर के स्वभाव के बारे में उसके वचनों की कोई सच्ची समझ-बूझ है, तो वे इन व्यावहारिक विषयों को टाल देते हैं और फिर से आध्यात्मिक धर्म-सिद्धांतों की धारा बहा देते हैं : “परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है, परमेश्वर के कर्म अद्भुत हैं! परमेश्वर स्तुति और गुणगान के योग्य है, परमेश्वर अद्वितीय है, परमेश्वर का अधिकार और सामर्थ्य सर्वोच्च है!” लोग कहते हैं, “तो फिर अपने अनुभव के बारे में बात करो। किस मामले में तुमने परमेश्वर का स्वभाव और परमेश्वर की पवित्रता देखी?” वे उत्तर देते हैं, “परमेश्वर बहुत महान है, मनुष्य बहुत तुच्छ है, मनुष्य अयोग्य है! परमेश्वर की नजर में मनुष्य जमीन पर रहने वाली चींटियों से भी हीन है। परमेश्वर मनुष्य को ऊँचा उठाता है!” क्या उनके पास इस प्रकार की कोई समझ होती है? (नहीं।) उनके पास इस तरह की कोई समझ नहीं होती। यह किस तरह का व्यक्ति है? (एक पाखंडी फरीसी।) यह एक पाखंडी फरीसी है। वह सत्य जरा भी नहीं स्वीकारता; परमेश्वर के वचन और सत्य उसकी नजर में सिर्फ नारे और धर्म-सिद्धांत हैं। वह आम तौर पर परमेश्वर के वचन पढ़ता है, आध्यात्मिक भक्ति के नोट लिखता है, सभाओं में जाता है और परमेश्वर के वचनों का प्रार्थना-पाठ करता है—वह बिना एक भी प्रक्रिया चूके या कोई भी प्रक्रिया छोड़े ये सारी प्रक्रियाएँ करता है। तो परमेश्वर के इन वचनों को पढ़कर उसने क्या आत्मसात किया है? उसने क्या पाया है? वह परमेश्वर के वचन सत्य समझने के लिए नहीं पढ़ता, उसके वचनों से अपने भ्रष्ट स्वभावों, अपनी धारणाओं और कल्पनाओं या अपने विकृत विचारों और दृष्टिकोणों की तुलना तो बिल्कुल भी नहीं करता, ताकि वह अपनी समस्याओं का समाधान कर सके और अपने अभ्यास में अनुगमन के लिए एक मार्ग पा सके। वह परमेश्वर के वचन खुद को धर्म-सिद्धांतों से सुसज्जित करने के लिए पढ़ता है, ताकि सभाओं में दूसरों को व्याख्यान दे सके और उन्हें सबक सिखा सके। वह जो कुछ भी कहता है वह हर बार अलग होता है, और वह लंबे समय तक लगातार बात कर सकता है, अलग-अलग लोगों के साथ संगति करने के लिए परमेश्वर के अलग-अलग वचनों का चयन कर सकता है, जिसका उद्देश्य दूसरों से अपना सम्मान और अपनी आराधना करवाना होता है। कुछ लोग अपना भेष बदलने में खासे माहिर होते हैं—वे कितने घिनौने हो सकते हैं? जब वे मेरे कहे वचन सुनते हैं और उन्हें उपयोगी पाते हैं, तो उन्हें याद कर लेते हैं और फिर सभाओं में दिखावा करने के मौके ढूँढ़ते हैं। खास तौर पर, जब वे नए विश्वासियों के समूह में होते हैं—ऐसे लोग जिन्होंने ज्यादा धर्मोपदेश नहीं सुने होते और जिन्हें परमेश्वर के वचन याद नहीं रहते, भले ही उन्होंने कुछ वचन पढ़े हों—तो वे इस मौके का फायदा उठाते हैं और उन नए लोगों के बीच दिखावा करने और शान दिखाने लगते हैं। उन्हें सुनने के बाद हर कोई सोचता है, “इस व्यक्ति को पवित्र आत्मा ने प्रबुद्ध किया है, यह आध्यात्मिक है।” दूसरों का सम्मान और आराधना पाने हेतु शान दिखाने के लिए ऐसे साधन इस्तेमाल करना—क्या यह घृणित नहीं है? क्या यह लोगों को गुमराह करना नहीं है? (हाँ, है।) यह लोगों को गुमराह करना है।
अगर तुम जीवन भर सत्य सिद्धांतों की खोज करते हो और परमेश्वर के वचन अपने भ्रष्ट स्वभावों और अपने भीतर की उन चीजों का समाधान करने के आधार के रूप में खोजते हो जो सत्य के अनुरूप नहीं हैं, तो अंत में तुम निश्चित रूप से उद्धार प्राप्त करने वाले व्यक्ति होगे। लेकिन मान लो तुम जीवन भर अपनी मानवता की खामियों और दोषों का समाधान करने पर अपने प्रयास केंद्रित करते हो और उनका समाधान करने के लिए मार्ग खोजते हो, खुद को किसी भी खामी और दोष से मुक्त करने के लिए सभी प्रकार के साधन तैयार करते हो, ताकि तुम ऐसे व्यक्ति बन सको जो बाकी लोगों से अलग, पूर्ण और दोषरहित हो। कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं, “मैं एक शुद्ध व्यक्ति, एक उच्च और महान व्यक्ति बनना चाहता हूँ, ऐसा व्यक्ति जो समस्त सामान्य मानवता से परे हो।” मैं तुम्हें बता दूँ : ऐसा करके तुम असफल हो गए हो! चाहे तुम अपनी मानवता के किसी भी दोष या कमी का समाधान करने का प्रयास करो, इसका तुम्हारे उद्धार से कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि तुम अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करने के लिए सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे हो। अगर तुम अपनी मानवता के दोषों और खामियों का समाधान कर लेते हो, तो ज्यादा से ज्यादा इसका बस इतना मतलब है कि बाहर से तुममें मानवता का कोई दोष दिखाई नहीं दे सकता, और ऊपरी तौर पर तुम पूर्ण और परिष्कृत दिखाई देते हो। इस तथ्य को छोड़ो कि तुम्हारी मानवता के दोष और खामियाँ बदलना मूलतः असंभव हैं, अगर उन्हें बदल भी दिया जाए, तो भी तुम्हारे कहीं बड़े दोष और खामियाँ—तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव—अभी भी तुम्हारे भीतर छिपे रहते हैं! जितना ज्यादा तुम दिखावा करोगे और दोषों से रहित एक पूर्ण मानवता का अनुसरण करोगे, उतने ही ज्यादा तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें गहराई से और कसकर उलझाएँगे और बाँधेंगे, जिससे तुम और भी ज्यादा अहंकारी, धोखेबाज, दुष्ट और दुराग्रही बन जाओगे। और इसका परिणाम क्या होता है? यह तुम्हें सत्य से और सत्य के अनुसरण के मार्ग से और दूर कर देता है। अंततः हटाया जाना ही तुम्हारा परिणाम होगा और तुम समाप्त हो जाओगे। सिर्फ इसलिए कि तुम बाहरी तौर पर पूर्ण हो या एक पवित्र व्यक्ति प्रतीत होते हो, परमेश्वर द्वारा इसे कोई अपवाद मानने और तुम्हें बचाने की कोई संभावना नहीं है। इसके विपरीत, जितना ज्यादा तुम एक दोषरहित पूर्ण मानवता का अनुसरण करोगे, परमेश्वर तुमसे उतनी ही ज्यादा घृणा करेगा और उतना ही ज्यादा तुम पर कार्य नहीं करेगा। लेकिन कुछ लोग भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करने के कारण अक्सर पछतावा और दुःख महसूस करते हैं। पछतावा महसूस करते हुए वे सत्य का अनुसरण करने का संकल्प विकसित करते हैं, वे सत्य प्राप्त करने के लिए कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम होते हैं, वे प्रतिदिन परमेश्वर के वचन पढ़ने में लगे रहते हैं और सभी मामलों में परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और सत्य खोजते हैं। इस तरह वे सत्य के बारे में उत्तरोत्तर स्पष्ट होते जाते हैं, धीरे-धीरे वे कुछ प्रवेश, लाभ प्राप्त करते हैं और सत्य के सभी पहलुओं के संबंध में वास्तविक जीवन जीते हैं। अंततः, जब उनका सामना सभी प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों से होता है, तो अभ्यास और जाँच करने के लिए उनके पास अनुरूपी सत्य सिद्धांत होते हैं। कई वर्षों के अनुभव के बाद, परमेश्वर की ताड़ना और न्याय, काट-छाँट के जरिये और सत्य के अनुसरण में चुकाई गई कीमत के जरिये भी, वे धीरे-धीरे सत्य को अपने भीतर अपने जीवन के रूप में प्राप्त कर लेते हैं। उनके उद्धार की आशा और भी बढ़ जाती है और उनके द्वारा परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह और विश्वासघात करने की संभावना और भी कम हो जाती है। हालाँकि उनकी मानवता के दोष और खामियाँ और उनकी अंतर्निहित स्थितियाँ मूलतः अपरिवर्तित रहती हैं, फिर भी उनके भ्रष्ट स्वभाव लगातार कम होते जाते हैं, वे परमेश्वर का प्रतिरोध और उसके विरुद्ध विद्रोह कम बार करते हैं, वे परमेश्वर द्वारा अधिकाधिक पसंद किए जाने लगते हैं, दूसरों का अधिकाधिक नैतिक उन्नयन करने लगते हैं और उपयोग के लिए अधिकाधिक उपयुक्त होते जाते हैं। अगर ऐसे लोग इसी मार्ग पर चलते रहें, तो वे निश्चित रूप से वो लोग होंगे जो उद्धार प्राप्त करते हैं; यही वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर का कार्य बचाना चाहता है। अपने आस-पास के लोगों को देखो। देखो कि कौन हमेशा दिखावा करने पर, अपनी मानवता के दोषों, खामियों और कमजोरियों पर लगातार प्रयास करता रहता है, दूसरों से सम्मान, सराहना और आराधना पाने और लोगों के दिलों में रुतबा बनाने के लिए खुद को ढकने-छिपाने की पूरी कोशिश करता है—इस प्रकार के लोग फरीसी होते हैं। फरीसियों का एक ही अंतिम परिणाम होता है : चूहे के साथ नष्ट होना। इसलिए मैं कहता हूँ कि इस प्रकार के लोग समाप्त हो जाते हैं और उन्हें हटा दिया जाता है।
शुरू से लेकर अंत तक, परमेश्वर द्वारा किया जाने वाला कार्य लोगों की मानवता में दोषों और खामियों को बदलना नहीं है, बल्कि सिर्फ सामान्य मानवता वाले जमीर और विवेक बहाल करने हैं। परमेश्वर लोगों के भ्रष्ट स्वभाव बदलना चाहता है। बेशक, परमेश्वर अक्सर लोगों के भ्रष्ट स्वभावों से छुटकारा पाने और इस प्रकार उन्हें उद्धार प्राप्त करने में सक्षम बनाने की बात भी करता है। तो सामान्य मानवता की बहाली किस नींव पर निर्मित होती है? वह लोगों द्वारा अपने भ्रष्ट स्वभाव त्याग देने की नींव पर निर्मित होती है। लोगों की सामान्य मानवता के धीरे-धीरे बहाल होने का अर्थ है कि उनके जमीर में भावना आ जाती है, उनका विवेक उत्तरोत्तर सामान्य होता जाता है और वे सामान्य मानवता के परिप्रेक्ष्य से सही चीजें करने और सही शब्द कहने में सक्षम हो जाते हैं; वे विघ्न-बाधाएँ पैदा नहीं करते, उनकी वाणी और कार्य आवेगपूर्ण, अंधे या उतावले नहीं होते, बल्कि पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों पर आधारित होते हैं, उनका विवेक विशेष रूप से सामान्य होता है और उनकी मानवता विशेष रूप से ईमानदार और दयालु होती है। तो किस आधार पर ये चीजें प्राप्त की जा सकती हैं और बहाली के इस स्तर तक पहुँचा जा सकता है? यह लोगों के भ्रष्ट स्वभाव बदलने के आधार पर, लोगों द्वारा सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकार कर अपने भ्रष्ट स्वभाव त्यागने पर प्राप्त होता है। लेकिन अगर तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव बदले या त्यागे नहीं जाते, तो भले ही तुम्हारी मानवता अपेक्षाकृत अच्छी हो और तुममें कुछ जमीर और विवेक हों, सत्य को अपना जीवन बनाए बिना तुम्हारे जमीर और विवेक प्रभार ग्रहण नहीं कर सकते और तुम अभी भी अक्सर अपने भ्रष्ट स्वभावों द्वारा ऐसी चीजें करने के लिए प्रभावित किए जाओगे, उकसाए और भड़काए जाओगे जो तुम्हारे जमीर और विवेक के विरुद्ध जाती हैं। इसलिए, अगर तुममें न्याय की थोड़ी-सी भावना हो तो भी वह सिर्फ एक प्रकार की इच्छा और संकल्प मात्र होता है। तुममें सिर्फ थोड़ी-सी दयालु मानवता है, लेकिन चूँकि तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारा जीवन हैं और तुम्हें भीतर से नियंत्रित करते हैं, इसलिए तुम सिर्फ बुराई नहीं करना और दूसरों को धोखा देने और नुकसान पहुँचाने की पहल नहीं करना ही हासिल कर सकते हो, जो पहले ही काफी अच्छा है। दूसरे शब्दों में, तुम सिर्फ यह सुनिश्चित कर सकते हो कि जब तुम्हारे निजी हित प्रभावित न हों तब तुम बुराई न करो, और जैसे ही तुम्हारे निजी हित प्रभावित होंगे, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारे जमीर और विवेक को दबाने के लिए उभर आएँगे, जिससे तुम्हें अपने हितों और अधिकारों की रक्षा करनी पड़ेगी, और इस प्रकार तुम्हारे लिए जमीर और विवेक को प्रभार लेने देना बहुत मुश्किल हो जाएगा। ऐसा क्यों है? इसलिए कि सत्य तुम्हारा जीवन नहीं है; बल्कि शैतान के भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारा जीवन हैं। इसलिए, तुम अपनी मानवता वाला थोड़ा-सा जमीर या विवेक तभी प्रकट कर सकते हो जब तुम्हारे हितों को कोई नुकसान नहीं पहुँच रहा हो। जैसे ही तुम्हारे हितों को नुकसान पहुँचता है या खतरा होता है, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव तुरंत तुम्हारे जमीर और विवेक को दबाने के लिए उभर आएँगे, जिससे तुम वे चीजें करोगे जो जमीर और विवेक के विरुद्ध होती हैं—अर्थात् वे चीजें जो नैतिकता और नैतिक न्याय के विरुद्ध होती हैं—यहाँ तक कि तुम कुछ भी करने में सक्षम हो सकते हो। बेशक, यह कहा जा सकता है कि ये सभी क्रियाकलाप सत्य के विरुद्ध होते हैं; यह अपरिहार्य है। इसलिए व्यक्ति जिसे जीता है वह उसकी मानवता की स्थितियों पर नहीं, बल्कि उसके आंतरिक जीवन सार पर निर्भर करता है। अगर वास्तव में सत्य उसका जीवन होता है, तो उसके जीवन में सत्य, परमेश्वर के वचन और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग निहित होता है। तब सामान्य मानवता वाले उसके जमीर और विवेक इष्टतम स्थिति में रहेंगे और कार्य करने में सक्षम होंगे, जिससे वह सत्य का अभ्यास और सिद्धांतों के अनुसार क्रियाकलाप कर सकेगा। लेकिन अगर व्यक्ति का जीवन सार उसके भ्रष्ट स्वभाव हैं, तो उसके जमीर और विवेक निम्नतम मानक तक घट जाते हैं, अर्थात् सिर्फ इतना है कि वे मानवता की निम्नतम सीमा से नीचे नहीं आते। निम्नतम सीमा क्या है? “अगर मुझ पर आक्रमण न किया जाए तो मैं आक्रमण नहीं करूँगा; अगर मुझ पर आक्रमण किया जाता है तो मैं निश्चित रूप से पलटवार करूँगा”; “दाँत के बदले दाँत, आँख के बदले आँख”; “शठे शाठ्यं समाचरेत्।” और क्या? “नकली सज्जन बनने से बेहतर है सच्चा खलनायक बनना।” यह कई गैर-विश्वासियों के आचरण की निम्नतम सीमा है। एक गैर-विश्वासी के लिए इस तरह से आचरण कर पाना पहले ही काफी अच्छा है। इससे तुम लोगों ने क्या समझा है? अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते तो तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव त्यागे नहीं जाएँगे, तुम्हारा जीवन सार नहीं बदलेगा, और अगर तुम्हारा जीवन सार नहीं बदलता तो सामान्य मानवता वाले तुम्हारे जमीर और विवेक सार में बहाल नहीं होंगे और रूप में सिर्फ मानवता की निम्नतम सीमा से नीचे नहीं जाएँगे। लेकिन अगर तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव त्याग दिए गए हैं और तुम्हारे जीवन का सार बदल गया है, तो तुम्हारी सामान्य मानवता वाले जमीर और विवेक एक निश्चित सीमा तक इष्टतम और उन्नत हो जाएँगें। यहाँ “इष्टतम” और “उन्नत” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि तुम्हारे जमीर और विवेक सामान्य रूप से कार्य करने लगते हैं—ऐसा नहीं होता कि वे सिर्फ निम्नतम सीमा पार नहीं करते, बल्कि वे सत्य का अभ्यास करने के मानक तक पहुँच जाते हैं। गैर-विश्वासियों के बीच तथाकथित अच्छे लोग बस थोड़ा जमीर और विवेक प्रदर्शित करते हैं, स्पष्ट रूप से बुरे क्रियाकलाप नहीं करते और नैतिक न्याय की निम्नतम सीमा पार नहीं करते। यह पहले ही काफी अच्छा है; वे बहुत अच्छे लोग माने जा सकते हैं। लेकिन जिन लोगों का जीवन सत्य है, वे इससे भी आगे जाते हैं; उनमें सही-गलत का भेद पहचानने की योग्यता होती है और वे विभिन्न प्रकार का सही-गलत पहचान सकते हैं और विभिन्न प्रकार के लोगों की पहचान कर सकते हैं। तो उनका आधार क्या होता है? उनका आधार सत्य सिद्धांत होते हैं। उनके पास सत्य सिद्धांत होते हैं—क्या यह जमीर और विवेक के मानक से कहीं ज्यादा ऊँचा नहीं है? (हाँ, है।) चूँकि वे सत्य समझते हैं और सत्य उनका जीवन होता है, और जिस आधार से वे विभिन्न मामलों की पहचान करते हैं वह साधारण भ्रष्ट लोगों के मानक से कहीं ज्यादा ऊँचा होता है, इसलिए जटिल मामलों का सामना करते समय वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते रहेंगे। सत्य सिद्धांतों को समझने के बाद उनका मन भ्रमित नहीं होगा और उनकी सोच स्पष्ट होगी। स्पष्ट का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है तर्कसंगत। उनके सामने आने वाले मामले कितने भी जटिल हों, अभ्यास के लिए उनके हृदय में सत्य सिद्धांत अंकित होते हैं; उन्होंने सटीकता और गहनता से सत्य समझ लिया होता है और वह पहले ही उनका जीवन बन चुका होता है। तमाम तरह के जटिल लोगों, घटनाओं और चीजों से सामना होने पर उनके पास एक बुनियादी मानदंड होता है, जो सत्य सिद्धांतों का पालन करना है। ये सत्य सिद्धांत उन्हें विभिन्न जटिल चीजों के सार की असलियत जानने और समस्या की वास्तविकता समझने में सक्षम बनाते हैं; वे ये चीजें पहचान सकते हैं। यही उनकी तर्कसंगतता है। क्या यह तर्कसंगतता सामान्य लोगों की तर्कसंगतता से ऊँची नहीं है? (हाँ।) तो इस स्तर पर पहुँचकर क्या उनकी तर्कसंगतता उन्नत और इष्टतम नहीं हो गई है? (हाँ।) परमेश्वर इसी तरह की सामान्य मानवता चाहता है; परमेश्वर भ्रमित लोग नहीं चाहता। कुछ लोग कहते हैं, “मैं निष्कपट और कायर हूँ, और मुझे हमेशा धौंस दी जाती है,” जबकि दूसरे लोग कहते हैं, “मेरी काबिलियत वास्तव में खराब है और मुझमें कोई योग्यता या प्रतिभा नहीं है।” परमेश्वर कहता है कि ये चीजें महत्वपूर्ण नहीं हैं, महत्वपूर्ण यह है कि क्या तुम सत्य सिद्धांत समझते हो। अगर तुम सत्य सिद्धांत समझते हो और एक ईमानदार व्यक्ति होने के मानकों और सिद्धांतों के अनुसार बोलते हो और क्रियाकलाप करते हो, तो भले ही गैर-विश्वासी तुम्हें मूर्ख कहकर तुम्हारा मजाक उड़ाएँ, यह सच्ची मूर्खता नहीं है। क्यों? वह इसलिए कि एक बार जब तुम सत्य सिद्धांतों को समझ लेते हो, तो तुम्हारा विवेक सुदृढ़, इष्टतम, साधारण लोगों से ऊँचा हो जाता है। जब तुम किसी भी मामले का सामना करते हो, तब तुम भ्रमित नहीं होते; तुम्हारे पास उसे सँभालने के आधार के रूप में सही सिद्धांत, दृष्टिकोण और लक्ष्य होते हैं। तुम्हारा मन साफ और तुम्हारे विचार स्पष्ट होते हैं। तुम वे सिद्धांत और मानक पूरे करने का प्रयास करते हुए क्रियाकलाप करते हो, और तुम निश्चित रूप से परमेश्वर के इरादों के विरुद्ध नहीं जाते; तुम निश्चित रूप से उसके इरादों के अनुरूप क्रियाकलाप करते हो। तुम्हारे द्वारा मामला सँभाल लेने के बाद, चाहे उस समय लोगों ने उसकी असलियत जानी हो या नहीं, एक बार जब पर्याप्त समय बीत जाता है और लोग समझ जाते हैं, तो वे सब पूरी तरह से आश्वस्त हो जाएँगे और जान जाएँगे कि तुमने उसे जिस तरह से सँभाला, वह अत्यंत लाभकारी था। तो ऐसा प्रभाव प्राप्त करने का मूल कारण क्या है? वह यह है कि तुम्हारे पास तुम्हारे जीवन के रूप में सत्य है। तभी तुम्हारी तर्कशक्ति तुम्हें किसी व्यक्ति और वस्तु के बारे में सटीक निर्णय लेने, उसका सटीक चरित्र-चित्रण करने और उसके बारे में सटीक निष्कर्ष निकालने में सक्षम बना सकती है, साथ ही अभ्यास के सटीक सिद्धांतों और बेशक, लोगों की सहायता और मार्गदर्शन के लिए सटीक सिद्धांतों को अपनाने में भी तुम्हें सक्षम बना सकती है। तब क्या तुम्हारी तर्कशक्ति उन्नत और इष्टतम नहीं हो जाती? सामान्य मानवता ऐसी तर्कशक्ति कहाँ से प्राप्त करती है? (सत्य से।) परमेश्वर वही मानवता चाहता है, जिन लोगों का जीवन सत्य है। शायद तुम मूर्ख, निष्कपट, कायर और अक्षम हो, हो सकता है कि तुम अलोकप्रिय हो और दुनिया में लोगों द्वारा धमकाए जाते हो, लेकिन इनमें से कोई भी चीज मायने नहीं रखती; यह वह चीज नहीं है जिसे परमेश्वर देखता है। शायद तुम दुनिया में बहुत सक्षम हो, लोगों को पढ़ने, रुझानों का भेद पहचानने और हवा के अनुसार अपनी पाल व्यवस्थित करने में विशेष रूप से कुशल हो, लेकिन यह भी बेकार है; यह तुम्हारी तर्कशक्ति सुदृढ़ होने के बराबर नहीं है। जब तुम सत्य स्वीकार लेते हो, सत्य समझ लेते हो और सभी सत्य ग्रहण कर लेते हो, उनका अभ्यास कर लेते हो और उनका अनुभव प्राप्त कर लेते हो और सत्य तुम्हारा जीवन बन जाता है, तभी विभिन्न मामलों के संबंध में तुम्हारी पहचान, निर्णय और फैसला लेना सटीक हो सकता है।
जमीर के बारे में—हमने पहले क्या कहा था कि वह किसे संदर्भित करता है? वह सामान्य मानवता वाली न्याय और दयालुता की भावना को संदर्भित करता है। व्यक्ति को जमीर वाला कहलाने के लिए ईमानदार और दयालु होना चाहिए। तो, परमेश्वर में विश्वास करने लगने के बाद सामान्य मानवता वाली ईमानदारी और दयालुता को कैसे इष्टतम और उन्नत किया जा सकता है? उसे सत्य समझने की नींव पर निर्मित किया जाना चाहिए। अर्थात्, सत्य समझने के बाद जिस मानदंड के अनुसार वह आचरण और क्रियाकलाप करता है, वह एक सकारात्मक लक्ष्य होगा, जिसका उसके लिए और अन्य सभी के लिए सकारात्मक प्रभाव, मूल्य और महत्व होगा। एक बार जब वह सत्य समझ लेता है, तब वह हर चीज को परमेश्वर द्वारा सिखाए गए सत्य सिद्धांतों के आधार पर देखेगा और सँभालेगा। दूसरों की नजर में ऐसा व्यक्ति काफी ईमानदार होता है। ईमानदारी का क्या अर्थ है? ईमानदार होने का अर्थ है, दाएँ-बाएँ नहीं भटकना, उतावलेपन, भावनाओं, निजी हितों या रिश्तों, या व्यक्तिगत इरादों की ओर न भटकना, बल्कि सबसे सही, सबसे उचित लक्ष्य की ओर अभ्यास करना, जो लोगों के आदर, सराहना और उच्च सम्मान के सबसे योग्य हो—या, यह कहा जा सकता है, उस लक्ष्य की ओर अभ्यास करना जिसे परमेश्वर अच्छा मानता है और स्वीकृति देता है। क्या यह उस “ईमानदारी” से श्रेष्ठ नहीं है जो साधारण भ्रष्ट मनुष्य की नजर में होती है? (हाँ, है।) इस ईमानदारी का क्या अर्थ है? यह पूरी तरह से सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है, पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों पर आधारित है और जमीर की नींव पर निर्मित है। जब व्यक्ति सत्य समझता है तब उसके पास समस्याएँ हल करने और मामले सँभालने के तरीके और सिद्धांत होते हैं, इसलिए क्या उस व्यक्ति का जमीर पूर्णतः पूर्ण नहीं है? क्या उसे इष्टतम नहीं किया गया है? (हाँ।) तो क्या एक सच्चे व्यक्ति, एक सच्चे सृजित प्राणी में ऐसा जमीर नहीं होना चाहिए? क्या उसमें इस अर्थ में ईमानदारी नहीं होनी चाहिए? (हाँ।) एक सच्चे व्यक्ति में इस अर्थ में ईमानदारी होनी चाहिए जो सत्य के अनुरूप हो, न कि उस अर्थ में जिसके बारे में लोग बोलते हैं—दृढ़तापूर्वक ईमानदार और निष्पक्ष, खुले दिल वाला और निष्कपट, या “सच्चा व्यक्ति कुछ नहीं छिपाता और हमेशा अपने क्रियाकलापों पर अडिग रहता है।” यह उतावलापन है, इसमें कोई वास्तविक विषयवस्तु नहीं है और यह पूरी तरह से लोगों द्वारा किया जाने वाला दिखावा है। ईमानदारी का आधार सत्य होता है; इसके अभ्यास वास्तव में जिए गए होते हैं। इसका अर्थ है कि सामान्य मानवता वाले व्यक्ति का स्रोत और प्रारंभिक बिंदु सत्य होता है और वह परमेश्वर के वचनों के अनुसार विभिन्न मामलों के साथ पेश आने और उन्हें सँभालने में सक्षम होता है—इसे ईमानदारी कहते हैं। दयालुता के बारे में तो कहने की और भी ज्यादा जरूरत नहीं है; कम से कम, यह जमीर और विवेक के मानक से बढ़कर है। दयालुता में पाखंड नहीं होता, क्रूरता तो बिल्कुल भी नहीं होती। यह पूरी तरह से उन तरीकों के आधार पर क्रियाकलाप करना है जो लोगों के लिए लाभदायक और उन्नयन करने वाले होते हैं और साथ ही साथ परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप होते हैं; यह पूरी तरह से परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने, परमेश्वर को संतुष्ट करने और परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने के लक्ष्य और मानदंड के आधार पर क्रियाकलाप करना है। यह विश्व में, पूरे ब्रह्मांड में सबसे दयालु और सबसे अद्भुत चीज है। जिस व्यक्ति का जीवन परमेश्वर के वचन या सत्य होता है उसका हृदय निश्चित रूप से सबसे दयालु होता है क्योंकि वह सत्य स्वीकारने में सक्षम होता है, और यह परमेश्वर द्वारा लोगों से अपेक्षित मानक पूरी तरह से पूरा करता है। चूँकि उसमें इस तरह की मानवता होती है, इसलिए यह कहना उचित है कि वह ईमानदार है, और यह कहना भी उचित है कि वह दयालु है। ऐसा इसलिए है क्योंकि वह सत्य स्वीकारने और उसका अभ्यास करने में सक्षम होता है, और वह अपने कर्तव्य के प्रदर्शन में अपनी भावनाओं के अनुसार नहीं चलता या महत्वाकांक्षाएँ या इच्छाएँ नहीं रखता और वह अपने भीतर परंपरागत संस्कृति के विष नहीं पालता, और नैतिकता और मानवता को मापने का उसका मानक शैतान के किसी फलसफे, विचार या दृष्टिकोण से दूषित नहीं होता—वह पूरी तरह से सत्य के अनुरूप होता है। तो मुझे बताओ, क्या ऐसे जमीर और विवेक से युक्त मानवता पहले ही बहुत इष्टतम नहीं होती? (हाँ।) चूँकि इस तरह के व्यक्ति में सत्य होता है और चूँकि जीवन का जो सार वह जीता है वह सत्य होता है, इसलिए उसकी मानवता जिसमें ऐसा जीवन सार होता है, पूर्ण होती है। अगर तुम लोगों को “पूर्ण” शब्द सुनना पसंद नहीं है तो मैं इसे “इष्टतम” भी कह सकता हूँ। कम से कम, परमेश्वर की नजर में वह इष्टतम होता है और परमेश्वर उससे प्रेम करता है। परमेश्वर लोगों में अपने वचन और सत्य क्रियान्वित करने के लिए उनमें मौजूद जमीर की थोड़ी-सी जागरूकता, विवेक और शर्म की भावना का इस्तेमाल करता है। जब परमेश्वर के वचनों का सत्य तुममें क्रियान्वित किया जाता है, तो न सिर्फ तुम्हारे जमीर और विवेक कमजोर नहीं होते या छिपे नहीं रहते, बल्कि वे ज्यादा सामान्य और इष्टतम हो जाते हैं। परमेश्वर ऐसा ही मनुष्य चाहता है। चलो इसे पूर्ण न कहें, इष्टतम कहें। पूर्ण क्यों न कहें? अगर मैं पूर्ण कहूँ, तो आध्यात्मिक समझ नहीं रखने वाले कुछ लोग कहेंगे, “क्या तुमने यह नहीं कहा था कि पूर्ण लोग मत बनो?” इसलिए मुझे इस शब्द से बचना होगा, कहीं कुछ लोग गलत न समझ लें। दरअसल, अगर कोई चीज परमेश्वर की नजर में इष्टतम है तो सृजित मानवजाति के बीच उसे पूर्ण कहा जा सकता है। यह पूर्णता लोगों की कल्पनाओं में व्याप्त पूर्णता नहीं है, बल्कि एक सुंदर और अच्छी चीज है, न्याय की शक्ति है, और एक सकारात्मक चीज भी है जो लोगों की प्रशंसा, लालसा, स्नेह, सम्मान और सँजोए जाने के योग्य है। इसलिए, अगर तुम चाहते हो कि तुम्हारा जमीर तुम्हारे आचरण में मानवता की निम्नतम सीमा नहीं लाँघने पर ही न अटक जाए, बल्कि अपने जमीर को और ज्यादा संवेदनशील, और ज्यादा जागरूक बनाना चाहते हो, और यह चाहते हो कि तुम्हारा विवेक परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करे, तो तुम्हारे पास सिर्फ एक ही मार्ग है। यह मार्ग मानवता की विभिन्न कमियों और दोषों पर काबू पाना नहीं है, बल्कि सत्य का अनुसरण करना, परमेश्वर द्वारा लोगों को सिखाए गए विभिन्न सत्यों में प्रयास करना और यह समझना है कि विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों के संबंध में तुम्हारे लिए परमेश्वर के अपेक्षित मानक क्या हैं, और तुम्हें इन लोगों, घटनाओं और चीजों को कैसे देखना चाहिए, इनके साथ कैसे पेश आना चाहिए और इन्हें कैसे सँभालना चाहिए। परमेश्वर के पास इन सभी पहलुओं के लिए अपेक्षित सिद्धांत और मानक हैं। तुम्हारा क्या कार्य है? वह है इन मानकों के अनुसार इस दिशा, इस लक्ष्य की ओर अभ्यास करना। पहले, खोजो और समझो कि सत्य का अभ्यास करने के मानक क्या हैं। इसके बाद, परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मानकों के अनुसार खुद से अपेक्षाएँ करो और साथ ही, अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में उन विभिन्न विचारों, दृष्टिकोणों, नियमों, विनियमों आदि को त्याग दो, जो परमेश्वर के वचनों या सत्य के अनुरूप नहीं हैं। फिर, परमेश्वर के वचनों को धीरे-धीरे अपने अभ्यास के सिद्धांत बनने दो। त्याग देना सीखते समय यह मत भूलो : त्याग देने का उद्देश्य तुम्हें एक खाली हृदय वाला व्यक्ति बनाना नहीं है; परमेश्वर चाहता है कि तुम्हारे जीवन में सामग्री हो। यह सामग्री किसे संदर्भित करती है? यह विभिन्न मामलों के लिए परमेश्वर के अपेक्षित सिद्धांतों को संदर्भित करती है। निस्संदेह, परमेश्वर नहीं चाहता कि लोग अभ्यास के विभिन्न सिद्धांतों को खोखले सिद्धांतों में बदल दें, उनके बारे में सिर्फ बात करें लेकिन उन्हें अभ्यास में न लाएँ। इसके बजाय, वह आशा करता है कि लोग इन सत्य सिद्धांतों को दृढ़ता से अपने जीवन का हिस्सा बना सकें और परमेश्वर के वचनों को अपने वास्तविक जीवन में उतार सकें। उदाहरण के लिए, कर्तव्य निभाने को लें—इस संबंध में परमेश्वर लोगों से किस मानक की अपेक्षा करता है? इस मानक की कि वे व्यावहारिक तरीके से और अपने उचित स्थान के अनुसार आचरण करें। अर्थात् अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हें व्यावहारिक होना चाहिए, लापरवाह या सतही नहीं होना चाहिए, बेमन से या दूसरों को दिखाने के लिए काम नहीं करना चाहिए और दिखावा भी नहीं करना चाहिए; बेशक, इससे भी अहम यह है कि तुम्हें सत्य सिद्धांतों के अनुसार क्रियाकलाप करने चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के बताए तरीके से क्रियाकलाप करने चाहिए, और तुम्हें वे चीजें करने से बचना चाहिए जिन्हें करने से परमेश्वर मना करता है। अगर तुम वे चीजें करने से पूरी तरह नहीं बच सकते तो उन्हें कम करना शुरू करो, अपनी इच्छाओं और प्राथमिकताओं के खिलाफ विद्रोह करो, और धीरे-धीरे उन्हें करना पूरी तरह से छोड़ दो—क्या यह हासिल करना आसान नहीं है? (हाँ, है।) उद्धार का अनुसरण करने की प्रक्रिया में तुम्हें परमेश्वर के वचनों द्वारा उजागर किए गए विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों का समाधान कर उन्हें त्याग देना चाहिए। बेशक, इन भ्रष्ट स्वभावों को त्याग देना अंतिम लक्ष्य नहीं है। अंतिम लक्ष्य, इन भ्रष्ट स्वभावों को त्याग देने की पूर्व शर्त पर, परमेश्वर के वचन और परमेश्वर की अपेक्षाएँ स्वीकारना है। उन्हें स्वीकारना तुम्हारी मनोदशा बदलने की खातिर नहीं है, न ही यह तुम्हें गरिमा के साथ जीने में सक्षम बनाने के लिए है; यह तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव त्याग देने की खातिर है। यह अंतिम लक्ष्य है, क्योंकि अपने भ्रष्ट स्वभाव त्याग देने के बाद ही तुम उद्धार प्राप्त कर सकते हो।
लोगों के उद्धार पाने में सबसे बड़ी बाधा उनके भ्रष्ट स्वभाव हैं। तुम्हारी कम शिक्षा, बुढ़ापा या बोलने का भद्दा तरीका और खुद को अभिव्यक्त करने की क्षमता का अभाव—इनमें से कोई भी उद्धार पाने में सबसे बड़ी बाधा नहीं है। अपने कर्तव्य में तुम्हारा खराब पेशेवर कौशल और उसे ठीक से न समझ पाना—यह भी तुम्हारे उद्धार में सबसे बड़ी बाधा नहीं है। तो फिर उद्धार पाने में सबसे बड़ी बाधा क्या है? वह है तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव। बेशक, परमेश्वर के वचनों में उजागर किए गए मनुष्य के विभिन्न भ्रष्ट स्वभाव हल करना लोगों के लिए आसान नहीं है। ऐसा इसलिए नहीं है कि लोग अपने भ्रष्ट स्वभाव त्यागने के लिए तैयार नहीं हैं, न ही इसलिए कि उनके विचार और दृष्टिकोण पुराने हो गए हैं, और बेशक, यह उनकी मानवता में दोषों या खामियों के कारण तो और भी नहीं है, न ही यह इसलिए है कि लोग सुन्न हैं, प्रतिक्रिया करने में धीमे हैं, इत्यादि—इनमें से कोई भी समस्या की जड़ नहीं है। तो फिर ऐसा क्यों है? ऐसा सिर्फ इसलिए है क्योंकि लोगों के भ्रष्ट स्वभाव उनके दिलों में जड़ें जमा चुके हैं, लोग उन्हें सिर्फ इसलिए नहीं त्याग सकते कि वे उन्हें त्याग देना चाहते हैं, और इसलिए उनके भ्रष्ट स्वभाव अक्सर उनके द्वारा अपने कर्तव्य निभाने के दौरान विघ्न और परेशानी पैदा करने के लिए बाहर निकल आते हैं। उदाहरण के लिए, मान लो तुम एक कलीसिया के अगुआ हो और तुमने कुछ गलत किया और तुम्हारी काट-छाँट की गई। ऐसे में, तुम्हें इसे स्वीकारना चाहिए, मानना चाहिए कि तुमने कुछ गलत किया है, पश्चात्ताप करने के लिए तैयार रहना चाहिए और उस गलत नजरिये को उलटकर सत्य सिद्धांतों के अनुसार क्रियाकलाप करने चाहिए। यह एक बहुत ही आसान बात है, लेकिन तुम इसे नहीं कर सकते। तुम सोचते हो, “क्या मेरी इस तरह काट-छाँट इसलिए की गई कि मैं उन्हें अप्रिय लगता हूँ और वे मुझे बर्खास्त करना चाहते हैं?” तुम्हारे दिल में शिकायतें और गलतफहमियाँ पैदा होती हैं, यहाँ तक कि तुम परमेश्वर से बहस करने की भी कोशिश करते हो, “चूँकि मैं तुम्हें अप्रिय लगता हूँ और तुम मुझे बर्खास्त कर हटा देना चाहते हो, तो ठीक है, चलो इसे स्पष्ट कर लेते हैं। मैंने अठारह साल की उम्र में परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया, परिवार और करियर त्यागकर, शादी और परिवार छोड़कर मैं इन तमाम सालों में एक अगुआ रहा हूँ—इनका हिसाब कैसे किया जाएगा?” जितना ज्यादा तुम हिसाब लगाते हो, उतने ही ज्यादा परेशान होते हो। क्या यह सिर्फ त्याग देने में असमर्थ होना है? नहीं। तुम इन चीजों को त्याग क्यों नहीं सकते? यहाँ एक मूल समस्या है। जब तुम्हारी काट-छाँट की जाती है, तब तुम अन्याय महसूस करते हो, शिकायत करते हो और अपने दिल में अवज्ञाकारी महसूस करते हो, और तुम बहस करने और खुद को सही ठहराने की कोशिश भी करते हो, यहाँ तक कि दूसरों से अपना पक्ष लेने के लिए कहते हो। तुम ऐसा क्यों करते हो? (क्योंकि हमारे अंदर भ्रष्ट स्वभाव हैं।) इसका सिर्फ एक ही कारण है, एक ही मूल कारण : तुम्हारे अंदर भ्रष्ट स्वभाव हैं जिनका समाधान नहीं हुआ है। तुम में से कुछ लोग कहेंगे, “क्या ऐसा इसलिए है कि मेरी जन्मजात काबिलियत और क्षमता अपर्याप्त हैं और मैं काम नहीं कर सकता?” हो सकता है कि तुम में से कुछ के लिए यह एक कारण हो; खराब काबिलियत के कारण तुम काम के लिए अक्षम हो, और तुम सत्य भी नहीं समझते, इसलिए तुम ऐसे काम करते हो जिनसे विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न होती हैं। क्या यह वाकई सिर्फ इसलिए है कि तुम्हारी काबिलियत खराब है? यह सिर्फ एक पहलू है। मूल समस्या यह है कि तुम्हारे जमीर के साथ कोई समस्या है। तुम्हारे जमीर के साथ यह समस्या सीधे तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों से संबंधित है। तुमने ऐसी चीजें कीं जिनसे विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न हुईं और तुम्हारी काट-छाँट की गई—तुम्हें इसे किस तरीके से लेना चाहिए? काम के लिए अपने अक्षम होने के मामले को तुम किस तरीके से लेते हो? अगर तुम सत्य का अभ्यास कर सको तो ये समस्याएँ नहीं हैं और तुम इन्हें सही तरीके से ले सकते हो। लेकिन ज्यादातर लोग इन चीजों का सामना करने पर कैसे व्यवहार करते हैं? वे बहस करने की कोशिश करते हैं, शिकायत करते हैं, नकारात्मक हो जाते हैं, यहाँ तक कि उतावले होकर बोल भी देते हैं, “क्या ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं है कि तुम्हें लगता है कि मेरी काबिलियत खराब है और मैं सक्षम नहीं हूँ? क्या ऐसा नहीं है कि परमेश्वर ने ही मुझे यह काबिलियत नहीं दी? फिर भी तुम शिकायत करते हो कि मैं काम नहीं कर सकता! अगर मैं तुम्हें अप्रिय लगता हूँ तो तुम्हें पहले ही बता देना चाहिए था!” अगर उनकी काट-छाँट करते समय कुछ कठोर शब्द इस्तेमाल कर दिए जाएँ तो वे सोचते हैं, “क्या आशीष पाने की मेरी उम्मीद खत्म हो गई है? इस जीवन में तो मेरी हैसियत खतरे में है ही, शायद आने वाले संसार में भी मुझे कोई उम्मीद नहीं है।” क्या उनका सत्य खोजने का कोई इरादा है? क्या वे अपने हृदय में समर्पण कर सकते हैं? उनके लिए समर्पण करना आसान नहीं है। अंतिम विश्लेषण में, ये तमाम अभिव्यक्तियाँ इसलिए हैं क्योंकि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव हैं। तुम्हारी काबिलियत खराब है और तुम काम के लिए अक्षम हो—यह मानवता की प्राकृतिक खामियों या दोषों में से सिर्फ एक है; यह कोई समस्या नहीं है। अगर तुम्हारी प्राकृतिक खामियाँ और दोष बहुत ज्यादा भी हों और तुम कार्य के लिए अक्षम भी हो तो भी परमेश्वर को तुमसे जरा भी अरुचि या घृणा नहीं है। लेकिन, कार्य के लिए अक्षम होने के अलावा तुम अपनी समस्याएँ भी नहीं पहचानते, शिकायत भी करते हो, प्रतिरोधी महसूस करते हो, और अंत में नकारात्मक हो जाते हो और अपने कर्तव्य त्याग देते हो—यह क्या है? यह भ्रष्ट स्वभाव है। तुम्हें इसी का समाधान करने की आवश्यकता है। ठीक है? (हाँ।) अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान हो जाने के बाद तुम उस कार्य में उपयोग के लिए योग्य हो जाओगे जिसके लिए तुम्हारी काबिलियत और तुम्हारी मानवता की स्थितियाँ सक्षम हैं। लेकिन अगर तुम अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान नहीं करते और सत्य के अनुसार अभ्यास नहीं कर सकते, काट-छाँट के प्रति समर्पण नहीं कर सकते या उजागर किए जाने के लिए तैयार नहीं हो सकते, तो चाहे तुम्हारी काबिलियत कितनी भी अच्छी हो, तुम्हारी मानवता की स्थितियाँ कितनी भी श्रेष्ठ हों, तुम उपयोग के योग्य नहीं होगे। समझे? (समझा।) मुझे बताओ, अभी हमने जिस पर संगति की, उसका क्या आशय था? (परमेश्वर में विश्वास करने में सबसे महत्वपूर्ण बात अपने भ्रष्ट स्वभाव जानना है। जोर अपने भ्रष्ट स्वभाव सुलझाने पर होना चाहिए, न कि अपनी मानवता के बाहरी दोष या कमियाँ सुलझाने पर। जब हम स्थितियों का सामना करते हैं तो हमेशा बाहरी मामलों में उलझे रहते हैं, मूलभूत रूप से जरूरी समस्याएँ हल करने में असमर्थ रहते हैं और काट-छाँट के प्रति समर्पण या परमेश्वर द्वारा स्थापित परिवेशों के प्रति समर्पण हासिल करने में भी असमर्थ रहते हैं।) अगर तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों का समाधान हो जाता है, और जिन मामलों का तुम सामना करते हो उनमें तुम सत्य सिद्धांतों को समझ सकते हो, और तुम जानते हो कि सिद्धांतों के अनुसार उन्हें कैसे सँभालना है, तो तुम अपना कर्तव्य निभाने में उपयोग के लिए योग्य होगे। चाहे तुम्हारी काबिलियत उच्च हो या निम्न और चाहे तुममें कितनी भी प्रतिभा हो, अगर तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों का समाधान नहीं होता तो चाहे तुम्हें किसी भी पद पर रखा जाए, तुम उपयोग के लिए योग्य नहीं होगे। इसके विपरीत, अगर तुम्हारी काबिलियत और क्षमताएँ सीमित हैं, लेकिन तुम विभिन्न सत्य सिद्धांत समझते हो, जिनमें वे सत्य सिद्धांत शामिल हैं जिन्हें तुम्हें अपने कार्य के दायरे में समझना-बूझना चाहिए, और तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों का समाधान हो गया है, तो तुम उपयोग के लिए योग्य व्यक्ति होगे। समझ गए? इन वचनों को पूरी तरह से समझने के लिए हो सकता है तुम लोगों को कुछ समय तक इन्हें आत्मसात करना पड़े।
वर्तमान में ज्यादातर लोग अभी भी अपना कर्तव्य निभाने में गुणों पर निर्भर रहते हैं और विनियमों का पालन करते हैं। जब तक वे पाप या बुराई नहीं करते, तब तक वे मानते हैं कि उन्होंने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया है। अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करने के लिए वे सत्य का अनुसरण और आत्मचिंतन करने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते। ज्यादातर लोग बस नजरियों और व्यवहारों में उलझे और धँसे रहते हैं, लेकिन सत्य खोजने और सिद्धांतों के अनुसार क्रियाकलाप करने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते। वे केवल वही करने से संतुष्ट हैं जो वे कर सकते हैं और कोशिश करते हैं कि विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न नहीं हों या चीजों को नुकसान नहीं पहुँचे, और बस हो गया। ज्यादातर लोगों ने अभी तक काट-छाँट या उजागर किए जाने का अनुभव नहीं किया है, न ही ताड़ना और न्याय का अनुभव किया है, कठोर परीक्षणों के चरण का तो बिल्कुल भी अनुभव नहीं किया है, इसलिए ज्यादातर लोगों के भ्रष्ट स्वभाव बदलने शुरू नहीं हुए हैं। यह अच्छी खबर नहीं है, लेकिन यह एक तथ्य है। मैं एक उदाहरण देता हूँ, और फिर तुम लोग समझ जाओगे कि क्या हो रहा है। देखो, अब कर्तव्य निभाने वाले ज्यादातर लोग साधारण अनुयायी हैं; उनके पास रुतबा नहीं है और वे उस मुकाम तक नहीं पहुँचे हैं जहाँ वे रुतबे और ताकत के साथ कार्य की कोई मद पूरी कर रहे हों। ज्यादातर लोग जिस मूल सिद्धांत का पालन करते हैं, वह है आज्ञाकारी और समर्पित होना। वे सोचते हैं कि हर हाल में अगुआ ऊपरवाले की कार्य-व्यवस्थाओं के अनुसार संगति कर रहे हैं, इसलिए वे बस वही करते हैं जो अगुआ कहते हैं, उसी तरह से करते हैं जिस तरह से अगुआ उनसे करने को कहते हैं, और सोचते हैं कि सही या गलत का भेद पहचानने या यह जाँचने की कोई जरूरत नहीं है कि यह सत्य के अनुरूप है या नहीं, और जब तक वे गलतियाँ नहीं करते, तब तक सब ठीक है। क्या यही सत्य सिद्धांतों का जीवन के रूप में होना है? (नहीं।) तो किन परिस्थितियों में यह पता लगाया जा सकता है कि सत्य तुम्हारा जीवन है या नहीं? यह तब होता है जब तुम्हें कलीसिया का कार्य करने के लिए एक अगुआ के रूप में चुना जाता है; यह लोगों को सबसे ज्यादा बेनकाब करता है। मामले सँभालने में तुम्हारे पास सिद्धांत हैं या नहीं और तुम अपने भ्रष्ट स्वभावों को कितना प्रकट करते हो, यह साबित कर सकता है कि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है या नहीं, और क्या तुम अगुआ या कार्यकर्ता बनने के योग्य हो। अगर तुम भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हो तो तुम्हें इसे कैसे लेना चाहिए? तुम्हें अपने बारे में खुलकर बताते हुए सत्य पर संगति करनी चाहिए या खुद को छिपाना और छद्मवेश धारण करना चाहिए? यही वह समय भी होता है जब लोग सबसे ज्यादा बेनकाब होते हैं। कलीसिया में ज्यादातर लोग चीजों को सत्य सिद्धांतों के अनुसार देखने में असमर्थ होते हैं; इसके बजाय, वे इन चीजों को अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार और अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर देखते हैं और उन पर टिप्पणी करते हैं। ज्यादातर लोग सोचते हैं, “जब तक मैं अपने कर्तव्य में कोई बड़ी गलती नहीं करता और काम इसी तरह आगे बढ़ाता रहता हूँ तब तक यह काफी है। अगर मैं कोई बड़ी गलती करता हूँ और मुझे आत्म-चिंतन के लिए अलग-थलग कर दिया जाता है या किसी ब समूह में भेज दिया जाता है, तो यह बस मेरी बदकिस्मती है।” यह स्थिति क्या चित्रित करती है? हालाँकि अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में तुम आज्ञाकारी और समर्पित रह पाते हो और जो कहा जाता है उसे करते हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि सत्य तुम्हारा जीवन है, और इसका मतलब यह भी नहीं कि तुम वह व्यक्ति हो जो परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है। जब तुम्हें अगुआ के रूप में चुन लिया जाता है और तुम वह पद प्राप्त कर लेते हो, तब तुम बेनकाब हो जाओगे। क्यों? पद प्राप्त कर लेने पर तुम जो चाहोगे वो करोगे, हर चीज का प्रभार ले लोगे, पूर्ण प्रभुत्व जताओगे और एक स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लोगे; तुम उतावलेपन के आधार पर, अपने भ्रष्ट स्वभावों के आधार पर और अपनी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं के आधार पर क्रियाकलाप करोगे। इसलिए, तुम अभी भी उपयोग के लिए योग्य नहीं हो। अब तक, यह कहा जा सकता है कि निन्यानबे प्रतिशत लोग इसी तरह की अवस्था और स्थिति में हैं। हालाँकि ज्यादातर लोगों ने कई वर्षों तक अपना कर्तव्य निभाया है और बाहरी तौर पर अपेक्षाकृत आज्ञाकारी और शिष्ट हो गए हैं, लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि अब उनमें भ्रष्ट स्वभाव नहीं हैं? (नहीं।) उनका व्यवहार अब स्वच्छंद नहीं रहा, बाहरी तौर पर वे शिष्ट हैं और उनमें थोड़ी संतों जैसी मर्यादा दिखाई देती है, लेकिन उनके भ्रष्ट स्वभाव जरा भी नहीं बदले हैं क्योंकि वे अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करने के लिए सक्रिय रूप से सत्य नहीं खोजते। जब उनके काम में समस्याएँ आती हैं, तो चाहे अगुआ द्वारा उनकी काँट-छाँट की जाए या ऊपरवाले द्वारा, वे ज्यादा से ज्यादा यही सोचते हैं, “ठीक है, अगर वे मुझे इसे ठीक करने के लिए कहते हैं तो मैं इसे ठीक कर दूँगा। मैं बस थोड़ी कठिनाई और सह लूँगा, थोड़ा समय और लगा दूँगा और जल्दी से इसे दोबारा कर दूँगा।” उनका रवैया और मानसिकता बस इसी तरह की होती है। यह सत्य के प्रति समर्पण नहीं दर्शाता, सच्चा समर्पण नहीं दर्शाता। यह मानसिकता कहाँ से आती है? यह इस तथ्य से आती है कि परमेश्वर में अपने विश्वास में लोगों में एक सकारात्मक लालसा होती है, अच्छे लोग बनने की लालसा, मानक के अनुरूप सृजित प्राणी बनने की लालसा। यह इच्छा लोगों के दैनिक जीवन में और उनके कर्तव्य-निर्वहन में इस तरह की मानसिकता लाती है; इंसानी शब्दावली में वह यह है : “परेशानी पैदा मत करो, आओ हम सब अच्छा व्यवहार करें।” “अच्छा व्यवहार” का क्या अर्थ है? क्या यह एक सत्य सिद्धांत है? यह बस तुम्हें आज्ञा मानने, नियमों का पालन करने और परेशानी पैदा नहीं करने के लिए प्रेरित करता है। यह लोगों के लिए न्यूनतम अपेक्षा है, और यह सत्य सिद्धांत के स्तर तक नहीं पहुँचता। तो सत्य सिद्धांत क्या है? यही कि तुम्हें सक्रिय रूप से परमेश्वर के इरादे खोजने चाहिए। जब तुम भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हो, जब तुम स्वार्थपूर्ण इच्छाएँ रखते हो या उतावलापन प्रकट करते हो, जब भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारे अंदर किसी स्थिति को जन्म देते हैं, तब तुम्हें सक्रिय रूप से इन अभिव्यक्तियों की तुलना परमेश्वर के वचनों से करनी चाहिए। परमेश्वर की प्रबुद्धता, मार्गदर्शन, सहायता, समर्थन से, यहाँ तक कि परमेश्वर के वचनों के कठोर न्याय और ताड़ना से भी, धीरे-धीरे तुम परमेश्वर के वचनों के प्रति अपना रवैया बदलते हो, परमेश्वर के वचनों की तुम्हारी स्वीकृति का स्तर अधिकाधिक ऊँचा होता जाता है और तुम परमेश्वर के वचनों को स्वीकार कर उन्हें आमीन कहते हो। तब तुम परमेश्वर के वचनों को अपने भीतर स्वीकारते हो, भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों को त्याग देते हो, और फिर मनुष्य की विरासत थामे नहीं रहते; तुम सत्य स्वीकारने में सक्षम हो जाते हो, और तुम अपने आस-पास के लोगों, घटनाओं और चीजों को सँभालने में सक्षम हो जाते हो, और परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति अपना परिप्रेक्ष्य, रुख और दृष्टिकोण बदल लेते हो। यही तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करने का मार्ग है। तो क्या अब तुम लोगों के पास इस तरह का अग्रसक्रिय अभ्यास है? मुझे लगता है कि निन्यानबे प्रतिशत लोगों के पास नहीं है। ज्यादातर लोगों के अनुभवजन्य गवाहियों के लेख एक ऐसे परिवेश का अनुभव करने के बारे में होते हैं जिसने उन्हें एक खास तरीके से काम करने और अपने क्रियाकलापों में “परमेश्वर के प्रति समर्पण” हासिल करने को मजबूर किया। वे यह सोचकर अपने आप में काफी खुश महसूस करते हैं कि उनके पास सत्य वास्तविकता है। भले ही तुमने गवाही का एक लेख लिखा हो, यह वास्तव में तुम्हारे अपने बारे में बढ़ा-चढ़ाकर बातें करने, अपने लिए गवाही देने और खुद को स्थापित करने के लिए है : “देखो, मेरे पास एक गवाही है। मैंने परमेश्वर को नीचा नहीं दिखाया। मैंने इस परिवेश में अपना कर्तव्य निभाया!” कुछ दूसरे लोगों के अनुभवजन्य गवाही लेख इस बारे में हैं कि उनकी काट-छाँट की जाने के बाद कैसे वे चिंतन करते हैं और उन्हें यह एहसास होता है कि वे लापरवाह थे और उन्होंने परमेश्वर को संतुष्ट नहीं किया और अब वे पश्चात्ताप करने को तैयार हैं। भले ही पश्चात्ताप करने का एक दौर आता हो जिसमें लगता हो कि वे अब अनमने नहीं रहे, लेकिन क्या उनके भ्रष्ट स्वभाव बदल गए होते हैं? नहीं। परदे के पीछे वे अभी भी बहुत अहंकारी और दबंग होते हैं। वे जिस नजरिये, परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण से लोगों और चीजों को देखते हैं और उनसे निपटते हैं वे परमेश्वर के वचनों पर बिल्कुल भी आधारित नहीं होते। इसलिए उनके भ्रष्ट स्वभाव बदलने बिल्कुल भी शुरू नहीं हुए होते! तो, तुम किस बदलाव के बारे में बात करते हो? यह मात्र व्यवहार, जीवनशैली और शायद उस लहजे, अभिव्यक्ति के तरीके और शैली में बदलाव है जिसमें तुम दूसरों से बातचीत करते हो और मामलों को संभालते हो। तुम्हारी आस्था भी मजबूत हुई है; तुम विभिन्न परिवेशों में काट-छाँट किए जाने के अनेकों मामलों से गुजरने के बाद सत्य की खोज करने में सक्षम हो, और अब बहुत से सत्य समझते हो, और परमेश्वर के अनुसार चलने का तुम्हारा संकल्प पहले से अधिक दृढ़ हुआ है—ये सभी पहलू बदल गए हैं। ये बदलाव लोगों को उद्धार पाने में अधिक आश्वस्त बनाते हैं, सत्य का अनुसरण करने के लिए अधिक इच्छुक बनाते हैं, और परमेश्वर का अनुसरण करने के प्रति अधिक आशावान और अधिक आशावादी बनाते हैं। जब भी परीक्षण या कष्ट उनके रास्ते में आते हैं, तो वे इतने नकारात्मक नहीं होंगे कि अपनी आस्था ही छोड़ दें। लेकिन ये बदलाव सिर्फ सामान्य मानवता में बाहरी तौर पर जीने में होते हैं। ये अपेक्षाकृत सकारात्मक और अग्रसक्रिय विचार और दृष्टिकोण धीरे-धीरे लोगों के दिलों में अपनी जगह बना लेते हैं। ये बदलाव इस बात के संकेत हैं कि उनके दिल जागृत और पुनर्जीवित हो रहे हैं। यानी लोग ज्यादा अग्रसक्रिय और आकांक्षी हो जाते हैं और सकारात्मक चीजों की ज्यादा लालसा करते हैं, परमेश्वर के वचनों, उसके कार्य और उसकी अपेक्षाओं का अनुसरण करने के प्रति ज्यादा आश्वस्त हो जाते हैं। स्वाभाविक रूप से, उनके पास परमेश्वर द्वारा किए जा रहे सबसे महत्वपूर्ण कार्य—लोगों को बचाने के कार्य—के बारे में भी ज्यादा स्पष्ट अवधारणा होती है। इन स्थितियों के आधार पर बहुत से लोग अपने कर्तव्यों का पहले की तुलना में ज्यादा व्यावहारिक तरीके से, नियमों का ज्यादा पालन करने वाले ढंग से और ज्यादा आज्ञाकारिता से निर्वहन करते हैं। उनके कर्तव्यों की कुशलता में सुधार आता है, विशेष रूप से तकनीकी कार्यों में, जो अब और तेजी से आगे बढ़ने लगता है। अब वे पहले जैसे सुस्त नहीं रहते हैं जब कुछ दिनों में समाप्त होने वाले कार्यों में एक हफ्ता या उससे ज्यादा समय लग जाता था—अब नतीजे कुछ ही दिनों में मिल जाते हैं। यकीनन, यह अच्छी खबर है। लेकिन बुरी खबर क्या है? वह यह है कि तुम लोग जो भी प्रकट और प्रदर्शित करते हो, वे सिर्फ व्यवहार, सोच और मानसिकता में बदलाव हैं, जिनमें तुम्हारे अवचेतन के जागृत होने के कुछ अपेक्षाकृत सकारात्मक, अग्रसक्रिय, आशावादी तत्वों के संकेत दिखते हैं। लेकिन, इन संकेतों का अर्थ यह नहीं है कि तुम लोगों के भ्रष्ट स्वभाव बदलने शुरू हो गए हैं। यह खबर बहुत अच्छी नहीं है, है ना? (नहीं, यह नहीं है।) वैसे तो यह बहुत अच्छी खबर नहीं है, लेकिन भ्रष्ट मानवजाति के लिए उद्धार प्राप्त करने की यह एक अवश्यंभावी प्रक्रिया है। लोग इतने ही दयनीय और घटिया हैं, इतने ही बचकाने हैं और उनके जीवन प्रवेश और भ्रष्ट स्वभावों को छोड़ने की रफ्तार इतनी ही धीमी है। इस धीमी गति का मूल कारण यह है कि ऐसी मानवजाति में सत्य स्वीकार करने की क्षमता की कमी होती है और वे सत्य, सकारात्मक चीजों और परमेश्वर से आने वाली हर चीज के प्रति इतने ही सुन्न होते हैं।
कुछ लोग दस, बीस या तीस साल से भी ज्यादा समय से परमेश्वर में विश्वास करते आए हैं, फिर भी उन्हें अब जाकर एहसास हुआ है कि इतने सालों के बाद, केवल उनके बाहरी व्यवहार में थोड़ा बदलाव आया है और उन्होंने अपने दिलों में थोड़ी जागृति महसूस की है, लेकिन उनके भ्रष्ट स्वभावों में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया है। कुछ लोग अपने व्यवहार में कुछ बदलाव देखकर सोचते हैं कि यह जीवन स्वभाव में बदलाव है, यहाँ तक कि दूसरों के सामने शेखी भी बघारते हैं, “देखो, क्या मेरा जीवन स्वभाव बदल नहीं गया है?” असल में, तुम्हारा सिर्फ व्यवहार बदला है; तुममें स्वभावगत बदलाव के वास्तविक लक्षण नहीं दिखते और तुमने सामान्य मानवता को नहीं जिया है। तो फिर कोई कैसे कह सकता है कि तुम्हारे स्वभाव में कोई बदलाव आया है? यह चेहरा पढ़ना नहीं है; कोई तुम्हारे बाहरी रूप को देखकर यह नहीं कह सकता, न ही तुम जो कहते हो उसे सुनकर कह सकता है, तुम्हें अपने संकल्प और इच्छाएँ व्यक्त करते हुए सुनकर तो बिल्कुल भी नहीं कह सकता—संकल्प और इच्छाएँ सबसे खोखली चीजें हैं। तो फिर कोई कैसे कह सकता है? कोई यह देखकर ही कह सकता है कि क्या बिना किसी के अनुनय, पर्यवेक्षण, यहाँ तक कि समर्थन और सहायता के, तुम्हारे पास परमेश्वर के वचनों के अनुसार हर मामले को देखने और सँभालने का मार्ग और क्षमता है, और क्या तुम्हारे हर कार्य में तुम्हें नियंत्रित करने के लिए तुम्हारे हृदय में तुम्हारे जीवन के रूप में परमेश्वर के वचन हैं। अगर तुम इस स्तर तक नहीं पहुँचे हो, तो आओ एक निम्न स्तर के बारे में बात करते हैं : तुम जो कुछ भी कहते और करते हो, क्या उसके लिए तुममें सिद्धांत के रूप में परमेश्वर के वचनों का इस्तेमाल करने की जागरूकता है। अगर तुम इसे हासिल नहीं कर सकते तो दुर्भाग्यवश, सत्य तुम्हारा जीवन नहीं है। अभी भी तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव ही तुम्हारा जीवन हैं; वे अभी भी तुम्हें कभी भी, कहीं भी नियंत्रित कर सकते हैं, तुम्हारे जमीर और तुम्हारे विचारों और दृष्टिकोणों पर हावी हो सकते हैं। तुम कभी भी, कहीं भी किसी भी व्यक्ति, घटना या वस्तु के साथ अपनी भावनाओं, मनोदशा, इच्छाओं, निर्णय, परिप्रेक्ष्य और प्राथमिकताओं के आधार पर व्यवहार करोगे और उन्हें सँभालोगे। तुम अभी भी बड़े खतरे में हो; तुम अभी भी स्वतंत्र रूप से अपना कर्तव्य नहीं निभा सकते और तुम स्वतंत्र रूप से जीने में सक्षम नहीं हो—तुम्हें हमेशा दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है और दूसरों के सहारे के बिना तुम गिर जाओगे। इसका मतलब है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है; यह साबित करता है कि तुमने सत्य को अपने जीवन के रूप में प्राप्त नहीं किया है। सत्य को जीवन के रूप में प्राप्त न करने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि तुम्हारे पास सिर्फ एक-दो सिद्धांत हैं जो तुम्हें बुरी चीजें करने या बड़ी गलतियाँ करने से रोकते हैं। अर्थात्, जब तुम्हारी तर्कसंगतता सामान्य होती है और कोई तुम्हें उकसा या भड़का नहीं रहा होता, तो तुम जानबूझकर परमेश्वर की निंदा बिल्कुल नहीं करोगे, परमेश्वर को बिल्कुल नहीं कोसोगे या कलीसिया के कार्य को अस्त-व्यस्त बिल्कुल नहीं करोगे। लेकिन इस तथ्य का कि तुम जानबूझकर ऐसा नहीं करोगे, यह मतलब नहीं है कि तुम ऐसा करने में असमर्थ हो; हो सकता है तुम उसे अग्रसक्रिय रूप से न करो, लेकिन तुम उसे निष्क्रिय रूप से कर सकते हो। यहाँ निष्क्रिय रूप से का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव कभी भी उभरकर तुम्हें नियंत्रित कर सकते हैं और तुमसे कुछ भी कहलवा सकते हैं और करवा सकते हैं, और तुम्हें किसी भी व्यक्ति या मामले को कभी भी भ्रामक दृष्टिकोणों से देखने और फिर किसी मामले को सँभालने या किसी खास व्यक्ति से निपटने के लिए अपने भ्रष्ट स्वभावों का इस्तेमाल करने पर मजबूर कर सकते हैं। उदाहरण के लिए मान लो, तुमने कुछ गलत किया है और तुम सोचते हो कि तुम ऊपरवाले, अगुआओं या किसी और को उसका पता नहीं लगने दे सकते। इसके पीछे जो भी कारण हो, तुम्हारे अपने शैतानी विचार होते हैं, इसलिए तुम उसे छिपाते हो और कुछ नहीं कहते। यहाँ तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव प्रभारी हैं या सत्य प्रभारी है? स्पष्ट रूप से, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव प्रभारी हैं। तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव तुम पर हावी हो जाते हैं, जिससे तुम उन्हें छिपाते हो और कुछ नहीं कहते, और तुम उनसे मुक्त नहीं हो सकते। मुक्त नहीं हो पाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि हालाँकि तुम उन सत्यों का अभ्यास करने के लिए तैयार हो जिन्हें तुम समझते हो, लेकिन तुममें ऐसा करने की ताकत नहीं है; तुम बस अपने भ्रष्ट स्वभावों पर विजय नहीं पा सकते। इसका मतलब है कि तुम मुसीबत में हो; तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते। अगर तुम चीजें छिपाना और दूसरों को धोखा देना चाहते हो, तो तुम छिपाने और धोखा देने के काम करने में पूरी तरह से सक्षम हो, खासकर ऊपरवाले के प्रति, सिर्फ अच्छी खबरों की रिपोर्ट करते हो, बुरी खबरों की नहीं, यहाँ तक कि ऊपर वालों को धोखा देते हो और नीचे वालों से चीजें छिपाते हो। तुम कहते हो, “मुझे सच में सत्य से प्रेम है और मैं एक ऐसा व्यक्ति हूँ जो सत्य का अभ्यास करता है। मैं परमेश्वर द्वारा कहे गए हर सत्य को ध्यानपूर्वक लिखता हूँ, उस पर विचार करता हूँ और उसका सारांश लिखता हूँ, और फिर वास्तविक जीवन में उसका अभ्यास करता हूँ।” तुम इसी तरह सोचते हो, तुम्हारी यही इच्छा होती है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि तुमने सत्य का अभ्यास किया है। क्यों? क्योंकि तुम्हारे भीतर कई भ्रामक विचार और दृष्टिकोण हैं जो पहले ही तुम्हारे दिल पर कब्जा कर चुके हैं। नतीजतन, भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारा जीवन बन गए हैं। तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव प्रभारी हैं, वे तुम्हारे विचारों और कार्यों पर हावी रहते हैं। अगर तुम सत्य का अभ्यास करना भी चाहो तो यह बेकार है; तुम खुद को ऐसा करने के लिए तैयार नहीं कर सकते। इसलिए, अगर तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों का समाधान नहीं होता तो भले ही तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो, तुम्हारे लिए सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना असंभव है—अगर तुम अग्रसक्रिय रूप से और खुले तौर पर परमेश्वर की आलोचना, प्रतिरोध या निंदा करने से बच सको तो यही काफी अच्छा है। लेकिन तुम्हारे दिल में भ्रष्ट स्वभावों द्वारा शासन करने के कारण तुम परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह और उसका प्रतिरोध किए बिना नहीं रह सकते। शायद तुम सोचते हो कि तुम सिर्फ उन्हीं स्थितियों में ऊपरवाले को धोखा देने और उससे चीजें छिपाने की कोशिश करते हो जब तुम निष्क्रिय होते हो या फिर निराशा के क्षणों में होते हो, और तुम सिर्फ निराशा के क्षणों में लोगों को दबाते हो या उतावलापन प्रकट करते हो। क्या यह वास्तव में निराशा के अस्थायी क्षणों के कारण होता है? नहीं, यह गहराई से जड़ जमा चुके तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों के प्रभारी होने का नतीजा है। यह अपरिहार्य है। यह अपरिहार्य क्यों है? क्योंकि तुम जिन सत्यों को समझते हो, वे तुम्हारे लिए मात्र एक तरह की इच्छा, एक तरह का विश्वास होते हैं; वे अभी तक तुम्हारा जीवन नहीं बने होते हैं। चाहे तुम्हारे पास ज्ञान हो या न हो या तुम्हारी काबिलियत ऊँची हो या नीची, कम से कम, सत्य तुम्हारा जीवन नहीं बना है। अर्थात्, सत्य तुम्हारे भीतर प्रभारी नहीं है; तुम्हारे भीतर शैतानी स्वभाव और शैतानी फलसफे प्रभारी हैं। जब तुम शैतानी स्वभावों के अधीन होते हो, तो तुम शैतानी स्वभावों के अनुसार जी रहे होते हो, और तुम अभी भी शैतान के प्रभाव में जी रहे होते हो। जब तुम्हारे हितों और गौरव को कोई नुकसान नहीं पहुँचता, जब तुम्हारा रुतबा, शोहरत और लाभ शामिल नहीं होते, तब तुम थोड़ा सत्य का अभ्यास करने के इच्छुक होते हो। लेकिन जैसे ही तुम्हारी शोहरत, लाभ, रुतबा या मंजिल इसमें शामिल हो जाते हैं, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें मजबूती से और कसकर जकड़ लेते हैं और नियंत्रित कर लेते हैं। तुममें अभी भी परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण नहीं है; तुम्हारे अभी भी परमेश्वर और सत्य के साथ विश्वासघात करने की सौ प्रतिशत संभावना है। इन घटनाओं को देखते हुए, क्या तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों का समाधान हो गया है? क्या उन्हें त्याग दिया गया है? क्या सत्य तुम्हारा जीवन बन गया है? जब कुछ घटित होता है, तब अगर वे सत्य जिन्हें तुम समझते हो, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों पर विजय नहीं पा सकते, तुम्हारी पसंद और जरूरतों पर विजय नहीं पा सकते, तुम्हारी इच्छाओं, महत्वाकांक्षाओं, रुतबे और प्रतिष्ठा पर विजय नहीं पा सकते, तो वे सत्य जिन्हें तुम समझते हो, तुम्हारा जीवन नहीं हैं। जब सत्य तुम्हारा जीवन बन जाता है तब तुम प्राकृतिक रूप से इन भ्रष्ट स्वभावों पर विजय पा सकते हो। अगर तुम अपने भ्रष्ट स्वभावों पर विजय नहीं पा सकते तो यह दर्शाता है कि सत्य अभी तुम्हारे भीतर प्रभारी नहीं है और वह अभी तुम्हारा जीवन नहीं बना है। तुम कहते हो कि तुम सत्य से प्रेम करते हो, लेकिन यह सिर्फ तुम्हारी लालसा और इच्छा है; यह तुम्हारे जीवन का प्रतिनिधित्व नहीं करता। सामान्य मानवता वाले सभी लोगों में सकारात्मक लालसाएँ होती हैं। क्या अच्छा इंसान बनने की लालसा करने का यह अर्थ है कि तुम अच्छे इंसान हो? (नहीं।) क्या सत्य, निष्पक्षता और धार्मिकता से प्रेम करने का यह अर्थ है कि तुममें सत्य, निष्पक्षता और धार्मिकता है? नहीं—तुममें ये चीजें नहीं हैं, तुम बस इनकी लालसा करते हो। लालसा करने का क्या मतलब है? (व्यक्ति की अद्भुत इच्छा।) हाँ, यह बस एक इच्छा है। इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि तुम कैसा आचरण करते हो, या है? (नहीं।)
क्या सत्य अब तुम लोगों का जीवन है? (नहीं।) कोई कैसे बता सकता है कि सत्य तुम्हारा जीवन है या नहीं? देखकर कोई यह बता सकता है कि जिन सत्यों को तुम समझते हो वे तब तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों पर विजय पा सकते हैं या नहीं, जब तुम्हारे हित सत्य से टकराते हैं, जब तुम्हारे हितों को नुकसान होने वाला होता है या जब वे खतरे में पड़ने वाले होते हैं। अगर वे ऐसा कर सकते हैं तो तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जिसका सत्य जीवन है। अगर वे ऐसा नहीं कर सकते तो यह साबित करता है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। कितना छोटा? सत्य तुम्हारा जीवन नहीं है। यही वास्तविकता है। कुछ लोग कहते हैं, “अगर सत्य हमारा जीवन नहीं है तो हम परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाने के लिए सब कुछ कैसे त्याग सकते हैं? हम परमेश्वर के लिए अब भी कष्ट कैसे उठा सकते हैं और कीमत कैसे चुका सकते हैं?” कुछ तो यहाँ तक कहते हैं, “मुझमें पहले से ही कुछ भक्ति है; मुझे पहले ही विजेता बनाया जा चुका है।” दरअसल, ऐसे कथनों में लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं की मिलावट होती है। लोगों का संकल्प और आकांक्षाएँ रखना गलत नहीं है। लोगों की प्रकाश के लिए, न्याय के लिए लालसा, और उनकी सत्य का अनुसरण करने, उद्धार पाने आदि के लिए लालसा—ये अद्भुत इच्छाएँ उनकी कुछ जागरूकता, उनके मार्ग की दिशा और बेशक, उनके कुछ व्यवहार, और बाहरी तौर पर उनके आचरण के और उनके जीने के तरीके के कुछ पहलू बदल सकती हैं। यहाँ बदलने का क्या अर्थ है? उदाहरण के लिए मान लो, तुममें वर्तमान में आस्था है, तुम्हारी अवस्था बहुत अच्छी है, तुम नकारात्मक नहीं हो और तुम्हारा कर्तव्य विशेष रूप से सुचारु रूप से चल रहा है। नतीजतन, तुम महसूस करते हो कि तुम विशेष रूप से वफादार हो, और तुम्हें उद्धार पाने की अपनी इच्छा पूरी होने की आशा है, और तुम्हें कोई भी कठिनाई सहन करना स्वीकार्य है। लेकिन अच्छा समय स्थायी नहीं होता। अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में तुम कुछ रुकावटों और असफलताओं का सामना करते हो, तुम्हारी काट-छाँट की जाती है, तुम कई चक्कर लगाते हो, यहाँ तक कि मसीह-विरोधियों द्वारा गुमराह किए जाते हो और दबाए जाते हो, और बहुत सारी शिकायतें झेलते हो। तब तुम अपने दिल में तकलीफ महसूस करते हो। तुम सत्य नहीं समझते, तुम नहीं जानते कि ये चीजें क्यों हुईं, और तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करने पर कोई उत्तर नहीं मिलता, इसलिए तुम व्यथित महसूस करते हो। इन चीजों का होना काफी हद तक सत्य और प्रकाश की लालसा के तुम्हारे संकल्प पर एक निश्चित आघात और विनाश लाता है। यह विनाश झेलने के बाद तुम अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते, तुम महसूस करते हो कि यह व्यर्थ है। यहाँ क्या हो रहा है? तुम इतनी तेजी से कैसे बदल गए? तुम पहले से बिल्कुल अलग व्यक्ति क्यों हो? अगर तुम्हारा आध्यात्मिक कद होता और सत्य तुम्हारा जीवन होता, तो तुम्हारी भक्ति नहीं बदलती। लेकिन चूँकि सत्य तुम्हारा जीवन नहीं है, इसलिए तुम्हारी आंतरिक अवस्था, मानसिकता और परमेश्वर में विश्वास करने और खुद को खपाने की तुम्हारी प्रेरणा हमेशा अस्थिर और दो विपरीत दिशाओं में डोलने वाली रहती है। जब सब कुछ सुचारु रूप से चल रहा होता है और तुम्हारा मूड अच्छा होता है, तो तुममें प्रेरणा रहती है, प्रार्थना में कहने के लिए तुम्हारे पास बहुत कुछ होता है, तुम परमेश्वर के वचन पढ़ने के इच्छुक रहते हो, अपने कर्तव्य में कड़ी मेहनत करते हो, और तुम्हें व्यस्त होना या थकना और कोई भी कठिनाई सहना स्वीकार्य होता है। लेकिन जैसे ही चीजें थोड़ी प्रतिकूल होती हैं, तुम नकारात्मक और कमजोर हो जाते हो, अपना कर्तव्य निभाने की प्रेरणा खो देते हो। जब तुम एक बार का खाना नहीं खा पाते या थोड़ा कम सो पाते हो, तो तुम्हें लगता है कि यह बहुत बड़ी कठिनाई है, और तुम्हारे दिल में शिकायतें उठती हैं : “मैं क्यों कष्ट सहूँ? मैं अपना कर्तव्य निभाने से पैसे भी नहीं कमाता, यह इस लायक नहीं है!” देखो, तुम्हारी मानसिकता बिल्कुल अलग है। इतना बड़ा बदलाव क्यों आया है? इसलिए कि सत्य तुम्हारा जीवन नहीं है और तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव अभी भी तुम्हारे भीतर मौजूद हैं। जब लोग उत्साही होते हैं तो उन्हें लगता है कि उनकी कोई महत्वाकांक्षा, इच्छा या परमेश्वर से कोई माँग नहीं है। वास्तव में, उनके भ्रष्ट स्वभाव अभी भी उनके भीतर प्रभारी होते हैं; ये चीजें अपरिवर्तित रहती हैं। जब लोग सकारात्मक होते हैं, तो वे बहुत उत्साही और विशेष रूप से प्रेरित होते हैं, और कोई भी उन्हें रोक नहीं सकता। जब वे नकारात्मक होते हैं तो वे दलदल के गड्ढों की तरह होते हैं, जहाँ से कोई भी उन्हें ऊपर नहीं खींच सकता। वे हमेशा अतियों पर चले जाते हैं और पूरी तरह से अस्थिर होते हैं। यह दर्शाता है कि उनकी सामान्य मानवता में किसी चीज की कमी है। उसमें किस चीज की कमी होती है? सत्य उनका जीवन नहीं होता—यही वह चीज है। तुम्हारी अवस्था दो विपरीत दिशाओं में डोलती रहती है, एक पल नकारात्मक और अगले ही पल सकारात्मक। इसका क्या कारण है? वे तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हैं जो परेशानी पैदा करते हैं। आज वे तुम्हें एक चीज सोचने पर मजबूर करते हैं, कल दूसरी; हर हाल में ये विचार तुम्हारी इच्छाओं, तुम्हारे उतावलेपन और तुम्हारी वर्तमान अवस्था, मनोदशा और भावनाओं के अनुरूप होते हैं। लेकिन जब लोगों के भीतर सत्य होता है तो बात अलग होती है। अगर सत्य तुम्हारा जीवन बन जाता है तो वह तुम्हें हमेशा अपने कार्यों की एक सटीक और सच्ची परिभाषा रखने में सक्षम बनाएगा, जो कभी नहीं बदलेगी। तुम दो विपरीत स्थितियों में नहीं झूलोगे, और न ही असफलता और गिरावट या थोड़ी-सी काट-छाँट या जरा-सी विफलता से नकारात्मक और निराश होगे। न ही तुम इतने सकारात्मक होगे कि किसी उत्साही युवा की तरह तीन दिन और तीन रात जागते रहकर क्रियाकलाप करो। इसके बजाय तुममें सामान्य तर्कसंगतता होगी। है ना? (हाँ।) एक बार जब लोग सत्य समझ लेते हैं और सत्य उनका जीवन बन जाता है, तो उनके दर्शन स्पष्ट हो जाते हैं। वे जानते हैं कि उन्हें परमेश्वर का अनुसरण क्यों करना चाहिए, उन्हें अपना कर्तव्य क्यों निभाना चाहिए, अपने कर्तव्य के प्रदर्शन में उन्हें क्या नतीजे हासिल करने चाहिए, और इन कष्टों को सहने का उद्देश्य, महत्व और मूल्य क्या है। वे इन सभी सत्य सिद्धांतों को अपने दिल में, बिना किसी भ्रम या अस्पष्टता के, अच्छी तरह समझते हैं। इसलिए वे स्वेच्छा से और बिना किसी शिकायत के कष्ट सहते हैं, उनके हर काम में नियम और सिद्धांत होते हैं, और वे परमेश्वर में आस्था कभी नहीं खोते; जब वे नकारात्मक महसूस करते हैं तो वे परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं करते या उसका परित्याग नहीं करते, और जब वे सकारात्मक महसूस करते हैं तो परमेश्वर से उनकी कोई अतिरिक्त माँग नहीं होती और उनकी अवस्था बहुत सामान्य होती है। क्या अब तुम लोग ऐसे हो? (नहीं।) तो फिर क्या करना चाहिए? (अब से हमें अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करने के लिए सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए; कोई दूसरा मार्ग नहीं है।) सत्य का अनुसरण करने के अलावा कोई दूसरा मार्ग नहीं है। मैं तुम्हें बता दूँ : अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते और भ्रष्ट स्वभाव हमेशा तुम्हारे जीवन में प्रभारी रहते हैं, तो तुम्हारी मंजिल अच्छी नहीं होगी; ज्यादा से ज्यादा, तुम एक मजदूर बनकर रह जाओगे। लेकिन अगर तुम सत्य का अनुसरण करते हो तो उद्धार पाने की तुम्हारी आशा बड़ी होगी और अंततः तुम्हें मिलने वाले आशीष भी बड़े होंगे। अगर तुम सत्य का अनुसरण करते हो तो तुम भ्रष्ट स्वभावों के बंधन से मुक्त हो जाओगे, भ्रष्ट स्वभाव फिर तुम्हारा जीवन नहीं रहेंगे और नतीजतन तुम्हें सच में उद्धार पाने की आशा दिखाई देगी। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते और तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों का समाधान नहीं होता, और तुम अच्छी चीजें करने और बुराई न करने के लिए सिर्फ आत्म-संयम और इच्छाशक्ति पर निर्भर रहना चाहते हो, तो यह कहना मुश्किल है कि तुम इस मार्ग के अंत तक पहुँच भी पाओगे या नहीं। समझे? (समझ गए।) परमेश्वर में विश्वास करने में लोगों को कौन-सी सबसे बड़ी समस्या हल करने की जरूरत है? (भ्रष्ट स्वभाव।) भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करना सबसे महत्वपूर्ण चीज है। ऐसा मत सोचो, “मैं अब परमेश्वर के घर में पूर्णकालिक कर्तव्य निभा रहा हूँ, खुद को पूरे समय खपा रहा हूँ, इसलिए मैं एक विजेता हूँ!” परमेश्वर विजेताओं का एक समूह बनाने की बात करता है—विजेताओं का क्या अर्थ है? “ये वे ही हैं कि जहाँ कहीं मेम्ना जाता है, वे उसके पीछे हो लेते हैं” (प्रकाशितवाक्य 14:4)। सरल शब्दों में विजेता का यही अर्थ है। व्यक्ति सिर्फ विजेता होने से संतुष्ट नहीं हो सकता। इस सरल अर्थ में विजेता होने का मतलब यह नहीं है कि व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभाव त्याग दिए गए हैं, और इसका यह मतलब नहीं है कि सत्य उसका जीवन है। जो अंततः बचाए जाते हैं वे सिर्फ विजेता नहीं होते—यह इतना सरल नहीं है। विजेता सिर्फ सांसारिक दुनिया, शैतान, बुरी प्रवृत्तियों और बुरी व्यवस्थाओं पर विजय प्राप्त करते हैं—यही होते हैं विजेता। अगर तुम सिर्फ कुछ सत्य सिद्धांत समझते हो और तुम अस्थायी रूप से देह और भावनाओं पर विजय पा सकते हो, या विभिन्न निराधार अफवाहों से बेबस नहीं होते, या दुष्ट लोगों या छद्म-विश्वासियों से परेशान नहीं होते, तब भी यह पूरी तरह से विजेता के मानक पर खरा नहीं उतरता। सिर्फ ये कुछ छोटे-मोटे अनुभव होना ज्यादा मूल्यवान नहीं है। मूल्यवान क्या है? सत्य को अपना जीवन बनाना सबसे मूल्यवान चीज है। व्यक्ति सत्य को अपना जीवन कैसे बना सकता है? सिर्फ एक मार्ग है : तुम्हें परमेश्वर के वचन ज्यादा पढ़ने चाहिए और परमेश्वर के वचनों का ज्यादा अभ्यास और अनुभव करना चाहिए। सिर्फ इसी तरह तुम परमेश्वर के वचनों से सत्य प्राप्त कर सकते हो और सत्य को अपना जीवन बना सकते हो। अगर तुम सत्य का उपयोग अपने पूरे जीवन, अपने रोजमर्रा के जीवन और उन सिद्धांतों के मार्गदर्शन के लिए करते हो जिनके द्वारा तुम क्रियाकलाप और आचरण करते हो—अगर तुम इस तरह अभ्यास करते हो—तो तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता होगी। जब तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता होगी तब तुम्हारे पुराने शैतानी स्वभाव हटाकर किनारे कर दिए जाएँगे। यह तय करने से पूर्व कि कैसे क्रियाकलाप करना है, पहले चिंतन करो, “मैं जो सोचता हूँ वह सत्य सिद्धांतों का प्रतिनिधित्व नहीं करता। मुझे देखना चाहिए कि परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं।” अगर तुम हर बार इस तरह विचार करो और अगर तुम हर बार परमेश्वर के वचनों के अनुसार बोलो और अभ्यास करो, तो क्या सत्य धीरे-धीरे तुम्हारे जीवन में प्रवेश नहीं करेगा? छोटी-छोटी बहुत सारी बूँदों से सागर बन जाता है। सत्य को धीरे-धीरे अपने दिल में प्रवेश करने दो ताकि तुम्हारा रोजमर्रा का जीवन, तुम्हारे विचार, तुम्हारे अस्तित्व की वर्तमान स्थिति और तुम्हारी अवस्था बदल जाए। जैसे-जैसे तुम्हारी अवस्था धीरे-धीरे बदलती और अच्छी दिशा में विकसित होती है, तुम्हारे बुराई करने और विघ्न-बाधाएँ पैदा करने की संभावना घटती जाएगी, तुम्हारे दिखावा करने की संभावना घटती जाएगी, जबकि सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने की तुम्हारी गवाहियाँ बढ़ती जाएँगी। जब सही-गलत के नाजुक मामले उभरते हैं तब सत्य सिद्धांत तुम्हारे शैतानी भ्रष्ट स्वभावों और तुम्हारी व्यक्तिगत इच्छाओं, प्राथमिकताओं और योजनाओं पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। सिर्फ तभी तुम एक सच्चे विजेता बनोगे, ऐसे व्यक्ति बनोगे जिसका सत्य ही जीवन होता है और ऐसे व्यक्ति बनोगे जो उद्धार प्राप्त कर सकता है। वरना अगर तुम सिर्फ अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर क्रियाकलाप करते हो और सोचते हो, “इस तरह क्रियाकलाप करना अच्छा है, मैं ये चीजें खुशी-खुशी और स्वेच्छा से करता हूँ और मुझे कोई शिकायत नहीं है,” तो इसका क्या फायदा है? तुम्हें कोई शिकायत नहीं है लेकिन तुम्हारे अभ्यास के सिद्धांत क्या हैं? तुम्हारा अभ्यास पूरी तरह से तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों की प्राथमिकताओं, गलत विचारों और दृष्टिकोणों, स्वार्थपूर्ण इरादों, महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं, भावनाओं और उतावलेपन से आता है—यह पूरी तरह से तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों द्वारा निर्देशित होता है। यह ऐसा जीवन है जो भ्रष्ट स्वभावों को प्रकट करता है, न कि ऐसा जीवन जो सत्य प्रकट करता है। परमेश्वर न सिर्फ इसे याद नहीं रखता, बल्कि वह इसकी निंदा भी करेगा। तुम्हें हर संभव प्रयास करना चाहिए ताकि तुम जो जीते हो, जो शब्द तुम बोलते हो और जो चीजें तुम करते हो और जो विचार और दृष्टिकोण तुम प्रकट करते हो, वे सब सत्य के अनुरूप हों; ताकि भ्रष्ट स्वभावों से उत्पन्न वे भ्रामक विचार और दृष्टिकोण तुम्हारे दिल में कम से कम होते जाएँ; और ताकि तुम अपने दिल में जो सोचते हो वह और मामलों पर तुम्हारे विचार, सब सत्य से संबंधित हों और सब सत्य के अनुरूप हों। तुम्हें इस पहलू का अनुसरण करना चाहिए और इस पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, तब तुम्हारे भीतर अधिकाधिक बदलाव होंगे और तुम्हारी अवस्था अधिकाधिक बेहतर होती जाएगी। आजकल बहुत-से लोग शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को स्पष्ट और तार्किक रूप से व्यक्त कर सकते हैं, लेकिन जब सत्य वास्तविकता के बारे में बोलने की बात आती है तब उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता और वे थोड़ी-सी भी व्यावहारिक समझ व्यक्त करने में असमर्थ रहते हैं। यहाँ क्या हो रहा है? (हमारे पास सत्य नहीं है।) तुम्हारा जीवन अभी भी भ्रष्ट स्वभावों का जीवन है, शैतान का जीवन है, वह सत्य का जीवन नहीं है।
क्या तुम समझ गए हो कि हमने अभी क्या संगति की है? अगर तुम लोग सचमुच यह पहचानते हो कि तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव अभी तक त्याग नहीं दिए गए हैं और तुम अभी भी भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जीते हो, तो क्या तुम लोग नकारात्मक हो जाओगे? (अभी-अभी, जब मैंने परमेश्वर को यह कहते सुना कि हमारे भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदले हैं, तब मुझे अपने दिल में एक गहरी असहमति का एहसास हुआ, मैंने सोचा कि मैं इन तमाम वर्षों में लगातार परमेश्वर के वचन खाता-पीता रहा हूँ और विशेष परिस्थितियों में मैंने सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित किया है—तो फिर मेरे भ्रष्ट स्वभाव अभी भी कैसे नहीं बदले हैं? मुझे थोड़ी निराशा और नकारात्मकता महसूस हुई। लेकिन परमेश्वर के थोड़ा-थोड़ा करके मार्गदर्शन और संगति प्रदान करने से मुझे समझ में आया कि मैं सिर्फ कुछ बाहरी अच्छे व्यवहार प्रदर्शित करता हूँ, लेकिन मेरे भ्रष्ट स्वभाव अभी भी मेरे भीतर प्रभारी हैं; वास्तव में कोई बदलाव नहीं हुआ है। परमेश्वर ने कहा कि चीजें करते समय लोगों को पहले चिंतन करना चाहिए, और चाहे उनके विचार कितने भी अच्छे हों, वे सत्य सिद्धांतों का प्रतिनिधित्व नहीं करते, और उन्हें यह देखना चाहिए कि परमेश्वर के वचनों में सत्य क्या कहता है, और हर बार कुछ करते समय उन्हें सत्य खोजने और परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने का प्रशिक्षण लेना चाहिए, और फिर धीरे-धीरे उनकी अवस्था बदल जाएगी। परमेश्वर की संगति सुनने के बाद मुझे फिर से आशा दिखती प्रतीत हुई, और मुझे लगा कि एक मार्ग है, और फिर मैं नकारात्मक नहीं रहा।) नकारात्मक होना गलत है; तुम्हें किसी भी परिस्थिति में नकारात्मक नहीं होना चाहिए। भ्रष्ट स्वभावों को त्याग देना उद्धार पाने का बड़ा मामला है। कोई चीज जितनी ज्यादा भ्रष्ट स्वभाव हो, उतना ही ज्यादा तुम्हें उसके समाधान पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। तुम्हें भरसक प्रयास करना चाहिए और अपना पूरा ध्यान उस पर लगाना चाहिए। तुम नकारात्मक नहीं हो सकते और हार नहीं मान सकते। हालाँकि अब तुम लोग सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर रहे हो, फिर भी कभी-कभी तुम अभी भी नहीं जानते कि अभ्यास कैसे करें। अब तुम लोगों से अभ्यास के मार्ग के बारे में बात करना तुम लोगों के जीवन प्रवेश के लिए ज्यादा लाभदायक है, और साथ ही, यह तुम्हारे भीतर संकट की भावना पैदा कर सकता है, और तुम्हें सत्य पर ध्यान केंद्रित करने, और सत्य समझने और यथाशीघ्र सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम बना सकता है। आत्मसंतुष्ट मत बनो और अपनी वर्तमान स्थिति से संतुष्ट मत हो। तुम लोग सिर्फ आज्ञाकारी और शिष्ट, और पहले से थोड़े ज्यादा समझदार हो गए हो, लेकिन तुम अभी भी अपने भ्रष्ट स्वभावों को त्याग देने से बहुत दूर हो! तथ्य स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं, इसलिए नकारात्मक होने से क्या फायदा? नकारात्मक होने से वास्तविक समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। तुम्हें पता लगाना चाहिए कि समस्या कहाँ से उत्पन्न होती है और वहीं से उसका समाधान करना शुरू कर देना चाहिए। अभी शुरू करने में बहुत देर नहीं हुई है। बहुत देर कब होगी? बहुत देर तब होगी जब परमेश्वर का कार्य समाप्त होगा। क्या तुम लोगों में सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने और सत्य को अपने जीवन के रूप में प्राप्त करने का संकल्प है? (अब हमारे पास यह संकल्प है।) दरअसल, सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना कठिन नहीं है। इसके बारे में सोचो, सत्य पर संगति के कई वचन कहे गए हैं और वे बहुत विस्तृत और विशिष्ट हैं। ऐसा लगता है कि विषय-वस्तु बहुत ज्यादा है, लेकिन सिद्धांत नहीं बदलते, और अभ्यास का मार्ग नहीं बदलता। जब तुम कोई भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करो, तो सचेतन रूप से उस विचार या सोच को पकड़ो और अपने दिल में चिंतन करो, “यह एक भ्रष्ट स्वभाव है, तो मैं कैसे इसका समाधान करूँ? मैंने पहले कभी इसका समाधान नहीं किया है। मैं इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करता रहा हूँ, लेकिन मैंने सिर्फ बाहरी क्रियाकलापों और दिखावा करने पर ही ध्यान केंद्रित किया है, और मैंने कभी इस तथ्य पर विचार नहीं किया है कि मुझमें अभी भी भ्रष्ट स्वभाव हैं। आज अचानक मैंने पाया कि मेरे अंदर ऐसा ही एक विचार है। यह विचार कहाँ से आया? एक भ्रष्ट स्वभाव से। तो फिर इस भ्रष्ट स्वभाव का समाधान कैसे किया जाए?” परमेश्वर से प्रार्थना करो और सत्य खोजो, और अपने आस-पास के उन लोगों से भी पूछो जिन्हें अनुभव हुए हैं; वे सत्य खोजने और समस्या का समाधान करने में तुम्हारी अगुआई करेंगे। जब सब लोग एक-साथ हों, तो तुम्हें एक-दूसरे का समर्थन और मदद करनी चाहिए और एक-दूसरे के प्रति समझदारी दिखानी चाहिए। सबका आध्यात्मिक कद एक-जैसा है और किसी को भी किसी को नीचा या ऊँचा नहीं समझना चाहिए। अगर हर कोई इसी तरह एक-दूसरे की मदद और समर्थन करे, और हरेक का आध्यात्मिक कद धीरे-धीरे बढ़े, और अंत में, तुम सब उद्धार प्राप्त करो और एक-साथ राज्य में प्रवेश करो, तो क्या यह अच्छा नहीं होगा? (हाँ।) ठीक है, चलो आज के लिए अपनी संगति यहीं समाप्त करते हैं। अलविदा!
9 सितंबर 2023