सत्य का अनुसरण कैसे करें (8)

इन पिछले दिनों हमारी संगति इस विषय पर रही है कि विभिन्न पहलुओं में काबिलियत का भेद कैसे पहचाना जाए, है ना? (हाँ।) काबिलियत के विभिन्न पहलुओं और स्तरों की विशिष्ट अभिव्यक्तियों पर हमारी संगति के जरिये क्या तुम लोग इसका सारांश प्रस्तुत कर सकते हो कि अच्छी काबिलियत क्या होती है, औसत काबिलियत क्या होती है, खराब काबिलियत क्या होती है और काबिलियत की पूरी कमी क्या होती है? हमने इस पहलू के बारे में काफी संगति की, इसलिए तुम लोगों को इस सामग्री का सारांश प्रस्तुत करने और फिर दैनिक जीवन में विशिष्ट अभिव्यक्तियों से इसका मेल करने में समर्थ होने की जरूरत है। इस तरीके से खुद का और दूसरों का तुम्हारा मूल्यांकन अपेक्षाकृत ज्यादा सटीक होगा। अगर तुम्हें यह नहीं पता कि सारांश कैसे प्रस्तुत करना है तो दैनिक जीवन में कुछ लोगों से सामना होने पर तुम उनका भेद नहीं पहचान पाओगे और तुम विभिन्न पहलुओं में अपनी खुद की अभिव्यक्तियों और प्रकाशनों का भी भेद नहीं पहचान पाओगे। क्या इसका मतलब यह नहीं होगा कि तुम्हारा सुनना बेकार गया? तुम्हें सारांश प्रस्तुत करने में निपुण होना पड़ेगा। सारांश प्रस्तुत करने का क्या मतलब है? इसका मतलब है इन सभी विभिन्न पहलुओं की विशिष्ट सामग्री में अलग-अलग प्रकार की चीजों का भेद पहचानने या उन्हें समझने के सिद्धांत ढूँढ़ निकालना। इस तरीके से सारांश प्रस्तुत करने का उद्देश्य हासिल किया जाता है। जब तुम्हें सिद्धांत मिल चुके होंगे, तो तुम लोगों और चीजों को देखने के लिए सत्य सिद्धांतों का उपयोग कर पाओगे और तुम दूसरों का भेद पहचानने और अपना भी भेद पहचानने में समर्थ होगे। इससे साबित होता है कि तुम सत्य समझते है। जब तुम सत्य का एक पहलू समझते हो और उसे लागू कर पाते हो, तो तुम्हें इस पहलू में सत्य वास्तविकता में प्रवेश हासिल हो जाएगा। तो क्या हमें काबिलियत के विभिन्न पहलुओं की विशिष्ट सामग्री का सारांश पेश नहीं करना चाहिए? (हाँ।) हमें इसका सारांश प्रस्तुत करना होगा। सिर्फ इसी तरीके से तुम काबिलियत से संबंधित सत्य सिद्धांत स्पष्ट रूप से समझ सकते हो।

अच्छी काबिलियत वाले लोगों का पूरा मूल्यांकन करने के लिए तुम्हें सिद्धांत जानने की जरूरत है, है ना? (सही कहा।) हमने इन विशिष्ट अभिव्यक्तियों का उपयोग करके बहुत-सी विशिष्ट अभिव्यक्तियों पर विस्तार से संगति की है ताकि यह मूल्यांकन कर सकें कि किसी व्यक्ति की काबिलियत कैसी है। तो अच्छी काबिलियत वाले लोगों की कुल मिलाकर क्या अभिव्यक्तियाँ हैं? उनके दिलों में आचरण करने और कार्य करने के लिए कुछ विशिष्ट सिद्धांत होते हैं। यहाँ तक कि जब वे सत्य नहीं समझते हैं या उन्होंने अभी तक सत्य नहीं सुना होता है, तब भी उनके पास लोगों और चीजों को देखने और साथ ही आचरण करने और कार्य करने के लिए कुछ सबसे मूलभूत सिद्धांत होते हैं। यानी अपने आत्म-आचरण के लिए उनकी कुछ सीमाएँ होती हैं। कुछ हद तक ये सीमाएँ सत्य सिद्धांतों के अपेक्षाकृत अनुरूप होती हैं या उनके करीब होती हैं और कम-से-कम मानवता के जमीर और विवेक के मानकों के करीब होती हैं। जब वे परमेश्वर के वचनों को खाकर और पीकर और परमेश्वर के वचनों की सिंचाई और प्रावधान स्वीकार कर कुछ सत्य समझने लगते हैं, उसके बाद भले ही उन्होंने कई मामलों या विशेष परिवेशों का अनुभव नहीं किया हो, फिर भी वे अपने दिलों में कुछ सत्य सिद्धांत समझ सकते हैं और उन पर पकड़ बना सकते हैं। फिर वे वास्तविक जीवन में विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों को सँभालने के लिए ये सिद्धांत लागू करने में समर्थ होते हैं। यकीनन जब वे विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों को सँभालते हैं, तब यह सिर्फ सरल, एकमुखी मुद्दे सँभालने के बारे में नहीं होता है। इसके बजाय जब उनका विभिन्न जटिल और आपस में जुड़े हुए लोगों, घटनाओं और चीजों से सामना होता है, तब वे उनसे पेश आने और उन्हें सँभालने के लिए परमेश्वर के वचन और सत्य सिद्धांत लागू कर सकते हैं। जब उन मामलों की बात आती है जिनमें सिद्धांत शामिल होते हैं, तब यह अच्छी काबिलियत वाले लोगों की एक अभिव्यक्ति है। क्योंकि उनकी काबिलियत अच्छी है, इसलिए वे परमेश्वर के वचनों के सिंचन और प्रावधान के जरिये विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों को देखने और सँभालने के लिए खुद परमेश्वर के वचनों में सिद्धांत ढूँढ़ सकते हैं। इस तरह की अच्छी काबिलियत वाले लोग स्वतंत्र रूप से कार्य का प्रभार ले सकते हैं, हर कार्य को स्वयं पूरा कर सकते हैं। यह अच्छी काबिलियत की एक अभिव्यक्ति है। मुख्य अभिव्यक्ति क्या है? (मुख्य अभिव्यक्ति यह है कि वे परमेश्वर के वचनों के सिंचन और प्रावधान के जरिये विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों को देखने और सँभालने के लिए खुद परमेश्वर के वचनों में सिद्धांत ढूँढ़ सकते हैं, अपनी समस्याएँ स्वयं हल करने में समर्थ हो सकते हैं और स्वतंत्र रूप से कार्य का प्रभार ले सकते हैं।) बिल्कुल—परमेश्वर के वचनों को खाकर और पीकर वे सत्य समझ सकते हैं और विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों को देखने और सँभालने के लिए सिद्धांत ढूँढ़ सकते हैं, अपने आप कार्य का बीड़ा उठा सकते हैं। अच्छी काबिलियत होने का सिर्फ यही मतलब है। इससे पहले हमने कहा कि कार्य का बीड़ा स्वयं उठाने में समर्थ होने के लिए विभिन्न क्षमताओं का होना जरूरी है। अब सत्य सिद्धांतों का उपयोग करके इसे मापने पर, यह अच्छी काबिलियत वाले लोगों की एक अभिव्यक्ति है।

औसत काबिलियत वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? वे निश्चित रूप से अच्छी काबिलियत वाले लोगों से कहीं बदतर हैं। लेकिन चाहे लोगों की काबिलियत अच्छी हो या औसत, परमेश्वर के वचनों का प्रावधान प्राप्त करने और सत्य समझने से पहले उनके पास आचरण करने के लिए सही सिद्धांत नहीं होंगे। आचरण के सिद्धांतों पर पकड़ प्राप्त करने का काम परमेश्वर के वचनों का प्रावधान प्राप्त करने और सत्य समझने लगने की नींव पर किया जाना चाहिए। सिर्फ वास्तविक अनुभवों के जरिये ही व्यक्ति धीरे-धीरे आचरण के सिद्धांत समझने लग सकता है। अगर यह कोई औसत काबिलियत वाला व्यक्ति है तो परमेश्वर के वचन पढ़ते समय वह सिर्फ परमेश्वर के वचनों में व्यक्त मूल अर्थ और जरूरी मानक ही समझ सकता है। वह इन चीजों को धर्म-सिद्धांत के लिहाज से समझता है, लेकिन परिस्थितियों से सामना होने पर वह अब भी सत्य सिद्धांत लागू करने में असमर्थ होता है। सिर्फ दूसरों के मार्गदर्शन और प्रावधान के जरिये या बहुत-सी चीजों का अनुभव करने के बाद ही वह कुछ मूलभूत सत्य सिद्धांत समझने लग सकता है। यहाँ “मूलभूत” का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि वह जो सिद्धांत समझता है और जिन पर पकड़ बनाता है, वे मुख्य रूप से एकमुखी और अपेक्षाकृत सरल सिद्धांत होते हैं और वे उसे साधारण समस्याएँ सँभालने और हल करने में सक्षम बनाते हैं, लेकिन जटिल परिस्थितियों या संदर्भों से सामना होने पर उसे यह नहीं पता होता कि सिद्धांतों के अनुसार कैसे कार्य करना है। उसे कुछ जटिल समस्याओं या अनेक पहलुओं वाले कामों से निपटने के लिए सत्य समझने वाले लोगों से मार्गदर्शन और मदद पर भरोसा करना पड़ता है। यही औसत काबिलियत वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ हैं। औसत काबिलियत वाले लोगों की अभिव्यक्तियों में क्या प्रमुख है? वे स्वतंत्र रूप से सत्य नहीं समझ पाते हैं या परमेश्वर के वचनों में अभ्यास के सिद्धांत नहीं ढूँढ़ पाते हैं। वे सटीकता से यह नहीं समझ पाते हैं कि सही मायने में परमेश्वर के अपेक्षित मानक क्या हैं। उन्हें एक ऐसे व्यक्ति की जरूरत पड़ती है जो उनके साथ संगति करे, उनका समर्थन करे और चीजों का पुनरीक्षण करने में मदद करे और उन्हें साफ-साफ बताए और याद दिलाए। सिर्फ इसी तरीके से वे जानते हैं : “यह एक सत्य सिद्धांत है। मुझे इसे याद रखना चाहिए। मुझे इसके अनुसार अभ्यास करना चाहिए। मुझे इस कार्य-व्यवस्था के अनुसार ही कार्य कार्यान्वित करना चाहिए।” यह उनकी समझ के लिहाज से है। दूसरी बात, कार्य करने के लिहाज से जब वे कोई ऐसा कार्य कर रहे होते हैं जिसके लिए उनके पास कोई अनुभव नहीं होता है, तो वे विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों को देखने या सँभालने के लिए सत्य सिद्धांतों को जल्दी से लागू नहीं कर पाते हैं। वे कुछ मूलभूत सत्य सिद्धांत समझने के आधार पर सिर्फ कोई एकमुखी कार्य ही सँभाल पाते हैं। अनेक सत्य सिद्धांतों से जुड़े जटिल कार्य से सामना होने पर उन्हें चीजों का पुनरीक्षण करने और समर्थन देने और उनका भरण-पोषण करने के लिए दूसरों की जरूरत होती है। यही औसत काबिलियत वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ हैं। व्यक्तिगत समझ के लिहाज से उन्हें अपने साथ संगति करने और चीजों का पुनरीक्षण करने में मदद करने के लिए दूसरों की जरूरत होती है। उन्हें बहुत सुनने की जरूरत होती है—सत्य का सिर्फ एक पहलू नहीं, बल्कि विभिन्न पहलू सुनने की जरूरत होती है और अंत में उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत होती है जो उन्हें यह बताए कि सत्य के विभिन्न पहलुओं के मूल सिद्धांत क्या हैं ताकि वे उनमें से कुछ सिद्धांत अपने दिलों में समझ सकें। लेकिन जब वे जटिल परिस्थितियों का सामना करते हैं तो उन्हें फिर से यह नहीं पता होता कि कैसे समझना है और उन्हें फिर भी तलाश करने की जरूरत होती है। यह समझ के लिहाज से है। जहाँ तक कार्य में या वास्तविक जीवन में विभिन्न मामले सँभालने का प्रश्न है, समस्याएँ सँभालने की उनकी क्षमता केवल एकमुखी कार्य सँभालने के लिए सत्य का पालन करने के स्तर तक ही पहुँच पाती है। अनेक सत्य सिद्धांतों से जुड़े जटिल कार्य से सामना होने पर उन्हें यह कुछ हद तक मुश्किल लगता है और उन्हें मदद माँगने की जरूरत पड़ती है और किसी से चीजों का पुनरीक्षण करने के लिए कहना पड़ता है। वे खुद यह गारंटी नहीं दे पाते हैं कि वे कार्य अच्छी तरह से कर सकते हैं और यह तय नहीं कर पाते हैं कि क्या वे जो करते हैं वह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होता है। कभी-कभी उनके कार्य में विचलन होंगे। लेकिन ये विचलन सिर्फ विचलन ही हैं, विकृतियाँ नहीं हैं। अगर ये विकृतियाँ होतीं तो इससे खराब काबिलियत प्रकट होती। विचलनों और विकृतियों में अंतर है : विचलनों का मतलब है कि कार्य पूरी तरह से सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, पर्याप्त रूप से नहीं किया गया है या इसमें पर्याप्त विचार नहीं है, लेकिन दिशा गलत नहीं है। बात सिर्फ इतनी है कि उनका कार्य पर्याप्त रूप से मानक-स्तर का नहीं होता है क्योंकि उनके पास अपर्याप्त कार्य अनुभव है या यूँ कहें कि सत्य की सतही समझ है और सत्य सिद्धांतों पर ऐसी पकड़ है जो पर्याप्त रूप से सटीक नहीं है। यह मानक-स्तर का होने के पास जा सकता है लेकिन फिर भी पूरी तरह से मानक-स्तर का होने के लिए इसमें सुधार की जरूरत होती है। ये औसत काबिलियत वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ हैं। इस तरह के व्यक्ति की मुख्य विशेषता क्या है? (वह यह है कि वह स्वतंत्र रूप से कार्य की कोई मद ठीक से नहीं कर सकता है; उसे कोई कार्य पूरा करने के लिए दूसरों की मदद और समर्थन की जरूरत होती है।) उसकी विशेषता यह है कि चाहे समझ के लिहाज से हो या अपना कर्तव्य करने के लिहाज से, वह अपेक्षाकृत हीन होता है। आमतौर पर वह स्वतंत्र रूप से कार्य की कोई मद ठीक से नहीं कर पाता है, उसे दूसरों से समर्थन, पुनरीक्षण और प्रेरण की जरूरत होती है। इसलिए औसत काबिलियत वाले लोगों के पास जो मूलभूत विवेक होना चाहिए वह है चीजें करते समय ज्यादा तलाशना और ज्यादा प्रतीक्षा करना। जब वे किसी चीज की असलियत नहीं देख सकते हैं तो उन्हें फौरन और विनम्रता से तलाशना चाहिए—या तो आधार के रूप में कार्य करने के लिए परमेश्वर के वचनों में खुद सत्य सिद्धांत खोजने चाहिए या फिर ऊपर वालों से तलाशना चाहिए—और आँख मूँदकर या भ्रमित तरीके से कार्य नहीं करना चाहिए। कुछ समय कार्य करने के बाद अगर तुम कई चीजों के बारे में खुद को उलझन में पड़ा पाते हो तो फौरन उनका सारांश प्रस्तुत करो, उन्हें दर्ज करो और ऊपर वालों से तलाशो। इसका उद्देश्य है तुमसे ऊपर जो लोग हैं उनसे पुनरीक्षण करने और यह देखने के लिए कहना कि इस अवधि के दौरान तुमने जो कार्य किया है, उसमें कोई विचलन या कमी तो नहीं है। यह सोचकर बहुत ज्यादा आत्मतुष्ट मत हो कि तुम्हारे पास कार्य अनुभव है और अपने बारे में बहुत ज्यादा अच्छा महसूस मत करो। तुममें आत्म-जागरूकता होनी चाहिए। औसत काबिलियत की अभिव्यक्तियों पर पहले ही चर्चा की जा चुकी है, तो औसत काबिलियत वाले लोगों की विशेषताएँ क्या हैं? (वे स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं कर सकते हैं; उन्हें समर्थन, मदद और चीजों का पुनरीक्षण करने के लिए दूसरों की जरूरत होती है।) और परमेश्वर के वचनों को समझने के लिहाज से उनकी क्या विशेषताएँ हैं? (परमेश्वर के वचनों को समझने के लिहाज से वे सिर्फ कुछ मूलभूत सिद्धांत ही समझ सकते हैं लेकिन उन्हें कार्य में व्यावहारिक ढंग से लागू करने में असमर्थ होते हैं।) और कार्य क्षमता के लिहाज से उनकी क्या विशेषताएँ हैं? (कार्य क्षमता के लिहाज से औसत काबिलियत वाले लोग विभिन्न मुद्दों को देखने या सँभालने के लिए सत्य सिद्धांतों को जल्दी से लागू नहीं कर पाते हैं। इसके अतिरिक्त वे कार्य की सिर्फ एक ही मद को बनाए रख पाते हैं; जब कार्य की कई मदों की बात आती है तब वे सिद्धांतों पर पकड़ नहीं बना पाते हैं। वे कार्य की विभिन्न मदों को अच्छी तरह से पूरा करने के लिए उन्हें महत्व या जरूरत के आधार पर प्राथमिकता देने में असमर्थ होते हैं, फिर कार्य को उचित ढंग से व्यवस्थित करने की तो बात ही छोड़ दो। उनके पास कोई ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो चीजों का पुनरीक्षण करे, उन्हें दिशा बतलाए और लगातार उनकी मदद और उनका समर्थन करे।) सही कहा। औसत काबिलियत वाले लोग स्वतंत्र रूप से कोई एकमुखी कार्य कर सकते हैं या एक निश्चित स्तर का कार्य अनुभव होने के आधार पर कोई सरल कार्य सँभाल सकते हैं। लेकिन जटिल मुद्दों से, विशेष रूप से ऐसे कार्य से सामना होने पर जिसमें अनेक सत्य सिद्धांत शामिल हों, वे उलझन में पड़ जाते हैं और उन्हें पता नहीं होता कि अभ्यास कैसे करना है। एक पल वे सोचते हैं कि इसे इस तरीके से करना चाहिए और अगले ही पल सोचते हैं कि इसे उस तरीके से करना चाहिए, लेकिन उन्हें नहीं पता होता कि कौन-सा तरीका सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। वे उन नतीजों का मूल्यांकन करने में असमर्थ हैं जो कार्य पूरा किए जाने के बाद अंत में उत्पन्न हो सकते हैं। ऐसी परिस्थितियों में वे बिना किसी मार्ग के रह जाते हैं। औसत काबिलियत वाले लोग कार्य की एक ही मद के लिए योग्य हो सकते हैं, लेकिन कार्य की कई मदों या थोड़े ज्यादा जटिल कार्य से सामना होने पर वे उलझन में पड़ जाते हैं। उदाहरण के लिए, तुम लोगों में से कुछ अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कार्य की एक मद सौंपे जाने पर वे उसे सँभाल सकते हैं, लेकिन अगर उन्हें कार्य की दो-तीन मदें सौंपी जाती हैं तो वे उनका प्रबंध नहीं कर सकते हैं। भले ही वे उन्हें अच्छी तरह से करना चाहते हों, लेकिन वे इसे हासिल नहीं कर सकते ह। उनके कार्य में व्यस्त हो जाने पर, जैसे ही कोई व्यक्ति कोई समस्या उठाता है, वे उलझन में पड़ जाते हैं और उन्हें नहीं पता होता कि इसे कैसे हल करना है। नतीजतन, कार्य की कोई भी मद अच्छी तरह से नहीं की जाती है। ये औसत काबिलियत वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ हैं। औसत काबिलियत वाले लोग एक साथ दो-तीन कार्य नहीं कर पाते हैं। खासतौर पर जटिल या विशेष परिस्थितियों का सामना करते समय, वे फौरन उलझन में पड़ जाते हैं और उन्हें नहीं पता होता कि क्या करना है। नतीजतन वे जो कार्य अच्छी तरह से कर सकते थे, वह अच्छी तरह से नहीं किया जाता है और कार्य की जिन मदों के लिए वे जिम्मेदार होते हैं उनमें परेशानी आ जाती है और देर हो जाती है। इसलिए औसत काबिलियत वाले लोग कार्य की दो-तीन मदों का बीड़ा नहीं उठा पाते हैं और वे कार्य की सिर्फ सरल, अलग-अलग मदों के लिए ही उपयुक्त होते हैं। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता हमेशा कार्य करने को बहुत सरल समझते हैं। जब दूसरे लोग समस्याओं की तरफ ध्यान दिलाते हैं, तब वे हमेशा उदासीन रहते हैं और उन्हें समस्याओं की तरह नहीं देखते हैं, यहाँ तक कि वे यह भी सोचते हैं कि उन लोगों के दिमाग में कुछ गड़बड़ है और वे चीजों को बहुत ही ज्यादा जटिल बना रहे हैं। अंत में बड़ी समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं और वे उन्हें हल करने में असमर्थ होते हैं और सिर्फ उसके बाद ही वे ऊपर वालों को उनकी रिपोर्ट करते हैं। ऐसे अगुआओं और कार्यकर्ताओं के पास बहुत ही कम अनुभव होता है और उनमें अंतर्दृष्टि की कमी होती है। वे अपने कार्य में हमेशा यह मान लेते हैं कि सब कुछ सुचारू रूप से चलेगा, वे सिर्फ कुछ विनियमों का पालन करते हैं और हठपूर्वक एक ही मार्ग से चिपके रहते हैं। चाहे उत्पन्न होने वाली समस्याएँ कितनी भी गंभीर हों, वे उन्हें समझने में विफल होते हैं; इससे भी ज्यादा, वे यह समझने में विफल होते हैं कि अगर इन समस्याओं का समाधान नहीं किया गया तो समग्र कार्य में देरी हो जाएगी। ये औसत काबिलियत वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ हैं।

आमतौर पर अगर औसत काबिलियत वाले लोग अपनी मानवता के सभी पहलुओं में मानक-स्तर के हों तो मूल रूप से वे एकमुखी कार्य के लिए सक्षम हो सकते हैं। मैं इसलिए ऐसा कहता हूँ कि वे स्वतंत्र रूप से व्यापक कार्य पूरा नहीं कर सकते हैं क्योंकि उनकी काबिलियत उन्हें सिर्फ एकमुखी कार्य में ही अच्छा करने की अनुमति देती है। जब उनकी रुचियों, शौक और ताकतों से संबंधित किसी कार्य की बात आती है तो अपनी काबिलियत के लिहाज से वे इसके लिए सक्षम हो सकते हैं। लेकिन बहुमुखी कार्य की जटिलताओं से सामना होने पर वे उलझन में पड़ जाते हैं। अगर उनके पास कुछ व्यावहारिक अनुभव हो तो भी उनकी काबिलियत उस कार्य के लिए पर्याप्त नहीं होती है। कुछ लोग कहते हैं, “क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि मैं छोटा हूँ?” नहीं, ऐसी बात नहीं है। अगर तुम्हारी काबिलियत औसत है तो भले ही तुम चालीस-पचास वर्ष की आयु तक पहुँच जाओ, फिर भी तुम बहुमुखी कार्य का बीड़ा उठाने के लिए सक्षम नहीं होगे। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? कार्य का वास्तव में निर्वहन करने के माध्यम से कुछ अनुभव इकट्ठा करने के बाद तुम एकमुखी कार्य सँभालने में सक्षम हो सकते हो। लेकिन तुम स्वतंत्र रूप से अच्छी तरह से कार्य पूरा करने में सिर्फ उन परिस्थितियों में समर्थ होते हो जहाँ तुम्हारे पास मार्गदर्शन हो, चीजों का पुनरीक्षण करने के लिए कोई हो या दूसरों से अनुवर्ती कार्रवाई हो—तुम स्वतंत्र रूप से बहुमुखी कार्य का बीड़ा उठाने में हमेशा असमर्थ रहते हो। यह बताता है कि तुम औसत काबिलियत वाले हो। कुछ लोग बहुत-से वर्षों तक विभिन्न परिस्थितियों से गुजरकर कुछ अनुभव इकट्ठा करने के बाद और कुछ सत्य सिद्धांत समझने लगने के बाद भी बहुमुखी कार्य का बीड़ा नहीं उठा सकते हैं, खासकर ऐसे कार्य का जहाँ उन्हें स्वतंत्र रूप से उसका प्रभार लेना चाहिए। जब वे जटिल परिस्थितियों का सामना करते हैं, तब वे उलझन में पड़ जाते हैं और महत्व या जरूरत के आधार पर कार्यों को प्राथमिकता नहीं दे पाते हैं। ऐसे लोग निश्चित रूप से औसत काबिलियत वाले होते हैं। कार्य अनुभव व्यक्ति की कार्य क्षमता का सिर्फ एक पहलू दर्शाता है; यह प्रमुख कारक नहीं है। व्यक्ति की काबिलियत और विभिन्न पहलुओं में उसकी क्षमताएँ प्रमुख कारक होते हैं। कार्य अनुभव सिर्फ कुछ संदर्भ प्रदान करता है। यकीनन कार्य अनुभव भी कीमती है क्योंकि यह व्यक्तिगत अनुभव से उत्पन्न होता है, लेकिन यह व्यावहारिक कार्य अनुभव तुम्हें बहुमुखी कार्य के सिद्धांतों पर ज्यादा सटीकता से पकड़ बनाने में सक्षम नहीं बना सकता है। अगर तुम्हारी काबिलियत अच्छी है और तुम सही मायने में सत्य सिद्धांत समझते हो तो भले ही तुम्हारे पास कोई कार्य अनुभव न हो या तुम्हारा व्यक्तिगत अनुभव व्यापक न हो, फिर भी तुम अपने आप समग्र कार्य का बीड़ा उठा सकते हो और स्वतंत्र रूप से कार्य का प्रभार ले सकते हो। लेकिन औसत काबिलियत वाले लोग अपने आप समग्र कार्य पूरा नहीं कर सकते हैं; वे सिर्फ एकमुखी कार्य पूरा कर सकते हैं और उन्हें लगातार प्रेरण, पुनरीक्षण, मदद और मार्गदर्शन की जरूरत होती है। इसलिए तुममें से जो लोग औसत काबिलियत वाले हो, तुम यह मत सोचो कि एकमुखी कार्य में अच्छा करने में समर्थ होने का मतलब है कि तुम बहुमुखी कार्य के लिए सक्षम हो सकते हो या स्वतंत्र रूप से कार्य का प्रभार ले सकते हो। यह एक वहम और गलत समझ है। अपने आप एकमुखी कार्य पूरा करने में समर्थ होने और अपने आप बहुमुखी कार्य पूरा करने में समर्थ होने में अंतर है—वह है स्वतंत्र रूप से कार्य का प्रभार लेने में समर्थ होना। यह कुछ ऐसा है जो तुम लोग अनुभव के जरिये धीरे-धीरे जानने लगोगे। हो सकता है कि ये शब्द समझने में आसान न हों—सिर्फ वे लोग ही इन्हें समझ सकते हैं जिन्होंने कई वर्षों तक अगुआओं या कार्यकर्ताओं के रूप में सेवा की है और जिनके पास व्यावहारिक अनुभव है। साधारण भाई-बहन शायद न समझें, है ना? जिन अगुआओं और कार्यकर्ताओं ने बहुमुखी कार्य का बीड़ा उठाया है उनके पास व्यावहारिक अनुभव है और वे इसमें अंतरों को समझते हैं—वे जिस तरीके से अपना कार्य करते हैं उसमें उनके सिद्धांत होते हैं। लेकिन औसत काबिलियत वाले लोग इसमें पीछे रह जाते हैं। तो इस प्रकार औसत काबिलियत वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ संक्षेप में पूरी तरह से प्रस्तुत कर दी गई हैं।

आओ, इसके बाद हम खराब काबिलियत वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ संक्षेप में प्रस्तुत करें। खराब काबिलियत वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ निश्चित रूप से औसत काबिलियत वाले लोगों से बदतर होती हैं। खराब काबिलियत वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? वे ये हैं कि हालाँकि वे परमेश्वर के वचनों की उनकी अपनी तलाश के माध्यम से या उन्हें खाने और पीने के माध्यम से शाब्दिक स्तर पर परमेश्वर के वचनों के हर वाक्य और अंश का मतलब—और साथ ही परमेश्वर के इरादे और अपेक्षाएँ क्या हैं इन्हें भी—समझ सकते हैं, वे सत्य सिद्धांत या परमेश्वर के अपेक्षित मानक बिल्कुल भी नहीं समझते हैं। यानी वे, लोगों और चीजों को कैसे देखना है या कैसे आचरण करना है और कैसे कार्य करना है इसके लिए परमेश्वर के अपेक्षित मानकों को नहीं समझते हैं और न ही वे यह समझते हैं कि इसमें शामिल सत्य सिद्धांत क्या हैं। जब वे अपने आप परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हैं, तब वे इन चीजों को नहीं समझ सकते हैं, और दैनिक जीवन में लोगों, घटनाओं और चीजों के साथ अनुभव होने के बाद भी वे नहीं समझ सकते हैं। यहाँ तक कि संगति के बाद भी वे इस बारे में अस्पष्ट रहते हैं कि सत्य सिद्धांत क्या हैं। इस तरह के व्यक्ति की एक विशेषता होती है : वैसे तो वह नहीं समझता कि सत्य सिद्धांत क्या हैं, लेकिन वह अपनी भावनाओं पर भरोसा करके उन विनियमों को संक्षेप में प्रस्तुत कर सकता है जिनका उसे पालन करने की जरूरत है। जिन्हें वह याद रख सकता है वे हैं विनियम—एक तरह का सख्त सिद्धांत या नियमों का समूह। उदाहरण के लिए, परमेश्वर सत्य सिद्धांतों के एक पहलू पर संगति करता है, इस संबंध में लोगों की सकारात्मक अभिव्यक्तियों, नकारात्मक अभिव्यक्तियों, शुद्ध समझ और विकृत समझ वगैरह के उदाहरण देता है—खराब काबिलियत वाले लोग अंत में इससे क्या प्राप्त करते हैं? वे कहते हैं, “अब मुझे यह समझ आ गया है। परमेश्वर व्यक्ति को फलाँ-फलाँ चीजें करने की अनुमति नहीं देता है। परमेश्वर फलाँ-फलाँ चीजें खाने की अनुमति नहीं देता है। परमेश्वर फलाँ-फलाँ शब्द कहने या उन शब्दों का उपयोग करने की अनुमति नहीं देता है।” उन्हें यही बातें याद रहती हैं और वे सख्ती से इनका पालन करते हैं, वे सोचते हैं कि यही सत्य सिद्धांत हैं। उनका मानना है कि अगर वे इन विनियमों, कहावतों और कार्य करने के तरीकों का पालन करते हैं तो वे सत्य सिद्धांतों का पालन कर रहे हैं। चाहे तुम उनसे कितना भी कहो कि यह सिर्फ विनियमों का पालन करना है, वे इसे स्वीकार नहीं करेंगे। वे इन विनियमों का पालन करने पर अड़ जाते हैं, उनका मानना है कि यह परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना और सत्य का अभ्यास करना है। जिन लोगों में कोई अध्यात्मिक समझ नहीं होती है उनसे निपटने का कोई तरीका नहीं है। अगर वे विनियमों का पालन करने को तैयार हैं तो उन्हें ऐसा करने दो—जब तक उनके इरादे गलत न हों तब तक कोई बात नहीं। उदाहरण के लिए, एक बार मैंने कहा, “जब तुम लोग प्रार्थना करते हो, तब तुम्हें भक्तिमय होना चाहिए; लापरवाही से प्रार्थना मत करना। उपयुक्त परिवेशों में प्रार्थना करने के लिए घुटने टेकना, प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने खुद को दंडवत करना सबसे अच्छा है और प्रार्थना के दौरान तुम्हें परमेश्वर के सामने खुद को शांत करना चाहिए और एकाग्र दिल से प्रार्थना करनी चाहिए। यह भक्तिमय होना और अपने पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होना है।” खराब क्षमता वाले लोगों ने यह सुनने के बाद सिर्फ एक विनियम याद रखा : “भक्ति और परमेश्वर का भय मानने वाले दिल से प्रार्थना करने के लिए व्यक्ति को घुटने टेकने चाहिए।” उन्होंने प्रार्थना करने के लिए घुटने टेकने को एक सत्य सिद्धांत माना और उसी के अनुसार इसका पालन किया, उनका मानना था कि यह सत्य का अभ्यास करना है। इसलिए, चाहे परिवेश कोई भी हो, वे प्रार्थना करने के लिए घुटने टेकने पर अड़ जाते थे। यहाँ तक कि जब वे भोजन के समय प्रार्थना करना चाहते, तब भी वे प्रार्थना करने के लिए मेज के नीचे घुटने टेक लेते। खेतों में काम करते समय चाहे जमीन कितनी भी गंदी हो या मिट्टी में कुछ भी हो, वे प्रार्थना करने के लिए घुटने टेक लेते थे। यहाँ तक कि जब अविश्वासियों के बीच उनका आपदाओं या बड़ी घटनाओं से सामना होता था, तब भी अगर वे परमेश्वर से प्रार्थना करना चाहते तो उन्हें घुटने टेकने और प्रार्थना करने के लिए कोई गुप्त जगह ढूँढ़नी पड़ती थी। उनका मानना था कि सिर्फ इसी तरह से प्रार्थना करना ही परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है, इसलिए चाहे हालात कुछ भी हों, प्रार्थना करने के लिए उन्हें घुटने टेकने ही थे। वे सोचते थे कि ऐसा करके वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त वे खुद को सबसे अधिक भक्तिमय लोगों के रूप में देखते थे, ऐसे लोगों के रूप में जो परमेश्वर के मार्ग का सबसे अधिक करीब से पालन करते हैं, जो सत्य से सबसे ज्यादा प्रेम करते हैं और जो सत्य और परमेश्वर के वचनों के प्रति सबसे ज्यादा समर्पण कर सकते हैं। देखा तुमने, ये खराब काबिलियत वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ हैं। समझ के लिहाज से इस तरह का व्यक्ति हीन और समस्यात्मक होता है। वह हमेशा एक वाक्य या विनियम पर सिद्धांतों को सख्ती से स्थिर कर देता है। वह सत्य समझने के लिए शब्द और ज्ञान समझने की विधि का उपयोग करता है और यकीनन वह विनियमों, शब्दों, कहावतों और औपचारिकताओं का पालन करके सत्य का अभ्यास भी करता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम सत्य सिद्धांतों के बारे में कैसे संगति करते हो, उन्हें सुनने के बाद वह उन्हें सिर्फ वाक्यों, विनियमों, कार्य करने के तरीकों या नारों के रूप में सोचता है। उसके लिए यह सिर्फ नियमों का पालन करने के बारे में है। वह सत्य का अभ्यास करने को इतना ही सरल मानता है, जैसे कि यह सिर्फ इस बात का पालन करना हो कि क्या किया जा सकता है और क्या नहीं किया जा सकता है, बस और कुछ नहीं।

खराब काबिलियत वाले लोग सभो चीजों को मापने और उनसे पेश आने के लिए विनियमों का उपयोग करते हुए लोगों और चीजों को देखते हैं, आचरण करते हैं और कार्य करते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बाहरी परिवेश और आस-पास के लोग, घटनाएँ और चीजें कैसे बदलती हैं, वे बिना किसी बदलाव के लगातार एक ही विनियम का पालन करते हैं। अगर तुम कहते हो कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते हैं और सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं तो उन्हें अपने दिलों में लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है। वे कहते हैं, “मैंने इतना त्याग किया है, इतना कष्ट सहा है, परमेश्वर के इतने सारे वचनों का पालन किया है और परमेश्वर के इतने सारे वचनों का अभ्यास किया है—तो तुम यह क्यों कहते हो कि मैं सत्य से प्रेम नहीं करता और सत्य का अभ्यास नहीं करता? तुम यह क्यों कहते हो कि मैं विनियमों का पालन करता हूँ? मेरे साथ अन्याय किया जा रहा है!” उनके द्वारा ऐसे शब्द कह पाना कौन-सी समस्या का संकेत देता है? खराब काबिलियत वाले लोगों की मुख्य अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? उनकी काबिलियत किस तरीके से खराब है? उनमें सत्य समझने की क्षमता बिल्कुल नहीं होती है, इसलिए चाहे सत्य के किसी भी पहलू पर कितनी भी संगति की जाए, उनके लिए अंत में यह सब कुछ एक सिद्धांत के बजाय कार्य करने के तरीका, एक नियम, एक वाक्यांश या एक औपचारिकता बनकर रह जाता है। अगर कोई ऐसा वाक्य कहता है या ऐसे शब्द का उपयोग करता है जो उनके उस नियम का उल्लंघन करता है, तो उनके लिए यह सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन है। यह परेशानी वाली बात है। इसलिए एक बात तो यह है कि खराब काबिलियत वाले लोग यह निर्धारित करने के लिए विभिन्न विनियमों, औपचारिकताओं, सिर्फ शब्दों और कार्य करने के तरीकों का उपयोग करते हैं कि खुद उनके पास सत्य वास्तविकता है। इसके अलावा एक और परेशानी वाला मामला है : वे दूसरों को मापने के लिए और यहाँ तक कि परमेश्वर को मापने के लिए भी अक्सर उन धर्म-सिद्धांतों का उपयोग करते हैं जिन्हें वे बार-बार बोलते हैं और उन विनियमों और कार्य करने के तरीकों का उपयोग करते हैं जिनका वे अक्सर पालन करते हैं। मापने के अलावा वे अक्सर दूसरे लोगों और परमेश्वर के बारे में राय भी बनाते हैं और दूसरे लोगों और परमेश्वर का परिसीमन भी करते हैं। उदाहरण के लिए, एक बार मैंने कहा, “मैं आमतौर पर ठंडी चीजें खाने की हिम्मत नहीं करता। उन्हें खाने के बाद मेरा पेट खराब हो जाता है, इसलिए मैं मूल रूप से ये कच्ची और ठंडी खाने की चीजें नहीं खाता।” एक खराब काबिलियत वाले व्यक्ति ने यह सुन लिया और वह बोला, “अब मैं तुम्हें समझ गया। भविष्य में मुझे यह सुनिश्चित करना होगा कि मैं तुम्हें कच्ची और ठंडी खाने की चीजें न दूँ। किसी भी हालात में मैं तुम्हें कभी भी कच्ची और ठंडी खाने की चीजें खाने नहीं दूँगा।” लेकिन जब गर्मियों का मौसम आया और मौसम बेहद गर्म हो गया और खेत में स्ट्रॉबेरी पक गई, तो एक दिन मैंने खेत में दो स्ट्रॉबेरी खा लीं और इसे देखकर उसके मन में ये विचार आए : “क्या ऐसा नहीं है कि तुम कभी भी कच्ची और ठंडी चीजें नहीं खाते? क्या स्ट्रॉबेरी ठंडी नहीं होतीं? क्या तुमने इससे पहले नहीं कहा था कि ठंडी चीजें खाने से तुम्हारे पेट में परेशानी होने लगती है? तो फिर आज तुम स्ट्रॉबेरी क्यों खा रहे हो? क्या तुम झूठ नहीं बोल रहे हो?” उसने अपने दिल में यह सोचा; बस इतना था कि उसने इसे जोर से नहीं कहा। मुझे बताओ, क्या मामलों के बारे में उसका मत सही था? (नहीं।) यह कैसे गलत था? (परमेश्वर ने एक चीज जिस संदर्भ में कही थी उस संदर्भ का ध्यान रखे बिना उसने उस चीज को चीजें मापने के विनियम के रूप में ले लिया।) उसे नहीं पता था कि मेरे इन वचनों का क्या मतलब है। सामान्य हालातों में कच्ची और ठंडी चीजें खाने से मेरे पेट में परेशानी होने लगती है लेकिन इसके अपवाद भी हैं। उदाहरण के लिए, जब मैं शारीरिक कार्य कर रहा होता हूँ और मेरा शरीर गर्म हो जाता है और उसके साथ ही, मौसम भी गर्म हो जिसमें तापमान करीब तीस डिग्री तक पहुँच गया हो और तब वे कच्ची और ठंडी खाने की चीजें इतनी बर्फीली नहीं हों, तो ऐसे में मैं उन्हें थोड़ी मात्रा में खा सकता हूँ। ऐसा नहीं है कि मैं उन्हें बिल्कुल भी नहीं खा सकता। जब मैंने कहा “उन्हें नहीं खा सकता”, तो मेरा मतलब सामान्य हालातों से था; तपती गर्मी के मौसम में थोड़ी मात्रा में खाने से मुझे कुछ नहीं होता। खराब काबिलियत वाला व्यक्ति इन वचनों को समझ नहीं पाया। जब उसने उन्हें सुना तो वह उन्हें एक विनियम या सूत्र मान बैठा। जब विशेष हालात उत्पन्न हुए तब भी उसने उन्हें इस सूत्र में बिठाने का प्रयास किया। जब उसने देखा कि वे ठीक नहीं बैठ रहे हैं तो वह इसे समझ नहीं पाया : “क्या तुमने नहीं कहा था कि तुम कच्ची और ठंडी चीजें नहीं खा सकते? तो तुम अब उन्हें कैसे खा रहे हो? क्या तुम झूठ नहीं बोल रहे हो?” मेरे वचनों को समझने में उसकी असमर्थता के लिहाज से उसकी अपर्याप्तता कहाँ थी? (उसमें बोध क्षमता बिल्कुल नहीं थी।) उसकी अपर्याप्तता परिवेश और विशेष हालातों में बदलावों के आधार पर इस मामले के बारे में राय बनाने और समझने में असमर्थता में निहित थी। अगर पर्याप्त काबिलियत वाला व्यक्ति इसे देखता है तो वह जान जाएगा कि कार्य करने और मेरे शरीर के गर्म हो जाने के बाद और साथ ही मौसम के गर्म होने और फलों के बहुत ज्यादा ठंडे नहीं होने पर थोड़ी मात्रा में खाना मेरे लिए कोई समस्या नहीं है और यह बहुत ही सामान्य है। वे इस मामले को समझ सकते हैं और इसका मतलब निकाल सकते हैं। लेकिन खराब काबिलियत वाला व्यक्ति इसका मतलब नहीं निकाल सकता; वह इस बिंदु पर अटक जाता है और अपने दिल में धारणाएँ बना लेता है। एक बार धारणाएँ बन जाने पर क्या नतीजा होता है? यह आसानी से उसे राय बनाने और निंदा करने की तरफ ले जाता है। क्या यही बात नहीं है? (हाँ।) यकीनन यह छोटा मामला कोई बड़ा मुद्दा नहीं है, लेकिन अपने दिल में वह इसे जाने नहीं दे सकता : “क्या यह झूठ बोलना नहीं है? तो तुम भी झूठ बोलते हो!” देखा तुमने, वह इस बहुत छोटे-से मामले को भी परिसीमित करने और फैसला सुनाने में फुर्ती करता है। और यह प्रमुख मुद्दों का जिक्र करने से भी पहले है—उसने पहले से ही धारणाएँ बना ली हैं। खराब काबिलियत वाले लोग ऐसे छोटे मामलों की भी असलियत नहीं देख पाते हैं और उनमें जरा भी भेद पहचानने की क्षमता नहीं होती है। चाहे वे किसी भी मुद्दे को देख रहे हों, वे विनियमों को सख्ती से लागू करते हैं। उनका मानना है कि सत्य सिर्फ उन्हीं लोगों के पास होता है जो विनियमों का पालन कर सकते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारे शब्द और क्रियाकलाप सत्य सिद्धांतों से कैसे मेल खाते हैं, जब तक वे ऐसे लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के खिलाफ जाते हैं और उन विनियमों से टकराते हैं जिन्हें ऐसे लोग पहचानते हैं, तब तक वे अपने दिलों में तुम्हारे बारे में राय बनाएँगे और तुम्हारी निंदा करेंगे। भले ही वे इसे जोर से न कहें, लेकिन वे तुम्हारे खिलाफ धारणाएँ या पूर्वाग्रह बनाएँगे। खराब काबिलियत वाले ये लोग चाहे कितने भी धर्मोपदेश सुनें या उनके साथ सत्य के किसी भी पहलू पर संगति की जाए, वे हमेशा हर चीज को एक कथन, कार्य करने के तरीके या विनियम तक सीमित कर देते हैं और वे इन कथनों, कार्य करने के तरीकों और विनियमों का बड़े जोश से पालन करते हैं; वे यह तक मानते हैं कि वे ऐसे लोग हैं जो सत्य का अभ्यास करते हैं और सही मायने में सत्य के प्रति समर्पण करते हैं और सही मायने में परमेश्वर का भय मानते हैं। यहाँ तक कि वे कभी-कभी खुद को भावुक करके रोने लगते हैं, सोचते हैं कि वे सही मायने में परमेश्वर से प्रेम करते हैं और दुनिया में उनसे ज्यादा परमेश्वर से प्रेम कोई नहीं करता। दरअसल वे सिर्फ एक ही विनियम या कार्य करने का एक ही तरीका अपनाते हैं। वे इस तरीके से अपना अभ्यास करते हैं और बिना किसी बदलाव के इसमें लगे रह सकते हैं, यह मानते हुए कि उन्होंने सत्य प्राप्त कर लिया है और वे परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जा चुके हैं। मुझे बताओ, क्या यह परेशानी वाली बात नहीं है? (हाँ।)

क्या तुम लोग अक्सर ऐसे उदाहरण देखते हो जहाँ लोग विनियमों का पालन करते हैं? (हाँ।) उदाहरण के लिए, तुम खाना पकाने वाले व्यक्ति से कहते हो कि मौसम गर्म हो रहा है, इसलिए उसे हर रोज कुछ ठंडक देने वाली हर्बल चाय बनानी चाहिए या कुछ ठंडा पेय बनाना चाहिए और खाना बनाते समय कुछ ठंडे पकवान परोसने चाहिए—जिसे पश्चिमी लोग सलाद कहते हैं—ताकि लोगों की भूख बढ़े। खराब काबिलियत वाला व्यक्ति इस बात को अच्छी तरह याद कर लेता है : जब मौसम बहुत गर्म होता है तो लोगों को ठंडे पकवान खाने चाहिए और ठंडे पेय पीने चाहिए। वह इसे अच्छी तरह से याद रखता है और इसका पूरी लगन से पालन करता है। लेकिन एक दिन जब तापमान गिरता है तो वह इस बात को अनदेखा कर देता है कि आज ठंड है या नहीं और सोचता है, “अभी गर्मियाँ हैं, इसलिए मुझे ठंडे पकवान और ठंडे पेय बनाने चाहिए। मैं उन्हें हर रोज बनाऊँगा ताकि तुम उनका भरपूर आनंद ले सको, ताकि तुम्हें पूरी तरह से ठंडक मिल सके। चाहे तापमान गिरे या न गिरे, मुझे इसकी परवाह नहीं!” वह न सिर्फ ठंडे पकवान बनाता है बल्कि नूडल्स भी ठंडे पानी में धोता है, फिर भोजन के बाद ठंडे पेय बनाता है, यहाँ तक कि उनमें कुछ बर्फ के टुकड़े भी डाल देता है। यह देखकर कुछ लोग कहते हैं : “आज इतनी ठंड है। फिर भी तुम ठंडे पकवान कैसे बना सकते हो? और यहाँ तक कि तुमने ठंडे पेय में बर्फ के टुकड़े भी डाले हैं—क्या तुम हमें जमा देने का प्रयास कर रहे हो?” खाना पकाने वाले व्यक्ति को बुरा लग जाता है और वह कहता है, “क्या मैं वाकई इतना दुर्भावनापूर्ण हूँ? गर्मियों में इतनी गर्मी है—क्या मैं यह सब सिर्फ इसलिए नहीं कर रहा हूँ ताकि सभी को ठंडक मिले और वे जरा-सा ज्यादा खाएँ? क्या यह सिद्धांतों का पालन करना और सभी के प्रति विचारशील होना नहीं है? मैं गलत कैसे हूँ? और अब तुम कहते हो कि मैं तुम्हें जमा देने का प्रयास कर रहा हूँ—क्या मुझमें सदाचार की वाकई इतनी कमी है? क्या मेरी मानवता वाकई इतनी खराब है? तुम सभी मेरे प्रति बहुत ही ज्यादा विचारशून्य हो!” क्या इस तरीके से खाना पकाकर वह सिद्धांतों का पालन कर रहा है? यहाँ क्या सिद्धांत है? यहाँ सिद्धांत है मौसम और तापमान के अनुसार भोजन और पेय को समायोजित करना। गर्मियों में जब मौसम गर्म होता है तो अपेक्षाकृत ठंडी खाने-पीने की चीजों का सेवन करना जो लोगों की भूख बढ़ा सकें—यह एक सिद्धांत है, है ना? यह एक सिद्धांत है। लेकिन तापमान में अचानक गिरावट के चलते अब इस सिद्धांत को कैसे लागू किया जाना चाहिए? (जब तापमान अचानक गिरता है तो खाना पकाने वाला व्यक्ति अब ठंडे पकवान या सलाद बनाने पर अड़ा नहीं रह सकता जैसे उसे पहले सलाह दी गई थी, बल्कि उसे मौसम के आधार पर समायोजन करना चाहिए और गर्म पकवान बनाने चाहिए। वह विनियमों का पालन नहीं कर सकता।) सही कहा। जब गर्मियों में कभी-कभार मौसम ठंडा हो जाता है तो तुम गर्मियों में ठंडे पकवान और ठंडे पेय बनाने पर अड़े नहीं रह सकते—तुम इस विनियम का पालन नहीं कर सकते। जब तापमान अचानक गिरता है, तो लोगों द्वारा सेवन की जाने वाली खाने-पीने की चीजें भी तुरंत बदल जानी चाहिए। ठंडे पकवान और ठंडे पेय अब और नहीं बनाए जाने चाहिए और बर्फ के टुकड़े तो निश्चित रूप से नहीं डाले जाने चाहिए। बल्कि तुम्हें गर्म पकवान पकाने चाहिए, कुछ गर्म नूडल्स बनाने चाहिए, तापमान और मौसम के अनुसार खाने-पीने की चीजें समायोजित करनी चाहिए। यही सिद्धांत है। लेकिन खराब काबिलियत वाला व्यक्ति तापमान या मौसम की स्थिति की परवाह किए बगैर जब तक गर्मियाँ हैं तब तक ठंडे पेय और ठंडे पकवान बनाने में लगा रहता है—यहाँ क्या समस्या है? (विनियमों का पालन करना।) यह विनियमों का पालन करना है, हालातों के अनुसार लचीले ढंग से सिद्धांतों को लागू करने में असमर्थ होना है। लोग आमतौर पर चीजें कैसे करते हैं इस लिहाज से ये खराब काबिलियत वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ हैं—वे एक कथन याद रखते हैं और उसे एक विनियम मान लेते हैं जिसका उन्हें पालन करना है और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परिवेश, लोग, घटनाएँ और चीजें कैसे बदलती हैं, वे मामले सँभालने के लिए सिद्धांतों को लचीले ढंग से लागू नहीं कर पाते हैं। दरअसल, भोजन और पेय के संबंध में सिद्धांत स्थापित करने से जो नतीजा हासिल किया जाना है वह यह सुनिश्चित करना है कि लोग इस तरह से खाना खाएँ कि उनके शरीर को आराम महसूस हो। ऐसे सिद्धांत विनियम बिल्कुल भी नहीं होते हैं। लेकिन जो लोग विनियमों का पालन करते हैं, वे तापमान या मौसम का ध्यान रखे बिना और इस बात की परवाह किए बिना कि तुम्हें खाकर अच्छा महसूस होता है या नहीं, जब तक गर्मियाँ रहती हैं तब तक ठंडे पकवान और ठंडे पेय बनाते रहते हैं—इसे विनियमों का पालन करना कहते हैं। सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने का मतलब है कि की गई हर चीज वही अंतिम अच्छा नतीजा हासिल करने के इर्द-गिर्द घूमती है। लेकिन विनियमों का पालन करने से नतीजा नजरअंदाज हो जाता है और सिर्फ औपचारिकताओं और कार्य करने के तरीकों पर ध्यान केंद्रित रहता है। खराब काबिलियत वाले लोग ठीक इसी तरह से मुद्दे सँभालते हैं—इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन-सी चीजें उत्पन्न होती हैं, वे उन्हें सँभालने के लिए इसी नजरिये का उपयोग करते हैं।

खराब काबिलियत वाले लोग अपने रास्ते में आने वाली किसी भी चीज की असलियत नहीं देख पाते हैं। यहाँ तक कि परमेश्वर के वचन पढ़ते समय या धर्मोपदेश सुनते समय भी उनकी समझ में कुछ विकृति रहती है और निस्संदेह उनमें विचलन शामिल होते हैं। वे एक विनियम, कार्य करने के तरीके या अनुष्ठान का पालन कर रहे होते हैं जो सत्य सिद्धांतों से पूरी तरह से भिन्न होता है और नतीजतन कई विकृत चीजें उत्पन्न होती हैं। यह कहा जा सकता है कि किसी भी मामले के बारे में खराब काबिलियत वाले लोगों की समझ में कुछ हद तक विकृत प्रकृति हमेशा रहती है। वैसे तो वे सरल और आसानी से प्रबंधित करने योग्य चीजों में विकृति दिखाए बिना आज्ञाकारिता और समर्पण प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन जब सिद्धांत-आधारित मामलों या अपेक्षाकृत जटिल मुद्दों की बात आती है तो वे सत्य सिद्धांतों पर पकड़ नहीं बना पाते हैं और उन्हें सिर्फ विनियमों का पालन करना आता है। तुम समझ रहे हो? (हाँ।) खराब काबिलियत वाले लोगों में सत्य समझने की पूरी तरह से कमी होती है और उन्हें सिर्फ विनियमों का पालन करना आता है। ऐसे लोग काफी परेशान करने वाले भी होते हैं। वे विनियमों का पालन करने में बहुत जोशभरे और दृढनिश्चयी होते हैं। अगर तुम उनके साथ संगति करते हो और कहते हो, “तुम जो कर रहे हो वह विनियमों का पालन करना है, सत्य सिद्धांतों का पालन करना नहीं है” तो वे इसे स्वीकार नहीं कर सकते हैं। उन्हें लगता है : “मैं दृढ़तापूर्वक सिद्धांतों का पालन कर रहा हूँ और दूसरों के साथ समझौता नहीं कर सकता! दूसरे लोग सिद्धांतों का पालन नहीं करते हैं और इसके लिए उनकी निंदा की जाती है, लेकिन जब मैं उनका पालन करता हूँ तो मेरी भी निंदा की जाती है। यह अनुचित है!” देखो वे कितने जिद्दी हैं, तुम उन्हें मना ही नहीं सकते। क्या तुम लोगों का ऐसे लोगों से सामना हुआ है? (हाँ।) उदाहरण के लिए, मैं कुछ लोगों से कहता हूँ, “अगर तुम नृत्य सीखना चाहते हो तो तुम प्रशिक्षण लेने के लिए हर रोज दो घंटे अलग रख सकते हो जब कार्य की व्यस्तता न हो। अगर तुम एक अवधि तक लगे रहे तो तुम इसे सीख लोगे।” वे “हर रोज दो घंटे प्रशिक्षण में लगे रहो” वाक्यांश याद रखते हैं और मानते हैं कि ऐसा करना सत्य का अभ्यास करना है और सिद्धांतों पर कायम रहना है। इसके बाद वे जो कर्तव्य कर रहे हों वह भले ही कितना ही व्यस्तता भरा हो, वे हर रोज दो घंटे नृत्य के प्रशिक्षण में लगे रहते हैं। ऐसी समयावधि के दौरान जब कलीसियाई कार्य सुबह से शाम तक बहुत व्यस्तता भरा रहता है और सीधे शब्दों में कहें तो जब उनके पास देने के लिए दिन में दो घंटे नहीं होते हैं, तब भी वे दो घंटे नृत्य का प्रशिक्षण लेने पर अड़े रहते हैं। जब दूसरे लोग उन्हें याद दिलाते हैं कि इससे कलीसियाई कार्य में देरी हो सकती है तो वे सुनने से इनकार कर देते हैं और कहते हैं, “परमेश्वर ने मुझे हर रोज दो घंटे नृत्य का प्रशिक्षण लेने का निर्देश दिया है। मुझे यह करना ही होगा। अगर मैं ऐसा नहीं करता हूँ तो इसका मतलब है कि मैं उद्दंड हूँ और मुझमें कोई समर्पण नहीं है।” अगर तुम उन्हें ऐसा नहीं करने के लिए कहते हो तो वे अनिच्छुक होते हैं। वे कार्य की जरूरतों या परिवेश की जरूरतों के आधार पर चीजों को लचीले ढंग से सँभालने या मेरे वचनों को लचीले ढंग से लागू करने में असमर्थ होते हैं। वे नहीं समझते हैं कि उन्हें दो घंटे प्रशिक्षण क्यों लेना चाहिए, दो घंटे प्रशिक्षण लेने का क्या महत्व है या यह क्या नतीजा हासिल करने के लिए है। वे इन चीजों को नहीं समझते हैं और इनके बारे में अस्पष्ट होते हैं। उनके लिए सत्य का अभ्यास करने का सीधा-साधा मतलब है केवल एक कथन, एक विनियम या एक औपचारिकता का पालन करना—जो उनकी राय में सत्य का अभ्यास करना है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई नतीजा हासिल होता है या नहीं, वे अड़ियल ढंग से एक ही मार्ग पर चलने में लगे रहते हैं, चाहे कुछ भी हो जाए, यहाँ तक कि अगर उन्हें दस बैल खींचें तो भी वे वापस मुड़ने से इनकार कर देते हैं। भले ही वे अपने अभ्यास में भटक जाएँ, वे इसे लगातार उसी तरीके से करते रहेंगे। उन्हें यह बताए जाने पर भी कि वे बेतुके हो रहे हैं, वे ऐसा करने पर अड़े रहते हैं। क्या ऐसे लोग बहुत परेशान करने वाले नहीं होते हैं? उनके साथ चाहे कोई भी संगति करे, यह काम नहीं करता। जब तुम श्रमसाध्य तरीके से चीजों को स्पष्ट रूप से समझा देते हो, उसके बाद हो सकता है कि आज वे इस मामले को समझ जाएँ, लेकिन कल वे किसी दूसरे मामले में विनियमों का पालन करेंगे, हमेशा विनियमों का पालन करते रहेंगे और तुम्हें लगातार उन्हें सुधारना पड़ेगा। वे तेजी से या तो बाईं तरफ मुड़ रहे हैं या फिर दाईं तरफ और वे या तो इस तरह के मामले में या फिर उस तरह के मामले में भटक रहे हैं—वे बिना रुके लगातार भटकते रहते हैं। उन्हें देखकर तुम चिंतित हो उठते हो, लेकिन तुम कितना भी प्रयास कर लो, उन्हें ठीक नहीं कर सकते। क्यों? क्योंकि उनकी काबिलियत बहुत ही ज्यादा खराब होती है। वे कभी भी सकारात्मक और नकारात्मक चीजों, सही और गलत, ठीक और दोषपूर्ण, सत्य और विनियमों में अंतर नहीं कर सकते। उनके पास इन मामलों को सीमांकित करने का कोई मानक नहीं होता है, उनमें उन्हें सीमांकित करने की कोई क्षमता नहीं होती है और वे बस उन्हें सीमांकित कर ही नहीं सकते हैं। इसलिए, खराब काबिलियत वाले लोग सिर्फ विनियम-आधारित कार्य और कामकाज कर सकते हैं या ऐसा एकमुखी कार्य कर सकते हैं जिसमें सत्य सिद्धांत शामिल नहीं होते हैं, जैसे कि हर रोज एक नियमित कार्यक्रम का पालन करना, एक निश्चित समय पर एक चीज करना और दूसरे निर्धारित समय पर दूसरी चीज करना—यानी वे सिर्फ उन सरल कामों को सँभाल सकते हैं जिनमें कार्यक्रम का, औपचारिकताओं का और चीजें करने के एक तरीके का पालन करना कार्य का अच्छी तरह से निर्वहन करने के लिए पर्याप्त होता है। लेकिन वे ऐसा कार्य नहीं सँभाल सकते हैं जो जरा-सा ज्यादा जटिल हो। एक बार जब यह जरूरी हो जाता है कि वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करें और कुछ खास नतीजे प्राप्त करें, तो वे इसे पूरा करने में असमर्थ होते हैं। अगर तुम उन्हें कार्य की कोई ऐसी मद सौंपते हो जिसके लिए उन्हें सत्य सिद्धांतों को लचीले ढंग से लागू करने, विभिन्न मुद्दों को जैसे उचित हो वैसे सँभालने और परिवेश के अनुसार अनुकूल बनने की जरूरत हो तो वे उलझन में पड़ जाते हैं और उसे पूरा नहीं कर पाते हैं। उन्हें अपनी मदद करने और निर्देश देने के लिए कोई व्यक्ति चाहिए होता है; तुम उनसे स्वतंत्र रूप से कार्य को अच्छी तरह से करने की अपेक्षा नहीं कर सकते। ऐसे लोगों से कैसे पेश आना चाहिए? हालाँकि वे हर रोज नियमित रूप से अपना कर्तव्य करने में लगे रह सकते हैं, लेकिन अचानक आई परिस्थितियों से सामना होने पर उन्हें नहीं पता होता कि कैसे प्रतिक्रिया करनी है और यहाँ तक कि हो सकता है वे अपना कर्तव्य करना भी बंद कर दें। ऐसे लोगों के लिए यह जरूरी होता है कि उनके कार्य के बारे में बार-बार पूछताछ की जाए और उसका निरीक्षण किया जाए, यह पूछा जाए, “इस अवधि के दौरान क्या कलीसियाई कार्य में कोई गड़बड़ियाँ या विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न हुई हैं? क्या ऐसी कोई जटिल समस्या थी जिसे कैसे सँभालना है यह तुम्हें नहीं पता था?” इस पर सोच-विचार करने के बाद वे कहते हैं, “इस अवधि के दौरान सब कुछ अच्छा रहा है। हर कोई अपना कर्तव्य कर रहा है और सामान्य रूप से सभा कर सकता है और परमेश्वर के वचनों को खा और पी सकता है। किसी ने भी गड़बड़ नहीं की है या बाधा नहीं डाली है और मैंने किसी को भी दूसरों को गुमराह करने के लिए भ्रांतियाँ फैलाते नहीं सुना है।” वे किसी भी समस्या की पहचान नहीं कर सकते हैं और उन्हें नहीं पता होता कि क्या रिपोर्ट करना है और यहाँ तक कि वे सवाल भी नहीं उठा सकते हैं। इसलिए, तुम उनसे वास्तविक जीवन में या अपना कर्तव्य करते समय उत्पन्न होने वाले मुद्दे अपने आप सँभालने या हल करने की उम्मीद नहीं कर सकते। न ही तुम उनसे यह उम्मीद कर सकते हो कि जब उन्हें नहीं पता होगा कि किसी चीज को कैसे सँभालना है तो वे अपने से ऊपर वालों से मदद माँगेंगे या उनसे सवाल पूछेंगे। वे इनमें से कुछ भी हासिल नहीं कर सकते हैं क्योंकि उनकी काबिलियत अपर्याप्त है। अगर ऐसे लोग अपने से ऊपर वालों को समस्याओं की रिपोर्ट नहीं करते हैं तो दूसरे लोग यह सोच सकते हैं कि उन्हें कोई समस्या नहीं है। लेकिन ऐसा नहीं है। वे साधारण समस्याओं को भी पहचान नहीं सकते हैं, यहाँ तक कि जब उनके सामने समस्याओं का ढेर लग जाता है तो भी वे उन्हें समस्याओं की तरह नहीं देखते हैं। और इसलिए वे समस्याओं को हल भी नहीं करते हैं। उनके पास एक सिर होता है जिस पर दो आँखें और दो कान होते हैं; वे देख सकते हैं, सुन सकते हैं और बोल सकते हैं और फिर भी वे समस्याओं को पहचान नहीं सकते हैं या उन्हें हल नहीं कर सकते हैं। उनमें समस्याएँ पहचानने और उन्हें सँभालने की काबिलियत और क्षमता की पूरी तरह से कमी होती है, इसलिए वे दिखने में चाहे कितने भी घाघ क्यों न लगें, यह किसी काम का नहीं है। वे जो देखते या सुनते हैं, उसे ग्रहण नहीं कर सकते हैं और अपने मन में संसाधित नहीं कर सकते हैं ताकि यह सोच सकें और भेद पहचान सकें कि क्या ये समस्याएँ हैं या उन्हें कैसे सँभालना चाहिए। अगर वे सत्य सिद्धांतों से जुड़ी समस्याएँ सँभाल नहीं सकते हैं तो वे अपने से ऊपर के लोगों को उनकी रिपोर्ट भी नहीं करेंगे। वे इसमें से कुछ भी करने में पूरी तरह से असमर्थ होते हैं। क्या यह नहीं दर्शाता है कि उनमें खराब काबिलियत है? क्या ये खराब काबिलियत वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं? (हाँ।) अगर तुम खराब काबिलियत वाले किसी व्यक्ति से पूछते हो, “क्या इस अवधि के दौरान कार्य में कोई समस्याएँ हुई हैं? क्या ऐसा कोई क्षेत्र है जहाँ तुम सिद्धांत नहीं समझते हो?” तो वे जवाब देते हैं, “कोई भी समस्या नहीं है; हर कोई व्यस्त रहा है और सब कुछ काफी अच्छा चल रहा है!” उनके लिए सब कुछ बिल्कुल अच्छा है। अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में अगर तुम आसानी से उनका विश्वास कर लेते हो जब वे कहते हैं कि सब कुछ अच्छा है, तो तुम बहुत ही ज्यादा बेवकूफ हो और ठीक उतने ही खराब काबिलियत वाले व्यक्ति हो जितने कि वे हैं। अच्छी काबिलियत वाले लोग न सिर्फ समस्याओं के बारे में जानना जानते हैं, बल्कि उन्हें समस्याओं को अपने आप पहचानने में भी समर्थ होना चाहिए। वे समस्याओं को लक्षित करते हुए बातचीत कर सकते हैं और जैसे-जैसे वे बात करते जाते हैं, समस्याएँ स्वाभाविक रूप से सबके सामने आती जाती हैं। जब तुम कोई समस्या ढूँढ़ निकालते हो और किसी खराब काबिलियत वाले व्यक्ति से पूछते हो कि उसने इसे कैसे सँभाला, तो वह जवाब देता है, “कौन-सी समस्या? मेरा ध्यान इस पर कैसे नहीं गया?” खराब काबिलियत वाले लोग समस्याओं की पहचान नहीं कर पाते हैं, इसलिए कार्य करते समय तुम्हें समस्याओं के बारे में जानने और उन्हें पहचानने में कुशल होना चाहिए, समस्याओं को पकड़ लेना चाहिए, उन्हें जाने नहीं देना चाहिए और फिर उन्हें सँभालने और हल करने में सहायता करनी चाहिए। तुम्हें यह जानने की जरूरत है कि खराब काबिलियत वाले लोगों से सवाल पूछते हुए और गपशप करने के अंदाज में पूछताछ करते हुए कैसे बात करनी है, ताकि समस्याओं की पहचान की जा सके। जैसे-जैसे तुम गपशप करते जाओगे, वे अनजाने में खुद ही समस्याओं का जिक्र करने लगेंगे। इस तरह से गपशप किए बिना इन समस्याओं को पहचानना असंभव होगा। तुम उनसे इस तरह से गपशप करते हो, इसलिए वे प्रेरित होते हैं और अचानक इन समस्याओं को पहचान लेते हैं। अगर तुम स्थिति के बारे में जानने के लिए इस नजरिये का उपयोग नहीं करते हो तो वे जिन मामलों को देखते हैं उन्हें समस्या के रूप में नहीं बूझ पाएँगे। इसलिए जब तुम्हारी गपशप के दौरान समस्याओं का पता चलता है तो उन्हें थोड़ा-थोड़ा करके स्पष्ट किया जाना चाहिए, जैसे निचोड़कर टूथपेस्ट निकाला जाता है। जब सभी समस्याएँ हल हो जाएँगी तो वे बस कुछ हद तक शर्मिंदा महसूस करेंगे। क्या यह नहीं दर्शाता है कि उनमें खराब काबिलियत है? (हाँ।) ये खराब काबिलियत वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ हैं : समस्याएँ मौजूद होने पर भी वे उन्हें पहचान नहीं सकते हैं और क्योंकि वे समस्याओं की पहचान नहीं कर सकते हैं, इसलिए वे उनको सामने लाने या उन्हें हल करने में कभी समर्थ नहीं होते हैं। मुझे बताओ, अगर वे समस्याएँ नहीं पहचान सकते हैं, तो क्या वे अपना कार्य अच्छी तरह से कर सकते हैं? क्या वे विनियमों का पालन करके अपना कार्य अच्छी तरह से कर सकते हैं? (नहीं।) बिल्कुल नहीं। यह खराब काबिलियत होने की एक अभिव्यक्ति है। अगर तुम कहते हो कि उनकी काबिलियत खराब है, तो वे यह तक सोचते हैं, “मेरी काबिलियत उत्कृष्ट है! जब परमेश्वर कुछ कहता है, उसके बाद मैं कार्य करने के एक तरीके या विनियम पर तुरंत पकड़ बना लेता हूँ और मैं जीवन भर उसका पालन कर सकता हूँ। देखा? क्या मेरी काबिलियत अच्छी नहीं है? तुम सभी मुख्य बिंदुओं पर पकड़ बनाने में विफल हो जाते हो, लेकिन मैं यह कर पाता हूँ। उदाहरण के लिए, मुझे बताया गया था कि गर्मियों में मौसम गर्म होता है और हमें ठंडे पकवान खाने चाहिए। इसलिए, मैं ठंडे पकवान बनाता रहता हूँ और ठंडे पेय परोसता रहता हूँ—मैं इस निर्देश का पालन कर सकता हूँ। देखा तुमने, तुम लोगों में से कोई भी इसका पालन नहीं कर सकता और तुम हमेशा सिद्धांतों की बात करते रहते हो। क्या सिद्धांत बस विनियम नहीं होते हैं? अगर तुम विनियमों का पालन करते हो तो क्या यह सिद्धांतों का पालन करना नहीं है?” वे यह तक सोचते हैं कि उनकी काबिलियत अच्छी है, उनका मानना है कि वे मुद्दे के मुख्य बिंदुओं पर पकड़ बना सकते हैं और वे एक लंबे धर्मोपदेश से एक अकेला कथन, कार्य करने का तरीका, विनियम या यहाँ तक कि एक वाक्यांश या शब्द भी चुन सकते हैं जिसका उन्हें लगता है कि उन्हें पालन करना चाहिए। मुझे बताओ, क्या यह परेशानी वाली बात नहीं है? ऐसे लोग बहुत ज्यादा हैं। जब तुम सत्य के विभिन्न विवरणों के बारे में संगति करते हो तो वे समझ नहीं सकते हैं और यहाँ तक कह देते हैं, “क्या सिरदर्दी है! तुम बात करना बंद ही नहीं करते। क्या यह सिर्फ उन शब्दों को नहीं कहने या उस तरह की चीज नहीं करने के बारे में नहीं है? बस उस एक कथन का पालन करो और बात खत्म—यह सिर्फ एक कथन का मामला है। इसे इतना झंझट वाला क्यों बनाया जाए? तुम विभिन्न प्रकार के लोगों की अवस्थाओं, परिवेशों और मानवता में भी अंतर करते हो और विकृत और शुद्ध समझ में अंतर करते हो। क्या वाकई इतने सारे विवरण शामिल हैं? इतना ब्योरेवार क्यों होना? तुम कितना मीन-मेख निकालते हो!” वे दूसरों की निंदा भी करते हैं। ये खराब काबिलियत वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ हैं।

खराब काबिलियत वाले लोगों की क्या विशेषताएँ हैं? वे सत्य सिद्धांत नहीं समझते हैं; यह सत्य सिद्धांतों का जो भी पहलू हो, वे इसे एक तरह का विनियम या सूत्र मानते हैं और फिर वे कभी न थकने वाले उत्साह से उसका पालन करते हैं। वे कई धर्म-सिद्धांत बोल सकते हैं और इसलिए उन्हें लगता है कि वे सत्य सिद्धांत समझते हैं, लेकिन वास्तव में वे सत्य बिल्कुल भी नहीं समझते। अगर तुम कार्य करने वाले अगुआओं और कार्यकर्ताओं के कुछ सिद्धांत समझाते हो, ऐसे लोगों से इन सिद्धांतों की समझ के आधार पर कार्य करने और विभिन्न समस्याएँ सँभालने के लिए कहते हो, तो खराब काबिलियत वाले ये लोग उन्हें लागू करने में पूरी तरह से असमर्थ होंगे। वे इन सत्य सिद्धांतों को नहीं समझते हैं और न ही वे कार्य करने के लिए इन सत्य सिद्धांतों को लागू कर पाते हैं। जब वे कार्य करने लगते हैं, तो यह पूरी तरह से विनियमों का पालन करना, प्रोटोकाल का पालन करना और मशीनी ढंग से हठधर्मिता को लागू करना होता है। ऐसे कुछ लोग हैं जो सत्य सिद्धांतों का पालन करना चाहते हैं, लेकिन क्योंकि उनकी काबिलियत खराब होती है और वे सत्य की समझ प्राप्त नहीं कर सकते हैं, इसलिए वे सिद्धांतों का पालन करने में असमर्थ होते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे क्या कार्य करते हैं, समस्याओं से सामना होने पर वे घबड़ा जाते हैं और यहाँ तक कि अभिभूत हो जाते हैं—वे कोई भी कार्य अच्छी तरह से करने में असमर्थ होते हैं। जब उनसे ऊपर वाले सिद्धांतों के बारे में संगति करते हैं, तो उन्हें लगता है कि वह सारा कुछ उन्हें समझ आ गया है, उन्होंने उसे आत्मसात कर लिया है, उस पर पकड़ बना ली है और उसे याद कर लिया है। लेकिन जब वास्तविक जीवन में उनका समस्याओं से सामना होता है, तो वे उलझन में पड़ जाते हैं क्योंकि उन्होंने जो धर्म-सिद्धांत और विनियम समझे हैं वे किसी काम के नहीं होते, इसलिए वे सोचते हैं : “अब मुझे क्या करना चाहिए?” उन्हें नहीं पता होता कि कार्य कहाँ से शुरू करना है, उन्हें नहीं पता होता कि कार्य करने के लिए किन विधियों का उपयोग करना है, उन्हें नहीं पता होता कि कार्य-व्यवस्थाओं को कैसे कार्यान्वित करना है और यह तो उन्हें बिल्कुल पता नहीं होता कि कलीसियाई कार्य की सामान्य प्रगति सुनिश्चित करने के लिए किन समस्याओं को ठीक अभी हल किया जाना चाहिए—उन्हें इसमें से कुछ भी नहीं पता होता है। नतीजतन, चाहे वे कितनी भी देर तक कार्य करें, कोई नतीजा नहीं निकलता है और कार्य-व्यवस्थाएँ कार्यान्वित नहीं की जा सकती हैं। यहाँ तक कि वे इस मुद्दे को भी हल नहीं कर पाते हैं कि कलीसियाई जीवन को कैसे अच्छा बनाया जाए। यहाँ तक कि वे सबसे मूलभूत कार्य भी कार्यान्वित नहीं कर पाते हैं और उन्हें यह भी नहीं पता होता है कि इसे कैसे कार्यान्वित करना है। वे सिर्फ लोगों को सिद्धांत सुना सकते हैं और उन्हें विनियमों का पालन करने के लिए कह सकते हैं। जब कार्य-व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करने और ठोस कलीसियाई कार्य करने की बात आती है, तो वे उलझन में पड़ जाते हैं और ऐसा करने में असमर्थ होते हैं। वे मन ही मन सोचते हैं, “इन कार्य-व्यवस्थाओं को कैसे कार्यान्वित किया जाना चाहिए? किन विनियमों का पालन किया जाना चाहिए?” वे इन चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते हैं। लेकिन अभी भी उनके पास एक आखिरी उपाय होता है : उनका मानना है कि जब तक वे ज्यादा सभाएँ आयोजित करते हैं तब तक समस्याएँ हल की जा सकती हैं। इसलिए, उनका कार्य करने का तरीका ताबड़तोड़ सभाएँ आयोजित करना और ताबड़तोड़ धर्मोपदेश देना है। जब उनका उपदेश देना सभी में हलचल उत्पन्न करता है और उन्हें जोश से भर देता है, तो उन्हें लगता है कि सभी समस्याएँ हल हो गई हैं और अब कोई और समस्या नहीं बची है और जब तक सभी जोशपूर्ण हैं तब तक सारा कार्य उचित रूप से किया जाता है। लेकिन यह पता चलता है कि कई दिनों तक सभाएँ करने के बाद भी न सिर्फ वास्तविक समस्याएँ अनसुलझी रह जाती हैं और लोगों द्वारा किए जाने वाले कर्तव्य अब भी कोई नतीजा नहीं देते हैं, बल्कि कलीसियाई कार्य भी बिल्कुल भी प्रगति नहीं करता है। लेकिन अब भी उनमें उपदेश देने का मिजाज होता है। खराब काबिलियत वाले लोग चाहे कितनी भी देर तक कार्य करें, वे कोई नतीजे प्राप्त नहीं करते हैं और चाहे उन्हें कितना भी समय दिया जाए, वे कार्य-व्यवस्थाएँ कार्यान्वित नहीं कर सकते हैं—उनमें न तो कार्य कुशलता होती है और न ही प्रभावशीलता। ये खराब काबिलियत वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ हैं। खराब काबिलियत वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ वैसी ही होती हैं जैसा मैंने अभी-अभी बताया, बिना काबिलियत वाले लोगों की तो बात ही छोड़ दो। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे कितने धर्मोपदेश सुनते हैं या दूसरे लोग उनके साथ सत्य पर कितनी संगति करते हैं, वे सत्य सिद्धांतों पर पकड़ नहीं बना पाते हैं और यहाँ तक कि उन सबसे मूलभूत विनियमों पर भी पकड़ नहीं बना पाते हैं जिनका पालन किया जाना चाहिए। जब किसी की काबिलियत इस हद तक खराब होती है तो सत्य सिद्धांत उसकी पहुँच से परे होते हैं। अगर दूसरे लोग उनके साथ सत्य पर संगति कर लें, तो भी वे अभ्यास का मार्ग नहीं ढूँढ़ पाते हैं और इससे पहले कि वे जानें कि अभ्यास कैसे करना है, उनके पास ऐसा कोई होना चाहिए जो उन्हें खास निर्देश दे। ऐसे लोग मानो जानवरों का पुनर्जन्म होते हैं; उनके मन हमेशा धुँधले और अस्पष्ट रहते हैं और वे कभी भी यह अंतर नहीं कर पाते हैं कि सिद्धांत क्या हैं और विनियम क्या हैं। वे अपने दिलों में कहते हैं, “इन चीजों को सुनकर हमेशा मेरा सिर क्यों दुखता है और मुझे नींद क्यों आती है?” अंत में वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं : “न सिर्फ सत्य सिद्धांत मेरी पहुँच से परे हैं, बल्कि मैं विनियमों का पालन भी नहीं कर सकता, इसलिए भविष्य में मैं अपने अंदर की सारी ऊष्मा से जितना हो सके उतना तेज चमकूँगा, मेरी क्षमता से जितना संभव होगा उतना प्रयास करूँगा और बस वही करूँगा जो करने में मैं सक्षम हूँ और यह काफी है।” इनमें से कुछ लोग तो खुद को दिलासा भी देते हैं, कहते हैं, “मुझे नहीं पता कि विनियमों का पालन कैसे करना है और न ही मैं सत्य सिद्धांत समझता हूँ, लेकिन मेरे पास परमेश्वर-प्रेमी दिल है!” अगर वे सही मायने में परमेश्वर से प्रेम कर पाते तो यह बुरा नहीं होता, लेकिन इतनी खराब काबिलियत होने के कारण वे सत्य भी नहीं समझते हैं—क्या परमेश्वर के प्रति उनका प्रेम सच्चा हो सकता है? बिना काबिलियत वाले लोगों में सभी लिहाज से बोध क्षमता की कमी होती है और उनमें विनियमों का पालन करने की क्षमता भी नहीं होती है। खराब काबिलियत वाले कुछ लोग सत्य का अभ्यास करते समय कम-से-कम किसी आंशिक रूप से समझे गए सिद्धांत, विनियम या सूत्र को पकड़ सकते हैं और इस तरह से जरा-सा सत्य अभ्यास में ला सकते हैं। लेकिन बिना काबिलियत वाले लोग तो विनियम-आधारित चीजों को भी समझ नहीं सकते हैं या उनका पालन नहीं कर सकते हैं—इस प्रकार का व्यक्ति और भी दयनीय होता है।

अगर हम इस तरीके से सत्य सिद्धांतों का उपयोग करके लोगों की काबिलियत का मूल्यांकन करते हैं तो प्रासंगिक अभिव्यक्तियाँ वही होती हैं जिन पर हमने अभी-अभी संगति की। इसलिए अगर हम लोगों की काबिलियत का मूल्यांकन करने के लिए इस बात का उपयोग करते हैं कि उनमें आध्यात्मिक समझ है या नहीं, तो हमें इसे कैसे करना चाहिए? अच्छी काबिलियत वाले लोगों में निश्चित रूप से आध्यात्मिक समझ होती है, है ना? (हाँ।) आध्यात्मिक समझ होने का मतलब यह है कि वे सत्य समझ सकते हैं, सत्य सिद्धांतों पर पकड़ बना सकते हैं और सत्य का उपयोग करके परमेश्वर में विश्वास रखने की प्रक्रिया में आने वाली उन विभिन्न समस्याओं को हल कर सकते हैं जो सत्य सिद्धांतों से संबंधित हैं, साथ ही वे सत्य का उपयोग करके परमेश्वर के घर के विभिन्न आंतरिक मुद्दे भी सँभाल सकते हैं। तो फिर बाहरी दुनिया के विभिन्न मुद्दों के बारे में क्या कहना है? क्योंकि अच्छी काबिलियत वाले लोगों में आध्यात्मिक समझ होती है और उनके पास विभिन्न मामले सँभालने की क्षमता होती है, इसलिए वे बाहरी दुनिया के मामले सँभालने के लिए कुछ अपेक्षाकृत मानवता-आधारित सिद्धांतों या सकारात्मक चीजों के करीबी कुछ सिद्धांतों का भी उपयोग कर सकते हैं। सतही अंतरों के बावजूद विभिन्न चीजों के मूलतत्व समान ही होते हैं और विभिन्न चीजों में निहित सिद्धांत मूल रूप से वही हैं जिन पर अच्छी काबिलियत वाले लोग पकड़ बना सकते हैं, इसलिए आमतौर पर यह कहा जा सकता है कि अच्छी काबिलियत वाले लोगों में आध्यात्मिक समझ होती है। आध्यात्मिक समझ होने का मतलब आध्यात्मिक क्षेत्र से संवाद करने में समर्थ होना नहीं है; बल्कि इसका मतलब है कि व्यक्ति विभिन्न चीजों के मूलभूत नियम और सिद्धांत समझ सकता है। यह इसे कहने का एक सच्चा, सादा और स्पष्ट तरीका है। बाहरी दुनिया की चीजों के मूलभूत नियम और सत्य से जुड़े सिद्धांत समझने में समर्थ होना अच्छी काबिलियत वाले लोगों की एक अभिव्यक्ति है। तो, हम औसत काबिलियत वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ इस आधार पर कैसे माप सकते हैं कि उनमें आध्यात्मिक समझ है या नहीं? औसत काबिलियत वाले लोगों में आधी चीजों की आध्यात्मिक समझ होती है लेकिन बाकी आधी की नहीं होती, वे कुछ हिस्सों को तो समझते हैं जबकि दूसरों को नहीं समझते। उन्हें जिन हिस्सों की आध्यात्मिक समझ होती है वे वही हिस्से होते हैं जहाँ उनकी काबिलियत पहुँच सकती है। परमेश्वर में विश्वास से संबंधित विभिन्न सत्यों के बारे में संगति सुनकर वे उन्हें समझने लग सकते हैं और यहाँ तक कि किसी के निर्देश के बिना भी वे उनमें निहित उन सिद्धांतों का मतलब निकाल सकते हैं जिन पर पकड़ बनाई जानी चाहिए। जिन हिस्सों की उन्हें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं होती है वे वही हिस्से होते हैं जहाँ उनकी काबिलियत कसौटी पर खरी नहीं उतरती है। दूसरों के मार्गदर्शन और निर्देश के बिना उनके पास अभ्यास का कोई सिद्धांत नहीं होता है, वे अपना कर्तव्य सामान्य रूप से नहीं कर सकते हैं या समस्याएँ हल नहीं कर सकते हैं और यह जानने के लिए कि कार्य कैसे करना है और समस्याएँ कैसे सँभालनी हैं उन्हें सिंचन, मार्गदर्शन और निर्देश की जरूरत होती है—ये उनमें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं होने की अभिव्यक्तियाँ हैं। औसत काबिलियत वाले लोगों के बारे में यह कहा जा सकता है कि उनमें मूल रूप से आध्यात्मिक समझ होती है, लेकिन अच्छी काबिलियत वाले लोगों की तुलना में उनकी आध्यात्मिक समझ का स्तर कम होता है—वे सिर्फ आधा ही समझते हैं। इसमें कहाँ कमी होती है? कमी उस परिमाण में होती है जिस तक वे सत्य सिद्धांतों पर पकड़ बनाते हैं—वे स्वतंत्र रूप से कार्य की विभिन्न मदों को पूरा नहीं कर सकते हैं। इसलिए, अगर हम खराब काबिलियत वाले लोगों का मूल्यांकन इस आधार पर करते हैं कि उनके पास आध्यात्मिक समझ है या नहीं, तो हमें यह कैसे करना चाहिए? क्या मूल्यांकन करना आसान है? क्या खराब काबिलियत वाले लोगों में आध्यात्मिक समझ होती है? (नहीं।) तुम खराब काबिलियत वाले लोगों की अभिव्यक्तियों को देखने मात्र से ही यह बता सकते हो कि उनमें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है क्योंकि वे सिर्फ विनियमों का पालन करते हैं। दरअसल बिना काबिलियत वाले लोगों में मानवीय आत्माएँ नहीं होती हैं और मानवीय आत्माएँ नहीं होने का मतलब है कि जानवरों की तरह उनमें भी आध्यात्मिक समझ नहीं होती है। ऐसे लोगों के मामले में यह मूल्यांकन करना बेकार है कि उनके पास आध्यात्मिक समझ है या नहीं। जब आत्मा-रहित व्यक्ति किसी मामले को देखता है या विभिन्न लोगों से निपटता है, तो वह उनका मूल्यांकन नहीं कर सकता है और उसके पास सकारात्मक या नकारात्मक चीजों के बारे में कोई दृष्टिकोण नहीं होता है। उसके पास सिर्फ अपने हितों की रक्षा करने और नुकसानों से बचने के लिए कुछ जोड़-भाग होते हैं। जब तुम कोई दृष्टिकोण व्यक्त करते हो, तब अगर वह तुमसे परिचित है और जानता है कि तुममें अच्छी काबिलियत और शुद्ध समझ है और तुम एक सकारात्मक व्यक्ति हो, तो वह तुम्हारे दृष्टिकोण से सहमत होता है। लेकिन अगर वह तुमसे परिचित नहीं है तो वह तुम्हें नीची नजर से देखता है। चाहे तुम्हारा दृष्टिकोण कितना भी सही हो या यह सत्य सिद्धांतों के कितने भी अनुरूप हो, वह इसे स्वीकार नहीं करता है। वह नहीं जानता कि यह सही है, वह नहीं जानता कि यह कुछ ऐसा है जिसे लोगों द्वारा स्वीकार किया जाना चाहिए और वह नहीं जानता कि यह अच्छा दृष्टिकोण उसके लिए कितना फायदेमंद हो सकता है या यह उसे कितनी मदद प्रदान कर सकता है—वह इन सबसे अनजान है। जबकि जब कोई नकारात्मक व्यक्ति नकारात्मक दृष्टिकोण सामने रखता है, तब अगर यह नकारात्मक व्यक्ति दूसरों पर हावी होने वाला व्यक्ति है और कोई ऐसा है जिसके बारे में वह ऊँची राय रखता है और जिसका वह सम्मान करता है, तो वह उस नकारात्मक दृष्टिकोण को स्वीकार लेता है, भले ही वह यह जानता हो कि ऐसा करने के बाद उसे नुकसान होगा। यह किस तरह का व्यक्ति है? (एक ऐसा व्यक्ति जिसमें कोई काबिलियत नहीं है।) वह ऐसा व्यक्ति हैं जिसमें कोई काबिलियत नहीं है, जिसका मतलब है कि उसमें चीजों का भेद पहचानने की क्षमता नहीं है। चाहे उसका किसी भी परिस्थिति से सामना हो, वह उसकी असलियत नहीं देख सकता है और ऐसा कोई भी सिद्धांत नहीं जानता है जिसे उसे पकड़कर रखना चाहिए; इस तरह का व्यक्ति कुकर्मियों का अनुसरण करते समय कुकर्म कर सकता है और अच्छे लोगों का अनुसरण करते समय कुछ अच्छे कर्म कर सकता है—उसमें चीजों का भेद पहचानने की क्षमता नहीं होती है। इसलिए मैं कहता हूँ कि वह आत्मा-रहित मृत व्यक्ति है। खराब काबिलियत वाले लोग बहुत सारे वर्ष अच्छी काबिलियत वाले या सकारात्मक व्यक्तियों के साथ रहने के बाद जो वे सुनते और देखते हैं उससे प्रभावित हो सकते हैं और कुछ अच्छी चीजें सीख सकते हैं, कुछ अच्छे विनियमों का पालन कर सकते हैं और कुछ सकारात्मक कहावतों और कार्य करने के तरीकों या सकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों का पालन कर सकते हैं। लेकिन आत्मा-रहित मृत लोग सकारात्मक विचार और दृष्टिकोण, कार्य करने के अच्छे तरीके और विनियम, अच्छी विचार श्रृंखलाएँ या कुछ सकारात्मक जीवनशैलियाँ और रोजमर्रा के जीवन का सकारात्मक सामान्य ज्ञान तक भी नहीं सीख सकते हैं या उनका पालन नहीं कर सकते हैं। जब वे स्वतंत्र रूप से रहना शुरू करते हैं तो उनके जीवनयापन की स्थिति—जो एक भ्रमित व्यक्ति की होती है—पूरी तरह से उजागर हो जाती है। ये आत्मा-रहित मृत लोगों की अभिव्यक्तियाँ हैं।

आध्यात्मिक समझ वाले लोगों में कम-से-कम औसत काबिलियत तो होती है। अगर सत्य उनकी पहुँच में होता है और वे इसे समझ सकते हैं तो वे अच्छी काबिलियत वाले लोग हैं। आध्यात्मिक समझ रहित लोग निश्चित रूप से या तो कम काबिलियत वाले होते हैं या फिर वे लोग होते हैं जिनमें बिल्कुल भी काबिलियत नहीं होती है—इन दो तरह के लोगों में आध्यात्मिक समझ की निश्चित रूप से कमी होती है। सिर्फ अच्छी काबिलियत वाले लोगों को ही पूर्ण आध्यात्मिक समझ वाले लोग कहा जा सकता है, जबकि औसत काबिलियत वाले लोगों में औसत स्तर की आध्यात्मिक समझ होती है। यानी ऐसे कई मामले हैं जिनमें उनकी काबिलियत कसौटी पर खरी नहीं उतरती है और वे आध्यात्मिक समझ हासिल करने में असमर्थ होते हैं। सिर्फ सामान्य मामलों में ही वे आध्यात्मिक समझ हासिल कर सकते हैं और चीजों को स्वतंत्र रूप से सँभाल सकते हैं। जब उनका सामना जटिल मामलों या बहुमुखी कार्यों से होता है, तब वे इन चीजों को स्वतंत्र रूप से नहीं सँभाल सकते हैं क्योंकि इनसे जुड़े सत्य सिद्धांत उनकी पहुँच और समझ से परे होते हैं। इसलिए उनकी आध्यात्मिक समझ का स्तर काफी औसत होता है। खराब काबिलियत वाले लोगों की यह विशेषता होती है कि सत्य सिद्धांत उनकी समझ से परे होते हैं और वे सिर्फ विनियमों का पालन करते हैं क्योंकि वे सत्य सिद्धांतों को नहीं समझ सकते हैं और उन्हें तो यह तक समझ नहीं आता है कि सत्य सिद्धांतों की अवधारणा क्या है और वे मानते हैं कि सत्य सिद्धांत सिर्फ नियम हैं। इसलिए यह बहुत स्पष्ट है कि इस किस्म के लोगों में कोई आध्यात्मिक समझ नहीं होती है। उनकी आध्यात्मिक समझ की कमी की एक बड़ी विशेषता यह है कि विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों की अपनी समझ में वे जो विचार और दृष्टटिकोण प्रकट करते हैं वे सभी विकृत होते हैं। यहाँ “विकृत” को कैसे समझा जाना चाहिए? इसका मतलब है सामान्य मानवीय सोच के प्रक्षेप पथ से पूरी तरह से अलग हो जाना और सामान्य मानवीय जरूरतों के प्रक्षेप पथ से पूरी तरह से अलग हो जाना—यही विकृत होना है। जब तुम इन लोगों की कही बातों के सोचने का तर्क सुनते ह, तो तुम्हें वह अजीब लगता है और हर बार जब तुम उन्हें कोई दृष्टटिकोण व्यक्त करते या किसी चीज के बारे में बात करते हुए सुनते हो, तो तुम अचंभित रह जाते हो। “अचंभित” का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि जब तुम उन्हें कुछ कहते हुए सुनते हो तो तुम्हें लगता है कि यह अविश्वसनीय है और तुम मन ही मन सोचते हो, “उन्हें यह विचार कैसे आ सकता है? सामान्य लोग जो सोचते हैं यह उससे इतना अलग क्यों है? यह विचार कितना अजीब है—यह कुछ-कुछ बेतुका क्यों लगता है?” अपने दिल में तुम्हें यह विशेष रूप से अजीब और बेतुका लगता है। जिन लोगों के शब्दों से दूसरे लोग हमेशा अचंभित रह जाते हैं, वे विकृतियों की ओर प्रवृत्त लोग होते हैं—वे विशेष रूप से ऐसे होते हैं। उदाहरण के लिए, तुम उनसे पूछते हो, “क्या तुमने कुछ खाया है?” वे जवाब देते हैं, “आज तो बहुत ठंड है।” क्या इन दोनों चीजों में कोई संबंध है? (नहीं।) तुम कहते हो, “तुमने आज इतने कम कपड़े क्यों पहने हैं?” वे कहते हैं, “मैंने आज एक कप अदरक की चाय पी।” क्या उनके जवाब का तुम्हारे सवाल से कोई जरूरी संबंध है? क्या उनके जवाब में सामान्य सोच और तर्क है? (नहीं।) सामान्य सोच और तर्क वाले व्यक्ति को कैसे जवाब देना चाहिए? वह कह सकता है, “मैंने इतने कम कपड़े इसलिए पहने हैं क्योंकि अंदर बहुत गर्मी है और इसके अलावा, बाहर बहुत धूप है और तापमान अपेक्षाकृत ज्यादा है।” या वह कह सकता है, “मैंने इतने कम कपड़े इसलिए पहने हैं क्योंकि मैंने अभी-अभी व्यायाम करना खत्म किया है और मेरा शरीर गर्म हो गया है।” लेकिन अगर कोई पूछता है, “तुमने इतने कम कपड़े क्यों पहने हैं?” और वह जवाब देता है, “क्योंकि आज मैंने ऊनी अस्तर वाले जूते पहने हैं,” तो इस जवाब का सवाल से कोई लेना-देना नहीं है। उसकी विचार श्रृंखला और जब वह सोचता है तब जिस तर्क का पालन करता है वह सामान्य मानवीय सोच और तर्क के अनुरूप नहीं है। यह एक बहुत ही अजीब विचार और एक बहुत ही अजीब विचार श्रृंखला है जो सामान्य मानवीय सोच वाला कोई भी व्यक्ति नहीं सोच सकता। और इसलिए उसका जवाब सुनने के बाद तुम्हें लगता है कि यह अजीब है। तुम उससे बातचीत करना चाहते हो लेकिन तुम उससे जुड़ नहीं सकते हो—वह हमेशा अप्रासंगिक जवाब देता है जिससे बातचीत जारी रखना असंभव हो जाता है। उदाहरण के लिए, एक स्त्री कपड़े बनाना सीख रही था और मैंने उससे पूछा, “कपड़े बनाना सीखने में तुम्हारी प्रगति कैसी है? क्या तुम गद्दीदार कपड़े बना सकती हो?” सामान्य सोच और तर्क के अनुरूप जवाब क्या होगा? (या तो “मैं बना सकती हूँ” या “मैं नहीं बना सकती।”) यह सामान्य सोच और तर्क दर्शाएगा। या वह यह भी कह सकती है, “कभी-कभी मैं जरा-सा बेहतर बनाती हूँ और मेरे प्रशिक्षक कहते हैं कि यह ठीक-ठाक है, बस मुश्किल से स्वीकार्य है। लेकिन जब कुछ ऐसे हिस्सों की बात आती है जो ज्यादा जटिल होते हैं तो मेरा कार्य अपर्याप्त होता है और उसे दोबारा करना पड़ता है।” क्या ये जवाब किसी सामान्य सोच और तर्क वाले व्यक्ति के हैं? (हाँ।) बिना सामान्य सोच और तर्क वाले इस व्यक्ति ने कैसे जवाब दिया? मैंने पूछा, “क्या तुम अभी इस प्रकार के गद्दीदार कपड़े बना सकती हो?” उसने जवाब दिया, “जब मैं पहली बार यहाँ आई थी तब मैं इस प्रकार के कपड़े बनाना सीख रही थी।” मैंने पूछा, “तो क्या तुम अभी इसे बना सकती हो?” उसने अब भी यही जवाब दिया, “जब मैं पहली बार यहाँ आई थी तब मैं इस प्रकार के कपड़े बनाना सीख रही थी।” मैंने मन में सोचा, “मुझे समझ नहीं आ रहा है। जब तुम पहली बार आई थी तब तुम इस प्रकार के कपड़े बनाना सीख रही थी, तो क्या तुम अभी इसे बना सकती हो? मैं इसका मतलब क्यों नहीं निकाल पा रहा हूँ?” जब मैंने उसका जवाब सुना तो मुझे लगा कि यह अजीब है। मैं पूछ रहा था कि क्या वह इस प्रकार के कपड़े बना सकती है और उसने कहा कि जब वह पहली बार आई थी तब वह इसे बनाना सीख रही थी। मुझे समझ नहीं आया कि वह विषय बदलने में कामयाब कैसे हो गई—उसका इस बात से क्या लेना-देना है कि वह इसे बना सकती है या नहीं? मैंने मन ही मन सोचा, “मैं तो विषय में इस बदलाव को समझ ही नहीं पा रहा हूँ।” यहाँ तक कि जब मैंने लगातार दो-तीन बार पूछा, “तो क्या तुम अभी इसे बना सकती हो?” वह यह जवाब देती रही, “जब मैं पहली बार आई थी तब मैं इसे बनाना सीख रही थी और मेरे प्रशिक्षक मुझे इसे बनाने में मेरा मार्गदर्शन कर रहे थे—मैं मुख्य रूप से इसी पर काम कर रही हूँ।” मुझे अब भी वह जवाब नहीं मिला जिसकी मुझे तलाश थी और मुझे आज भी यह नहीं पता कि वह इसे बना सकती है या नहीं। उसके शब्दों के पीछे के तर्क का और इस बात का विश्लेषण करो कि वह इस तरीके से क्यों बोली। (उसका जवाब सवाल से कुछ हद तक अप्रासंगिक था। इसे सुनने वाले लोग उसके मतलब का अनुमान लगाने का प्रयास करेंगे, लेकिन वे फिर भी नहीं जानेंगे कि वह वाकई इसे बना सकती है या नहीं।) क्या वह मुझे बताना चाहती थी या नहीं? क्या वह मुझे सटीक जवाब देना चाहती थी? यहाँ वह एक संकेत दे रही थी : “मैंने तुम्हें पहले ही बता दिया है कि जब मैं पहली बार आई थी, तब मैं मुख्य रूप से इसे बनाना सीख रही थी और अब एक हफ्ता हो गया है—इसलिए यकीनन मैं इसे बना सकती हूँ। क्या तुम्हें मेरे कहने का मतलब समझ नहीं आ जाना चाहिए? तुम्हें यह कैसे समझ नहीं आ सकता?” क्या तुम लोग उसके जवाब से यह मतलब समझ सकते हो? (नहीं।) अगर उसका जवाब तुम्हें सटीक जवाब पाने और यह जानने की अनुमति दे कि वह बना सकती है या नहीं तो उसका जवाब तर्कसंगत होगा। लेकिन उसका जवाब तुम्हें सिर्फ एक अस्पष्ट मतलब देता है और तुम्हें सही मायने में यह नहीं जानने देता कि वह बना सकती है या नहीं। जो लोग हमेशा इस तरह से बोलते हैं—क्या वे बहुत भ्रमित नहीं हैं? अगर वे जानबूझकर इस तरह से जवाब दे रहे हैं तो फिर यह चरित्र का मामला है। अगर वे जानबूझकर ऐसा नहीं कर रहे हैं और उनके जवाब का उस जवाब से कोई जरूरी संबंध नहीं है जिसे तुम पाने का प्रयास कर रहे हो तो फिर उनकी सोच और तर्क में कोई समस्या है। अगर उनकी सोच और तर्क में कोई समस्या है तो क्या इसका मतलब यह नहीं है कि उनमें खराब काबिलियत है? क्या वे विकृतियों की ओर प्रवृत्त नहीं हैं? (हाँ।) यह विकृतियों की ओर प्रवृत्त होने की एक अभिव्यक्ति है। उस महिला ने सोचा, “मैं तुम्हें बता रही हूँ कि जब मैं पहली बार आई थी तब मैं इसे बनाना सीख रही थी, इसलिए निश्चित नतीजा यही है कि मैं इसे बना सकती हूँ।” वह जो बताना चाहती थी वह यह जवाब था “मैं इसे बना सकती हूँ।” लेकिन यह सुनने के बाद सामान्य सोच वाले लोगों को सटीक जवाब नहीं मिलता है। इसलिए उसका जवाब, “जब मैं पहली बार आई थी तब मैं इसे बनाना सीख रही थी,” का उसके यह बताने की इच्छा से कोई तार्किक संबंध नहीं था कि वह इसे बना सकती है। तो क्या उसका जवाब भ्रमित शब्द नहीं था? (हाँ।) यह सोचते हुए कि वह अच्छी तरह से संवाद कर सकती है और उसने पहले ही सवाल का जवाब दे दिया है, भ्रमित शब्द कहना—क्या यह खराब काबिलियत नहीं दर्शाता है? (हाँ।) यह खराब काबिलियत की एक अभिव्यक्ति है। उस व्यक्ति के पास सामान्य मानवीय सोच और तर्क नहीं है। चाहे तुम कैसे भी पूछो, वह यह समझने में असमर्थ रहेगी कि समस्या का निचोड़ क्या है या तुम एक ही बात क्यों पूछे जा रहे हो। जब तुम तीसरी बार पूछोगे तब भी वह वही जवाब देगी और यहाँ तक कि बेसब्र भी हो जाएगी और सोचेगी “तुम क्यों पूछे जा रहे हो? मैंने तुम्हें पहले ही बता दिया और तुम्हें अब भी समझ नहीं आया है और तुम पूछे जा रहे हो!” तीन बार पूछे जाने के बाद भी वह यह समझने में असमर्थ रहेगी कि उसका जवाब अस्पष्ट है और वह नहीं है जिसकी दूसरे व्यक्ति को तलाश है, कि उसे अपने बात दूसरे तरीके से कहनी चाहिए और साफ-साफ बताना चाहिए कि वह बना सकती है या नहीं और दूसरे व्यक्ति को अनुमान लगाने के लिए मजबूर नहीं करना चाहिए। वह यह समझने में असमर्थ है कि उसके शब्द दूसरों को कैसा महसूस करवाते हैं या उन्हें सुनने के बाद दूसरा व्यक्ति कैसे प्रतिक्रिया करता है—वह इनमें से कुछ भी समझ नहीं सकती है। यह दर्शाता है कि उसमें कोई काबिलियत नहीं है। चाहे तुम कितनी भी बार पूछो, वह एक ही जवाब देगी और यह तक महसूस करेगी कि वह जो कह रही है वह सच्ची बात है और झूठ नहीं है और सोचेगी, “चाहे तुमने एक ही चीज कितनी भी बार पूछी हो, मैंने एक ही जवाब दिया है—मैं एक ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास कर रही हूँ और मैं वही कह रही हूँ जो मेरे मन में है।” क्या यह खराब काबिलियत का प्रतिबिंब नहीं है? (हाँ।) जब तुम आम के बारे में पूछते हो तो इस तरह का व्यक्ति हमेशा इमली के बारे में बात करता है। जब तुम इमली के बारे में पूछते हो, तो वह हमेशा आम के बारे में बात करता है। सामान्य सोच रहित लोगों के विचार भ्रमित होते हैं और उनकी सोच अव्यवस्थित होती है। यह खराब काबिलियत की एक बड़ी अभिव्यक्ति है। संक्षेप में, ये अलग-अलग काबिलियतों वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ हैं। चाहे तुम उनकी काबिलियत का मूल्यांकन सत्य सिद्धांतों को समझने और लागू करने की उनकी क्षमता या इस क्षमता की कमी से करो या इससे करो कि उनके पास आध्यात्मिक समझ है या नहीं, अभिव्यक्तियाँ ये ही हैं। हालाँकि हमने कुछ हद तक सामान्य शब्दों में बात की है, लेकिन क्या तुम मूल रूप से मेरे वचनों को वास्तविक जीवन से नहीं जोड़ सकते? (हाँ।) तो क्या हमने काबिलियत के विषय को करीब-करीब संक्षेप में प्रस्तुत नहीं कर दिया है? (हाँ।) इसी के साथ काबिलियत के विषय पर हमारी चर्चा यहीं समाप्त होती है।

मुझे बताओ, जिस हद तक लोग परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं और उसके खिलाफ विद्रोह करते हैं, क्या उसका इस बात से कोई लेना-देना है कि उनकी काबिलियत अच्छी है या बुरी? क्या लोग खराब काबिलियत के कारण परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं और उसके खिलाफ विद्रोह करते हैं? क्या तुम लोगों ने कभी इस सवाल पर विचार किया है? क्या यह कोई ऐसा सवाल है जो विचार करने योग्य है? (हाँ।) कुछ लोग कहते हैं, “क्योंकि हमारी काबिलियत खराब है, क्योंकि परमेश्वर ने हमें जो काबिलियत दी है वह अच्छी नहीं है, इसलिए हम परमेश्वर का जोर से प्रतिरोध करते हैं और उसके खिलाफ विद्रोह करते हैं।” क्या यह कथन सही है? (नहीं।) जन्मजात स्थितियों, मानवता और भ्रष्ट स्वभावों के बीच अंतरों के बारे में हमारी पिछली संगति के आधार पर काबिलियत किस श्रेणी में आती है? (जन्मजात स्थितियों की श्रेणी में।) यह जन्मजात स्थितियों से संबंधित है। तो क्या तुम जानते हो कि जन्मजात स्थितियों के विभिन्न पहलू लोगों की मानवता और भ्रष्ट स्वभावों से संबंधित हैं या नहीं? आओ, काबिलियत से शुरू करें—क्या काबिलियत यह तय करती है कि कोई व्यक्ति किस हद तक परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करता है और उसका प्रतिरोध करता है? (नहीं।) हम ऐसा क्यों कहते हैं कि वह इसे तय नहीं करती है? यह इस कारण से संबंधित है कि लोग परमेश्वर का प्रतिरोध क्यों करते हैं और उसके खिलाफ विद्रोह क्यों करते हैं। क्या लोग खराब काबिलियत के कारण परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करते हैं और उसका प्रतिरोध करते हैं? (नहीं, इसका कारण यह है कि हममें भ्रष्ट स्वभाव हैं।) सही कहा—यह वास्तविकता के अनुरूप है। परमेश्वर के खिलाफ तुम्हारा प्रतिरोध और विद्रोह, और सत्य के प्रति समर्पण करने में तुम्हारी असमर्थता खराब काबिलियत के कारण नहीं हैं, वे इसलिए हैं क्योंकि तुममें भ्रष्ट स्वभाव हैं। और इस प्रकार, सिर्फ इसलिए कि तुम परमेश्वर का प्रतिरोध करने में समर्थ हो, तुम परमेश्वर के बारे में यह शिकायत नहीं कर सकते कि उसने तुम्हें खराब काबिलियत दी है। काबिलियत या तुम्हारी जन्मजात स्थितियों का कोई भी दूसरा पहलू स्वाभाविक रूप से ऐसी स्थितियाँ हैं जो खुद तुम्हारे अपने पास हैं; वे अंतर्निहित, जन्मजात स्थितियाँ हैं जो तुम्हारे एक सृजित प्राणी होने के नाते तुम्हारे पास हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह जन्मजात स्थितियों का कौन-सा पहलू है, यह परमेश्वर का प्रतिरोध करने का कारण नहीं बनता है और इसका भ्रष्ट स्वभावों से कोई संबंध नहीं होता है। उदाहरण के लिए, कद में लंबा होने का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे पास कम भ्रष्ट स्वभाव हैं। सुंदर होने या गोरी त्वचा होने का यह मतलब यह नहीं है कि तुममें कोई भी स्वभाव भ्रष्ट नहीं है। ऐसी नस्ल में जन्म लेना जिसके बारे में लोग ऊँची राय रखते हैं और जिसका लोग सम्मान करते हैं, उसका यह मतलब नहीं है कि तुममें कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं है। दूसरे शब्दों में, चाहे परमेश्वर ने किसी व्यक्ति को कोई भी जन्मजात स्थिति दी हो और चाहे किसी व्यक्ति की जन्मजात स्थितियाँ कैसी भी हों, उनका उस व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभावों से कोई संबंध नहीं होता है। उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति का रंग-रूप ही उसके द्वारा परमेश्वर का प्रतिरोध करने का कारण नहीं बनता है। लेकिन, क्योंकि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं इसलिए जब कोई देखने में सुंदर होता है तो वह सोच सकता है, “मैं सुंदर हूँ इसलिए मेरे पास रुतबा होना चाहिए और मेरा सम्मान किया जाना चाहिए।” ये भ्रष्ट स्वभावों के प्रकाशन हैं। कुछ लोग अपने विशेष कौशलों को सामने लाने के लिए अपनी सुंदरता का उपयोग करते हैं और इस प्रकार कई गलत बयानों और क्रियाकलापों का खुलासा होता है। ये सभी बयान और क्रियाकलाप उनके भ्रष्ट स्वभावों के कारण होते हैं, उनकी जन्मजात स्थितियों के कारण नहीं। चाहे तुम्हारी काबिलियत अच्छी हो या खराब, काबिलियत अपने आप में परमेश्वर का प्रतिरोध करने का कारण नहीं बनती है। अगर तुम्हारी काबिलियत अच्छी है लेकिन तुम सत्य नहीं समझते हो या उसे स्वीकार नहीं करते हो, तो तुम फिर भी परमेश्वर का प्रतिरोध करोगे और उसके खिलाफ विद्रोह करोगे क्योंकि तुममें भ्रष्ट स्वभाव हैं। अगर तुममें खराब काबिलियत है, लेकिन तुम सत्य स्वीकार सकते हो और एक बार जब तुम यह समझ जाते हो कि परमेश्वर तुमसे क्या करने या नहीं करने के लिए कहता है, तो तुम उसका पालन कर सकते हो और तुम अपने भ्रष्ट स्वभावों के आधार पर कार्य नहीं करने में समर्थ हो जाते हो, तो तुम परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह नहीं करोगे और न ही तुम धूर्त और कामचोर बनोगे या लापरवाह, उद्दंड या मनमाने और जल्दबाज बनोगे। चाहे तुममें खराब काबिलियत हो या न हो, जब तक तुममें भ्रष्ट स्वभाव हैं तब तक भले ही तुम परमेश्वर के वचन समझ सको, तुम फिर भी परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करोगे और उसका प्रतिरोध करोगे। क्योंकि तुममें जीवन के रूप में भ्रष्ट स्वभाव हैं, इसलिए तुम स्वाभाविक रूप से विभिन्न शैतानी विचार और दृष्टिकोण, सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफे और साथ ही ऐसे शैतानी दृष्टिकोण विकसित करते हो जो इस बात की नींव रखते हैं कि तुम लोगों और चीजों को कैसे देखते हो, और तुम दिखावा करोगे, अपना बचाव करोगे और लगातार दूसरों से अलग दिखना और खुद को दूसरों से ऊपर बनाए रखना चाहोगे और यहाँ तक कि दूसरों को नियंत्रित करना और उन पर राज करना भी चाहोगे। ये सभी अभिव्यक्तियाँ लोगों की शैतानी प्रकृति से उत्पन्न होती हैं। अगर तुम अपनी शैतानी प्रकृति और शैतानी जीवन के आधार पर विभिन्न चीजें करते हो तो चाहे तुम्हारी काबिलियत अच्छी हो या बुरी, तुम परमेश्वर का प्रतिरोध करोगे। काबिलियत अपने आप में परमेश्वर का प्रतिरोध करने का कारण नहीं बनती है। तुममें खराब काबिलियत है, लेकिन क्या तुम जब तक तुम परमेश्वर के वचन समझते हो तब तक उनके अनुसार कार्य कर सकते हो? अगर तुममें भ्रष्ट स्वभाव नहीं हैं या तुम अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार नहीं जीते ह, तो तुम इसे जरूर हासिल कर सकते हो। उदाहरण के रूप में एक विशेष कौशल होने की बात ले लो—लोग अक्सर सोचते हैं, “चूँकि मेरे पास यह विशेष कौशल है, इसलिए मैं दूसरों से बेहतर हूँ; परमेश्वर के घर में मेरे पास रुतबा होना चाहिए, मुझे परमेश्वर के घर में अगुआ या स्तंभ होना चाहिए।” ये विचार विशेष कौशल होने के कारण उत्पन्न नहीं होते हैं बल्कि भ्रष्ट स्वभावों के कारण उत्पन्न होते हैं। क्योंकि लोगों में जीवन के रूप में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, इसलिए वे जो भी प्रकट करते हैं, जीते हैं और प्रदर्शित करते हैं और विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों को देखने में उनके जो परिप्रेक्ष्य, रुख और सिद्धांत होते हैं, वे सभी उनके पास जीवन के रूप में भ्रष्ट स्वभाव होने के कारण होते हैं। ये परमेश्वर द्वारा उन्हें दी गई किसी जन्मजात स्थिति के कारण नहीं होते हैं। तुम समझ रहे हो? (हाँ।) इन वचनों की संगति करने से मेरा क्या मतलब है? इस संगति का उद्देश्य तुम लोगों को अपनी वास्तविक परिस्थिति को और स्पष्ट रूप से समझने और पहचानने में और यह भी पहचानने में सक्षम बनाना है कि तुम्हारी काबिलियत कैसी है—ऐसा व्यक्ति मत बनो जिसके पास कोई सूझ-बूझ नहीं है और औसत या खराब काबिलियत होने पर व्यर्थ लड़ाई-झगड़ों में मत पड़ो या यह दिखाने के लिए व्यर्थ बहाने भी मत दो कि तुम्हारी काबिलियत खराब नहीं है। इन क्रियाकलापों का कोई मूल्य नहीं है। यह संगति तुम्हें अपनी काबिलियत और अपनी विभिन्न क्षमताओं को सटीक रूप से समझने और फिर अपनी उचित स्थिति ढूँढ़ निकालने और अपनी उचित अवस्था के अनुसार आचरण करने के लिए है। इससे तुम्हें एक उचित सृजित प्राणी बनने, एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी स्थिति में उचित रूप से खड़े होने और एक सृजित प्राणी के कर्तव्य पूरे करने में और मदद मिलेगी। यकीनन इससे तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभावों को छोड़ देने में भी कुछ हद तक और मदद मिलेगी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारी काबिलियत या विभिन्न क्षमताएँ किस स्तर पर हैं, वे उस सीमा को तय नहीं करतीं जिस तक तुम परमेश्वर का प्रतिरोध करते हो और उसके खिलाफ विद्रोह करते हो। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारी काबिलियत के वर्ग पर निर्भर नहीं करते हैं और वे इस बात पर तो बिल्कुल निर्भर नहीं करते हैं कि तुम्हारी जन्मजात स्थितियाँ कैसी हैं। मनुष्यों के भ्रष्ट स्वभाव उनके जन्मजात, अंतर्निहित देह में उत्पन्न होते हैं। शैतान द्वारा मनुष्यों को भ्रष्ट किए जाने के बाद उनके भ्रष्ट स्वभाव उनका आंतरिक जीवन बन गए। जब तुम लोगों ने अभी तक अपने भ्रष्ट स्वभाव नहीं छोड़े होते हैं, तब तुम इस शैतानी जीवन के आधार पर बोलने और कार्य करने के लिए अपनी जन्मजात स्थितियों का फायदा उठाते हो। इसका मतलब यह है कि तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव छोड़ देने से पहले उन विभिन्न जन्मजात स्थितियों का फायदा उठा रहे हो जो परमेश्वर ने तुम्हें तुम्हारे अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए दी हैं। और इसलिए, हम यह कह सकते हैं : अगर तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव नहीं छोड़ देते हो तो तुम उन जन्मजात स्थितियों का फायदा उठा रहे हो या उन्हें रौंद रहे हो जो परमेश्वर ने तुम्हें दी हैं; अगर तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव छोड़ देने के लिए सत्य का अनुसरण करने और सत्य का अभ्यास करने की प्रक्रिया में हो तो तुम उचित रूप से और कारगर तरीके से उन विभिन्न जन्मजात स्थितियों का फायदा उठा रहे हो जो परमेश्वर ने तुम्हें दी हैं; जब तुम एक ऐसे व्यक्ति से जिसके पास जीवन के रूप में भ्रष्ट स्वभाव हैं, एक ऐसे व्यक्ति में बदल जाते हो जिसके पास जीवन के रूप में सत्य है, तब तुम उचित रूप से और सही तरीके से—दूसरे शब्दों में, ज्यादा सार्थक तरीके से—उन जन्मजात स्थितियों का उपयोग कर रहे होते हो जो परमेश्वर ने तुम्हें दी हैं। अब तुम समझ रहे हो? जन्मजात स्थितियाँ अपने आप में परमेश्वर के खिलाफ मानवजाति के प्रतिरोध का मूल कारण नहीं हैं। बल्कि लोगों के शैतानी भ्रष्ट स्वभाव और शैतान द्वारा लोगों के भीतर डाला गया जीवन ही परमेश्वर के खिलाफ मानवजाति के प्रतिरोध और विद्रोह का मूल कारण हैं। क्या यही बात नहीं है? (हाँ।) क्या अब यह मुद्दा मूल रूप से तुम्हें स्पष्ट हो गया है? (हाँ।)

हमने काबिलियत के विषय पर संगति करने से पहले जन्मजात स्थितियाँ, मानवता और भ्रष्ट स्वभाव, इन तीन पहलुओं की कुछ अभिव्यक्तियों के बारे में संगति की। पिछली बार हमने किन अभिव्यक्तियों के बारे में संगति की थी? (पिछली बार जिन अभिव्यक्तियों के बारे में संगति की गई थी, वे थीं चीजें करने में लगन, चीजों को एक ढाँचा बनाकर करना, चीजें करने में शुरूआत मजबूत तरीके से करना लेकिन समाप्ति कमजोर तरीके से करना, चीजें करने में सावधानी बरतना और साथ ही, बड़ी-बड़ी बातें करना और डींग हाँकना, लापरवाही, अपना प्रदर्शन करना पसंद करना, गरीबों को तुच्छ समझना और अमीरों की तरफदारी करना, शक्तिशाली लोगों की खुशामद करना, असाधारण याददाश्त होना, वगैरह-वगैरह।) हम इन पर इससे आगे संगति नहीं करेंगे। हम जन्मजात स्थितियों, मानवता और भ्रष्ट स्वभावों के प्रकाशनों की विभिन्न अभिव्यक्तियों के बारे में संगति करना जारी रखेंगे। जब ये अभिव्यक्तियाँ होती हैं, तो तुम्हें पता होना चाहिए कि वे किस प्रकार की अभिव्यक्ति से संबंधित हैं और तुम्हें उनमें अंतर करने और उनका भेद पहचानने में समर्थ होना चाहिए; तभी तुम उन्हें सही तरीके से सँभाल सकते हो। अगर कोई अभिव्यक्ति जन्मजात स्थितियों से संबंधित है, जिन्हें बदला नहीं जा सकता है, तो तुम्हें इसके बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है। अगर यह मानवता की ऐसी कुछ कमियों या दोषों से संबंधित है जिन पर काबू पाया जा सकता है, जिन्हें सुधारा या बदला जा सकता है, तो तुम्हें उन्हें सुधारने और बदलने का प्रयास करना चाहिए। अगर उन पर काबू पाने की कोई जरूरत नहीं है और उनसे तुम्हारे कर्तव्य के निर्वहन या सत्य के तुम्हारे अनुसरण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है तो तुम्हें उन पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है। अगर कोई अभिव्यक्ति न तो जन्मजात स्थितियों की समस्या है और न ही मानवता की समस्या है, बल्कि यह भ्रष्ट स्वभावों से जुड़ी है, तो इसे बदला जाना चाहिए। अगर तुम इसे रूपांतरित नहीं करते हो या नहीं बदलते हो तो जो भ्रष्ट स्वभावों द्वारा नियंत्रित जीवन का रूप तुममें जड़ें जमा रहा है और शक्ति का उपयोग कर रहा है, उसके चलते तुम जो जीते हो और प्रकट करते हो वे सिर्फ मामूली समस्याएँ नहीं हैं, जैसे कि दूसरों के साथ मिलजुलकर नहीं रह पाना या दूसरों को अप्रिय होना और उनकी नैतिक उन्नति करने में विफल होना। बल्कि तुम जो जीते हो और प्रकट करते हो, वह सत्य का उल्लंघन करने, सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करने, परमेश्वर का प्रतिरोध करने, परमेश्वर को ठुकरा देने, परमेश्वर के प्रति विरोधपूर्ण होने और—यहाँ तक कहा जा सकता है—परमेश्वर के विरोध में खड़े होने के स्तर तक पहुँच जाता है। ठीक इसी कारण से भ्रष्ट स्वभाव इस प्रकृति के होते हैं, एक बार जब इन अभिव्यक्तियों में भ्रष्ट स्वभाव जुड़ जाते हैं, तब तुम्हें इन भ्रष्ट स्वभावों को जानना शुरू कर देना चाहिए और फिर सत्य की तलाश करनी चाहिए, सत्य का अभ्यास करने के सिद्धांतों को समझना चाहिए, उन पर पकड़ बना लेनी चाहिए और इन भ्रष्ट स्वभावों को बदल देने के लिए सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए ताकि ये भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारे जीवन को अब और नियंत्रित न करें और उनकी जगह सत्य तुम्हारा जीवन बन जाए और तुम्हारे दैनिक जीवन को और तुम जो जीते हो उसे नियंत्रित करे।

हम जन्मजात स्थितियों, मानवता और भ्रष्ट स्वभावों की विभिन्न अभिव्यक्तियों के बारे में संगति करना जारी रखेंगे। पिछली बार हमने जिस अंतिम अभिव्यक्ति के बारे में संगति की थी, वह अच्छी याददाश्त होना था, है ना? (हाँ।) तो फिर भुलक्कड़पन किस पहलू से संबंधित है? (जन्मजात स्थितियों से।) यह एक जन्मजात स्थिति है और मानवता की एक कमी भी है—बस ये दो पहलू हैं। क्या भुलक्कड़पन एक भ्रष्ट स्वभाव है? (नहीं।) जाहिर है नहीं। कुछ लोग इसलिए भुलक्कड़ होते हैं क्योंकि उनकी याददाश्त स्वाभाविक रूप से खराब होती है, जबकि दूसरे लोग दिमाग की उम्र बढ़ने और उम्र बढ़ने के साथ याददाश्त के कमजोर होते रहने के कारण भुलक्कड़ हो जाते हैं। अगर भुलक्कड़पन जन्मजात है, तो यह जन्मजात स्थितियों से संबंधित है; अगर यह अर्जित है तो फिर यह मानवता की एक कमी है। स्वाभाविक रूप से भुलक्कड़ होने को यकीनन एक कमी माना जाता है, है ना? (हाँ।)

चीजें करने से पहले योजना बनाने में कुशल होना—यह किस पहलू से संबंधित है? (मानवता के एक गुण से।) यह मानवता का एक गुण है। जो लोग योजना बनाने में कुशल होते हैं वे कोई चीज करने से पहले ही आगे की योजना बना लेते हैं और फिर आवेगी, लापरवाह या उतावले हुए बगैर उस योजना के अनुसार कदम उठाते हैं। वे सधे हुए तरीके से कार्य करते हैं, सनक में आकर जल्दबाजी में चीजें नहीं करते हैं, बल्कि पहले से विचार करते हैं कि उन्हें कैसे जाना चाहिए, किसके साथ जाना चाहिए, विशेष परिस्थितियों में क्या करना चाहिए, कौन-से दस्तावेज या सामान लाने की जरूरत है, परिवेश के आधार पर कुछ जरूरी दैनिक सामान लाना है या नहीं, वगैरह-वगैरह। वे ये सभी चीजें ध्यान में रख पाने में समर्थ होते हैं। कार्य करने से पहले वे गहन तैयारियाँ करते हैं, ज्यादा कारकों पर विचार करते हैं और ज्यादा बारीकी से सोचते हैं। वे पहले से ही अनुकूल और प्रतिकूल स्थितियों के बीच अंतर का आकलन कर लेंगे और सबसे बेहतर स्थिति और सबसे बुरे संभावित नतीजों में अंतर करेंगे। वे सबसे अच्छे नतीजे हासिल करने के लिए उचित व्यवस्था करेंगे। क्योंकि वे योजना बनाने और उचित व्यवस्था करने में कुशल होते हैं, इसलिए उनके मामले सँभालने का तरीका आमतौर पर ज्यादा विस्तृत होता है। वे जिन चीजों और मार्गों की व्यवस्था करते हैं उनमें अप्रत्याशित स्थितियाँ कम बार उत्पन्न होती हैं और उनके कार्य के नतीजे बेहतर होने की संभावना रहती है। उनके साथ कार्य करने वाले लोग बेचैन महसूस नहीं करते हैं, बल्कि वे ज्यादा सहज महसूस करते हैं। तो क्या यह कहा जा सकता है कि योजना बनाने में कुशल होना, अपेक्षाकृत रूप से कहा जाए तो मानवता के एक गुण से संबंधित है? (हाँ।) उसमें योजना बनाने में कुशल होना शामिल है। तो, हिसाबी होना अच्छा है या नहीं? (यह अच्छा नहीं है। यह मानवता की एक कमी है।) योजना बनाने में कुशल होना मानवता का एक गुण और मजबूत पक्ष है—यह सकारात्मक है—जबकि हिसाबी होना मानवता की एक कमी है। उदाहरण के लिए, अगर दो लोग भोजन करते हैं जिसकी कुल लागत दस युआन आती है और जब भुगतान करते समय कुचक्री व्यक्ति पाँच युआन और पचास सेंट का भुगतान करता है जबकि दूसरा व्यक्ति चार युआन और पचास सेंट का भुगतान करता है तो उसे लगता है : “यह सही नहीं है—उसने पचास सेंट कम भुगतान किया। इसे न्यायसंगत और उचित होने के लिए हर व्यक्ति को पाँच युआन का भुगतान करना चाहिए।” वे इतनी छोटी रकम का भी हिसाब लगाते हैं। अगर उन्हें लगता है कि उन्हें नुकसान हो गया है तो वे बेचैन हो उठते हैं और साजिश के जरिये हमेशा अपने नुकसानों की भरपाई करने के अवसर तलाशते रहते हैं। अगर वे इस तरह से अपने नुकसानों की भरपाई नहीं कर पाते हैं तो वे अच्छी तरह से खा या सो नहीं पाते हैं। हिसाबी होना मानवता की एक कमी है। अगर यह गंभीर हो जाती है और वे बड़े मामलों में भी जोड़-भाग करते हैं, हमेशा दूसरों से लाभ निकालने या उनका फायदा उठाने का प्रयास करते हैं या अपने हिसाबों के लिए बार-बार साजिशों का सहारा लेते हैं तो यह अब सिर्फ मानवता की कमी नहीं रह जाती है, बल्कि इसमें भ्रष्ट स्वभाव भी जुड़े होते हैं। अगर किसी का हिसाबी होना दूसरों को असर नहीं करता है या उनके हितों को नुकसान नहीं पहुँचाता है और यह सिर्फ दैनिक जीवन के उन मामूली मामलों में ही मौजूद रहता है जिससे अंत में मामलों को सँभालने में बार-बार विफलताएँ होती हैं या खराब नतीजे सामने आते हैं, तो यह मानवता की एक कमी है।

कंजूस होना किस तरह की समस्या है? (मानवता की एक कमी है।) कौन-सी अभिव्यक्तियाँ कंजूस होने की हैं? उदाहरण के लिए, अगर कोई कंजूस व्यक्ति गाड़ी से कहीं जाने वाला है और कोई उससे कहता है, “मैं भी इसी रास्ते से जा रहा हूँ, क्या तुम मुझे लिफ्ट दे सकते हो? इसमें सिर्फ पाँच मिनट लगेंगे और मैं तुम्हें गैस के लिए कुछ पैसे दे सकता हूँ” तो उसे डर रहता है कि लिफ्ट लेने के बाद वह व्यक्ति भुगतान नहीं करेगा और वह उसे लिफ्ट देने से मना करने का बहाना ढूँढ़ता है—यह कंजूस होना है। ऐसे लोग भी होते हैं जो जब कोई उनसे कोई चीज उधार माँगता है और वे उसे वह चीज उधार नहीं देना चाहते हैं तो वे कहते हैं, “मैं अभी इसका उपयोग कर रहा हूँ। मैं वाकई इसे तुम्हें उधार देने की स्थिति में नहीं हूँ। तुम किसी और से माँग लो।” वे बेहद कंजूस और नीच होते हैं; वे सामान्य पारस्परिक मेलजोल नहीं रखते हैं और उन्हें इस बात का बहुत ही ज्यादा डर रहता है कि दूसरे उनका फायदा उठा लेंगे जबकि वे खुद हमेशा दूसरों का फायदा उठाने की उम्मीद करते रहते हैं। इसे कंजूस होना कहते हैं। ऐसे भी लोग हैं जो जब तुम भोजन और कुछ दूसरी चीजें खरीदने के लिए दस युआन उधार माँगते हो तो वे इस पर सोच-विचार करते हैं : “मैं भोजन के लिए तुम्हें सिर्फ पाँच युआन उधार दूँगा—उससे एक सेंट भी ज्यादा नहीं!” अगले दिन जब वे तुमसे मिलते हैं तो वे यह तक पूछते हैं, “भोजन कैसा था? क्या तुमने पूरे पाँच युआन खर्च कर दिए?” उनके शब्दों का परोक्ष रूप से यह मतलब होता है, “जल्दी करो और मुझे मेरे पैसे लौटाओ! तुम पर अब भी उस भोजन के पैसे बकाया हैं। अगर तुमने मुझे पैसे नहीं लौटाए तो तुम्हें मुझे एक बार खाना खिलाना होगा!” इस किस्म के लोग अपने स्व-आचरण में बेहद ओछे होते हैं और जोड़-भाग करने में कुशल होते हैं। वे न सिर्फ भौतिक चीजों के मामले में जोड़-भाग करने में कुशल होते हैं, बल्कि पारस्परिक मेलजोल में भी विशेष रूप से जोड़-भाग करने में कुशल होते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई उनसे क्या कहता है, वे हमेशा उसकी बात का अध्ययन करते हैं और उसके पीछे के मतलब पर विचार करते हैं। अगर उसके शब्द उन्हें नुकसान पहुँचाते हैं या उनके हितों का हनन करते हैं तो वे तुरंत ईंट का जवाब पत्थर से देते हैं। वे बातचीत में भी फायदा उठाने का प्रयास करते हैं और कोई भी नुकसान सहने से साफ-साफ इनकार कर देते हैं। अब यह सिर्फ ओछा या कंजूस होना नहीं रह गया है—यह एक भ्रष्ट स्वभाव है। अगर इसमें रोजमर्रा के भौतिक और वित्तीय लेनदेन में फायदा उठाने और नुकसानों से बचने का प्रयास करना ही शामिल है तो यह सिर्फ मानवता की एक कमी है और यह भ्रष्ट स्वभाव के स्तर तक नहीं बढ़ा है। लेकिन अगर इसमें आचरण करने और कार्य करने के सिद्धांत शामिल हैं तो अब यह मानवता की कमी नहीं रहा बल्कि यह भ्रष्ट स्वभावों के स्तर तक बढ़ चुका है। तो उदारता किससे संबंधित है? (यह मानवता का एक गुण है।) इसे मानवता के गुण के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। उदार लोग दूसरों के साथ मेलजोल में फायदों और नुकसानों को लेकर बहुत ज्यादा चिंतित नहीं रहते हैं। जब दूसरे लोग उनका छोटा-मोटा फायदा उठाते हैं या उनसे थोड़ा-सा कुछ ले लेते हैं या कभी-कभार जब कोई उन्हें उनसे उधार लिया हुआ पैसा वापस करने में विफल रहता है तो वे वाकई ऐसी चीजों का हिसाब नहीं लगाते हैं। वे दूसरों के प्रति अपेक्षाकृत उदार और सहनशील होते हैं—यह मानवता का एक गुण है।

ओछापन किस तरह की समस्या है? (यह मानवता की एक कमी है।) यह मानवता की एक कमी है। ओछेपन की क्या अभिव्यक्तियाँ हैं? (छोटी-छोटी बातों पर ज्यादा परेशान होने की प्रवृत्ति होना।) उदाहरण के लिए, भोजन के दौरान अगर तुम किसी ओछे व्यक्ति से कहते हो, “वाकई तुम्हारी भूख बहुत ज्यादा है—तुम ज्यादातर लोगों से ज्यादा खाते हो” तो उसे गुस्सा आ जाता है : “क्या तुम मुझे भुक्खड़ कह रहे हो?” तुमने कोई ऐसी टिप्पणी की जिससे अनजाने में उसे ठेस पहुँची या वह परेशान हो गया और वह इसे दिल पर ले लेता है और इसे जाने नहीं देता। वह आधे महीने तक तुमसे नाराज रह सकता है और तुमसे बात करने से इनकार कर सकता है और तुम्हें कोई अंदाजा नहीं होगा कि इसका क्या कारण है। दरअसल तुम उसका मजाक उड़ाने के इरादे से नहीं, बस यूँ ही एक टिप्पणी कर रहे थे लेकिन वह अचानक इस टिप्पणी को बड़ा बना देता है, यह मानता है कि उसका मजाक उड़ाया जा रहा था। वह इस छोटी-सी बात को भी दिल पर ले लेता है और उसे अंतहीन रूप से बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है, बात का बतंगड़ बना देता है और बिल्कुल कोई क्षमा भाव नहीं दिखाता—यह ओछापन है। इस तरह का व्यक्ति कितना ओछा हो सकता है? वह बच्चों की तरह उद्दंड हो सकता है—कोई भी उसे उकसाने की हिम्मत नहीं करता। उससे मेलजोल रखते समय तुम्हें हमेशा सावधान रहना पड़ता है, तुम उससे सामान्य ढंग से बात करने की हिम्मत नहीं करते क्योंकि अगर तुमने ऐसा किया तो तुम जो भी कहोगे, वह उसे अपमानित कर सकता है या ठेस पहुँचा सकता है और इसके दुष्परिणाम होंगे—अगली बार जब उससे तुम्हारी मुलाकात होगी तो उसका मुँह फूला होगा, वह तुमसे नजरें चुराएगा और यहाँ तक कि चीजों को पटकेगा। अगर तुम उससे बात करने का प्रयास करोगे तो वह तुम्हें नजरअंदाज कर देगा। न तो उससे चीजों के बारे में बात करना और न ही उसे मनाने का प्रयास करना काम करेगा। अगर तुम उसके पास बैठोगे तो वह तुमसे दूर हट जाएगा और तुम्हें नजरअंदाज कर देगा। उसकी उम्र चाहे कुछ भी हो, वह हमेशा बच्चों की तरह नखरे दिखाता है और मनमाने ढंग से कार्य करता है—क्या यह ओछापन नहीं है? (हाँ।) यह मानवता की एक कमी है। इस तरह के लोगों के साथ मिलजुलकर रहना बहुत ही मुश्किल है। जब भाई-बहन एक-दूसरे की कमियों पर ध्यान दिलाते हुए खुले दिलों से संगति करते हैं, तब इस किस्म के लोगों की किसी भी कमी की ओर ध्यान दिलाने की हिम्मत कोई नहीं करता है। लेकिन अगर उन्हें संगति में शामिल नहीं किया जाता है, तो वे असंतुष्ट हो जाते हैं और उनके मन में कुछ विचार आने लगते हैं : “तुम सभी मिलकर खुले दिलों से संगति करते हो, एक-दूसरे की मदद करते हो, लेकिन तुम मुझसे भाई-बहन की तरह पेश नहीं आते।” उनसे कुछ भी नहीं कहना ठीक नहीं है—तुम्हें उनसे थोड़ा-सा कुछ तो कहना पड़ेगा : “तुम बहुत अच्छे हो, लेकिन कभी-कभी तुम्हारा मिजाज इतना अच्छा नहीं रहता है। लेकिन हमारी भी अपनी गलतियाँ हैं और हम अक्सर इस बात पर ध्यान नहीं देते हैं कि हम क्या कह रहे हैं।” अगर तुम इसे इस तरह शब्दों में व्यक्त नहीं करते हो और सिर्फ यह कहते हो कि वे बदमिजाज हैं और वे संकीर्ण विचारों वाले हैं, तो यह काम नहीं करेगा—उन्हें गुस्सा आ जाएगा। उनसे मेलजोल रखते समय तुम्हें विशेष रूप से सतर्क रहना होगा और सावधानी से बोलना होगा। अगर तुम कोई ऐसी चीज कहते हो जो अनुचित है तो तुम्हें इसके नतीजे भुगतने होंगे। इसलिए उनसे मेलजोल रखना विशेष रूप से थकाऊ होता है। अविश्वासियों के पास इसके लिए एक शब्द है, वे कहते हैं कि इस किस्म के लोगों के पास “काँच के दिल” होते हैं जिसका मतलब है कि उन्हें विशेष रूप से आसानी से ठेस लग जाती है। इस तरह के लोग तुरंत आहत हो जाते हैं, रोना शुरू कर देते हैं, खाना खाने से मना कर देते हैं, सो नहीं पाते हैं और नकारात्मक हो जाते हैं। वे कहते हैं, “तुम सभी कहते हो कि मैं निकम्मा हूँ। तुम लोगों में से कोई भी मुझे पसंद नहीं करता है, तुम लोगों में से कोई भी मुझसे गपशप नहीं करता है और तुम सभी मुझसे दूर भागते हो और मेरे आस-पास नहीं रहना चाहते।” क्या यह बचकाना नहीं है? (हाँ।) कोई कहता है, “तुम्हारा दिल बहुत नाजुक है, काँच की तरह—यह जरा-सी चोट लगते ही टूट जाता है। कौन तुम्हें उजागर करने की हिम्मत करेगा? कौन तुम्हारे साथ मेलजोल रखने की हिम्मत करेगा? हर कोई ऐसा करने से डरता है।” यह कहना कि इस किस्म के लोगों में बुरी मानवता होती है वस्तुनिष्ठ नहीं होगा—वे वाकई किसी भी कुकर्म में शामिल नहीं होते हैं। बात बस इतनी है कि वे बहुत ही चिड़चिड़े होते हैं—वे उद्दंड, जरा-सी बात पर चिढ़ने वाले और बच्चों जैसे मिजाज वाले होते हैं। तुम उनसे टकरा नहीं सकते या उन्हें उकसा नहीं सकते। अगर तुम उनके प्रति क्षमाशील होते हो तो वे कहते हैं कि तुम उन्हें नीची नजर से देखते हो और उन्हें गंभीरता से नहीं ले रहे हो; अगर तुम उनके साथ गंभीर होते हो तो वे कहते हैं कि तुम उन्हें लेकर ज्यादा परेशान हो रहे हो—चाहे तुम कुछ भी करो, यह गलत ही होता है। इस किस्म के लोगों से मेलजोल रखते समय अगर उनसे पेश आने का तुम्हारा नजरिया उपयुक्त है और तुम उन्हें खुश करने में कामयाब हो जाते हो तो भले ही उनकी काबिलियत कुछ हद तक खराब हो, वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से कर सकते हैं। लेकिन अगर उनसे पेश आने का तुम्हारा नजरिया उपयुक्त नहीं है और कोई चीज उन्हें परेशान कर देती है, तो वे नकारात्मक हो जाते हैं और तुम्हें उन्हें खुश करने के तरीकों के लिए अपना दिमाग खपाना पड़ता है। जो लोग ओछे होते हैं, वे बहुत परेशान करने वाले होते हैं। किसी मामूली-सी बात पर वे एक लंबे अरसे तक रो सकते हैं, इस हद तक कि उनकी आँखें बहुत लाल हो जाती हैं। अगर कोई मामूली-सी बात उनकी इच्छा के मुताबिक नहीं होती है, तो वे घंटों मुँह फुलाए रह सकते हैं। जब वे गुस्से में होते हैं, तब आधे महीने तक दूसरों पर ध्यान दिए बिना या दूसरों से बात किए बिना रह सकते हैं। इस तरह के लोग बदमिजाज होते हैं और ओछे होते हैं, लेकिन फिर भी वे वह कार्य करते हैं जो उन्हें करना चाहिए—बात बस इतनी है कि वे इसे गुस्से से करते हैं। एक बार जब उनका मिजाज ठीक हो जाता है तो वे फिर से अच्छी तरह से कार्य कर सकते हैं। कुल मिलाकर उनकी मानवता की यह कमी और समस्या गंभीर है। वे तनावपूर्ण माहौल बनाने और अपने लिए और दूसरों के लिए परेशानी का कारण बनने और अपने पर और दूसरों पर बोझ डालने की संभावना रखते हैं। इस किस्म के लोगों में सांसारिक आचरण के लिए वयस्कों जैसी दरियादिली या वयस्कों जैसा रवैया नहीं होता है। वे कुछ हद तक लगभग दस वर्ष के बच्चों जैसे होते हैं—तुम यह नहीं कह सकते कि वे समझदार हैं क्योंकि वे वाकई समझदार नहीं होते हैं, लेकिन तुम यह भी नहीं कह सकते कि वे परिपक्व हैं क्योंकि वे हमेशा वयस्कों की तरह बोलते हैं। अगर तुम उनसे वयस्कों जैसे पेश आते हो, तो यह संभव है कि तुम जो कुछ भी कहो वह उन्हें नाराज कर दे और उन्हें बेबस महसूस करवाए जिससे वे अचानक बच्चों की तरह नखरे करने लगें। लेकिन अगर तुम उन्हें बच्चों की तरह ट्रीट करते हो, तो उन्हें लगता है कि तुम उन्हें नीची नजर से देख रहे हो। संक्षेप में, वे बहुत असामान्य होते हैं। यह मानवता की एक कमी है। अगर किसी में इस तरह की समस्या है तो उसे बदल जाना चाहिए और सहनशील और धैर्यवान बनना सीखने का, मुद्दों को सही तरीके और सही रवैये से देखना और सँभालना और सामान्य लोगों के तर्कसंगत ढंग से दूसरों से मेलजोल रखना सीखने का प्रयास करना चाहिए। भले ही ज्यादातर लोग सत्य या चीजों को करने का सही तरीका स्वीकार न करें, तुम्हें इससे बेबस या प्रभावित नहीं होना चाहिए और न ही तुम्हें इससे प्रतिबंधित या बाध्य होना चाहिए। तुम्हें फिर भी चीजों को सही तरीके से करने पर डटे रहना चाहिए। भले ही तुम्हें लगे कि यह मुश्किल है, लेकिन हार मत मानो—यह भी सीखने की प्रक्रिया का हिस्सा है। धीरे-धीरे तुम्हारी मानवता, अंतर्दृष्टि और दूसरे पहलू परिपक्व हो जाएँगे और तुम्हारा विकास होगा। विकास का चिह्न क्या है? यह ज्यादातर लोगों के साथ तालमेल बिठाकर निभाने में समर्थ होना है; यह जब कोई तुमसे कुछ अप्रिय कहता है, मजाक करता है या तुम्हें कुछ दुखदायी कहता है, उसे सही ढंग से सहन करने, उसे समझने और उसे सँभालने में समर्थ होना है। अगर तुम्हें दूसरों की कही बात अप्रिय लगती हैं लेकिन वह तुम्हारी वास्तविक परिस्थिति दर्शाती है, तो तुम्हें इसे स्वीकारना और मान लेना चाहिए। अगर कोई अनजाने में कुछ ऐसा कह देता है जिससे तुम नाराज हो जाते हो और तुम देखते हो कि यह अनजाने में हुआ, तो तुम्हें सहनशीलता का अभ्यास करना चुनना चाहिए। अगर कोई जानबूझकर तुम्हें निशाना बनाता है और कुछ बहुत ही ठेस पहुँचाने वाली बातें कहता है, तो तुम्हें शांत होने, परमेश्वर से प्रार्थना करने और यह तलाश करने की जरूरत है : “वह मुझे क्यों ऐसे निशाना बना रहा है? उसका क्या इरादा है? क्या वह कोई कुकर्मी है या यह किसी भ्रष्ट स्वभाव का प्रकाशन है? अगर वह कोई कुकर्मी है तो मुझे उसके प्रति ज्यादा सूझ-बूझ वाला होने और उससे सावधान रहने की जरूरत है। अगर वह जो कहता है वह सही है और सत्य के अनुरूप है तो मैं इसे स्वीकारूँगा; अगर वह गलत है तो फिर उससे बहस करने की भी कोई जरूरत नहीं है। अगर वह कोई भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर रहा है तो मैं देखूँगा कि वह सत्य स्वीकार सकता है या नहीं। अगर वह सत्य स्वीकार सकता है तो मैं उसके साथ सत्य की संगति करूँगा। अगर वह सत्य नहीं स्वीकारता है तो मैं सिर्फ सहनशीलता का अभ्यास कर सकता हूँ।” क्या इससे मुद्दा हल नहीं हो जाता है? इस तरीके से जब तुम सभी तरह के लोगों से मेलजोल रखते हो तो तुम यह आपसी सहनशीलता और आपसी सहयोग से कर सकते हो और उनके साथ तालमेल बिठाकर मिलजुलकर रह सकते हो—यह एक ओछा व्यक्ति होने से हमेशा बेहतर है। ओछे लोग एक लिहाज से दूसरों के लिए काफी बेचैनी लेकर आते हैं और दूसरे लिहाज से वे किसी भी समूह का हिस्सा नहीं बन पाते हैं, बहुत अलग-थलग और अनुपयुक्त दिखाई पड़ते हैं। कुछ रहमदिल लोगों को तुम पर दया आ जाएगी और हर कोई वास्तव में तुम्हारी मदद करना चाहेगा क्योंकि तुम सभी भाई-बहन हो, लेकिन जब तुम हमेशा खुद को अलग-थलग रखते हो और इस तरह से अकेले रहते हो तो क्या तुम्हें नहीं लगता कि दूसरों को तुम अजीब लगते हो? (हाँ।) तुम अनुपयुक्त क्यों हो? वह इसलिए क्योंकि तुममें मानवता की यह कमी है, इसलिए तुम्हें इस पर काबू पाने और धीरे-धीरे बदलने के लिए कार्य करना चाहिए, है ना? (हाँ।)

बदमिजाज होना, गुस्सैल होना—यह किस पहलू से संबंधित है? (यह मानवता की एक कमी है।) बदमिजाज होने को गुस्सैल होना भी कहा जा सकता है—क्या इसे मानवता की एक कमी माना जाता है? (नहीं।) इसे कैसे देखा जाना चाहिए? एक व्यक्ति जो खुशमिजाज है, अपना द्वेष मुस्कान के पीछे छिपाकर रखता है, हमेशा सौम्य और मैत्रीपूर्ण तरीके से बोलता है, कभी किसी से बहस नहीं करता है और हमेशा वही कहता है जो दूसरे लोग सुनना चाहते हैं—क्या यह अच्छा है? (नहीं।) अगर कोई कहता है कि यह व्यक्ति अशिष्ट है तो वह कहता है, “अशिष्ट होना अच्छा है; अशिष्ट लोग परेशानी उत्पन्न नहीं करते हैं।” अगर कोई कहता है कि वह गंजा है, तो वह कहता है, “गंजा होना अच्छा है; गंजे लोग होशियार होते हैं।” यानी चाहे दूसरे लोग कुछ भी कहें या उससे कैसे भी पेश आएँ, वह कभी भी अपने आपे से बाहर नहीं होता है या गुस्सा नहीं होता है—क्या इस तरह का व्यक्ति अच्छा होता है? (नहीं।) जब यह बात आती है कि वह वाकई किन लोगों को पसंद करता है, अच्छे लोगों और अच्छी चीजों, और कुकर्मियों और बुरी चीजों के बारे में उसके विचार और नजरिये क्या हैं और क्या वह अच्छे लोगों को ठीक समझता है और कुकर्मियों से नफरत करता है या कुकर्मियों को ठीक समझता है और अच्छे लोगों से नफरत करता है, तो इन चीजों पर उसका कोई स्पष्ट दृष्टिकोण या रुख नहीं होता है और वह किसी भी चीज पर टिप्पणी नहीं करता है। चाहे उसके सामने कोई भी मामला आए, वह हमेशा उसे एक मुस्कान से टाल देता है, वह विशेष रूप से हँसमुख होता है और उसमें गुस्सा बिल्कुल नहीं होता है। क्या यह मानवता का एक गुण है? (नहीं।) खुशमिजाज होना मानवता का एक गुण नहीं है, तो क्या बदमिजाज होना मानवता की एक कमी है? क्या किसी व्यक्ति का खुशमिजाज या बदमिजाज होना यह तय कर सकता है कि उसकी मानवता कैसी है? (नहीं।) उदाहरण के लिए, कुछ लोग किसी को अपने कर्तव्य में लापरवाह होते देखते हैं और परवाह नहीं करते, वे किसी को कलीसिया के कार्य में बाधा डालते देखते हैं और उन्हें गुस्सा नहीं आता है; और वे यहाँ तक कहते हैं, “कोई बात नहीं, तुम सुधर जाओगे—आराम से, कोई जल्दी नहीं है। परमेश्वर हमारे लिए श्रमसाध्य इरादे रखता है; हमें परमेश्वर के प्रेम और उसके अनुग्रह का बदला चुकाना चाहिए और हम लापरवाह नहीं हो सकते। अगली बार इस पर ध्यान देना।” क्या ये लोग खुशमिजाज हैं? (हाँ।) कुछ लोग जब देखते हैं कि कोई व्यक्ति परमेश्वर के घर के हितों का बचाव नहीं कर रहा है तो वे कहते हैं, “क्या तुम परमेश्वर के घर के हितों का बचाव करने का प्रयास कर सकते हो? यह बहुत ही अच्छा होगा अगर तुम परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील बनो। हमें अच्छे लोग बनना चाहिए—अगर हम अच्छे लोग नहीं बनते हैं तो परमेश्वर हमें पसंद नहीं करेगा। हम जिस तरीके से आचरण करते हैं, उससे कम-से-कम हमें परमेश्वर के घर के हितों का बचाव तो करना ही चाहिए—भविष्य में इस पर ध्यान देना।” क्या इसमें कोई मिजाज दिखाया जा रहा है? (नहीं।) उनका मिजाज काफी अच्छा है, है ना? कुछ लोग कभी भी गुस्सा नहीं होते हैं चाहे कुछ भी हो जाए। जब वे देखते हैं कि कुछ लोग सुसमाचार का प्रचार करते समय ऊपरवाले को और परमेश्वर के घर को धोखा देने के लिए अक्सर गलत संख्याएँ रिपोर्ट करते हैं, तो वे कहते हैं, “अगर ज्यादातर लोग इस तरह से झूठी संख्याएँ रिपोर्ट कर रहे हैं तो फिर यह पवित्र आत्मा के कार्य की धारा है—हमें इसके प्रति समर्पण करना चाहिए!” कोई उन्हें गलत ठहराते हुए कहता है, “झूठी संख्याएँ बताना झूठ बोलना और परमेश्वर को धोखा देना है; मैं ऐसा नहीं कर सकता।” वे जवाब देते हैं, “क्यों नहीं? दूसरे लोग झूठी संख्याएँ बताते हैं, सिर्फ अच्छी खबरों की सूचना देते हैं, बुरी खबरों की नहीं। तुम इतने बेवकूफ क्यों बन रहे हो?” जब वे लोगों को झूठी संख्याएँ रिपोर्ट करते देखते हैं, तो उन्हें खुशी होती है। जब वे कुछ लोगों को सिद्धांतों से चिपके रहते और झूठी संख्याएँ रिपोर्ट करने से इनकार करते देखते हैं तो वे नाराज हो जाते हैं और भड़क उठते हैं, मेज पर मुक्का मारते हैं और कहते हैं, “तुम झूठी संख्याएँ रिपोर्ट क्यों नहीं कर रहे हो? क्या तुम पवित्र आत्मा की धारा के खिलाफ जाना चाहते हो? अगर तुम झूठी संख्याएँ रिपोर्ट नहीं करोगे, तो मैं तुम्हें बर्खास्त कर दूँगा! मैं तुम्हें बाहर निकाल दूँगा!” उनके इस तरीके से आपा खोने के बारे में तुम क्या सोचते हो? (यह बुरा है।) यह दुष्ट गुस्से का विस्फोट है। जब उन्हें आपा खोना चाहिए तब नहीं खोना और जब नहीं खोना चाहिए तब उनका मनमाने ढंग से आपा खोना, बुरी चीजों को उचित कहना, झूठी संख्याएँ रिपोर्ट करने को पवित्र आत्मा की धारा कहना और उसकी बहुत ज्यादा तारीफ करना और यहाँ तक कि उसको बढ़ावा भी देना—क्या यह घिनौना नहीं है? (हाँ।) जब वे देखते हैं कि कोई व्यक्ति झूठी संख्याएँ रिपोर्ट करने से इनकार कर देता है तो वे मेज पर मुक्का मारते हैं, भड़क उठते हैं और घूरते हैं, उसे बर्खास्त करना या बाहर निकाल देना चाहते हैं—यह “प्रचंड क्रोध” है! बड़े लाल अजगर के पास एक “प्रचंड ऑपरेशन” है; उस शैतान के शक्ति प्रदर्शन को “प्रचंड ऑपरेशन” कहा जाता है और यह इन लोगों का “प्रचंड क्रोध” है। अगर तुम झूठी संख्याएँ रिपोर्ट करने से इनकार कर देते हो और वे मेज पर मुक्का मारते हैं और तुम्हारे खिलाफ अपना प्रचंड क्रोध शुरू कर देते हैं, तो ऐसी परिस्थिति में क्या तुम सिद्धांतों से चिपके रहने, सिर्फ वास्तविक संख्याएँ रिपोर्ट करने और झूठी संख्याएँ रिपोर्ट करने से इनकार करने की हिम्मत करोगे? क्या तुम उनके खिलाफ खड़े होने और उनकी आलोचना करने और उन्हें उजागर करने की हिम्मत करोगे, यह कहोगे : “तुम लोगों को झूठी संख्याएँ रिपोर्ट करने के लिए मजबूर कर रहे हो—तुम एक शैतान हो! यहाँ तक कि तुम झूठी संख्याएँ रिपोर्ट करने में मसीह-विरोधियों का अनुसरण करने को पवित्र आत्मा की धारा भी कहते हो। क्या यह पवित्र आत्मा और परमेश्वर की ईश-निंदा नहीं है? तुम सही को गलत से अलग नहीं करते हो और तुम पवित्र आत्मा की ईश-निंदा करते हो और फिर भी तुम अपने आपको एक निष्पक्ष फरिश्ता मानते हो। तुम किसी को भी झूठी संख्याएँ रिपोर्ट करने की अपनी माँग के खिलाफ जाने की अनुमति नहीं दोगे और यहाँ तक कि तुम आपा भी खो देते हो। तुममें न्याय की रत्ती भर भावना नहीं है। न सिर्फ तुम बुरी चीजों को उजागर नहीं करते हो और उनकी निंदा नहीं करते हो, बल्कि तुम बड़े पैमाने पर उन लोगों पर अपना गुस्सा भड़कने भी देते हो जो सत्य से चिपके रहते हैं और झूठी संख्याएँ रिपोर्ट करने से इनकार कर देते हैं, यहाँ तक कि तुम उन पर अपने ‘प्रचंड क्रोध’ का कहर भी बरपाते हो। क्या यह जानबूझकर परमेश्वर के घर के कार्य में गड़बड़ करना और बाधा डालना नहीं है? क्या यह उसी प्रकृति का व्यवहार नहीं है जैसा बड़ा लाल अजगर करता है?” तो, फिर से इस बात को देखा जाए कि क्या बदमिजाज होना वाकई मानवता की एक कमी है या मानवता का एक गुण है, तो इसे सामान्यीकृत नहीं किया जा सकता है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि किन परिस्थितियों के कारण व्यक्ति आपा खोता है और किन परिस्थितियाँ के कारण नहीं खोता है और यह इस पर भी निर्भर करता है कि आमतौर पर वह व्यक्ति बदमिजाज क्यों होता है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह व्यक्ति किस चीज का अनुसरण कर रहा है, क्या उस व्यक्ति के पास स्व-आचरण के लिए सिद्धांत हैं और सत्य के प्रति उसका रवैया वास्तव में कैसा है और साथ ही, परमेश्वर, परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के घर के हितों और कलीसिया के कार्य के प्रति उसका रवैया कैसा है। अगर सत्य सिद्धांतों को बनाए रखने, परमेश्वर के घर के हितों का बचाव करने और परमेश्वर के घर के कार्य का बचाव करने के लिए वह विभिन्न कुकर्मियों, घटनाओं और चीजों का सामना करते समय लगातार बदमिजाज होता है, तो फिर यह उसकी मानवता का एक गुण है। लेकिन अगर वह विभिन्न बुरी चीजों या परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाली चीजों से सामना होने पर कभी भी बावला या गुस्सा नहीं होता है, जैसे कि उसका उनसे कोई लेना-देना ही न हो, तो फिर यह उसकी मानवता की एक कमी नहीं है—यह खराब मानवता है, न्याय की भावना नहीं होना है और यकीनन यह भ्रष्ट स्वभाव की श्रेणी में आता है। तो मिजाज को कैसे देखा जाना चाहिए? किसी व्यक्ति के खुशमिजाज होने का आवश्यक रूप से यह मतलब नहीं है कि उसकी मानवता अच्छी है और किसी व्यक्ति के बदमिजाज होने का आवश्यक रूप से यह मतलब नहीं है कि उसकी मानवता खराब है—यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसकी बदमिजाजी का निशाना किस चीज की तरफ है। अगर उसकी बदमिजाजी का निशाना उन चीजों की तरफ है जो बुरी और अँधकारमय हैं और सत्य के अनुरूप नहीं हैं—अगर उसका निशाना उन चीजों की तरफ है जो परमेश्वर के घर के सिद्धांतों का उल्लंघन करती हैं, परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाती हैं और कलीसिया के कार्य में गड़बड़ करती हैं और बाधा डालती हैं—और वह इन चीजों को लेकर बेचैन, उत्तेजित और चिंतित रहने के कारण बार-बार गुस्सा हो जाता है और आपा खो बैठता है, तो फिर यह खराब मानवता नहीं है। यह परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना है, यह मानवता का एक गुण है। इसके विपरीत, अगर इन नकारात्मक चीजों से सामना होने पर वह कोई मिजाज नहीं दिखाता है, परमेश्वर के घर या परमेश्वर की गवाही के हितों का बचाव करने के लिए आगे नहीं आता है और सत्य सिद्धांतों से चिपका नहीं रहता है और इन चीजों को रोकने या प्रतिबंधित करने के लिए आगे नहीं आता है, बल्कि इन गड़बड़ियों और विघ्न-बाधाओं को बढ़ने और निरंकुश रूप से फैलने देता है, तो भले ही ऐसे लोग बहुत खुशमिजाज दिखाई देते हों, लेकिन दरअसल उनका चरित्र बेहद खराब है। क्या यही बात नहीं है? (हाँ, है।) बदमिजाज होने के मुद्दे को कैसे देखा जाना चाहिए? यह इस बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति की बदमिजाजी का निशाना किन मामलों की तरफ है; तुम्हें यह देखना चाहिए कि उस व्यक्ति का चरित्र कैसा है, वह क्या अनुसरण करता है और किस मार्ग पर चलता है और सत्य के प्रति, परमेश्वर के प्रति, परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति और परमेश्वर के घर के हितों के प्रति उसका क्या रवैया है। क्या इसे देखने का यह तरीका सटीक है? (हाँ।) अगर किसी व्यक्ति में न्याय की कोई भावना नहीं है, लेकिन वह गर्ममिजाज है, आसानी से भड़क उठता है और अपने दैनिक जीवन में लोगों से मेलजोल रखते समय उसे बहुत जल्दी गुस्सा आ जाता है, बार-बार गुस्से से तमतमाने लगता है और अक्सर मामूली बातों पर दूसरों से बहस करता रहता है और उनसे भिड़ जाता है, यहाँ तक कि अभद्र भाषा का भी उपयोग करता है, तो यह मानवता की एक कमी नहीं है—यह बेहद खराब चरित्र है। भ्रष्ट स्वभाव के लिहाज से देखा जाए तो, इस व्यक्ति का स्वभाव क्रूर है और कोई भी उसे उकसाने की हिम्मत नहीं करता है। वह न्यायोचित मामलों का बचाव करने, सकारात्मक चीजों का बचाव करने, सत्य सिद्धांतों को बनाए रखने या परमेश्वर के घर के हितों और कार्य का बचाव करने के लिए आपा नहीं खोता है, बल्कि अपने सारे हितों, अपनी प्रतिष्ठा, रुतबे, घमंड, भौतिक संपत्ति, पैसे, वगैरह-वगैरह का बचाव करने की खातिर आपा खोता है। ऐसे व्यक्ति की बदमिजाजी को बेहद खराब चरित्र के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। बदमिजाजी को परिस्थिति के आधार पर देखा जाना चाहिए, यह विचार करना चाहिए कि व्यक्ति की बदमिजाजी का निशाना किस चीज की तरफ है और इसके पीछे क्या इरादे हैं। अगर वह अपने हितों का बचाव करने या अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे का बचाव करने के लिए वाकई आपा खो सकता है और एक अकेली टिप्पणी पर हंगामा खड़ा कर सकता है, तो उसका चरित्र बेहद खराब है। अगर जब उसके व्यक्तिगत हितों से जुड़े मामलों की बात आती है, तो वह आमतौर पर काफी दरियादिल होता है—उदाहरण के लिए, जब कभी-कभार लोग ऐसी टिप्पणियाँ करते हैं जो उसे निशाना बनाती हैं और उसके गौरव को जरा-सा ठेस पहुँचाती हैं या उसका जरा-सा फायदा उठाती हैं, तो वह आमतौर पर इसे नजरअंदाज कर देता है और आपा नहीं खोता है—अगर वह छोटी-छोटी चीजों पर ज्यादा परेशान नहीं होता है और दूसरों से मेलजोल रखते समय मिलनसार हो सकता है और फिर भी जब वह किसी को कलीसिया के कार्य में गड़बड़ करते और बाधा डालते और परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाते देखता है तो वह आपा खो देता है, तो यह बुरा चरित्र नहीं है। बल्कि यह वही न्याय की भावना है जो मानवता में होनी चाहिए; यह मानवता का एक गुण है।

रूठने की प्रवृति होना—यह किस तरह की समस्या से संबंधित है? (यह मानवता की एक कमी है।) यह मानवता की एक कमी है। किस तरह के लोगों में रूठने की प्रवृति होती है? (ओछे लोगों में।) ओछे लोग, तुनकमिजाज लोग और बच्चे, इन सब में रूठने की प्रवृति होती है। जब उनके सामने कोई छोटी-मोटी समस्या आती है, तब वे तुरंत गुस्सा हो जाते हैं, तुमसे बात करने से मना कर देते हैं, तुमसे मिलने से मना कर देते हैं और तुम्हारे कॉल का उत्तर भी नहीं देते हैं। तुम अनजाने में कुछ ऐसा कह देते हो जिससे उन्हें ठेस पहुँचती है, और वे रूठने लगते हैं, लंबे समय तक तुम्हें अनदेखा करने लगते हैं, और इस बारे में पूछे जाने पर भी कुछ नहीं कहते हैं। तुम उनसे पूछते हो, “क्या हुआ? अगर कोई समस्या है तो चलो उसे हल कर लें। अगर मैंने तुम्हारा कोई कर्ज चुकाना है तो मैं उसे चुका दूँगा। अगर मेरी कही किसी बात से तुम्हें ठेस पहुँची है तो मैं माफी माँगता हूँ और तुम मुझसे जो भी करवाना चाहते हो, मैं वह सब कर सकता हूँ।” फिर भी वे चुप रहते हैं, रूठे रहते हैं। क्या ऐसे लोग परेशान करने वाले नहीं होते हैं? (हाँ।) यह असामान्य मानवता है। मानवता से संबंधित समस्याएँ जो चरित्र से संबंधित मुद्दों के स्तर तक नहीं पहुँचती हैं, वे सब मानवता की कमियों से संबंधित हैं। कमी का मतलब है कि जो चीज सामान्य मानवता में मौजूद होनी चाहिए, वह चीज व्यक्ति में मौजूद नहीं है—आचरण करते समय या मामले सँभालते समय किसी व्यक्ति का रवैया या ढंग असामान्य या अपरिपक्व है और सामान्य मानवता के लिए सूझ-बूझ का मानक पूरा नहीं करता है। यह एक कमी है। एक बात तो यह है कि रूठने की प्रवृत्ति होने से दूसरे लोग चिढ़ जाते हैं और वे ऐसे लोगों से मेलजोल रखना नापसंद करते हैं। इसके अलावा, रूठने की प्रवृत्ति होना बच्चों जैसा अपरिपक्व होना है। आमतौर पर लगभग दस वर्ष की आयु के बच्चे ही इस तरीके से व्यवहार करते हैं—वयस्कों में ये अभिव्यक्तियाँ नहीं होती हैं। जब ऐसे व्यक्ति के तुमसे अच्छे संबंध होते हैं, तो तुम दोनों जुड़वाँ भाइयों की तरह होते हो। लेकिन जब तुम्हारे बीच कड़वाहट आ जाती है तब वह शत्रुतापूर्ण हो जाता है, रूठ जाता है, तुमसे बात करने से इनकार कर देता है, तुमसे मिली सारी चीजें तुम्हें वापस कर देता है और तुमसे हमेशा के लिए संबंध तोड़ लेता है। फिर भी कौन जाने—एक दिन हो सकता है कि वह सुलह कर ले और पहले की तरह घनिष्ठ हो जाए। ये अपरिपक्वता की अभिव्यक्तियाँ हैं। अपरिपक्वता की इन सभी अभिव्यक्तियों को मानवता की कमी के रूप में निर्दिष्ट किया जाता है। रूठने की प्रवृत्ति होना मानवता की एक कमी है। जिन लोगों में रूठने की प्रवृत्ति होती है वे कर्तव्य करते समय चीजों में देरी करने की सबसे ज्यादा संभावना रखते हैं। तुम्हें कभी यह पता नहीं होता है कि वे कब इस कारण से कई दिनों तक रूठे रह जाएँ कि किसी ने उन्हें कुछ ऐसा कह दिया जिससे उन्हें ठेस पहुँच गई। चाहे कर्तव्य कितना भी महत्वपूर्ण हो, वे बिना कुछ भी कहे इसे करना बंद कर सकते हैं। तुम्हें लग सकता है कि वे अब भी सामान्य रूप से अपना कर्तव्य कर रहे हैं, लेकिन वास्तव में वे बहुत पहले ही अपना कार्य बंद कर चुके होते हैं। इसलिए यह अनिवार्य है कि रूठने की प्रवृत्ति रखने वाले लोगों को कभी भी महत्वपूर्ण कार्य नहीं सौंपा जाए, विशेष रूप से वे काम जो नाजुक चरणों में हैं क्योंकि वे बेहद उद्दंड, हमेशा भावुक और रूठने की प्रवृत्ति रखने वाले होते हैं, उनमें तर्क शक्ति की कमी होती है जिसके कारण वे अपना कर्तव्य करने की अवधि के दौरान आसानी से अपना कार्य छोड़ देते हैं। अगर यह कार्य पूरी तरह से उन्हीं के द्वारा किया जाना है या उनकी जगह लेने वाला कोई और वहाँ नहीं है, तो उन्हें कार्य सौंपते समय तुम्हारे पास उनके कार्य का पर्यवेक्षण करने के लिए कोई जरूर होना चाहिए। अगर कोई और है जो उनकी जगह ले सकता है तो उन्हें अपेक्षाकृत महत्वपूर्ण कार्य नहीं सौंपा जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों में जरा-सी काबिलियत होती है और वे कलीसिया के अगुआ का कार्य सँभाल सकते हैं, लेकिन जब कोई भाई या बहन कुछ ऐसा कह देता है जिससे उन्हें ठेस पहुँचती है तो वे रूठ जाते हैं : “मैं छोड़ रहा हूँ! तुम लोग जिसे चाहो उसे अगुआ बनने दे सकते हो। मैं अपना जीवन जीने के लिए घर वापस जा रहा हूँ—मैं इससे तंग आ चुका हूँ!” एक बार वे रूठ गए तो वे अपना कर्तव्य छोड़ सकते हैं और वहाँ से चले जा सकते हैं और कौन जाने कि वे कब वापस आएँगे। क्या ऐसे लोग भरोसेमंद होते हैं? (नहीं।) वे अपना गुस्सा अपने कर्तव्य और कलीसिया पर निकालते हैं, किसी भी समय अपना कर्तव्य छोड़ देते हैं। क्या यह अपरिपक्वता की अभिव्यक्ति नहीं है? (हाँ।) अपने कर्तव्य और कलीसिया के कार्य से ऐसे पेश आना जैसे यह कोई बच्चों का खेल हो, घर-घर खेलने जैसा हो—यह अपरिपक्वता की अभिव्यक्ति है। जब बच्चे घर-घर खेलते हैं तब यह बस एक खेल होता है—अगर वे परेशान हो जाते हैं तो वे खेलना बंद कर देते हैं; इससे किसी चीज में देरी नहीं होती। लेकिन कलीसिया के कार्य या किसी कर्तव्य से ऐसे पेश आना जैसे कोई बच्चा घर-घर खेल रहा हो, जब चाहें तब छोड़ देना—क्या इससे चीजों में देरी नहीं होती है? इससे सिर्फ उनके अपने मामलों में ही देरी नहीं होती है—अगर वे कलीसिया के अगुआ हैं, तो कलीसिया के कार्य में उनके कारण देरी होती है। अगर वे कोई महत्वपूर्ण कर्तव्य कर रहे हैं तो उस महत्वपूर्ण कर्तव्य में देरी हो जाती है। इसलिए, उपयोग करने के लिए लोगों को चुनते समय तुम्हें इस बात पर विचार करना चाहिए कि क्या उनमें रूठने की प्रवृत्ति होने की समस्या है। अगर वाकई उनमें यह समस्या है, तो क्या यह गंभीर है? यह कितनी गंभीर है? क्या वे अपना कार्य छोड़ देंगे? जब वे रूठेंगे तब क्या वे गुस्से से झुंझला उठेंगे, घर चले जाएँगे और अपना कर्तव्य करना बंद कर देंगे, चाहे कोई भी उन्हें बुलाए, क्या वे वापस नहीं आएँगे? इस तरह के लोगों को सँभालना बहुत मुश्किल होता है। उनका उपयोग कभी मत करना—वे काँटेदार किस्म के होते हैं। उन्हें मनाना काम नहीं करता है, उन्हें अनुशासित करना काम नहीं करता है और चाहे तुम कैसे भी सत्य के बारे में संगति करो, इसे स्वीकारना उन्हें मुश्किल लगता है। सिर्फ जब वे खुद इसका पता लगा लेते हैं और अपने आप इसे समझ लेते हैं, तभी वे उबर सकते हैं और सामान्य समझ पर लौट सकते हैं। इसलिए, भ्रष्ट स्वभाव होने के अलावा अगर किसी की मानवता में भी कई कमियाँ या दोष हैं, तो एक बार किसी अप्रिय चीज से उसका सामना हो जाए तो वह इससे इतना नकारात्मक बन सकता है कि फिर उबर नहीं पाता है। भले ही उसमें कुछ संकल्प हो और वह उद्धार प्राप्त करने के लिए सत्य का अनुसरण करने को तैयार हो और भले ही अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करने और एक सृजित प्राणी के रूप में मानक-स्तर का होने का उसका मन हो, जब कठिनाइयाँ या अप्रिय परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं तो वह अब और आगे नहीं बढ़ पाता है। इसलिए, अगर कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करना चाहता है और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना चाहता है, तो उसे उन कमियों या दोषों को हल करने के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए जो उसकी मानवता में मौजूद हो सकते हैं। अगर तुम्हारे पास ऐसा दिल नहीं है जिसमें परमेश्वर के लिए जबरदस्त चाह हो या जो सत्य के लिए तरसता हो और तुम मानवता की इन कमियों पर काबू पाने को तैयार नहीं हो या ऐसा करने के लिए तुम्हारे पास अपर्याप्त संकल्प हो, तो तुम्हारे सामने आने वाली चुनौतियाँ बहुत सारी होंगी। अगर तुम इन व्यक्तिगत कमियों को बदल नहीं सकते या उन पर जीत हासिल नहीं कर सकते तो अपने भ्रष्ट स्वभाव को छोड़ देना तुम्हारे लिए और भी मुश्किल होगा।

आओ, अब हम “फायदा उठाना पसंद करने” की बात करें—यह किस तरह की समस्या है? (यह मानवता की एक कमी है।) क्या यह मानवता की एक कमी है? फायदा उठाना पसंद करना चरित्र की समस्या है। अगर कोई हर परिस्थिति में फायदा उठाता है, चाहे वह सब्जी, कागज का टुकड़ा या पानी की छोटी बोतल जैसी छोटी-सी चीज ही क्यों न हो, तो यह उसके चरित्र की समस्या है—उसका चरित्र बेहद खराब है। यह मानवता की कमी नहीं है। तुम समझ रहे हो? (हाँ।) ऐसे लोग बहुत ही खराब चरित्र वाले होते हैं और उनमें सत्यनिष्ठा नहीं होती है। किसी दुकान में खरीदारी करते समय वे हमेशा मोल-भाव करने का प्रयास करते हैं और छूट माँगते हैं। बाजार में सब्जियाँ खरीदते समय वे कुछ सेंट के लिए लगातार बहस करते हैं। जब वे किसी होटल में ठहरते हैं और डिस्पोसेबल तौलिये, टूथब्रश और टूथपेस्ट जैसी मुफ्त चीजें देखते हैं, तब वे एक भी चीज पीछे छोड़े बिना सब कुछ अपने घर ले जाते हैं, उन्हें कुछ भी छूट जाने का डर रहता है। कुछ लोग कहते हैं, “क्या वे इसलिए फायदा उठाना पसंद करते हैं क्योंकि वे गरीब हैं?” नहीं, इस तरह के लोगों का चरित्र बस ऐसा ही होता है। उनके परिवार में पैसों की तंगी नहीं होती है लेकिन फिर भी वे फायदा उठाने पर अड़े रहते हैं। इस तरह का व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद परमेश्वर के घर का भी फायदा उठाता है। कुछ लोग अपने घर पर खाना नहीं खाते हैं बल्कि मुफ्त का खाना खाने के लिए हमेशा मेजबान के घर चले जाते हैं, ऐसे दिखाते हैं जैसे वे मेजबान के घर के कामों में मदद करने के लिए वहाँ आए हैं। वे चुपके से भाई-बहनों की चीजों का उपयोग करते हैं। वे अपनी चीजों का उपयोग करने से बचते हैं और हमेशा दूसरों की चीजों का उपयोग करते हैं। वे अपने कपड़े नहीं पहनते हैं और हमेशा किसी और के कपड़े पहनते हैं। जब वे किसी को कपड़ों की धुलाई करते देखते हैं, तब वे उससे कहते हैं कि वह लगे हाथ उनके लिए भी कुछ चीजें धो दे और आखिर में उसे सात-आठ कपड़े धोने के लिए दे देते हैं—यह स्पष्ट रूप से फायदा उठाना है। उनका चरित्र बस इसी तरह का होता है। हालाँकि उनके परिवार के पास स्पष्ट रूप से पैसा है, फिर भी वे भाई-बहनों से पैसे उधार लेते हैं। यह पूछे जाने पर कि वे इसे कब चुकाएँगे, वे कहते हैं, “जब मेरे पास पैसे होंगे तो मैं इसे लौटा दूँगा। अगर मेरे पास पैसे नहीं हों तो मैं इसे कैसे चुका सकता हूँ? मेरे पास कोई पैसा नहीं है—बस मेरा जीवन है!” इन शब्दों का क्या मतलब हुआ? स्पष्ट रूप से वे चुकाना नहीं चाहते हैं और उनका ऐसा करने का कभी इरादा ही नहीं था—वे बस फायदा उठाना चाहते हैं, अपने आनंद के लिए और बेरोकटोक पैसे खर्च करने के लिए दूसरों के पैसों का उपयोग करते हैं। उनका यही उद्देश्य है। जब वे देखते हैं कि किसी ने कोई नई चीज खरीदी है, तब उन्हें बहुत दिलचस्पी हो जाती है और वे उसे उधार लेने के बारे में लगातार सोचते रहते हैं। अगर मालिक को इसकी जरूरत है और वह इसे उधार नहीं देना चाहता, तो भी वे इसे जबरदस्ती उधार ले लेते हैं। वे उसका तब तक उपयोग करते हैं जब तक कि वह चीज पुरानी नहीं हो जाती या टूट नहीं जाती और वे फिर भी उसे वापस नहीं करते हैं, उससे ऐसे पेश आते हैं जैसे कि यह उनकी अपनी ही हो। इस तरह का व्यक्ति हर जगह फायदा उठाता है, चीजें उधार लेता है और उन्हें कभी वापस नहीं करता। क्या यह मानवता की एक कमी है? (नहीं।) यह सत्यनिष्ठा नहीं होना और बेहद खराब चरित्र होना है। क्या तुम लोगों ने कभी इस तरह का व्यक्ति देखा है? (हाँ।) ऐसे लोग बहुत हैं। मुझे बताओ, क्या इस तरह का व्यक्ति सत्य का अभ्यास कर सकता है? (नहीं।) इनमें से ज्यादातर व्यक्ति किस तरह के लोग हैं? क्या वे बदमाश नहीं हैं? चाहे वे दूसरों का कितना भी फायदा उठाएँ, उनका जमीर कभी भी स्वयं पर आरोप नहीं लगाता है। मुझे बताओ, क्या उनमें जमीर होता है? (नहीं।) बिना जमीर वाले लोग किस तरह के व्यक्ति होते हैं? चलो, हम यह नहीं कहते हैं कि वे अच्छे लोग हैं या कुकर्मी हैं—कम-से-कम उनमें सत्य का अभ्यास करने के लिए अपेक्षित मानवता के सबसे मूलभूत मानकों और अवस्थाओं की कमी तो होती ही है। हमने इससे पहले यह संगति की थी कि सत्य का अभ्यास करने के लिए एक व्यक्ति में कम-से-कम जमीर तो होना ही चाहिए। व्यक्ति के जमीर में शर्म की भावना शामिल होती है। क्या जो लोग अपने जमीर में स्वयं पर कोई आरोप महसूस किए बिना हमेशा दूसरों का फायदा उठाते रहते हैं उनमें शर्म की भावना होती है? (नहीं।) क्या शर्म की भावना रहित लोग सत्य का अभ्यास कर सकते हैं? (नहीं।) वे कुछ भी महसूस किए बिना और अपने जमीर से किसी भी तरह के तिरस्कार के बिना बुरे कर्म करते हैं। इसलिए न्यायपूर्ण कर्म करना और सही मार्ग पर चलना उनको कतई आकर्षक नहीं लगता क्योंकि उनकी मानवता को ऐसी चीजों की कोई जरूरत नहीं होती है। उनकी क्या जरूरतें हैं? उनकी जरूरत किसी भी नुकसान से अपने हितों की रक्षा करना और साथ ही दूसरों के हित छीनकर अपने हित के लिए उनका उपयोग करना है। उनकी मानवता में ऐसे व्यवहार के लिए तिरस्कार या स्वयं पर आरोप लगाने की कोई भावना नहीं होती है और न ही कोई शर्म की भावना होती है। इसलिए, इस तरह के व्यक्ति के लिए सत्य का अभ्यास करना बहुत मुश्किल होता है। उनके आचरण का जीवन-सिद्धांत है : जो कुछ भी उनके लिए फायदेमंद है, चाहे वह भौतिक लिहाज से हो या मनोवैज्ञानिक लिहाज से, उसे रत्ती भर भी नहीं छोड़ा जाना चाहिए। जहाँ तक दूसरों की अच्छी और कीमती चीजों का प्रश्न है, वे हमेशा उनका मालिक बनना, उन्हें जब्त करना या उन्हें जबरन हड़प लेना चाहते हैं। एक बार उन्हें अवसर मिल जाए तो वे दूसरों की अच्छी चीजें अपने लिए जब्त कर लेंगे। वे खुद को अवसर से चूकने की अनुमति बिल्कुल भी नहीं दे सकते हैं और अगर वे इससे चूक भी गए तो उन्हें जीवन भर इसका पछतावा रहेगा। वे कैसे आचरण करते हैं उसमें उनका यह जीवन-सिद्धांत झलकता है। क्योंकि वे इस जीवन-सिद्धांत द्वारा नियंत्रित होते हैं, इसलिए वे दूसरों का फायदा उठाते समय और दूसरों के लाभों को अपने लाभ होने का दावा करते समय न्यायसंगत और सहज महसूस करते हैं और उन्हें महान उपलब्धि का एहसास होता है। अगर वे फायदा उठाने में विफल रहते हैं या ऐसा करने का अवसर चूक जाते हैं तो उन्हें लगता है कि वे विफल हो गए हैं और खुद को बेवकूफ समझते हैं। फायदा उठाते समय वे अच्छा, खुश और शांत महसूस करते हैं। लेकिन जब उन्हें फायदा उठाने का अवसर दिखाई देता है और वे फायदा नहीं उठाते हैं, तब वे परेशान और बेचैन हो जाते हैं : “अगर मैंने यह फायदा नहीं उठाया तो यह बरबादी है। अगर कोई और इसे ले लेता है तो क्या मेरा ही नुकसान नहीं होगा?” जरा देखो इसे—क्या इस जीवन-सिद्धांत द्वारा नियंत्रित कोई व्यक्ति एक अच्छा व्यक्ति बनने का प्रयास कर सकता है? (नहीं।) सत्य का अभ्यास करते समय लोगों को कई चीजें छोड़ने की जरूरत होती है, जैसे कि उनके संजोये हुए गर्व की भावना, रुतबे और दूसरी मनोवैज्ञानिक चीजों के साथ-साथ कुछ भौतिक चीजें भी। इन सभी में व्यक्तिगत हित शामिल होते हैं और सत्य का अभ्यास करने के लिए लोगों से इन चीजों के खिलाफ विद्रोह करने, उन पर काबू पाने, उन्हें छोड़ देने और उन्हें जाने देने की अपेक्षा की जाती है। जो लोग फायदा उठाना पसंद करते हैं, वे इनमें से कुछ भी बिल्कुल नहीं कर सकते हैं। वे अपने गर्व या रुतबे को जाने नहीं दे सकते हैं और वे किसी भी भौतिक हित को छोड़ने में तो बिल्कुल सक्षम नहीं होते हैं। सत्य का अभ्यास करते समय वे इनमें से कुछ भी नहीं कर सकते हैं। तो क्या वे सत्य का अभ्यास कर सकते हैं? (नहीं।) इसलिए उनके लिए सत्य का अभ्यास करना बेहद मुश्किल होता है। वे सारी मनोवैज्ञानिक और भौतिक अच्छी चीजों को अपने पास रखना चाहते हैं और उन्हें कभी जाने नहीं दे सकते हैं जो कि सीधे सत्य का अभ्यास करने के सिद्धांतों से टकराता है और उनके खिलाफ जाता है। इसलिए वे सत्य को अभ्यास में नहीं ला सकते हैं। जरा उन लोगों को देखो जो फायदा उठाना विशेष रूप से पसंद करते हैं—वे कितनी दूर तक जाते हैं? किसी के घर जाने पर वहाँ से निकलने से पहले वे सुनिश्चित करते हैं कि वे उनका कुछ पानी पीयें और कुछ खाना खाएँ। मुझे बताओ, क्या इस तरह के चरित्र वाले लोग सत्य का अभ्यास कर सकते हैं? (नहीं।) हर चीज मापने का उनका मानक इस सिद्धांत पर आधारित होता है कि क्या वे फायदा उठा सकते हैं और लाभ हासिल कर सकते हैं। व्यक्तिगत लाभ वह सिद्धांत है जिसके द्वारा वे हर चीज मापते हैं। उनका स्व-आचरण सिर्फ दूसरों का फायदा उठाने पर ही केंद्रित रहता है। जब तक उन्हें नुकसान नहीं होते हैं और वे फायदा उठा सकते हैं तब तक उन्हें लगता है कि यह सार्थक है। उनका मानना है कि अपने आचरण में व्यक्ति को फायदा उठाने में समर्थ होना चाहिए और व्यक्ति तभी बुद्धिमान और चालाक होता है जब उसने बार-बार फायदा उठाया हो—अगर किसी व्यक्ति को यह नहीं पता कि फायदा कैसे उठाना है तो वह व्यक्ति बेवकूफ है! स्व-आचरण के लिए उनका मानक सिर्फ फायदा उठाना और कभी कोई नुकसान नहीं उठाना है। वे इस नजरिये को अपने आचरण के मानक के रूप में लेते हैं—क्या वे सत्य का अभ्यास कर सकते हैं? (नहीं।) क्या उनके दिलों में सत्य के लिए कोई जगह है? क्या यह उनके दिलों में वर्चस्व रख सकता है? (नहीं।) तो वे किन सत्यों का अभ्यास कर सकते हैं? (किसी का भी नहीं।) वे किसी भी सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते हैं—उनका चरित्र बहुत ही निम्न है जिसके कारण दूसरे लोग उनसे नफरत करते हैं। कुछ लोग परमेश्वर के घर में कर्तव्य करते हैं; परमेश्वर का घर उन्हें दैनिक उपयोग के लिए कुछ चीजें उपलब्ध कराता है और वे अक्सर इस बहाने का उपयोग करके कि वे खत्म हो गई हैं, और देने का अनुरोध करते हैं जबकि वास्तव में उनके पास अब भी कुछ बची हुई होती हैं। वे हमेशा उन्हें और देने का अनुरोध क्यों करते हैं? वे सोचते हैं, “अगर मैंने इसका फायदा नहीं उठाया और कोई दूसरा व्यक्ति फायदा उठा लेता है तो क्या मुझे नुकसान नहीं होगा?” इसे देखो—यह किस तरह का चरित्र है? इस तरह का व्यक्ति हर चीज मापने के लिए जिस मानक का उपयोग करता है वह इस सिद्धांत पर आधारित है कि वह फायदा उठा सकता है और लाभ हासिल कर सकता है या नहीं। उसका दिल पूरी तरह से हितों के विचारों से भरा होता है। तुम उसके साथ सकारात्मक चीजों या सत्य के बारे में चाहे कैसे भी संगति करो, वह इसे स्वीकारने से इनकार करता है जिसका उसकी काबिलियत से या इस बात से कोई लेना-देना नहीं होता कि वह समझ सकता है या नहीं—बात यही है कि उसका जीवन-सिद्धांत जो उसके आचरण में झलकता है वह समस्यात्मक है। वह बिल्कुल भी सकारात्मक चीजों को स्वीकार नहीं करेगा या उनका अभ्यास नहीं करेगा और न ही वह सत्य सिद्धांतों का पालन करेगा। उसका चरित्र बेहद निम्न है। मुझे बताओ, क्या इस तरह के व्यक्ति के साथ सत्य के बारे में संगति करना जरूरी है? (नहीं।) क्यों नहीं? (क्योंकि वह कभी भी सत्य का अभ्यास नहीं करेगा।) उसकी मानवता में जमीर की भावना की कमी है और उसके पास सत्य का अभ्यास करने के लिए मूलभूत स्थितियाँ नहीं हैं। उसका दिल सिर्फ फायदा उठाने और लाभ हासिल करने पर केंद्रित रहता है। यह कहा जा सकता है कि इस तरह का व्यक्ति बस सत्य सुनने के अयोग्य है और उद्धार प्राप्त करने के बारे में धर्मोपदेश सुनने के अयोग्य है। देखो, तुम लोग पूरी तरह से यह नहीं समझते थे कि फायदा उठाना पसंद करना किस तरह की समस्या है, है ना? तुम यहाँ तक सोचते थे कि यह मानवता की एक कमी है। क्या यह मानवता की एक कमी है? (नहीं।) अब तुम समझ गए हो, है ना? यह किस तरह की समस्या है? (यह चरित्र की समस्या है—इस तरह का व्यक्ति निम्न चरित्र का होता है।)

आओ, अब हम दान देने की प्रवृत्ति के बारे में बात करें। अगर किसी व्यक्ति की दान देने की प्रवृत्ति के पीछे कोई मकसद नहीं है और यह सिर्फ एक व्यवहार है या उसके दैनिक जीवन में एक आम अभ्यास है तो दान देने की इस प्रवृत्ति को मानवता का एक गुण माना जाना चाहिए। चाहे जो भी हो, लेने से देना बेहतर है। कम-से-कम जिस व्यक्ति में दान देने के प्रति झुकाव होता है, उसके पास ऐसा दिल होता है जो दूसरों के प्रति सहानुभूति रखता है, उसकी मानवता में दयालुता का तत्व होता है, वह कंजूस नहीं होता है और भौतिक चीजों को ज्यादा महत्व नहीं देता है। इसके अलावा, जब उसके पास अपेक्षाकृत भरपूर भौतिक चीजें होती हैं तब वह अपनी अतिरिक्त चीजें या वे चीजें दे देता है जिनका वह खुद उपयोग नहीं करता है, लेकिन वे दूसरों के उपयोग के लिए उपयुक्त होती हैं जिससे दूसरों का जीवन जरा-सा ज्यादा आरामदेह या सुविधाजनक बन जाता है। इन क्रियाकलापों के पीछे के मकसद को देखा जाए तो, जिन लोगों का दान देने के प्रति झुकाव होता है उनमें, कम-से-कम दयालु मानवता होती है, और वे दूसरों के प्रति सहानुभूति रखने और दूसरों पर दया करने की मूलभूत अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं—यह उनकी मानवता का एक गुण है। ऐसे लोगों का चरित्र अपेक्षाकृत अच्छा होता है, यह उन कुकर्मियों से कहीं बेहतर होता है जो दूसरों का फायदा उठाना और मनमाने ढंग से दूसरों की चीजें हड़पना पसंद करते हैं—उनमें कुछ हद तक ज्यादा सत्यनिष्ठा होती है। वे बदले में कोई भी चीज माँगे बिना, दूसरों से तारीफ की या अपने पीछे अच्छी प्रतिष्ठा छोड़ने की इच्छा किए बिना दान देते हैं और दूसरों की मदद करते हैं। यह बस उनका आचरण है या उनकी जीवन शैली है। उदाहरण के लिए, जब वे देखते हैं कि किसी के पास कपड़े नहीं हैं, तब वे तुरंत अपने अतिरिक्त कपड़े उस व्यक्ति को पहनने के लिए दे देते हैं। जब वे देखते हैं कि किसी दूसरे व्यक्ति का परिवार गरीब है और अक्सर उसे पर्याप्त भोजन नहीं मिल पाता है, तब वे अपने परिवार का कुछ चावल उसे दे देते हैं ताकि उसके पास भी खाने के लिए पर्याप्त भोजन हो। जब वे नया कम्प्यूटर खरीदते हैं और देखते हैं कि किसी और का कम्प्यूटर मुश्किल से उपयोग के लायक है, तब वे अपना पुराना कम्प्यूटर उस व्यक्ति को उपयोग करने के लिए दे देते हैं। वे बदले में कुछ भी माँगे बिना दान देते हैं—यह बस उनका चरित्र है। यह मानवता का एक गुण है और इसे अच्छे चरित्र की अभिव्यक्ति के रूप में भी वर्गीकृत किया जा सकता है। दान देने के प्रति झुकाव होने का व्यवहार बिल्कुल भी बुरा नहीं है, लेकिन कुछ लोग, क्योंकि उनका दान देने के प्रति झुकाव होता है, अक्सर सोचते हैं, “मैं दयालु हूँ, मैं नेक हूँ, मैं उदार हूँ। मेरा दान और सहायता प्राप्त करने के बाद कई लोगों के जीवन बेहतर हो गए हैं। मैं परमेश्वर के उद्धार की वस्तु हूँ। अगर परमेश्वर मेरे जैसे व्यक्ति को नहीं बचाता है, तो वह किस तरह के व्यक्ति को बचाएगा?” वे अक्सर मानते हैं कि वे “एक अच्छे व्यक्ति हैं जिसका दान देने के प्रति झुकाव है।” मान लो कि कोई उनसे कहता है, “तुम्हारी मानवता अच्छी नहीं है। तुम ऐसी कई चीजें करते हो जो सत्य के खिलाफ जाती हैं और तुम सत्य से प्रेम नहीं करते।” यह सुनने के बाद वे आगबबूला हो जाएँगे। यहाँ क्या समस्या है? कुछ लोगों के परिवार अपेक्षाकृत दौलतमंद हैं और उन्होंने अपने आस-पास के सभी भाई-बहनों पर एहसान किए हैं। इसलिए वे लोग अक्सर सोचते हैं, “मैं कलीसिया में इन लोगों से बहुत अच्छी तरह से पेश आया हूँ—इन सभी को मुझसे कुछ न कुछ मदद मिली है। क्या इन लोगों के दिलों में मेरे लिए प्रतिष्ठा और रुतबा नहीं है? क्या कलीसिया में मैं ही सबसे अच्छी काबिलियत और सबसे अच्छी मानवता वाला व्यक्ति नहीं हूँ? क्या मुझे अगुआ नहीं होना चाहिए? क्या सभी भाई-बहनों को मेरी बात नहीं माननी चाहिए?” यह किस तरह का मुद्दा है? क्या यह भ्रष्ट स्वभावों का मुद्दा नहीं है? (हाँ।) सिर्फ इसलिए कि उनका व्यवहार जरा-सा अच्छा है, वे अब अपना सच्चा माप नहीं जानते हैं, वे इस व्यवहार को पूँजी मानते हैं, हमेशा कलीसिया के अगुआ बनना चाहते हैं और उनका घमंड बढ़ जाता है, वे सोचते हैं कि वे असाधारण हैं। वे परमेश्वर के वचनों द्वारा उजागर किए गए विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों को खुद से नहीं जोड़ते हैं। वे मानते हैं कि दान देने के प्रति उनका झुकाव होने का मतलब है कि वे एक अच्छे व्यक्ति हैं, उनमें कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं है, वे जो कुछ भी करते हैं वह सही है और उन्हें कलीसिया में अगुआ और एक मिसाल होना चाहिए और भाई-बहनों को उनका अनुकरण करना चाहिए। ये किस चीज के प्रकाशन हैं? (भ्रष्ट स्वभावों के।) यह भ्रष्ट स्वभावों के स्तर तक बढ़ चुका है। वैसे तो दान देने के प्रति झुकाव होना मानवता का एक गुण है, लेकिन अगर कोई व्यक्ति अपना आकलन एक ऐसे अच्छे व्यक्ति के रूप में करता है जिसे इस कारण से निश्चित रूप से बचाया जाएगा, तो क्या इस तरह का विचार और दृष्टिकोण सही है? वे दान देने के प्रति झुकाव होने के अपने अच्छे व्यवहार को अच्छा चरित्र और नेक सत्यनिष्ठा होना मानते हैं और यहाँ तक कि इसे सत्य का अभ्यास करना और परमेश्वर के प्रति समर्पण करना भी मानते हैं। यह एक गंभीर गलती है। यह घमंड और आत्मतुष्टता है और आत्म-जागरूकता की कमी है। दान देने के प्रति झुकाव होने को अच्छा व्यवहार कहा जा सकता है। ज्यादा-से-ज्यादा, जिस व्यक्ति का दान देने के प्रति झुकाव होता है उसका चरित्र अपेक्षाकृत अच्छा होता है, उन लोगों से कहीं बेहतर होता है जो फायदा उठाते हैं। लेकिन बस इसलिए कि तुममें दान देने के प्रति झुकाव होने का यह अच्छा व्यवहार है, तुम यह दावा नहीं कर सकते कि तुम एक अच्छे व्यक्ति हो, तुममें कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं है, तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है और तुम कलीसिया के अगुआ होने, दूसरों से ऊपर खड़े होने और हुक्म जारी करने के योग्य हो। यह घमंडी स्वभाव है। वैसे तो तुममें दान देने और दूसरों की मदद करने के प्रति झुकाव है—तुम्हारे पास इनमें से कुछ अच्छे कर्म हैं—जो कि मानवता का एक गुण है, लेकिन इससे यह साबित नहीं होता कि तुममें कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं है। अगर तुम दान देने और दूसरों की मदद करने की अपनी प्रवृत्ति को पूँजी मानते हो और तुममें कलीसिया का अगुआ बनने और खुद को दूसरों से ऊपर उठाने की महत्वाकांक्षा पनपने लगती है तो यह भ्रष्ट स्वभाव का मुद्दा है। क्या अब तुम अंतर देख सकते हो? अच्छा चरित्र होने का यह मतलब नहीं है कि व्यक्ति में कोई भ्रष्ट स्वभाव ही नहीं है। कुछ लोग दूसरों से मूल रूप से काफी हद तक अच्छी तरह बातचीत करते हैं और मेलजोल रखते हैं—वे दूसरों का फायदा नहीं उठाते हैं और यहाँ तक कि वे दान भी देते हैं और दूसरों की मदद भी करते हैं—उनमें मानवता के कुछ गुण होते हैं। लेकिन उनके साथ कुछ समय बिताने के बाद तुम्हें पता चलता है कि वे बहुत घमंडी हैं, उन्हें डींग हाँकना पसंद है और वे कभी-कभी झूठ भी बोलते हैं और काफी धोखेबाज हैं। अगर तुम उनकी आलोचना करते हो तो वे इसे स्वीकारने से इनकार कर देते हैं और वे कुछ हद तक क्रूर होते हैं, यहाँ तक कि वे मेज पर मुक्का मारते हैं और कहते हैं, “मैंने इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है—ऐसा कौन है जिसे मुझसे दान न मिला हो? भाई-बहनों से पूछ लो—क्या मैंने कभी किसी का फायदा उठाया है? क्या मैंने कभी किसी को नुकसान पहुँचाया है या ठेस पहुँचाई है?” क्या दूसरों को नुकसान नहीं पहुँचाकर तुम एक अच्छा व्यक्ति बन जाते हो? क्या दूसरों को नुकसान नहीं पहुँचाना बस वह न्यूनतम चीज नहीं है जो व्यक्ति को करनी चाहिए? तुम्हारे पास अकड़बाज होने का क्या कारण है? किसी को नुकसान नहीं पहुँचाना या ठेस नहीं पहुँचाना वह चीज है जो व्यक्ति को करनी चाहिए—यह पूँजी नहीं है। दूसरों का फायदा नहीं उठाने का यह मतलब नहीं है कि तुम सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में समर्थ हो। तुम्हें आत्म-चिंतन करना सीखना चाहिए और दूसरों की आलोचना और मदद स्वीकारने में समर्थ होना चाहिए—सिर्फ तभी तुम एक सूझ-बूझ वाले व्यक्ति बन पाओगे। अब तुम्हारी काट-छाँट की जा रही है क्योंकि तुमने एक भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया है और तुम्हारे क्रियाकलाप सत्य के अनुरूप नहीं हैं। यह इस तथ्य को नकारना नहीं है कि दान देने के प्रति झुकाव होने का तुम्हारा अच्छा व्यवहार एक सकारात्मक चीज है, या यह तुम्हारे चरित्र को नकारना नहीं है। बल्कि काट-छाँट करने और उजागर करने का अभ्यास इसलिए किया जा रहा है क्योंकि तुमने गलती की है और सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन किया है। अगर तुम इसे स्वीकार सकते हो तो तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य से प्रेम करता है और सत्य का अभ्यास कर सकता है। अगर तुम इसे स्वीकार नहीं करते हो तो दान देने की तुम्हारी प्रवृत्ति, ज्यादा-से-ज्यादा, मानवता का एक गुण है। लेकिन, क्योंकि तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव में घमंड, क्रूरता और दुष्टता हावी रहती हैं, तुम सत्य स्वीकार नहीं कर सकते हो और इसलिए तुम पूरी तरह से अधम हो और तुम निकम्मे हो। काट-छाँट से सामना होने पर इस तरह के लोग बहुत बड़ा हंगामा मचाते हैं, अपनी योग्यताओं के बारे में बात करते हैं और उन्होंने जो जरा-सा अच्छा व्यवहार किया है उसका दिखावा करते हैं। वे पागल कुत्तों की तरह व्यवहार करते हैं, गुस्से से फट पड़ते हैं। उनकी जो थोड़ी-सी अच्छी छवि थी वह पूरी तरह से गायब हो जाती है और उनकी प्रकृति पूरी तरह से उजागर हो जाती है। हर कोई इसे स्पष्ट रूप से देखता है और कहता है, “इस व्यक्ति में एक बहुत ही भ्रष्ट स्वभाव है—वह कुकर्मी है, झगड़ालू महिला जैसा है! यह खुशकिस्मती है कि उसे कलीसिया का अगुआ नहीं चुना गया। अगर वह कलीसिया का अगुआ बन जाता तो वह जरा-सी भी आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाता—अगर कोई उसे बरखास्त करने का प्रयास करता तो वह उस व्यक्ति का पीछा कभी नहीं छोड़ता और आखिरी साँस तक उसके खिलाफ लड़ता रहता। यह विनाशकारी होता!” अगर तुम सिर्फ उनके एक अच्छे व्यवहार या उनकी मानवता के एक गुण को देखते हो, तो तुम यह देख ही नहीं सकते कि उनके भ्रष्ट स्वभाव किस तरह के हैं, सत्य के प्रति उनका रवैया कैसा है या वे सत्य के प्रति समर्पण कर सकते हैं या नहीं। जब वे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं और फिर उजागर होते हैं और काट-छाँट से गुजरते हैं तब सत्य के प्रति उनका रवैया थोड़ा-थोड़ा करके सतह पर आ जाता है और उजागर हो जाता है। इसलिए, किसी व्यक्ति का चरित्र या उसकी मानवता के गुण और कमियाँ पूरी तरह से यह तय नहीं कर सकतीं कि वह सत्य स्वीकारता है या नहीं। उसके चरित्र या उसकी मानवता के गुणों और कमियों को देखा जाए तो यह देखना भी असंभव है कि सत्य के प्रति उसका रवैया कैसा है। जब वह कोई भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है या जब उसका उजागर किए जाने या काट-छाँट किए जाने से सामना होता है, सिर्फ तभी सत्य के प्रति उसका रवैया प्रकट होता है और तभी यह पता चल सकता है कि क्या वह सत्य से प्रेम करता है, क्या वह सत्य का अभ्यास कर सकता है और उसके पास अंत में बचाए जाने की कितनी उम्मीद है। ऐसे लोगों की दान देने और दूसरों की मदद करने की प्रवृत्ति से तुम देख सकते हो कि उनकी मानवता में क्या गुण और कमियाँ हैं। फिर उनकी समस्याओं की श्रृंखला से—जैसे कि उनका घमंडी और आत्मतुष्ट बनना और दान देने और दूसरों की मदद करने की उनकी प्रवृत्ति के कारण से अगुआ बनने और दूसरों से ऊपर खड़ा होने की चाह करना—तुम स्पष्ट रूप से सत्य के प्रति उनका रवैया देख सकते हो; और सत्य के प्रति उनके रवैये के आधार पर तुम स्पष्ट रूप से यह देख सकते हो कि वे उद्धार प्राप्त कर सकते हैं या नहीं। इन व्यवहारों के जरिये तुम उनकी मानवता के गुणों और कमियों का भेद पहचान सकते हो, उनके चरित्र का भेद पहचान सकते हो और साथ ही मानवता और भ्रष्ट स्वभाव के बीच अंतर समझना सीख सकते हो, लेकिन तुम पूरी तरह से यह नहीं बता सकते कि वे अंत में बचाए जा सकते हैं या नहीं या उनका नतीजा कैसा होगा। यह तय करना कि किसी को बचाया जा सकता है या नहीं कुछ हद तक ज्यादा जटिल है—तुम्हें यह भी देखना पड़ता है कि क्या वह सत्य स्वीकार सकता है या नहीं, आत्म-चिंतन कर सकता है या नहीं और भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करने पर सच्चा पश्चात्ताप कर सकता है या नहीं; इसका फैसला इन पहलुओं के आधार पर किया जाना चाहिए।

लोगों से घुलना-मिलना पसंद करना—यह कौन-सा पहलू है? (एक जन्मजात स्थिति है।) यह एक जन्मजात स्थिति है, लोगों के समूहों के बीच सांसारिक आचरण की एक विधि है। कुछ लोग दूसरों से मेल-जोल रखना पसंद करते हैं, वे इससे कभी नहीं थकते हैं और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि दूसरे लोगों का व्यक्तित्व कैसा है, वे उनसे मेल-जोल रखने में समर्थ होते हैं और इसके इच्छुक होते हैं। लेकिन कुछ लोग भीड़ से बचना पसंद करते हैं और दूसरों से मेल-जोल रखने के इच्छुक नहीं होते हैं। इसका कुछ हद तक व्यक्ति के जन्मजात व्यक्तित्व से संबंध है। जब इसमें व्यक्तित्व शामिल होता है तो इसमें निश्चित रूप से जन्मजात स्थितियाँ शामिल होती हैं। लोगों से घुलना-मिलना पसंद करना व्यक्ति के व्यक्तित्व से संबंधित है; इसमें मानवता के गुण या कमियाँ शामिल नहीं हैं और यकीनन इसमें कोई भ्रष्ट स्वभाव शामिल नहीं है। यह अपेक्षाकृत सादी अभिव्यक्ति है। एकांतप्रिय होना—यह किस पहलू में शामिल है? (यह व्यक्ति के जन्मजात व्यक्तित्व का हिस्सा है।) (यह मानवता की एक कमी है।) यहाँ कुछ मतभेद है—तो आखिर एकांतप्रिय होना किस तरह का मुद्दा है? (एकांतप्रिय होना बताता है कि व्यक्ति का व्यक्तित्व खराब है।) खराब व्यक्तित्व होना मानवता की एक कमी है। व्यक्तित्व खुद भी व्यक्ति की जन्मजात स्थितियों का एक पहलू है, इसलिए एकांतप्रिय होने का यह लक्षण एक जन्मजात स्थिति और मानवता की कमी दोनों ही है। यह किसी भ्रष्ट स्वभाव से संबंधित नहीं है और इसमें व्यक्ति का स्व-आचरण शामिल नहीं है। एकांतप्रिय होने का मतलब है हमेशा लोगों से दूर रहना, दूसरों के साथ अपने विचार साझा करने के लिए इच्छुक नहीं होना, चीजें अकेले करना पसंद करना, दूसरों से मेल-जोल रखना नापसंद करना और लोगों के बीच रहना नापसंद करना। ऐसे लोग हमेशा एकांत परिवेश या एक कोने में रहना पसंद करते हैं। जब वहाँ बहुत से लोग होते हैं, तब वे बात करने के इच्छुक नहीं होते हैं। वे दूसरों से संवाद करने में अच्छे नहीं होते हैं। जब वे दूसरों से संवाद करते हैं, तब वे बेचैन और भयभीत महसूस करते हैं या अंत में कुछ शर्मिंदा करने वाली और अजीब परिस्थितियों में फँस जाते हैं। यह जन्मजात स्थितियों के भीतर व्यक्तित्व का मुद्दा है और यकीनन यह मानवता की कमी भी है, है ना? (सही कहा।)

चलो, अब दब्बू होने पर एक नजर डालें—यह किस तरह का मुद्दा है? (एक जन्मजात स्थिति है।) (मानवता की एक कमी है।) यह एक जन्मजात स्थिति है और मानवता की एक कमी भी है। मुझे बताओ, दब्बू होने का क्या मतलब है? रात में बाहर जाने से डरना, चूहों, कनखजूरों और बिच्छुओं से डरना, मुसीबत में पड़ने से डरना और जटिल मुद्दों का सामना करने का इच्छुक नहीं होना—ये सब दब्बू होने की अभिव्यक्तियाँ हैं। कुछ लोग साँप को देखकर डर से बेहोश हो जाते हैं। कुछ लोग कार दुर्घटना के बारे में सुनकर इतना डर जाते हैं कि उनका पूरा शरीर काँप उठता है। कुछ लोग यह सुनकर कि परमेश्वर में विश्वास रखने वालों का उत्पीड़न किया जाता है, उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है, सजा सुनाई जा सकती है और कैद किया जा सकता है, इतना डर जाते हैं कि वे विश्वास रखने की हिम्मत नहीं करते हैं। फिर ऐसे लोग भी हैं जो रोलर कोस्टर की सवारी करने की हिम्मत नहीं करते हैं। ऐसे लोग किसी भी चीज में हिस्सा लेने या कोई भी चीज आजमाने की हिम्मत नहीं करते हैं अगर उसमें जरा-सा भी कुछ ऐसा है जिसकी वे असलियत नहीं देख पाते हैं या अगर यह कोई ऐसी चीज है जो उन्होंने पहले नहीं की है। वे न सिर्फ खतरनाक कार्य या खतरनाक गतिविधियाँ आजमाने की हिम्मत नहीं करते हैं, बल्कि वे उन चीजों को करने से भी डरते हैं जो सामान्य लोगों को दैनिक जीवन में करनी चाहिए। उदाहरण के लिए, अगर उनसे कार चलाना सीखने के लिए कहा जाता है तो वे कहते हैं, “मैं गाड़ी चलाने की हिम्मत नहीं करता। सड़क पर इतनी सारी गाड़ियाँ हैं और वे इतनी तेज रफ्तार से चलती हैं—अगर उन्होंने मुझे टक्कर मार दी तो क्या होगा?” कोई कहता है, “तुम हमेशा कार दुर्घटना के बारे में क्यों फिक्र करते रहते हो? क्या तुम कार चलाते समय बस थोड़ा अधिक सावधान नहीं रह सकते?” लेकिन वे अब भी डरते हैं : “एक बार जब कार चलना शुरू कर देती है तो वह मेरे काबू से बाहर हो जाती है। अगर वाकई कोई दुर्घटना होती है तो कोई भी इस पर काबू नहीं रख सकता!” वे हमेशा नकारात्मक दिशा में सोचते हैं, इसलिए वे कुछ भी हासिल नहीं कर पाते हैं। दब्बू होना एक जन्मजात स्थिति है और यह मानवता की एक कमी भी है। दब्बू लोग जो भी चीज करते हैं उसमें बहुत ही ज्यादा सतर्क और सावधान रहते हैं। वे आमतौर पर बड़ी गलतियाँ नहीं करते हैं या बड़े गलत काम नहीं करते हैं। लेकिन किसी भी परिप्रेक्ष्य से इसे गुण नहीं माना जा सकता है—यह मानवता की एक कमी है। फिर दबंग होने के बारे में क्या कहना है? दबंग होने के साथ आमतौर पर किन शब्दों को जोड़ा जाता है? (बेवकूफी भरे ढंग से दबंग होना, दबंगता के कारण बेतहाशा कार्य करना।) “दबंगता के कारण बेतहाशा कार्य करना,” “चौंका देने वाले ढंग से दबंग होना,” और “बदतमीजी से दबंग होना” इन सभी का मतलब दबंग होना है। तो दबंग होना अच्छा है या नहीं? (यह मामले पर निर्भर करता है।) यह परिस्थिति और वे किस तरह के व्यक्ति हैं इस पर निर्भर करता है। अगर मानवता के परिप्रेक्ष्य से देखा जाए तो दबंग होने को गुण या कमजोरी के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता—हम इसे एक जन्मजात स्थिति के रूप में वर्गीकृत करेंगे। व्यक्ति की दबंगता पर मामले के लिहाज से विचार किया जाना चाहिए; इसके अलावा, तुम्हें यह देखना पड़ेगा कि उसके पास चीजें करने की सीमाएँ हैं या नहीं और उसका चरित्र कैसा है। अगर उसका चरित्र खराब है तो दबंगता के कारण वह कानून तोड़ सकता है, बुराई कर सकता है, अपराध कर सकता है, फायदा उठा सकता है, गलत तरीके से लाभ प्राप्त कर सकता है और हर जगह दूसरों को ठग सकता है और धोखा दे सकता है। अगर कोई उन्हें गलत काम करने के लिए पैसे दे तो वे इसे करने में सक्षम होते हैं। फायदा उठाने के लिए वे नतीजों की परवाह किए बिना या दूसरों के बारे में विचार किए बिना कोई भी बुरा कर्म करने की हिम्मत करते हैं। क्या इस तरह से दबंगता के कारण बेतहाशा कार्य करना अच्छा है? (नहीं।) कुछ लोग अपने कारोबार की खातिर हर जगह दूसरों को धोखा देते हैं। वे गैर कानूनी कारोबार चलाते हैं—यह वास्तविक परिचालनों के बिना सिर्फ एक दिखावटी कंपनी होती है। लेकिन अपनी दबंगता और धोखा देने की अपनी क्षमता के कारण वे थोड़े समय के लिए बहुत सारा पैसा कमाते हैं, आलीशान घरों में रहते हैं और सेडान चलाते हैं—वे बहुत ही अच्छा जीवन जीते हैं, लेकिन वे जिस पैसे और भौतिक संपत्ति का आनंद लेते हैं वह सब कुछ उनकी दबंगता के फलस्वरूप धोखे से प्राप्त किया गया है। क्या यह अच्छी बात है? मुझे बताओ, क्या यह दबंगता अच्छी है? (नहीं।) इसलिए जब दबंग लोगों की बात आती है तब तुम्हें उनके द्वारा अपनाए गए मार्ग को देखना पड़ेगा। अगर वे अपनी दबंगता के कारण दूसरों को ठगने और धोखा देने की हिम्मत करते हैं तो वे बहुत बुरा कर्म कर रहे हैं। जितना ज्यादा तुम दूसरों को धोखा दोगे और जितना ज्यादा तुम दूसरों का फायदा उठाओगे, भविष्य में तुम्हें उतनी ही कड़ी सजा मिलेगी, है ना? क्या इससे विपत्ति नहीं आती है? (हाँ।) अगर तुम दब्बू हो और दूसरों को ठगना और धोखा देना चाहते हो तो तुम थोड़ा कम धोखा दोगे और भविष्य में तुम्हें जो सजा मिलेगी वह हल्की सजा होगी। इसलिए जो लोग सही मार्ग पर नहीं चलते हैं, क्या उनके लिए कुछ हद तक दब्बू होना बेहतर है या कुछ हद तक दबंग होना? (कुछ हद तक दब्बू होना बेहतर है।) जो लोग सही मार्ग पर नहीं चलते हैं, जो दूसरों को ठगने और धोखा देने में सक्षम होते हैं, जो कानून की परवाह नहीं करते हैं और हमेशा छप्पर-फाड़ लाभ कमाने के लिए कानूनी खामियों का फायदा उठाने का प्रयास करते हैं और जो कभी भी कानून तोड़ सकते हैं, उनके लिए दबंगता एक विपत्ति है—यह उनकी मानवता की एक कमी और विफलता है। दूसरी तरफ, दब्बू होना एक अच्छी चीज बन जाती है—यहाँ तक कि यह उनके लिए एक बचाव भी है। दब्बू लोग कुछ पैसे कमाते हैं ताकि वे अपने परिवार और अपनी मूलभूत जरूरतें पूरी कर सकें और कुछ ऐशो-आराम का भी आनंद ले सकें और वे वहीं रुक जाते हैं। भविष्य में उन्हें जो सजा मिलेगी वह हल्की होगी। दबंग लोग बेतहाशा गलत कर्म करने, दूसरों को धोखा देने और ठगने की हिम्मत करते हैं, दूसरों की चीजें ले लेते हैं ताकि उनके पास आनंद लेने के लिए ज्यादा चीजें हों। वे दूसरों का फायदा उठाते हैं—क्या उन्हें भविष्य में इसकी भरपाई नहीं करनी पड़ेगी? (हाँ।) अगर उन्हें अगला जन्म मिला तो उन्हें जो सजा मिलेगी वह कड़ी सजा होगी—हो सकता है कि वे एक या दो जन्मों में भी इसकी पूरी भरपाई न कर पाएँ। कुछ लोग अपना पूरा जीवन रेस्टोरेंट चलाने या कारोबार करने में बिता देते हैं, संपत्ति में एक या दो करोड़ या यहाँ तक कि दस करोड़ तक कमाते हैं, फिर भी उन्हें खुद इसका आनंद लेने का मौका नहीं मिलता है क्योंकि यह सब कुछ कर्ज चुकाने में उपयोग हो जाता है। यहाँ तक कि जब वे सत्तर-अस्सी वर्ष की आयु तक पहुँचते हैं, तब भी उन्होंने कर्ज चुकाने का काम पूरा नहीं किया होता है। यहाँ क्या चल रहा है? यह कारणात्मक प्रतिशोध है—शायद ऐसा इसलिए है क्योंकि अपने पिछले जन्मों में उन्होंने लालच में आकर दूसरों से बहुत ज्यादा ले लिया था, इसलिए वे बाद के इन कई जन्मों में कर्ज चुकाए जा रहे हैं। क्या ऐसा नहीं है कि अपने पिछले जन्मों में वे बहुत ही ज्यादा लालची, बहुत ही ज्यादा दबंग थे और उन्होंने बहुत ही ज्यादा दूसरों का फायदा उठाया जिसके फलस्वरूप उन्हें अपने मौजूदा जीवन में प्रतिशोध मिल रहा है? (हाँ।) जो लोग सही मार्ग पर नहीं चलते हैं उनके लिए जरा-सा दब्बू होना एक बचाव है, जबकि दबंगता एक बुरी निशानी है।

अगर कोई व्यक्ति सही मार्ग पर चलता है तो क्या दबंगता अच्छी है? (हाँ।) इसमें क्या अच्छा है? (अगर वह दबंग है तो वह उत्पीड़न का सामना करते समय भी परमेश्वर में विश्वास रखना जारी रख सकता है।) इस दबंगता का मतलब सिर्फ दैहिक साहस नहीं है। अगर यह दैहिक साहस वाली दबंगता है तो यह लापरवाही और उतावलापन है—यह कुछ हद तक आवेगशील और अंधी दबंगता है। उदाहरण के लिए, अगर तुम दबंग हो और तुम्हें परमेश्वर में विश्वास रखने के कारण गिरफ्तार किया जाता है तो क्या तुम यातनाएँ दिए जाने से डरोगे? क्या तुम मौत से डरोगे? क्या तुम बीस-तीस वर्षों तक कैद में डाले जाने से डरोगे? अगर तुम डरोगे तो जब तुम परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करते हो तब तुम्हारा यह कहना कि “मैं नहीं डरता” लापरवाही है, यह सच्ची दबंगता नहीं है। कौन-सी अभिव्यक्ति लापरवाही नहीं है? वह है जब तुम परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करते हो तब तुममें कुछ साहस होता है, लेकिन तुममें सच्ची आस्था भी होती है। इस सच्ची आस्था का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि परमेश्वर में विश्वास रखने में तुम्हारे पास संकल्प है : “अगर परमेश्वर में विश्वास रखने के कारण मेरा उत्पीड़न किया जाता है, मुझे गिरफ्तार किया जाता है और मुझे यातनाएँ दी जाती हैं तो मुझे अपना जीवन न्योछावर करने के लिए तैयार रहना चाहिए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मुझे कितना या किस हद तक सताया जाता है, मैं कलीसिया से गद्दारी नहीं करूँगा या यहूदा नहीं बनूँगा—मैं मौत से नहीं डरता!” यह एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि अगर तुम्हें सच में गिरफ्तार कर लिया जाता है और तुम्हारा उत्पीड़न किया जाता है और बड़ा लाल अजगर तुमसे कलीसिया से गद्दारी करवाने के लिए तुम्हें धमकाता है तो तुम शैतान की चालों की असलियत देख सकते हो और उसके द्वारा बेबस नहीं होते हो और अपनी गवाही में डटे रह सकते हो, यह कह सकते हो, “किसी व्यक्ति का सब कुछ, जिसमें उसका जीवन और मृत्यु भी शामिल है, परमेश्वर के हाथ में है। मैं नहीं डरता!” यह न तो लापरवाही है और न ही महज साहस; यह सच्ची आस्था है। इस सच्ची आस्था को रखना और अपनी गवाही में डटे रह पाना तुम्हारा गुण है। मान लो कि तुममें सच्ची आस्था नहीं है और तुम सिर्फ कहते हो, “मैं नहीं डरता—सबसे बुरा क्या होगा, बस मृत्यु,” लेकिन जब तुम गिरफ्तारी का सामना करते हो तब तुम इतना डर जाते हो कि अपनी पैंट गीली कर देते हो। गिरफ्तार होने के बाद पहली चीज जो तुम सोचते हो वह है, “क्या मुझे यातनाएँ दी जाएँगी? क्या मेरा देह कष्ट सहेगा? अगर मेरे शरीर को बिजली के लोहे से दागा जाता है तो क्या मैं इसे झेल पाऊँगा? अगर यातना बहुत तेज हुई तो क्या मैं मर जाऊँगा? अगर मैं मर गया तो क्या परमेश्वर मुझे याद नहीं रखेगा? क्या मैं उद्धार प्राप्त नहीं कर पाऊँगा? अगर मैं वाकई इसे सहन नहीं कर पाया तो मैं कलीसिया से गद्दारी करूँगा और यहूदा बन जाऊँगा। अगर यहूदा बनने के बाद मुझे सजा दी जाती है और मुझे मिटा दिया जाता है तो यही सही—कम-से-कम मुझे अभी तो दर्द सहना नहीं पड़ेगा।” ऐसे में क्या तुम अपनी गवाही नहीं खो रहे हो? मान लो कि फिर कम्युनिस्ट पार्टी तुम्हें धमकाती है, तुम्हारे परिवार का उपयोग करके तुम्हें ब्लैकमेल करती है—तुम्हारे बच्चों को विश्वविद्यालय जाने की अनुमति नहीं देती है, तुम्हारे माता-पिता को चिकित्सा बीमा की पहुँच से इनकार करती है, तुम्हारे परिवार के सभी अधिकार छीन लेती है—तो तुम डर जाओगे और तुम्हारे पास सच्ची आस्था नहीं होगी। तुम्हारा साहस कहाँ चला गया होगा? क्या तुम सच में दबंग हो? अगर तुममें सच्ची आस्था नहीं है तो तुम्हारी दबंगता सिर्फ लापरवाही है। तुम्हारा साहस सिर्फ तभी सच्चा होता है जब तुममें सच्ची आस्था होती है। अगर तुम गिरफ्तार किए जाने से पहले सोचते हो, “परमेश्वर मुझे गिरफ्तार नहीं होने देगा,” और इस विचार के कारण तुम साहसी बन जाते हो तो यह सच्ची सहनशक्ति या सच्ची आस्था नहीं है। मान लो कि गिरफ्तार किए जाने से पहले ही तुमने इन सब बातों पर गहराई से सोच-विचार कर लिया है और तुम कहते हो, “व्यक्ति का जीवन और मृत्यु परमेश्वर के हाथ में है। अगर परमेश्वर सच में मेरा जीवन ले लेना चाहता है तो मुझे समर्पण कर देना चाहिए। जहाँ तक मेरे भविष्य के गंतव्य की बात है, वह परमेश्वर के एक वचन से तय होता है। परमेश्वर मेरे साथ जैसा भी व्यवहार करता है और मुझे जो भी गंतव्य देता है, वह सब कुछ परमेश्वर की धार्मिकता है और मैं समर्पण करूँगा। अगर परमेश्वर मेरे जेल में मरने की व्यवस्था करता है तो यह मेरा सम्मान है—मैं यह जीवन परमेश्वर को अर्पित करने को तैयार हूँ। चाहे मैं कितने भी बड़े कष्ट का अनुभव करूँ, मेरा एक स्थिर जीवन-सिद्धांत रहेगा, जो यह है कि मैं अपना जीवन परमेश्वर के हाथ में सौंपता हूँ और चाहे शैतान मुझे कैसे भी सताए, मुझे तबाह करे या मुझे यातनाएँ दे, मैं कभी भी उसके आगे नहीं झुकूँगा। मैं इस बात से चिंतित नहीं हूँ कि मैं मर जाऊँगा या नहीं। अगर मैं मर भी जाता हूँ तो यह परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन होगा और उसने इसे पूर्वनिर्धारित किया होगा। मैं फिर भी परमेश्वर का धन्यवाद करूँगा और उसकी तारीफ करूँगा!” तुममें इसी तरह की आस्था होनी चाहिए; सिर्फ ऐसी आस्था से ही तुममें सच्चा साहस हो सकता है। मान लो कि गिरफ्तार किए जाने से पहले, तुम्हारे साथ वाकई ऐसा होने से पहले तुमने इन मामलों की असलियत देख ली है, तुम्हारी परमेश्वर में सच्ची आस्था है, तुममें परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण है, तुममें जीवन और मृत्यु के मामलों की सच्ची समझ और स्वीकृति है, तुम खुद को पूरी तरह से परमेश्वर के हाथ में सौंप सकते हो, और जब तुम्हें सच में गिरफ्तार कर लिया जाता है और मृत्यु तुम्हारे सामने है, तब अगर तुम्हारे दिल में ये समझ स्थिर रहती हैं—तब तुम्हारी आस्था नहीं डगमगाएगी। हालात चाहे जो भी हों, अगर तुम्हारी आस्था पूरी तरह से टूट नहीं गई है या हार नहीं गई है तो तुममें हमेशा साहस रहेगा। मान लो कि गिरफ्तार होने से पहले, तुम्हारे साथ वाकई ऐसा होने से पहले तुमने इन बातों पर गहराई से सोच-विचार नहीं किया है और तुम सिर्फ ख्याली पुलाव पकाते हो, “मैं अपना जीवन अर्पित करने को तैयार हूँ। मेरा जीवन परमेश्वर द्वारा दिया गया है—सबसे बुरी स्थिति यही होगी कि मैं परमेश्वर के लिए शहीद होकर मर जाऊँगा!” ऐसे में जब बड़ा लाल अजगर तुम्हें यातनाएँ देगा और फिर तुम्हें दस वर्ष की जेल की सजा सुनाएगा, तब तुम हक्के-बक्के रह जाओगे : “मैंने सोचा था कि इसका अंत मौत से होगा। अगर मैं शहीद हो जाता तो परमेश्वर मुझे याद रखता। मैंने यह उम्मीद नहीं की थी कि मैं वह गवाही देने में विफल हो जाऊँगा और अंत में मुझे दस वर्ष की सजा सुनाई जाएगी। दस वर्ष—यह दस दिन या दस महीने नहीं हैं! मैं इसे कैसे सहन कर पाऊँगा?” चूँकि तुमने इन चीजों के बारे में पहले नहीं सोचा है, तो क्या इस समय उन्हें समझना आसान होगा? यह कुछ हद तक मुश्किल होगा, है ना? (हाँ।) जब कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं तब लोग सिर्फ इस बारे में सोचते हैं कि उनसे कैसे निपटना है और उनसे कैसे बच निकलना है। अगर कठिनाइयों से बच निकलने की तुम्हारी आंतरिक इच्छा मजबूत है तो संकट के बीच उनके अनुकूल बनने की तुम्हारी आंतरिक इच्छा बेहद कमजोर होगी। इसलिए, कठिनाइयों से सामना होने पर तुम्हारे लिए ऐसे माहौल के प्रति समर्पण करना बहुत ही मुश्किल हो जाता है। तो ऐसी स्थितियों को कैसे हल किया जाना चाहिए? तुम्हें तुरंत सत्य की तलाश करनी होगी और इन मामलों पर गहराई से सोच-विचार करना होगा; तुम्हें यह भी ढूँढ़ निकालना होगा कि तुम्हें सत्य का अभ्यास कैसे करना चाहिए। उदाहरण के लिए, अगर तुम्हें दस वर्ष की कैद हो जाती है तो तुम क्या सोचोगे? “क्या मेरी पत्नी (या पति) मुझे तलाक दे देगी (या दे देगा)? दस वर्ष बाद मेरे बच्चों की आयु कितनी होगी? मैंने उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं की होगी—क्या वे मुझे छोड़ देंगे और मेरे बुढ़ापे में मेरी देखभाल करने से इनकार कर देंगे? रिहा कर दिए जाने के बाद मैं कैसे जीऊँगा? दस वर्ष बाद मेरे माता-पिता बूढ़े हो चुके होंगे और मैंने उनके प्रति अपनी संतानोचित जिम्मेदारी पूरी नहीं की होगी—क्या यह मुझे कर्तव्यहीन नहीं बना देगा? क्या दस वर्ष बाद परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाएगा? मैंने जेल में कुछ भी प्राप्त नहीं किया होगा—मैं किसी भी सभा में शामिल नहीं हुआ होऊँगा या मैंने कोई भी धर्मोपदेश नहीं सुना होगा और मैंने सत्य नहीं समझा होगा। क्या मैं इन दस वर्षों के दौरान पिछड़ नहीं गया होऊँगा? क्या इसका मतलब यह नहीं होगा कि मुझे निकाल दिया गया है? क्या परमेश्वर तब भी मुझे चाहेगा? अगर मैं इस कष्ट से गुजरता हूँ तो क्या परमेश्वर इसे याद रखेगा? अगर वह इसे याद नहीं रखता है और मैं उद्धार प्राप्त नहीं कर पाता हूँ तो क्या मैंने जेल में यह समय व्यर्थ नहीं बिताया होगा? दस वर्षों में बहुत कुछ बदल जाएगा और मैं कुछ भी प्राप्त नहीं करूँगा जबकि बहुत कुछ खो दूँगा।” जब तुम इन चीजों के बारे में सोचते हो तब कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। तुम्हें इन कठिनाइयों का सामना कैसे करना चाहिए? क्या तुम्हें इस बारे में नहीं सोचना चाहिए कि हर दिन कैसे गुजारना है? अगर तुमने इन बातों पर गहराई से विचार नहीं किया है और तुम उस बिंदु पर नहीं पहुँचे हो जहाँ तुम सत्य समझते हो और मामलों को स्पष्ट रूप से देखते हो तो जब तुम गिरफ्तार किए जाने का सामना करोगे तब तुम्हारा जीवन और मृत्यु एक ही विचार पर लटके रहेंगे : दब्बूपन और भय के एक पल, एक अकेली सोच या धारणा के कारण तुम यहूदा बन सकते हो, कलीसिया से गद्दारी कर सकते हो और अपने पिछले सभी प्रयास बरबाद कर सकते हो। अगर तुम इस मामले पर गहराई से विचार नहीं कर सकते हो या इसकी असलियत नहीं देख सकते हो तो तुम्हारे लिए अपनी संभावनाओं और किस्मत के बारे में फिक्र नहीं करना बहुत मुश्किल होगा और अपना जीवन और मृत्यु परमेश्वर के हाथ में सौंपना और उसे उसकी इच्छानुसार योजना बनाने की अनुमति देना बहुत मुश्किल होगा। अगर तुम जीवन और मृत्यु के मामलों की असलियत नहीं देख सकते हो और फिर भी अपनी किस्मत आजमाने की मानसिकता रखते हो, जैसे-तैसे काम चलाने की चाह रखते हो तो जब कोई परिवेश तुम पर आ पड़ेगा तब तुम बेनकाब कर दिए जाओगे। वे सभी लोग जो गिरफ्तार कर लिए जाने पर यहूदा बन गए, जिन्होंने “तीन बयानों” पर हस्ताक्षर किए, उन्होंने रातों-रात ऐसा किया और वे शैतान द्वारा दरिंदे के निशान से दागे गए। कभी-कभी व्यक्ति का जीवन और मृत्यु एक ही विचार से लटका हुआ होता है। सत्य के बिना संकटों को पार करना बहुत ही मुश्किल है। तो सच्ची दबंगता क्या है? अगर कोई पाशविक शक्ति के एक विस्फोट पर भरोसा करके कुछ हासिल करता है तो क्या यह सच्ची दबंगता है? नहीं—यह आवेगशीलता है। एक सही मायने में साहसी व्यक्ति के दिल में बहुत-सी सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के संबंध में एक विशेष स्तर की सूझ-बूझ होती है। वह आंतरिक रूप से सकारात्मक चीजों से सहमत होने, उन्हें स्वीकारने और दृढ़ता से पहचानने में समर्थ होता है और सत्य के प्रति और परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति समर्पण करने में समर्थ होने के बिंदु तक पहुँच जाता है। सिर्फ इसी तरह से तुममें सच्चा साहस हो सकता है। अगर तुम्हारे दिल में ये चीजें नहीं हैं तो तुम्हारी दबंगता सिर्फ बेवकूफी वाला साहस है—जैसे एक नवजात बछड़े का बाघ से नहीं डरना। इसलिए, परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले देश में परमेश्वर में विश्वास रखने और उसका अनुसरण करने के लिए न सिर्फ साहस की जरूरत पड़ती है, बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके लिए आस्था की भी जरूरत पड़ती है। तुम यह जो परमेश्वर में विश्वास रखने की हिम्मत करते हो उसका कारण यह नहीं है कि तुम दबंग हो, बल्कि यह है कि तुममें आस्था है। कुछ लोग कहते हैं, “मुझे लगता है कि मैं परमेश्वर में सिर्फ इसलिए विश्वास रखता हूँ क्योंकि मैं दबंग हूँ और उत्पीड़न से नहीं डरता।” यह कथन सही हो सकता है। तुम दुस्साहस के कारण विश्वास रखते हो, लेकिन तुम्हारी बेवकूफी, जाहिलपन और सादेपन की रोशनी में परमेश्वर तुम पर विशेष अनुग्रह दिखाता है, तुम्हारे लिए खास परिवेशों की व्यवस्था करता है और साथ ही तुम्हें सत्य का सिंचन और प्रावधान भी देता है। इसके जरिये तुम काफी कुछ सत्य समझने और प्राप्त करने लगते हो। समय के साथ तुम्हारे दुस्साहस में सच्ची आस्था के तत्व जुड़ जाते हैं और सिर्फ तभी तुम्हारा साहस बढ़ता है और तुम भविष्य के परिवेशों या उत्पीड़न का सामना करने की और ज्यादा हिम्मत करते हो। अगर किसी व्यक्ति में सच्ची आस्था नहीं है और वह शक्तियों के एक विस्फोट पर भरोसा करता है, कहता है, “मैं परमेश्वर में विश्वास रखने की हिम्मत करता हूँ! मैं उत्पीड़न या गिरफ्तार किए जाने और कैद में डाले जाने से नहीं डरता!”—तो इस तरह का साहस लंबे समय तक कायम नहीं रहेगा। सत्य के प्रावधान के बिना, तुम्हें प्रशिक्षित करने के लिए, तुमसे अभ्यास करवाने के लिए और तुम्हें विभिन्न चीजों का सामना करने का तरीका सिखाने के लिए परमेश्वर द्वारा वास्तविक जीवन में परिवेशों की व्यवस्था किए बिना, तुम्हारी दबंगता पूरी तरह से दुस्साहस है और यह बिल्कुल भी सच्ची आस्था नहीं है। तुम समझ रहे हो? (हाँ।) अगर यह सही मायने में दुस्साहस है तो यह तुम्हें एक लापरवाह, बेवकूफ, जाहिल व्यक्ति बनाता है। परमेश्वर में विश्वास रखने वाले कुछ लोगों के विचार बहुत ही सादे होते हैं, वे कल्पना करते हैं कि चीजें बहुत ही सीधी-सादी हैं, वे यह अनुमान बिल्कुल भी नहीं लगाते कि परमेश्वर का अनुसरण करने में क्या खतरे शामिल होंगे। लेकिन जब उनका सामना असफलताओं से होता है, सिर्फ तभी जाकर उन्हें यह एहसास होता है कि परमेश्वर का अनुसरण करना कोई सीधा-सादा मामला नहीं है। अगर किसी व्यक्ति की दबंगता मानवता का एक गुण है तो कम-से-कम, वह सरल और बेबाक है, जटिल नहीं है और वह हर मोड़ पर खतरे मौजूद रहने की फिक्र नहीं करता है। लेकिन मान लो कि तुम्हारी दबंगता आशीषें प्राप्त करने के इरादे से संचालित हैं और तुम सोचते हो, “अगर तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो तो तुम स्वर्ग में प्रवेश कर सकते हो, महान आशीषें प्राप्त कर सकते हो और आपदाओं से बच निकल सकते हो और मौत से बच सकते हो, इसलिए चाहे कुछ भी हो जाए, मैं विश्वास रखूँगा!” दूसरे शब्दों में, तुम्हारा विश्वास दुस्साहसी पाशविक शक्ति के विस्फोट से संचालित है; यह तुम्हारा सरल तरीके से परमेश्वर में विश्वास रखने की चाह करना नहीं है; बल्कि यह आशीषों का पीछा करना है। ऐसे में तुम्हारी दबंगता को, ज्यादा से ज्यादा, दुस्साहस कहा जा सकता है और इसे मानवता के गुण के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता। इसलिए, जब दबंग लोगों की बात आती है तब तुम्हें यह देखना चाहिए कि उनका मानवता सार कैसा है। अगर उनमें कोई जमीर और विवेक नहीं है और वे सिर्फ दुस्साहसी हैं तो उनका कोई मोल नहीं है और वे कुछ भी सार्थक प्राप्त नहीं कर सकते हैं। लेकिन अगर वे परमेश्वर में विश्वास रखने और सत्य स्वीकारने में समर्थ हैं तो फिर ऐसे लोगों का मोल है। अगर कोई व्यक्ति दबंग है, लेकिन उसमें बोध क्षमता नहीं है, वह सत्य नहीं समझ पाता है और सिर्फ आशीषें प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखता है और आशीषें प्राप्त करने के लिए अपना परिवार और करियर छोड़ने को तैयार है और उत्पीड़न से नहीं डरता है—तो यह मानवता का गुण नहीं है, बल्कि एक गलत विचार और दृष्टिकोण है। क्या गलत विचार और दृष्टिकोण परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होते हैं? (नहीं।) कोई व्यक्ति दब्बू है या दबंग है, इसमें उसकी जन्मजात स्थितियाँ शामिल हैं और इसका उसकी मानवता के सार से कोई लेना-देना नहीं है।

अगर हमने जन्मजात स्थितियों, मानवता और भ्रष्ट स्वभावों की विभिन्न अभिव्यक्तियों पर संगति नहीं की होती तो क्या तुम अपने आप उनका भेद पहचान पाते? (हम शायद सरल अभिव्यक्तियों का भेद पहचान पाते, लेकिन हम ज्यादा जटिल अभिव्यक्तियों का भेद नहीं पहचान पाते।) अब जब जन्मजात स्थितियों, मानवता और भ्रष्ट स्वभावों में अंतरों के बारे में संगति की जा चुकी है, तो क्या अब तुम लोग उनका भेद पहचान सकते हो? (हम उनका भेद पहले से थोड़ा बेहतर पहचान सकते हैं।) अगर मैं कुछ और असामान्य उदाहरण दूँ तो क्या तुम लोग मेरी की गई संगति के आधार पर उनका भेद पहचान पाओगे? ये कहना मुश्किल है, है ना? तो फिर अगली बार हम इस विषय से संबंधित मुद्दों के बारे में संगति करना जारी रखेंगे। जैसे-जैसे हम ज्यादा संगति करते जाएँगे, तुम विभिन्न प्रकार के मुद्दों का भेद पहचानने के लिए कुछ नियमों को पहचानते जाओगे। मानवता, जन्मजात स्थितियों और भ्रष्ट स्वभावों की विभिन्न अभिव्यक्तियों के लिहाज से तुम लोग आमतौर पर उन अभिव्यक्तियों का भेद पहचान सकते हो जिनके बारे में संगति की जा चुकी है। जहाँ तक उन अभिव्यक्तियों का प्रश्न है जिनके बारे में संगति नहीं की गई है, उनमें से कुछ का भेद सिर्फ आध्यात्मिक समझ वाले लोग या वे लोग पहचानने में समर्थ हो सकते हैं जो सत्य की तलाश करना जानते हैं। खराब काबिलियत वाले लोग कसौटी पर खरे नहीं उतर सकते हैं और उनका भेद पहचानने में असमर्थ हो सकते हैं, इसलिए उन्हें ज्यादा सुनने और ज्यादा प्रश्न पूछने की जरूरत है। अगर हम इन मुद्दों के बारे में संगति नहीं करें तो ये तुम लोगों के लिए हमेशा अस्पष्ट ही रहेंगे और तुम जो कहोगे वह भी अस्पष्ट होगा; तुम लोगों की समझ और सत्य की शुद्ध समझ में हमेशा एक अंतर बना रहेगा, है ना? (हाँ।)

आज हमने काबिलियत के मामलों पर संगति की। क्या अब तुम यह भेद पहचान सकते हो कि लोगों की काबिलियत कैसी है? (हम मोटे तौर पर यह भेद पहचान सकते हैं।) अगर तुम यह भेद नहीं पहचान सकते हो तो अपना पूरा समय लो और चीजों का अनुभव करो। दैनिक जीवन में इन मामलों से तुम्हारा सामना होगा। हमारी संगति से मिले शब्दों को वास्तविक जीवन में लागू करना सीखो, उन्हें थोड़ा-थोड़ा करके लोगों की अभिव्यक्तियों से मिलाओ—अपना भेद पहचानो और दूसरों का भेद पहचानो, खुद को जानना शुरू करो और दूसरों को जानना शुरू करो। धीरे-धीरे तुम इन चीजों को आँकने में समर्थ हो जाओगे और तुम्हारे पास ऐसा करने के लिए एक मानक होगा। लोगों और चीजों को देखने के साथ-साथ आचरण करने और कार्य करने के सिद्धांत भी ज्यादा से ज्यादा स्पष्ट होते जाएँगे। हमने जन्मजात स्थितियों, मानवता और भ्रष्ट स्वभावों का भेद पहचानने के विभिन्न पहलुओं के बारे में बहुत संगति की है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि हम मानवता की किन अभिव्यक्तियों या प्रकाशनों के बारे में संगति करते हैं, इनमें से कोई भी खोखले शब्द नहीं है—वास्तविक जीवन में इन सभी चीजों से सामना हो सकता है, इन्हें देखा जा सकता है और महसूस किया जा सकता है। इसलिए, तुम लोगों को परमेश्वर के वचनों को विभिन्न चीजों और विभिन्न तरह के लोगों के साथ मिलाकर देखना सीखना चाहिए। सिर्फ हमारी संगति से विभिन्न अवस्थाओं और मामलों को वास्तविक जीवन से मिलाना सीखकर ही तुम लोगों और चीजों को देखने में और साथ ही आचरण करने और कार्य करने में धीरे-धीरे प्रगति कर सकते हो, तुम्हारे पास सत्य से संबंधित विभिन्न मामलों की सटीक समझ हो सकती है और तुम धीरे-धीरे विभिन्न सत्य सिद्धांतों पर पकड़ बना सकते हो। तुम समझ रहे हो? (हाँ।) वैसे तो हमने जिन मामलों पर चर्चा की है उनका मुख्य रूप से उपयोग लोगों द्वारा प्रदर्शित विभिन्न अवस्थाओं और प्रकाशनों को समझने के लिए किया जाता है और ये तुम्हें सीधे, सत्य समझने और उसमें प्रवेश करने में सक्षम नहीं बनाते हैं, ये सभी मामले सत्य और सत्य सिद्धांतों की तुम्हारी समझ को प्रभावित करेंगे और साथ ही सत्य और सत्य सिद्धांतों में तुम्हारे प्रवेश को भी प्रभावित करेंगे। इसलिए, वैसे तो ऐसा लग सकता है कि ये मामले लोगों की धारणाओं में सिर्फ मानवता, जन्मजात स्थितियों या कुछ स्पष्ट भ्रष्ट स्वभावों को शामिल करते हैं, लेकिन हर मामला और हर कथन सत्य में लोगों के प्रवेश से संबंधित है। और इसलिए, ये मामले ऐसे हैं जिनका तुम्हें सत्य में प्रवेश करने के मार्ग पर सामना करना पड़ेगा—तुम उनसे बच नहीं सकते। मानवता के विभिन्न मामले और अभिव्यक्तियाँ, चाहे वे सकारात्मक हों या नकारात्मक, वही सब चीजें हैं जिनका तुम दैनिक जीवन के विभिन्न परिवेशों में सामना करोगे और जो तुम्हारे सामने आएँगी। जब तुम विभिन्न मामलों का सामना करते हो तब अगर तुम उनमें से किसी का भी भेद नहीं पहचान सकते हो और उन सभी को एक ही मानकर चलते हो, हमारी संगति के इन सत्य सिद्धांतों को विनियम या धर्म-सिद्धांत मानते हो, तो तुम कभी भी सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाओगे। ऐसा क्यों है? क्योंकि तुम यह कभी नहीं समझ पाओगे कि सत्य क्या है।

बहरहाल, आज की संगति के लिए बस इतना ही। अलविदा!

25 नवम्बर 2025

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परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 8) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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