सत्य का अनुसरण कैसे करें (9)
इस अवधि के दौरान हमारी संगति के विषय में एक अपेक्षाकृत व्यापक दायरा शामिल रहा है, है ना? (हाँ।) इसमें मानवता के कुछ और विशिष्ट मुद्दे शामिल रहे हैं और साथ ही इसमें लोगों के जीवन के कुछ मुद्दे भी शामिल रहे हैं। हमने पिछली सभा में काबिलियत से जुड़े विषयों के बारे में संगति की और फिर हमने इस बारे में संगति की कि जन्मजात स्थितियों, मानवता और भ्रष्ट स्वभावों का भेद कैसे पहचानना है। काबिलियत के विषय पर हमारी संगति मूल रूप से पूरी हो चुकी है; अब से तुम इस विषय-वस्तु के आधार पर इस बारे में राय बना सकते हो कि वास्तव में किसी व्यक्ति की काबिलियत कैसी है। इन तीनों पहलुओं—जन्मजात स्थितियाँ, मानवता और भ्रष्ट स्वभाव—के बारे में संगति करते समय हमने लोगों के दैनिक जीवन की कुछ अभिव्यक्तियों और प्रकाशनों के बारे में संगति की ताकि यह राय बना सकें कि क्या ये उनकी जन्मजात स्थितियों, मानवता या भ्रष्ट स्वभावों के तहत आते हैं। जन्मजात स्थितियों, मानवता और भ्रष्ट स्वभावों के तीनों पहलुओं के बारे में हमारी संगति के जरिये क्या अब तुम्हें सृजित प्राणियों के रूप में मनुष्यों की मूलभूत संरचना की ठोस समझ है? (हम इसे पहले से थोड़ा-सा ज्यादा समझ सकते हैं।) हम लोगों के जीवन में प्रकट होने वाले तीनों पहलुओं के बारे में संगति इस कारण से करते हैं कि सृजित मानवजाति जन्मजात स्थितियों, मानवता और भ्रष्ट स्वभावों से बनी होती है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम पुरुष हो या महिला, तुम जवान हो या बूढ़े, तुम किस जाति के लोगों में या किस देश में रहते हो, किस काल में रहते हो या तुम किस तरह के सामाजिक परिवेश और पृष्ठभूमि में रहते हो—संक्षेप में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारा बाहरी रंग-रूप कैसा है—जब तक तुम सृजित प्राणी हो, तब तक तुम इन्हीं तीन पहलुओं से बने हो : जन्मजात स्थितियाँ, मानवता और भ्रष्ट स्वभाव। दूसरे शब्दों में, वह हर व्यक्ति जो भ्रष्ट मानवजाति से है, जन्मजात स्थितियों और मानवता से और भ्रष्ट स्वभावों के जीवन से बना होता है। यानी हर सृजित मनुष्य में जन्मजात स्थितियाँ, मानवता और भ्रष्ट स्वभाव होते हैं। यकीनन, व्यक्ति की जन्मजात स्थितियाँ परमेश्वर द्वारा नियत होती हैं। मानवता अंशतः जन्मजात स्थितियों से प्रभावित होती है और अंशतः परिवार द्वारा की गई परवरिश, सामाजिक परिवेश और शैतान की शिक्षा से अनुकूलित और प्रभावित होती है। दूसरी तरफ, भ्रष्ट स्वभाव व्यक्ति के शैतानी स्वभाव और शैतानी प्रकृति होते हैं जो शैतान द्वारा गुमराह किए जाने और उसकी भ्रष्टता से उत्पन्न होते हैं। यह भ्रष्ट प्रकृति अंशतः व्यक्ति के परिवार से, अंशतः समाज से और अंशतः उन प्रभावों और अनुकूलन से आती है जिनका व्यक्ति अलग-अलग परिवेशों में अनुभव करता है। इस परिप्रेक्ष्य से कोई भी सृजित व्यक्ति वास्तव में किसी भी तरह का रहस्य नहीं है क्योंकि वह इन तीन पहलुओं से बना होता है : जन्मजात स्थितियाँ, मानवता और भ्रष्ट स्वभाव। इसलिए, यह भेद पहचानना वास्तव में आसान होना चाहिए कि कोई व्यक्ति किस तरह का व्यक्ति है। परमेश्वर द्वारा नियत और प्रदान की गई जन्मजात स्थितियों को एक तरफ रख दिया जाए तो केवल यह भेद पहचानना बच जाता है कि किसी व्यक्ति की मानवता किस तरह की है और उसमें कौन-से भ्रष्ट स्वभाव हैं—इनसे तय होता है कि इस व्यक्ति का सार किस तरह का है। इस तरह से भेद पहचानने से चीजें बहुत स्पष्ट हो जाती हैं। इन चीजों के आधार पर यह भेद पहचानना कोई मुश्किल मामला नहीं है कि किसी व्यक्ति का सार क्या है। इस तरह से भेद पहचानने का एक आधार है और एक मापदंड भी है।
इससे पहले हमने उन जन्मजात स्थितियों की कुछ विशिष्ट अभिव्यक्तियों की सूची बनाई थी जिनमें भ्रष्ट स्वभाव शामिल नहीं हैं। जन्मजात स्थितियाँ वे नींव हैं जिस पर लोग जीवित रहने के लिए भरोसा करते हैं और वे स्थितियाँ हैं जो सृजित मानवजाति में होनी चाहिए। चाहे यह व्यक्ति के जन्म से संबंधित स्थितियाँ हों, जैसे कि जन्म का समय, परिवेश और जगह, या फिर व्यक्ति का रंग-रूप, काबिलियत, विशेष कौशल, सहज ज्ञान, रुचियाँ, शौक और व्यक्तित्व जैसे पहलू हों—ये सभी व्यक्ति की जन्मजात स्थितियों का हिस्सा हैं। ये जन्मजात स्थितियाँ लोगों को भ्रष्ट नहीं करती हैं और यकीनन इन जन्मजात स्थितियों में कोई भ्रष्ट स्वभाव भी नहीं होता है। आमतौर पर, जन्मजात स्थितियाँ कुछ मूलभूत स्थितियाँ होती हैं जो किसी सृजित मनुष्य के पास होनी चाहिए ताकि वह जीवित बच सके और जीवन जी सके। मानवता का मतलब वह चीज है जिसे उस सामान्य मानवता के जमीर और विवेक को शामिल करते हुए जीया जाता है जो जन्मजात स्थितियों वाले शरीर से प्रकट होती है। जहाँ तक भ्रष्ट स्वभावों की बात है, तो यह स्पष्ट है—भ्रष्ट स्वभाव शैतान द्वारा इस शरीर के जीवन को भ्रष्ट किए जाने का नतीजा हैं जिसमें जन्मजात स्थितियाँ और मानवता होती है। क्या यह थोड़ा-सा अमूर्त है? कुल मिलाकर, सृजित मनुष्य सृजित प्राणी हैं जिन्हें भ्रष्ट स्वभाव नियंत्रित करते हैं और उनमें मानवता का मूलभूत जमीर और विवेक होता है। इन सृजित प्राणियों में परमेश्वर द्वारा नियत अलग-अलग जन्मजात स्थितियाँ होती हैं। यह परमेश्वर द्वारा सृजित मानवजाति की मूलभूत संरचना है। इसमें जन्मजात स्थितियों और भ्रष्ट स्वभावों को समझना आसान है लेकिन मानवता अपेक्षाकृत अमूर्त हो सकती है। आसान शब्दों में कहें तो मानवता सृजित मानवजाति का एक अनूठा गुण है जो उसे दूसरे जीवित प्राणियों से अलग करता है। इस अनूठे गुण वाले सृजित प्राणियों में जमीर और विवेक, चरित्र और सही-गलत में फर्क करने की क्षमता भी होती है। ये अनूठे गुण, जो मानवजाति को दूसरे जीवित प्राणियों से अलग करते हैं, मानवता को बनाते हैं। इस मानवता में यकीनन भाषा का उपयोग करके व्यक्त करने की क्षमता, सही-गलत में अंतर करने की क्षमता, समझने की क्षमता, नई चीजें स्वीकार करने की क्षमता, सृष्टिकर्ता के वचन स्वीकारने की क्षमता और परमेश्वर का आदेश स्वीकारने और किसी भी मामले को सँभालने की क्षमता शामिल हैं। यही मानवता है। मानवता की सरलतम समझ यह है कि यह सृजित मानवजाति का एक अंतर्निहित गुण है जो उसे दूसरे जीवित प्राणियों से अलग करता है। इस गुण की सबसे मूलभूत विशेषताएँ जमीर और विवेक हैं। यह इसे समझने का सरलतम तरीका है। इसमें कुछ विवरण हैं, जैसे कि सत्यनिष्ठा और चरित्र जो मानवता में होने चाहिए, सकारात्मक चीजों और नकारात्मक चीजों में अंतर करना और सकारात्मक चीजों का चयन और कार्यान्वयन करना। मूल रूप से ये वही चीजें हैं जो लोगों को जन्मजात स्थितियों, मानवता और भ्रष्ट स्वभावों के तीनों पहलुओं के बारे में समझनी और जाननी चाहिए। क्या तुम लोगों ने इससे पहले इन मुद्दों के बारे में सोचा है? (हमने इससे पहले इनके बारे में नहीं सोचा है।) इन मुद्दों का पहली बार सामना करने पर क्या तुम उन्हें समझ सकते हो? क्या तुम उनका मतलब समझ सकते हो? (हम उन्हें कुछ हद तक समझ सकते हैं।) क्या किसी को लगता है कि हम जिस विषय पर बात कर रहे हैं वह बहुत ज्यादा गहन और कुछ हद तक अमूर्त है और फलसफे पर चर्चा करने जैसा थोड़ा-सा समझ से परे है? हमने जन्मजात स्थितियों, मानवता और भ्रष्ट स्वभावों के इन तीनों पहलुओं की जिन विशिष्ट अभिव्यक्तियों के बारे में इन दिनों संगति की है उनके आधार पर अभी जिस बारे में बात की गई वह तुम लोगों के लिए अमूर्त नहीं होनी चाहिए। इन तीनों पहलुओं की विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ तुम्हें समझ आनी चाहिए। इसके अलावा, क्या इन तीनों पहलुओं के बीच संबंध भी स्पष्ट नहीं होने चाहिए? मानवता वह सत्यनिष्ठा, चरित्र, जमीर और विवेक है जो व्यक्ति अपने पास मूलभूत जन्मजात स्थितियाँ होने की नींव के आधार पर प्रकट करता है। भ्रष्ट स्वभाव वे चीजें हैं जो जन्मजात स्थितियों के जरिये मानवता में जी जाती हैं और वे लोगों द्वारा जीये जाने वाले अलग-अलग स्वभाव हैं जिन्हें वह जीवन नियंत्रित करता है जो शैतान उनमें डालता है। इस तरह से चाहे व्यक्ति की जन्मजात स्थितियाँ कुछ भी हों, वे सिर्फ सबसे मूलभूत बाहरी खोल हैं, जबकि वह जीवन जो सही मायने में व्यक्ति के सार को नियंत्रित कर सकता है, शैतान द्वारा व्यक्ति में डाले गए भ्रष्ट स्वभाव है। यानी यह भेद पहचानने के लिए कि व्यक्ति का सार क्या है उन स्वभावों को देखो जिन्हें वह प्रकट करता है। अगर वह जो स्वभाव प्रकट करता है वे घमंड, अड़ियलपन, धोखेबाजी, दुष्टता या क्रूरता के भ्रष्ट स्वभाव हैं, तो चाहे उसका चरित्र दयालु हो या बुरा, यह व्यक्ति वास्तव में शैतान का है क्योंकि उसका जीवन शैतान का भ्रष्ट स्वभाव है। इसलिए, व्यक्ति का गुण क्या है यह उसकी जन्मजात स्थितियों पर नहीं बल्कि उस जीवन पर निर्भर करता है जो उसके भीतर है। अगर उसका जीवन शैतान का भ्रष्ट स्वभाव है तो चाहे उसकी जन्मजात स्थितियाँ बाहर से कितनी भी कुलीन या महान दिखाई दें, वे वास्तव में शैतान के हैं और भ्रष्ट मानवजाति के सदस्य हैं। अगर व्यक्ति का जीवन ऐसा है जहाँ सत्य उसका जीवन है, तो चाहे उसकी जन्मजात स्थितियाँ बाहर से कितनी भी साधारण, सामान्य या नीची नजर से देखी जाने वाली दिखें—और भले ही बाहर से वे अपनी मानवता की कुछ कमजोरियाँ, अपर्याप्तताएँ और दोष प्रदर्शित करें—वे अब भी उस मानवजाति का हिस्सा हैं जिसे बचाया गया है। वे वास्तव में परमेश्वर के हैं, शैतान के नहीं हैं। उनका सार बदल जाता है। जैसे ही उनका सार बदल जाता है, उनका संबंध भी बदल जाता है—वे सत्य और परमेश्वर के हो जाते हैं। इसलिए, किसी व्यक्ति के संबंध, सार और अंतिम परिणाम में उसकी जन्मजात स्थितियाँ निर्णायक कारक नहीं हैं और यकीनन उसकी मानवता भी पूरी तरह से निर्णायक कारक नहीं है, बल्कि यह बात निर्णायक कारक है कि उसका जीवन क्या है। अगर शुरू से आखिर तक व्यक्ति का जीवन ऐसा है जिसमें भ्रष्ट स्वभाव उसका जीवन हैं और वह शैतान का है तो उसका संबंध शैतान से होगा; अगर जीवन के रूप में उसके पास सत्य है तो वह परमेश्वर का है और इस तरह से उसका संबंध परमेश्वर से उस सुंदर गंतव्य में होगा जिसे परमेश्वर ने मानवजाति के लिए तैयार किया है। सभी पहलुओं में लोगों की अलग-अलग अभिव्यक्तियों और सार के आधार पर लोगों का मौजूदा संबंध क्या है? क्या जहाँ सत्य लोगों का जीवन है वहाँ उनके पास जीवन है? (नहीं।) तो व्यक्ति का सार वास्तव में किस पर निर्भर करता है? (इस पर कि उसके पास जीवन के रूप में क्या है।) बिल्कुल; तुम्हारे भीतर का जीवन जो भी है, वही तुम्हारा सार है। अगर तुम्हारे भीतर का जीवन बदल जाता है और अब भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारा जीवन नहीं रहते हैं, बल्कि सत्य तुम्हारा जीवन बन जाता है तो तुम्हारे सार के लिहाज से तुम परमेश्वर के और सत्य के हो जाते हो। यकीनन लोगों का मानवता का गुण नहीं बदलता है—लोग अब भी मनुष्य ही हैं और उनके गुण के लिहाज से वे अब भी सृजित मनुष्य ही हैं। लेकिन, क्योंकि तुम्हारा जीवन बदल गया है इसलिए तुम्हारा संबंध भी बदल गया है। संक्षेप में, जन्मजात स्थितियाँ वे मूलभूत स्थितियाँ हैं जो सृजित मानवजाति बनाती हैं। यानी जब तक तुम सृजित मनुष्य कहलाते हो तब तक तुममें ये जन्मजात स्थितियाँ जरूर होनी चाहिए—ये मूलभूत स्थितियाँ हैं। मानवता वह है जो व्यक्ति जब अपनी जन्मजात स्थितियों के तहत रहता है उस समय उसकी सामान्य मानवता से प्रकट होती है और उससे जी जाती है। भ्रष्ट स्वभाव भ्रष्ट मानवजाति में अंतर्निहित जीवन हैं, जो जन्मजात स्थितियों और मानवता के खोल के नीचे छिपे होते हैं। इन तीनों पहलुओं में संबंध और अंतर, और साथ ही इनमें से हरेक जो भूमिकाएँ निभाता है या सृजित मानवजाति में जो कार्य करता है, वे सभी ठीक वैसे ही हैं जैसा बताया गया है। इससे पहले हमने जन्मजात स्थितियों, मानवता और भ्रष्ट स्वभावों के इन तीनों पहलुओं से संबंधित कुछ ऐसी अभिव्यक्तियों के बारे में संगति की थी जिन्हें लोग प्रकट करते हैं। लेकिन इन तीनों पहलुओं से जुड़ी विषय-वस्तु उससे भी परे जाती है जिसके बारे में हमने संगति की है, इसलिए हमें आज इस विषय पर संगति करना जारी रखना होगा।
पिछली बार हम जन्मजात स्थितियों, मानवता और भ्रष्ट स्वभावों के अलग-अलग प्रकाशनों के बारे में कहाँ रुके थे? बुजदिली और दबंगता पर, है ना? (हाँ।) वह संगति पूरी हो गई थी। आओ अब बोलते समय हकलाने पर एक नजर डालें—यह किस तरह की समस्या है? (एक जन्मजात स्थिति है।) यह एक जन्मजात स्थिति है और एक प्रकार का शारीरिक दोष भी है। यकीनन, हकलाने के रूपों में फर्क होता है। कुछ हकलाने वाले लोग एक अकेले शब्दांश को खींच देते हैं, जबकि दूसरे लोग एक ही शब्दांश को दोहराते रहते हैं और सारा दिन ले लेने के बावजूद एक पूरा वाक्य भी बोल नहीं पाते हैं। संक्षेप में, यह एक जन्मजात स्थिति है और यकीनन यह एक प्रकार का शारीरिक दोष भी है। क्या इसका संबंध भ्रष्ट स्वभाव से होता है? (नहीं।) इसका संबंध भ्रष्ट स्वभाव से नहीं होता है। अगर कोई कहता है, “तुम तो बोलते समय तुतलाते हो; तुम यकीनन चालाक हो!” या “तुम तो बात करते समय हकलाते भी हो; तुम इतने घमंडी कैसे हो सकते हो?”—क्या ऐसे कथन सही हैं? (नहीं।) दोष या नुक्स के रूप में हकलाहट का संबंध किसी व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभावों के किसी भी पहलू से नहीं है। इसलिए हकलाहट एक जन्मजात स्थिति और एक प्रकार की शारीरिक दोष है। स्पष्ट रूप से इसमें किसी व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभाव शामिल नहीं हैं और इसका उनसे कोई भी संबंध नहीं है। हकलाने से जुड़ी एक और परिस्थिति है : कुछ लोग बोलते समय आमतौर पर नहीं हकलाते हैं, लेकिन जब तुम उनसे कोई सवाल पूछते हो तो वे हिचकिचाने और अटकने लगते हैं; वे एक वाक्य बोलने में पूरा दिन लगा देते हैं और फिर भी तुम यह समझ नहीं पाते हो कि वे क्या कहने की कोशिश कर रहे हैं। उनकी बातें कभी भी पर्याप्त रूप से स्पष्ट नहीं होती हैं, तुम्हें हमेशा उनके मतलब के बारे में अटकलें लगानी पड़ती हैं—तुम जो भी अटकल लगाते हो वही उनका मतलब बन जाता है। नहीं तो वे मतलब की जगह मुस्कुराहट का उपयोग करते हैं। संक्षेप में, वे तुम्हारे सवाल का सीधे तरीके से जवाब नहीं देते हैं। उदाहरण के लिए, तुम उनसे पूछते हो, “तुम कहाँ से आए हो?” वे कहते हैं, “मैं ... मैं ... वो बस इधर-उधर घूमता रहा और ...” यह सुनने के बाद भी तुम्हें पता नहीं होता है कि वे कहाँ से आए। या तुम उनसे पूछते हो, “तुम उस व्यक्ति की काबिलियत का मूल्यांकन कैसे करते हो?” वे कहते हैं, “उसकी ... काबिलियत, वो ... हर कोई, ऐसा है ... हम सभी ... अम ... को वाकई ... साफ-साफ नहीं पता।” वे इस तरह से रुक-रुककर और तोड़-तोड़कर क्यों बोलते हैं? क्या यह हकलाना है? ऐसा नहीं लगता है। फिर वे इस तरह से क्यों बोलते हैं? अगर यह हकलाने के कारण नहीं है तो इसका क्या कारण है? (वे एक भ्रष्ट स्वभाव द्वारा नियंत्रित हैं।) यह स्पष्ट रूप से एक स्वभाव का प्रकाशन है। इसका मतलब है कि जब वे कुछ व्यक्त करते हैं या कोई चीज करते हैं तो वे एक स्वभाव द्वारा नियंत्रित होते हैं जो उनके जीवन का वह हिस्सा है जिससे वे एक निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बोलने और कार्य करने के लिए प्रेरित होते हैं। यह लक्ष्य क्या है? यह लक्ष्य सच्चे तथ्यों को छिपाना है, तुम्हें सच्चे तथ्य बताने से बचना है; वे चीजों को इतनी स्पष्टता से समझाना नहीं चाहते हैं। वे इस तरह से कार्य क्यों करते हैं? वह इसलिए क्योंकि उन्हें लगता है कि अगर उन्होंने बता दिया कि वास्तव में क्या चल रहा है तो उन्हें इसके नतीजे भुगतने पड़ेंगे—या तो वे किसी को नाराज कर देंगे या खुद को नुकसान पहुँचा लेंगे। वे ये नतीजे नहीं सहना चाहते; वे नहीं चाहते कि तुम सच्चे तथ्य जानो। यह एक भ्रष्ट स्वभाव के नियंत्रण के तहत बोलने और कार्य करने का एक ढंग और शैली है। जो जीवन उन्हें इस तरह से कार्य करने के लिए नियंत्रित करता है, वह उनकी प्रकृति को दर्शाता है और उनका इस तरह से कार्य करना यह साबित करता है कि उनके पास कोई भी सत्य नहीं है। वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार नहीं बोलते हैं। तो सत्य सिद्धांतों के अनुसार बोलने के लिए व्यक्ति को कैसे बोलना चाहिए? इसे करने के लिए व्यक्ति को एक ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए, ठीक जैसा परमेश्वर कहता है : “तुम्हारी बात ‘हाँ’ की ‘हाँ,’ या ‘नहीं’ की ‘नहीं’ हो।” क्या वे ऐसा करते हैं? (नहीं।) वे क्या करते हैं? न तो वे हाँ कहते हैं जब यह हाँ होती है और न ही ना कहते हैं जब यह ना होती है। वे किस पद्धति का उपयोग करते हैं? वे अस्पष्ट रूप से बोलते हैं, अपना मतलब व्यक्त करने के लिए धूर्त और दुष्ट तरीकों का उपयोग करते हैं ताकि खुद को बचाने का अपना लक्ष्य हासिल कर सकें। वे किसी मामले को सँभालने या कुछ व्यक्त करने के लिए शैतान द्वारा उन्हें निर्देश दी गई और उनमें डाली गई पद्धतियों का उपयोग करते हैं। यह स्पष्ट रूप से शैतान का भ्रष्ट स्वभाव है। यह मानवता का उथला प्रकाशन नहीं है बल्कि शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के नियंत्रण के तहत कार्य करने के तरीके का प्रकाशन है।
चलो, एक और अभिव्यक्ति के साथ जारी रखें : रोमांचक चीजों का आनंद लेना और नीरसता को नापसंद करना; रोमांचक चीजों की खातिर सारी चीजें करना और हर जीवनशैली चुनना। यह किस तरह की समस्या है? सबसे पहली बात, क्या यह चीज जन्मजात स्थितियों में रुचियों और शौक के तहत आती है? (हाँ।) यह आती है? ध्यान से सोचो—क्या यह सही मायने में वहीं की है? क्या व्यक्ति की तार्किकता में रोमांचक चीजों का आनंद लेना सामान्य है? (यह सामान्य नहीं है।) फिर क्या इसे जन्मजात स्थितियों के तहत श्रेणीबद्ध करना उचित है? (नहीं।) इसे इस तरीके से देखा जाए तो यह उचित नहीं है। यह अभिव्यक्ति किस तरह की समस्या के तहत आती है? अगर हम यह कहें कि रोमांचक चीजों का आनंद लेना एक भ्रष्ट स्वभाव है तो यह किस तरह का भ्रष्ट स्वभाव है? क्या यह घमंड, धोखेबाजी या क्रूरता है? (यह इनमें से कोई भी नहीं है।) यह किसी भी तरह के भ्रष्ट स्वभाव से संबंधित नहीं है। तो यह किस तरह की समस्या है? (यह मानवता की समस्या है।) यह मानवता की किस तरह की समस्या है? क्या यह कुछ हद तक उद्दंड होना है? (हाँ।) यह अनुचित और ऐसे तरीके से आचरण करना है जो उद्दंड है, यह रोमांचक चीजों का आनंद लेना है और बेचैन होना है। बेचैनी सामान्य मानवता का अभाव दर्शाती है। इसमें जमीर शामिल नहीं है लेकिन यह मुख्य रूप से सामान्य मानवता में तार्किकता का अभाव दर्शाती है। ऐसे लोग एक कार्य पर चिपके नहीं रह पाते हैं या अपने कर्तव्य नियमों का पालन करते हुए और कर्तव्यनिष्ठ तरीके से नहीं कर पाते हैं। वे वयस्कों की तरह चीजें करने में असमर्थ होते हैं; उनमें परिपक्व सोच, व्यक्तिगत आचरण की परिपक्व शैली और चीजें करने का परिपक्व तरीका नहीं होता है। कम-से-कम यह उनकी मानवता का एक दोष है। यकीनन यह उनके चरित्र की समस्या होने के स्तर तक नहीं बढ़ता है लेकिन उस रवैये से संबंधित होता है जिससे वे आचरण और कार्य करते हैं। नवीनता का और रोमांचक चीजों का आनंद लेना, जो कुछ भी वे करते हैं उसमें अस्थिर होना, डटे रहने में असमर्थ होना, बेचैन और अनुचित होना और हमेशा रोमांचक चीजों की तलाश करने और नई-नई चीजें आजमाने की चाह रखना—इस प्रकार के मुद्दे मानवता के दोषों के तहत आते हैं। रोमांचक चीजों का आनंद लेने वाले लोगों में सामान्य मानवता की तार्किकता का अभाव होता है; उनके लिए वे जिम्मेदारियाँ और कार्य वहन करना आसान नहीं होता है जो वयस्कों को वहन करने चाहिए। वे जो भी कार्य करते हैं, यदि वे उसे लंबे समय तक करते हैं और उसकी नवीनता खो जाती है तो उन्हें यह उबाऊ लगता है, वे उसे करने में दिलचस्पी खो देते हैं और नवीनता और रोमांच की भावना तलाशना चाहते हैं। रोमांचक चीजों के बिना उन्हें लगता है कि चीजें नीरस हैं और उन्हें आध्यात्मिक शून्यता की भावना का भी अनुभव हो सकता है। जब वे ऐसा महसूस करते हैं तो उनके दिल बेचैन हो उठते हैं और वे रोमांचक चीजों या ऐसी चीजों की तलाश करना चाहते हैं जो उन्हें दिलचस्प लगती हैं। वे लगातार कुछ अपरंपरागत करना चाहते हैं। जब भी वे पाते हैं कि वे जो कार्य कर रहे हैं या जो मामले सँभाल रहे हैं वे उबाऊ या अरोचक हैं तो वे जारी रखने की इच्छा खो देते हैं। भले ही वह कार्य कुछ ऐसा हो जो उन्हें करना चाहिए या वह कोई सार्थक और कीमती कार्य हो, फिर भी वे डटे नहीं रह पाते हैं। देखो कि किस तरह से अविश्वासियों के बीच ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो बार-बार नशीली दवाओं का उपयोग करते हैं। चाहे इसके पीछे कोई भी कारण हो, वे रोमांच की भावना तलाशने और ऐसी अतार्किक अनुभूतियाँ तलाशने के लिए नशीली दवाओं का उपयोग करने में आनंद लेते हैं जो सामान्य लोगों में होने वाली अनुभूतियों से परे होती हैं। रोमांचक चीजों का आनंद लेने वाले लोग उन्हीं लोगों जैसे होते हैं जो उत्तेजन के लिए नशीली दवाओं पर भरोसा करते हैं। वे जिस तरीके से आचरण करते हैं उसमें सामान्य लोगों की तार्किकता नहीं होती है और वे अपनी जीवनशैली का चयन करते समय हमेशा अवास्तविक और उत्कृष्ट अनुभूतियों का अनुसरण करना पसंद करते हैं। यह बहुत खतरनाक है। इस प्रकार के लोग बाहर से अक्सर ऐसे दिखते हैं जैसे कि उन्हें कोई बड़ी समस्या नहीं है। अगर तुम ऐसे लोगों का भेद नहीं पहचान पाते हो या उनके सार या इस तरह की समस्या के सार की असलियत नहीं देख पाते हो, तो हो सकता है कि तुम सोचो, “इन लोगों के स्वभाव बस अस्थिर हैं; वे तीस या चालीस वर्ष के हो चुके हैं लेकिन अब भी बच्चों की तरह बचकाने हैं।” दरअसल, इस प्रकार के लोग अपने दिलों की गहराई में लगातार रोमांचक चीजों की तलाश करते रहते हैं। वे चाहे जो भी करें, उनमें वयस्कों के विचारों और जागरूकता के साथ-साथ उस दृष्टिकोण और रवैये का भी अभाव होता है जिससे वयस्क मामले सँभालते हैं। इसलिए, ऐसे लोग बहुत समस्यात्मक होते हैं। हो सकता है कि उनकी मानवता बुरी न हो और उनका चरित्र खास तौर पर घिनौना न हो, लेकिन उनकी मानवता के इस दोष के कारण उनके लिए अर्थपूर्ण कार्य, खास तौर पर कार्य की कुछ महत्वपूर्ण मदों के लिए योग्य होना बहुत मुश्किल होता है। जब तुम उनके साथ सत्य पर संगति करते हो तो वे कहते हैं, “मुझे सब समझ आता है; मैं बस इसे कर नहीं पाता।” वे सामान्य लोगों के विचारों और रवैयों के साथ उचित रूप से और कर्तव्यनिष्ठा से नहीं जी सकते हैं या कार्य नहीं कर सकते हैं। उनके दिल हमेशा बेचैन रहते हैं। ऐसी अभिव्यक्तियों वाले लोग बहुत समस्यात्मक भी होते हैं। रोमांचक चीजों का आनंद लेने की अभिव्यक्ति पर हमारी चर्चा यहीं समाप्त होती है।
चलो, आगे हम संवेदनशीलता के बारे में बात करते हैं। आओ, इसे श्रेणीबद्ध करने के लिए सबसे आसान तरीके का उपयोग करें और उन्मूलन पद्धति से शुरू करें। क्या संवेदनशीलता कोई जन्मजात स्थिति है? (नहीं।) तो क्या यह कोई भ्रष्ट स्वभाव है? (नहीं।) अगर किसी में संवेदनशीलता की अभिव्यक्ति है तो क्या यह किसी भ्रष्ट स्वभाव का प्रकाशन है? (नहीं।) संवेदनशीलता का मतलब किसी निश्चित प्रकार का खाना खाने के बाद खुजली होना या कोई निश्चित गंध सूंघने के बाद छींक आना और आंसू आना नहीं है; इसका मतलब पराग से एलर्जी, मूंगफली से एलर्जी या परिरक्षकों या रासायनिक यौगिकों से होने वाली कोई एलर्जी नहीं है—इसका मतलब शारीरिक संवेदनशीलता नहीं है। शारीरिक संवेदनशीलता का मतलब संवेदनशील गठन होना है जिसमें कुछ बाहरी नुकसानदायक गंध या पदार्थों से शुरू होने वाली एलर्जी संबंधी प्रतिक्रियाओं की प्रवृत्ति होती है—यही शारीरिक संवेदनशीलता है। शारीरिक संवेदनशीलता व्यक्ति की जन्मजात स्थितियों में से बस एक सहज प्रवृत्ति है—यह व्यक्ति के जन्मजात गठन का हिस्सा है। लेकिन यहाँ जिस संवेदनशीलता की चर्चा हो रही है उसका यह मतलब नहीं है। जन्मजात स्थितियों की संभावना को खारिज करने के बाद, और यह विचार करते हुए कि इस प्रकार की संवेदनशीलता आमतौर पर किसी भ्रष्ट स्वभाव के स्तर तक नहीं बढ़ती है—मतलब कि इसमें भ्रष्ट स्वभाव का कोई विशिष्ट प्रकाशन नहीं है—तो यह संवेदनशीलता किस तरह की समस्या है? (यह मानवता की समस्या है।) क्या यह मानवता की योग्यता है या कमजोरी है? (यह मानवता की कमजोरी है।) यह स्पष्ट रूप से मानवता की कमजोरी है—अगर तुम इसे भी नहीं देख पाते हो तो तुम बेहद जाहिल हो। क्या संवेदनशील होना अच्छा है या नहीं? चूँकि यह मानवता की कमजोरी है इसलिए यह निश्चित रूप से अच्छा नहीं है। संवेदनशीलता का क्या मतलब है? इसे तुम लोग अपने शब्दों में कहो। (अतिसंवेदनशील मन होना।) क्या अतिसंवेदनशील मन होना कोई मानसिक बीमारी है? मुझे बताओ, क्या लोगों की नसें आमतौर पर अतिसंवेदनशील हो जाती हैं? नसें मनुष्य की मांसपेशियों के ऊतकों के भीतर होती हैं और बाहरी हवा, धूल या दूसरे पदार्थों के संपर्क में नहीं आती हैं—तो ये अतिसंवेदनशील कैसे हो सकती हैं? अगर कोई व्यक्ति हमेशा संवेदनशील है तो क्या यह उसके विचारों की कोई समस्या नहीं है? अगर उसके विचारों में कोई समस्या है तो क्या इसका मतलब है कि उसके मन में कोई समस्या है? (हाँ।) मन की समस्या उसके विचारों द्वारा नियंत्रित होती है और अगर यह उसके विचारों द्वारा नियंत्रित होती है तो यह उसकी मानवता से संबंधित समस्या है। जब बात किसी की नजर, शब्द या वाक्यांश के चयन की आती है या जब वह किसी परिवेश का या एक प्रकार की स्थिति का सामना करता है, तो वह इसकी अति-व्याख्या करता है, इसे खुद से जोड़ लेता है और फिर चिंता, अवसाद, उदासी और निराशा की भावनाओं में डूब जाता है और कभी-कभी नकारात्मकता में भी डूब जाता है या—इससे भी बदतर—बदला लेने, शत्रुता वगैरह की नकारात्मक अभिव्यक्तियाँ दिखाता है। ये अभिव्यक्तियाँ पूरी तरह से साबित करती हैं कि संवेदनशीलता मानवता का एक तरह का दोष है। दोष का मतलब है कि अगर तुममें इस तरह की समस्या है तो तुम्हारे द्वारा प्रकट की गई मानवता असामान्य है। भले ही यह समस्या तुम्हारे विचारों, मानसिक दशा, विवेक या किसी लिहाज से विशिष्ट धारणाओं और नजरियों के कारण हुई हो, जो भी हो, यह एक ऐसा दोष है जो तुम्हारी मानवता में निहित है। इसके कारण तुम्हारे द्वारा प्रकट की गई मानवता असामान्य बन जाती है, यह सामान्य मानवता की तार्किकता और जमीर के अनुरूप नहीं रहती है और सामान्य मानवता के सोचने के तरीकों द्वारा उत्पन्न विचारों और दृष्टिकोणों के अनुरूप नहीं रहती है या उस रवैये के अनुरूप नहीं रहती है जो दूसरों से मिलते-जुलते समय और मामले सँभालते समय व्यक्ति का होना चाहिए। संक्षेप में, मानवता के इस पहलू में जो प्रकट किया जाता है वह वास्तव में एक असामान्य मानसिक दशा है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग इसलिए अतिसंवेदनशील हो जाते हैं क्योंकि कोई अनजाने में उन पर सरसरी नजर डाल देता है—वे यह मान लेते हैं कि वह व्यक्ति उन्हें नीची नजर से देखता है, वे दुखी हो जाते हैं और यहाँ तक कि इससे परेशान होकर रोने भी लगते हैं। मुझे बताओ, क्या यह असामान्य मानसिक दशा नहीं है? क्या यह कोई मानसिक बीमारी नहीं है? क्या मैं जो कह रहा हूँ वह बिल्कुल ठीक है? (हाँ।) सटीक शब्दों में कहें तो, मानवता की यह अभिव्यक्ति एक मानसिक बीमारी है। दूसरे लोग उनके साथ कुछ नहीं करते हैं फिर भी वे कई दिनों तक बेकाबू होकर रोते रहते हैं और इससे उबर नहीं पाते हैं। यह मानवता का एक दोष है। जब तुम्हारे आस-पास इस प्रकार के लोग होते हैं तो तुम्हें खासतौर पर लगता है कि तुम्हारा दम घोंटा जा रहा है और तुम्हें प्रतिबंधित किया जा रहा है, तुम्हें नहीं पता होता कि कब तुम उनसे मुसीबत मोल ले लोगे या अपने लिए समस्याएँ खड़ी कर लोगे और उनके सामने बोलते समय तुम्हें बेहद सावधान रहना पड़ता है, बार-बार अपने शब्दों पर गौर करना पड़ता है : “अगर मैंने यह शब्द कहा तो क्या वे सोचेंगे कि मैं उन्हें नीची नजर से देख रहा हूँ? अगर मैंने उनसे बात नहीं की तो क्या वे सोचेंगे कि मेरी उनके बारे में एक निश्चित राय है? अगर मैं उनसे कुछ शब्द कहूँ तो क्या वे सोचेंगे कि मेरा कोई गुप्त मकसद है? कार्य करने का उचित तरीका आखिर क्या है?” अंत में तुम एक निष्कर्ष पर पहुँचते हो : इस प्रकार के लोग मानसिक रूप से बीमार होते हैं बस—वे सच में परेशानी पैदा करने वाले होते हैं! तुम चाहे उनके पास किसी भी तरीके से जाओ, यह कभी भी सही नहीं होता है; तुम चाहे कुछ भी कहो या कुछ भी करो, वे इसे कभी भी सही तरीके से नहीं लेते हैं। उनकी मानवता खासतौर से असामान्य होती है। ऐसे लोगों के साथ लंबा समय बिताने के बाद तुम बस उनसे दूर रहना और बचना चाहते हो, तुम आगे उनसे कोई संपर्क नहीं रखना चाहते हो। इस किस्म के लोगों में सामान्य मानवता की सोच नहीं होती है—वे मानसिक रूप से बीमार होते हैं। संवेदनशीलता का मतलब ये अभिव्यक्तियाँ हैं; यह मानवता का एक दोष है। वैसे तो यह मानवता का एक दोष है, लेकिन यह किसी भ्रष्ट स्वभाव से सरल नहीं है। अगर किसी में मानवता का कोई दोष या समस्या है तो जब वे दूसरों से जुड़ते हैं तब कई परेशानियाँ उठ खड़ी होती हैं; उनके साथ घुल-मिलकर रहना मुश्किल होता है और उन्हें सुधारना भी मुश्किल होता है। यह मानवता की एक अभिव्यक्ति है।
चलो, एक और अभिव्यक्ति के बारे में बात करें—जिद्दीपन। यह किस तरह की समस्या है? (यह मानवता का एक दोष है।) आओ, सबसे पहले हम जन्मजात स्थितियों को बाहर करें—जिद्दीपन निश्चित रूप से कोई जन्मजात स्थिति नहीं है, यह परमेश्वर द्वारा नहीं दिया गया है। इसके अलावा, जिद्दीपन किसी भ्रष्ट स्वभाव के स्तर तक नहीं बढ़ता है। इसलिए, यह मानवता का एक दोष है। जिद्दीपन की विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? क्या जिद्दीपन और बेतुकेपन के बीच कोई निश्चित पारस्परिक संबंध है? (कुछ तो है।) एक निश्चित हद तक पारस्परिक संबंध है। तो, जिद्दीपन की अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? एक उदाहरण दो। किस तरह के लोगों में जिद्दी होने की प्रवृत्ति होती है? कौन-से शब्द और क्रियाकलाप जिद्दीपन की अभिव्यक्तियाँ हैं? (जिद्दी लोग कुछ निश्चित लोगों, घटनाओं और चीजों का सामना करने पर अड़ जाते हैं।) चीजों पर अड़ जाना एक पहलू है। एक उदाहरण दो—वे किस तरह के मामलों पर अड़ जाते हैं? (जब कोई उनकी समस्याओं की ओर उनका ध्यान दिलाता है, तो वे बहाने बनाना और भ्रामक तर्क का उपयोग करना पसंद करते हैं। वे अपना बचाव करने के लिए हमेशा किसी वाक्यांश या चुनिंदा शब्दों से चिपके रहते हैं और सत्य स्वीकारने या काट-छाँट किया जाना स्वीकारने से इनकार कर देते हैं। वे खुद को सही ठहराने के लिए अपने तर्क पर जोर देते रहते हैं और अपने कार्यों के पीछे के कारणों को समझाते रहते हैं।) जब दूसरे लोग उनकी काट-छाँट करते हैं या सत्य सिद्धांतों के बारे में उनके साथ संगति करते हैं तो वे इसे स्वीकार नहीं करते हैं। बल्कि वे लगातार अपने बहानों और औचित्यों पर जोर देते रहते हैं और अपनी गलतियों को बिल्कुल भी माने बिना यह दावा करते हैं कि उनके इरादे सही हैं। यह अड़े रहने की एक अभिव्यक्ति है। कुछ लोग बेतहाशा गलत कर्म करते हैं और उन्हें बरखास्त कर दिया जाता है, लेकिन वे आत्म-चिंतन नहीं करते हैं। बल्कि वे कहते हैं, “जो भी हो, परमेश्वर मुझे पसंद नहीं करता और मैं ऐसा व्यक्ति नहीं हूँ जो सत्य से प्रेम करता हो, तो बात यहीं समाप्त हो जाती है—ऊपर की तरफ प्रयास करने का कोई मतलब नहीं है।” कोई उन्हें सलाह देता है, “तुम्हें इतना नकारात्मक नहीं होना चाहिए। तुम्हारी काबिलियत तुम्हें सत्य समझने की अनुमति देती है—तुम्हें ऊपर की तरफ प्रयास करना चाहिए!” वे उत्तर देते हैं, “अगर परमेश्वर ने नियत कर दिया है कि तुम्हें अच्छा गंतव्य नहीं मिलेगा, तो भले ही तुम ऊपर की तरफ प्रयास करो, यह बेकार है। चाहे तुम कितना भी प्रयास करो या इसे कितनी भी अच्छी तरह से करो, यह बेकार ही है।” वे अपने दिलों में परमेश्वर को लगातार गलत समझते रहते हैं और उससे बहस करते रहते हैं। दूसरे लोग चाहे कुछ भी कहें, वे इसे स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम जो कहते हो वह उनकी दशा से कितने करीब से मेल खाता है या उन्हें पूरी तरह से बदलने और कुछ विकास प्राप्त करने में कितनी मदद कर सकता है, वे फिर भी इसे स्वीकार नहीं करते हैं। उन्हें पक्का यकीन है कि उनके अपने विचार सही हैं। क्या यह जिद्दीपन की अभिव्यक्ति है? (हाँ।) वे एकनिष्ठता और दृढ़ता से मानते हैं : “परमेश्वर मुझे पसंद नहीं करता है। चाहे मैं कुछ भी करूँ, परमेश्वर मुझ पर अनुग्रह नहीं दिखाएगा—परमेश्वर ने मुझे एक तरफ रख दिया है। मुझे मालूम है कि मैं सत्य से प्रेम करने वाला व्यक्ति नहीं हूँ, इसलिए ऊपर की तरफ प्रयास करने का कोई मतलब नहीं है। अगर मैं कोई भी कर्तव्य कर पाऊँ, तो मैं उसे बस थोड़ा-सा करूँगा। अगर मुझे मजदूर कहा जाता है, तो यही सही। जो भी हो, मैं बस साथ चलूँगा। जब तक उम्मीद की एक किरण बाकी है तब तक मैं छोड़कर नहीं जाऊँगा।” दरअसल, उनकी काबिलियत और दूसरी विभिन्न स्थितियों के आधार पर उन्हें इतना नकारात्मक नहीं होना चाहिए—वे अब भी कुछ कीमती चीजें करने में सक्षम हैं और अपने कर्तव्य करने में कुछ नतीजे प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन अपने जिद्दीपन के कारण वे ऊपर की तरफ प्रयास करने से इनकार कर देते हैं, रास्ता नहीं बदलते हैं और पश्चात्ताप नहीं करते हैं; वे अपने दिलों में मानते हैं कि परमेश्वर उन पर अनुग्रह नहीं दिखाएगा। दूसरों को अलग-अलग मात्रा में प्रकाश और प्रबोधन मिलते हैं और बार-बार उन्हें परमेश्वर द्वारा कुछ अनुग्रह दिखाया जाता है लेकिन वे इसे महसूस नहीं कर पाते हैं, इसलिए वे अपने दिलों में परमेश्वर के प्रति कुछ नाराजगी रखते हैं। क्या यह जिद्दीपन है? (हाँ।) कुछ लोग सोचते हैं, “जिन लोगों को परमेश्वर के घर में पदोन्नत और विकसित किया जाता है, वे सब वही होते हैं जो बोलने में निपुण हैं, जिनके पास गुण और विशेष कौशल हैं और जो खुद को पेश करने में अच्छे हैं। हमारे जैसे लोग जो खुद को पेश करना नहीं जानते हैं और जिनमें वाक्पटुता नहीं होती है, परमेश्वर के घर द्वारा नजरअंदाज कर दिए जाते हैं। परमेश्वर हमें कोई अवसर नहीं देता है। भले ही हमारे पास प्रतिभाएँ हों, यह बेकार है। भले ही हमारे पास काबिलियत और समझने की क्षमता हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता—हमें फिर भी एक तरफ खड़ा रहना पड़ेगा। खासकर चूँकि हम गरीब पृष्ठभूमि से आते हैं, औसत रूप-रंग वाले हैं और नहीं जानते कि अच्छे कपड़े कैसे पहनते हैं, इसलिए हम कभी भी कहीं भी अलग से दिखाई नहीं देंगे। हमारा पूरा जीवन बस ऐसा ही रहेगा—न तो दुनिया में हमारा कोई रुतबा होगा और न ही परमेश्वर के घर में हमारा कोई रुतबा होगा।” क्या यह जिद्दीपन की अभिव्यक्ति है? (हाँ।) इन दोनों उदाहरणों से क्या तुम लोग स्पष्ट रूप से समझा सकते हो कि जिद्दीपन क्या है? (अड़ियल ढंग से अपने विचारों पर अड़े रहना और किसी की भी बात सुनने से इनकार करना।) (अपनी दृढ़ राय पर अड़े रहना।) बोलचाल की भाषा में इसे अपनी दृढ़ राय पर अड़े रहना कहा जाता है, लेकिन इसके सभी रूप जिद्दीपन नहीं होते हैं—यह इस बात पर निर्भर करता है कि वे जिस दृढ़ राय पर अड़े हुए हैं वह सही है या नहीं। अगर व्यक्ति जिस दृढ़ राय पर अड़ा हुआ है वह सही है, तो यह फिर भी स्वीकार्य है। उदाहरण के लिए, अगर कोई अपनी दृढ़ राय पर अड़ा रहता है और कहता है, “चाहे कोई भी समय हो, व्यक्ति को जमीर से कार्य करना चाहिए,” तो यह राय अपेक्षाकृत सकारात्मक है। लेकिन अगर वह जिस दृढ़ राय पर अड़ा हुआ है वह गलत है और तथ्यों के अनुरूप नहीं है और फिर भी वह इसे छोड़ने से इनकार करता है और कोई भी व्यक्ति उसे अपने विचार और दृष्टिकोण बदलने के लिए राजी नहीं कर पाता है चाहे वह कुछ भी कहे, तो फिर यह जिद्दीपन है। जिद्दीपन समझने का एक विकृत तरीका है—यह तब होता है जब लोग विकृत विचारों और दृष्टिकोणों को पकड़कर रखते हैं। यह मानवता या आम समझ के अनुरूप नहीं होता है और यह परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप तो बिल्कुल नहीं होता है; यकीनन इसका सत्य से भी कोई लेना-देना नहीं होता है। जिद्दीपन का मतलब है अपनी मानवता की आवेगशीलता और भावनाओं के नियंत्रण में विकृत विचारों और दृष्टिकोणों पर डटे रहना। इस तरह की अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करने वाले लोग जिद्दी लोग होते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग काट-छाँट किया जाना स्वीकार करने और खुद को जानने लगने के बाद यह महसूस करते हैं कि वे इस मामले में गलत थे और उन्हें पश्चात्ताप करना चाहिए। वे इसे एक अपराध के रूप में देखते हैं और मानते हैं कि काट-छाँट किया जाना सही था, खुशकिस्मती से काट-छाँट सही समय पर की गई और इसके बगैर एक बड़ी गलती हो जाती। लेकिन जिद्दी लोग इस तरीके से नहीं सोचते हैं। वे कहते हैं, “मेरी काट-छाँट करना मुझे नीचा दिखाना है—यह मुझे परेशान करना है क्योंकि मैं उन्हें अप्रिय लगता हूँ। हो सकता है कि मैंने किसी गड़बड़ी वाली परिस्थिति में कदम रख दिया और बदकिस्मती का शिकार हो गया। वे बस गुस्से में थे और उनके पास अपनी भड़ास निकालने का कोई रास्ता नहीं था, इसलिए उन्होंने मेरी काट-छाँट करके मुझ पर अपनी भड़ास निकाली।” दूसरे लोग कहते हैं, “तुम जैसा सोचते हो यह वैसा नहीं है। तुम यह जाँच क्यों नहीं करते कि तुमने क्या गलत किया? क्या तुमने वह मामला सिद्धांतों के अनुसार सँभाला? क्या तुमने सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन किया?” वे इन चीजों की जाँच नहीं करते हैं। बल्कि वे भावनाओं और आवेगशीलता से मामलों का विश्लेषण करते हैं, उन्हें समझते हैं और उनसे पेश आते हैं। संक्षेप में, जिद्दी लोग ज्यादातर मामलों में सकारात्मक चीजें या सत्य स्वीकार नहीं करते हैं—यहाँ तक कि वे सकारात्मक विचार और दृष्टिकोण भी स्वीकार नहीं करते हैं। चाहे उनके साथ कुछ भी घट जाए या वे किसी भी परिवेश का सामना करें, वे इसे जिद्दी तरीके से सँभालते हैं और पूरे यकीन से पकड़कर रखते हैं। यहाँ तक कि जब तुम उनके साथ सत्य की संगति करते हो, तो वे इसे स्वीकार नहीं करते हैं और मानते हैं कि वे जिस चीज को पकड़कर रखते हैं वह पूरी तरह से तथ्यों के अनुरूप होती है। वे अक्सर क्या कहते हैं? “तुम जो सुनते हो वह भरोसा करने लायक नहीं है; सिर्फ जो तुम देखते हो वही वास्तविक है। मैं जो देखता हूँ वही तथ्य हैं। भले ही तुम जो कहते हो वह सत्य हो, लेकिन अगर तुमने इसे नहीं देखा है तो तुम्हें इस पर बोलने का कोई हक नहीं है।” वे मानते हैं कि वे जो देखते हैं वही तथ्य हैं और वास्तव में ये तथ्य सतह पर जैसे दिखाई देते हैं वे वैसे ही होते हैं। जब तुम सत्य के बारे में बात करते हो, तो यह बेकार है—उनकी नजर में सत्य सिर्फ एक मुखौटा है, सिर्फ एक दिखावा है, सिर्फ सुखद लगने वाले शब्द है। इसलिए वे इसे स्वीकार नहीं करते हैं। वे आँख मूंदकर यह विश्वास करते हैं, “मैं जो कह रहा हूँ वह सच है—यह झूठ नहीं है—क्योंकि मैंने तथ्यों की सच्चाई देखी। मैंने तथ्यों के उधड़ने की प्रक्रिया देखी।” उदाहरण के लिए, जब कोई जिद्दी व्यक्ति किसी ऐसे दंपति को बहस करते देखता है जिसमें पति-पत्नी दोनों तलाक लेने के बारे में चिल्ला रहे होते हैं, तो वह यह निष्कर्ष निकाल लेता है कि वे निश्चित रूप से तलाक ले लेंगे। दूसरे लोग कहते हैं, “सिर्फ इसलिए कि तुमने उन्हें तलाक के बारे में बहस करते देखा, इसका अवश्य ही यह मतलब नहीं है कि वे वाकई तलाक लेना चाहते हैं। लोग गुस्से में रूखे शब्द बोल देते हैं। दरअसल, यह दंपति आमतौर पर बहुत प्रेम से रहता है—उनके रिश्ते की नींव मजबूत है। भले ही वे जीवनभर एक-दूसरे से बहस करते रहे हों, पर वे एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते। इस पत्नी ने किसी ऐसे व्यक्ति को जो इस स्थिति के बारे में जानता है, बताया कि उनके लिए तलाक लेना नामुमकिन है। इसलिए, इन तथ्यों और उनके सामान्य रहन-सहन के आधार पर वे संभवतः तलाक नहीं लेंगे।” जिद्दी व्यक्ति इस बात पर विश्वास नहीं करता। बाद में वह पता करने जाता है और देखता है कि उस दंपति ने वाकई तलाक नहीं लिया है, लेकिन वह फिर भी अड़ियल ढंग से यही मानता है, “उन्होंने सिर्फ ऊपर से तलाक नहीं लिया है; निजी तौर पर वे पहले ही गुप्त रूप से तलाक ले चुके हैं। उन्होंने सिर्फ बच्चों की खातिर इसे सबके सामने प्रकट नहीं किया है।” देखा तुमने, वह अब भी इस मामले से अड़ियल ढंग से चिपका हुआ है। वह सिर्फ अपनी आँखों देखी चीजों पर और अपने निर्णय पर विश्वास करता है और इस बात पर बेवकूफी से जोर देता रहता है कि उसका निर्णय, उसके विचार और दृष्टिकोण सही हैं। भले ही तथ्य उस तरह के न हों या समस्या का सार और मूल उस तरह के न हों, फिर भी वह उसे ऐसा ही मानता है। सभी मामलों की उसकी समझ सिर्फ उसके अपने पूर्वाग्रहों, आवेगशीलता और भावनाओं पर निर्भर करती है—वह तथ्यों की प्रकृति या समस्या के मूल के आधार पर निर्णय नहीं लेता है। भले ही स्थिति बदल जाए, लेकिन उसके समझने का तरीका और उसके विचार और दृष्टिकोण पहले जैसे ही बने रहते हैं। ये जिद्दी लोगों की अभिव्यक्तियाँ हैं।
जब जिद्दी लोग विशिष्ट समस्याओं का सामना करते हैं तो समस्याओं को सँभालने के उनके तरीके में और उनके द्वारा प्रकट किए जाने वाले स्वभाव में एक भ्रष्ट स्वभाव शामिल होता है। जिद्दीपन मानवता का एक बड़ा दोष है। यकीनन यह चरित्र या सत्यनिष्ठा के स्तर तक नहीं पहुँचता है—यह सिर्फ उस रवैये, विचार और दृष्टिकोण से संबंधित है जिससे वे दूसरों से मिलते-जुलते हैं और मामले सँभालते हैं। अगर कोई व्यक्ति जिद्दी है तो यह बात यह दिखाने के लिए पर्याप्त है कि उसकी मानवता में कोई दोष है। जब यह दोष किसी विशिष्ट मामले में प्रकट होता है तो वह जो प्रकट करता है वह अब सिर्फ मानवता का दोष नहीं रह जाता है। अगर किसी निश्चित परिस्थिति में वह अड़ियल ढंग से अपनी विकृत समझ और दृष्टिकोणों पर जोर देता है, यह मानता है कि ये सत्य के अनुरूप हैं और चाहे कोई भी उसके साथ सत्य की संगति करे, वह इसे अपना नहीं पाता है—और यहाँ तक कि कुछ जिद्दी क्रियाकलाप और कथन भी तैयार कर लेता है—तो अब यह सिर्फ उसकी मानवता की समस्या नहीं रह जाती है। यह पहले से ही उसके स्वभाव की समस्या होने के स्तर तक बढ़ चुका है—यह किसी भ्रष्ट स्वभाव के स्तर तक बढ़ चुका है। उदाहरण के लिए, जब काट-छाँट किया जाना स्वीकारने की बात आती है, तो अगर वह चीजें करने में सिद्धांतों का उल्लंघन करता है और बेतहाशा गलत कर्म करता है, तो उसे काट-छाँट किया जाना स्वीकार लेना चाहिए। भले ही वह काट-छाँट किया जाना स्वीकार न करे, लेकिन उसे अनुरूप सजा और ताड़ना फिर भी स्वीकार लेनी चाहिए। लेकिन इसे सही ढंग से समझने के बजाय वह अपनी बदकिस्मती की शिकायत करता है और कहता है, “मैं बस एक बुरी परिस्थिति में फँस गया। मेरी काट-छाँट करने वाला व्यक्ति बस गुस्से में था और उसके पास अपना गुस्सा निकालने की कोई जगह नहीं थी—यह बस ऐसा हुआ कि उसे मेरा यह मामला मिल गया, इसलिए उसने मेरी काट-छाँट कर दी।” काट-छाँट किए जाने के प्रति उसका विचार, दृष्टिकोण और रवैया भ्रष्ट स्वभाव का प्रकाशन है। यह किस तरह का भ्रष्ट स्वभाव है? (अड़ियलपन और सत्य से विमुख होना।) सत्य से विमुख होना और अड़ियलपन। लोगों और चीजों के संबंध में उसके विचार और दृष्टिकोण उसकी मानवता के जिद्दीपन के तहत आते हैं, लेकिन इन जिद्दी विचारों और दृष्टिकोणों को जन्म देने वाले भ्रष्ट स्वभाव अड़ियलपन और सत्य से विमुख होना हैं। यह समस्या के सार को गंभीर बना देता है—ऐसे लोग छद्म-विश्वासी होते हैं। जिद्दीपन मानवता का एक दोष है। इसमें शामिल भ्रष्ट स्वभावों की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं? अड़ियलपन और सत्य से विमुख होना—यह इसे भ्रष्ट स्वभावों के स्तर तक ले आता है। तुम लोगों को इससे क्या दिखाई देता है? मानवता में कुछ ऐसे दोष जिनमें लोगों के वे विचार, दृष्टिकोण और रवैये शामिल हैं जिनसे वे आचरण करते हैं और कार्य करते हैं, भ्रष्ट स्वभावों तक आगे बढ़ सकते हैं। उदाहरण के लिए, हकलाना मानवता का एक दोष है। हकलाने वाला व्यक्ति हकलाएगा चाहे वह कुछ भी कहे। हकलाना अपने आप में कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं है और यह किसी भ्रष्ट स्वभाव के स्तर तक नहीं पहुँचता है। लेकिन अगर हकलाकर बोले गए शब्दों में निश्चित विचार निहित हैं और ये विचार किसी भ्रष्ट स्वभाव के नियंत्रण में उत्पन्न होते हैं, तो चाहे वह व्यक्ति स्वाभाविक रूप से हकलाता हो या नहीं, उसके शब्दों के पीछे के विचार एक भ्रष्ट स्वभाव को दर्शाते हैं। हकलाना बोलने की समस्या है—इसका किसी भ्रष्ट स्वभाव से कोई संबंध नहीं है। लेकिन हकलाकर बोलने के तरीके का उपयोग करने के पीछे के विचार और दृष्टिकोण किसी भ्रष्ट स्वभाव द्वारा शुरू या उत्पन्न किए जाते हैं। तो देखा तुमने, जब मानवता के दोष में जन्मजात स्थितियाँ शामिल होती हैं तो इसका किसी भ्रष्ट स्वभाव से कोई संबंध नहीं होता है। लेकिन जब मानवता के दोष में व्यक्ति के चरित्र के घिनौने, विकृत या नकारात्मक तत्व शामिल होते हैं तो इसमें एक भ्रष्ट स्वभाव जरूर शामिल होता है। तुम समझ गए? (हाँ।)
चलो, एक और अभिव्यक्ति पर चर्चा करें, सुन्न होना। यह क्या समस्या है? (यह मानवता का एक दोष है।) सुन्न होना मानवता का एक दोष है। लोगों में सुन्न होने की सामान्य अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? चीजें करते समय सुस्ती से प्रतिक्रिया करना, धीमी रफ्तार से चलना और लचीलेपन की कमी होना और समस्याओं के बारे में सोचते समय कम विचार होना या समस्याओं के अपेक्षाकृत कम पहलुओं पर ही चिंतन कर पाना। इन सभी को सुन्न होना कहते हैं। सुन्न होने में मानवता का कौन-सा पहलू शामिल है? इसमें लोगों और चीजों के बारे में व्यक्ति के नजरिये की गहराई, उसके स्व-आचरण और क्रियाकलापों की गहराई और साथ ही जब लोगों और चीजों को देखने की और आचरण करने और कार्य करने की बात आती है, तो इसमें उसकी बुद्धिमत्ता या काबिलियत शामिल है। आमतौर पर “सुन्न” शब्द से किस तरह के व्यक्ति का वर्णन किया जाता है? (अपेक्षाकृत खराब काबिलियत वाले व्यक्ति का।) सुन्न होने का मतलब है कि व्यक्ति में खराब काबिलियत, कम बुद्धिमत्ता और सुस्त प्रतिक्रियाएँ हैं—इन अभिव्यक्तियों का होना ही सुन्न होना है। सुन्न होना मानवता का एक बड़ा दोष है। इस सुन्न होने का मतलब तुम्हारे हाथ या पैर का सुन्न होना और संवेदना खो देना नहीं है—यह इस किस्म की शारीरिक असंवेदनशीलता नहीं है। न ही इसका मतलब जड़, मंद या सख्त होने के व्यक्तित्व से संबंधित लक्षण से है। बल्कि यह एक मानसिक प्रतिक्रिया है या समस्याएँ सँभालने में व्यक्ति की बुद्धिमत्ता की एक अभिव्यक्ति है। आमतौर पर जब इस तरह के व्यक्ति के आस-पास के लोगों, घटनाओं और चीजों की बात आती है, तो यह व्यक्ति अक्सर सुन्न, मंदबुद्धि और कोई प्रतिक्रिया नहीं होने की अवस्था में होता है। यानी वह चीजों को देखता है लेकिन उन चीजों के सार की असलियत नहीं देख पाता है और भीतर की समस्याओं पर उसका ध्यान नहीं जाता है। जब तुम उसे यह याद दिलाते हो कि यहाँ एक समस्या है तो उसकी कोई प्रतिक्रिया तक नहीं होती है और उसे यह पता नहीं होता है कि यह एक समस्या है। भले ही कोई व्यक्ति समस्या की तरफ उसका ध्यान दिला दे, तब भी वह समस्या की गंभीरता या समस्या के सार की असलियत नहीं देख सकता है। नतीजतन, वह बहुत सारे मामले बहुत धीरे-धीरे सँभालता है। यह सुन्न होना है। सुन्न होना अपने आप में मानवता का एक दोष है। जहाँ तक सुन्न लोगों का सवाल है, चाहे उनकी उम्र कुछ भी हो या उनके शरीर का कोई भी अंग सुन्न हो, इस पहलू में उनकी मानवता की अभिव्यक्तियों के लिहाज से वे विशिष्ट, आवश्यक कार्य नहीं कर सकते हैं और न ही वे ऐसे कार्य की जिम्मेदारी ले सकते हैं जिसमें तकनीकी विषय-वस्तु शामिल है या जिसकी प्रकृति बहुत ही ज्यादा विशेषीकृत है। यकीनन ऐसे लोग अगुआ और कार्यकर्ता होने के भी योग्य नहीं होते हैं। अगर कोई अगुआ या कार्यकर्ता सुन्न है तो उसके द्वारा किए जाने वाले कार्य में परेशानी खड़ी होगी, वह एकदम रुक जाएगा और पंगु हो जाएगा। वे समस्याओं पर ध्यान दे पाने में समर्थ नहीं हैं और उन्हें तुरंत हल कर पाने में समर्थ नहीं हैं, इसलिए जब विभिन्न समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं तो वे उन पर ध्यान नहीं दे सकते हैं और समस्याएँ हल नहीं हो सकती हैं। वे अपनी आँखों से समस्याएँ नहीं देख सकते हैं, इसलिए वे उन्हें हल करना शुरू नहीं कर सकते हैं और उन्हें नहीं पता होता है कि कौन-सा कार्य करना सबसे जरूरी है। वे हर रोज नियमित रूप से सिर्फ जरा-सा सतही कार्य कर सकते हैं। ऊपरवाला जो भी कार्य-व्यवस्थाएँ जारी करता है, वे उन्हें आगे सौंप देते हैं, लेकिन उन्हें आगे सौंपने के बाद उन्हें पता नहीं होता है कि उन्हें उचित रूप से कार्यान्वित किया जा सकता है या नहीं, कौन-से नतीजे प्राप्त किए जा सकते हैं या बाद के प्रभाव क्या होंगे। वे किसी भी चीज की असलियत नहीं देख सकते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके आस-पास कितने लोग बुरा कर्म कर रहे हैं या विघ्न-बाधाएँ या गड़बड़ियाँ उत्पन्न कर रहे हैं, वे इसे नहीं बूझ सकते हैं। वे यह भी नहीं जानते हैं कि कितने कार्य पर अनुवर्ती कार्रवाई करने की जरूरत है या किस विशिष्ट कार्य को कार्यान्वित करने की जरूरत है। कोई उनसे पूछता है : “क्या तुमने कार्य सौंप दिया है और व्यवस्थित कर दिया है?” वे कहते हैं : “सब कुछ व्यवस्थित कर दिया गया है। मैंने उनके साथ संगति की और कार्य-व्यवस्था को एक बार ऊँची आवाज में पढ़कर सुनाया—हर किसी को यह मालूम है।” क्या यह कार्य-व्यवस्था को कार्यान्वित करना है? (नहीं।) कार्य-व्यवस्था को कार्यान्वित करने के लिए सबसे पहले अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ उचित रूप से सौंपने, किस अगुआ को कौन-सा कार्य सँभालना चाहिए यह निर्दिष्ट करने और यह सुनिश्चित करने की जरूरत होती है कि कार्य की हर मद विशिष्ट लोगों को सौंपी गई है। इसके अलावा अगुआओं और कार्यकर्ताओं को विशिष्ट तौर से बता दिया जाना चाहिए कि इसे कैसे और किन सिद्धांतों के अनुसार करना है। ये सभी मामले स्पष्ट रूप से समझा दिए जाने चाहिए ताकि सभी को पता हो कि यह कार्य कैसे करना है। कार्य आवंटित करने का सिर्फ यही मतलब है। कुछ लोग कार्य का निर्वहन करते समय दूसरों को बस कार्य-व्यवस्था ऊँची आवाज में पढ़कर सुना देते हैं और सभी को इस बारे में अपनी समझ और भावनाएँ साझा करने के लिए कह देते हैं, और बस हो गया। जब तक वे सभी को अपने कर्तव्य करने में व्यस्त देखते हैं, तब तक वे मानते हैं कि कार्य-व्यवस्था उचित रूप से कार्यान्वित कर दी गई है। इस मौके पर अगर तुम उनसे पूछते हो : “क्या भाई-बहनों को अपने कर्तव्य करने में कोई कठिनाई है? क्या अब भी कोई समस्या मौजूद है? क्या उन्हें हल करने के लिए तुमने संगति की?” वे जवाब देते हैं : “मैंने किसी भी समस्या के बारे में नहीं सुना है—मैं जाऊँगा और इसकी छानबीन करूँगा।” दरअसल इस कार्य के प्रभारी ने किसी समस्या या कठिनाई की बात नहीं उठाई, लेकिन वे कठिनाइयाँ बिल्कुल मौजूद हैं। वह इसलिए क्योंकि वह इतना सुन्न है कि उसका ध्यान उन पर नहीं जा पाता है। उदाहरण के लिए, जब दो लोग अपने कर्तव्य करने के दौरान एक दूसरे के साथ सहयोग नहीं कर सकते हैं और रुतबे के लिए आपस में होड़ करते हैं, तो वह इसे भी नहीं बूझ पाता है और इससे कार्य पर असर पड़ता है। वह यहाँ तक कहता है, “उनका रिश्ता काफी अच्छा है—वे बातचीत करते हैं और एक-दूसरे से संचार करते हैं। अगर वे सहयोग नहीं कर सकते तो वे बात नहीं कर रहे होते।” लोग उससे पूछते हैं, “क्या वे रुतबे के लिए एक-दूसरे से होड़ कर रहे हैं? क्या वे मिलजुलकर सहयोग कर सकते हैं?” वह जवाब देता है, “मुझे इस बारे में नहीं मालूम।” सिर्फ पूछताछ के बाद ही यह बात पता चलती है कि वे दोनों सहयोग करने में समर्थ नहीं हैं और एक-दूसरे से मुकाबला कर रहे हैं—इस बात पर मुकाबला कर रहे हैं कि कौन ज्यादा उदात्त उपदेश देता है, किसकी आवाज ज्यादा ऊँची है और कौन ज्यादा देर तक बोलता है। बहुत पहले से ही परमेश्वर के चुने हुए लोगों का इन चीजों पर ध्यान जा चुका है। अगर तुम उस व्यक्ति से पूछते हो, “क्या इन समस्याओं को तुरंत हल किया गया?” वह कहेगा, “नहीं, उन्हें हल नहीं किया गया है। मुझे पता ही नहीं था कि यह वह कार्य है जो मुझे करना चाहिए।” उसे इतनी बड़ी समस्या को हल करना भी नहीं आता है—क्या वह कमजोर दिमाग वाला नहीं है? (हाँ।) वह कार्य-व्यवस्थाओं को एक बार ऊँची आवाज में पढ़ता है और फिर यह अपेक्षा करता है कि सभी अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करने की घोषणाएँ करें और शपथ लें और उसके बाद वह मान लेता है कि उसका काम पूरा हो गया है। वह खुद से कहता है, “मुझे याद है कि कलीसिया का अगुआ कौन है, कौन कार्य के किस मद के लिए विशिष्ट तौर से जिम्मेदार है और कौन फिल्म-निर्माण कार्य का प्रभारी है,” लेकिन उसे बस यह दिखाई नहीं देता है कि कार्य के उन विशिष्ट मदों को कैसे पूरा किया जाना चाहिए। सुन्न और मंदबुद्धि होना ऐसा दिखता है—वे बेवकूफ व्यक्ति हैं। उनका ध्यान किसी भी समस्या पर नहीं जा पाता है और वे नहीं जानते हैं कि सत्य सिद्धांतों के किसी भी पहलू के बारे में कैसे संगति करनी है। जब सत्य सिद्धांतों से जुड़ी समस्याओं की बात आती है तो वे नहीं जानते हैं कि उन्हें हल करने के लिए सत्य की संगति कैसे करनी है। जब कार्मिक या प्रशासनिक कार्यों से जुड़ी समस्याओं की बात आती है तो वे उनमें से किसी को भी बूझ नहीं सकते हैं। भले ही वे यह बिल्कुल देखते हों कि कोई व्यक्ति कार्य नहीं कर सकता है, फिर भी उन्हें नहीं पता होता है कि इसे कैसे हल करना है। वे किसी भी चीज की असलियत नहीं देख सकते हैं। सुन्न होने का यही मतलब होता है। उन्हें सिर्फ कुछ धर्म-सिद्धांत बोलने आते हैं, लेकिन वे कार्य में सक्षम नहीं होते हैं—वे दिखने में सुन्न और मंदबुद्धि होते हैं। मुझे बताओ, क्या ऐसा व्यक्ति मानक-स्तर का अगुआ है? (नहीं।) अगर अगुआ और कार्यकर्ता सुन्न हैं तो यह परेशानी वाली बात है—वे कोई भी कार्य बिल्कुल भी नहीं कर पाएँगे। अगर वे वह कार्य नहीं करते हैं जो उन्हें करना चाहिए और जब कोई किसी समस्या की रिपोर्ट करता है तो वे उसे भी नहीं सँभालते हैं, तो यह अब सिर्फ सुन्न होने का मुद्दा नहीं रह जाता है, बल्कि यह सामान्य मानवता की कमी है और जमीर और विवेक के सामान्य प्रकार्य को खोना है।
सुन्न होना मानवता का एक दोष है। वैसे तो यह दोष भ्रष्ट स्वभाव के स्तर तक नहीं बढ़ता है, लेकिन बस अपने आप में यह समस्या जानलेवा है। एक ऐसा जीता-जागता व्यक्ति वहाँ खड़ा है जिसमें क्रियाशील इंद्रियाँ और अंग तो हैं, लेकिन उसमें बस लोगों और चीजों को देखने या आचरण करने और कार्य करने की एक सामान्य व्यक्ति की क्षमता नहीं है। जब वे कार्य करते हैं तो वे बिना किसी विचार वाले निकम्मे व्यक्ति की तरह होते हैं—वे किसी भी समस्या पर ध्यान नहीं दे सकते हैं, जब दूसरे लोग समस्याएँ उठाते हैं तो वे उन्हें हल करने में बिल्कुल सक्षम नहीं होते हैं और वे यह नहीं देख सकते हैं कि क्या कार्य किया जाना चाहिए। अपने मन में उन्हें लगता है जैसे उन्हें किसी भी चीज की परवाह नहीं है। नतीजतन वे कोई कार्य नहीं कर सकते हैं—वे बेकार, निकम्मे व्यक्ति होते हैं। क्या यह समस्या काफी गंभीर नहीं है? देखा तुमने, जिद्दी लोग और संवेदनशील लोग कम-से-कम सक्रिय विचार रखते हैं—उनमें सामान्य व्यक्ति की सोच होती है; यानी उनके मन लगातार काम कर रहे होते हैं। लेकिन सुन्न लोगों के मन सरल होते हैं; यह ऐसा है मानो उनका मन पंगु हो गया हो, यह ऐसा है मानो वे मर चुके हों। वैसे तो उनके पास आँखें होती हैं, लेकिन चाहे वे कुछ भी देखें, उनके मन में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती है और वे अपने मन में उस पर चिंतन नहीं करते हैं; उनके पास कोई विचार नहीं होता है और वे पूरी तरह से काठ की आकृतियाँ होती हैं। काठ की आकृतियाँ क्या होती हैं? ये काठ पर उकेरे गए लोग होते हैं; वे बाहर से लोगों जैसे दिखते हैं, लेकिन जब तुम उनसे बात करते हो तो वे प्रतिक्रिया नहीं करते हैं। तुम उनसे घर पर नजर रखने के लिए कहते हो, लेकिन जब घर को लूटा जाता है तो वे कुछ नहीं करते हैं। तुम उनसे पूछते हो, “तुमने घर पर नजर क्यों नहीं रखी?” और वे फिर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं करते हैं। अगर कोई व्यक्ति किसी भी चीज पर कोई प्रतिक्रिया नहीं करता है तो यह बहुत परेशानी वाली बात है। दूसरे शब्दों में, मानवता की सहज प्रवृत्ति को जो कार्य करने चाहिए—जैसे कि विचार और जागरूकता के कार्य और वे कार्य जो आँख, कान, मस्तिष्क और दिल को करने चाहिए—वे नहीं किए जा सकते हैं। उनमें वे विचार जो सामान्य मानवता वाले लोगों में होने चाहिए, होते ही नहीं हैं या कम होते हैं। इसे ही सुन्न होना कहते हैं। सुन्न लोग निकम्मे लोगों से इतने अलग नहीं होते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “तुम कहते हो कि इस किस्म के लोग सुन्न होते हैं, उनकी आँखें, कान और मस्तिष्क अपने काम नहीं कर सकते हैं। लेकिन अगर तुम उनका अपमान करते हो तो वे प्रतिक्रिया करते हैं। अगर उनका कोई नुकसान होता है तो वे प्रतिक्रिया करते हैं। तो क्या अब भी उन्हें बेवकूफ लोग माना जा सकता है?” यहाँ तक कि कुछ जानवर भी मनुष्यों की बोली समझ सकते हैं—वे उन अच्छी और बुरी दोनों चीजों को समझ सकते हैं जो तुम उनके बारे में कहते हो। अगर कोई व्यक्ति मानव होकर मनुष्यों की बोली नहीं समझ पाता है तो वह मानव होने के मानक पर खरा नहीं उतरता है। इसलिए यह मापने के लिए कि कोई व्यक्ति मानव है या नहीं, मानव के मानक का उपयोग किया जाना चाहिए। मैं जानवरों का जिक्र क्यों करता हूँ? यह तुम्हें यह बताने के लिए है कि तुम एक जीवित प्राणी हो जो सृजित मनुष्यों की श्रेणी में आता है, जानवरों की श्रेणी में नहीं। अगर मनुष्य के रूप में तुम्हारे पास वे विचार नहीं हैं जो जानवरों में भी होते हैं, तो तुम बहुत कमतर हो। यहाँ तक कि जानवरों को भी यह पता होता है कि जो उनके साथ अच्छा व्यवहार करते हैं और उन्हें रोज भोजन देते हैं उनके साथ उन्हें अच्छा व्यवहार करना चाहिए और उनके पास आना चाहिए। अगर मनुष्य के रूप में तुममें ऐसी मानवता नहीं है, तो क्या अब भी तुम मनुष्य कहलाने लायक हो? मैं यह तुलना क्यों करता हूँ? यह तुम्हें यह बताने के लिए है कि तुम कोई जानवर या ऊँचे स्तर का जानवर नहीं हो; तुम एक व्यक्ति हो, तुम परमेश्वर द्वारा बनाई गई सभी चीजों में सबसे ऊँचे स्तर के प्राणी हो—मनुष्य हो। तुममें भाषा की क्षमता, सोचने की क्षमता और सत्य समझने की क्षमता है। परमेश्वर ने तुम्हें सभी चीजों का स्वामी बनने, सभी चीजों और दूसरे जीवित प्राणियों का प्रबंधन करने के लिए बनाया है। तुम सभी चीजों में सभी जीवित प्राणियों के प्रबंधक हो। उन्हें प्रबंधित करने के लिए तुम्हें उनसे ऊपर होना चाहिए। उनका प्रबंधन करने की क्षमता होने के लिए तुम्हें उनसे बेहतर होना चाहिए। इसलिए जानवरों का जिक्र करना तुम्हें छोटा दिखाने के लिए नहीं है, बल्कि तुम्हें यह याद दिलाने और समझाने के लिए है कि तुम्हें उनसे बेहतर होना चाहिए। उनका प्रबंधन करने और उनकी अगुआई करने के लिए तुम्हें उन क्षमताओं का उपयोग करना चाहिए जो तुम्हारी मानवता में होनी चाहिए और साथ ही उन विभिन्न प्रकार की सामान्य समझ और क्षमताओं का उपयोग करना चाहिए जो तुमने जन्म लेने के बाद से हासिल की हैं ताकि तुम वह करो जो एक मनुष्य को करना चाहिए, जिसे परमेश्वर ने तुम्हें करने का आदेश दिया है। अगर तुम खुद को एक सृजित मनुष्य मानते हो तो तुम्हें अपनी मानवता और अपने सार को मापने के लिए सृजित मानवजाति के मानक का उपयोग करना चाहिए। यह मानक उस मानक से निम्नतर नहीं होना चाहिए जिसे परमेश्वर ने मानवजाति के लिए स्थापित किया है। इसलिए किसी व्यक्ति की काबिलियत और उसकी मानवता के विभिन्न पहलुओं में समस्याओं को मापने के लिए मनुष्यों के मानक का उपयोग किया जाना चाहिए। मानवता के लिहाज से बहुत-से लोग प्रतिक्रिया करने में मानसिक रूप से सुन्न और सुस्त होते हैं जिसके कारण वे अपने कर्तव्य करने के दौरान अपने कई कर्तव्यों का निर्वहन खराब तरीके से करते हैं—वे कलीसियाई कार्य में अक्षम होते हैं और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने में असमर्थ होते हैं। इसलिए, तुम्हें खुद को जानना चाहिए और अपना माप जानना चाहिए। अगर तुममें इस तरह की काबिलियत या मानवता नहीं है या अगर तुम्हारी मानवता में सुन्न होने का दोष है तो तुम्हें अगुआ या पर्यवेक्षक बनने की होड़ नहीं करनी चाहिए। अगर तुम अगुआ या पर्यवेक्षक बन जाते हो तो तुम जिस भी कलीसिया के कार्य के लिए जिम्मेदार होगे, वह कलीसिया पंगु हो जाएगी। तुम कार्य की जिस भी मद के लिए जिम्मेदार होगे, वह कार्य पूरी तरह से गड़बड़ हो जाएगा। अगर तुम इसके लिए सक्षम नहीं हो सकते तो तुम्हें एक तरफ खड़े हो जाना चाहिए और जो लोग इसका निर्वहन करने में सक्षम हैं उन्हें इसे करने देना चाहिए। तुम समझ रहे हो? (हाँ।) आत्म-जागरूकता होना और फिर ज्यादा सक्षम लोगों के लिए जगह बनाना सीखना और दूसरों की सिफारिश करना—यही अभ्यास का सिद्धांत है। कुछ लोग कहते हैं, “मैं इतना सुन्न हूँ कि मैं नहीं बता सकता कि कौन अच्छा है—मैं किसी की सिफारिश कैसे कर सकता हूँ?” अगर तुम यह नहीं बता सकते हो कि किसमें अच्छी काबिलियत है और सिफारिशें नहीं कर सकते हो, तो तुम्हें कुछ सबक सीखने की जरूरत है। जब तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जो सत्य समझता है और दूसरों का भेद पहचान सकता है, तब तुम्हें उससे सीखना चाहिए। उसके साथ ज्यादा संगति करके तुम कुछ चीजें सीख पाओगे। चूँकि तुम्हारी अपनी मानवता में सुन्न होने का दोष है इसलिए इस बारे में नकचढ़े या चयनशील मत बनो कि तुम कौन-से कर्तव्य करते हो। खुद तुममें यह दोष है इसलिए ऐसे बहुत-से प्रकार के कार्य और कर्तव्य नहीं हैं जिन्हें तुम कर सकते हो। अगर बहुत कठिनाई से तुम्हारे लिए कोई उपयुक्त पद मिल जाता है और फिर भी तुम नकचढ़े और चयनशील बने रहते हो तो यह सुन्न होने या मानवता के दोष की समस्या नहीं है बल्कि भ्रष्ट स्वभाव है। कौन-सा भ्रष्ट स्वभाव? यह घमंड वाला, समर्पण नहीं करने वाला और अपने खुद का माप नहीं जानने वाला स्वभाव है। तुम कुछ भी नहीं हो, बस बेकार और बेवकूफ हो, फिर भी तुम ऐसे कर्तव्य करना चाहते हो जो गरीमापूर्ण हों, जो थकाऊ नहीं हों और जिनका दूसरे लोग बहुत सम्मान करते हों—यह घमंडी स्वभाव को दर्शाता है। अगर तुम बहुत सुन्न हो, तुम्हारे पास वह कार्य है जो तुम्हें करना चाहिए और ऐसे मामले हैं जिनका तुम्हें ध्यान रखना चाहिए, लेकिन तुम न तो उन्हें करते हो और न ही तुम्हारा उन पर ध्यान जाता है, अगर तुम चीजें गलत हो जाने पर एक तिनका तोड़ने तक का कष्ट नहीं करते हो और यहाँ तक कि जब तुम किसी चीज को परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाते देखते हो तो तुम उसे अनदेखा कर देते हो, सोचते हो, “यह मेरे अपने घर की समस्या नहीं है, इसलिए मैं इसके लिए परेशान नहीं होऊँगा,” यह सिर्फ सुन्न होना नहीं है बल्कि जमीर और विवेक की कमी है। अगर तुममें जरा-सा भी जमीर और विवेक है और तुम परमेश्वर के घर के मामलों को अपने मामले मानते हो तो तुम्हें अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए और परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान नहीं पहुँचने देना चाहिए। लेकिन अगर तुममें यह नेक इरादा नहीं है और तुम एक भी अच्छी चीज नहीं करते हो तो क्या तुम मंदबुद्धि और सुन्न व्यक्ति नहीं हो? सुन्न होने की अभिव्यक्ति पर हमारी चर्चा यहीं समाप्त होती है।
आओ, अब बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाला होने के बारे में बात करें। बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाला होना किस तरह की समस्या है? (यह मानवता का एक दोष है।) क्या यह एक दोष है? (यह खराब चरित्र की समस्या है।) खराब चरित्र का मतलब बुरी मानवता है। बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाला होने में मानवता का कौन-सा पहलू शामिल है? इसमें जमीर और विवेक के साथ-साथ सत्यनिष्ठा और गरिमा भी शामिल हैं। इसमें व्यक्ति के चरित्र का पहलू शामिल है। बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाला होने की विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? कौन-सी बातें दर्शाती हैं कि व्यक्ति बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाला है? वह जो भी बेशर्म चीजें करता है वे निश्चित रूप से बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाला होने की अभिव्यक्तियाँ हैं। चापलूसी करना और तलवे चाटना बिना यह महसूस किए कि यह शर्मनाक है—क्या यह बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाला होना नहीं है? (हाँ।) हम इसे बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाला होना क्यों कहते हैं? क्योंकि ऐसा करना दर्शाता है कि व्यक्ति में शर्म की कोई भावना नहीं है। शरमाए बिना या दिल की धड़कन तेज हुए बिना वह कुछ ऐसे शब्द कह सकता है जो सामान्य मानवता के जमीर का उल्लंघन करते हों या जो तथ्यों के अनुरूप न हों, चाहे वे शब्द कितने भी शर्मनाक या अप्रिय हों और उसे इस बात की परवाह नहीं होती है कि दूसरे लोग उसे सुनने के बाद उसके बारे में क्या सोचते हैं; भले ही दूसरे उस पर हँसें, वह परवाह नहीं करता है। उसमें शर्म की भावना नहीं होती है, है ना? (हाँ।) क्या शर्म की कोई भावना नहीं होना बिल्कुल बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाला होना नहीं है? साथ ही जब कोई व्यक्ति स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं होता है, फिर भी वह रुतबे के लिए और अगुआ बनने के लिए खुलेआम होड़ करता है—तो क्या यह बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाला होना नहीं है? (हाँ।) वह न सिर्फ खुलेआम होड़ करता है बल्कि चुनावों के दौरान फर्जी मतपत्र भी बनाता है। दूसरे लोग हर व्यक्ति के लिए एक वोट डालते हैं, जबकि वह अपने लिए दो वोट डालता है—क्या यह बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाला होना नहीं है? (हाँ।) जब दूसरे लोग उसे वोट नहीं देते हैं तो वह खुद को वोट दे देता है। ऐसे लोग बेबाकी से और शर्म की कोई भावना के बिना अगुआ बनने की होड़ करते हैं—वे कितनी बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाले होते होंगे! आमतौर पर जो लोग रुतबे से प्रेम करते हैं और महत्वाकांक्षा रखते हैं वे सभी खुद को अच्छी तरह से प्रस्तुत करना चाहते हैं ताकि हो सकता है कि दूसरे लोग उन्हें अगुआ के रूप में चुन लें। एक बार जब वे अगुआ के रूप में चुन लिए जाते हैं तो वे काफी गर्व महसूस करते हैं, लेकिन अगर वे नहीं चुने जाते हैं तो वे दुखी और नाराज हो जाते हैं—यह एक सामान्य अभिव्यक्ति है। लेकिन बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाले लोग ऐसे नहीं होते हैं। वे ऐसे किसी भी साधन का उपयोग करेंगे जो अगुआ बनने के लिए जरूरी है। वे कहते हैं, “हर कोई मुझे नापसंद करता है और मुझे वोट नहीं देगा, लेकिन मैं अगुआ बनने का कोई रास्ता ढूँढ ही निकालूँगा। भले ही मुझे धोखा देना पड़े और चालाकी भरे उपायों का उपयोग करना पड़े, मैं सभी से अगुआ के रूप में मुझे वोट दिलवाऊँगा!” दूसरे लोग कहते हैं, “भले ही तुम अगुआ बन जाओ, फिर भी हर कोई तुम्हें नापसंद ही करेगा। तुम्हारे बारे में हमारी राय अच्छी नहीं है और तुम्हारी प्रतिष्ठा बुरी है। अगर तुमने किसी कार्य की व्यवस्था की तो कोई भी तुम्हारी बात नहीं मानेगा।” वे जवाब देते हैं, “भले ही तुम मेरी बात मत मानो, मैं फिर भी अगुआ बनने का प्रयास करूँगा!” ऐसे लोग कितनी बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाले होते होंगे! इसे देखा जाए तो क्या ऐसे लोगों में आत्म-जागरूकता की कमी नहीं होती है? (हाँ।) उनमें आत्म-जागरूकता की कमी होती है और कुछ हद तक एक हिंसक गुण होता है। अपने स्व-आचरण के बारे में बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाले लोगों के विचारों और दृष्टिकोणों को देखा जाए तो उनमें अपनी मानवता को लेकर शर्म की कोई भावना नहीं होती है, वे सत्यनिष्ठा या चरित्र, जमीर या शर्मिंदगी की भावना की परवाह नहीं करते हैं और न ही वे नैतिकता और स्व-आचरण की आधाररेखा की परवाह करते हैं—वे इन सभी चीजों की अवहेलना करते हैं। उनके विचारों और जागरूकता को देखा जाए तो वे पूरी तरह से बेवकूफ, जाहिल और नीच होते हैं। इस प्रकार यह कहा जाता है कि वे खराब और बुरे चरित्र वाले होते हैं। इसलिए वे जो बेशर्म चीजें करते हैं वे निश्चित रूप से उनके गलत विचारों और दृष्टिकोणों से संचालित होती हैं। कलीसिया में चुनावों के दौरान वे खुद को चुनने, खुद के लिए वोट देने और अगुआ बनने पर जोर देते हैं—अगुआ नहीं बनना उनके लिए अस्वीकार्य है और अगर वे अगुआ नहीं बनते हैं तो वे उन्हें वोट नहीं देने के लिए भाई-बहनों से नफरत करेंगे। एक बार जब उन्हें पता चलता है कि तुमने उन्हें वोट नहीं दिया तो तुम उन्हें अप्रिय लगने लगते हो। चाहे तुम कुछ भी कहो, वे किसी न किसी चीज से उसका मुँहतोड़ जवाब देते हैं। वे तुमसे बात करते समय बेहद रूखे हो जाते हैं, मानो वे आग उगल रहे हों। वे यह भी सोचते हैं कि तुमसे कैसे बदला लिया जाए और तुम्हें कैसे सताया जाए और यहाँ तक कि वे जीवन भर तुमसे बात करने से भी इनकार कर सकते हैं। ऐसे लोगों के इन विशिष्ट क्रियाकलापों से जो प्रकट होता है वह भ्रष्ट स्वभाव है। यह किस तरह का भ्रष्ट स्वभाव है? (क्रूरता।) इसे हल्के ढंग से कहा जाए तो यह घमंड है और अपनी क्षमताओं को ज्यादा आँकना है—वे बस अगुआ बनना चाहते हैं। लेकिन चीजें करने के उनके साधनों और उनकी विभिन्न अभिव्यक्तियों को देखा जाए तो वे क्रूर स्वभाव वाले लोग हैं। इन बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाले लोगों का, जिनमें नीच मानवता होती है, भ्रष्ट स्वभाव बहुत स्पष्ट होता है। उनके सभी क्रियाकलाप भ्रष्ट स्वभाव के स्तर तक बढ़ सकते हैं। बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाला होना उनके चरित्र की एक अभिव्यक्ति है; फिर अपनी बातों और क्रियाकलापों में वे अपने चरित्र के इस पहलू द्वारा शासित होते हैं और नतीजतन वे कई बेशर्म कर्म करते हैं और घमंड और क्रूरता जैसे विभिन्न भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं। इसलिए, कुछ हद तक किसी व्यक्ति के चरित्र से प्रकट होने वाली नीच अभिव्यक्तियाँ भ्रष्ट स्वभावों के तहत आती हैं; ये सभी अभिव्यक्तियाँ उनके स्वभाव सार से जुड़ी और उलझी होती हैं और किसी भी भ्रष्ट स्वभाव के उनके विशिष्ट प्रकाशन उनके नीच चरित्र से उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार नीच चरित्र और भ्रष्ट स्वभाव आपस में जुड़े हुए हैं। लोगों के भ्रष्ट स्वभाव शैतान द्वारा लोगों को भ्रष्ट किए जाने के बाद उत्पन्न होते हैं। उदाहरण के लिए, लोगों की मानवता में नीच चरित्र के पहलू, जैसे कि जिद्दी, संकीर्ण विचारों वाला और बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाला होना, ये सभी शैतान द्वारा लोगों को भ्रष्ट किए जाने और उन्हें प्रभावित करने के कारण होते हैं। सत्य स्वीकार करने से पहले सभी लोग सबसे पहले कई भ्रामक, बुरे और नकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों की भ्रष्टता और उनके द्वारा गुमराह किया जाना स्वीकार करते हैं—वे अपने दिलों में इन भ्रामक चीजों को अपने जीवन के रूप में स्वीकार करते हैं और इसका मतलब है कि भ्रष्ट स्वभाव उनका जीवन बन जाता है।
बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाला होने की कुछ अन्य अभिव्यक्तियाँ हैं। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करने, अपने से ऊपर के लोगों को धोखा देने और अपने से नीचे के लोगों से चीजें छिपाए रखने या कार्य-व्यवस्थाओं के खिलाफ जाने जैसे स्पष्ट क्रियाकलाप करते हैं और यहाँ तक कि उनके क्रियाकलाप कलीसियाई कार्य को बहुत नुकसान भी पहुँचाते हैं। फिर भी वे न सिर्फ चिंतन नहीं करते हैं और अपनी समस्याओं को जानने नहीं लगते हैं या कलीसियाई कार्य में बाधा डालने के अपने कुकर्म स्वीकार नहीं करते हैं, बल्कि इसके विपरीत वे यह भी मानते हैं कि उन्होंने अच्छी तरह से कार्य किया है और वे श्रेय और पुरस्कार चाहते हैं, हर जगह इस बात की डींग हाँकते हैं और गवाही देते हैं कि उन्होंने कितना कार्य किया है, उन्होंने कितना कष्ट सहा है, उन्होंने अपने कार्य के दौरान कितने योगदान दिए हैं, कार्य करते हुए सुसमाचार का प्रचार करके उन्होंने कितने लोग प्राप्त किए हैं, वगैरह-वगैरह। वे बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते हैं कि उन्होंने कितना बुरा कर्म किया है या कलीसियाई कार्य को कितना बड़ा नुकसान पहुँचाया है। यकीनन वे पश्चात्ताप भी नहीं करते हैं और अपना रास्ता तो बिल्कुल नहीं बदलते हैं। मुझे बताओ, क्या ऐसे लोग बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाले नहीं हैं? (वे हैं।) अगर तुम उनसे पूछते हो, “क्या तुमने कलीसियाई कार्य सत्य सिद्धांतों के अनुसार पूरा किया? क्या तुम्हारा कार्य परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं के अनुरूप था?” तो वे इस विषय को टाल देते हैं। फिर अगर दूसरे लोग यह उजागर करते हैं कि उन्होंने अपने कार्य के दौरान परमेश्वर के चढ़ावों को गंभीर नुकसान पहुँचाया—कुछ नुकसान कई सौ युआन तक के, कुछ कई हजार तक के और कुछ तो लाखों तक के थे—तो जब उनसे भरपाई करने के लिए कहा जाता है तो उनकी प्रतिक्रिया क्या होती है? यह सुनकर जमीर, विवेक और शर्म की भावना वाले सामान्य लोग एकाएक गिर पड़ेंगे, अपने दिलों की गहराई से अपमानित और शर्मिंदा महसूस करेंगे। वे मानेंगे कि उन्होंने अपना कार्य अच्छी तरह से नहीं किया और वे परमेश्वर के इतने कर्जदार हैं और इसलिए वे खुद को सही ठहराने का प्रयास नहीं करेंगे; भले ही उन्होंने कुछ ठोस कार्य किया हो और बहुत कष्ट सहा हो, उन्हें यह जिक्र करने लायक नहीं लगेगा। अगर उनका कार्य सही मायने में अच्छी तरह से किया गया होता तो क्या यह परमेश्वर के घर के कार्य को इतना ज्यादा नुकसान पहुँचा पाता? वह नहीं पहुँचा पाता। सिर्फ उनके द्वारा किए गए नुकसान को देखा जाए तो यह साबित किया जा सकता है कि उनका कार्य खराब तरीके से किया गया था और इसलिए उन्हें गलती मान लेनी चाहिए और पश्चात्ताप करना चाहिए। चाहे उनके द्वारा किए गए नुकसानों के लिए मुआवजे की जरूरत हो या न हो, कम-से-कम उन्हें यह तथ्य स्वीकारना चाहिए कि उनके कार्य ने कलीसियाई कार्य में बाधा और गड़बड़ी उत्पन्न की। सिर्फ पूरी तरह से बेशर्म लोग ही यह तथ्य स्वीकारने से इनकार करेंगे। वे कहेंगे, “अगर मैं नुकसान की भरपाई कर दूँ, तो भी मैं यह स्वीकार नहीं करूँगा कि मैंने कोई गलती की या अपने कार्य में कुछ गलत किया। अगर मैं कर्जे चुका दूँ, तो भी मैं एक प्रतिभाशाली व्यक्ति हूँ, परमेश्वर के घर के औसत व्यक्ति से बेहतर हूँ। मेरा इतिहास गौरवशाली रहा है!” यह किस तरह की मानवता है? मुझे बताओ, क्या इस किस्म के लोगों में शर्म की कोई भावना होती है? क्या वे “शर्म की भावना” शब्द बोल भी सकते हैं? अगर उनमें सही मायने में शर्म की कोई भावना नहीं है तो यह समस्यात्मक है। अगर वे अपने दिलों में स्पष्ट रूप से जानते हैं कि उन्होंने बुरा कर्म किया है, लेकिन वे अड़ियलपन से इसे जबानी तौर पर स्वीकारने से इनकार कर देते हैं तो क्या ऐसे लोग बहुत जिद्दी नहीं हैं? अगर वे अपने दिलों में यह पहचानते हैं कि उन्होंने बुरा कर्म किया है और इसे जबानी तौर पर स्वीकार भी सकते हैं तो वे अभी भी जमीर वाले व्यक्ति माने जाते हैं—उनमें अभी भी शर्म की भावना है। अगर वे न सिर्फ इसे जबानी तौर पर स्वीकारने से इनकार कर देते हैं, बल्कि अपने दिलों में उद्दंड भी हैं, लगातार प्रतिरोध करते रहते हैं और यहाँ तक कि हर जगह ये दावे फैलाते रहते हैं कि परमेश्वर का घर उनके साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार कर रहा है और वे बदकिस्मती के शिकार हैं, तो उनकी समस्या गंभीर है। कितनी गंभीर? उनमें बिल्कुल भी जमीर या विवेक नहीं है। जमीर में न्याय और दया दोनों की भावना शामिल होनी चाहिए। न्याय की भावना का एक पहलू यह है कि लोगों में शर्म की भावना होनी चाहिए। जब लोग शर्म को जानते हैं, सिर्फ तभी वे ईमानदार हो सकते हैं, उनमें न्याय की भावना हो सकती है और वे सकारात्मक चीजों से प्रेम कर सकते हैं और उन्हें पकड़कर रख सकते हैं। लेकिन अगर तुम्हारे जमीर में और न्याय की भावना में शर्म की भावना नहीं है और तुम शर्म नहीं जानते हो—और अगर कुछ गलत करने के बाद भी तुम इस बारे में शर्मिंदा महसूस नहीं करते हो और आत्म-चिंतन करना या खुद से नफरत करना नहीं जानते हो और तुम्हें कोई पछतावा नहीं होता है और इस बात की परवाह नहीं होती है कि दूसरे तुम्हें कैसे उजागर करते हैं और तुम झेंपते नहीं हो और तुममें कोई शर्म नहीं है—तो एक व्यक्ति के रूप में तुम्हारा जमीर समस्यात्मक है और यह भी कहा जा सकता है कि तुम्हारा कोई जमीर है ही नहीं। ऐसे में यह कहना मुश्किल है कि तुम्हारा दिल खराब है या बुरा है—यह मुमकिन है कि तुम्हारा दिल बुरा हो, यह भेड़िये का दिल हो; सकारात्मक नहीं बल्कि नकारात्मक हो। बिना जमीर और बिना मानवता वाले लोग राक्षस होते हैं। अगर तुम कुछ गलत करते हो और तुम्हें बिल्कुल भी शर्म महसूस नहीं होती है और तुम्हें पश्चात्ताप या अपराधबोध नहीं होता है और तुम सिर्फ आत्म-चिंतन ही नहीं करते हो बल्कि बहस करते हो, विरोध करते हो और खुद को बचाने और सही ठहराने का प्रयास भी करते हो, एक अच्छा दिखने वाला मुखौटा पहनते हो, तो अगर मानक मानवता के आधार पर मापा जाए, तो तुम्हारी मानवता समस्यात्मक है। चाहे तुम्हारा विवेक कैसा भी हो, अगर तुम जमीर के मानक पर खरे नहीं उतरते हो तो यह कहना मुश्किल है कि तुममें वास्तव में मानवता है या नहीं। चलो, हम इस बात पर चर्चा नहीं करते हैं कि तुम्हारी आंतरिक आत्मा क्या है, तुम कहाँ से आए हो या अतीत में तुमने क्या बुरा किया है; चलो, तुम्हारे पिछले जीवन के बारे में बात नहीं करते हैं। इस जीवन में तुम्हारे पास जो जमीर होना चाहिए सिर्फ उसके लिहाज से बात की जाए तो, अगर तुममें शर्म की भावना नहीं है तो एक व्यक्ति के रूप में तुम मानक-स्तर के नहीं हो। कुछ लोग कहते हैं, “मैं बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाला हूँ, इसलिए मैं जो भी चाहता हूँ उसे ले लेता हूँ।” लेकिन यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम ऐसा कहाँ करते हो—परमेश्वर के घर में ऐसा करना काम नहीं करेगा। परमेश्वर का घर वह जगह नहीं है जिस पर तुम पल सको। अगर तुम इस पर पलने की जिद करते हो तो तुम पर आफत आना तय है। कुछ लोग सोचते हैं, “मैं मगरमच्छ की तरह मोटी चमड़ी वाला हूँ। मैं जहाँ भी जाता हूँ, इसी तरीके से कार्य करता हूँ, ऐसे इधर-उधर घूमता रहता हूँ मानो मैं उस जगह का मालिक हूँ! मुझे परवाह नहीं है कि दूसरे लोग मेरे बारे में क्या कहते हैं—मेरे बारे में कौन क्या कर सकता है?” हो सकता है कि लोग तुम्हारे बारे में कुछ नहीं कर पाएँ, लेकिन चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, इसलिए तुम्हें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि हर चीज जो तुम करते हो, उसे परमेश्वर कैसे मापता है और कैसे उसका मूल्यांकन करता है, परमेश्वर तुम्हें कैसे परिभाषित करता है और तुम पर क्या फैसले सुनाता है। अगर तुम इस पर ध्यान नहीं देते हो, तो क्या तुम अभी भी परमेश्वर में विश्वास रखने वाले व्यक्ति हो? अगर तुम इस बारे में परवाह तक नहीं करते हो तो फिर तुम छद्म-विश्वासी हो। लोग तुम्हारे बारे में जो कहते हैं उसके प्रति तुम बेपरवाह हो सकते हो, लेकिन क्या तुम्हारे बारे में परमेश्वर के मूल्यांकन, तुम्हारे बारे में उसके नजरिये और उसके द्वारा तुम पर सुनाए गए फैसलों की तुम्हें परवाह नहीं करनी चाहिए? अगर परमेश्वर ने तुम्हारा यह मूल्यांकन किया है कि तुम बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाले हो, शर्मिंदगी से पूरी तरह बेखबर हो और तुममें शर्म की कोई भावना नहीं है, तुम्हारी मानवता में कई चीजों की कमी है और तुममें कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण चीजें नहीं हैं, तो तुम्हें एक नए सिरे से आचरण करना शुरू करना चाहिए—तुम्हें पश्चात्ताप करना चाहिए और अपने खुद के तर्क पेश करना बंद कर देना चाहिए। भले ही तुम्हारे पास हजारों-लाखों बहाने हों, लेकिन यह अकेला तथ्य कि तुम बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाले हो यह तय करने के लिए काफी है कि तुम्हारी मानवता और जमीर में एक बहुत बड़ी समस्या है। अकेले इसी से मापा जाए तो तुम्हारी समस्या बहुत गंभीर है। अगर तुम यह समझ सकते हो कि मैं क्या कह रहा हूँ, तो तुम्हें पश्चात्ताप करना चाहिए और अपने दिल में अपने खुद के तर्क पेश करना बंद कर देना चाहिए। तुम्हारा तर्क आवेगशीलता से, भावनाओं से, शैतान से उपजा है—अगर तुम यह मानते हो कि तुम्हारा तर्क गलत नहीं है, तो भी यह सत्य नहीं है। तुम्हारे बारे में परमेश्वर का मूल्यांकन पूरी तरह से तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों पर आधारित नहीं है। परमेश्वर तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों पर विचार करने से पहले तुम्हारी मानवता को देखता है। तुम्हारी मानवता कैसी है और हर मामले के प्रति तुम्हारा रवैया कैसा है यह तुम्हारे चरित्र से तय होता है। परमेश्वर जो देखता है वह निश्चित रूप से सटीक होता है और जिस मानक से वह तुम्हें मापता है वह भी सत्य के अनुरूप होता है। चाहे वह किसी को भी मापे, यह कभी भी उसके बाहरी रंग-रूप पर आधारित नहीं होता है बल्कि इस पर आधारित होता है कि वह वास्तव में क्या करता है, उसके दैनिक जीवन में उसके प्रकाशन और अभिव्यक्तियाँ क्या हैं, हर मामले को सँभालते समय उसके विचार, दृष्टिकोण और रवैये क्या होते हैं और साथ ही सकारात्मक चीजों के प्रति, सत्य के प्रति और परमेश्वर के प्रति उसका क्या रवैया है। चाहे अंत में परमेश्वर तुम्हें कैसे भी परिभाषित या मूल्यांकित करे, तुम्हारे साथ अन्याय नहीं होगा। यह तुम्हारी अस्थायी अभिव्यक्ति या कभी-कभार के अपराध पर आधारित नहीं है; यह एक ऐसा मूल्यांकन है जो तुम्हारी पूरी अभिव्यक्तियों पर आधारित है। इसलिए, हर व्यक्ति के बारे में परमेश्वर का मूल्यांकन सटीक और वस्तुनिष्ठ होता है। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ।) बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाला होने की अभिव्यक्ति में व्यक्ति का चरित्र शामिल होता है। यकीनन कुछ हद तक यह भ्रष्ट स्वभाव के स्तर तक भी पहुँच जाता है। क्योंकि ऐसे लोगों में मानवता का यह पहलू होता है, इसलिए यह उनसे कुछ निश्चित चीजें करवाता है और जब वे ये चीजें करते हैं तो अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं। चाहे किसी भी तरह का भ्रष्ट स्वभाव प्रकट हो, बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाले लोगों द्वारा प्रकट किए जाने वाले भ्रष्ट स्वभावों और उनके द्वारा किए गए क्रियाकलापों को उनकी मानवता से अलग नहीं किया जा सकता। इस प्रकार, किसी व्यक्ति का भ्रष्ट स्वभाव बदल सकता है या नहीं और उसे छोड़ा जा सकता है या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसका चरित्र कैसा है। अगर उसका चरित्र बुरा है, अगर वह सत्य का प्रतिरोध करता है, सत्य से दूर भागता है और उसके विमुख है और सत्य स्वीकारने से इनकार करता है तो उसके भ्रष्ट स्वभाव छोड़ पाना मुश्किल होगा और वह उद्धार प्राप्त करने में समर्थ नहीं होगा। लेकिन अगर अपने चरित्र के लिहाज से वह कुकर्मी नहीं है और वह सत्य समझ सकता है और स्वीकार सकता है, जिद्दी नहीं है और उसमें नीच चरित्र की समस्याएँ नहीं हैं, तो उसके भ्रष्ट स्वभाव छोड़े जा सकते हैं। हर किसी में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, लेकिन क्या चीज यह तय करती है कि व्यक्ति भ्रष्टता को छोड़ सकता है और उद्धार प्राप्त कर सकता है? (यह इस बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति का चरित्र कैसा है।) बिल्कुल—यह इस बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति की मानवता अच्छी है या खराब है।
चलो, इसके बाद हम संदेह करने की प्रवृत्ति होने पर चर्चा करें। हमने अभी-अभी ऐसी किस अभिव्यक्ति पर चर्चा की जो संदेह करने की प्रवृत्ति से कुछ हद तक मिलती-जुलती है? (संवेदनशीलता।) संवेदनशीलता किस तरह की समस्या है? (मानवता का एक दोष है।) संदेह करने की प्रवृत्ति संवेदनशीलता से एक स्तर ऊँची होती है; यह समस्या ज्यादा गंभीर है। संवेदनशीलता सिर्फ कुछ हद तक बचकानी मानवता का संकेत है, जैसे किसी बच्चे की होती है, जबकि संदेह करने की प्रवृत्ति में कुछ खास विचार और दृष्टिकोण शामिल होते हैं—इसे आमतौर पर बहुत ज्यादा सोचने के रूप में जाना जाता है जो खराब चरित्र को दर्शाता है। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति संदेह करने की प्रवृत्ति वाले व्यक्ति से दस युआन की कीमत वाला सामान खरीदने में मदद करने के लिए कहता है और खासतौर से जोर देता है, “तुम दस युआन से ऊपर बिल्कुल भी नहीं जा सकते। अगर वह सामान बहुत ही महँगा हो तो उसे मत खरीदना।” यह सुनने के बाद वह सोचता है, “क्या तुम सिर्फ शिष्ट बन रहे हो? तुम वास्तव में कोई ऐसा सामान चाहते हो जिसकी कीमत एक सौ युआन है, लेकिन तुम इसे कहने से शरमा रहे हो। तो फिर मैं इसे तुम्हारे लिए खरीदूँगा ताकि मैं तुम्हें खुश कर सकूँ और तुम्हारे मन में अपने बारे में सकारात्मक भावनाए छोड़ सकूँ।” फिर पता चलता है कि जब वह इसे वापस लेकर आता है तो दूसरा व्यक्ति कहता है, “यह तो बहुत ही महँगा है। मेरे पास सिर्फ दस युआन हैं; मेरे पास इतने सारे पैसे नहीं हैं।” तो क्या उस व्यक्ति के लिए एक सौ युआन की कीमत वाला सामान खरीदकर अंत में उसने उस व्यक्ति का नुकसान नहीं करवा दिया? फिर भी वह दूसरे व्यक्ति को समझ नहीं पाता है बल्कि यह संदेह करता है कि वह व्यक्ति ज्यादा पैसे खर्च नहीं करना चाहता है और उसका फायदा उठाने का प्रयास कर रहा है। मुझे बताओ, क्या शक करने की प्रव्रत्ति वाले ऐसे लोग बहुत परेशानी पैदा करने वाले नहीं होते हैं? (हाँ।) वे किस तरह से परेशानी पैदा करने वाले होते हैं? (उनके विचार बहुत ही पेचीदा होते हैं।) बहुत ज्यादा पेचीदा विचारों वाले लोगों के साथ मेलजोल रखना मुश्किल होता है। मुझे बताओ, क्या ईमानदार व्यक्तित्व वाले लोग ऐसे लोगों से मेलजोल रखने के इच्छुक होते हैं? (नहीं।) तुम्हें नहीं पता कि वे भीतर क्या सोच रहे हैं या उनके विचार किस दिशा में जा रहे हैं और तुम उनके इरादों की असलियत नहीं देख पाते हो या यह नहीं देख पाते हो कि वे तुम पर कैसे शक कर रहे हैं। इसलिए जब तुम सँभालने के लिए उन्हें कोई चीज सौंपते हो, भले ही वह स्पष्ट रूप से कोई बहुत ही सरल, छोटा मामला ही क्यों न हो, वे इसे बहुत पेचीदा और बोझिल बना देते हैं। क्योंकि वे इस प्रक्रिया में मामलों को बहुत ही ज्यादा पेचीदा बना देते हैं, इसलिए तुम भी थका हुआ महसूस करते हो और सोचते हो कि इसे खुद करना बेहतर होता। तुम ऐसे लोगों से मेलजोल नहीं रखना चाहते और बस उनसे दूर रहना चाहते हो। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हारे पास कोई ऐसी चीज है जिसकी अब तुम्हें जरूरत नहीं है और उसे ऐसे ही रख छोड़ना बरबादी होगी और उसे फेंक देना अफसोस की बात होगी, इसलिए तुम वह चीज इस किस्म के व्यक्ति को दे देते हो। वह न सिर्फ इसकी तारीफ नहीं करता है, बल्कि अपने दिल में शक भी करता है : “तुम यह मुझे क्यों दे रहे हो? इसके पीछे कुछ तो होगा। क्या तुम यह प्रयास कर रहे हो कि मैं सोचूँ कि तुम एक अच्छे व्यक्ति हो या मुझ पर तुम्हारा एक एहसान हो जाए या तुम मुझसे अपने लिए कुछ करने के लिए कह रहे हो?” तुमने कभी भी यह उम्मीद नहीं की कि वह इतने छोटे-से मामले के बारे में इतना ज्यादा सोचेगा, कि उसे थोड़ा-सा कुछ देने से इतना ज्यादा शक पैदा हो सकता है। उसके शक दूर करने के लिए तुम्हें उसे बहुत सारी चीजें कहनी पड़ती हैं। क्या यह बहुत परेशानी वाली बात नहीं है? तुम्हें इस व्यक्ति से नफरत महसूस होने लगती है और उसके बाद अगर तुम्हारे पास कोई चीज ज्यादा हो तो तुम वह चीज उसे देने के बजाय फेंक देना पसंद करोगे। तुम उसे क्यों नहीं देते? वह इसलिए नहीं है कि तुम बेरहम हो, बल्कि इसलिए क्योंकि तुम मुसीबत पैदा नहीं करना चाहते। इससे पहले किसी ने अभी-अभी एक जगह किराए पर ली थी और उसमें सफाई का कोई भी सामान मौजूद नहीं था। इसलिए, मैं घर से सफाई का कुछ सामान ले आया; सफाई के पदार्थ की कुछ बोतलें पूरी भरी हुई थीं, जबकि कुछ बोतलें आधी भरी हुई थीं। वह जगह किराये पर लेने वाले व्यक्ति ने उनकी तरफ देखा और कहा : “भले ही तुमने मुझे ये चीजें मुफ्त में दी हों, फिर भी मैं तुम्हें धन्यवाद नहीं देने वाला हूँ—ये उपयोग की हुई हैं। अगर वे नई होतीं तो क्या तुमने उन्हें मुझे दिया होता?” क्या ये शब्द दुःख पहुँचाने वाले नहीं हैं? (हाँ।) वे दुःख पहुँचाने वाले क्यों हैं? (इस तरह से उसने सद्भावना को विकृत कर दिया।) उसने मेरी सद्भावना को दुर्भावना माना। मैंने तुम्हें मुझे धन्यवाद देने के लिए नहीं कहा और न ही मैंने तुमसे सामान का भुगतान करने के लिए कहा। बात सिर्फ इतनी है कि तुम एक जगह किराए पर ले रहे हो और उसमें सफाई का कोई सामान मौजूद नहीं है और बाहर जाना और उन्हें खरीदना तुम्हारे लिए असुविधाजनक है। मैं बस अपने पास पड़े सामान से थोड़ा-सा हिस्सा तुम्हारे लिए लेकर आया ताकि तुम्हारे लिए चीजें और सुविधाजनक हो जाएँ। मैं तुम्हें इन चीजों का उपयोग करने देकर तुम्हारी खुशामद करने का प्रयास नहीं कर रहा था—मुझ पर तुम्हारा कोई एहसान बाकी नहीं है और मैंने तुमसे मेरा कोई एहसान लेने के लिए भी नहीं कहा। वह इतने छोटे-से मामले पर संदेह करने लगा : “ओफ! इसमें इतनी क्या बड़ी बात है? तुम मेरे लिए कुछ चीजें लेकर आए और अब तुम सोचते हो कि तुमने मुझ पर कोई एहसान कर दिया है! तुम जो सामान लेकर आए, वह वैसे भी कुछ अच्छा नहीं है—अगर तुम इसे यूँ ही दे रहे हो तो फिर यह अच्छा कैसे हो सकता है?” इस व्यक्ति से निपटना वाकई मुश्किल है। मैंने यह दावा नहीं किया कि ये चीजें किसी तरह के दुर्लभ अमृत हैं—ये तो बस कुछ आम सफाई के उत्पाद हैं। अगर तुम इनका उपयोग नहीं करना चाहते तो तुम्हें करने की जरूरत नहीं है। चीजों को इतना पेचीदा क्यों बनाना? मुझे एहसास हुआ कि इस व्यक्ति के साथ मिलजुलकर रहना और इससे निपटना मुश्किल है। अगर मैं कुछ भी नहीं लाया होता तो क्या इससे कम परेशानी नहीं हुई होती? ऐसा जरूरी नहीं है। कुछ भी नहीं लाने से भी परेशानी पैदा हो सकती थी। हो सकता है कि तब भी वह सोचता, “मैं यह जगह किराए पर ले रहा हूँ और तुम मेरे लिए सफाई का कोई सामान तक लेकर नहीं आए। हमें भाई-बहन होना चाहिए, फिर भी तुमने मेरे प्रति बिल्कुल भी प्रेम नहीं दिखाया!” तब भी उसके पास कहने के लिए कुछ होता। ऐसे लोगों का चरित्र बहुत खराब होता है। दूसरे लोग अच्छे हैं या बुरे, यह मापने के लिए वे हमेशा अपनी पसंद और मानकों का उपयोग करते हैं। वे कड़ी नजर से लगातार दूसरों की पड़ताल करते रहते हैं और उन्हें मापते हैं, यह सोचते हैं कि वे नैतिक रूप से बेहतर हैं जबकि दूसरे सभी लोगों का एक अंधकारमय पहलू है और दूसरे लोगों के पास हमेशा अपने खुद के मकसद होते हैं चाहे वे कैसे भी कार्य करें, जबकि अकेले वे ही भ्रष्ट नहीं हैं और पूर्ण हैं।
जिन लोगों में संदेह करने की प्रवृत्ति होती है उनका चरित्र खराब होता है। चूँकि उनका चरित्र खराब होता है, इसलिए वे अनिवार्य रूप से इस चरित्र के अधीन कार्य करेंगे। वे जो प्रकट करेंगे वह भ्रष्ट स्वभाव होगा, वह निश्चित रूप से सामान्य मानवता नहीं होगी। अगर यह सामान्य मानवता नहीं है तो फिर यह वास्तव में क्या है? यह भ्रष्ट स्वभाव से संबंधित है। जब संदेह करने की प्रवृत्ति होने की बात आती है तो ऐसे लोगों द्वारा अपने क्रियाकलापों और दूसरों के साथ मेलजोल में प्रकट किए गए प्रतिनिधि भ्रष्ट स्वभाव निश्चित रूप से दुष्टता और धोखेबाजी हैं। उनके विचार बहुत ही पेचीदा होते हैं, बहुत ही दुष्ट और कपटी होते हैं। चूँकि वे खुद तब तक एक तिनका नहीं तोड़ते हैं जब तक कि उनके लिए उसमें कुछ न हो, इसलिए वे यह मान लेते हैं कि बाकी सभी लोग भी ऐसे ही हैं। अगर तुम उस तरह के व्यक्ति नहीं हो तो भी वे इसका विश्वास नहीं करेंगे और अगर तुम समझाने का प्रयास करते हो तो भी इससे कोई फायदा नहीं होगा—वे तुम्हें बस इसी तरीके से देखते हैं। वे सभी चीजों, मामलों और सभी लोगों को देखने के लिए एक दुष्ट तरीके और दुष्ट स्वभाव का उपयोग करते हैं। अगर तुम जो करते हो वह उचित हो, मानवता की जरूरतों के अनुरूप हो, मानवता की तार्किकता के अनुरूप हो या सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हो, तो भी वे इसके पीछे कई प्रश्न-चिह्न लगाएँगे और तुमसे पूछेंगे, “तुम ऐसा क्यों कर रहे हो? तुम्हारा क्या मकसद है?” तुम कहते हो, “मेरा कोई मकसद नहीं है,” लेकिन वे इस पर विश्वास ही नहीं करेंगे—वे तुम पर एक मकसद थोपने और तुमसे इसे कबूल करवाने पर अड़े रहेंगे। क्या ऐसे लोग परेशान करने वाले नहीं होते हैं? (हाँ।) जिन लोगों में संदेह करने की प्रवृत्ति होती है उनके लिए दूसरों के साथ मिलजुलकर रहना मुश्किल होता है। ऐसे लोग निश्चित रूप से सरल और खुले नहीं होते हैं, और यकीनन वे ईमानदार लोग नहीं होते हैं। उनके चरित्र में खासतौर से ईमानदारी, दयालुता और तार्किकता के तत्व मौजूद नहीं होते हैं। तो उनके चरित्र के मुख्य अंश क्या हैं? संविभ्रम, धोखेबाजी, दुष्टता के साथ-साथ सादगी की कमी और बेईमानी। वे सभी लोगों और सभी मुद्दों को बहुत पेचीदा चीजों के रूप में देखते हैं। अगर तुम उनसे ईमानदारी से बात करते हो तो भी वे विश्लेषण करेंगे और सोचेंगे कि तुमने ऐसा क्यों कहा। अगर उन्होंने तुमसे लंबे समय तक बातचीत की हो और वे जानते हों कि तुम्हारा चरित्र कैसा है, तो भी वे बातचीत करते समय, मामले सँभालते समय या तुमसे मेलजोल रखते समय तुम्हारे प्रति संदेह का रवैया अपनाएँगे। इसलिए ऐसे लोग बहुत परेशान करने वाले होते हैं। उनके साथ बातचीत करने से बहुत सारे बोझ और औपचारिकताएँ जुड़ जाती हैं और तुम्हें अपनी तरफ से बहुत सारा गृह-कार्य करना पड़ता है और उन्हें जानना भी पड़ता है—यह जानना पड़ता है कि उन्हें कौन-सी चीजें पसंद नहीं हैं और उन्हें क्या करना या किस बारे में बात करना पसंद नहीं है। नहीं तो अगर तुम सावधान नहीं रहे तो तुम उन्हें नाराज कर सकते हो या उनकी नजर में उन्हें दुःख पहुँचा सकते हो। वे लोगों के साथ इस तरीके से पेश आते हैं तो वे परमेश्वर से कैसे पेश आते हैं? (वे परमेश्वर से भी इसी तरीके से पेश आते हैं।) क्या वे परमेश्वर से ईमानदारी से पेश आएँगे? (नहीं।) उदाहरण के लिए, जब कलीसिया उनके लिए कोई कर्तव्य करने की व्यवस्था करती है तो वे सोचना शुरू कर देते हैं, “क्या परमेश्वर को पता है कि मैं यह कर्तव्य कर रहा हूँ? क्या वह इसे याद रखेगा? मुझे कितना प्रयास करना चाहिए कि बस काम चल जाए और परमेश्वर के सामने इसे याद रखा जाए?” कुछ समय तक अपना कर्तव्य करने के बाद वे इसकी भी छानबीन करते हैं कि अगुआ और कार्यकर्ता उन्हें कैसे देखते हैं और क्या उनके पास उनके बारे में कोई नकारात्मक मूल्यांकन हैं। आखिर यह किस किस्म की मानवता है? वे जिस रवैये से मामले सँभालते हैं उसके जरिये प्रकट की गई मानवता को देखा जाए तो ऐसे लोग बहुत ही परेशान करने वाले होते हैं और उनके लिए सत्य स्वीकारना आसान नहीं होता है। ऐसा क्यों है? क्योंकि उनका ईमानदार होना मुश्किल है; उनके जमीर में न्याय की भावना नहीं होती है, उनका विवेक सही नहीं होता है और चीजों के बारे में राय बनाने का उनका तरीका बेतुका होता है। मैं क्यों कहता हूँ कि यह बेतुका है? क्योंकि वे अपेक्षाकृत अतिवादी होते हैं, उनमें चीजों पर अड़ जाने की प्रवृत्ति होती है और वे नीच होते हैं—वे चीजों को सामान्य मानवता के सोचने के तरीके का उपयोग करके नहीं देखते हैं। वे खुले और स्पष्टवादी नहीं होते हैं बल्कि एक खास तौर से अंधकारमय तरीके से जीते हैं। फिर भी उन्हें कभी नहीं लगता कि वे एक अंधकारमय तरीके से जीते हैं और यह तक सोचते हैं कि वे दूसरों से ज्यादा होशियार हैं और दूसरों की तुलना में ज्यादा परिष्कार के साथ और बारीकियों पर ध्यान देते हुए जीते हैं। वे खासतौर से अपनी चतुराई की सराहना करते हैं। इसे खुद को चतुर समझना कहते हैं। जो लोग खुद को चतुर समझते हैं उनमें अपनी मानवता के विवेक के लिहाज से और अपने जमीर में न्याय की भावना के लिहाज से बहुत कमी होती है। इसलिए, ऐसे लोगों की मानवता खराब होती है और दूसरे लोग उनसे संपर्क में रहने के इच्छुक नहीं होते हैं। भले ही कोई भी कुछ कहे, ऐसे लोग उसे एक मुद्दा बना देंगे। वे जो मतलब लगाते हैं, वे सभी अतिवादी चीजें हैं जो विकृत होती हैं, आवेगशीलता की होती हैं, शैतान की होती हैं और भावनाओं की होती हैं—ये सभी ऐसी चीजें हैं जो अंधकारमय और नकारात्मक होती हैं, ऐसी चीजें हैं जो सत्य के विपरीत होती हैं और सत्य का प्रतिरोध करती हैं। ये चीजें लोगों का सही मार्ग की तरफ बिल्कुल मार्गदर्शन नहीं कर सकती हैं। इसलिए, इस किस्म के लोग बहुत ही अप्रिय और घिनौने होते हैं। वे अँधेरे कोनों और अपनी छोटी-सी दुनिया में जीते हैं। वे खासतौर से आत्म-मुग्ध और आत्म-प्रशंसक होते हैं, सोचते हैं कि वे दूसरों से ज्यादा उत्कृष्ट, शानदार, सम्मानजनक और आलीशान जीवन जीते हैं—उन्हें कोई भी छू नहीं सकता है। दरअसल ऐसे लोगों का चरित्र बहुत ही अधम होता है और उनमें कोई वास्तविक गरिमा नहीं होती है। वास्तविक गरिमा की कमी का मतलब यह है कि उनका चरित्र खासतौर से खराब होता है क्योंकि उनकी मानवता से जो उत्पन्न होता है वे सभी अंधकारमय चीजें होती हैं जिन्हें खुले में नहीं लाया जा सकता, वे ईमानदार और निष्कपट चीजें नहीं होती हैं। इसलिए ऐसे लोगों में बोलने के लिए कोई गरिमा नहीं होती है। जिन लोगों में संदेह करने की प्रवृत्ति होती है उनके द्वारा कौन-से नतीजे लाए जाने की संभावना रहती है? सादे शब्दों में कहा जाए तो ऐसे लोग शातिर चालबाजियों से भरे होते हैं। संदेह करने की प्रवृत्ति होने का मतलब है कि ये लोग बहुत सारी शातिर योजनाएँ रखते हैं। देखो कि राक्षस राजा परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर कैसे जुल्म करते हैं और उन्हें कैसे गिरफ्तार करते हैं—वे इतनी सारी शातिर योजनाएँ रखते हैं जो अंत में लोगों को इस हद तक नुकसान पहुँचाती हैं कि उनके परिवार टूट जाते हैं जिनमें से कुछ के सदस्य मर जाते हैं और एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं। यह राक्षसों और राक्षस राजाओं की करतूत है। इसलिए संदेह करने की प्रवृत्ति रखने वाले लोगों में से कोई भी काम का नहीं होता है। परमेश्वर में विश्वास रखने वालों को सत्य सिद्धांतों के आधार पर लोगों और चीजों को देखना चाहिए, उन्हें बिना सोचे समझे संदेह में नहीं पड़ना चाहिए और वे जो कहते हैं उसके पीछे सबूत होना चाहिए। किसी व्यक्ति या मामले को देखते समय तुम्हारे मन में जो विचार उत्पन्न होते हैं कम-से-कम वे दूसरों के लिए सकारात्मक और सुखद होने चाहिए। इससे भी बेहतर है कि वे सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होने चाहिए, दूसरों के लिए मददगार होने चाहिए और उनका दूसरों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ना चाहिए। लेकिन संदेह करने की प्रवृत्ति वाले लोगों द्वारा उत्पन्न किए गए कोई भी विचार और दृष्टिकोण सत्य के अनुरूप नहीं होते हैं; वे कम-से-कम सकारात्मक चीजें तो नहीं होती हैं—यानी ऐसे लोग जिस परिप्रेक्ष्य से समस्याओं पर विचार करते हैं या वे जो विचार और धारणाएँ उत्पन्न करते हैं, वे सत्य के अनुरूप नहीं होती हैं। इसलिए इस किस्म के लोग अँधेरे कोनों में रहते हैं और उनके पास बोलने के लिए कोई सत्यनिष्ठा या गरिमा नहीं होती है। उनके विचारों से उत्पन्न होने वाली सभी चीजें अंधकारमय और दुष्ट होती हैं—ये चीजें सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं होती हैं और ये लोगों या उनके जीवन पर सकारात्मक प्रभाव नहीं डालेंगी। अगर तुम ऐसे लोगों के संदेह से उत्पन्न होने वाले विभिन्न विचार और दृष्टिकोण स्वीकारते हो, तो तुममें जहर भर जाएगा और तुम उनके द्वारा नीचे घसीट लिए जाओगे—यह शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बराबर है। लेकिन अगर तुममें ऐसे लोगों का भेद पहचानने की क्षमता है और तुम उन्हें नकारात्मक उदाहरण मानते हो, तो तुम कुछ प्रगति कर सकते हो और नकारात्मक चीजों को समझने में भेद पहचानने की कुछ क्षमता प्राप्त कर सकते हो। संदेह करने की प्रवृत्ति होने पर हमारी चर्चा यहीं समाप्त होती है।
चलो, इसके बाद हम अयोग्यता के बारे में बात करें। हर कोई समझता है कि अयोग्यता का क्या मतलब है—इसका मतलब है किसी भी चीज को अच्छी तरह से सँभालने में असमर्थ होना, शक्तिहीन दिखना, ठीक वैसे ही जैसे लोग अक्सर कहते हैं : “तुम इतने अयोग्य क्यों हो? तुम्हारा वाकई कोई भविष्य नहीं है!” क्या अयोग्यता अच्छी चीज है? (नहीं।) तो चलो इसे श्रेणीबद्ध करें—यह क्या है? (यह मानवता का एक दोष है।) अयोग्यता स्पष्ट रूप से मानवता का एक दोष है। अयोग्यता का मतलब है कि व्यक्ति के पास मामले सँभालने में बहुत कम बुद्धिमत्ता है और जीवित बचे रहने की खराब क्षमताएँ हैं—इसे ही अयोग्यता कहा जाता है। कुछ लोग बेढंगे तरीके से बोलते हैं, खुद को व्यक्त करने में असमर्थ होते हैं; कुछ लोग शर्मीले, अंतर्मुखी व्यक्तित्व वाले भी होते हैं—जब उन्हें बहुत सारे लोगों के सामने बोलना पड़ता है या सबकी नजरों में आना पड़ता है, तो उन्हें मंच पर आने से भय लगता है, वे दब्बू महसूस करते हैं और बोलने की हिम्मत नहीं करते हैं और अक्सर दूसरे लोगों द्वारा डराए-धमकाए जाते हैं। कुछ कुकर्मी विश्वास करते हैं कि ऐसे लोगों को डराना-धमकाना उचित है और यह बहुत मजेदार और आनंददायक है—वे इस किस्म के लोगों का हर रोज मजाक उड़ाते हैं और उन्हें छेड़ते हैं। अयोग्य लोगों में मामले सँभालने की खराब क्षमता होती है। ऐसा हो सकता है कि उनमें से कुछ लोगों में जीवित बचे रहने की क्षमताएँ भी खराब हों, वे पैसे कमाने में असमर्थ हों और हमेशा दूसरों के आस-पास बहुत डरपोक और अत्यधिक सतर्क बने रहते हों। जब वे ताकतवर लोगों को देखते हैं तो उनसे दूर भागते हैं और बोलने की हिम्मत नहीं करते हैं। यहाँ तक कि जब उन्हें डराया-धमकाया जाता है तो वे प्रतिरोध करने की हिम्मत नहीं करते हैं, वे डरते हैं कि कहीं वे दूसरों को नाराज न कर दें। इस किस्म के लोगों की मानवता में अयोग्यता की अभिव्यक्तियाँ देखी जाएँ तो यह सिर्फ एक तरह का मानवता का दोष है। किसी की अयोग्यता कभी भी उसमें गलत विचार और दृष्टिकोण उत्पन्न होने या उसके द्वारा खुद पर या दूसरों पर कोई प्रतिकूल प्रभाव डालने का कारण नहीं बनी; इसलिए अयोग्यता सिर्फ मानवता का एक दोष है। क्या कोई अयोग्य व्यक्ति बनना चाहता है? (नहीं।) कोई भी अयोग्य व्यक्ति नहीं बनना चाहता—ऐसा क्यों है? अयोग्य लोगों को डराया-धमकाया जाता है और हर कोई उन्हें नीची नजर से देखता है, है ना? (सही कहा।) अगर तुमसे बुरा और अयोग्य होने के बीच चुनने के लिए कहा जाए तो तुम निश्चित रूप से अयोग्य होने के बजाय बुरा होना चुनोगे। तुम मन ही मन सोचोगे : “मैं कभी भी अयोग्य व्यक्ति नहीं बनूँगा! इस समाज में अयोग्य लोगों के साथ बुरा व्यवहार किया जाता है और उन्हें डराया-धमकाया जाता है, वे लोकप्रिय नहीं होते हैं; चाहे वे कहीं भी चले जाएँ, उन्हें नीची नजर से देखा जाता है और दूसरे उन्हें पैरों तले कुचल डालते हैं। न सिर्फ उनमें मौजूदगी की कोई भावना नहीं होती है, बल्कि उनके जीवित रहने का अधिकार भी छीन लिया जा सकता है। लेकिन कुकर्मी होना अलग है—कुकर्मी जहाँ भी जाते हैं वहीं दूसरे लोग उनसे डरते हैं और उनके साथ बहुत सम्मान से पेश आते हैं। कोई भी उन्हें भड़काने की हिम्मत नहीं करता है। वे जहाँ भी जाते हैं वहीं विशेषाधिकारों का आनंद लेते हैं और दूसरों को पैरों तले कुचल भी सकते हैं। कुकर्मी इस दुनिया में जहाँ भी होते हैं, फलते-फूलते रहते हैं।” अगर तुम लोगों से अभी चुनने के लिए कहा जाए तो तुम लोगों में से कोई भी अयोग्य व्यक्ति नहीं बनना चाहेगा—तुम सभी कुकर्मी बनना चाहोगे। क्या यह दृष्टिकोण सही है? (नहीं।) यह सही क्यों नहीं है? यह किस सत्य सिद्धांत का विरोध करता है? अयोग्यता मानवता का एक दोष है। सबसे आम अभिव्यक्तियों में किसी भी चीज को अच्छी तरह से सँभालने में असमर्थ होना, भेदभाव किया जाना और अलग-थलग किया जाना शामिल है। क्योंकि अयोग्य लोगों को डराया-धमकाया जाता है और समाज में उन्हें पैरों तले कुचला जाता है, इसलिए कोई भी अयोग्य होने का इच्छुक नहीं होता है। सभी लोग उन लोगों से ईर्ष्या करते हैं जो सक्षम और कुशल होते हैं और वे सभी दूसरों से अलग दिखना चाहते हैं, शक्ति और प्रभाव प्राप्त करना चाहते हैं और दूसरों को पैरों तले कुचल डालना चाहते हैं, किसी भी समूह में विशेषाधिकार और प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहते हैं, वे न सिर्फ दूसरों द्वारा डराए-धमकाए जाने से बचना चाहते हैं, बल्कि जब चाहे तब दूसरों को धमकाने में समर्थ भी होना चाहते हैं। क्या इस तरह का विचार और दृष्टिकोण सही है? क्या यह सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) तुम लोगों ने इतने सारे सत्य सुने हैं, फिर भी तुम अब भी कुकर्मियों को स्वीकारते हो—इसका मतलब है कि तुम लोगों का स्वभाव भी काफी दुष्ट है। तुम्हें जो भी कुकर्मी दिखाई देता है, तुम उससे ईर्ष्या करते हो और उसकी सराहना करते हो। तुम्हें अपने दिल में अच्छी तरह से पता है कि कुकर्मी बुरे होते हैं, फिर भी तुम उनका अनुसरण करने से खुद को रोक नहीं पाते हो, ऐसा महसूस करते हो कि ऐसा करने से तुम्हें सहारे का एक साधन मिल जाता है और यह तुम्हें डराए-धमकाए जाने से बचाता है। जब तुम अयोग्य लोगों को देखते हो तो वे तुम्हें घिनौने लगते हैं और तुम उन्हें नीची नजर से देखते हो, यहाँ तक कि उन्हें पैरों तले कुचल डालना भी चाहते हो। लेकिन क्या तुमने कभी सोचा है कि अगर तुमने कुकर्मियों का अनुसरण किया तो तुम कितने बुरे कर्म करोगे और तुम्हें कितना प्रतिफल मिलेगा? अगर तुम कुकर्मियों का अनुसरण करते हो तो तुम्हें उद्धार मिलने की कितनी संभावना होगी? अगर तुम कुकर्मियों का अनुसरण करते हो तो क्या तुम बुरे कर्म करने से बच पाओगे? मान लो कि तुम कुकर्मियों का अनुसरण करते हो, ईमानदारी से उनकी सेवा करते हो और उनके मातहत के रूप में कार्य करते हो। वे तुम्हारे साथ कुछ फायदा बाँट सकते हैं और तुम दूसरों को पैरों तले कुचलने के लिए उनका अनुसरण करने में समर्थ हो सकते हो और सबसे बढ़िया भोजन और पेय प्राप्त कर सकते हो, बहुत आनंद का अनुभव कर सकते हो, डराए-धमकाए जाने से बच सकते हो और इस जीवन में दूसरों के बीच रुतबा हासिल कर सकते हो। लेकिन इन चीजों का आनंद लेने के लिए तुम्हें बहुत सारे बुरे कर्म करने पड़ेंगे! क्या तुम्हें पता है कि तुम्हें कितना सारा प्रतिफल मिलेगा और कितनी कड़ी सजा मिलेगी? क्या यह सही मार्ग है? (नहीं।) तो क्या तुम लोग अब भी अयोग्य व्यक्ति नहीं बनने और धमकाए जाने से बचने की खातिर बुरे कर्म करने और सजा पाने का चुनाव करने का बलिदान देने को तैयार हो—इस जीवन में आनंद के बदले में अपने गंतव्य और किस्मत का बलिदान दोगे? क्या यह तुम लोगों का विचार और दृष्टिकोण है? कुछ लोग वास्तव में इस तरह का दृष्टिकोण रखते हैं—वे अयोग्य और डराए-धमकाए जाने के बजाय कुकर्मी बनना चुनेंगे। क्या यह कुकर्मियों के मार्ग पर चलने की चाह करना नहीं है? अयोग्यता सिर्फ मानवता का एक दोष है—इसमें इतना बुरा क्या है? क्या दूसरों को डराना-धमकाना और बुरे कर्म करना वाकई बेहतर विकल्प है? अगर परमेश्वर तुम्हें भूखा नहीं रहने देता है और तुम्हें खाने के लिए भोजन प्रदान करता है, तो क्या तुम वाकई भूख से मर सकते हो? अगर परमेश्वर तुम्हें आनंद, आजादी, खुशी, सुख और शांति से जीने की अनुमति देता है तो तुम्हें इनमें से किसी भी चीज की कमी नहीं होगी। तो क्या हुआ अगर दूसरे लोग तुम्हें डराते-धमकाते हैं? कोई भी तुमसे ये चीजें नहीं छीन सकता—परमेश्वर तुम्हें जो प्रदान करता है, वह तुमसे कोई नहीं छीन सकता। अगर तुम कुकर्मियों का अनुसरण करते हो और कुकर्मियों के मार्ग पर चलते हो तो तुम जिन सुखों का आनंद लोगे वे सब पापपूर्ण सुख होंगे। इसके अलावा, बुरे कर्म करके तुम जो भी पैसे या भौतिक सुख हासिल करोगे, वह जबरन जब्ती से हासिल किया हुआ होगा, इस जीवन में तुम जिस सुख का अनुभव करोगे वह परमेश्वर ने तुम्हें जो दिया है उससे ज्यादा होगा और इसलिए तुम्हें भविष्य में बहुत से जन्मों तक इसका प्रतिदान देना पड़ेगा। सजा पाने की कीमत पर इस जीवन में देह के सुख हासिल करना—क्या यह सही मार्ग पर नहीं चलना नहीं है? तुम लोग डराए-धमकाए जाने के बजाय कुकर्मी बनना चुनोगे—यह अपनी आत्मा की गहराइयों में बुराई के प्रति तुम लोगों की धारणा और बुराई को संजोए रखने का भाव दर्शाता है। तो अयोग्य होने में इतना बुरा क्या है? मानवता के परिप्रेक्ष्य से देखा जाए तो यह एक प्रकार का दोष है, लेकिन यह एक जन्मजात स्थिति भी है जो एक ऐसी चीज है जिसे लोग बदल नहीं सकते। अयोग्य लोग अपनी मर्जी से अयोग्य नहीं बने। हालाँकि यह एक दोष है लेकिन यह भ्रष्ट स्वभाव नहीं है, यह व्यक्ति के चरित्र की समस्या नहीं है। तो इसमें इतना बुरा क्या है? अगर तुम्हें तुम्हारी अयोग्यता और निम्न रुतबे के कारण अक्सर डराया-धमकाया जाता है और तुम इस दुनिया के अन्याय और बुराई को और इस समाज के अंधकार को गहराई से समझ सकते हो और नतीजतन परमेश्वर की संप्रभुता स्वीकारने के लिए ईमानदारी से उसके सामने आते हो और खुशी से परमेश्वर के प्रभुत्व और आयोजनों के प्रति समर्पण करते हो और परमेश्वर को तुम्हारी किस्मत का प्रभार लेने देते हो—तो क्या यह अयोग्यता तुम्हारे लिए सुरक्षा का एक रूप नहीं है? अयोग्यता कोई नकारात्मक चीज नहीं है; यह सिर्फ एक प्रकार का मानवता का दोष है। दोष का क्या मतलब है? इसका मतलब अपर्याप्तता, एक छोटी-सी समस्या, एक दाग है—यह सिर्फ कुछ ऐसा है जो अपूर्ण है, जिसमें कुछ कमी है, जो पूरी तरह से व्यक्ति की पसंद के मुताबिक नहीं है या आदर्श नहीं है, लेकिन यह खराब या नीच चरित्र नहीं दर्शाता है। तो तुम यह छोटा-सा दोष क्यों बर्दाश्त नहीं कर सकते? इतना ही नहीं, यह छोटा-सा दोष तुम्हारे जीवन प्रवेश के लिए बड़ा फायदा ला सकता है। या यह कहा जा सकता है कि कुछ लोग, क्योंकि उनमें मानवता का यह दोष, यह जन्मजात स्थिति होती है, अंत तक पूरे दिल से परमेश्वर का अनुसरण करने में ज्यादा सक्षम होते हैं। अंत में, क्योंकि वे सत्य स्वीकार सकते हैं, परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हैं और परमेश्वर का भय मानने वाला दिल रख सकते हैं, वे अपने भ्रष्ट स्वभाव छोड़ देने और उद्धार प्राप्त करने में समर्थ होते हैं। इस परिप्रेक्ष्य से यह एक आशीष है—लोगों को अयोग्य होने से इनकार नहीं करना चाहिए। अयोग्य होने में इतना बुरा क्या है? अयोग्यता के कारण व्यक्ति का भ्रष्ट स्वभाव बदतर नहीं हो जाएगा। परमेश्वर किसी को इसलिए नीची नजर से नहीं देखेगा या उसे बचाने से इनकार नहीं करेगा क्योंकि वह अयोग्य है और न ही अयोग्यता उसके सत्य स्वीकारने या बचाए जाने को प्रभावित करेगी। इसलिए, तुम लोगों का विचार और दृष्टिकोण बदलना होगा—यह अब भी काफी दूर है। कुछ लोग कहते हैं, “मैं अयोग्य व्यक्ति बनने के बजाय कुकर्मी बनना पसंद करूँगा। अयोग्य लोगों के पास कोई भविष्य नहीं होता है, उन्हें हर कोई नीची नजर से देखता है और यहाँ तक कि वे खुद को भी नीची नजर से देखते हैं। अयोग्य व्यक्ति होना निरर्थक है; कुकर्मी होना शानदार है—तुम जो चाहे कर सकते हो, जिसे डराना-धमकाना आसान लगता हो, उसे डरा-धमका सकते हो और कोई भी प्रतिरोध करने की हिम्मत नहीं करता है। उस तरीके से जीना कितना तड़क-भड़क वाला है!” तड़क-भड़क में क्या फायदा है? अगर तुम दुनिया में सफल होते हो और तड़क-भड़क वाले तरीके से रहते हो तो तुम्हारी संभावनाएँ और गंतव्य बरबाद हो जाएँगे। अब तुम परमेश्वर के सामने नहीं आ पाओगे और अब तुम परमेश्वर से लगाव महसूस नहीं करोगे; अब परमेश्वर तुम्हें आकर्षित नहीं करेगा और अब परमेश्वर के घर में जीवनयापन का परिवेश और कार्य करने का परिवेश तुम्हें आकर्षित नहीं करेगा। तुम परमेश्वर को छोड़ दोगे और ऐसे जीवनयापन के परिवेश की तलाश करोगे जहाँ तुम अपनी सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं का उपयोग करना शुरू सको और अपनी कीमत वसूल कर सको। परमेश्वर का घर लोगों के कुकर्मों को सीमित करता है और कोई भी कुकर्मी परमेश्वर के घर में कहीं नहीं पहुँच सकता या डटा नहीं रह सकता। अगर तुम कुकर्मियों को पसंद करते हो और उनमें से एक बनना चाहते हो तो क्या अब भी तुम परमेश्वर के घर में रह सकते हो? देर-सवेर तुम्हें दूर कर दिया जाएगा। तुम न सिर्फ एक अच्छा गंतव्य प्राप्त करने में विफल रहोगे, बल्कि मौत के बाद तुम्हें उस बुरे कर्म की सजा भी मिलेगी जो तुमने किया। इसलिए, वैसे तो अयोग्यता मानवता का एक दोष है, लेकिन यह कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं है और न ही इसका मतलब यह है कि व्यक्ति की मानवता बुरी है। ऐसा कौन है जिसमें कुछ खामियाँ नहीं हैं? अयोग्यता ठीक वैसी ही है जैसे कुछ लोग हकलाने के साथ पैदा होते हैं या कुछ लोग जरा-से बदसूरत पैदा होते हैं—ये सभी जन्मजात दोष हैं। मनुष्यों में त्वचा का रंग अलग-अलग होता है—कुछ लोग गोरे पैदा होते हैं, कुछ लोग पीले रंग की त्वचा लेकर पैदा होते हैं और कुछ लोग काले रंग की त्वचा लेकर पैदा होते हैं। यह एक जन्मजात स्थिति है। हो सकता है कि पीले रंग की त्वचा वाले लोग इतने स्वस्थ न दिखें, उनकी रंगत इतनी बढ़िया नहीं होती है—यह एक छोटा-सा दोष है। काली त्वचा वाले लोग ज्यादा तगड़े दिखते हैं, फिर भी कोई भी काली त्वचा पाना नहीं चाहता। आमतौर पर गोरी त्वचा वाले लोगों से ईर्ष्या की जाती है लेकिन उनमें से भी कुछ लोगों को लगता है कि बहुत ज्यादा फीकी त्वचा अच्छी नहीं है और इसलिए वे अपनी त्वचा को धूप में झुलसाकर काँसे रंग का बनाना पसंद करते हैं, वे मानते हैं कि इससे वे स्वस्थ दिखते हैं और उनकी त्वचा में चमक आ जाती है। देखा तुमने, अयोग्यता लोगों की विभिन्न जन्मजात स्थितियों जैसी ही है—बस यही है कि यह एक तरह का दोष है। तो क्या यह एक बड़ी समस्या है? (नहीं।) इसलिए, भले ही यह समस्या मानवता का एक दोष हो, लेकिन यह तुम्हारे द्वारा सत्य की स्वीकृति या सत्य की तुम्हारी समझ को प्रभावित नहीं करती है। तो क्या तुम लोग अब भी अयोग्य व्यक्ति होने का प्रतिरोध करते हो? (अब नहीं करते।) क्या जब तुम अयोग्य लोगों को देखोगे तो अब भी उन्हें डराओगे-धमकाओगे? (नहीं।) तुम उन्हें काफी डराते-धमकाते थे, है ना? क्या अब जब तुम अयोग्य लोगों को देखोगे तो अब भी उन्हें नीची नजर से देखोगे और नीचा दिखाओगे? (नहीं।) अगर तुम खुद एक अयोग्य व्यक्ति हो तो तुम्हें तो और भी खुद को नीची नजर से नहीं देखना चाहिए। अगर तुम अयोग्य हो, तो यही सही—परमेश्वर के वचनों के अनुसार ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास करो। भले ही तुम अयोग्य हो, लेकिन तुम्हें ईमानदार होना चाहिए और धोखेबाज नहीं होना चाहिए और परमेश्वर को इस तरह के व्यक्ति पसंद हैं। परमेश्वर को क्या पसंद है? उसे तुम्हारी अयोग्यता पसंद नहीं है। उसे जो पसंद है वह यह है कि तुम अपनी अयोग्यता के कारण एक ईमानदार व्यक्ति बनने को तैयार हो; वह यह है कि चूँकि तुम्हें नीची नजर से देखा जाता है और लोग तुम्हें पसंद नहीं करते हैं, इसलिए तुम परमेश्वर को खुश करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए एक ईमानदार व्यक्ति बनने के तरीकों के बारे में सोचते हो और तुम वही करते हो जो परमेश्वर कहता है। इस तरह से तुम्हारी अयोग्यता एक फायदा बन जाती है, है ना? (हाँ।) क्या अब तुम लोगों का दृष्टिकोण बदल गया है? (हाँ।) यकीनन यह जरूरी नहीं है कि सभी अयोग्य लोग सत्य स्वीकारने में समर्थ हों। कुछ लोगों की मानवता में अयोग्यता का दोष होने के अलावा उनके चरित्र में भी समस्याएँ होती हैं। इसे सामान्य सिद्धांत नहीं बनाया जा सकता। अयोग्यता अपने आप में कोई बड़ी समस्या नहीं है लेकिन तुम्हें यह भी देखना चाहिए कि व्यक्ति का चरित्र कैसा है। अगर कोई धोखेबाज है या नीच चरित्र वाला है—अगर वह बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाला है, संदेह करने की प्रवृत्ति वाला है, संवेदनशील है, जिद्दी है या यहाँ तक कि शातिर स्वभाव का भी है—तो वह व्यक्ति किसी काम का नहीं है। इसलिए, यह जरूरी नहीं है कि अयोग्य व्यक्ति अच्छे चरित्र वाला व्यक्ति हो। ठीक है, अयोग्यता पर हमारी चर्चा यहीं समाप्त होती है।
अगली अभिव्यक्ति दयालुता है। यह अभिव्यक्ति मानवता का एक गुण है। इतनी सारी चर्चा करने के बाद अंत में हम मानवता के एक गुण पर आ पहुँचे हैं; सही मायने में मानवता के बहुत-से गुण नहीं हैं। दयालुता मानवता का एक प्रकार का गुण है। चूँकि यह एक गुण है, इसलिए हमें इसके बारे में विस्तार से बात करनी पड़ेगी क्योंकि ज्यादातर लोगों में मानवता के उन इने-गिने गुणों की अभिव्यक्तियाँ नहीं होती हैं जो लोगों में पाए जा सकते हैं। तो आओ, हम एक नजर डालें; दयालुता के गुण कहाँ निहित होते हैं? (दयालुता का मतलब है कि कोई व्यक्ति अपेक्षाकृत सच्चा है। जब वह चीजें सँभालता है तो दूसरे लोग अपेक्षाकृत आश्वस्त महसूस करते हैं। वह खुद को सौंपे गए काम अच्छी तरह से सँभालने के लिए दायित्व उठाता है।) (दयालु लोगों में अपेक्षाकृत अच्छा नैतिक आचरण होता है, वे दूसरों का ध्यान रखते हैं और दूसरों की तरफ से सोचते हैं।) दूसरों की तरफ से सोचना—यह एक महान शैली है! ऐसे लोग महान होते हैं, लेकिन क्या दयालुता इतनी महान है? (नहीं।) दयालुता का साफ-साफ यह मतलब है कि व्यक्ति के विचार इतने जटिल नहीं हैं; वे अपेक्षाकृत सरल हैं, कपटी नहीं हैं; ये लोग उदार होते हैं, दूसरों के प्रति कठोर नहीं होते हैं और दूसरों से संबंध बनाते समय व्यक्तिगत फायदों और नुकसानों का हिसाब नहीं लगाते हैं। अगर कोई उनका अपमान करता है तो वे कुछ देर के लिए परेशान हो जाते हैं, लेकिन फिर वे सोचते हैं, “इसे भूल जाओ” और मामले को जाने देते हैं। अगर किसी व्यक्ति ने लंबे समय से उन्हें पैसे लौटाने हैं और अब तक नहीं चुकाए हैं तो वे इस पर विचार करते हैं : “उससे भुगतान करने का आग्रह करना शर्मनाक होगा। इसके अलावा, वह मुश्किल परिस्थिति में है और उस समय मेरी आर्थिक स्थिति उससे बेहतर थी। तो मैंने उसे उधार दे दिया, बस। मैं इसे बस गरीबों की मदद करना मानूँगा।” देखा तुमने, उनके विचार अपेक्षाकृत उदार और सहनशील हैं। उदाहरण के लिए, जब दूसरे लोग उन्हें गलत समझते हैं, तो वे बुरा नहीं मानते और अपनी सफाई पेश नहीं करते। जब दूसरे लोग उनके बारे में राय बनाते हैं और उन्हें बेवकूफ कहते हैं तो वे परवाह नहीं करते। अपना कर्तव्य करते समय उन्हें ऐसा महसूस नहीं होता है कि यह थकाऊ है और वे वे चीजें करते हैं जिन्हें दूसरे लोग करने को तैयार नहीं होते हैं। कोई उनका मजाक उड़ाता है, कहता है, “बाकी सभी लोग आराम कर रहे हैं तो तुम अभी भी काम क्यों कर रहे हो?” वे जवाब देते हैं, “जरा-सा और काम करने में क्या नुकसान है? इससे मुझे थकान नहीं होती है। क्या काम करना वाकई किसी को थका सकता है? अगर दूसरे लोग इसे नहीं करते हैं तो उन्हें परेशान मत करो। चूँकि मैं इसे कर सकता हूँ इसलिए मैं बस जरा-सा और करूँगा।” वे ऐसे मामलों को लेकर ज्यादा परेशान नहीं होते हैं और कार्य करने के लिए कार्रवाई करते हैं। वे फायदों और नुकसानों को लेकर ज्यादा परेशान नहीं होते हैं और न ही वे प्रतिष्ठा या रुतबे को लेकर ज्यादा परेशान होते हैं। यहाँ तक कि जब वे खुद नुकसान सहते हैं तो वे इसका जिक्र नहीं करते हैं। जब दूसरे लोगों के सामने मुश्किलें आती हैं तो वे मदद करने की पहल करते हैं। उनकी सहायता में उनका अपना इरादा और उद्देश्य नहीं होता है और अगर दूसरे लोग उनके एहसान का बदला चुकाना चाहते हैं तो उन्हें लगता है कि थोड़ी-सी मदद करना कोई बड़ी बात नहीं है और यह कुछ ऐसा है जो उन्हें करना चाहिए। दूसरे लोगों की मदद करने के बाद अगर वे लोग उनकी सराहना न भी करें, तो भी वे ऐसी चीजों को लेकर ज्यादा परेशान नहीं होते हैं। जब दूसरों की मदद करने का समय आता है तो वे फिर भी मदद करते हैं। क्या ऐसे लोग बहुत सारे हैं? (बहुत सारे नहीं हैं।) ऐसे लोग बहुत सारे नहीं हैं। भले ही वे दयालु हों, लेकिन वे जिस तरीके से आचरण करते हैं उसकी कुछ सीमाएँ होती हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग हमेशा ऐसे व्यक्ति का फायदा उठाना चाहते हैं, उसे बेवकूफ समझते हैं। फायदा उठाने के बाद वे उसे फुसलाने के लिए कुछ सुखद बातें कहते हैं और कुछ समय बाद वे फिर से उसका फायदा उठाते हैं। जब दयालु व्यक्ति देखता है कि यह कभी खत्म नहीं होगा, तो वह उनके साथ झगड़ा, बहस या तर्क नहीं करता है। वह अपने दिल में जानता है कि ऐसे लोग अच्छे नहीं होते हैं और मेलजोल रखने के लिए उपयुक्त नहीं होते हैं, इसलिए वह तब से उन्हें अनदेखा कर देता है। लेकिन वह पीठ पीछे उनके बारे में राय नहीं बनाता। ज्यादा-से-ज्यादा जब कोई इस किस्म के व्यक्ति के बारे में उससे पूछता है तो वह कहता है, “उस व्यक्ति को बस छोटे-मोटे फायदे उठाना अच्छा लगता है।” वह बढ़ा-चढ़ाकर नहीं बताता और न ही वह आवेगशीलता से लोगों के बारे में राय बनाता है; वह बस मौजूदा मामले के बारे में बोलता है। दयालु लोगों की मानवता वाकई काफी अच्छी होती है। उनका गुण यह है कि वे चीजों को लेकर ज्यादा परेशान नहीं होते हैं। वे चाहे कुछ भी करें, वे आवेगशीलता, मनोभावों या भावनाओं के आधार पर कार्य नहीं करते हैं; वे सिर्फ वही करते हैं जो लोगों को करना चाहिए और वही जिम्मेदारियाँ पूरी करते हैं जो लोगों को पूरी करनी चाहिए। सामान्य पारस्परिक संबंधों के दायरे में वे वही करते हैं जो उन्हें करना चाहिए; वे जो कुछ भी कर सकते हैं उसे करने का भरसक प्रयास करते हैं, दूसरों की मदद करने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं और वे ऐसा सच्चाई और गंभीरता से करते हैं। उनमें से कुछ लोग किसी इनाम के लिए प्रयास तक नहीं करते हैं, वे सोचते हैं, “मैं बस मदद कर रहा हूँ। तुम्हें ऐसा महसूस करने की जरूरत नहीं है कि तुम पर मेरे बहुत-से एहसान हैं और सिर्फ इसलिए क्योंकि तुम पर मेरा यह जरा-सा एहसान है तुम्हें ऐसा महसूस करने की जरूरत नहीं है कि तुम मेरा एहसान कभी नहीं उतार सकते, और तुम्हें मेरे सामने हमेशा खुशामदी और अत्यधिक सम्मानजनक व्यवहार करने की जरूरत नहीं है। यह फिजूल है।” ऐसे व्यक्तियों में सबसे अच्छी मानवता होती है। वे विश्वासघाती नहीं होते हैं और न ही दूसरों के प्रति कठोर होते हैं। वे नेक होते हैं और उनकी मानवता का एक दयालु पक्ष होता है। वे जो कुछ भी करने में सक्षम होते हैं उसे करते हैं, व्यक्तिगत फायदों और नुकसानों को लेकर ज्यादा परेशान नहीं होते हैं और उन्हें इनामों की ज्यादा परवाह नहीं होती है। यह मानवता का एक गुण है। अपने आस-पास नजर दौड़ाओ और देखो कि किसमें ऐसे गुण हैं। अगर किसी व्यक्ति का चरित्र ऐसा है तो उसे भ्रष्ट मानवजाति के बीच एक अच्छा व्यक्ति, एक शालीन व्यक्ति माना जा सकता है। वह चीजों को लेकर ज्यादा परेशान नहीं होता है, वह विश्वासघाती नहीं होता है, दूसरों के प्रति कठोर नहीं होता है और मुनाफे की इच्छा किए बगैर दूसरों की मदद करता है। वह दूसरों के प्रति विशेष रूप से सहनशील होता है और अपने आत्म-आचरण में बहुत उदार होता है। बहुत उदार होने का क्या मतलब है? इसका मतलब है छोटी-छोटी बातों को लेकर लगातार परेशान नहीं रहना और जब दूसरे उसका फायदा उठाएँ तो उनके प्रति नाराजगी नहीं रखना। इसे उदार होना कहते हैं और यह मानवता का एक प्रधान गुण है। दयालुता भी एक गुण है और उसी तरह उदारता भी एक गुण है। यह उन लोगों से अलग है जो तुच्छ होते हैं, जिनमें संदेह करने की प्रवृत्ति होती है, जो संवेदनशील और जिद्दी होते हैं—ये लोग छोटी-छोटी बातों को लेकर लगातार परेशान रहते हैं, उनकी नाक पर गुस्सा चढ़ा रहता है, वे गुस्से से फूल जाते हैं, वे डरावने भावशून्य चेहरे वाले होते हैं, वे खुद से बात करने वाले हर व्यक्ति को अनदेखा कर देते हैं और वे कुछ भी नहीं सोचते सिवाय इसके कि दूसरों से कैसे बदला लिया जाए। इनमें से कोई भी चीज ऐसी नहीं है जो सामान्य लोगों में होनी चाहिए। दयालु लोगों के विचारों में वे जटिल मामले नहीं होते हैं और न ही उनमें दूसरों के बारे में संदेहजनक विचार होते हैं। उनके दिल में सब कुछ वही होता है जो सामान्य लोगों में होना चाहिए; यह विशेष रूप से मानवता के जमीर और विवेक और साथ ही मानवता में न्याय की भावना और दयालुता के मानक के अनुरूप है। जब तुम उनसे मेलजोल रखते हो तो तुम बहुत आराम महसूस करते हो और तुम्हें लगता है कि चीजें बहुत सरल हैं—परेशानी वाले मामले बहुत सारे नहीं हैं और तुम्हें किसी भी चीज से चौकस रहने की जरूरत नहीं है। तुम्हें उनके विचारों के बारे में अटकलें लगाने की या अंधेरे में तीर चलाने की जरूरत नहीं होती है। अगर तुम उन्हें गलती से ठेस पहुँचा भी देते हो तो भी तुम्हें किसी दुष्परिणाम के बारे में फिक्र करने की जरूरत नहीं होती है—यकीनन तुम्हें कोई दुष्परिणाम भुगतने की भी जरूरत नहीं होती है। यह संभव है कि जब तुम्हें गुस्सा आए तो तुम आवेगपूर्ण हो जाओ और चिल्लाकर उन्हें कुछ कठोर शब्द कह दो और उस समय वे भी तुमसे झगड़ा और बहस कर लें, लेकिन बहस के बाद वे कोई वैर-भाव नहीं रखेंगे और न ही तुम्हारे खिलाफ कोई साजिश रचेंगे या तुमसे बदला लेंगे। तुम्हें इस बात की फिक्र करने की जरूरत नहीं है कि अगर उन्हें रुतबा मिल गया तो वे तुम्हारे लिए चीजें मुश्किल बना देंगे या तुम्हारी मामूली-सी गलतियों पर तुम्हें टोकेंगे और न ही तुम्हें इस बात की फिक्र करने की जरूरत है कि वे बगैर किसी कारण के तुम्हें निशाना बनाएँगे। उनमें ऐसी कोई बात होती ही नहीं है—वे बस इतने सरल होते हैं। उस पल से वे अपने मन में तुम्हारे खिलाफ बिल्कुल कोई बुरी राय बनाकर नहीं रखेंगे। जब एक बार मामला खत्म हो गया तो वह खत्म हो गया। उसके बाद जब वे तुमसे बात करते हैं, वे अब भी तुमसे सामान्य ढंग से पेश आते हैं। भले ही वे उस समय गुस्से में थे और उन्होंने तुमसे झगड़ा किया, फिर भी बाद में वे तुम्हारे खिलाफ मन में कोई नाराजगी नहीं रखते हैं। उन्हें पता है कि तुमने सिर्फ कुछ गुस्से वाले शब्द कह दिए और वे इसे समझ सकते हैं : “ऐसा कौन है जो गुस्से में कुछ कठोर शब्द नहीं कह जाता? यह जानबूझकर नहीं किया गया था। इसके अलावा, हर किसी में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, हर किसी के ऐसे समय आते हैं जब उसका मिजाज खराब होता है और हर किसी में आवेगशीलता होती है। उसके बाद, जब तक हर कोई शांत हो जाता है, अपनी गलतियाँ मान लेता है और इस तथ्य पर चिंतन करता है कि उसने भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किए और वह सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में विफल रहा, तब तक कोई बात नहीं।” वे तुम्हें माफ कर देंगे जो कि कुकर्मियों के विपरीत है, वे तुम्हें लगातार सताते रहते हैं और तब तक नहीं रुकते जब तक कि वे तुम्हें तबाह न कर दें। आमतौर पर दयालु लोगों में बदला लेने वाला दिल नहीं होता है। अगर तुम कोई ऐसी चीज करते हो जो उन्हें अपमानित करती है तो वे कभी-कभी तुमसे नफरत कर सकते हैं, लेकिन वे मानवता की नैतिकता का उल्लंघन बिल्कुल नहीं करेंगे और तुम्हें यातनाएँ देने के लिए घिनौने साधनों का उपयोग नहीं करेंगे। भले ही उनमें भ्रष्ट स्वभाव हों और हो सकता है कि वे उन भ्रष्ट स्वभावों के आधार पर कुछ चीजें कह दें या कर दें—जैसे कि अतीत में तुम्हारे द्वारा की गई गलतियों का जिक्र करना या तुम्हारी काट-छाँट करना—लेकिन वे अचानक कहीं से मनगढ़ंत बातें नहीं बनाएँगे या तुम पर धावा बोलने या तुमसे बदला लेने के लिए अपनी शक्ति का उपयोग नहीं करेंगे। भले ही वे तुम पर वार करना या तुमसे बदला लेना चाहते हों और उनमें इस तरह का भ्रष्ट स्वभाव हो, लेकिन क्योंकि उनकी मानवता में दयालुता का गुण होता है इसलिए जब वे बदला लेना चाहेंगे तो भी वे संयमित रहेंगे और चीजों को उचित सीमाओं में रखने में समर्थ होंगे। अगर शक्ति वाला कोई भ्रष्ट इंसान अब भी यह स्तर प्राप्त कर सकता है तो यह पहले से ही काफी सराहनीय है। ज्यादातर लोग, अगर उनमें यह गुण न हो तो वे संयम की यह सीमा भी प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं और दूसरों पर धावा बोलने और उनसे बदला लेने से नहीं रुक पाते हैं।
दयालुता की अभिव्यक्ति या प्रकाशन मानवता का एक गुण है। मानवता का यह गुण काफी हद तक लोगों को सीमित या प्रेरित करेगा जिससे जब उनका भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होगा तब वे एक निश्चित हद तक नियंत्रण और संयम प्राप्त करने में समर्थ होंगे। अगर ऐसा दयालु व्यक्ति कोई ऐसा व्यक्ति है जिसमें आध्यात्मिक समझ है, जो सत्य समझ सकता है और सत्य स्वीकार सकता है, तो उसकी मानवता का यह गुण उसे लोगों और चीजों को देखते समय, आचरण करते समय और कार्य करते समय सत्य सिद्धांतों का और सख्ती से पालन करने में समर्थ बना सकता है, है ना? (हाँ।) दूसरी तरफ, धूर्त व्यक्ति कहीं ज्यादा मक्कार होता है और दयालु व्यक्ति से अलग होता है। कुछ बुरा करने के बाद वह न सिर्फ आत्म-चिंतन नहीं करता है, बल्कि अपने गलत कर्मों को और तेज भी कर देता है और इस पर अंत तक अमल करता है। यह उसे एक दानव में बदल देता है, जो कि उन सिद्धांतों के बिल्कुल विपरीत है जिनके अनुसार दयालु व्यक्ति कार्य करता है। उदाहरण के लिए, अगर कोई व्यक्ति दयालु है और उसमें मानवता का यह गुण है, तो तुमसे बहस करते समय वह तथ्यों के आधार पर बात करेगा। वह बढ़ा-चढ़ाकर बातें नहीं करेगा, तुम्हारे बारे में हवा-हवाई कुछ नकारात्मक चीजें नहीं गढ़ेगा, या सिर्फ इसलिए तुम्हें बदनाम और तुम्हारी सत्यनिष्ठा का अपमान नहीं करेगा क्योंकि वह तुमसे नाराज है। वह ऐसी चीजें बिल्कुल नहीं करेगा। तुमसे बहस करते समय वह घमंडी या क्रूर स्वभाव प्रकट कर सकता है, लेकिन वह जो शब्द कहता है वे उसके जमीर, विवेक और दयालु मानवता से पूरी तरह से संयमित होते हैं। इस तरह से, एक निश्चित स्तर पर, तुम्हें पहुँचाए गए नुकसान की तीव्रता कम हो जाती है। लेकिन कुकर्मियों में मानवता का दयालु पहलू नहीं होता है। कुकर्मी कैसे झगड़ते हैं? “तुम फूहड़ हो, एक वेश्या हो! मैं तुम्हारे पूर्वजों की आठ पीढ़ियों का अपमान करता हूँ और तुम्हारे पूर्वजों की आठ पीढ़ियों को शाप देता हूँ!” वे सभी प्रकार की कठोर और दुर्भावनापूर्ण चीजें कहेंगे। कुकर्मी ऐसे ही होते हैं—उनका चरित्र नीच होता है। नीच चरित्र वाले कुछ लोग अपनी गालियों को तथ्यों पर आधारित नहीं करते हैं। वे उन्हें तथ्यों पर आधारित क्यों नहीं करते हैं? क्योंकि उनमें जमीर नहीं होता है और वे जमीर के मानक पूरे नहीं करते हैं। जब वे दूसरों का अपमान करते हैं, तो वे अपने जमीर द्वारा सीमित नहीं होते हैं। वे बेतहाशा गालियाँ देते हैं, उनके मन में जो भी अपशब्द आते हैं, वे उन्हें कह देते हैं। जो भी शब्द उनकी नफरत को बाहर निकाल सकें, तुम्हारे दिल को गहराई से चोट पहुँचा सकें और तुम्हें गुस्से से पागल कर सकें—वे वही शब्द कहेंगे। उनकी गालियाँ वाकई तुम्हें इतना गुस्सा दिला सकती हैं कि तुम गुस्से से मर जाओ। ऐसे लोगों के दिलों में कोई दया नहीं होती है और वे द्वेष से भरे होते हैं। कुकर्मी जो प्रकट करते हैं, वह मुख्य रूप से घमंड और क्रूरता, ये दो प्रकार के स्वभाव होते हैं। संक्षेप में, वे जिन शब्दों की बौछार करते हैं, उनमें शाप निहित होते हैं, वे शैतान के द्वेष से भरे होते हैं और उनमें पर्याप्त विनाशकारी शक्ति होती है; यहां तक कि वे शाप देने के सबसे दुर्भावनापूर्ण शब्दों की भी बौछार कर सकते हैं। अगर तुममें मानवता है या अगर तुम्हारी मानवता दयालु है तो तुम ऐसी गालियाँ नहीं दे सकते; इसके अलावा, तुम हवा-हवाई चीजें नहीं गढ़ सकते। वह इसलिए क्योंकि तुममें जमीर की भावना है, तुममें तार्किकता है और तुम्हारे जमीर में नेकदिल और दयालु होने का पहलू तुम पर बहुत संयम और नियंत्रण रखता है जिससे ऐसी गालियाँ देना तुम्हारे लिए असंभव हो जाता है। जब कोई तुम्हारा अपमान करता है तब तुम्हें गुस्सा आता है और तुम उनके पूर्वजों की आठ पीढ़ियों का अपमानकरना चाहते हो और उन्हें शाप देना चाहते हो, यह कहना चाहते हो कि उन्हें नरक में जाना चाहिए, लेकिन तुम इस पर विचार करते हो : “मुझे उन्हें शाप देने का क्या अधिकार है? मैं परमेश्वर नहीं हूँ और मेरा फैसला अंतिम नहीं होता।” तुम भी उन्हें अश्लील शब्दों से अपमानित करना चाहते हो लेकिन तुम इस पर विचार करते हो : “अगर मैंने अश्लील शब्दों का उपयोग किया तो मुझे भी तो घिनौना महसूस होगा—तो फिर मेरे आस-पास के लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या इसका मतलब यह नहीं होगा कि मुझमें कोई सत्यनिष्ठा या गरिमा नहीं है? क्या मैं झगड़ालू औरत की तरह कार्य नहीं कर रहा होऊँगा? मैं उस तरह का व्यक्ति नहीं बनूँगा।” तुम उनका अपमान करने के लिए खुद को तैयार ही नहीं कर सकते। इसलिए काफी हद तक तुम्हारी बोली संयमित रहती है और तुम जो शब्द कहने के लिए खुद को तैयार कर सकते हो वे बहुत सीमित होते हैं। ज्यादा-से-ज्यादा तुम शायद यह कह सकते हो, “तुम शैतान हो, तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव गंभीर है, तुम उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते और परमेश्वर तुम्हें पसंद नहीं करता।” तुम ज्यादा-से-ज्यादा शायद ऐसी कुछ चीजें कह सकते हो, लेकिन फिर तुम इस पर विचार करते हो : “परमेश्वर किसी को नापसंद करता है या नहीं, यह तय करना मेरा काम नहीं है” और इसलिए ऐसा कहते समय तुममें आत्मविश्वास नहीं होता है। जब कोई तुम्हारा अपमान करता है और तुम्हें शाप देता है, तुम्हें नरक के अठारहवें स्तर पर जाने के लिए कहता है, तब तुम मन ही मन सोचते हो : “किसी को शाप देना, उसे नरक के अठारहवें स्तर पर जाने के लिए कहना—ये शब्द बहुत ही ज्यादा कठोर हैं! मैं ऐसा कुछ नहीं कह सकता। मुझे अपने शब्द और कोमल रखने चाहिए!” तुम ये विचार रखने में क्यों समर्थ हो? क्योंकि तुम्हारी मानवता में जो मौजूद है वह कुकर्मियों की मानवता से अलग है। अगर तुम दयालु और नेकदिल हो और तुममें जमीर और विवेक है, तो तुम जो शब्द कहोगे वे बहुत तर्कसंगत होंगे। तुम अपने जमीर की सीमा में कुछ गुस्से वाले शब्द कह सकते हो या तुम्हारे मुँह से कुछ गंदे शब्द निकल सकते हैं, लेकिन उन्हें कहने के बाद तुम खुद ही बहुत परेशान हो जाते हो और तुमने दूसरे व्यक्ति को वाकई ठेस नहीं पहुँचाई होती है—तुम्हारे शब्दों में विनाशकारी शक्ति नहीं होती है। कुकर्मी जितना ज्यादा दूसरों का अपमान करते हैं, उतने ही ज्यादा वे खुश होते हैं, जबकि तुम जितना ज्यादा दूसरों का अपमान करते हो, उतने ही ज्यादा परेशान हो जाते हो—तुम मन ही मन सोचते हो : “इसे भूल जाओ, ऐसे घिनौने चरित्र और कुकर्मी के स्तर तक गिरना बेकार और निरर्थक है। मैं अब उससे और झगड़ा नहीं करूँगा।” किसी कुकर्मी से बहस करना उतना ही बुरी तरह बेअसर है जितना कि शैतान के साथ सत्य के बारे में बात करने का प्रयास करना। उसके साथ चीजों को लेकर बहस करने या ज्यादा परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है। बस भविष्य में ऐसे लोगों से दूर रहो। क्या तुम उन्हें नुकसान पहुँचाने के बारे में सोचोगे? क्या तुम उनसे बदला लेने के बारे में सोचोगे और उन्हें सबक सिखाने का अवसर ढूँढ़ोगे? तुम्हारे पास उतना बेरहम दिल नहीं है। तुम बस खुद से यही कहते रहते हो, “इसे भूल जाओ। उसकी दी हुई कुछ गालियों के कारण मेरा कोई नुकसान नहीं हुआ है; मैं इस बात को लेकर उससे ज्यादा परेशान नहीं होऊँगा।” कुछ लोग यह कहकर खुद को दिलासा भी देते हैं, “जो भी हो, परमेश्वर ने मुझे शाप नहीं दिया है। उस व्यक्ति के शापों का कोई असर नहीं होता है।” दरअसल, क्योंकि तुममें जमीर और विवेक है और तुम अपनी मानवता में दयालु और नेकदिल हो, इसलिए तुम वे गालियाँ नहीं दे सकते। वे तुम्हें गंदी और अपमानजनक लगती हैं। अगर वे शब्द तुम्हारे मुँह से बाहर आते तो तुम्हें लगता कि वे तुम्हारे जमीर के खिलाफ हैं। खासतौर पर जब मनगढ़ंत या निराधार मामलों की बात आती है तो तुम उन्हें और भी नहीं कह सकते। उन्हें कहने में असमर्थ होना तुम्हारे लिए एक बचाव है। उनके शब्दों में महत्वपूर्ण विनाशकारी शक्ति होती है और उन्होंने तुम्हें नुकसान पहुँचाया है—यह उनका बुरा कर्म है। यह बुरा कर्म कैसे हुआ? यह इसलिए हुआ क्योंकि उनकी मानवता में नीच गुण निहित हैं। जब तुम्हारे साथ उनके टकराव या विवाद होते हैं तो उनका भ्रष्ट स्वभाव बेहद बढ़ जाता है और वे तुम्हें अकारण शाप दे सकते हैं। उनमें इस प्रकार का बुरा चरित्र होता है इसलिए जाहिर है वे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं। दूसरी तरफ, अगर तुम एक ऐसे दयालु और नेकदिल व्यक्ति हो जिसमें जमीर, विवेक और मानवता है, तो इस तरह की परिस्थिति में न सिर्फ तुम अपना भ्रष्ट स्वभाव बाहर नहीं निकालोगे, बल्कि तुम्हारी मानवता भी तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के प्रकाशन पर काफी हद तक अंकुश लगाएगी। यह तुम्हारे लिए बेहद फायदेमंद है। ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि तुमने एक नुकसान सहा है, तुम कमजोर स्थिति में हो और किसी झगड़े में उन्हें नहीं हरा सकते जिससे तुम्हारी जगहँसाई होती है। दरअसल, तुम्हारी मानवता ने तुम्हारी रक्षा की है और तुम्हें बुरे कर्म करने से रोका है, उन चीजों को करने से रोका है जिन्हें परमेश्वर पसंद नहीं करता है या उन शब्दों को कहने से रोका है जो परमेश्वर को अच्छे नहीं लगते हैं। इस तरह से, क्या इससे कुछ हद तक तुम्हारी रक्षा नहीं हुई है? (हाँ।) मानवता के इस गुण ने तुम्हारी बहुत हद तक रक्षा की है और आगे तुम्हारे द्वारा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते समय तुम्हें उन चीजों को करने से रोका है जिन्हें परमेश्वर पसंद नहीं करता है या जिनसे वह नफरत करता है या उन शब्दों को कहने से रोका है जिनसे परमेश्वर नफरत करता है और जिनकी निंदा करता है। वैसे तो इसे अच्छे कर्म के रूप में नहीं गिना जाता, लेकिन कम-से-कम तुमने बुरा कर्म तो नहीं किया है। तुमने इस परिस्थिति में जो किया उसकी निंदा नहीं की जाएगी और इसके लिए तुम्हें सजा नहीं दी जाएगी। इसके विपरीत, कुकर्मियों की न सिर्फ निंदा की जाएगी, बल्कि वे अपने बुरे चरित्र के अधीन होकर जो चीजें करते हैं उनके लिए उन्हें सजा भी दी जाएगी। उन्हें नतीजे भुगतने होंगे और जिम्मेदारी उठानी होगी। इसलिए, जो लोग अपनी मानवता में विभिन्न गुण रखते हैं, वे कुछ मामलों में अपनी प्रतिष्ठा, रुतबा और गरिमा खो सकते है और खासतौर से अपने विवेक के समर्थन में बहस करने की पहल करने का अवसर खो सकते हैं, लेकिन यह नुकसान सहना नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “अगर यह नुकसान सहना नहीं है तो क्या इसका मतलब यह है कि यह फायदा उठाना है?” इसे नुकसान सहने या फायदा उठाने के लिहाज से नहीं मापा जा सकता। तो इसे कैसे मापा जाना चाहिए? इसे ऐसे मापा जाना चाहिए : किसी परिस्थिति में नुकसान सहना कोई मायने नहीं रखता; महत्वपूर्ण चीज यह है कि तुम इससे लाभ प्राप्त कर सकते हो। इस परिस्थिति में तुम्हारी मानवता के गुणों ने तुम्हारे व्यवहार का बचाव किया है, तुम्हें बुरे कर्म करने से रोका है और यह सुनिश्चित किया है कि परमेश्वर तुम्हारी निंदा न करे। क्या यह लाभ प्राप्त करना नहीं है? बुरे कर्म करने के नतीजतन अब तुम संभवतः सजा नहीं भुगत सकते। क्या यह तुम्हारे लिए अच्छी चीज नहीं है? (हाँ।) भले ही यह कोई ऐसा अच्छा कर्म न हो जिसे तुमने सक्रियता से किया हो और न ही यह सत्य सिद्धांतों का सक्रियता से पालन करने का कोई क्रियाकलाप हो, लेकिन अपनी मानवता में गुण होने की रूपरेखा में तुमने कुछ ऐसा किया है जो सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं करता है। इस तरह से तुम सुरक्षित हो। वैसे तो इसे याद नहीं रखा जाएगा लेकिन कम-से-कम इसकी निंदा तो नहीं की जाएगी। और इसलिए तुम्हें कोई जिम्मेदारी उठाने या सजा भुगतने की जरूरत नहीं है। क्या यह अच्छी बात नहीं है? (हाँ।) परमेश्वर का अनुसरण करने की प्रक्रिया में, तुम जो करते हो भले ही वह सत्य के अनुरूप हो या न हो और चाहे परमेश्वर इसे कैसे भी देखे, कम-से-कम तुम्हारा जमीर तो साफ रहता है। अगर परमेश्वर इसे याद नहीं रखे तो भी तुम्हें कम-से-कम परमेश्वर द्वारा निंदा किए जाने या परमेश्वर द्वारा नफरत किए जाने से तो बचना चाहिए। यह सबसे मूलभूत सिद्धांत है जिसका तुम्हें पालन करना चाहिए। क्या मानवता के गुण लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण नहीं हैं? (हाँ।) इसलिए सिर्फ इस कारण से लगातार अनिच्छुक महसूस मत करो कि तुम सोचते हो कि मानवता के कुछ गुण होने से तुम लोगों में बदनाम हो जाते हो, तुम हमेशा फायदा उठाने या लाभ प्राप्त करने से चूक जाओगे और दूसरे लोग सारे फायदे ले लेंगे जबकि तुम्हें हमेशा नुकसान सहना होगा। नुकसान सहने में इतना क्या बुरा है? कम-से-कम तुम उसी चीज का आनंद ले रहे हो जो परमेश्वर ने तुम्हें मूल रूप से दी है और तुमने दूसरों की चीज नहीं ली है। अगर तुम फायदा उठाते हो तो यह सही नहीं है—इसका मतलब यह है कि तुमने दूसरों के हिस्से का लिया है। अगर तुम वह लेते हो जो तुम्हारा नहीं है तो परमेश्वर तुम्हारी निंदा करेगा। लोगों को ऐसी चीजें नहीं करनी चाहिए जिनकी परमेश्वर निंदा करता है। कुछ लोग कहते हैं, “मुझे नहीं पता कि मुझे ऐसे किस तरह के क्रियाकलाप करने चाहिए जिन्हें परमेश्वर याद रखेगा।” लेकिन क्या तुम्हें यह पता है कि परमेश्वर किन क्रियाकलापों की निंदा करता है? अगर तुम्हें पता है तो कम-से-कम तुम्हें इस सीमा का पालन करना चाहिए : ऐसी चीजें मत करो जिनकी परमेश्वर निंदा करता है। क्या तुम समझ गए हो? (हाँ।) अब जबकि हमने इन मामलों पर और चर्चा कर ली है, तुम्हें समझ आ जाना चाहिए।
ज्यादातर लोगों की मानवता में दयालुता का गुण नदारद रहता है। लेकिन अगर किसी के पास सही मायने में यह गुण है तो वह भ्रष्ट मानवजाति में सही मायने में एक अच्छा व्यक्ति है—ऐसे लोग बहुत दुर्लभ हैं। अगर तुममें सही मायने में यह गुण है, तो परमेश्वर हर मोड़ पर तुम्हें आशीष देगा, परमेश्वर हर मोड़ पर तुम पर अनुग्रह बरसाएगा। मानवीय शब्दों में इसका मतलब है कि हर मोड़ पर परमेश्वर तुम्हारी देखभाल करेगा। वह कैसे तुम्हारी देखभाल करता है? तुम्हारे लिए परमेश्वर की देखभाल यह है कि भले ही तुम हमेशा दूसरों के बारे में सोचते हो, अपने हित छोड़ देते हो और दूसरे लोग तुम्हारा फायदा उठाते हों लेकिन वे परमेश्वर का आशीष प्राप्त नहीं कर सकते हैं। वे सिर्फ दूसरों का फायदा उठाकर जी सकते हैं और उन्हें अगले जीवन में इसका प्रतिफल चुकाना पड़ेगा। लेकिन तुम परमेश्वर के आशीषों से जीते हो। वैसे तो दूसरे लोग तुम्हारा फायदा उठा सकते हैं लेकिन वास्तव में तुम कुछ भी नहीं खोते। मुझे बताओ, क्या यह अच्छा है? (हाँ।) देखा तुमने, बाहर से ऐसा लगता है कि दयालु लोग हमेशा नुकसान सहते हैं। लोग दयालु लोगों को सरल और ईमानदार के रूप में देखते हैं, इसलिए बोलते और कार्य करते समय वे हमेशा उनका फायदा उठाते हैं, उनके साथ बेवकूफों की तरह पेश आते हैं, उन्हें डराते-धमकाते हैं, उनसे पैसे और लाभ दोनों ऐंठते हैं और उनकी बहुत सारी संपत्ति जब्त कर लेते हैं। लेकिन क्या तुम्हें दयालु लोगों के पास किसी चीज की कमी दिखाई देती है? उन्हें किसी चीज की कमी नहीं होती। उन्हें हर चीज भरपूर मात्रा में प्रदान की जाती है। चीजें करते समय उनके पास बुद्धिमत्ता और बुद्धिमानी होती है और वे चिंता नहीं करते हैं। परमेश्वर का घर उन्हें जो भी कर्तव्य सौंपता है उससे संबंधित फायदों और नुकसानों को लेकर वे ज्यादा परेशान नहीं होते हैं और न ही वे लड़ते या होड़ करते हैं। वे बस वही करते हैं जो उन्हें करने के लिए कहा जाता है। काम चाहे जो भी हो, वे मुश्किल से ही कभी गलतियाँ करते हैं। अगर कभी-कभार मामूली समस्याएँ या छोटी-मोटी गलतियाँ हो भी जाएँ, तो वे जानबूझकर नहीं की गई होती हैं। वे जो भी करते हैं उसमें अपने दिल लगा देते हैं, वे अपने जमीर और विवेक के मामले में न्यूनतम आधाररेखा को पार कर जाते हैं और परमेश्वर की जाँच-पड़ताल स्वीकार सकते हैं। इसलिए ऐसे लोग परमेश्वर का आशीष प्राप्त कर सकते हैं। चूँकि तुम्हें मालूम है कि दयालुता मानवता का एक गुण है तो क्या तुम्हें अपने आत्म-आचरण में इसकी तरफ भरसक प्रयास करना चाहिए? (हाँ।) मामूली मुद्दों पर झगड़ा मत करो और ऐसे व्यक्ति की तरह मत बनो जो इतना चिड़चिड़ा हो कि कोई भी उसके पास जाने या उसे उकसाने की हिम्मत नहीं करता—उस तरह के व्यक्ति मत बनो। अगर दूसरे लोग तुम्हारा थोड़ा-सा फायदा उठाते हैं तो हमेशा ऐसा मत सोचो कि वे तुम्हें डरा-धमका रहे हैं। जरा-सा और सरल और ज्यादा ईमानदार होने में इतना क्या बुरा है? कुछ लोग बहुत ही ज्यादा चालाक होते हैं और हमेशा यह साबित करना चाहते हैं कि वे बेवकूफ नहीं हैं और कहते हैं, “मुझे बेवकूफ मत समझो। मेरे पास दिमाग है! मैं देख सकता हूँ कि कौन मुझे पसंद नहीं करता है या मेरे साथ खराब तरीके से पेश आता है। मैं बता सकता हूँ कि कौन मुझे नीची नजर से देखता है और किसके शब्दों में ताने या छिपे हुए शूल भरे होते हैं।” ऐसी चीजें देखने और सुनने में समर्थ होना बेकार है। यह सिर्फ तुच्छ चतुराई और चालाकी है। यह जरा-सी चालाकी होने का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे पास बुद्धिमानी है या तुम वाकई होशियार हो। इसके विपरीत, लोग तुम्हें नीची नजर से देखेंगे क्योंकि जानवरों में भी इस तरह की चालाकी और तुच्छ विचार होते हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? जिन लोगों का जानवरों के साथ नजदीकी संपर्क रहता है वे सभी यह बात जानते हैं : यहाँ तक कि छोटे जानवरों के बारे में जब तुम सुखद या अप्रिय बातें कहते हो, तो वे भी इसे समझ सकते हैं। उदाहरण के लिए, अगर कोई कुत्ता तुम्हें अप्रिय बातें कहते सुन ले तो वह तुरंत दुखी हो जाएगा, जबकि अगर तुम कुछ सुखद बातें कहते हो तो वह उसे भी समझ सकता है। अगर लोग खुद को मापने के लिए हमेशा ऐसी चीजों का उपयोग करते हैं जो छोटे जानवरों के पास भी होती हैं तो क्या यह उनके मनुष्य होने की विशेषता को नीचा नहीं कर देता है? सृजित मानवजाति को मापने का मानक नीचे लाकर तुम अपना मूल्य घटा रहे हो। हमेशा ऐसी चीजें मत कहो, “मुझे बेवकूफ मत समझो और मुझसे तीन वर्ष के बच्चे की तरह मत पेश आओ। अगर तुम मुझे मकई की रोटी दोगे तो मैं निश्चित रूप से उसे नहीं खाऊँगा; इसके बजाय मेरे लिए पकौड़े लेकर आओ। किसे नहीं पता कि पकौड़े लजीज होते हैं?” तुम बेवकूफ नहीं हो, इसे साबित करने का प्रयास करने के लिए ऐसे बेवकूफी भरे शब्दों का उपयोग मत करो। अगर तुम सही मायने में बेवकूफ नहीं हो तो मानवता के मानकों को पूरा करने का भरसक प्रयास करो। लोगों के जमीर और विवेक में क्या मौजूद होना चाहिए, मानवता के गुणों की अभिव्यक्तियाँ क्या हैं, मानवता की कमियों और खराब चरित्र की अभिव्यक्तियाँ क्या हैं—इन पहलुओं पर संगति करो और इन्हें समझो। लोगों में अपनी मानवता में क्या होना चाहिए और सृजित मानवजाति में क्या होना चाहिए, इस बारे में जरा-सी संगति करो, फिर उनकी तरफ भरसक प्रयास करो और उन्हें अपने पास रखने के लिए कड़ी मेहनत करो। क्या इससे तुम्हारा व्यक्तिगत मूल्य नहीं बढ़ जाएगा? क्या लगातार अपनी बुद्धिमत्ता की तुलना तीन वर्ष के बच्चे की बुद्धिमत्ता से करके तुम कभी कहीं पहुँच पाओगे? क्या इस तरीके से तुम कभी बड़े हो सकते हो? एक तीन वर्ष का बच्चा कहता है, “मैं प्लास्टिक की बोतल से दूध पी सकता हूँ” और तुम कहते हो, “मैं काँच की बोतल से पी सकता हूँ और मुझे अपने हाथ जलने का डर नहीं लगता।” तीन वर्ष का बच्चा कहता है, “मैं जूते पहनते समय बाएँ और दाएँ में अंतर कर सकता हूँ” और तुम कहते हो, “मैं स्वेटर पहनते समय सामने और पीछे वाले हिस्से में अंतर कर सकता हूँ। क्या तुम ऐसा कर सकते हो?” क्या इस तरह से तुम कभी कहीं पहुँच पाओगे? अगर तुम्हारी बुद्धिमत्ता, चरित्र और वे विभिन्न क्षमताएँ जो तुम्हारी मानवता में होनी चाहिए, वे एक तीन वर्ष के बच्चे या नाबालिग के चरण पर ही अटकी रहेंगी तो तुम्हारे लिए एक परिपक्व व्यक्ति बनना या दूसरों से तुम्हारे साथ एक वयस्क की तरह व्यवहार करवाना मुश्किल होगा। तुम दूसरे लोगों से तुम्हारे साथ एक वयस्क की तरह व्यवहार कैसे करवा सकते हो? तुम्हें वे चीजें करनी होंगी जो वयस्कों को करनी चाहिए और वे चीजें करनी होंगी जो सृजित मनुष्यों को करनी चाहिए। तुममें वह मानवता होनी चाहिए जो सृजित मनुष्यों में होनी चाहिए। इस मानवता में कम-से-कम क्या होना चाहिए? जमीर, विवेक, और अच्छे चरित्र के विभिन्न पहलू। इस तरह से अपनी मानवता के दोषों और समस्याओं के लिहाज से धीरे-धीरे तुम सुधर जाओगे और प्रगति करोगे। फिर सत्य में प्रवेश करना काफी आसान हो जाएगा और कम बाधाएँ होंगी।
मानवता में दयालुता का गुण काफी दुर्लभ है और यह ज्यादातर लोगों के पास नहीं होता है। तो कोई व्यक्ति इस गुण को कैसे प्राप्त कर सकता है? जब तुम कोई भी सत्य नहीं समझते हो तो मानवता का यह गुण अपने पास रखना और ऐसा व्यक्ति बनना बहुत मुश्किल है। लेकिन एक बार जब तुम कुछ सत्य समझ जाओगे तो तुम्हारे पास ऐसा व्यक्ति बनने का मार्ग होगा और तुम्हारे पास इसे प्राप्त करने की उम्मीद होगी। जहाँ तक यह प्रश्न है कि क्या तुम इसे प्राप्त कर सकते हो और अंत में नतीजे हासिल कर सकते हो, तो यह बात इस पर निर्भर करती है कि क्या तुम सत्य प्राप्त कर सकते हो और क्या तुम्हारे पास जीवन प्रवेश हो सकता है। यह गुण प्राप्त करने के लिए किस तरह से अभ्यास करना चाहिए? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई तुम्हारे साथ क्या करता है या तुमसे क्या कहता है, उससे आवेगशीलता या भावनाओं के आधार पर मत पेश आओ। यह विश्लेषण मत करो कि तुम्हारे प्रति उसके क्या इरादे हैं, उसने व्यक्तिगत रूप से तुम्हे कितना नुकसान पहुँचाया है या उसने तुम्हारी प्रतिष्ठा को कितना धूमिल किया है। अपने मन, मानव इच्छा, या सांसारिक आचरण के फलसफों के आधार पर इनमें से किसी भी मामले से पेश मत आओ। तो तुम्हें उनसे कैसे पेश आना चाहिए? परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के आधार पर सभी चीजों से पेश आओ। यह सुनिश्चित करने का भरसक प्रयास करो कि हर परिवेश में और हर व्यक्ति का सामना करते समय, चाहे तुम उससे बात कर रहे हो, उससे मेलजोल रख रहे हो या कोई विशिष्ट मामला सँभाल रहे हो, तुम सत्य सिद्धांतों की तलाश करो और उनके अनुसार कार्य करो। पेश आने के इस तरीके का तुम्हारी मानवता पर काफी हद तक अनुकूलन प्रभाव पड़ेगा। यानी यह तुम्हारी मानवता के जमीर और विवेक को एक निश्चित मात्रा में समर्थन प्रदान करेगा, जो तुम्हें न्याय की भावना विकसित करने में मदद करेगा और तुम्हें लोगों और चीजों को सही स्थिति और परिप्रेक्ष्य से देखने में सक्षम बनाएगा। इसे ही अनुकूलन कहते हैं। अनुकूलन अपनी मूल रूप से खराब मानवता को अच्छा बनाना, सामान्य बनाना होता है। तो तुम्हारी मूल रूप से खराब मानवता कहाँ से उत्पन्न हुई? यह भ्रष्ट स्वभावों के प्रभाव और नियंत्रण से उत्पन्न हुई। अब अगर तुम परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के आधार पर आचरण और कार्य करते हो, तो जब तुम कार्य करते हो, तो तुम्हारी मानवता परमेश्वर के वचनों और सत्य से काफी हद तक प्रभावित होगी। इसी प्रभाव को अनुकूलन कहते हैं। यकीनन इस अनुकूलन का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारी मानवता बदल जाएगी और तुम्हारा चरित्र एक अकेली घटना से महान बन जाएगा। इसके बजाय यह, कार्य करने के लिए परमेश्वर के वचनों और सत्य को अपनी कसौटी, शैली और कार्य करने की दिशा मानकर, लंबे समय तक अभ्यास करने और अनुभव करने से आता है, जिस दौरान तुम सत्य को अधिकाधिक समझते जाओगे और सिद्धांतों के प्रति अधिकाधिक दृढ़ता के साथ मामले सँभालोगे। इस तरह से तुम्हारी मानवता धीरे-धीरे बदल जाएगी और एक सकारात्मक दिशा में विकसित होगी। तुममें जमीर की भावना का उत्तरोत्तर विकास होगा, तुम उत्तरोत्तर दयालु बनते जाओगे और तुममें उत्तरोत्तर न्याय की भावना आती जाएगी। तुम्हारा विवेक उत्तरोत्तर सामान्य होता जाएगा और तुम अब और आवेगशीलता के आधार पर कार्य नहीं करोगे या आवेगी नहीं बनोगे। इस प्रकार, काफी हद तक, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव पर तुम्हारी मानवता का जो अंकुश है वह उत्तरोत्तर मजबूत होता जाएगा। मानवता की ऐसी स्थिति की नींव पर तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों के प्रकाशनों पर अंकुश उत्तरोत्तर मजबूत होता जाएगा और अधिक शक्तिशाली होता जाएगा। इस प्रकार, भ्रष्ट स्वभावों के तुम्हारे प्रकाशन उत्तरोत्तर कम होते जाएँगे और उनकी मात्रा उत्तरोत्तर उथली होती जाएगी। तुम्हारे द्वारा किए जाने वाले क्रियाकलाप या तुम्हारे द्वारा प्रकट किए जाने वाले दृष्टिकोण उत्तरोत्तर सकारात्मक चीजों और सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होते जाएँगे। इस तरह की परिघटना, इस तरह का प्रकाशन यह दर्शाता है कि व्यक्ति का जीवन परिवर्तन से गुजर रहा है। विशेष रूप से, अगर तुम सत्य को कसौटी मानकर परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखते हो, आचरण करते हो और कार्य करते हो, तो तुम्हारी मानवता उत्तरोत्तर सामान्य होती जाएगी और भ्रष्ट स्वभावों के तुम्हारे प्रकाशन उत्तरोत्तर कम होते जाएँगे। धीरे-धीरे तुम अपना भ्रष्ट स्वभाव छोड़ दोगे। यह एक सकारात्मक चक्र है। लेकिन अगर तुम शैतान के तर्क के अनुसार लोगों और चीजों को देखते हो, आचरण करते हो और कार्य करते हो, तो यह काफी हद तक तुम्हारी मानवता को मैला कर देगा और उसे धीरे-धीरे नष्ट कर देगा। तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव उत्तरोत्तर बढ़ता जाएगा और उत्तरोत्तर तेज होता जाएगा। यह एक दुष्चक्र है। परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों और चीजों को देखना, आचरण करना और कार्य करना एक सकारात्मक चक्र है। शैतान के तर्क के अनुसार लोगों और चीजों को देखना, आचरण करना और कार्य करना तुम्हें जीवन में सिर्फ एक अंतहीन चक्र में घुमाता रहेगा और एक ऐसे दुष्चक्र की शुरुआत करेगा जिससे तुम कभी भी छूट नहीं पाओगे। अगर तुम सकारात्मक चक्र में प्रवेश करना चाहते हो तो पेश आने का सबसे सरल और सबसे सीधा तरीका यह है कि तुम अपनी मानवता की कमियों और अपनी भ्रष्टता के प्रकाशनों से शुरू करते हुए आत्म-चिंतन करना और खुद को समझना शुरू करो, परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों का आधार मानकर उपयोग करते हुए अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करो और इस प्रकार सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम बनने का परिणाम प्राप्त करो। इस तरह से तुम्हारा जीवन एक सकारात्मक चक्र में प्रवेश करेगा, तुम्हारी मानवता उत्तरोत्तर सामान्य होती जाएगी और तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे परिवर्तित होते जाएँगे और तुम उन्हें छोड़ दोगे। यह जीवन प्रवेश की प्रक्रिया है और लोगों के लिए अपने भ्रष्ट स्वभाव छोड़ देने और उद्धार प्राप्त करने के लिए भी जरूरी प्रक्रिया है। यकीनन यह भी प्रवेश का एक मार्ग है। मानवता की कमियाँ और दोष और साथ ही नीच चरित्र और ईमानदारी की कमी की समस्याएँ जिन पर हमने चर्चा की है—अगर तुम खुद में इन समस्याओं की पहचान करते हो, तो तुम्हें उन्हें हल करने के लिए सत्य की तलाश करनी चाहिए। फिर, उन्हें परमेश्वर के वचनों और सत्य का अभ्यास करके बदल दो। इस तरह से तुम एक सकारात्मक चक्र में प्रवेश करोगे। अंत में, तुम जो प्राप्त करते हो वह न सिर्फ मानवता का परिवर्तन है, बल्कि तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों को छोड़ देना भी है। तुम्हारे भ्रष्ट स्वभावों की नींव जिस पर तुम जीवित रहने के लिए भरोसा करते हो परिवर्तित हो जाएगी। इस तरह से अभ्यास करना तुम्हें उद्धार प्राप्त करने की उम्मीद देता है। लेकिन अगर तुम इस तरह से सत्य की तलाश नहीं करते हो या सत्य का अभ्यास नहीं करते हो और तुम अपने दिल में सोचते हो, “तुम कहते हो कि मैं तुच्छ हूँ, मेरी मानवता में कमियाँ और दोष हैं, जैसे कि जिद्दी होना, बेशर्मी से मोटी चमड़ी वाला होना और संदेह करने की प्रवृत्ति वाला होना। खैर, मैं बस ऐसा ही हूँ और मैं इसी तरीके से जीऊँगा। मैं नहीं बदलूँगा। तुम्हें जो पसंद हो कहो! बहरहाल, मैं बस नुकसान सहना नहीं चाहता। जब तक मैं फायदा उठा सकता हूँ, मैं ठीक हूँ!”—अगर यही तुम्हारे विचार और दृष्टिकोण हैं तो अफसोस की बात है कि तुम एक दुष्चक्र के खौफनाक चक्कर में फँस जाओगे जिससे बाहर निकलने में तुम हमेशा के लिए असमर्थ रहोगे। अंतिम नतीजा क्या होगा? यह वह होगा जिसे तुम शायद देखना नहीं चाहते : तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हमेशा के लिए तुम्हारा जीवन बन जाएँगे। वे जीवनभर के लिए तुम्हें कसकर बाँध देंगे, तुम्हारे विचारों और आत्मा की गहराई में गहरी जड़ें जमा लेंगे और तुम्हारे लिए उन्हें छोड़ देना असंभव हो जाएगा। उन्हें छोड़ देना असंभव हो जाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम्हारे पास उद्धार प्राप्त करने की कोई उम्मीद नहीं है और परमेश्वर द्वारा मानवजाति के लिए तैयार किए गए गंतव्य में तुम्हारा कोई हिस्सा नहीं है। यही नतीजा है। अगर तुम यह नतीजा नहीं देखना चाहते तो मैंने जो मार्ग बताया है उसमें प्रवेश करना और उस पर अभ्यास करना शुरू कर दो और एक सकारात्मक चक्र प्राप्त करो; और अंत में तुम निश्चित रूप से परिणाम प्राप्त कर लोगे। तुम समझ रहे हो? (हाँ।)
वैसे तो हमने आज की संगति में बहुत-से अलग-अलग विषय शामिल नहीं किए, लेकिन हमने बहुत सारी सामग्री पर चर्चा की। तो आओ, हम आज की संगति यहीं समाप्त करें। हम बाद में दूसरे विषयों और सामग्री पर संगति करना जारी रखेंगे। अलविदा!
2 दिसंबर 2023