15. अपना कर्तव्य निभाना वह जिम्मेदारी है जिससे मैं भाग नहीं सकती
जब मैं छोटी थी, मेरा परिवार बहुत गरीब था। मेरे माता-पिता ने मेरी शिक्षा का खर्च उठाने के लिए कड़ी मेहनत की। बीमार होने पर वे अपनी चिकित्सा जरूरतों पर पैसा खर्च नहीं करते थे, इसके बजाय उन्होंने मुझे अच्छा भोजन और कपड़े उपलब्ध कराए। जब मैंने जूनियर मिडिल स्कूल से स्नातक किया, तो मेरे दादा ने मेरे पिता से कहा, “अब अपनी लड़की को और मत पढ़ाओ-लिखाओ।” लेकिन मेरे पिताजी ने कहा, “चाहे बेटी हो या बेटा, हम अपने बच्चों के साथ एक जैसा व्यवहार करते हैं।” उन्होंने यह भी कहा कि चूँकि मेरी सेहत ठीक नहीं थी, इसलिए मैं मशक्कत वाला काम नहीं कर सकती और मुझे पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए। इससे मैं अपने माता-पिता की बहुत आभारी हो गई और मुझे लगा कि मैं उनके कठिन प्रयासों के बाद उन्हें निराश नहीं कर सकती थी। तब से मैंने कड़ी मेहनत से पढ़ाई की। जब भी मुझे छात्रवृत्ति मिलती और मैं अपने माता-पिता के चेहरे पर खुशी देखती थी, तो मुझे वास्तव में लगता था कि मैंने उन्हें निराश नहीं किया है। मैंने खुद से संकल्प लिया, “जब मैं भविष्य में कुछ बन जाऊँगी, तो मैं अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित बनूँगी और मुझे पालने-पोसने के लिए बरती उनकी दयालुता का ऋण चुकाऊँगी।”
जब मैं उन्नीस साल की थी, तो मेरे परिवार ने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकार कर लिया। परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने से मुझे समझ आया कि केवल सत्य का अनुसरण और कर्तव्य का अच्छे से प्रदर्शन ही सार्थक जीवन की ओर ले जाता है। इसलिए मैंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और अपने कर्तव्यों के प्रति समर्पित हो गई। एक दिन एक बहन के हमारे घर आने के कुछ ही समय बाद अचानक पुलिस घुस आई और उसे ले गई। वे मेरे पिता और मुझे भी पूछताछ के लिए पुलिस स्टेशन ले गए। हालाँकि बाद में हमें छोड़ दिया गया, पर स्थानीय धार्मिक मामलों के ब्यूरो और पुलिस स्टेशन के लोग हमारे घर आए और हमें चेतावनी दी कि हम परमेश्वर पर विश्वास करना बंद कर दें। अपना कर्तव्य निभाने के लिए मुझे मजबूरन घर छोड़ना पड़ा। दूसरे इलाके में अपने कर्तव्य निभाते समय जब भी मैं मेजबान घर की बहन के बेटे-बेटियों को उसके प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाते हुए पाती, तो मेरे भीतर गहरी भावनाएँ जाग जातीं और मैं बरबस ही अपने माता-पिता के बारे में सोचने लगती थी। उन्होंने मुझे पालने के लिए इतनी मेहनत की थी, फिर भी मैं उनकी देखभाल करने के लिए वहाँ नहीं थी। मैं उनके प्रति बहुत ऋणी महसूस करती थी।
2019 में जिस शहर में मैं अपना कर्तव्य कर रही थी, वहाँ बड़े लाल अजगर की गिरफ्तारियाँ काफी तेज हो गईं और चूँकि हमें तब रहने के लिए सुरक्षित मेजबान घर नहीं मिल पाए थे, तो अगुआओं ने हमसे कहा कि अगर हम सक्षम हों तो अपने गृह नगर लौट जाएँ। उस समय मेरे माता-पिता घर पर नहीं थे क्योंकि वे कहीं और किराए पर घर ले रहे थे, इसलिए मैंने पहले उनके घर जाने का फैसला किया। जब मैं अपने माता-पिता से मिली, तो देखा कि मेरी माँ खाली-खाली नजरों से मुझे ताक रही थीं और मुझसे वही सवाल बार-बार पूछती थीं। मेरे छोटे भाई ने मुझे बताया कि मेरी माँ को स्ट्रोक और सेरिबेलर एट्रोफी हुआ था और उन्हें कुछ दिन पहले ही अस्पताल से छुट्टी मिली थी। मुझे याद आया कि कुछ साल पहले मैंने अपनी माँ में कुछ लक्षण देखे थे, लेकिन कभी उन पर ध्यान नहीं दिया था। मैंने सोचा, “अगर मैं उनकी देखभाल करती और उन्हें अपनी सेहत पर ध्यान देने की याद दिलाती, तो क्या उनकी हालत इतनी गंभीर होती?” उस दौरान मैं अपने दिन माँ पर ध्यान देते हुए बिताती थी, उनके लिए अच्छा स्वास्थ्यवर्धक खाना पकाती, उन्हें व्यायाम के लिए ले जाती और सिखाती कि वे अपनी सेहत का ख्याल कैसे रखें। मैंने अपनी सारी ऊर्जा अपनी माँ की देखभाल में लगा दी और अपने कर्तव्यों के बारे में कतई नहीं सोचा। पलक झपकते ही दो महीने बीत गए और एक दिन मुझे अगुआओं से एक पत्र मिला, जिसमें मुझे दूसरे क्षेत्र में जाकर अपने कर्तव्य निभाने के लिए कहा गया था। उस दिन मेरी चाची और चाचा मेरे घर आए। पहले तो उन्होंने देखा कि मैं घर पर अपनी माँ की देखभाल कर रही हूँ और कुछ नहीं कहा, लेकिन फिर उन्होंने अचानक मुझसे पूछा, “क्या तुम कुछ दिन रहकर चली जाओगी?” यह देखकर कि मैंने कोई जवाब नहीं दिया, उन्होंने मुझे डाँटा, “तुम फिर से नहीं जा सकती। तुम्हें रहना होगा और अपने माता-पिता की देखभाल करनी होगी। तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें बचपन में सहारा दिया था और अब जब वे सत्तर के हो गए हैं, तो क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हें उनके लिए कुछ करना चाहिए? अगर तुम्हारे माता-पिता तुम्हारा पालन-पोषण और देखभाल न करते, तो क्या तुम आज इस मुकाम पर होतीं? तुम्हें इतना स्वार्थी नहीं होना चाहिए!” उनके शब्दों ने मेरे दिल को चाकू की तरह भेद दिया और एक पल के लिए मेरे पास शब्द नहीं थे। अगर मेरे माता-पिता मेरी देखभाल न करते तो मैं वहाँ न होती, जहाँ मैं हूँ। अगर मैं बदले में कुछ दिए बिना सिर्फ उनकी देखभाल का आनंद लेती रहूँ, तो क्या यह मुझे कृतघ्न नहीं बनाता? जब मैं छोटी थी, तो मैं देखती थी कि मेरा चचेरा भाई सिर्फ अपने भौतिक सुखों के बारे में सोचता था और जब उसके माता-पिता बीमार होते थे, तो वह उनकी देखभाल नहीं करता था। मुझे लगा कि उसमें वाकई मानवता की कमी है और मैं वैसी इंसान नहीं हो सकती। अब जब मेरे माता-पिता बूढ़े हो गए हैं, तो मुझे लगा कि अगर मैं उनकी देखभाल की जिम्मेदारी नहीं उठा सकती, तो मैं संतानोचित नहीं रहूँगी। उस दौरान मुझे बहुत पीड़ा और कशमकश महसूस हुई, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मैं जानती हूँ कि अपने कर्तव्य निभाना मेरी जिम्मेदारी है, लेकिन मैं देखती हूँ कि मेरे माता-पिता बूढ़े हो रहे हैं और उनकी सेहत खराब है, मैं उनके बारे में चिंता करना नहीं छोड़ पाती और मुझे अपने कर्तव्य निभाने के लिए कहीं और जाने का मन नहीं होता। मुझे इस दशा से बाहर निकलने के लिए मेरा मार्गदर्शन और प्रबोधन करो।”
एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “जन्म देने और बच्चे के पालन-पोषण के अलावा बच्चे के जीवन में माता-पिता का उत्तरदायित्व उसके बड़ा होने के लिए महज एक परिवेश प्रदान करना है और बस इतना ही होता है क्योंकि सृष्टिकर्ता के पूर्वनिर्धारण के अलावा किसी भी चीज का उस व्यक्ति के भाग्य से कोई सम्बन्ध नहीं होता। किसी व्यक्ति का भविष्य कैसा होगा, इसे कोई नियन्त्रित नहीं कर सकता; इसे बहुत पहले ही पूर्व निर्धारित किया जा चुका होता है, किसी के माता-पिता भी उसके भाग्य को नहीं बदल सकते। जहाँ तक भाग्य की बात है, हर कोई स्वतन्त्र है और हर किसी का अपना भाग्य है। इसलिए किसी के भी माता-पिता जीवन में उसके भाग्य को बिल्कुल भी नहीं रोक सकते या जब उस भूमिका की बात आती है जो वे जीवन में निभाते हैं तो उसमें जरा-सा भी योगदान नहीं दे सकते हैं। ऐसा कहा जा सकता है कि वह परिवार जिसमें किसी व्यक्ति का जन्म लेना नियत होता है, और वह परिवेश जिसमें वह बड़ा होता है, वे जीवन में उसके ध्येय को पूरा करने के लिए मात्र पूर्वशर्तें होती हैं। वे किसी भी तरह से किसी व्यक्ति के भाग्य को या उस प्रकार की नियति को निर्धारित नहीं करते जिसमें रहकर कोई व्यक्ति अपने ध्येय को पूरा करता है। और इसलिए, किसी के भी माता-पिता जीवन में उसके ध्येय को पूरा करने में उसकी सहायता नहीं कर सकते, किसी के भी रिश्तेदार जीवन में उसकी भूमिका निभाने में उसकी सहायता नहीं कर सकते। कोई किस प्रकार अपने ध्येय को पूरा करता है और वह किस प्रकार के परिवेश में रहते हुए अपनी भूमिका निभाता है, यह पूरी तरह से जीवन में उसके भाग्य द्वारा निर्धारित होता है। दूसरे शब्दों में, कोई भी अन्य निष्पक्ष स्थितियाँ किसी व्यक्ति के ध्येय को, जो सृष्टिकर्ता द्वारा पूर्वनिर्धारित किया जाता है, प्रभावित नहीं कर सकतीं। सभी लोग अपने-अपने परिवेश में जिसमें वे बड़े होते हैं, परिपक्व होते हैं; तब क्रमशः धीरे-धीरे, अपने रास्तों पर चल पड़ते हैं, और सृष्टिकर्ता द्वारा नियोजित उस नियति को पूरा करते हैं। वे स्वाभाविक रूप से, अनायास ही लोगों के विशाल समुद्र में प्रवेश करते हैं और जीवन में भूमिका ग्रहण करते हैं, जहाँ वे सृष्टिकर्ता के पूर्वनिर्धारण के लिए, उसकी संप्रभुता के लिए, सृजित प्राणियों के रूप में अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करना शुरू करते हैं” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मेरे माता-पिता ने मुझे केवल जन्म दिया, मेरा पालन-पोषण किया और मुझे बढ़ने के लिए एक परिवेश प्रदान किया। लेकिन यह परमेश्वर ही है जिसने मुझे सचमुच जीवन दिया। यह परमेश्वर ही है जिसने मुझे जीवन की साँस दी है जो मुझे आज तक जीवित रहने देता है। इसके अलावा हमारे भाग्य सृष्टिकर्ता के हाथों में हैं और कोई भी किसी दूसरे व्यक्ति का भाग्य निर्धारित नहीं कर सकता। मेरे माता-पिता मेरा भाग्य नियंत्रित नहीं कर सकते और मैं भी उनके भाग्य नियंत्रित नहीं कर सकती। मैंने सोचा कि कैसे अचानक मेरी माँ बीमार पड़ी और मेरी चाची उन्हें समय रहते इलाज के लिए अस्पताल ले जा पाई। क्या यह भी परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं का हिस्सा नहीं था? मैं तय नहीं कर सकती थी कि मेरी माँ कब बीमार होंगी या उनकी बीमारी कितनी गंभीर होगी और चाहे मैं कितनी भी चिंता क्यों न कर लूँ, मैं अपनी माँ की पीड़ा बिल्कुल कम नहीं कर सकती थी। भले ही मैं उनके साथ घर पर होती, तो भी मैं कोई समस्या हल नहीं कर पाती। पिछले दो महीनों में मैंने अपनी माँ की देखभाल करने में अपना दिल और आत्मा लगा दी थी, यहाँ तक कि अपने कर्तव्यों की उपेक्षा भी की थी। हालाँकि मेरी माँ की बीमारी न केवल ठीक नहीं हुई बल्कि असल में बिगड़ गई। मैंने यहाँ तक सोचा कि अगर मैं घर पर उनके साथ होती, तो शायद वह इतनी बीमार न होतीं। क्या यह छद्म-विश्वासियों का दृष्टिकोण नहीं है? मैंने पढ़ा कि परमेश्वर का वचन कहता है : “इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या करते हो, क्या सोचते हो, या क्या योजना बनाते हो, वे सब महत्वपूर्ण बातें नहीं हैं। महत्वपूर्ण यह है कि क्या तुम यह समझ सकते हो और सचमुच विश्वास कर सकते हो कि सभी सृजित प्राणियों का नियंत्रण परमेश्वर के हाथों में हैं। कुछ माता-पिताओं को ऐसा आशीष मिला होता है और ऐसी नियति होती है कि वे घर-परिवार का आनंद लेते हुए एक बड़े और समृद्ध परिवार की खुशियां भोगें। यह परमेश्वर का अधिकार क्षेत्र है, और परमेश्वर से मिला आशीष है। कुछ माता-पिताओं की नियति ऐसी नहीं होती; परमेश्वर ने उनके लिए ऐसी व्यवस्था नहीं की होती। उन्हें एक खुशहाल परिवार का आनंद लेने, या अपने बच्चों को अपने साथ रखने का आनंद लेने का सौभाग्य प्राप्त नहीं है। यह परमेश्वर की व्यवस्था है और लोग इसे जबरदस्ती हासिल नहीं कर सकते” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य वास्तविकता क्या है?)। मैंने सोचा कि कितने माता-पिता अपने बच्चों के साथ के बिना ही बूढ़े हो जाते हैं। यह बस उनका भाग्य है। मुझे अपने माता-पिता के साथ व्यवहार करने के तरीके में परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के अधीन होना था और मैं हालात पर अपनी इच्छा थोपने की कोशिश नहीं कर सकती थी। मुझे याद आया कि मेरी माँ को बचपन में कोरोनरी हृदय रोग का पता चला था, लेकिन वह पैसे कमाने के लिए कड़ी मेहनत करती रही और अपनी सेहत का बिल्कुल खयाल नहीं रखा। परमेश्वर को पाने के बाद उसे एहसास हुआ कि सत्य का अनुसरण और कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना सबसे महत्वपूर्ण चीजें हैं और सही जीवन लक्ष्य के साथ उसने पहले की तरह कड़ी मेहनत करनी बंद कर दी और उसका स्वास्थ्य धीरे-धीरे बेहतर होता गया। यह पहले से ही परमेश्वर का अनुग्रह था कि वह अब तक जीवित थी। अब चूँकि मेरे माता-पिता बूढ़े हो गए थे, भले ही मैं उनकी देखभाल नहीं कर पाती, मेरे चाचा-चाची उनसे मिलने आ जाते थे और उनकी भौतिक जरूरतों का अच्छे से ख्याल रखते थे। क्या यह परमेश्वर की संप्रभुता के कारण नहीं था? इन बातों के बारे में सोचने से मेरे दिल में दर्द कम हुआ और मुझे अपने कर्तव्य पूरे करने के लिए बाहर जाने की इच्छा हुई। लगभग दो महीने बाद मुझे अपने पिता का एक पत्र मिला, जिसमें कहा गया था कि मेरी माँ की सेहत में काफी सुधार है। उन्होंने कहा कि वह अब खाना बना सकती है और चीजें खरीदने बाहर जा सकती है और वह वास्तव में ठीक हो रही है।
जून 2021 में एक दिन मुझे कलीसिया से एक पत्र मिला, जिसमें कहा गया था कि बड़ा लाल अजगर मेरे छोटे भाई के पीछे लगा है और उसकी निगरानी कर रहा है और उसके घर पहुँचने के कुछ ही समय बाद पुलिस ने मेरे माता-पिता और मेरे भाई दोनों को गिरफ्तार कर लिया और उन्होंने मेरे ठिकाने के बारे में भी पूछताछ की। पत्र में कलीसिया ने मुझे घर न लौटने की चेतावनी दी थी। यह पत्र मिलने के बाद मैं अपने माता-पिता की सेहत के बारे में और भी चिंतित हो गई। मेरी माँ को पहले से ही स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ थीं और वह डर और व्याकुलता सहन नहीं कर पाती थी। मेरे पिता का दिल ठीक नहीं था, इसलिए मैंने सोचा कि क्या वे पुलिस के डर और धमकियों का सामना कर पाएँगे। अगर उन्हें कुछ हो गया तो क्या होगा? मैं वास्तव में वापस जाकर उनसे मिलना चाहती थी, लेकिन पुलिस अभी भी मेरे पीछे थी और अगर मैं वापस जाती तो सीधे जाल में फँस जाती। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे उनकी आस्था को मजबूत करने के लिए कहा, ताकि चाहे उन्हें कितनी भी पीड़ा का सामना करना पड़े, वे कलीसिया से विश्वासघात न करें और इसके बजाय परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में अडिग रहें। मेरे माता-पिता को आधे महीने तक हिरासत में रखकर रिहा कर दिया गया, लेकिन मुझे अपने भाई की कोई खबर नहीं मिली। हालाँकि मेरे माता-पिता को रिहा कर दिया गया था, लेकिन पुलिस उन्हें अक्सर परेशान करती थी, वह मेरे माता-पिता को मुझे जल्दी बुलाने और आत्मसमर्पण करवाने के लिए धमकाती थी। उस दौरान जब भी मेरे पास खाली समय होता, मैं अपने माता-पिता के बारे में सोचती और उनकी बहुत चिंता करती।
दिसंबर 2022 के आसपास मुझे पता चला कि मेरे पिता बीमार पड़ गए हैं और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया है और घर पर रिश्तेदार मेरे माता-पिता को मुझे बुलाने के लिए उकसा रहे थे। मैं फिर से परेशान होकर सोचने लगी, “मेरे रिश्तेदार मुझे जरूर कृतघ्न कहेंगे। मेरे माता-पिता ने मुझे पालने में इतने साल लगाए और मैंने उनका कोई ऋण नहीं चुकाया। मेरे पास किस तरह कोई अंतरात्मा है?” उस समय मैंने एक नए काम का जिम्मा लिया ही था और इसमें शामिल कौशलों से परिचित नहीं थी। मेरे काम में हमेशा भटकाव और खामियाँ होती थीं, लेकिन मैंने समाधान नहीं ढूँढ़े या इन चीजों का सारांश नहीं बनाया। इसके बजाय मैंने अपने लिए बहाने भी ढूँढ़े, यह महसूस किया कि यूँ तो मेरी दशा खराब थी, फिर भी मैंने अपने कर्तव्य नहीं छोड़े। चूँकि मेरी दशा कभी नहीं बदली, मैंने अपने कर्तव्यों में नतीजे हासिल नहीं किए और अंत में मुझे बरखास्त कर दिया गया। बरखास्त होने के बाद मैं वास्तव में जल्द से जल्द अपने माता-पिता के पास लौटना चाहती थी, लेकिन पुलिस अभी भी मेरा पीछा कर रही थी और मैं नहीं लौट सकी। मैं उस समय बहुत आंतरिक पीड़ा में थी, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मेरा प्रबोधन और मार्गदर्शन करने के लिए कहा ताकि मैं इस गलत दशा से बच पाऊँ। एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और मेरी दशा बदलने लगी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “तो लोगों की बात करें, तो तुम्हारे माता-पिता ने सावधानी से तुम्हारी देखभाल की हो या तुम्हारी बहुत परवाह की हो, किसी भी स्थिति में, वे बस अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभा रहे थे। तुम्हें उन्होंने जिस भी कारण से पाल-पोस कर बड़ा किया हो, यह उनकी जिम्मेदारी थी—चूँकि उन्होंने तुम्हें जन्म दिया, इसलिए उन्हें तुम्हारी जिम्मेदारी उठानी चाहिए। इस आधार पर, जो कुछ भी तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारे लिए किया, क्या उसे दयालुता कहा जा सकता है? नहीं कहा जा सकता, सही है? (सही है।) तुम्हारे माता-पिता का तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करने को दयालुता नहीं माना जा सकता, तो अगर वे किसी फूल या पौधे के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करते हैं, उसे सींच कर उसे खाद देते हैं, तो क्या उसे दयालुता कहेंगे? (नहीं।) यह दयालुता से कोसों दूर की बात है। फूल और पौधे बाहर बेहतर ढंग से बढ़ते हैं—अगर उन्हें जमीन में लगाया जाए, उन्हें हवा, धूप और बारिश का पानी मिले, तो वे पनपते हैं। वे घर के अंदर गमलों में बाहर जैसे अच्छे ढंग से नहीं पनपते, लेकिन वे जहाँ भी हों, जीवित रहते हैं, है ना? वे चाहे जहाँ भी हों, इसे परमेश्वर ने नियत किया है। तुम एक जीवित व्यक्ति हो, और परमेश्वर प्रत्येक जीवन की जिम्मेदारी लेता है, उसे इस योग्य बनाता है कि वह जीवित रहे और उस विधि का पालन करे जिसका सभी सृजित प्राणी पालन करते हैं। लेकिन एक इंसान के रूप में, तुम उस माहौल में जीते हो, जिसमें तुम्हारे माता-पिता तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करते हैं, इसलिए तुम्हें उस माहौल में बड़ा होना और टिके रहना पड़ता है। उस माहौल में तुम काफी हद तक परमेश्वर द्वारा नियत होने के कारण जी रहे हो; कुछ हद तक इसका कारण अपने माता-पिता के हाथों पालन-पोषण है, है ना? किसी भी स्थिति में, तुम्हें पाल-पोसकर तुम्हारे माता-पिता एक जिम्मेदारी और एक दायित्व निभा रहे हैं। तुम्हें पाल-पोस कर वयस्क बनाना उनका दायित्व और जिम्मेदारी है, और इसे दयालुता नहीं कहा जा सकता। अगर इसे दयालुता नहीं कहा जा सकता, तो क्या यह ऐसी चीज नहीं है जिसका तुम्हें मजा लेना चाहिए? (जरूर है।) यह एक प्रकार का अधिकार है जिसका तुम्हें आनंद लेना चाहिए। तुम्हें अपने माता-पिता द्वारा पाल-पोस कर बड़ा किया जाना चाहिए, क्योंकि वयस्क होने से पहले तुम्हारी भूमिका एक पाले-पोसे जा रहे बच्चे की होती है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे प्रति सिर्फ एक जिम्मेदारी पूरी कर रहे हैं, और तुम बस इसे प्राप्त कर रहे हो, लेकिन निश्चित रूप से तुम उनसे अनुग्रह या दया प्राप्त नहीं कर रहे हो। किसी भी जीवित प्राणी के लिए बच्चों को जन्म देकर उनकी देखभाल करना, प्रजनन करना और अगली पीढ़ी को बड़ा करना एक किस्म की जिम्मेदारी है। मिसाल के तौर पर पक्षी, गायें, भेड़ें और यहाँ तक कि बाघिनें भी बच्चे जनने के बाद अपनी संतान की देखभाल करती हैं। ऐसा कोई भी जीवित प्राणी नहीं है जो अपनी संतान को पाल-पोस कर बड़ा न करता हो। कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन ये ज्यादा नहीं हैं। जीवित प्राणियों के अस्तित्व में यह एक कुदरती घटना है, जीवित प्राणियों का यह सहज ज्ञान है, और इसे दयालुता का लक्षण नहीं माना जा सकता। वे बस उस विधि का पालन कर रहे हैं जो सृष्टिकर्ता ने जानवरों और मानवजाति के लिए स्थापित की है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता का तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करना किसी प्रकार की दयालुता नहीं है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं। वे तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी कर रहे हैं। वे तुम पर चाहे जितनी भी मेहनत करें, जितना भी पैसा लगाएँ, उन्हें तुमसे इसकी भरपाई करने को नहीं कहना चाहिए, क्योंकि माता-पिता के रूप में यह उनकी जिम्मेदारी है। चूँकि यह एक जिम्मेदारी और दायित्व है, इसलिए इसे मुफ्त होना चाहिए, और उन्हें इसकी भरपाई करने को नहीं कहना चाहिए। तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करके तुम्हारे माता-पिता बस अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभा रहे थे, और यह निःशुल्क होना चाहिए, इसमें लेनदेन नहीं होना चाहिए। इसलिए तुम्हें भरपाई करने के विचार के अनुसार न तो अपने माता-पिता से पेश आना चाहिए, न उनके साथ अपने रिश्ते को ऐसे सँभालना चाहिए। अगर तुम इस विचार के अनुसार अपने माता-पिता से पेश आते हो, उनका कर्ज चुकाते हो और उनके साथ अपने रिश्ते को सँभालते हो, तो यह अमानुषी है। साथ ही, हो सकता है इसके कारण तुम आसानी से अपनी दैहिक भावनाओं से नियंत्रित होकर उनसे बँध जाओ और फिर तुम्हारे लिए इन उलझनों से उबरना इस हद तक मुश्किल हो जाएगा कि शायद तुम अपनी राह से भटक जाओ। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं, इसलिए उनकी तमाम अपेक्षाएँ साकार करना तुम्हारा दायित्व नहीं है। उनकी अपेक्षाओं की कीमत चुकाना तुम्हारा दायित्व नहीं है। यानी उनकी अपनी अपेक्षाएँ हो सकती हैं। तुम्हारे अपने विकल्प हैं, तुम्हारा अपना जीवन पथ है और अपनी नियति है जो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए नियत किए हैं जिनसे तुम्हारे माता-पिता का कोई लेना-देना नहीं है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गई कि प्रजनन करने वाली कोई भी प्रजाति अपनी अगली पीढ़ी के पालन-पोषण और देखभाल के लिए हर संभव प्रयास करती है। यह सभी जीवित प्राणियों के लिए परमेश्वर द्वारा स्थापित एक कानून और नियम है। यह एक तरह की जिम्मेदारी और दायित्व है, लेकिन इसे दयालुता नहीं माना जा सकता। जानवरों की दुनिया की तरह चाहे वह खूँखार बाघ हो या शेर या एक सौम्य हिरण या मृग, सभी अपने बच्चों को पालते हैं और प्रजनन के बाद उनके लिए भोजन ढूँढ़ते हैं, कभी-कभी अपने बच्चों को समय पर खिलाने के लिए खुद भूखे रहने का चुनाव करते हैं, जब तक कि उनके बच्चे स्वतंत्र रूप से रहने नहीं लग जाते। यह सहज वृत्ति होती है। मैंने घर पर पाले गए मुर्गे-मुर्गियों के बारे में भी सोचा। चूजे देने के बाद मुर्गी हमेशा उनकी रक्षा और देखभाल करती और दाना-पानी खोजने पर वह पहले चूजों को खिलाती। जब खतरा होता तो मुर्गी बढ़कर आगे आती और बरसात के दिनों में या जब गर्मी होती और कोई आश्रय न होता, तो मुर्गी अपने पंखों के नीचे चूजों को आश्रय देकर खुद कष्ट सहती। जब चूजे बड़े हो जाते और अपने आप जीवित रहने में सक्षम हो जाते, तो वे स्वाभाविक रूप से मुर्गी को छोड़ देते और मुर्गी अपनी जिम्मेदारी पूरी कर चुकी होती थी। मैंने देखा कि संतानों का पालन-पोषण करना जानवरों और मनुष्यों दोनों के लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित जीवित रहने का नियम है और यह एक जिम्मेदारी और दायित्व है। यह निस्वार्थ होता है और इसे किसी प्रतिदान की जरूरत नहीं होती। जब मुझे इन बातों का एहसास हुआ, तो मेरे दिल से मेरे माता-पिता के प्रति लगातार ऋणी महसूस करने का बोझ अचानक उतर गया। मैंने हमेशा अपने माता-पिता द्वारा मेरे पालन-पोषण को दयालुता के रूप में देखा था, यह महसूस किया था कि यह ऐसा कर्ज था जिसे मुझे अपने जीवन में चुकाना था। इसका मुझ पर बहुत बोझ रहता था और मुझे थकावट और दर्द होता था। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे अपने दिल में मुक्ति का एहसास हुआ। मेरे माता-पिता का मुझे पालना उनकी जिम्मेदारी थी। इसे दयालुता नहीं माना जा सकता और इसे चुकाने की कोई जरूरत नहीं थी। इसके अलावा मेरे माता-पिता ने केवल मेरी देखभाल और पालन-पोषण किया था और यह परमेश्वर था जिसने सच में मुझे जीवन दिया। अगर परमेश्वर ने मुझे जीवन न दिया होता, तो मैं बच न पाती। मैंने अपने बचपन के बारे में सोचा जब मेरी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम थी। मुझे अक्सर सर्दी-जुकाम और बुखार हो जाता था और यहाँ तक कि न्यूमोनिया भी हो गया था। डॉक्टर ने मेरे माता-पिता से कहा था कि वे ध्यान रखें कि मुझे फिर से सर्दी न लगे क्योंकि अगला बुखार तपेदिक में बदल सकता है, लेकिन मेरे माता-पिता असहाय थे। लेकिन अजीब बात यह है कि उसके बाद मुझे केवल सर्दी-जुकाम हुआ और फिर कभी बुखार नहीं आया। मेरे माता-पिता को यह अविश्वसनीय लगा। धीरे-धीरे मेरी सेहत थोड़ी बेहतर हो गई और मेरी रोग प्रतिरोधक क्षमता मजबूत हुई। अगर परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा न होती, तो भले ही मेरे माता-पिता मेरी सबसे अच्छी देखभाल करते, फिर भी मेरी अच्छी सेहत न होती। परमेश्वर ने ही मुझे सब कुछ दिया है और मुझे उसी का बदला चुकाना चाहिए। लेकिन मैं न केवल कृतज्ञ होने में नाकाम रही, बल्कि परमेश्वर का विरोध किया और बहस भी की क्योंकि मैं अपने माता-पिता की देखभाल करने में सक्षम नहीं थी। मेरे पास परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला दिल ही नहीं था। मैं सचमुच विद्रोही थी!
बाद में मैंने खुद से पूछा, “जब मेरा कर्तव्य निभाना मेरे माता-पिता के प्रति संतानोचित होने के आड़े आता है, तो मुझे उचित तरीके से कैसे अभ्यास करना चाहिए?” मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े, जिन्होंने मुझे इस संबंध में अभ्यास के सिद्धांत समझने में मदद की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “असल में, अपने माता-पिता का सम्मान करना सिर्फ एक तरह की जिम्मेदारी है और यह सत्य के अभ्यास से कम है। परमेश्वर के प्रति समर्पण ही सत्य का अभ्यास है, परमेश्वर का आदेश स्वीकारना ही परमेश्वर के प्रति समर्पण करने की निशानी है, और परमेश्वर के अनुयायी वे होते हैं जो अपने कर्तव्य निभाने के लिए सब-कुछ त्याग देते हैं। संक्षेप में, सबसे महत्वपूर्ण कार्य जो तुम्हारे सामने है, वह है अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना। यही सत्य का अभ्यास है और यह परमेश्वर के प्रति समर्पण की एक निशानी है। तो वह कौन-सा सत्य है, जिसका लोगों को अब मुख्य रूप से अभ्यास करना चाहिए? (अपना कर्तव्य निभाना।) सही कहा, निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य निभाना सत्य का अभ्यास करना है। अगर व्यक्ति अपना कर्तव्य ईमानदारी से नहीं निभाता, तो वह सिर्फ मजदूरी कर रहा है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (4))। “अगर अपने जीवन-परिवेश और उस संदर्भ के आधार पर, जिसमें तुम खुद को पाते हो, अपने माता-पिता का सम्मान करने से परमेश्वर का आदेश पूरा करने और अपना कर्तव्य निभाने में कोई टकराव नहीं होता—या, दूसरे शब्दों में, अगर तुम्हारे माता-पिता का सम्मान करने से तुम्हारे निष्ठापूर्वक कर्तव्य-प्रदर्शन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता—तो तुम एक ही समय में उन दोनों का अभ्यास कर सकते हो। तुम्हें अपने माता-पिता से बाहरी रूप से अलग होने, उन्हें बाहरी रूप से त्यागने या नकारने की जरूरत नहीं। यह किस स्थिति में लागू होता है? (जब अपने माता-पिता का सम्मान करना व्यक्ति के कर्तव्य-प्रदर्शन से नहीं टकराता।) यह सही है। दूसरे शब्दों में, अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में बाधा डालने की कोशिश नहीं करते, और वे भी विश्वासी हैं, और वे वाकई तुम्हें अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभाने और परमेश्वर का आदेश पूरा करने में समर्थन और प्रोत्साहन देते हैं, तो तुम्हारे माता-पिता के साथ तुम्हारा रिश्ता, आम शाब्दिक अर्थ में, रिश्तेदारों के बीच का दैहिक रिश्ता नहीं है, वह कलीसिया के भाई-बहनों के बीच का रिश्ता है। उस स्थिति में, उनके साथ कलीसिया के साथी भाई-बहनों की तरह बातचीत करने के अलावा तुम्हें उनके प्रति अपनी कुछ संतानोचित जिम्मेदारियाँ भी पूरी करनी चाहिए। तुम्हें उनके प्रति थोड़ा अतिरिक्त सरोकार दिखाना चाहिए। अगर इससे तुम्हारा कर्तव्य-प्रदर्शन प्रभावित नहीं होता, यानी, अगर वे तुम्हारे दिल को विवश नहीं करते, तो तुम अपने माता-पिता को फोन करके उनका हालचाल पूछ सकते हो और उनके लिए थोड़ा सरोकार दिखा सकते हो, तुम उनकी कुछ कठिनाइयाँ हल करने और उनके जीवन की कुछ समस्याएँ सुलझाने में मदद कर सकते हो, यहाँ तक कि तुम उनके जीवन-प्रवेश के संदर्भ में उनकी कुछ कठिनाइयाँ हल करने में भी मदद कर सकते हो—तुम ये सभी चीजें कर सकते हो। दूसरे शब्दों में, अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में बाधा नहीं डालते, तो तुम्हें उनके साथ यह रिश्ता बनाए रखना चाहिए, और तुम्हें उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए। और तुम्हें उनके लिए सरोकार क्यों दिखाना चाहिए, उनकी देखभाल क्यों करनी चाहिए और उनका हालचाल क्यों पूछना चाहिए? क्योंकि तुम उनकी संतान हो और तुम्हारा उनके साथ यह रिश्ता है, तुम्हारी एक और तरह की जिम्मेदारी है, और इस जिम्मेदारी के कारण तुम्हें उनकी थोड़ी और खैर-खबर लेनी चाहिए और उन्हें और ज्यादा ठोस सहायता प्रदान करनी चाहिए। अगर यह तुम्हारे कर्तव्य-प्रदर्शन को प्रभावित नहीं करता और अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में तुम्हारी आस्था और तुम्हारे कर्तव्य-प्रदर्शन में बाधा नहीं डालते या गड़बड़ी नहीं करते, और वे तुम्हें रोकते भी नहीं, तो तुम्हारे लिए उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना स्वाभाविक और उचित है और तुम्हें इसे उस हद तक करना चाहिए, जिस हद तक तुम्हारा जमीर तुम्हें न धिक्कारे—यह सबसे न्यूनतम मानक है, जिसे तुम्हें पूरा करना चाहिए। अगर तुम अपनी परिस्थितियों के प्रभाव और बाधा के कारण घर पर अपने माता-पिता का सम्मान नहीं कर पाते, तो तुम्हें इस नियम का पालन करने की जरूरत नहीं। तुम्हें अपने आपको परमेश्वर के आयोजनों के हवाले कर देना चाहिए और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए, और तुम्हें अपने माता-पिता का सम्मान करने पर जोर देने की जरूरत नहीं है। क्या परमेश्वर इसकी निंदा करता है? परमेश्वर इसकी निंदा नहीं करता; वह लोगों को ऐसा करने के लिए मजबूर नहीं करता। ... अगर तुम अपनी भावनाओं के बीच जीते हुए अपने माता-पिता का सम्मान करते हो, तो तुम अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभा रहे, और तुम परमेश्वर के वचनों का पालन नहीं कर रहे, क्योंकि तुमने परमेश्वर का आदेश त्याग दिया है, और तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करता है। इस तरह की स्थिति का सामना करने पर अगर इससे तुम्हारे कर्तव्य में देरी न होती हो या तुम्हारे कर्तव्य का निष्ठावान प्रदर्शन प्रभावित न होता हो, तो तुम अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाने के लिए कुछ ऐसी चीजें कर सकते हो जिन्हें करने में तुम सक्षम हो, और वे जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकते हो जिन्हें पूरा करने में तुम सक्षम हो। संक्षेप में, यही है जो लोगों को करना चाहिए और जिसे वे मानवता के दायरे में करने में सक्षम हैं। अगर तुम अपनी भावनाओं में फँस जाते हो और इससे तुम्हारा कर्तव्य-प्रदर्शन बाधित होता है, तो यह पूरी तरह से परमेश्वर के इरादों के विपरीत है। परमेश्वर ने तुमसे कभी ऐसा करने की अपेक्षा नहीं की, परमेश्वर सिर्फ यह माँग करता है कि तुम अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करो, बस। संतानोचित निष्ठा होने का यही अर्थ है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (4))। परमेश्वर माता-पिता के साथ व्यवहार के सिद्धांतों को स्पष्ट रूप से समझाता है, विशेषकर जब परमेश्वर कहता है : “अपने माता-पिता का सम्मान करना सिर्फ एक तरह की जिम्मेदारी है और यह सत्य के अभ्यास से कम है। परमेश्वर के प्रति समर्पण ही सत्य का अभ्यास है, परमेश्वर का आदेश स्वीकारना ही परमेश्वर के प्रति समर्पण करने की निशानी है, और परमेश्वर के अनुयायी वे होते हैं जो अपने कर्तव्य निभाने के लिए सब-कुछ त्याग देते हैं।” परमेश्वर के वचनों ने मुझे एहसास दिलाया कि एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना सबसे महत्वपूर्ण बात है, किसी भी चीज से अधिक महत्वपूर्ण है। मैं अपने माता-पिता का सम्मान तब तक कर सकती हूँ जब तक कि यह मेरे कर्तव्य को प्रभावित न करे, लेकिन चाहे मैं अपने माता-पिता का कितना भी सम्मान क्यों न कर लूँ, मैं सिर्फ एक बच्चे के रूप में अपनी जिम्मेदारी निभा रही हूँ और इसे सत्य का अभ्यास करना नहीं माना जा सकता। मेरे दोनों माता-पिता परमेश्वर में विश्वास करते हैं और मेरे कर्तव्य में मेरा साथ देते हैं और उनके लिए मेरी चिंता और स्नेह मानवता और अंतरात्मा के दायरे में है। उचित परिस्थितियों में मुझे जितना हो सके उनकी देखभाल करनी चाहिए, जैसे मैं घर लौटने पर अपनी पूरी क्षमता से घर के कामों को सँभालती और जब मेरे माता-पिता बीमार होते, तो मैं उनकी देखभाल भी करती। लेकिन जब परिस्थितियाँ अनुमति नहीं देतीं, तो मुझे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के आगे झुकना चाहिए और अपनी इच्छा नहीं चलानी चाहिए। मैंने उन पश्चिमी मिशनरियों के बारे में सोचा, जिन्होंने प्रभु यीशु के सुसमाचार का प्रचार करने के लिए अपने परिवार, माता-पिता और बच्चों को छोड़कर हजारों मील की चीन की यात्रा की। उन्होंने अपने माता-पिता या बच्चों के बारे में नहीं सोचा बल्कि इस बारे में सोचा कि परमेश्वर के आदेश को कैसे पूरा किया जाए और परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने में अधिकाधिक लोगों की मदद कैसे की जाए। वे परमेश्वर के इरादों पर विचार करने और अपने कर्तव्य पूरे करने में सक्षम थे। अंतरात्मा और विवेक होने का यही अर्थ होता है। मैंने यह भी सोचा कि हमारा परिवार अंत के दिनों के परमेश्वर का कार्य स्वीकार करने में सक्षम था और उसे बचाए जाने का अवसर मिला था। अगर हमारे पास सुसमाचार का प्रचार करने वाले भाई-बहन न होते, तो हम परमेश्वर का उद्धार कैसे प्राप्त कर पाते? अगर मैं केवल शारीरिक स्नेह से संतुष्ट हो जाऊँ और अपना कर्तव्य न करूँ, तो मैं सचमुच स्वार्थी इंसान हूँ और मुझमें मानवता की कमी होगी और परमेश्वर मेरी निंदा और मुझसे घृणा करेगा।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचन का एक और अंश पढ़ा जिसने मेरे दिल को और भी अधिक उज्ज्वल कर दिया। परमेश्वर कहता है : “माता-पिता वाला रिश्ता किसी के लिए भावनात्मक रूप से संभालने का सबसे कठिन रिश्ता है, लेकिन दरअसल, इसे संभालना पूरी तरह असंभव नहीं है। सिर्फ सत्य की समझ के आधार पर लोग इस मामले से सही और तर्कपूर्ण ढंग से पेश आ सकते हैं। भावनाओं के परिप्रेक्ष्य से शुरू मत करो, और सांसारिक लोगों की अंतर्दृष्टियों या नजरियों से शुरु मत करो। इसके बजाय अपने माता-पिता से परमेश्वर के वचनों के अनुसार उचित ढंग से पेश आओ। माता-पिता वास्तव में कौन-सी भूमिका निभाते हैं, माता-पिता के लिए बच्चों का वास्तविक अर्थ क्या है, माता-पिता के प्रति बच्चों का रवैया कैसा होना चाहिए, और लोगों को माता-पिता और बच्चों के बीच के रिश्ते को कैसे सँभालना और हल करना चाहिए? लोगों को इन चीजों को भावनाओं के आधार पर नहीं देखना चाहिए, न ही उन्हें किन्हीं गलत विचारों या प्रचलित भावनाओं से प्रभावित होना चाहिए; उन्हें परमेश्वर के वचनों के आधार पर सही दृष्टि से देखना चाहिए। अगर तुम परमेश्वर द्वारा नियत माहौल में अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने में नाकामयाब हो जाते हो, या तुम उनके जीवन में कोई भी भूमिका नहीं निभाते, तो क्या यह असंतानोचित होना है? क्या तुम्हारा जमीर तुम पर आरोप लगाएगा? तुम्हारे पड़ोसी, सहपाठी और रिश्तेदार सब तुम्हें गाली देंगे और तुम्हारी पीठ पीछे आलोचना करेंगे। वे तुम्हें यह कह कर एक असंतानोचित बच्चा कहेंगे : ‘तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारे लिए इतने त्याग किए, तुम पर इतनी कड़ी मेहनत की, तुम्हारे बचपन से ही तुम्हारे लिए बहुत-कुछ किया, लेकिन तुम, जो कि एक कृतघ्न बच्चे हो, बिना किसी सुराग के गायब हो गए, एक संदेश तक नहीं भेजा कि तुम सुरक्षित हो। न सिर्फ तुम नव वर्ष के लिए वापस नहीं आते, तुम अपने माता-पिता को एक फोन भी नहीं करते या अभिवादन तक नहीं भेजते।’ जब भी तुम ऐसी बातें सुनते हो, तुम्हारा जमीर रोता है, उससे खून रिसता है, और तुम निंदित महसूस करते हो। ‘ओह, वे सही हैं।’ तुम्हारा चेहरा गर्म होकर लाल हो जाता है, और दिल काँपता है मानो उसमें सुइयाँ चुभाई गई हों। क्या तुम्हारे मन में ऐसी भावनाएँ आई हैं? (हाँ, पहले आई हैं।) क्या पड़ोसियों और तुम्हारे रिश्तेदारों की बात सही है कि तुम संतानोचित नहीं हो? (नहीं, मैं ऐसा नहीं हूँ।) ... पहले तो ज्यादातर लोग अपने कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ने को कुछ हद तक व्यापक वस्तुपरक हालात के कारण चुनते हैं जिससे उनका अपने माता-पिता को छोड़ना जरूरी हो जाता है; वे अपने माता-पिता की देखभाल के लिए उनके साथ नहीं रह सकते; ऐसा नहीं है कि वे स्वेच्छा से अपने माता-पिता को छोड़ना चुनते हैं; यह वस्तुपरक कारण है। दूसरी ओर, व्यक्तिपरक ढंग से कहें, तो तुम अपने कर्तव्य निभाने के लिए बाहर इसलिए नहीं जाते कि तुम अपने माता-पिता को छोड़ देना चाहते हो और अपनी जिम्मेदारियों से बचकर भागना चाहते हो, बल्कि परमेश्वर की बुलाहट की वजह से जाते हो। परमेश्वर के कार्य के साथ सहयोग करने, उसकी बुलाहट स्वीकार करने और एक सृजित प्राणी के कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हारे पास अपने माता-पिता को छोड़ने के सिवाय कोई चारा नहीं था; तुम उनकी देखभाल करने के लिए उनके साथ नहीं रह सकते थे। तुमने अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए उन्हें नहीं छोड़ा, सही है? अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए उन्हें छोड़ देना और परमेश्वर की बुलाहट का जवाब देने और अपने कर्तव्य निभाने के लिए उन्हें छोड़ना—क्या इन दोनों बातों की प्रकृतियाँ अलग नहीं हैं? (बिल्कुल।)” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (16))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मैं लोगों और चीजों को सत्य और परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं देख रही थी और मैं पारंपरिक संस्कृति से प्रभावित थी, “संतानोचित धर्मनिष्ठा का गुण सबसे ऊपर रखना चाहिए” और “जो व्यक्ति संतानोचित नहीं है, वह किसी पशु से बदतर है” को सकारात्मक चीजों के रूप में मानती थी। मेरा मानना था कि अगर मैं अपना कर्तव्य निभाते हुए अपने माता-पिता की देखभाल करने के लिए घर नहीं जा सकती, तो मुझमें अंतरात्मा और मानवता की कमी है और मैं पूरी तरह से कृतघ्न हूँ। जब रिश्तेदारों ने मेरी आलोचना की, तो मुझे अपने दिल में गहरा अपराध-बोध हुआ। अब मुझे लगा कि मैं मामले के सार की असलियत नहीं जान पाई हूँ। वास्तव में अपने माता-पिता की देखभाल करने में मेरी असमर्थता सीसीपी के उत्पीड़न के कारण थी जो मुझे घर लौटने से रोक रही थी। यह गैर संतानोचित होना नहीं था। अगर मेरी परिस्थितियाँ अनुमति देतीं और मैं केवल अपने हितों की परवाह करती, एक बच्चे के रूप में अपनी जिम्मेदारियों की उपेक्षा करती, तो यह सचमुच गैर संतानोचित होता। मुझे एहसास हुआ कि मेरे पास कोई सत्य नहीं था और मैं सकारात्मक और नकारात्मक का भेद नहीं पहचान पाती थी। मैं बहुत दयनीय थी!
फिर मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “इससे फर्क नहीं पड़ता कि कोई व्यक्ति क्या कर्तव्य निभाता है, यह सबसे उचित काम है जो वह कर सकता है, मानवजाति के बीच सबसे सुंदर और सबसे न्यायपूर्ण काम है। सृजित प्राणियों के रूप में, लोगों को अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, केवल तभी वे सृष्टिकर्ता की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हैं। सृजित प्राणी सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व में जीते हैं और वे वह सब जो परमेश्वर द्वारा प्रदान किया जाता है और हर वह चीज जो परमेश्वर से आती है, स्वीकार करते हैं, इसलिए उन्हें अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने चाहिए। यह पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायोचित है और यह परमेश्वर का आदेश है। इससे यह देखा जा सकता है कि लोगों के लिए सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना धरती पर रहते हुए किए गए किसी भी अन्य काम से कहीं अधिक उचित, सुंदर और भद्र होता है; मानवजाति के बीच इससे अधिक सार्थक या योग्य कुछ भी नहीं होता और सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने की तुलना में किसी सृजित व्यक्ति के जीवन के लिए अधिक अर्थपूर्ण और मूल्यवान अन्य कुछ भी नहीं है। पृथ्वी पर, सच्चाई और ईमानदारी से सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने वाले लोगों का समूह ही सृष्टिकर्ता के प्रति समर्पण करने वाला होता है। यह समूह सांसारिक प्रवृत्तियों का अनुसरण नहीं करता; वे परमेश्वर की अगुआई और मार्गदर्शन के प्रति समर्पण करते हैं, केवल सृष्टिकर्ता के वचन सुनते हैं, सृष्टिकर्ता द्वारा व्यक्त किए गए सत्य स्वीकारते हैं और सृष्टिकर्ता के वचनों के अनुसार जीते हैं। यह सबसे सच्ची, सबसे शानदार गवाही है और यह परमेश्वर में विश्वास की सबसे अच्छी गवाही है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मेरा दिल बहुत उज्जवल हो गया और मैंने समझा कि अपने कर्तव्य निभाना सृजित प्राणियों की सर्वोच्च जिम्मेदारी है और यह हमारे द्वारा किए जा सकने वाले किसी भी अन्य कार्य से अधिक महत्वपूर्ण है। अपने कर्तव्यों के प्रदर्शन से हमारे जीवन का मूल्य और अर्थ निर्धारित होता है। यह महसूस करते हुए मैंने परमेश्वर के प्रति ऋणी महसूस किया। मुझे अपने कर्तव्यों को लगन से करना था और मैं अब पारंपरिक संस्कृति से बँधी हुई नहीं रह सकती थी। चाहे मेरे रिश्तेदार मेरी कितनी भी आलोचना करें, मुझे अपने कर्तव्यों को प्राथमिकता देनी थी। मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर ने बहुत पहले ही मेरे माता-पिता की नियति की व्यवस्था कर दी थी और भले ही मैं उनके साथ नहीं थी, मेरे रिश्तेदार उनकी देखभाल करने में मदद करते थे और कभी-कभी भाई-बहन उनसे मिलने आते थे। मेरे माता-पिता को बीमारी और बड़े लाल अजगर के उत्पीड़न का सामना करने से सबक सीखने थे और परमेश्वर भी उनकी गवाही चाहता था। मैं अपने माता-पिता को परमेश्वर को सौंपने और सभी चीजों में उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने के लिए तैयार हो गई। इन बातों को महसूस करने के बाद मेरे दिल को शांति और मुक्ति का एहसास हुआ और धीरे-धीरे मैंने अपने माता-पिता के लिए अपनी चिंताएँ और सरोकार छोड़ दिए। परमेश्वर का धन्यवाद!