20. दूसरों से हमेशा ईर्ष्या करने पर चिंतन
मेरी पड़ोसी शियाओयूए और मैं सहकर्मी हैं और अच्छे दोस्त भी हैं। 2013 में हम दोनों ने एक ही समय में अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य को स्वीकार किया और मैं बहुत खुश थी। परमेश्वर को पाने के बाद हम एक साथ सभाओं में भाग लेते थे। वक्त गुजरने के साथ मैंने देखा कि शियाओयूए में परमेश्वर के वचनों को समझने की क्षमता है और सत्य की उसकी संगति रोशन करने वाली है। जब भी शियाओयूए परमेश्वर के वचनों की अपनी समझ के बारे में संगति करती तो अगुआ स्वीकृति में सिर हिलाते, मैं परेशान होने लगी। ऐसा लग रहा था कि अगुआ वाकई शियाओयूए की सराहना करते हैं, मैंने सोचा मुझे और अधिक प्रयास करने की जरूरत है ताकि मैं शियाओयूए से पीछे न रह जाऊँ। इसलिए हर सभा से पहले मैं घर पर परमेश्वर के वचनों पर विचार करती, लेकिन सभाओं के दौरान मेरी संगति में अभी भी वह रोशनी नहीं थी जो शियाओयूए की संगति में थी। मुझे संकट का अहसास होने लगा। बाद में हम दोनों ने समूह अगुआओं का कर्तव्य सँभाला, मैंने देखा कि शियाओयूए के पास मुझसे अधिक समूहों की जिम्मेदारी है। सभाओं के दौरान अगुआ अक्सर पहले शियाओयूए से संगति करवाते और मैं मन ही मन सोचती, “लगता है अगुआ वाकई उसे महत्व देते हैं, वे हमेशा शियाओयूए को आगे रखते हैं। हम दोनों ने एक ही समय में परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार किया तो फिर उसके पास मुझसे ज्यादा समूहों की जिम्मेदारी क्यों है? क्या वह सचमुच मुझसे बेहतर है? क्या उसकी आस्था मुझसे ज्यादा प्रबल है?” मैं बहुत नाराज थी, काफी बेचैन-परेशान थी, कुछ खो देने की एक अजीब सी भावना मेरे अंदर घर कर गई थी। पहले अगर मुझे कुछ समझ नहीं आता था तो शियाओयूए से चर्चा कर लेती थी, लेकिन अब मैंने उसके पास जाना बंद कर दिया था। मुझे लगता कि लगातार उससे सवाल पूछने से मैं उसके सामने कमतर नजर आती हूँ। जब कभी मुझे शियाओयूए दिख जाती तो मैं उससे बचती, अब हम पहले जितने करीब नहीं रह गए थे। बाद में कलीसिया ने अगुआओं के लिए चुनाव आयोजित किया, शियाओयूए और मैं दोनों उम्मीदवार थीं। मुझे लगा काबिलियत और सत्य की खोज के मामले में शियाओयूए अगुआ बनने के लिए एकदम उपयुक्त उम्मीदवार है। लेकिन फिर मैंने सोचा, “हम दोनों ने एक साथ परमेश्वर में विश्वास रखना और कर्तव्य निर्वहन करना शुरू किया था। अब अगर वह अगुआ बन गई और मैं सिर्फ समूह अगुआ बनकर रह गई तो लोग मुझे कैसे देखेंगे? क्या वे यह नहीं सोचेंगे कि मैं उससे कमतर हूँ?” मैं सोचने लगी कि मैं उसे अगुआ चुने जाने से कैसे रोक सकती हूँ। मैं इस पर तो नियंत्रण नहीं कर सकती थी कि बाकी लोग उसे वोट देंगे या नहीं, लेकिन कम से कम मैं तो उसे वोट न देने का विकल्प चुन ही सकती थी। इसलिए मैंने किसी और को वोट दे दिया। लेकिन फिर भी आखिरकार शियाओयूए को अगुआ चुन लिया गया। मुझे थोड़ी नाराजगी हुई और उस रात मैं बिस्तर पर करवटें बदलती रही, सो न सकी। मैंने सोचा, “शियाओयूए और मैंने समान अवधि तक परमेश्वर पर विश्वास रखा है, लेकिन अब वह अगुआ है और मैं सिर्फ एक समूह अगुआ। क्या इससे मैं उससे कमतर नहीं लगती?” मैं वाकई बहुत बेचैन थी।
एक बार मैं अगुआ के घर पर उससे चुनाव के बारे में बातचीत कर रही थी। अगुआ ने मेरी ईर्ष्या देखी और पूछा, “जब तुमने शियाओयूए को अगुआ के रूप में चुने देखा तो तुम्हें कैसा लगा? क्या तुम्हें उससे ईर्ष्या हुई?” यह सुनकर मेरा चेहरा शर्म से लाल हो गया और मैंने अजीब ढंग से सिर हिलाते हुए कहा, “हम इतने अच्छे दोस्त हैं; मैं उससे ईर्ष्या कैसे कर सकती हूँ?” घर लौटते समय मैं अगुआ की कही बात के बारे में सोचती रही। चूँकि अगुआ ने कहा कि मैं शियाओयूए से ईर्ष्या करती हूँ, इसलिए मुझे पता था कि यह समस्या मुझमें होनी ही थी। मैं घर पहुँचने ही वाली थी कि मैंने देखा मेरा पड़ोसी कुत्तों को खाना खिला रहा है। जब दो कुत्ते खाना खा रहे थे तो अर्शियोंग नाम का एक अन्य कुत्ता पास खड़ा होकर बस देख रहा था। मैंने पड़ोसी से पूछा, “तुम अर्शियोंग को खाना क्यों नहीं खिला रहे?” पड़ोसी ने कहा, “यह कुत्ता आज्ञाकारी है, अगर तुम इसे खाना न भी दो तो भी यह बस इंतजार करता है, लड़ता या छीनता नहीं है।” पड़ोसी की बातें सुनकर मुझे वह बात याद आई जो अगुआ ने कही थी, मुझे मन ही मन बहुत दुःख हुआ। मैंने सोचा, “एक कुत्ता तक लड़ता या प्रतिस्पर्धा नहीं करता और एक मैं हूँ जो हमेशा शियाओयूए के साथ प्रतिस्पर्धा करती रहती हूँ। मैं तो कुत्ते से भी गई-गुजरी हूँ।” मैंने घर जाकर परमेश्वर के सामने घुटने टेके और प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, शियाओयूए को अगुआ के रूप में चुने जाते देखकर मुझे बेचैनी हुई। अगुआ ने कहा कि मैं उससे ईर्ष्या करती हूँ, लेकिन मुझे इसका एहसास नहीं था। मुझे प्रबुद्ध करो ताकि मैं अपनी समस्याओं को पहचान सकूँ।”
एक दिन मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “इस समय, तुम सभी अपने कर्तव्यों का पूर्णकालिक निर्वहन करते हो। तुम परिवार, विवाह या धन-संपत्ति से बेबस या उनके बंधन में नहीं हो। तुम पहले ही इन चीजों से ऊपर उठ चुके हो। लेकिन, तुम्हारे दिमाग में जो धारणाएँ, कल्पनाएँ, जानकारियाँ, और निजी मंशाएँ व इच्छाएँ भरी हुई हैं, वे पूरी तरह से यथावत् बनी हुई हैं। तो, जैसे ही कोई ऐसी बात आती है जिसमें प्रतिष्ठा, हैसियत या विशिष्ट दिखने का अवसर सम्मिलित हो—उदाहरण के तौर पर, जब तुम लोग सुनते हो कि परमेश्वर के घर की योजना विभिन्न प्रकार के प्रतिभावान व्यक्तियों को पोषण देने की है—तुममें से हर किसी का दिल प्रत्याशा में उछलने लगता है, तुममें से हर कोई हमेशा अपना नाम करना चाहता है और सुर्खियों में आना चाहता है। तुम सभी प्रतिष्ठा और हैसियत के लिए लड़ना चाहते हो। तुम्हें इस पर शर्मिंदगी भी महसूस होती है, पर ऐसा न करने पर तुम्हें बुरा महसूस होगा। जब तुम्हें कोई व्यक्ति भीड़ से अलग दिखता है, तो तुम उससे ईर्ष्या व घृणा महसूस करते हो और उसकी शिकायत करते हो, और तुम सोचते हो कि यह अन्याय है : ‘मैं भीड़ से अलग क्यों नहीं हो सकता? हमेशा दूसरे लोग ही क्यों सुर्खियों में आ जाते हैं? कभी मेरी बारी क्यों नहीं आती?’ और रोष महसूस करने पर तुम उसे दबाने की कोशिश करते हो, लेकिन ऐसा नहीं कर पाते। तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते हो और कुछ समय के लिए बेहतर महसूस करते हो, लेकिन जब तुम्हारा सामना दुबारा ऐसी ही परिस्थिति से होता है, तो तुम फिर भी उसे नियंत्रित नहीं कर पाते। क्या यह एक अपरिपक्व आध्यात्मिक कद का प्रकटीकरण नहीं है? जब लोग ऐसी स्थितियों में फँस जाते हैं, तो क्या वे शैतान के जाल में नहीं फँस गए हैं? ये शैतान की भ्रष्ट प्रकृति के बंधन हैं जो इंसानों को बाँध देते हैं। ... तुम जितना अधिक संघर्ष करोगे, तुम्हारा हृदय उतना ही अंधकारमय हो जाएगा, तुम उतनी ही अधिक ईर्ष्या और नफरत महसूस करोगे बस इन चीजों को पाने की तुम्हारी इच्छा अधिक मजबूत ही होगी। इन्हें पाने की तुम्हारी इच्छा जितनी अधिक मजबूत होगी, तुम उन्हें प्राप्त कर पाने में उतने ही कम सक्षम होंगे, और ऐसा होने पर तुम्हारी नफरत बढ़ती जाएगी। जैसे-जैसे तुम्हारी नफरत बढ़ती है, तुम्हारे अंदर उतना ही अंधेरा छाने लगता है। तुम अंदर से जितना अधिक अंधकारमय होते जाओगे, तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन उतना ही बुरा हो जाएगा; तुम्हारे कर्तव्य का निर्वहन जितना बुरा हो जाएगा, तुम परमेश्वर के घर के लिए उतना ही कम उपयोगी होंगे। यह एक आपस में जुड़ा हुआ, कभी न ख़त्म होने वाला दुष्चक्र है। अगर तुम कभी भी अपने कर्तव्य का निर्वहन अच्छी तरह से नहीं कर सकते तो धीरे-धीरे तुम्हें हटा दिया जाएगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। इस अंश को पढ़ने के बाद मुझे लगा जैसे परमेश्वर सीधे मेरी मनोदशा के बारे में बोल रहा है। जब भी ऐसी चीजों की बात आती थी जो किसी को दूसरों से अलग दिखाए तो मैं प्रतिस्पर्धा करना चाहती थी और लोगों के दिलों में जगह बनाना चाहती थी। मैंने विचार किया कि कैसे शियाओयूए और मैंने एक साथ परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू किया था और हम एक साथ सभाओं में भाग लेते थे, लेकिन जब मैंने देखा कि वह परमेश्वर के वचनों को मुझसे बेहतर समझती है और अधिक समूहों की सभाओं के लिए जिम्मेदार है तो मुझे लगा कि अगुआ उसे मुझसे ज्यादा महत्व देते हैं, मैं दुखी हो गई और उससे ईर्ष्या करने लगी। पहले मैं हमेशा शियाओयूए के साथ हर चीज पर बात किया करती थी, लेकिन जब मैंने देखा कि वह हर तरह से मुझसे बेहतर है तो मुझे गुस्सा आ गया और मैं उसे फिर कभी नहीं देखना चाहती थी। हम पहले जितने करीब नहीं रहे थे। जब कलीसिया अगुआ का चुनाव आया, भले ही मैं अच्छी तरह जानती थी कि शियाओयूए मुझसे कई मायनों में बेहतर है और अगुआ के पद के लिए एकदम उपयुक्त है, फिर भी मुझे फिक्र थी कि अगर वह अगुआ चुन ली गईं और मैं सिर्फ समूह अगुआ ही बनी रही तो मैं उससे कमतर नजर आऊँगी, इसलिए मैंने जानबूझकर उसे वोट नहीं दिया। बाद में जब मैंने देखा कि शियाओयूए को अगुआ चुन लिया गया है तो मुझे असंतोष हुआ। मैं शियाओयूए से अपनी तुलना करती रही और जब मैंने देखा कि वह मुझसे बेहतर है तो मुझे ईर्ष्या और नाराजगी होने लगी। मेरा मन इन्हीं विचारों से भरा रहता कि कैसे उससे आगे निकल जाऊँ, लेकिन जब मैं ऐसा नहीं कर सकी तो मुझे बेचैनी हुई, मेरे कर्तव्य निर्वहन की प्रेरणा जाती रही और मेरे जीवन प्रवेश को हानि हुई। उस वक्त मुझे एहसास हुआ कि मेरे दुख का कारण मेरी अत्यधिक ईर्ष्या है। भाई-बहनों को एक दूसरे की ताकत और कमजोरियों का पूरक बनना चाहिए, ईर्ष्या करने और अहंकार व रुतबे के लिए दूसरों को साथ शामिल न करने के बजाय एक-दूसरे को अपने कर्तव्यों का अच्छे से निर्वहन करने में मदद करनी चाहिए। हम ऐसी हरकतें करेंगे तो परमेश्वर हमसे घृणा करने लगेगा। मुझे अपनी इच्छाओं को छोड़ना सीखना था और किसी का ध्यान आकर्षित किए बिना चुपचाप अपने कर्तव्यों का पालन करना था। बाद में जब मुझे अपने कर्तव्य के बारे में कुछ समझ न आता तो मैं शियाओयूए से पूछने की पहल करती और हम उसे हल करने के लिए परमेश्वर के वचनों पर एक साथ संगति करते। मुझे बहुत अधिक सहजता महसूस होती।
2016 में एक दिन अगुआओं ने कहा कि वे शियाओयूए को कर्तव्य निर्वहन के लिए किसी दूसरी जगह भेजने की योजना बना रहे हैं और मुझे उसका मूल्यांकन लिखने को कहा। अनजाने में ही मेरी ईर्ष्या फिर जाग उठी और मैंने मन ही मन सोचा, “परमेश्वर को पाने के बाद से शियाओयूए को समूह अगुआ से कलीसिया अगुआ के रूप में पदोन्नत किया गया है और अब उसे कर्तव्य निर्वहन के लिए दूसरे स्थान पर भेजा जा रहा है, उस पर और भी अधिक कलीसियाओं की जिम्मेदारी होगी। लेकिन मैं अभी भी यहीं अटकी हुई हूँ, अभी भी सिर्फ एक ही समूह की अगुआ हूँ। भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? कहीं वे यह तो नहीं कहेंगे कि मैं शियाओयूए से कमतर हूँ, शियाओयूए और मेरे बीच बहुत बड़ा अंतर है? ऐसे तो काम नहीं चलेगा! मैं उसे जाने नहीं दे सकती, मुझे शियाओयूए की कुछ कमजोरियों के बारे में लिखना होगा ताकि अगुआ देख सकें कि वह इतनी भी श्रेष्ठ नहीं है; इस तरह उसे पदोन्नत नहीं किया जाएगा।” इसके कारण मैं कई दिनों तक परेशान और बेचैन रही। मैं सोचती रही, “मुझे उसका मूल्यांकन कैसे लिखना चाहिए? शियाओयूए में अपनी भ्रष्टता और कमियाँ हैं, लेकिन कोई भी पूर्ण नहीं होता, हर किसी में दोष और कमजोरियाँ होती हैं। रातोरात बदलाव लाना असंभव है। अगर मैं केवल उसकी खामियों के बारे में लिखूँ तो यह दूसरों के साथ अनुचित व्यवहार होगा। ऐसा करना क्या कुकर्म करना नहीं होगा? लेकिन अगर मैं निष्पक्ष और सच्चाई से लिखूँ और शियाओयूए को पदोन्नति मिल गई तो मुझे बुरा लगेगा।” मेरे मन में द्वंद्व चलता रहा, मैं बार-बार अपना मूल्यांकन लिखती और मिटाती रही। अंत में मुझे समझ नहीं आया कि अब क्या लिखूँ, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मैं जानती हूँ कि तुम इस समय मेरी जाँच कर रहे हो। अगर मैं यह मूल्यांकन अपने इरादों के अनुसार लिखूँ और शियाओयूए को कहीं और अपना कर्तव्य निर्वहन करने से रोकूँ तो यह सचमुच मेरा कुकर्म करना होगा। मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव के खिलाफ विद्रोह करने में मदद करो ताकि मैं सच लिख सकूँ और एक ईमानदार व्यक्ति बन सकूँ।” प्रार्थना करने के बाद मैंने सच्चाई से मूल्यांकन लिखा। लेकिन जब मैंने शियाओयूए के जाने के बारे में सोचा तो मैं परेशान हो गई मानो मेरे दिल पर कोई भारी पत्थर रखा हो। उस दौरान मैं कभी-कभी शियाओयूए से पूछती कि उसका कर्तव्य निर्वहन कैसा चल रहा है और मैं यह उम्मीद करती कि वह कहेगी कि उसकी मनोदशा खराब है या वह अपना कर्तव्य निर्वहन ठीक से नहीं कर पा रही है। लेकिन जब भी मैं खबर सुनती तो पता चलता कि उसकी मनोदशा बहुत अच्छी है और मैं थोड़ी निराश हो जाती। एक दिन मैं शियाओयूए के घर गई, मैंने मन ही मन सोचा, “शियाओयूए को यह नहीं पता कि कहीं और कार्य करने में कष्ट उठाना पड़ता है। अगर मैं उसे यह बात बताऊँ तो शायद वह जाना नहीं चाहेगी।” इसलिए मैंने शियाओयूए से कहा, “किसी और जगह कर्तव्य निर्वहन करना घर में कार्य करने जैसा नहीं होता। क्या तुम वाकई उस तरह की मुश्किल सह सकती हो? मुझमें तो तुम्हारे जैसा दृढ़संकल्प नहीं है।” लेकिन शियाओयूए पर मेरी बात का कोई असर नहीं पड़ा, मुझे अंदाजा नहीं था कि मेरी बात की प्रकृति कैसी है और उसके क्या परिणाम होंगे। एक दिन जब मैं काम से घर लौटी तो मेरे कुत्ते ने अचानक मुझे काट लिया। यह असामान्य था। एक घरेलु कुत्ता अपने मालिकों को कब से काटने लगा? मुझे एहसास हुआ कि यह कोई आकस्मिक घटना नहीं है, जरूर ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि मैंने कुछ गलत किया है और मुझे अनुशासित किया जा रहा है। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! सब कुछ तुम्हारे हाथों में है। मेरे कुत्ते ने मुझे काट लिया और यह तुम्हारी अनुमति से हुआ है। मुझे प्रबुद्ध करो ताकि मुझे अपनी गलती का एहसास हो सके। मैं पश्चात्ताप करने को तैयार हूँ।”
बाद में मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ने को मिला : “मानवता के अभाव का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है नैतिक मूल्यों का नहीं होना। नैतिकता नहीं होने का क्या मतलब है? बहन के पास अच्छी जीवन स्थितियाँ और एक धनाढ्य परिवार है, और इन लोगों का रवैया क्या होता है? क्या यह महज ईर्ष्या होती है जिसके बाद शुभकामनाएँ होती हैं और फिर आगे बढ़ जाया जाता है? (नहीं।) तो फिर उनका रवैया क्या होता है? ईर्ष्या, आक्रोश, गुस्सा और अपने दिलों में शिकायतें पालना : ‘क्या वह महिला इतना पैसा पाने के योग्य है? मेरे पास इतना पैसा क्यों नहीं है? परमेश्वर उसे क्यों आशीष देता है, मुझे क्यों नहीं?’ वह बहन धनी और समृद्ध है, इसलिए वे सच्ची सराहना या शुभकामना के एक भी शब्द के बिना उससे ईर्ष्या और नफरत महसूस करते हैं। यह सबसे बुनियादी नैतिकता का भी पूर्ण अभाव दर्शाता है। ... वे दूसरों का शुभ नहीं चाहते; अच्छा काम करने वाले या उनसे बेहतर किसी भी व्यक्ति को देखकर वे ईर्ष्या और गुस्से से भर जाते हैं। परमेश्वर में किसी की आस्था चाहे कितनी भी सशक्त क्यों न हो, अगर वह व्यक्ति उनसे बेहतर हो, तो बात बिल्कुल नहीं बनेगी। उनमें बिल्कुल भी मानवता नहीं होती और वे आशीष का या शिक्षित करने वाला एक भी शब्द बोलने में अक्षम होते हैं। वे ऐसे शब्द क्यों नहीं बोल सकते? क्योंकि उनकी मानवता बहुत बुरी है! ऐसा नहीं है कि वे बोलना नहीं चाहते या उनके पास सही शब्द नहीं हैं; बल्कि बात यह है कि उनके दिल ईर्ष्या, गुस्से और आक्रोश से भरे हुए हैं जिससे उनके लिए आशीष के शब्द बोलना नामुमकिन हो जाता है। तो फिर क्या यह तथ्य कि उनके दिल ऐसी भ्रष्ट चीजों से भरे हुए हैं, यह संकेत दे सकता है कि उनकी मानवता द्वेषपूर्ण है? (हाँ।) यह संकेत दे सकता है। उनके ऐसे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करने के कारण दूसरों के लिए पहचान पाना आसान हो जाता है, और दूसरे उनके भ्रष्ट सार की असलियत समझ सकते हैं” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (24))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं बहुत परेशान हो गई। परमेश्वर ने उजागर किया है कि ऐसे लोग दूसरों से ईर्ष्या करते और चिढ़ते हैं जिन्हें वे खुद से बेहतर समझते हैं और यह घटिया और दुर्भावनापूर्ण मानवता को दर्शाता है, परमेश्वर ऐसे लोगों को पसंद नहीं करता। मैं बिल्कुल वैसी ही इंसान थी जिसके बारे में परमेश्वर बता रहा है। परमेश्वर को पाने के बाद मुझे ईर्ष्या होने लगी जब मैंने देखा कि शियाओयूए मुझसे अधिक समूहों की जिम्मेदारी संभाल रही है, भले ही मैं जानती थी कि वह अगुआ बनने के उपयुक्त है, लेकिन मुझे डर था अगर वह चुन ली गई तो मैं हीनभावना से ग्रस्त हो जाऊँगी, इसलिए मैंने जानबूझकर उसे वोट नहीं दिया। जब अगुआओं ने मुझसे शियाओयूए का मूल्यांकन लिखने को कहा तो मुझे चिंता हुई कि अगर वह कहीं और कर्तव्य निर्वहन के लिए चली गई तो हमारे बीच अंतर और बढ़ जाएगा, इसलिए मैं उसकी खूबियों के बारे में नहीं लिखना चाहती थी। भले ही मैंने ईमानदारी से मूल्यांकन लिखा था, फिर भी मन ही मन मैं नहीं चाहती थी कि वह अच्छा करे और यह सुनने की उम्मीद कर रही थी कि उसकी मनोदशा खराब है या वह अपना कर्तव्य निर्वहन ठीक से नहीं कर पा रही है, मैंने तो उसके सामने नकारात्मक बातें तक कीं ताकि कर्तव्य निर्वहन की उसकी प्रेरणा कम हो जाए। इस तरह वह कहीं और अपना कर्तव्य निर्वहन नहीं कर पाएगी और हमारे बीच का अंतर ज्यादा नहीं बढ़ेगा। मैं जितना आत्मचिंतन करती मुझे उतना ही अधिक एहसास होता कि मैं कितनी खराब इंसान हूँ। लोगों से अपना सम्मान करवाने के लिए मैंने धूर्त चालें चलीं, ऐसा करना वाकई स्वार्थ, नीचता और दुर्भावनापूर्ण था। मुझमें मानवता नाम की कोई चीज नहीं थी! शियाओयूए का कहीं और कर्तव्य निर्वहन करना उसके जीवन विकास के लिए फायदेमंद था और इससे कलीसिया के कार्य को भी लाभ होना था। यह परमेश्वर के इरादे के अनुरूप भी था, लेकिन अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर मैंने चीजों को बिगाड़ने की कोशिश की, मैंने उसे प्रोत्साहित करने के बजाय नकारात्मक बातें कहीं। मैं जो कर रही थी वह कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी करना, बाधा डालना और व्यवधान पैदा करना था। मैं जितना अधिक सोचती मुझे उतनी ही अधिक ग्लानि और दुख होता। मुझे द रोमांस ऑफ द थ्री किंगडम्स में झोउ यू की याद आई, कैसे वह संकीर्ण सोच वाला था और झूगे लियांग से ईर्ष्या करता था, झूगे से स्पर्धा करता था, उससे अपनी तुलना करता था और अंत में वह उससे आगे नहीं बढ़ सका था और क्रोध के कारण उसकी मृत्यु हो गई। अगर मैं भी अपनी तुलना शियाओयूए से करती रही तो न केवल मैं दुखी हो जाऊँगी, बल्कि मैं शैतान की अनुचर बनकर कलीसिया के कार्य को बाधित करूँगी। यह एहसास होने पर मैंने परमेश्वर के सामने घुटने टेके और प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैंने देख लिया है कि मैं कितनी ज्यादा भ्रष्ट हूँ। मैं भयंकर ईर्ष्यालु हूँ। मैं शियाओयूए को खुद से बेहतर करते हुए क्यों नहीं देख पाती? मैं सचमुच अपने आपसे घृणा करती हूँ! तुम मेरी भ्रष्ट प्रकृति को धिक्कारो और मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मुझे अपनी गहरी समझ हासिल हो।”
बाद में मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “मनुष्य, जो ऐसी गंदी भूमि में जन्मा, समाज द्वारा गंभीर हद तक संक्रमित हो गया है, वह सामंती नैतिकता से अनुकूलित कर दिया गया है और उसने ‘उच्चतर शिक्षा संस्थानों’ की शिक्षा प्राप्त की है। पिछड़ी सोच, भ्रष्ट नैतिकता, अवमूल्यित जीवन दृष्टिकोण, सांसारिक आचरण के घृणित फलसफे, बिल्कुल मूल्यहीन अस्तित्व, नीच रिवाज और दैनिक जीवन—ये सभी चीजें मनुष्य के हृदय में गंभीर घुसपैठ करती रही हैं, उसकी अंतरात्मा को गंभीरता से नष्ट और उसकी अंतरात्मा पर गंभीर प्रहार करती रही हैं। फलस्वरूप, मनुष्य परमेश्वर से अधिक से अधिक दूर हो रहा है और परमेश्वर का अधिक से अधिक विरोधी हो गया है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है)। “क्रूर मानवजाति! साँठ-गाँठ और साज़िश, एक-दूसरे से छीनना और हथियाना, प्रसिद्धि और संपत्ति के लिए हाथापाई, आपसी कत्लेआम—यह सब कब समाप्त होगा? परमेश्वर द्वारा बोले गए लाखों वचनों के बावजूद किसी को भी होश नहीं आया है। लोग अपने परिवार और बेटे-बेटियों के वास्ते, आजीविका, भावी संभावनाओं, हैसियत, महत्वाकांक्षा और पैसों के लिए, भोजन, कपड़ों और देह-सुख के वास्ते कार्य करते हैं। पर क्या कोई ऐसा है, जिसके कार्य वास्तव में परमेश्वर के वास्ते हैं? यहाँ तक कि जो परमेश्वर के लिए कार्य करते हैं, उनमें से भी बहुत थोड़े ही हैं, जो परमेश्वर को जानते हैं। कितने लोग अपने स्वयं के हितों के लिए काम नहीं करते? कितने लोग अपनी हैसियत बचाए रखने के लिए दूसरों पर अत्याचार या उनका बहिष्कार नहीं करते?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, बुरे लोगों को निश्चित ही दंड दिया जाएगा)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे एहसास हुआ कि शियाओयूए के प्रति मेरी ईर्ष्या प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए मेरी अत्यधिक चिंता से उपजी है, मैं शैतानी जहर के प्रभाव में जी रही थी, जैसे “सबसे अलग दिखने और श्रेष्ठ बनने का लक्ष्य रखो”, “एक व्यक्ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है,” और “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,” इन विचारों के कारण मैं अपना जमीर और विवेक गँवा बैठी थी। चाहे मैं कुछ भी करूँ, मैं हमेशा चाहती थी कि दूसरे लोग मेरी प्रशंसा करें, मैं उनके दिलों में जगह बनाना चाहती थी। मैंने विचार किया कि बचपन से ही मैं जब भी दूसरों को अपने से बेहतर पाती तो मैं बेचैन हो जाती थी। स्कूल में अगर कोई मुझसे बेहतर प्रदर्शन करता तो मुझे गुस्सा आ जाता और अगर कोई मुझसे बेहतर स्थिति में जी रहा होता तो मुझे ईर्ष्या होती। मुझे याद है मेरी चचेरी बहन स्कूल में मुझसे बेहतर थी और उसके परिवार की स्थिति भी मुझसे बेहतर थी। इसलिए मुझे उससे ईर्ष्या होती थी। जब उसके घरवालों ने टीवी खरीदा तो मैं ईर्ष्या और क्रोध के मारे टीवी देखने तक नहीं गई। परमेश्वर को पाने के बाद भी मैं शैतान के इन जहर के अनुसार जीती रही। जब मैंने देखा कि शियाओयूए हर तरह से मुझसे आगे निकल गई है तो मैं उससे ईर्ष्या करने लगी और हमेशा अपनी तुलना उससे करने लगी और जब मैं उस स्तर पर नहीं पहुँच पाई तो मुझे बहुत तकलीफ हुई। यह सब शैतान की भ्रष्टता और नुकसान के कारण हुआ। मैंने प्रसिद्धि और लाभ को इस हद तक अपना लक्ष्य बना लिया था कि मेरी सारी भावनाएँ ही उनसे नियंत्रित होने लगीं। अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर मैं दूसरों पर हमला और उन्हें बहिष्कृत तक करने लगी, कलीसिया के काम की उपेक्षा करने लगी, मैं वाकई स्वार्थी और दुर्भावनापूर्ण बन गई थी। हालाँकि शियाओयूए और मैं घनिष्ठ मित्र थे और एक दूसरे के साथ सब कुछ साझा करते थे, लेकिन फिर भी मैं उसकी पीठ पीछे उसे नुकसान पहुँचा रही थी और अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए घृणित हथकंडे अपनाना चाहती थी। अगर मैं इन शैतानी जहर के सहारे जीती रहती तो मुझमें इंसानियत की और भी कमी होती जाती और आखिरकार परमेश्वर मुझे ठुकराकर हटा देता। मैं परमेश्वर को धन्यवाद देती हूँ कि उसने मुझे प्रकट करने के लिए इस स्थिति का इस्तेमाल किया और अपने वचनों के प्रकाशन के जरिए मुझे अपनी भ्रष्टता को पहचानने की अनुमति दी, मुझे पश्चात्ताप करने और खुद में बदलाव लाने का अवसर दिया। यह परमेश्वर का प्रेम है।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों में अभ्यास और प्रवेश का मार्ग खोजा। मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “अपने कर्तव्य को निभाने वाले सभी लोगों के लिए, फिर चाहे सत्य को लेकर उनकी समझ कितनी भी उथली या गहरी क्यों न हो, सत्य वास्तविकता में प्रवेश के अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि हर काम में परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचा जाए, और अपनी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं, व्यक्तिगत मंशाओं, अभिप्रेरणाओं, घमंड और हैसियत का त्याग किया जाए। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—कम से कम इतना तो व्यक्ति को करना ही चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने वाला कोई व्यक्ति अगर इतना भी नहीं कर सकता, तो उस व्यक्ति को कर्तव्य निभाने वाला कैसे कहा जा सकता है? यह अपने कर्तव्य को पूरा करना नहीं है। तुम्हें पहले परमेश्वर के घर के हितों के बारे में सोचना चाहिए, परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना चाहिए, और कलीसिया के कार्य का ध्यान रखना चाहिए। इन चीजों को पहले स्थान पर रखना चाहिए; उसके बाद ही तुम अपनी हैसियत की स्थिरता या दूसरे लोग तुम्हारे बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता कर सकते हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि जब तुम इसे दो चरणों में बाँट देते हो और कुछ समझौते कर लेते हो तो यह थोड़ा आसान हो जाता है? यदि तुम कुछ समय के लिए इस तरह अभ्यास करते हो, तो तुम यह अनुभव करने लगोगे कि परमेश्वर को संतुष्ट करना इतना भी मुश्किल काम नहीं है। इसके अलावा, तुम्हें अपनी जिम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और कर्तव्य पूरे करने चाहिए, और अपनी स्वार्थी इच्छाओं, मंशाओं और उद्देश्यों को दूर रखना चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता दिखानी चाहिए, और परमेश्वर के घर के हितों को, कलीसिया के कार्य को और जो कर्तव्य तुम्हें निभाना चाहिए, उसे पहले स्थान पर रखना चाहिए। कुछ समय तक ऐसे अनुभव के बाद, तुम पाओगे कि यह आचरण का एक अच्छा तरीका है। यह सरलता और ईमानदारी से जीना और नीच और भ्रष्ट व्यक्ति न होना है, यह घृणित, नीच और निकम्मा होने की बजाय न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है। तुम पाओगे कि किसी व्यक्ति को ऐसे ही कार्य करना चाहिए और ऐसी ही छवि को जीना चाहिए। धीरे-धीरे, अपने हितों को तुष्ट करने की तुम्हारी इच्छा घटती चली जाएगी। ... अब मैंने तुम लोगों को यह सरल-सा दृष्टिकोण बता दिया है : इस तरह के अभ्यास के साथ शुरुआत करो, और जब एक बार तुम कुछ समय तक ऐसा कर लोगे, तो तुम लोगों की आंतरिक अवस्था बदलने लगेगी और तुम्हें पता भी नहीं चलेगा। यह उस दुविधापूर्ण अवस्था, जिसमें तुम न तो परमेश्वर में विश्वास करने में बहुत अधिक रुचि रखते हो और न ही उस अवस्था से बहुत अधिक विमुख होते हो, से उस अवस्था में बदल जाएगी जिसमें तुम्हें लगेगा कि परमेश्वर में विश्वास करना और एक ईमानदार इंसान होना अच्छी चीज़ें हैं, और जिसमें एक ईमानदार इंसान होने में तुम्हारी रुचि होगी और तुम्हें लगेगा कि इस तरह जीवन जीना अर्थपूर्ण और पुष्टिकर है। तुमस्थिर, शान्त और अपने हृदय में आनंद महसूस करोगे। तुम इस अवस्था में आ जाओगे। अपनी मंशाओं, हितों और स्वार्थपूर्ण इच्छाओं को छोड़ देने पर यह परिणाम प्राप्त होता है। यह उसका परिणाम है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। “अगर परमेश्वर ने तुम्हें मूर्ख बनाया है तो तुम्हारी मूर्खता अर्थवान है; अगर उसने तुम्हें तेज दिमाग का बनाया है तो तुम्हारा तेज होना अर्थवान है। परमेश्वर तुम्हें जो भी प्रतिभा दे, तुम्हारे जो भी ताकत हो, चाहे तुम्हारी बौद्धिक क्षमता कितनी भी ऊँची हो, उन सभी का परमेश्वर के लिए एक उद्देश्य है। ये सब बातें परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत हैं। अपने जीवन में तुम जो भूमिका और कर्तव्य निभाते हो—उन्हें परमेश्वर ने बहुत पहले ही नियत कर दिया था। कुछ लोग देखते हैं कि दूसरों के पास ऐसी क्षमताएँ हैं जो उनके पास नहीं हैं और असंतुष्ट रहते हैं। वे अधिक सीखकर, अधिक देखकर, और अधिक मेहनती होकर चीजों को बदलना चाहते हैं। लेकिन उनकी मेहनत जो कुछ हासिल कर सकती है, उसकी एक सीमा है, और वे प्रतिभा और विशेषज्ञता वाले लोगों से आगे नहीं निकल सकते। तुम चाहे जितना भी लड़ो, वह व्यर्थ है। परमेश्वर ने तय किया हुआ है कि तुम क्या होगे, और उसे बदलने के लिए कोई कुछ नहीं कर सकता। तुम जिस भी चीज में अच्छे हो, तुम्हें उसी में प्रयास करना चाहिए। तुम जिस भी कर्तव्य के लिए उपयुक्त हो, तुम्हें वही कर्तव्य निभाना चाहिए। अपने कौशल से बाहर के क्षेत्रों में खुद को विवश करने का प्रयास न करो और दूसरों से ईर्ष्या मत करो। हरेक का अपना कार्य है। हमेशा दूसरे लोगों का स्थान लेने या आत्म-प्रदर्शन करने की इच्छा रखते हुए यह मत सोचो कि तुम सब-कुछ अच्छी तरह कर सकते हो, या तुम दूसरों से अधिक परिपूर्ण या बेहतर हो। यह भ्रष्ट स्वभाव है। ऐसे लोग भी हैं जो सोचते हैं कि वे कुछ भी अच्छा नहीं कर सकते, और उनके पास बिल्कुल भी कौशल नहीं है। अगर ऐसी बात है तो तुम्हें एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो शालीनता से सुने और समर्पण करे। तुम जो कर सकते हो, उसे अच्छे से, अपनी पूरी ताकत से करो। इतना पर्याप्त है। परमेश्वर संतुष्ट होगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे अभ्यास का मार्ग मिल गया। चाहे कुछ भी हो जाए मुझे अपने निजी हितों को एक तरफ रखना चाहिए, इस बारे में सोचना चाहिए कि कलीसिया के कार्य की रक्षा कैसे की जाए और सबसे पहले परमेश्वर को संतुष्ट किया जाए। दूसरे लोग मुझे कैसे भी देखें, मुझे चुपचाप अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए। अपने कर्तव्य में मुझे सत्य का अनुसरण करना चाहिए और अपने स्वभाव में परिवर्तन लाने की कोशिश करनी चाहिए। यही परमेश्वर के इरादे के अनुरूप होना है। अगर मैं प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागती रहूँ, दूसरों से ईर्ष्या करती रहूँ, उनसे प्रतिस्पर्धा करती रहूँ या गलत हथकंडे अपनाती र्हूँ, घृणित और वांछनीय काम करती रहूँ तो मेरी इन हरकतों से परमेश्वर मुझसे घृणा करने लगेगा। मैं यह भी समझ गई हूँ कि परमेश्वर के घर में कर्तव्य ऊँचे-नीचे रुतबे या छोटे-बड़े पद के आधार पर नहीं बाँटे जाते, हर कोई बस अपना कार्य कर रहा होता है। अगर किसी का कर्तव्य मेजबानी करना है तो उसे मेजबानी का कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए और अगर कोई अगुआ बन सकता है तो उसे अगुआ का कर्तव्य निर्वहन अच्छे से करना चाहिए। चाहे हम कोई भी कर्तव्य निभाएँ, हमें सत्य का अनुसरण करना चाहिए। परमेश्वर देखता है कि किसी व्यक्ति का अपने कर्तव्य के प्रति कैसा रवैया है, वह यह देखता है कि क्या वह सत्य का अनुसरण कर रहा है और क्या उसका भ्रष्ट स्वभाव बदल रहा है। परमेश्वर यह देखकर किसी व्यक्ति को स्वीकार नहीं करता कि उसके पास ऊँचा रुतबा या अधिक पूँजी है। यह परमेश्वर की धार्मिकता है। शियाओयूए चाहे किसी भी कर्तव्य का निर्वहन कर रही हो, उसकी अपनी जिम्मेदारियाँ हैं और मेरा अपना कर्तव्य है, मुझे केवल उससे अपनी तुलना करते रहने पर ही ध्यान देकर अपने कर्तव्य की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। भले ही लोग मेरा सम्मान करते हों, इसका मतलब यह नहीं है कि मेरे पास सत्य है या मेरा स्वभाव बदल गया है। मेरा आध्यात्मिक कद और काबिलियत एक समूह अगुआ के कर्तव्य के लिए उपयुक्त है, इसलिए मुझे एक समूह अगुआ के कर्तव्य का निर्वहन अच्छे से व्यावहारिक तरीके से करना चाहिए। जब भाई-बहनों को कोई समस्या या कठिनाई होगी तो मैं उनके साथ संगति कर मसले सुलझाने के लिए परमेश्वर पर भरोसा रखूँगी और वह कर्तव्य निभाऊँगी जो मुझे निभाना चाहिए।
बाद में विभिन्न कारणों से शियाओयूए अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए कहीं और नहीं गई। अगर पहले की बात होती तो मैं इस पर खुश हो रही होती, लेकिन अब मैं इसे सही ढंग से देख पा रहा थी, इसलिए मैंने अपनी मनोस्थिति और अपने द्वारा प्रकट कि गई भ्रष्टता के बारे में शियाओयूए के साथ खुलकर संगति की। शियाओयूए ने भी इस मामले पर अपनी अनुभवजन्य समझ मेरे साथ साझा की। पहले मैं ईर्ष्या में अंधी हो गई थी और जब शियाओयूए संगति करती थी तो मैं कभी ध्यान से नहीं सुनती थी, सोचती थी कि वह सिर्फ दिखावा कर रही है। उस दिन जब मैंने ध्यान से उसके अनुभवों पर संगति सुनी तो मैंने पाया कि मैंने उससे बहुत कुछ सीखा है, मुझे अपने हृदय में बड़ी सहजता और मुक्ति का एहसास हुआ। अपने अंदर यह मामूली सा बदलाव देखकर मेरा हृदय परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता से भर गया है।