21. मूत्ररुधिरता से पीड़ित मरीज का आत्म-चिंतन

हे मू, चीन

मैंने अपनी उम्र के चालीस के दशक में सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार किया। मैंने देखा कि परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य लोगों को बचाने का कार्य है और केवल परमेश्वर के सामने आकर, उसके वचन पढ़कर और अपने कर्तव्य निभाकर ही कोई व्यक्ति सत्य को समझ और प्राप्त कर सकता है, परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा प्राप्त कर सकता है और अंततः परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने का मौका पा सकता है। इसके तुरंत बाद मैंने अपने कर्तव्य निभाने शुरू कर दिए। कलीसिया ने मेरे लिए चाहे जो भी कर्तव्य निर्धारित किया हो, मैंने कभी मना नहीं किया। मैंने केवल यही सोचा कि मैं अपने कर्तव्य को अच्छी तरह कैसे निभाऊँ। बाद में मेरा रक्तचाप 220mmHg तक पहुँच गया, इसलिए मैंने इसे कम करने के लिए अंतःशिरा उपचार लिया और इसे अपने कर्तव्यों के आड़े नहीं आने दिया। मैं सोचती थी, “जब तक मैं ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाती हूँ, परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा।” चाहे बारिश हो या धूप मैंने सालों तक अपने कर्तव्य निभाना जारी रखा, यह सोचा कि मैं सच्ची विश्वासी हूँ जिसे परमेश्वर की स्वीकृति हासिल है। लेकिन अचानक बीमारी ने मेरे असली स्वरूप का खुलासा कर दिया।

यह 2009 की शरद ऋतु की बात है। एक दिन मुझे दोनों पैरों में अचानक सूजन और दर्द महसूस हुआ और वे फूलने लगे। इसके तुरंत बाद मेरा चेहरा और आँखें भी सूज गईं, मेरा पूरा चेहरा विकृत हो गया और मैं अपनी आँखें नहीं खोल पा रही थी। मेरी बेटी मुझे जाँच के लिए अस्पताल ले गई। डॉक्टर ने कहा कि मेरे दोनों गुर्दे ठीक से काम नहीं कर रहे हैं और यह स्थिति खून में मूत्र आने के विकार में बदल सकती है और अगर यह गंभीर हो गई तो इससे मृत्यु तक हो सकती है। यह सुनकर मैं चौंक गई। अगर चीजें इसी तरह चलती रहीं तो मृत्यु दूर नहीं है। मैंने परमेश्वर को पाने के कुछ ही महीने बाद अपने कर्तव्य करने शुरू किए थे और चाहे बारिश हो या धूप, या यहाँ तक कि बीमारी में भी मैंने कभी अपना कर्तव्य निभाना बंद नहीं किया। इन वर्षों में न केवल मैंने अपने कर्तव्यों में कष्ट सहे और खुद को थकाया बल्कि अपने रिश्तेदारों से गलतफहमियाँ, उपहास और अपमान भी सहा। क्या इस तरह का प्रयास पर्याप्त नहीं था? क्या यह अभी भी परमेश्वर की सुरक्षा प्राप्त करने के लिए पर्याप्त नहीं था? मैंने याद किया कि जब मैंने पहली बार परमेश्वर को पाया था और राज्य के जीवन के लिए ऐसी बड़ी उम्मीदें रखी थीं, लेकिन ऐसी गंभीर बीमारी से सामना हुआ जो किसी भी समय मेरे जीवन को खतरे में डाल सकती थी, तो मुझे आश्चर्य हुआ कि क्या मुझे अभी भी राज्य में प्रवेश करने का मौका मिलेगा। ऐसा लग रहा था कि सुंदर गंतव्य का अब मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। जितना मैंने इस बारे में सोचा, उतना ही मुझे लगा कि मेरे साथ अन्याय हुआ है और मैंने अपना कर्तव्य निभाने की प्रेरणा खो दी। मैं नकारात्मकता में डूब गई। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मुझे समझ नहीं आ रहा कि मैं इस बीमारी से क्यों जूझ रही हूँ और मेरे दिल में तुम्हारे खिलाफ शिकायतें हैं। मुझे पता है कि यह गलत है, इसलिए मेरा प्रबोधन और मार्गदर्शन करो ताकि मैं तुम्हारा इरादा समझ लूँ।”

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “लोग मानते हैं, ‘चूँकि मैं अब परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, इसलिए मैं उसका हूँ, और परमेश्वर को मेरी देखभाल करनी चाहिए, मेरे खाने-पीने और रहने के ठिकाने का ख्याल रखना चाहिए, मेरे भविष्य और मेरे भाग्य का ख्याल रखना चाहिए और साथ ही मेरे परिवार की सुरक्षा सहित मेरी निजी सुरक्षा का भी, और गारंटी देनी चाहिए कि मेरे लिए सब-कुछ अच्छा होगा, और सब-कुछ शांति से और बिना किसी दुर्घटना के होगा।’ और अगर तथ्य लोगों की अपेक्षा और कल्पना के अनुरूप नहीं हुए, तो वे सोचते हैं, ‘परमेश्वर में विश्वास रखना उतना अच्छा या उतना आसान नहीं है जितना मैंने कल्पना की थी। पता चल रहा है कि मुझे अभी भी ये सब उत्पीड़न और तकलीफें झेलनी होंगी और परमेश्वर में अपने विश्वास में मुझे अनेक परीक्षणों से गुजरना होगा—परमेश्वर मेरी रक्षा क्यों नहीं करता?’ यह सोच सही है या गलत? क्या यह सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) तो फिर क्या यह सोच यह नहीं दर्शाती कि वे परमेश्वर से अनुचित माँगें कर रहे हैं? ऐसी सोच वाले लोग परमेश्वर से प्रार्थना या सत्य की खोज क्यों नहीं करते हैं? परमेश्वर की सदिच्छा स्वाभाविक रूप से परमेश्वर के पीछे है, जिसके कारण लोग ऐसी चीजों का सामना करते हैं; लोग परमेश्वर के इरादे क्यों नहीं समझते? वे परमेश्वर के कार्य से सहयोग क्यों नहीं कर सकते? परमेश्वर इरादतन लोगों को ऐसी चीजों का सामना करने देता है, ताकि वे सत्य खोज सकें, उसे प्राप्त करें, और सत्य के भरोसे जिएँ। हालाँकि लोग सत्य नहीं खोजते, और इसके बजाय अपनी धारणाओं और कल्पनाओं का प्रयोग कर हमेशा परमेश्वर को मापते हैं—यही उनकी समस्या है। तुम्हें इन अप्रिय चीजों को इस तरह से समझना चाहिए : ऐसा कोई इंसान नहीं होता जिसका पूरा जीवन दुखों से मुक्त हो। किसी को पारिवारिक परेशानी, किसी को काम-धंधे की, किसी को शादी-विवाह की और किसी को शारीरिक व्याधि की परेशानी। हर किसी को कष्ट झेलना होता है। कुछ लोग कहते हैं, ‘लोगों को कष्ट क्यों उठाना पड़ता है? अगर हमारा पूरा जीवन सुख-शांति से बीतता, तो कितना अच्छा होता। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि दुख ही न आएँ?’ नहीं—सभी को दुख भोगने होंगे। दुख इंसान को भौतिक जीवन की असंख्य संवेदनाओं का अनुभव कराते हैं, फिर चाहे ये संवेदनाएं सकारात्मक हों, नकारात्मक हों, सक्रिय हों या निष्क्रिय हों; दुख तुम्हारे अंदर तरह-तरह की भावनाएँ और समझ पैदा करते हैं, जो जीवन के तुम्हारे सारे अनुभव होते हैं। यह एक पहलू है, और यह लोगों को अधिक अनुभवी बनाने के लिए है। यदि तुम सत्य की खोज करके इससे परमेश्वर के इरादे का पता लगा सको, तो तुम उस मानक के और भी करीब पहुँच जाओगे, जिसकी परमेश्वर तुमसे अपेक्षा करता है। दूसरा पहलू यह है कि यह वह जिम्मेदारी है जो परमेश्वर मनुष्य को देता है। कौन-सी जिम्मेदारी? यह वह पीड़ा है जिससे तुम्हें गुजरना होगा। यदि तुम इस कष्ट का सामना कर इसे सह पाओ, तो यह गवाही है, कोई शर्मनाक चीज नहीं है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (1))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गई कि हम जिस भी परिस्थिति और पीड़ा से दो-चार होते हैं, उसमें परमेश्वर के इरादे होते हैं। वे सभी उस चीज की क्षमता के दायरे में होते हैं जिसका बोझ एक व्यक्ति का आध्यात्मिक कद उठा सकता है। हमें सत्य और परमेश्वर के इरादे खोजने चाहिए और अपनी धारणाओं पर अड़े नहीं रहना चाहिए या चीजों को अपने परिप्रेक्ष्य से नहीं देखना चाहिए। अगर हम चीजों को देह के नजरिए से देखेंगे तो दुख में जिएँगे और सोचेंगे कि बीमारी अच्छी चीज नहीं है। लेकिन अगर हम परमेश्वर से ऐसी चीजें स्वीकार करते हैं और सत्य खोजते हैं, तो हम बीमारी के जरिए सबक सीख सकते हैं और फिर यह एक अच्छी चीज बन जाती है। इस बीमारी के लिए अपनी प्रतिक्रिया पर आत्म-चिंतन करते हुए मैंने सोचा कि परमेश्वर पर विश्वास करने और अपने कर्तव्य निभाने के इन सारे वर्षों के दौरान चाहे रिश्तेदारों और पड़ोसियों से बदनामी और उपहास का सामना करना पड़ा हो या हवा, बारिश, कड़ाके की ठंड या चिलचिलाती गर्मी सहनी पड़ी हो, मैंने कभी अपने कर्तव्य निभाना बंद नहीं किया था। इसलिए मुझे लगता था कि परमेश्वर मुझे गंभीर बीमारी से बचाएगा और अंत में मैं परमेश्वर के राज्य में प्रवेश के लिए जीवित रहूँगी। क्या यह बिल्कुल वही दशा नहीं है जिसे परमेश्वर अपने वचनों में उजागर करता है : “चूँकि मैं अब परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, इसलिए मैं उसका हूँ, और परमेश्वर को मेरी देखभाल करनी चाहिए, मेरे खाने-पीने और रहने के ठिकाने का ख्याल रखना चाहिए, मेरे भविष्य और मेरे भाग्य का ख्याल रखना चाहिए और साथ ही मेरी निजी सुरक्षा का भी”? जब मैंने देखा कि परमेश्वर ने मेरी कल्पना के मुताबिक मेरी रक्षा नहीं की तो मैंने परमेश्वर के बारे में शिकायत करना शुरू कर दिया, अपने त्याग और खपाई को परमेश्वर से तर्क करने के लिए पूँजी के रूप में इस्तेमाल किया और अपने कर्तव्य बेपरवाह तरीके से निभाने शुरू कर दिए। मेरी मानवता और विवेक कहाँ था? मेरे पिछले त्याग और खपाई भी गंभीर नहीं थी! अगर यह स्थिति मुझे बेनकाब न करती तो मुझे अपने छिपे हुए उद्देश्य और आशीष के लिए परमेश्वर में विश्वास करने के गलत नजरियों का एहसास न होता। एक बार यह एहसास होने पर मुझे अपने दिल में उतना दर्द महसूस नहीं हुआ और मैं समर्पण करने और दवा लेते हुए अपने कर्तव्य निभाने के लिए तैयार हो गई। धीरे-धीरे मेरी दशा में सुधार हुआ और मेरी बीमारी कुछ हद तक कम हो गई। हालाँकि मेरे पैर अब भी कभी-कभी सूज जाते थे, लेकिन मैं इससे बेबस नहीं थी और मैंने सक्रिय रूप से सुसमाचार का प्रचार करना जारी रखा।

2018 की सर्दियों में मुझे अचानक अपने पैर पर एक गांठ दिखी और मेरे पैर में इतना दर्द हुआ कि मैं उस पर अपना वजन नहीं डाल पाई और मुझे चलने में बेटी की मदद की जरूरत पड़ी। अस्पताल गई तो डॉक्टर ने गठिया के रूप में इसका निदान किया और उसने पाया कि मेरा क्रिएटिनिन स्तर 200 µmol/L से बढ़कर 500 µmol/L से अधिक हो गया था और मैं पहले से ही खून में मूत्र आने के बाद के चरणों में थी। डॉक्टर को डर था कि मैं सच्चाई को नहीं झेल पाऊँगी, इसलिए उसने मेरी स्थिति की पूरी गंभीरता को छिपा लिया। शुरू में तो मुझे अपनी बीमारी की ज्यादा चिंता नहीं थी, लेकिन चौथे दिन जब मेरी बेटी ने अचानक अंतिम संस्कार की व्यवस्था करने के बारे में पूछा, मुझे पता चल गया कि मेरी हालत और ज्यादा बिगड़ चुकी है। मेरा दिल कांप उठा और मैंने सोचा, “क्या ऐसा हो सकता है कि मेरे पास वाकई ज्यादा समय न बचा हो और मैं मरने वाली हूँ?” मैं इस बारे में सोचने की हिम्मत नहीं कर पाई, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मेरा जीवन और मृत्यु तुम्हारे हाथों में है। मैं तुम्हारे आयोजनों और व्यवस्थाओं के समक्ष समर्पण करने को तैयार हूँ।” कुछ दिन बाद मुझे पता चला कि मेरी बीमारी वाकई बाद के चरणों में थी और उस पल मेरे हाथ काँपने लगे और मैं एक कप भी नहीं पकड़ पा रही थी। मैं इस वास्तविकता को स्वीकार नहीं कर पाई, मैं सोच रही थी कि कहीं डॉक्टर ने किसी तरह गलती तो नहीं कर दी। मुझे लगा, “मेरी बीमारी इतनी जल्दी बिगड़ कैसे गई? मैं तो परमेश्वर की विश्वासी हूँ, इसलिए निश्चित रूप से परमेश्वर मुझे इतनी आसानी से नहीं मरने देगा।” लेकिन फिर मैंने सोचा, “मुझे आखिरी चरण की मूत्ररुधिरता का निदान किया गया है। इस पर विश्वास न करने की क्या तुक है? यह वास्तविकता है।” मुझे लगा मानो मेरा जीवन अंत के करीब है और मैं दर्द और निराशा से भर गई। जब मैंने सोचा कि मेरे पास अधिक समय नहीं बचा है और मैं राज्य की सुंदरता नहीं देख पाऊँगी तो मैं अपनी किस्मत स्वीकार करने के लिए यह सोचकर तैयार नहीं थी कि “मुझे अपने इतने साल के प्रयासों से क्या हासिल हुआ है? मैं इस सारे समय से अपने कर्तव्य निभाती आ रही हूँ तो मेरी बीमारी बढ़ती क्यों जा रही है?” मुझे लगा कि परमेश्वर मेरे साथ वास्तव में अन्याय कर रहा है। रात को बिस्तर पर लेटे हुए मैंने एक महिला के बारे में सोचा जिसने हमारे साथ कारोबार किया था। उसे भी मेरी ही तरह की बीमारी थी और निदान के बाद वह घर गई और दस दिन के भीतर मर गई। मुझे लगा कि मेरी मृत्यु भी निकट है और मेरी उल्टी गिनती शुरू हो गई है। मुझे लगा जैसे मैं पहले ही मर चुकी हूँ, इसलिए परमेश्वर के वचन पढ़ने का क्या तुक है? मैं बीस दिनों से अधिक नकारात्मक रही, मैं बहुत पीड़ा में जी रही थी। मुझे पता था कि मैं परमेश्वर से दूर हट गई हूँ, इसलिए मैंने रोते हुए उसे पुकारा और विनती की कि कि वह मुझे प्रबुद्ध और रोशन करे। फिर मुझे परमेश्वर के वचनों का एक भजन याद आया :

परीक्षण माँग करते हैं आस्था की

1  परीक्षणों से गुजरते समय लोगों का कमजोर होना या उनके भीतर नकारात्मकता आना या परमेश्वर के इरादों या अभ्यास के मार्ग के बारे में स्पष्टता का अभाव होना सामान्य बात है। लेकिन कुल मिलाकर तुम्हें परमेश्वर के कार्य पर आस्था होनी चाहिए और अय्यूब की तरह तुम्हें भी परमेश्वर को नकारना नहीं चाहिए। यद्यपि अय्यूब कमजोर था और अपने जन्म के दिन को धिक्कारता था, उसने इस बात से इनकार नहीं किया कि जन्म के बाद लोगों के पास जो भी चीजें होती हैं वे सब यहोवा द्वारा दी जाती हैं और यहोवा ही उन्हें ले भी लेता है। उसे चाहे जिन परीक्षणों से गुजारा गया, उसने यह विश्वास बनाए रखा।

2  लोगों के अनुभवों में, परमेश्वर के वचनों के चाहे जिस भी शोधन से वे गुजरें, परमेश्वर कुल मिलाकर जो चाहता है वह है उनकी आस्था और परमेश्वर-प्रेमी हृदय। इस तरह से कार्य करके वह जिस चीज को पूर्ण बनाता है, वह है लोगों की आस्था, प्रेम और दृढ़ निश्चय। ...

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा

परमेश्वर के वचनों पर विचार करके मेरा हृदय प्रबुद्ध हो गया। पता चला कि परमेश्वर हमारी आस्था को पूर्ण करने के लिए लोगों, घटनाओं और चीजों की व्यवस्था करता है। मैंने अय्यूब के बारे में सोचा जिसने ऐसे महान परीक्षण सहे थे—उसकी संपत्ति लूट ली गई, उसके बच्चे मर गए और उसका शरीर भयंकर फोड़ों से भर गया, फिर भी उसने कभी शिकायत नहीं की और तब भी परमेश्वर पर आस्था बनाए रखी, उसके लिए अपनी गवाही में अडिग रहा। परमेश्वर जो करता है वह मानवीय धारणाओं के अनुरूप नहीं होता और जब लोग इसे स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते या परमेश्वर के इरादे नहीं समझ पाते, तो उन्हें इसका अनुभव करने के लिए आस्था की जरूरत पड़ती है। इसका एहसास करके मेरा हृदय एकदम स्पष्ट हो गया।

उसके बाद मैंने और अधिक चिंतन किया। जब मुझे पता चला कि मैं मूत्ररुधिरता के बाद के चरणों में हूँ तो मैं डर और आतंक में जी रही थी और सच तो यह था कि मैं मृत्यु से डर गई थी। इसलिए मैंने अपनी दशा के बारे में परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “वे मृत्यु के भय के कष्ट से बच निकलने में असमर्थ क्यों हैं? मृत्यु का सामना करते समय, कुछ लोगों का पेशाब निकल जाता है; कुछ काँपते हैं, मूर्छित हो जाते हैं, स्वर्ग और मनुष्य के विरुद्ध समान रूप से घोर निंदा करते हैं, यहाँ तक कि कुछ रोते और विलाप करते हैं। ये किसी भी तरह से स्वाभाविक प्रतिक्रियाएँ नहीं हैं जो अचानक तब घटित होती हैं जब मृत्यु नजदीक आने लगती है। लोग मुख्यतः ऐसे शर्मनाक तरीकों से इसलिए व्यवहार करते हैं क्योंकि भीतर ही भीतर, अपने हृदय की गहराई में, वे मृत्यु से डरते हैं, क्योंकि उन्हें परमेश्वर की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाओं के बारे में स्पष्ट ज्ञान और समझ नहीं है, और सही मायने में वे उनके प्रति समर्पण तो बिल्कुल नहीं करते हैं। लोग इस तरह व्यवहार इसलिए करते हैं, क्योंकि वे केवल स्वयं ही हर चीज की व्यवस्था और उसे संचालित करना चाहते हैं, अपने भाग्य, अपने जीवन और मृत्यु को नियंत्रित करना चाहते हैं। इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं कि लोग कभी भी मृत्यु के भय से बच नहीं पाते हैं(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गई कि मृत्यु से सामना होने पर लोग भयभीत और आतंकित हो जाते हैं क्योंकि वे सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को नहीं समझते। मनुष्य का जीवन और मृत्यु परमेश्वर के नियंत्रण में है और ऐसी चीजें नहीं होतीं जिन्हें लोग स्वयं तय कर सकें। कोई भी अपना भाग्य नियंत्रित नहीं कर सकता। मुझे खयाल आया कि परमेश्वर ने कैसे कहा था कि अय्यूब ने अपने जीवन का मिशन पूरा करने के बाद शांति से मृत्यु का सामना किया और मैं इससे बहुत प्रभावित हुई। अय्यूब ने परमेश्वर का भय माना और अपने जीवन भर बुराई से दूर रहा, कभी भी परमेश्वर से सौदेबाजी या माँग करने की कोशिश नहीं की। जब परमेश्वर ने उसे दिया तो उसने परमेश्वर को धन्यवाद दिया और जब परमेश्वर ने उससे वापस लिया तो उसने समर्पण किया। चाहे परमेश्वर ने उसके साथ जैसा भी व्यवहार किया हो, वह समर्पण करने में सक्षम था और वह शांति से मृत्यु का सामना करने में सक्षम था। लेकिन जहाँ तक मेरा सवाल है, जब मुझे पता चला कि मैं मूत्ररुधिरता के अंतिम चरण में हूँ और अब ज्यादा समय जीवित नहीं रहूँगी, तो मैंने परमेश्वर से शिकायत की। मेरे मन में परमेश्वर के प्रति कोई समर्पण नहीं था और मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं था। मैं इस तरह से जीती नहीं रह सकती थी। मैं अय्यूब के उदाहरण का अनुसरण करने, अपने जीवन को परमेश्वर के हाथों में सौंपने और खुद को उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के सहारे छोड़ने के लिए तैयार हो गई। जब तक मैं जीवित हूँ, मैं अपनी क्षमता के अनुसार अपना कर्तव्य निभाऊँगी और जब मृत्यु मेरे पास आएगी, तो मैं शांति से उसका सामना करूँगी और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित रहूँगी। इस एहसास के बाद मुझे बहुत राहत महसूस हुई।

बाद में मैंने आत्म-चिंतन किया, “जब मैं बीमारी से जूझ रही थी, तो मैंने परमेश्वर से अपने साथ अनुचित व्यवहार की शिकायत क्यों की?” मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “लोग परमेश्वर से माँगें करने के योग्य नहीं हैं। परमेश्वर से माँगें करने से ज्यादा अनुचित कुछ नहीं है। वह वही करेगा जो उसे करना ही चाहिए, और उसका स्‍वभाव धार्मिक है। धार्मिकता किसी भी तरह से निष्पक्षता या तर्कसंगतता नहीं है; यह समतावाद नहीं है, या तुम्‍हारे द्वारा पूरे किए गए काम के अनुसार तुम्‍हें तुम्‍हारे हक का हिस्‍सा आवंटित करने, या तुमने जो भी काम किया हो उसके बदले भुगतान करने, या तुम्‍हारे किए प्रयास के अनुसार तुम्‍हारा देय चुकाने का मामला नहीं है। यह धार्मिकता नहीं है, यह केवल निष्पक्ष और विवेकपूर्ण होना है। बहुत कम लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को जान पाते हैं। मान लो कि अय्यूब द्वारा उसकी गवाही देने के बाद परमेश्वर अय्यूब को खत्‍म कर देता : क्या यह धार्मिक होता? वास्तव में, यह धार्मिक होता। इसे धार्मिकता क्‍यों कहा जाता है? लोग धार्मिकता को कैसे देखते हैं? अगर कोई चीज लोगों की धारणाओं के अनुरूप होती है, तब उनके लिए यह कहना बहुत आसान हो जाता है कि परमेश्वर धार्मिक है; परंतु, अगर वे उस चीज को अपनी धारणाओं के अनुरूप नहीं पाते—अगर यह कुछ ऐसा है जिसे वे बूझ नहीं पाते—तो उनके लिए यह कहना मुश्किल होगा कि परमेश्वर धार्मिक है। ... परमेश्वर का सार धार्मिकता है। हालाँकि वह जो करता है उसे बूझना आसान नहीं है, तब भी वह जो कुछ भी करता है वह सब धार्मिक है; बात सिर्फ इतनी है कि लोग समझते नहीं हैं। जब परमेश्वर ने पतरस को शैतान के सुपुर्द कर दिया था, तब पतरस की प्रतिक्रिया क्‍या थी? ‘तुम जो भी करते हो उसकी थाह तो मनुष्‍य नहीं पा सकता, लेकिन तुम जो भी करते हो उस सब में तुम्‍हारी सदिच्छा समाई है; उस सब में धार्मिकता है। यह कैसे सम्‍भव है कि मैं तुम्‍हारी बुद्धि और कर्मों की सराहना न करूँ?’ अब तुम्हें यह देखना चाहिए कि मनुष्य के उद्धार के समय परमेश्वर द्वारा शैतान को नष्ट न किए जाने का कारण यह है कि मनुष्य स्पष्ट रूप से देख सकें कि शैतान ने उन्हें कैसे और किस हद तक भ्रष्ट किया है, और परमेश्वर कैसे उन्हें शुद्ध करके बचाता है। अंततः, जब लोग सत्य समझ लेंगे और शैतान का घिनौना चेहरा स्पष्ट रूप से देख लेंगे, और शैतान द्वारा उन्हें भ्रष्ट किए जाने का महापाप देख लेंगे, तो परमेश्वर उन्हें अपनी धार्मिकता दिखाते हुए शैतान को नष्ट कर देगा। जब परमेश्वर शैतान को नष्ट करेगा, वह समय परमेश्वर के स्वभाव और बुद्धि से भरा होगा। वह सब जो परमेश्वर करता है धार्मिक है। भले ही लोग परमेश्वर की धार्मिकता को समझ न पाएँ, तब भी उन्हें मनमाने ढंग से आलोचना नहीं करनी चाहिए। अगर मनुष्यों को उसका कोई कृत्‍य अतर्कसंगत प्रतीत होता है, या उसके बारे में उनकी कोई धारणाएँ हैं, और उसकी वजह से वे कहते हैं कि वह धार्मिक नहीं है, तो वे सर्वाधिक विवेकहीन साबित हो रहे हैं। तुम देखो कि पतरस ने पाया कि कुछ चीजें अबूझ थीं, लेकिन उसे पक्का विश्‍वास था कि परमेश्वर की बुद्धिमता विद्यमान थी और उन चीजों में उसकी इच्छा थी। मनुष्‍य हर चीज की थाह नहीं पा सकते; इतनी सारी चीजें हैं जिन्‍हें वे समझ नहीं सकते। इस तरह, परमेश्वर के स्‍वभाव को जानना आसान बात नहीं है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गई कि परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का संबंध निष्पक्षता, तर्कसंगतता या मेहनत को पुरस्कृत करने से नहीं है, जैसी कि मैंने कल्पना कर रखी थी। ऐसा नहीं है कि मैं चाहे जितना अधिक देती हुई दिखाई दूँ, परमेश्वर को मुझे बदले में लौटाना ही होगा। परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव उसके सार से निर्धारित होता है। परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह धार्मिक होता है और उसके पीछे उसके अच्छे इरादे होते हैं। लेकिन मैंने सोचा कि मेहनत के साथ कोई पुरस्कार अवश्य होना चाहिए और जितना अधिक मैं अपने कर्तव्य में देती हूँ, उतना ही अधिक परमेश्वर को मुझे पुरस्कृत करना चाहिए। इसलिए जब मैंने कुछ त्याग किए और परमेश्वर के लिए अपने विश्वास में खुद को खपाया, तो मैंने सोचा कि मुझे परमेश्वर की सुरक्षा और आशीष मिलना चाहिए और उसके राज्य में लाया जाना चाहिए, अन्यथा मैं परमेश्वर को अधार्मिक मानूँगी। परमेश्वर की धार्मिकता के बारे में मेरी समझ बेतुकी थी! परमेश्वर सृष्टिकर्ता है और मैं केवल एक सृजित प्राणी हूँ। चाहे परमेश्वर चीजों को जैसे भी व्यवस्थित करे या मेरे साथ जैसा भी व्यवहार करे, यह उचित और धार्मिक है। अगर परमेश्वर मुझे आशीष देता है तो वह धार्मिक है और अगर वह नहीं देता तो भी वह धार्मिक है। अगर मैं परमेश्वर को अपनी धारणाओं से मापती हूँ, तो मैं उसका प्रतिरोध कर रही हूँ। मुझे याद आया कि परमेश्वर ने एक बार कहा था : “वे जो अशुद्ध हैं उन्हें राज्य में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है, वे जो अशुद्ध हैं उन्हें पवित्र भूमि को मैला करने की अनुमति नहीं है। तुमने भले ही बहुत कार्य किया हो, और कई सालों तक कार्य किया हो, किंतु अंत में यदि तुम अब भी बुरी तरह मैले हो, तो यह स्वर्ग की व्यवस्था के लिए असहनीय होगा कि तुम मेरे राज्य में प्रवेश करना चाहते हो!(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। “मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंजिल उसकी आयु, वरिष्ठता और उसके द्वारा सही गई पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता और सबसे कम इस आधार पर तय नहीं करता कि वह किस हद तक दया का पात्र है, बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। परमेश्वर किसी व्यक्ति की मंजिल इस आधार पर तय करता है कि उसके पास सत्य है या नहीं, न कि उसके द्वारा किए गए प्रत्यक्ष त्याग और खपाई के आधार पर। सत्य प्राप्त करके ही किसी व्यक्ति को अच्छा परिणाम मिल सकता है। यदि कोई व्यक्ति सत्य प्राप्त नहीं करता, लेकिन फिर भी शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से भरा हुआ है और अपने त्याग और खपाई का उपयोग परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने और उसे धोखा देने में करता है, तो ऐसे व्यक्ति से परमेश्वर घृणा करता है और वह राज्य में प्रवेश के योग्य नहीं है। यह परमेश्वर की धार्मिकता है। मैं लेन-देन और विनिमय उन्मुख मानसिकता के साथ परमेश्वर पर विश्वास करती थी, अपनी प्रत्यक्ष पीड़ा और खपाई का उपयोग परमेश्वर का आशीष प्राप्त करने के लिए करना चाहती थी। मैं परमेश्वर को धोखा दे रही थी और उसका दोहन कर रही थी। मैं इस तरह से परमेश्वर की स्वीकृति कैसे प्राप्त कर सकती थी या राज्य में प्रवेश कैसे कर सकती थी? मैंने पौलुस के त्याग और खपाई के बारे में सोचा। उसने हर जगह, यहाँ तक कि यूरोप के अधिकांश हिस्सों में भी प्रभु यीशु के सुसमाचार का प्रचार किया और कई कलीसियाएँ स्थापित कीं। अंत में उसने कहा, “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)। पौलुस ने अपने त्याग और खपाई का उपयोग परमेश्वर से धार्मिकता का मुकुट माँगने के लिए पूँजी के रूप में किया और अंत में उसे दंडित करने के लिए नरक में डाल दिया गया। परमेश्वर में आस्था को लेकर मेरा नजरिया भी पौलुस जैसा ही था। जब आशीष की मेरी इच्छा चकनाचूर हो गई तो मैंने परमेश्वर के बारे में शिकायत की। अगर मैंने पश्चात्ताप न किया तो क्या मेरा हश्र पौलुस जैसा ही नहीं होता?

बाद में जब मैं भाई-बहनों के साथ संगति कर रही थी, तो एक बहन को मेरे लिए परमेश्वर के वचन का एक अंश मिला : “सभी भ्रष्ट लोग स्वयं के लिए जीते हैं। हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए—यह मानव प्रकृति का निचोड़ है। लोग अपनी खातिर परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; जब वे चीजें त्यागते हैं और परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते हैं, तो यह धन्य होने के लिए होता है, और जब वे परमेश्वर के प्रति वफादार रहते हैं, तो यह भी पुरस्कार पाने के लिए ही होता है। संक्षेप में, यह सब धन्य होने, पुरस्कार पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के उद्देश्य से किया जाता है। समाज में लोग अपने लाभ के लिए काम करते हैं, और परमेश्वर के घर में वे धन्य होने के लिए कोई कर्तव्य करते हैं। आशीष प्राप्त करने के लिए ही लोग सब-कुछ छोड़ते हैं और काफी दुःख सहन कर पाते हैं। मनुष्य की शैतानी प्रकृति का इससे बेहतर प्रमाण नहीं है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गई कि परमेश्वर में विश्वास करने और चीजें त्यागने और खुद को खपाने के वर्षों के बाद यह सब सिर्फ आशीष प्राप्त करने के लिए था। मैं चाहती थी कि परमेश्वर मेरी रक्षा करे, मुझे सुरक्षित रखे, बीमारी या आपदा से मुक्त रखे। यह परमेश्वर के साथ सौदा तय करने का एक प्रयास था। मैं इन शैतानी जहर के अनुसार जी रही थी कि “बिना पुरस्कार के कभी कोई काम मत करो” और “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” और मैं जो कुछ भी करती थी उसमें “लाभ” सबसे आगे होता था। चाहे कोई चीज कितनी भी कठिन या थकाऊ क्यों न हो, जब तक इससे लाभ मिल रहा होता था तो मुझे लगता था कि इसे करना चाहिए। जब मैंने सुना कि परमेश्वर पर विश्वास करते हुए अपना कर्तव्य निभाने से परमेश्वर की सुरक्षा और अच्छी मंजिल मिल सकती है, तो मैंने चीजें त्याग दीं और खुद को खपा दिया और इसमें चाहे कितनी ही पीड़ा सहनी या कीमत चुकानी पड़ती हो, मुझे लगता था कि यह इस लायक है। लेकिन जब मुझे पता चला कि मुझे मूत्ररुधिरता है और यहाँ तक कि मेरी जान जाने का भी खतरा है, तो मैंने सोचा कि अगर मैं मर गई, तो मैं राज्य में प्रवेश नहीं कर पाऊँगी और आशीष प्राप्त नहीं कर पाऊँगी, इसलिए मैं अब और परमेश्वर के वचन पढ़ना या प्रार्थना करना नहीं चाहती थी, यहाँ तक कि उसके बारे में शिकायत कर रही थी, उससे बहस कर रही थी और उसे अपशब्द कह रही थी और उसे अधार्मिक मान रही थी। मैंने अपने त्याग और खपाई का उपयोग परमेश्वर से अनुरोध करने और अपने कर्मों के लिए प्रतिफल माँगने के लिए किया। मेरी मानवता और विवेक कहाँ थे? मैं कितनी स्वार्थी और धोखेबाज थी! ऐसे बलिदान कभी परमेश्वर की स्वीकृति कैसे प्राप्त कर सकते थे? परमेश्वर का कार्य लोगों को बचाना है और लोगों को यह अनुमति देना है कि वे अपने स्वभाव में परिवर्तन हासिल करें और अपने कर्तव्यों के निर्वहन में सत्य के अनुसरण के माध्यम से परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करें। लेकिन मैंने परमेश्वर पर विश्वास किया और अपने कर्तव्य केवल आशीष प्राप्त करने के लिए किए। मैंने देखा कि शैतानी जहर के सहारे जीने से मैं सच में स्वार्थी और नीच बन गई हूँ। मैं अब इस तरह नहीं जी सकती थी और मैं परमेश्वर के आगे पश्चात्ताप करना चाहती थी। बाद में मैं मेजबानी का कर्तव्य निभाने लगी और अंदर से खुश और आनंदित महसूस करने लगी। मुझे एहसास हुआ कि कर्तव्यों को अपनी जिम्मेदारी मानकर ही मैं एक सार्थक जीवन जी सकती हूँ।

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