23. मैं अपने कर्तव्य में मुश्किलों का सामना क्यों नहीं कर सकी?
नवंबर 2021 में मुझे एक कलीसिया अगुआ चुना गया। शुरू में मैंने सोचा कि यह कर्तव्य करने से मुझे समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य के उपयोग का अभ्यास करने का मौका मिलेगा, जिससे मेरी जीवन प्रगति को गति मिलेगी। हालाँकि मुझमें बहुत कमी थी, लेकिन मैं स्वीकारने और आज्ञा मानने के लिए तैयार थी। वास्तविक प्रशिक्षण की अवधि के बाद मुझे एहसास हुआ कि कलीसिया अगुआ बहुत सारे कामों के प्रभारी हैं। अगुआओं को न केवल कलीसियाई जीवन, बल्कि सिंचन और सुसमाचार के काम पर भी नजर रखनी है, वे पाठ-आधारित और कलीसिया की सफाई जैसे कामों में भी शामिल हैं। अपने पहले सप्ताह के दौरान लगभग हर दिन मैं विभिन्न सभा स्थलों पर भाई-बहनों के साथ संगति और उनकी मनोदशा का समाधान कर रही थी, साथ ही सभी कार्यों की व्यवस्था और कार्यान्वयन भी कर रही थी। मैं काम में पूरी तरह से डूबी हुई थी। जब मैं रात को घर जाती तो मेरे पास अभी भी निपटाने के लिए कुछ पत्र होते और मुझे लगा कि यह कर्तव्य करना बहुत थकाऊ है। मुझे कब आराम मिलेगा? न केवल मैं शारीरिक रूप से थकी हुई थी, बल्कि काम में सभी प्रकार की मुश्किलें और समस्याएँ थीं और मुझे काम से संबंधित तनाव सहना पड़ा। उस समय मेरी साझेदार बहन पारिवारिक मामलों में उलझी हुई थी, इसलिए बहुत सारा काम था जिसे सँभालने में वह मेरी मदद नहीं कर पाती थी। मैं अक्सर खुद ही सब कुछ सँभालने में असमर्थ रहती और धीरे-धीरे सुसमाचार फैलाने वाले, सिंचन करने वाले और पाठ-आधारित काम के प्रभारी भाई-बहन सभी कहने लगे कि वे शायद ही कभी अगुआओं से मिल पाते हैं और काम के बारे में संवाद नहीं होता है। वे सभी मुझसे असंतुष्ट थे। मैंने उन सभी अलग-अलग कार्यों के बारे में सोचा जिन्हें मुझे पूरा करना था; इन सभी के लिए बहुत समय और ऊर्जा की जरूरत थी। इसलिए मैं एकल-मद कर्तव्य करने वाले भाई-बहनों से बहुत ईर्ष्या करती थी, जिन्हें खुद को थकाने और मेरी तरह इतनी चिंता करने की जरूरत नहीं थी। यह सोचकर मैं अपने कर्तव्य में उतनी सक्रिय नहीं रह गई जितनी पहले थी और कभी-कभी जब उच्च-स्तरीय अगुआ मुझसे पूछते कि काम का कार्यान्वयन कैसा चल रहा है तो मैं सक्रियता से जवाब नहीं देती।
एक दिन उच्च-स्तरीय अगुआ ने मुझे एक पत्र भेजा जिसमें कहा गया था कि एक निश्चित कार्य के लिए एक तकनीशियन की जरूरत है, जिसमें बुनियादी कंप्यूटर कौशल हों और सौंदर्य संबंधी फैसले ले सके। अंदर से मैं कार्रवाई करने के लिए उत्सुक थी और मैंने मन ही मन सोचा, “मैंने पहले भी वीडियो बनाए हैं और मेरे पास कुछ कंप्यूटर कौशल हैं। इसके अलावा एकल-मद कर्तव्य करने से मैं एक पेशे पर ध्यान केंद्रित कर पाऊँगी। मैं नई चीजें सीख पाऊँगी और यह एक अगुआ होने जितना थकाऊ या चिंतादायक नहीं होगा।” इसलिए मैंने उच्च-स्तरीय अगुआओं को पत्र लिखने के बारे में सोचा और उन्हें बताया कि मेरी काबिलियत और कार्यक्षमता खराब है और मैं अगुआई के कर्तव्य करने के लिए उपयुक्त नहीं हूँ। तब मुझे पता था कि मेरी मनोदशा ठीक नहीं है। मैंने सोचा कि कैसे जब मैं वीडियो बनाते समय मुश्किलों में फँस गई थी तो मैंने उचित रूप से कीमत नहीं चुकाई और पेशेवर कौशल का अध्ययन नहीं किया। जब मैंने देखा कि एक और कर्तव्य है जिसमें बहुत अधिक पेशेवर जरूरतें नहीं हैं, मैंने अपना कर्तव्य बदलने के लिए अगुआ से आवेदन किया। जब मेरा काम बदला गया तो नए कर्तव्य में पहले जितनी बड़ी मुश्किलें नहीं थीं और जब मैंने नतीजे देखे तो मैं अपने काम में ऊर्जावान हो गई। लेकिन बाद में काम में अपेक्षाएँ बढ़ गईं और मुझे और अधिक मुश्किलों का सामना करना पड़ा। मैं कीमत चुकाने और इन मुश्किलों को दूर करने के लिए तैयार नहीं थी और फिर से मैं एक अलग कर्तव्य में जाना चाहती थी। आखिरकार मेरे कर्तव्य में खराब नतीजों के कारण फिर से मेरा काम बदल दिया गया। अब जब मैं अगुआई के कर्तव्य कर रही हूँ तो मैं अभी भी मुश्किलों का सामना होने पर अपना कर्तव्य क्यों बदलना चाहती हूँ? इस तरह की मनोदशा ने पहले से ही मेरे कर्तव्य के प्रदर्शन को प्रभावित किया था और मुझे इसे जल्द से जल्द सुलझाने के लिए सत्य की खोज करनी थी।
अगली सुबह अपनी आध्यात्मिक भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जो मेरी मनोदशा के अनुरूप था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “बहुत से लोग सत्य को नहीं समझते या सत्य का अनुसरण नहीं करते। वे कर्तव्य पालन के प्रति किस प्रकार का आचरण करते हैं? वे इसे एक तरह का काम, एक तरह का शौक या अपने हित में निवेश मानते हैं। वे इसे परमेश्वर द्वारा बताया गया कोई मिशन या कार्य या किसी ऐसी जिम्मेदारी की तरह नहीं मानते जो उन्हें पूरी करनी चाहिए। इससे भी कम प्रयास वे अपने कर्तव्यों का पालन करते समय सत्य को खोजने या परमेश्वर के इरादों को समझने में करते हैं ताकि अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभा सकें और परमेश्वर के आदेश को पूरा कर सकें। इसीलिए, अपने कर्तव्यों को निभाने की प्रक्रिया में कुछ लोग थोड़ी सी कठिनाई सहते ही उसे करने के अनिच्छुक हो जाते हैं और उसे छोड़कर बच निकलना चाहते हैं। जब उन्हें कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है या कुछ असफलताओं का सामना करना पड़ता है, तो वे पीछे हट जाते हैं, और फिर से भाग जाना चाहते हैं। वे सत्य की खोज नहीं करते; वे बस बच निकलने के बारे में सोचते हैं। कुछ भी गलत होने पर वे बस कछुओं की तरह अपने खोल में छिप जाते हैं, फिर से बाहर आने के लिए समस्या खत्म होने तक इंतजार करते हैं। ऐसे बहुत सारे लोग हैं। विशेष रूप से, कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनसे जब किसी खास काम की जिम्मेदारी लेने के लिए कहा जाता है, तो वे इस बात पर विचार नहीं करते कि वे अपनी निष्ठा कैसे साबित कर सकते हैं, या इस कर्तव्य को कैसे निभा सकते हैं और उस काम को अच्छी तरह से कैसे कर सकते हैं। बल्कि वे इस बात पर विचार करते हैं कि जिम्मेदारी से कैसे भागा जाए, काट-छाँट से कैसे बचा जाए, किसी जिम्मेदारी को लेने से कैसे बचा जाए, और समस्याएँ या गलतियाँ होने पर कैसे बेदाग बच निकला जाए। वे पहले अपने बच निकलने का रास्ता और अपनी प्राथमिकताओं और हितों को पूरा करने पर विचार करते हैं, न कि इस पर कि अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से कैसे निभाएँ और अपनी निष्ठा कैसे प्रस्तुत करें। क्या ऐसे लोग सत्य प्राप्त कर सकते हैं? वे सत्य के संबंध में प्रयास नहीं करते, और जब अपने कर्तव्यों के निर्वाह की बात आती है तो सत्य का अभ्यास नहीं करते। उन्हें हमेशा दूसरे की रोटी ज्यादा चुपड़ी नजर आती है। आज वे यह करना चाहते हैं, कल कुछ और करना चाहते हैं, और उन्हें लगता है कि हर दूसरे आदमी का कर्तव्य उनके अपने कर्तव्य से बेहतर और आसान है। और तब भी, वे सत्य के लिए प्रयासरत नहीं होते। वे यह नहीं सोचते कि उनके इन विचारों में क्या समस्याएँ हैं, और वे समस्याओं के समाधान के लिए सत्य की खोज नहीं करते। उनके दिमाग हमेशा इस बात पर लगे रहते हैं कि उनके अपने सपने कब साकार होंगे, कौन सुर्खियों में है, किसे ऊपरवाले से मान्यता मिल रही है, कौन बिना काट-छाँट के काम करता है और पदोन्नत हो जाता है। उनके दिमाग इन चीजों से भरे हुए हैं। क्या जो लोग हमेशा इन चीजों के बारे में सोचते रहते हैं, वे अपने कर्तव्यों का उचित ढंग से पालन कर सकते हैं? वे इसे कभी पूरा नहीं कर सकते। तो, किस तरह के लोग अपने कर्तव्यों का पालन इस तरह से करते हैं? क्या ये वे लोग हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं? सबसे पहले, एक बात तो तय है : इस तरह के लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते। वे कुछ आशीषों का आनंद लेना चाहते हैं, प्रसिद्ध होना चाहते हैं, और परमेश्वर के घर में प्रमुखता पाना चाहते हैं, ठीक वैसे ही जैसे जब वे सामान्य समाज में रह रहे थे। सार की दृष्टि से, वे कैसे लोग हैं? वे छद्म-विश्वासी हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं भावुक हो गई। परमेश्वर ने जो उजागर किया वह मेरी वास्तविक मनोदशा थी। जैसे ही मुझे अपने कर्तव्य करते समय मुश्किलों का सामना करना पड़ता, मैं पीछे हटना और उनसे बचना चाहती थी, हमेशा उम्मीद करती थी कि मैं एक आसान कर्तव्य अपना सकूँ। पहले जब मैं वीडियो बनाते समय मुश्किलों में फँस जाती थी, मैं तकनीकी कौशल का अध्ययन करने और उनसे पार पाने के लिए परमेश्वर पर निर्भर नहीं रहती थी। इसके बजाय मैं मुश्किलों का सामना होने पर झुक जाती थी, सोचती कि इस कर्तव्य में माँगें बहुत अधिक हैं, इसके लिए पेशेवर कौशल का अध्ययन करने पर बहुत अधिक समय और ऊर्जा खर्च करने की जरूरत है। मेरे लिए ऐसा कर्तव्य करना बेहतर होगा, जिसमें इतनी अधिक पेशेवर या तकनीकी जरूरतें न हों; इस तरह मुझे इतना कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा या इतनी थकान नहीं होगी। शारीरिक आराम के लिए मैंने अपने कर्तव्य बदलने के लिए आवेदन कर दिया। लेकिन जब मैं अपने नए कर्तव्य में मुश्किलों में फँस गई, तब भी मैं कष्ट नहीं उठाना चाहती थी या कीमत नहीं चुकाना चाहती थी, और फिर से मैंने अपना कर्तव्य बदलने के बारे में सोचा। चूँकि मैंने इस मनोदशा को सुलझाने के लिए कभी सत्य की खोज नहीं की, मैंने अभी भी मुश्किलों पर वैसी ही प्रतिक्रिया दी, सोचती रही कि यह कर्तव्य बहुत मुश्किल है और आसान काम चुनना चाहा। मैंने देखा कि कैसे परमेश्वर ने उजागर किया कि इस तरह के लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते और मुश्किलें सुलझाने के लिए कभी प्रयास नहीं करते, परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते या सत्य की खोज नहीं करते। वे अपने किसी भी कर्तव्य के प्रति कभी गंभीर नहीं रहते, केवल मृत्यु के परिणाम से बचने के साधन के रूप में अपने कर्तव्यों का इस्तेमाल करते हैं। परमेश्वर कहता है कि ऐसे लोग छद्म-विश्वासी हैं। “छद्म-विश्वासी” शब्द देखकर मैं व्यथित और अपमानित महसूस करने लगी, सोचने लगी, “कलीसिया ने इतने लंबे समय तक मुझे विकसित किया है, लेकिन मैं अपने कर्तव्य में कष्ट सहने से डरती हूँ और मुश्किलों के सामने झुक जाती हूँ। मैंने अपने किसी भी कर्तव्य को अंत तक नहीं निभाया है और मैंने कोई वास्तविक नतीजा नहीं दिया है। मैं वाकई परमेश्वर की बहुत ऋणी हूँ! अगर मैं अपने कर्तव्य व्यावहारिक तरीके से नहीं करती रही और सत्य के प्रति गंभीर नहीं रही या इसके लिए कोई प्रयास नहीं किया मैं आखिरकार बेनकाब हो जाऊँगी और निकाल दी जाऊँगी।” असल में मुझे एक अगुआ के रूप में विकसित करके कलीसिया मुझे प्रशिक्षण पाने का अवसर दे रही थी। भले ही मुझे कई मुश्किलों और समस्याओं का सामना करना पड़ता है और काम व्यस्त और थकाऊ है, अगर मैं मुश्किलों और समस्याओं का सामना होने पर परमेश्वर से प्रार्थना कर सकती हूँ और उससे खोज सकती हूँ, मैं कुछ हासिल कर पाऊँगी और कुछ जीवन प्रगति प्राप्त करूँगी। यह परमेश्वर का उत्कर्ष है! इसे समझते हुए मैं मुश्किलों का सामना होने पर अपने शरीर के खिलाफ विद्रोह करने और सत्य की खोज करने के लिए तैयार हो गई और मैं अपने कर्तव्य करने में पहले की तुलना में अधिक कर्तव्यनिष्ठ हो गई।
तीन महीने बाद मुझे जिला अगुआ चुना गया। क्योंकि मैंने अभी-अभी यह कर्तव्य सँभाला था, मैं बहुत सी समस्याएँ हल करना नहीं जानती थी, लेकिन मैंने सोचा कि चूँकि मैंने अभी-अभी प्रशिक्षण शुरू किया है, इसलिए यह न जानना कि क्या करना है, सामान्य बात है, इसलिए मैं प्रयास करने के लिए तैयार थी। लेकिन दो महीने बीत जाने के बाद मैंने देखा कि मैं जिस सिंचन कार्य की देखरेख कर रही थी, उसके नतीजे गिर रहे हैं। मेरा दिल कमजोर पड़ गया और मुझे लगा कि यह कर्तव्य वाकई कठिन है, सोचने लगी, “मैं सिंचनकर्ताओं के साथ लगभग हर सभा में गई और हर बार मैंने विस्तार से पूछा कि प्रत्येक नवागंतुक का सिंचन कैसा चल रहा है और कमजोर लोगों का साथ देने के लिए लोगों की व्यवस्था की। नतीजे क्यों नहीं सुधर रहे हैं?” मैं बहुत नकारात्मक थी और मैंने यह भी सोचा, “मैं इन वास्तविक समस्याओं को हल नहीं कर सकती; मेरे लिए एकल-मद कर्तव्य में जाना ही बेहतर है। एकल-मद कर्तव्य में मुझे बस अपने हिस्से के काम पर ध्यान देना होगा और पूरे ऑपरेशन के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं होगी। इस तरह यह इतना थकाऊ या मुश्किल नहीं होगा।” जब ये विचार उठे तो मैं अपना कर्तव्य करते समय चिड़चिड़ी होने लगी। हर दिन जवाब देने के लिए मौजूद सभी पत्रों को देखकर मैं खुद को बड़बड़ाने से रोक नहीं पाई और मैंने सोचा, “क्या इतने सारे पत्रों का उत्तर देना संभव है?” मैं इन पत्रों पर विस्तार से सोचने और प्रयास करने के लिए तैयार नहीं थी और उनमें से कुछ को मैंने बस सरसरी तौर पर पढ़ा, बहुत जटिल समझकर खारिज कर दिया और फिर उन्हें एक तरफ छोड़ दिया, उन पर ध्यान नहीं दिया। उस समय मैंने सिंचन कार्य में समस्याओं और विचलनों की समय पर खोज और समीक्षा नहीं की, जिससे काम में देरी हुई। एक दिन उच्च-स्तरीय अगुआओं ने मुझे एक पत्र भेजा, जिसमें कहा गया था कि हमारी निगरानी वाले काम में कई समस्याएँ हैं और यह काम नतीजा नहीं दे रहा है। मैंने अपने दिल में इसका प्रतिरोध किया, सोचने लगी, “काम में इतनी सारी समस्याएँ क्यों हैं? मैं कभी उन सभी का हल क्यों नहीं कर पाती? ऊपर से जब मैं गलतियाँ करती हूँ तो मेरी काट-छाँट की जाती है। मैं यह काम नहीं कर सकती!” मुझे एहसास हुआ कि मेरी मनोदशा गलत है और मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, जैसे ही मैं मुश्किलों का सामना करती हूँ, मैं तनाव महसूस करने लगती हूँ, मेरे अंदर प्रतिरोध की भावना पैदा होती है और मैं अपना कर्तव्य करना जारी नहीं रखना चाहती। परमेश्वर, सत्य की खोज करने और इस समस्या को सुलझाने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो।”
अपनी खोज के दौरान मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया। इसलिए मैंने इसे ढूँढ़कर पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब लोगों को ऐसे किसी विशिष्ट कार्य को क्रियान्वित करने और विशिष्ट परियोजनाओं का कार्यभार लेने की जरूरत होती है जिसके बारे में मसीह ने संगति की है, तो हो सकता है कि उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़े। नारे लगाना और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करना आसान है, लेकिन वास्तविक क्रियान्वयन इतना आसान नहीं है। कम-से-कम इतना तो है ही कि वास्तव में ये कार्य करने के लिए लोगों को प्रयास करने, कीमत चुकाने और समय खपाने की जरूरत होती है। एक लिहाज से इसमें उपयुक्त व्यक्तियों को ढूँढ़ना शामिल है तो दूसरे लिहाज से संबंधित पेशे के बारे में सीखना, विभिन्न पेशेवर पहलुओं से संबंधित सामान्य जानकारी और सिद्धांतों के साथ ही इसे क्रियान्वित करने के विशिष्ट तरीकों और दृष्टिकोणों पर शोध करना शामिल है। इसके अलावा उन्हें कुछ चुनौतीपूर्ण मसलों का सामना करना पड़ सकता है। आम तौर पर सामान्य लोग इन कठिनाइयों के बारे में सुनकर थोड़ा घबरा जाते हैं, थोड़ा दबाव महसूस करते हैं, लेकिन जो लोग परमेश्वर के प्रति वफादार और आज्ञाकारी होते हैं, वे कठिनाइयों का सामना और दबाव महसूस करने पर अपने दिल में मौन होकर प्रार्थना करेंगे और परमेश्वर से विनती करेंगे कि वह उन्हें मार्गदर्शन, आस्था, प्रबोधन और मदद दे, और वे गलतियाँ करने से बचने के लिए उससे रक्षा करने की विनती भी करेंगे ताकि वे अपनी वफादारी अच्छे से निभा सकें और एक स्वच्छ जमीर प्राप्त करने के लिए पुरजोर कोशिश कर सकें। लेकिन मसीह-विरोधियों जैसे लोग ऐसे नहीं होते हैं। जब वे यह सुनते हैं कि कार्य में मसीह द्वारा कुछ विशिष्ट व्यवस्थाएँ की हैं जो उन्हें लागू करनी हैं और कार्य में कुछ कठिनाइयाँ हैं, तो वे मन-ही-मन प्रतिरोध महसूस करने लगते हैं और इसे करने को तैयार नहीं होते हैं। यह अनिच्छा कैसी दिखती है? वे कहते हैं : ‘मेरे हिस्से में कभी अच्छी चीजें क्यों नहीं आतीं? मुझे हमेशा समस्याएँ और माँगें क्यों पकड़ा दी जाती हैं? क्या मुझे निठल्ला या हुक्म का गुलाम मान लिया गया है? मुझ पर हुक्म चलाना इतना आसान नहीं है! तुम इसे इतनी आसानी से कह देते हो, तुम इसे खुद करने की कोशिश क्यों नहीं करते!’ क्या यह समर्पण है? क्या यह स्वीकृति का रवैया है? वे क्या कर रहे हैं? (प्रतिरोध कर रहे हैं, विरोध कर रहे हैं।) ... क्या ऐसा है कि जब उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, शारीरिक कष्ट सहना पड़ता है और वे आराम से नहीं रह सकते, तो वे प्रतिरोधी बन जाते हैं? क्या यह बिना शर्त, शिकायत-रहित समर्पण है? वे जरा-सी कठिनाई में अनिच्छुक हो जाते हैं। ऐसा कोई भी काम जो वे नहीं करना चाहते, जो उन्हें कठिन, अवांछनीय, नीच लगता है या जो दूसरों की नजर में तुच्छ समझा जाता है, वे उसके प्रति जरा-सा भी समर्पण नहीं दिखाते और उसका उग्रता से प्रतिरोध करते हैं, उस पर ऐतराज करते हैं और उसे करने से इनकार कर देते हैं। मसीह अपने जिन वचनों, आज्ञाओं या सिद्धांतों के बारे में संगति करता है—इनके कारण जैसे ही मसीह-विरोधियों के लिए कठिनाइयाँ पैदा होती हैं या उन्हें कष्ट सहने या कीमत चुकाने की जरूरत पड़ती है—तो मसीह-विरोधियों की पहली प्रतिक्रिया प्रतिरोध, इनकार और अपने दिलों में घृणा की भावना के रूप में सामने आती है। लेकिन जब उनकी मनपसंद या फायदेमंद चीजों की बात आती है तो उनका ऐसा ही रवैया नहीं होता। मसीह-विरोधी सुख-सुविधा भोगने और अलग दिखने के इच्छुक होते हैं, लेकिन जब उनका सामना दैहिक कष्ट, कीमत चुकाने की जरूरत या यहाँ तक कि दूसरों की नाराजगी मोल लेने से हो तो क्या वे प्रसन्न होते हैं और खुशी-खुशी इसे स्वीकारने को तैयार होते हैं? क्या तब वे पूर्ण समर्पण कर पाते हैं? रत्तीभर भी नहीं; उनका रवैया पूरी तरह से अवज्ञापूर्ण और अक्खड़ होता है। जब मसीह-विरोधियों जैसे लोगों का सामना ऐसी चीजों से होता है जिन्हें वे करना नहीं चाहते हैं, ऐसी चीजें जो उनकी प्राथमिकताओं, रुचियों या निजी हितों से मेल नहीं खाती हैं तो मसीह के वचनों के प्रति उनका रवैया पूर्ण इनकार और प्रतिरोध का हो जाता है, इसमें समर्पण नाम की चीज नहीं होती” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग चार))। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मुझे एहसास हुआ कि हर किसी को अपने कर्तव्य पूरे करते समय मुश्किलों और तनाव का सामना करना पड़ता है, जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, वे परमेश्वर से इसे स्वीकारने में सक्षम होते हैं और मुश्किलों के बीच वे परमेश्वर से प्रार्थना करने, समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य की खोज करने और अपने कर्तव्य अच्छी तरह से करने में सक्षम होते हैं। लेकिन मसीह-विरोधी देह के आराम की लालसा करते हैं और ऐसे आसान कर्तव्य करने में खुश होते हैं जो उन्हें सुर्खियों में लाते हैं। जब ऐसे कर्तव्यों का सामना करना पड़ता है जो चुनौतीपूर्ण होते हैं और जिनमें शारीरिक कष्ट और प्रयास करने की जरूरत होती है, न केवल वे मुश्किलों का समाधान नहीं करते, बल्कि प्रतिरोध और विरोध करते हैं। मैंने देखा कि मेरा व्यवहार मसीह-विरोधियों जैसा ही था। मैं केवल देह के आराम की लालसा करती थी और अपने कर्तव्य में कीमत चुकाने को तैयार नहीं थी। मैं जिस सिंचन कार्य की प्रभारी थी, जब उसमें नतीजे नहीं मिले और मुश्किलें आने लगीं, तो मैंने सोचा कि यह कर्तव्य करना कठिन है और मैं कोई अन्य कार्य करना चाहती थी ताकि मेरे शरीर को थोड़ा आराम मिल सके। जब मैंने देखा कि मुझे हर दिन बहुत सारे पत्रों का जवाब देना है तो मैंने प्रतिरोध किया और बड़बड़ाती रही, बस पत्रों को एक तरफ रख दिया और उन पर ध्यान नहीं दिया। नतीजतन काम में विचलन को तुरंत पलटा और हल नहीं किया गया, जिससे सिंचन कार्य के नतीजे प्रभावित हुए। अगुआई के कर्तव्य करते हुए मेरा मुख्य काम सिंचन कार्य की निगरानी करना था और अधिक नवागंतुकों को सच्चे मार्ग पर जड़ें जमाने के लिए प्रेरित करना था। लेकिन मैंने इस काम की उपेक्षा की और इसे हल्के में लिया, मौजूदा समस्याएँ सुलझाने में प्रयास नहीं किया और काम ठप कर दिया। इस तरह से अपना कर्तव्य निभाते हुए मैं वाकई किसी के भरोसे के लायक नहीं थी; मुझमें बिल्कुल भी मानवता नहीं थी!
बाद में मैंने सोचा, “मैं हमेशा आसान काम क्यों चुनती हूँ और अपने कर्तव्य में कठिन काम से क्यों बचती हूँ, मुश्किलों से क्यों डरती हूँ और मुश्किल के सामने क्यों झुक जाती हूँ?” मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “कर्तव्य करते समय, लोग हमेशा हल्का काम चुनते हैं, ऐसा काम जो थकाए नहीं और जिसमें बाहर जाकर चीजों का सामना करना शामिल न हो। इसे आसान काम चुनना और कठिन कामों से भागना कहा जाता है, और यह दैहिक सुखों के लालच की अभिव्यक्ति है। और क्या? (अगर कर्तव्य थोड़ा कठिन, थोड़ा थका देने वाला हो, अगर उसमें कीमत चुकानी पड़े, तो हमेशा शिकायत करना।) (भोजन और वस्त्रों की चिंता और दैहिक आनंदों में लिप्त रहना।) ये सभी दैहिक सुखों के लालच की अभिव्यक्तियाँ हैं। जब ऐसे लोग देखते हैं कि कोई कार्य बहुत श्रमसाध्य या जोखिम भरा है, तो वे उसे किसी और पर थोप देते हैं; खुद वे सिर्फ आसान काम करते हैं, और यह कहते हुए बहाने बनाते हैं कि उनकी काबिलियत कम है, कि उनमें उस कार्य को करने की क्षमता नहीं है और वे उस कार्य का बीड़ा नहीं उठा सकते—जबकि वास्तव में, इसका कारण यह होता है कि वे दैहिक सुखों का लालच करते हैं। ... ऐसा भी होता है कि लोग अपना कर्तव्य करते समय कठिनाइयों की शिकायत करते हैं, वे मेहनत नहीं करना चाहते, जैसे ही उन्हें थोड़ा अवकाश मिलता है, वे आराम करते हैं, बेपरवाही से बकबक करते हैं, या आराम और मनोरंजन में हिस्सा लेते हैं। और जब काम बढ़ता है और वह उनके जीवन की लय और दिनचर्या भंग कर देता है, तो वे इससे नाखुश और असंतुष्ट होते हैं। वे भुनभुनाते और शिकायत करते हैं, और अपना कर्तव्य करने में अनमने हो जाते हैं। यह दैहिक सुखों का लालच करना है, है न? ... क्या दैहिक सुखों के भोग में लिप्त लोग कोई कर्तव्य करने के लिए उपयुक्त होते हैं? जैसे ही कोई उनसे कर्तव्य करने या कीमत चुकाने और कष्ट सहने की बात करता है, तो वे इनकार में सिर हिलाते रहते हैं। उन्हें बहुत सारी समस्याएँ होती हैं, वे शिकायतों से भरे होते हैं, और वे नकारात्मकता से भरे होते हैं। ऐसे लोग निकम्मे होते हैं, वे अपना कर्तव्य करने की योग्यता नहीं रखते, और उन्हें हटा दिया जाना चाहिए” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (2))। “आज, तुम मेरी बातों पर विश्वास नहीं करते, और उन पर ध्यान नहीं देते; जब इस कार्य को फैलाने का दिन आएगा, और तुम उसकी संपूर्णता को देखोगे, तब तुम्हें अफसोस होगा, और उस समय तुम भौंचक्के रह जाओगे। आशीषें हैं, फिर भी तुम्हें उनका आनंद लेना नहीं आता, सत्य है, फिर भी तुम्हें उसका अनुसरण करना नहीं आता। क्या तुम अपने-आप पर अवमानना का दोष नहीं लाते? आज, यद्यपि परमेश्वर के कार्य का अगला कदम अभी शुरू होना बाकी है, फिर भी तुमसे जो कुछ अपेक्षित है और तुम्हें जिन्हें जीने के लिए कहा जाता है, उनमें कुछ भी अतिरिक्त नहीं है। इतना सारा कार्य है, इतने सारे सत्य हैं; क्या वे इस योग्य नहीं हैं कि तुम उन्हें जानो? क्या ताड़ना और न्याय तुम्हारी आत्मा को जागृत करने में असमर्थ हैं? क्या ताड़ना और न्याय तुममें खुद के प्रति नफरत पैदा करने में असमर्थ हैं? क्या तुम शैतान के प्रभाव में जी कर, और शांति, आनंद और थोड़े-बहुत दैहिक सुख के साथ जीवन बिताकर संतुष्ट हो? क्या तुम सभी लोगों में सबसे अधिक निम्न नहीं हो? उनसे ज्यादा मूर्ख और कोई नहीं है जिन्होंने उद्धार को देखा तो है लेकिन उसे प्राप्त करने का प्रयास नहीं करते; वे ऐसे लोग हैं जो देह-सुख में लिप्त होकर शैतान का आनंद लेते हैं। तुम्हें लगता है कि परमेश्वर में अपनी आस्था के लिए तुम्हें चुनौतियों और क्लेशों या कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ेगा। तुम हमेशा निरर्थक चीजों के पीछे भागते हो, और तुम जीवन के विकास को कोई अहमियत नहीं देते, बल्कि तुम अपने फिजूल के विचारों को सत्य से ज्यादा महत्व देते हो। तुम कितने निकम्मे हो! तुम सूअर की तरह जीते हो—तुममें और सूअर और कुत्ते में क्या अंतर है? जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, बल्कि शरीर से प्यार करते हैं, क्या वे सब पूरे जानवर नहीं हैं? क्या वे मरे हुए लोग जिनमें आत्मा नहीं है, चलती-फिरती लाशें नहीं हैं? तुम लोगों के बीच कितने सारे वचन कहे गए हैं? क्या तुम लोगों के बीच केवल थोड़ा-सा ही कार्य किया गया है? मैंने तुम लोगों के बीच कितनी आपूर्ति की है? तो फिर तुमने इसे प्राप्त क्यों नहीं किया? तुम्हें किस बात की शिकायत है? क्या यह बात नहीं है कि तुमने इसलिए कुछ भी प्राप्त नहीं किया है क्योंकि तुम देह से बहुत अधिक प्रेम करते हो? ... तुम जैसा डरपोक इंसान, जो हमेशा दैहिक सुख के पीछे भागता है—क्या तुम्हारे अंदर एक दिल है, क्या तुम्हारे अंदर एक आत्मा है? क्या तुम एक पशु नहीं हो? मैं बदले में बिना कुछ मांगे तुम्हें एक सत्य मार्ग देता हूँ, फिर भी तुम उसका अनुसरण नहीं करते। क्या तुम उनमें से एक हो जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं? मैं तुम्हें एक सच्चा मानवीय जीवन देता हूँ, फिर भी तुम अनुसरण नहीं करते। क्या तुम कुत्ते और सूअर से भिन्न नहीं हो? सूअर मनुष्य के जीवन की कामना नहीं करते, वे शुद्ध होने का प्रयास नहीं करते, और वे नहीं समझते कि जीवन क्या है। प्रतिदिन, उनका काम बस पेट भर खाना और सोना है। मैंने तुम्हें सच्चा मार्ग दिया है, फिर भी तुमने उसे प्राप्त नहीं किया है : तुम्हारे हाथ खाली हैं। क्या तुम इस जीवन में एक सूअर का जीवन जीते रहना चाहते हो? ऐसे लोगों के जिंदा रहने का क्या अर्थ है? तुम्हारा जीवन घृणित और ग्लानिपूर्ण है, तुम गंदगी और व्यभिचार में जीते हो और किसी लक्ष्य को पाने का प्रयास नहीं करते हो; क्या तुम्हारा जीवन अत्यंत निकृष्ट नहीं है? क्या तुम परमेश्वर का सामना करने का साहस कर सकते हो? यदि तुम इसी तरह अनुभव करते रहे, तो क्या केवल शून्य ही तुम्हारे हाथ नहीं लगेगा? तुम्हें एक सच्चा मार्ग दे दिया गया है, किंतु अंततः तुम उसे प्राप्त कर पाओगे या नहीं, यह तुम्हारी व्यक्तिगत खोज पर निर्भर करता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे समझ आया कि अपना कर्तव्य करते समय मैं मुश्किलों से दूर भागती हूँ और उनके सामने झुक जाती हूँ और इसका मूल कारण यह है कि मैं कष्ट सहने को तैयार नहीं हूँ, मैं शारीरिक सुखों की लालसा करती हूँ और मैं सत्य पाने के लिए कष्ट सहने और कीमत चुकाने को तैयार नहीं हूँ। क्योंकि मैं गलत दृष्टिकोण से आगे बढ़ रही थी, जैसे ही मुझे अपने कर्तव्य में मुश्किलों का सामना करना पड़ा और मेरे शरीर को कष्ट सहना पड़ा, मैं बहुत ही दमित महसूस करने लगी और शिकायतों से भर गई, यहाँ तक कि मैं अपने कर्तव्य से बचना चाहती थी। मुझे याद आया कि कैसे जब मैं अतीत में एक छात्र थी, जब मैंने अपने सहपाठियों को कड़ी मेहनत से पढ़ाई करते और अच्छे विश्वविद्यालयों में प्रवेश पाने और भविष्य में आगे बढ़ने के लिए प्रयास करते देखा, जैसे ही मैंने कठोर अध्ययन के साथ आने वाले कष्टों के बारे में सोचा, मैं पीछे हट गई। इस वजह से मैं उनकी तरह उच्च शिक्षित नहीं हो पाई। पहले मैं सोचती थी कि मेरे जीवन के मूल्य अन्य लोगों से अलग हैं और मुझे कभी भी प्रतिष्ठा और रुतबे की बहुत इच्छा नहीं रही थी। अब मैंने आखिरकार देखा कि ऐसा नहीं है कि मुझे प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा पसंद नहीं है, लेकिन मैं शैतान के अस्तित्व के नियम के अनुसार जी रही थी : “जीवन बहुत छोटा है; खुद से अच्छा सुलूक करो।” मुझे अपने शरीर की बहुत परवाह थी। अब भले ही मैं परमेश्वर में विश्वास करती हूँ, लेकिन अस्तित्व का यह शैतानी नियम अभी भी मुझमें गहराई से समाया हुआ था। जैसे ही मुझे अपने काम में मुश्किलें आतीं, मैं रोती और आसान काम करना चाहती। मैं सिंचन कार्य की प्रभारी हूँ, जो नवागंतुकों के जीवन प्रवेश से संबंधित है। अगर नए लोगों का अच्छी तरह से सिंचन नहीं किया जाता और वे सच्चे मार्ग पर नींव नहीं रख पाते हैं तो उनके लिए पीछे हटना आसान होता है, लेकिन मैं अपने कर्तव्य में विभिन्न मुश्किलें सुलझाने के लिए कीमत चुकाने या सत्य की खोज करने के लिए तैयार नहीं थी। बल्कि मैं प्रतिकूल परिस्थितियों से दूर भागती रही, परमेश्वर के इरादे पर कोई विचार नहीं किया और कलीसिया के काम को ध्यान में नहीं रखा; मैं बेहद स्वार्थी और नीच थी। असल में परमेश्वर के घर में किसी भी कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने के लिए खुद को थोड़ा सा खपाना पड़ता है। उदाहरण के लिए सुसमाचार फैलाने वाले भाई-बहनों को सुसमाचार फैलाने से संबंधित सत्यों से खुद को सुसज्जित करने के लिए प्रयास करना पड़ता है, साथ ही संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं के उपहास और दुर्व्यवहार को भी सहना पड़ता है और यहाँ तक कि किसी भी समय गिरफ्तार होने और अपनी जान गँवाने के खतरे का सामना भी करना पड़ता है। इसके अलावा जहाँ तक तकनीकी कर्तव्यों की बात है, उन्हें केवल तभी अच्छी तरह से किया जा सकता है जब कोई पेशेवर कौशल का अध्ययन करने में समय और ऊर्जा खर्च करता है। जब सत्य का अनुसरण करने वाले भाई-बहनों को ऐसी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है तो वे सत्य की खोज करने और सबक सीखने में सक्षम होते हैं, जितना अधिक वे अपने कर्तव्य पूरे करते हैं, उतना ही बेहतर होते जाते हैं और उन्हें लगता है कि उनका सारा कष्ट सहना इसके लायक है। अतीत में मेरे पास उस तरह का प्रयास या संकल्प नहीं था। अपने कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया एक आलसी व्यक्ति जैसा था; मैं हर काम में भ्रमित रहना चाहती थी, कुछ नहीं समझ पाती थी और अपने किसी भी काम को पूरा नहीं करना चाहती थी। अगर मैं शारीरिक सुख-सुविधाओं के पीछे भागती रही और सत्य का उचित तरीके से अनुसरण नहीं किया और अगर मैं अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने के लिए कष्ट नहीं उठाया और कीमत नहीं चुकाई तो मैं किसी भी कर्तव्य को अच्छे से नहीं निभा पाऊँगी; मैं वाकई बेकार का कचरा बन जाऊँगी जिसे निकाल दिया जाना चाहिए।
बाद में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “मनुष्य को अर्थपूर्ण जीवन जीने का प्रयास अवश्य करना चाहिए और उसे अपनी वर्तमान परिस्थितियों से संतुष्ट नहीं होना चाहिए। पतरस की छवि के अनुरूप अपना जीवन जीने के लिए, उसमें पतरस के ज्ञान और अनुभवों का होना जरूरी है। मनुष्य को ज्यादा ऊँची और गहन चीजों के लिए अवश्य प्रयास करना चाहिए। उसे परमेश्वर को अधिक गहराई एवं शुद्धता से प्रेम करने का, और एक ऐसा जीवन जीने का प्रयास अवश्य करना चाहिए जिसका कोई मोल हो और जो सार्थक हो। सिर्फ यही जीवन है; तभी मनुष्य पतरस जैसा बन पाएगा। तुम्हें सक्रिय रूप से सकारात्मक पक्ष में प्रवेश करने पर ध्यान देना चाहिए, और अधिक गहन, विस्तृत और व्यावहारिक सत्यों को नजरअंदाज करते हुए अस्थायी आसानी के लिए निष्क्रिय होकर पीछे नहीं हट जाना चाहिए। तुम्हारे पास व्यावहारिक प्रेम होना चाहिए और तुम्हें जानवरों जैसे इस निकृष्ट और बेपरवाह जीवन को जीने के बजाय स्वतंत्र होने के रास्ते ढूँढ़ने चाहिए। तुम्हें एक ऐसा जीवन जीना चाहिए जो अर्थपूर्ण हो और जिसका कोई मोल हो; तुम्हें अपने-आपको मूर्ख नहीं बनाना चाहिए या अपने जीवन को एक खिलौना नहीं समझना चाहिए। परमेश्वर से प्रेम करने की चाह रखने वाले व्यक्ति के लिए कोई भी सत्य अप्राप्य नहीं है, और ऐसा कोई न्याय नहीं जिस पर वह अटल न रह सके। तुम्हें अपना जीवन कैसे जीना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर से कैसे प्रेम करना चाहिए और इस प्रेम का उपयोग करके उसके इरादों को कैसे पूरा करना चाहिए? तुम्हारे जीवन में इससे बड़ा कोई मुद्दा नहीं है। सबसे बढ़कर, तुम्हारे अंदर ऐसी आकांक्षा और कर्मठता होनी चाहिए, न कि तुम्हें एक रीढ़विहीन निर्बल प्राणी की तरह होना चाहिए। तुम्हें सीखना चाहिए कि एक अर्थपूर्ण जीवन का अनुभव कैसे किया जाता है, तुम्हें अर्थपूर्ण सत्यों का अनुभव करना चाहिए, और अपने-आपसे लापरवाही से पेश नहीं आना चाहिए। यह अहसास किए बिना, तुम्हारा जीवन तुम्हारे हाथ से निकल जाएगा; क्या उसके बाद तुम्हें परमेश्वर से प्रेम करने का दूसरा अवसर मिलेगा? क्या मनुष्य मरने के बाद परमेश्वर से प्रेम कर सकता है? तुम्हारे अंदर पतरस के समान ही आकांक्षाएँ और चेतना होनी चाहिए; तुम्हारा जीवन अर्थपूर्ण होना चाहिए, और तुम्हें अपने साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए! एक मनुष्य के रूप में, और परमेश्वर का अनुसरण करने वाले एक व्यक्ति के रूप में, तुम्हें इस योग्य होना होगा कि तुम बहुत ध्यान से यह विचार कर सको कि तुम्हें अपने जीवन के साथ कैसे पेश आना चाहिए, तुम्हें अपने-आपको परमेश्वर के सम्मुख कैसे अर्पित करना चाहिए, तुममें परमेश्वर के प्रति और अधिक अर्थपूर्ण विश्वास कैसे होना चाहिए और चूँकि तुम परमेश्वर से प्रेम करते हो, तुम्हें उससे कैसे प्रेम करना चाहिए कि वह ज्यादा पवित्र, ज्यादा सुंदर और बेहतर हो” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि परमेश्वर आशा करता है कि लोग सत्य का अनुसरण करना अपने जीवन का एक प्रमुख हिस्सा मानेंगे। अगर मैंने शरीर के अस्थायी आराम के लिए सत्य पाने का अपना अवसर खो दिया, तो क्या यह मूर्खता नहीं होगी? परमेश्वर का कार्य समाप्त होने तक अगर हम सत्य हासिल नहीं करते हैं या अपना स्वभाव नहीं बदलते हैं तो हमें जीवन भर केवल इसका पछतावा होगा। अगुआई के कर्तव्य निभाने के दौरान भले ही मुझमें बहुत कमी थी और भले ही कार्य में काफी मुश्किलें और तनाव था, मैंने एकल-मद कर्तव्यों की तुलना में बहुत अधिक पाया था। इससे न केवल मेरी कार्य क्षमताएँ बढ़ीं, बल्कि मैं कुछ सत्य सिद्धांत भी समझ पाई। मैंने देखा कि मुश्किलें और तनाव—यह सब परमेश्वर की ओर से आशीष है। मैंने संकल्प लिया कि मैं शारीरिक विचारों की खातिर अपने कर्तव्य से बचना और टलना नहीं चाहूँगी। जब मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना करूँगी और उस पर अधिक भरोसा करूँगी और उन्हें सुलझाने के लिए सत्य की खोज करूँगी। इसके तुरंत बाद मैं कारण की खोज और चिंतन करने लगी कि सिंचन कार्य नतीजा क्यों नहीं दे रहा है। चिंतन और समीक्षा के माध्यम से मैंने देखा कि यह मुख्य रूप से इसलिए है क्योंकि मैं अपने कर्तव्य में बहुत निष्क्रिय थी और विचलन की समीक्षा करने पर ध्यान नहीं देती थी। जब नए लोगों को समस्याएँ आतीं तो मैं उन्हें इस आधार पर हल नहीं करती थी कि मैं ऐसा करने के लिए अयोग्य हूँ, जिससे ढेर सारी समस्याएँ इकट्ठी हो जाती थीं और समाधान की कोई राह नहीं होती थी। बाद में जब मैं वाकई अपने काम में कीमत चुकाने लगी तो सिंचन कार्य के नतीजे लगातार बेहतर होने लगे। मैंने मुश्किलों के बीच न रहने और परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने की मधुर भावना का प्रत्यक्ष अनुभव किया और इस स्थिति का अनुभव करने के लिए मेरी आस्था और भी अधिक बढ़ गई।
बाद में मुझे और भी अधिक काम का प्रभार दिया गया और इसके अलावा मैं काम से परिचित नहीं थी और सत्य पर संगति करने और समस्याएँ सुलझाने के संबंध में मुझमें कमी थी। यह काफी कठिन लग रहा था, लेकिन मैं अपने शरीर के खिलाफ विद्रोह करने और अपने कर्तव्य के प्रति अधिकतम प्रयास करने के लिए तैयार थी। कार्य करने के एक या दो महीने बाद नतीजे बहुत अच्छे नहीं थे और मैं थोड़ी निराश थी, सोच रही थी कि यह कर्तव्य करना बहुत कठिन है और मैंने जो पिछले कर्तव्य किए हैं, वे अधिक आरामदेह थे। मुझे एहसास हुआ कि मेरी मनोदशा गलत थी और इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और इसे सुलझाने के लिए सत्य की खोज की। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वे सभी ऐसे व्यक्ति होते हैं जो अपना उचित कार्य करते हैं, वे सभी अपने कर्तव्य निभाने के इच्छुक होते हैं, वे किसी कार्य का दायित्व लेकर उसे अपनी काबिलियत और परमेश्वर के घर के विनियमों के अनुसार अच्छी तरह से करने में सक्षम होते हैं। निस्संदेह शुरू में इस जीवन के साथ सामंजस्य बैठाना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। तुम शारीरिक और मानसिक रूप से थका हुआ महसूस कर सकते हो। लेकिन अगर तुम में वास्तव में सहयोग करने का संकल्प है और एक सामान्य और अच्छा इंसान बनने और उद्धार प्राप्त करने की इच्छा है, तो तुम्हें थोड़ी कीमत चुकानी होगी और परमेश्वर को तुम्हें अनुशासित करने देना होगा। जब तुममें जिद्दी होने की तीव्र इच्छा हो, तो तुम्हें उसके खिलाफ विद्रोह कर उसे त्याग देना चाहिए, धीरे-धीरे अपना जिद्दीपन और स्वार्थपूर्ण इच्छाएँ कम करनी चाहिए। ... तुम यह नहीं कह सकते, ‘यह बहुत ज्यादा दबाव है, इसलिए मैं इसे नहीं करूँगा। मैं बस अपना कर्तव्य करने और परमेश्वर के घर में काम करने में फुरसत, सहजता, खुशी और आराम तलाश रहा हूँ।’ यह नहीं चलेगा; यह ऐसा विचार नहीं है जो किसी सामान्य वयस्क में होना चाहिए, और परमेश्वर का घर तुम्हारे आराम करने की जगह नहीं है। हर व्यक्ति अपने जीवन और कार्य में एक निश्चित मात्रा में दबाव और जोखिम उठाता है। किसी भी काम में, खास तौर से परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम्हें इष्टतम परिणामों के लिए प्रयास करना चाहिए। बड़े स्तर पर यह परमेश्वर की शिक्षा और माँग है। छोटे स्तर पर यह वह रवैया, दृष्टिकोण, मानक और सिद्धांत है, जो हर व्यक्ति को अपने आचरण और कार्यकलापों में अपनाना चाहिए” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (5))। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि एक वयस्क के रूप में सामान्य विवेक के साथ मुझे काम करने में सक्षम होना चाहिए। हालाँकि काम में कभी-कभी मुश्किलें आती हैं, जिसके लिए कुछ कष्ट सहने की जरूरत होती है, यह कुछ ऐसा है जिसका मुझे उद्धार की खोज के दौरान अनुभव करना चाहिए। जीविका चलाने के लिए अविश्वासियों को भी बहुत कष्ट सहने पड़ते हैं। जहाँ तक हम विश्वासियों की बात है, अपने कर्तव्य करते समय हम जो कष्ट सहते हैं, वह हमारे जीवन के लिए सार्थक और लाभकारी हैं। यह समझकर मैं समर्पण और अनुभव करने के लिए तैयार हो गई। इसके बाद जब मेरे कर्तव्य में बहुत सारी मुश्किलें आती हैं तो कभी-कभी मुझे अभी भी थोड़ी निराशा महसूस होती है, लेकिन उनके कारण मैं अपने कर्तव्य से इस्तीफा नहीं देना चाहती। इसके बजाय मैं मुश्किलों के बीच परमेश्वर के इरादे की खोज करने, अपना सर्वश्रेष्ठ देने और अपने कर्तव्य में मुश्किलों और तनाव को सही ढंग से समझने में सक्षम होती हूँ। मैं दिल से परमेश्वर का धन्यवाद करती हूँ!