25. जिम्मेदारी स्वीकारने और इस्तीफा देने के बाद चिंतन

ली शू, चीन

2021 में मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया। चूँकि मैंने पहले हमेशा एकल-कार्य वाला काम किया था, इसलिए मैं कलीसिया के समग्र कार्य से काफी अपरिचित थी, इसलिए मुझे चिंता थी कि अगर मैंने अच्छा न किया, तो मुझे बरखास्त कर दिया जाएगा और यह वास्तव में शर्मनाक होगा। लेकिन मैंने सोचा, “हम प्रत्येक चरण में जो भी कर्तव्य करते हैं, वह परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है, इसलिए चूँकि भाई-बहनों ने मुझे अगुआ चुना है तो क्या इसका मतलब यह है कि उन्हें मैं इस कार्य के लायक लगता हूँ?” इसलिए मैंने इसे स्वीकार करने और प्रशिक्षण लेकर इसे एक बार आजमाने का फैसला किया। बाद में जब मैं और मेरी साथी बहन झोऊ युन आपस में काम बाँट रही थीं तो मैंने कुछ ऐसे काम चुने जिनमें मैं कुछ हद तक कुशल थी, मैं सोच रही थी कि अगर मैंने कड़ी मेहनत की तो मैं काम अच्छी तरह से कर पाऊँगी। जल्द ही काम का सारांश तैयार करने का समय आ गया और मुझे एहसास हुआ कि काम के कई विवरण ऐसे थे जिन पर मेरी पकड़ नहीं थी और मैं आगे चलकर काम को और अधिक विशिष्ट तरीके से सँभालना चाहती थी। लेकिन जब मैंने वास्तव में इसे करने की कोशिश की तो पाया कि यह उतना आसान नहीं था जितना मैंने सोचा था और बहुत सी ऐसी समस्याएँ और कठिनाइयाँ थीं जहाँ मुझे यह भी नहीं पता था कि कहाँ से शुरू करना है। मैंने सोचा, “मैं लगभग दो महीने से यह कर्तव्य निभा रही हूँ और अभी भी बहुत सारा काम है जिसे मैंने ठीक से पूरा नहीं किया है। क्या ऊपरी अगुआ यह कहेंगे कि यह कर्तव्य सँभालने के लिए मुझमें कार्य क्षमताएँ नहीं हैं?” जितना मैंने इस बारे में सोचा, उतना ही अधिक दबाव मुझे महसूस हुआ, इसलिए मैं ऊपरी अगुआ से एकल-कार्य कार्य करने के बारे में बात करना चाहती थी। कम से कम इस तरह से मैं इतनी अक्षम नहीं दिखती। इसलिए मैंने अगुआ से कहा, “मुझे लगता है कि मेरी काबिलियत कम है और मैं कलीसिया के कार्य की अगुआई के लिए उपयुक्त नहीं हूँ। इसके बजाय मैं एकल-कार्य वाला काम करना पसंद करूँगी।” अगुआ ने कहा, “पहली बार काम करना शुरू करते समय दबाव महसूस करना सामान्य बात है, कुछ समय प्रशिक्षण लेने के बाद तुम इस बारे में बेहतर महसूस करोगी।” जब मैंने अगुआ को यह कहते हुए सुना तो सोचा, “तो यह सिर्फ इसलिए है क्योंकि मैंने लंबे समय तक प्रशिक्षण नहीं लिया है। अगर मैं कुछ और समय तक प्रशिक्षण लेती हूँ और कुछ प्रयास करती हूँ, तो क्या मैं काम को अच्छी तरह से कर पाऊँगी?” इसके बाद मैंने खुद को अपने कर्तव्य में झोंकना जारी रखा, जब भी मुझे कुछ समझ नहीं आता तो मैं झोऊ युन से सीखती थी। धीरे-धीरे मैं कुछ कार्य पर पकड़ बनाने में सक्षम हो गई।

जून 2022 में झोऊ युन को अलग कर्तव्य वाला दूसरा कार्य सौंपा गया और कलीसिया के कार्य को मैंने और नव-चयनित अगुआ बहन वू फैन ने सँभाल लिया। लेकिन मैं उस काम से बहुत परिचित नहीं थी जिसके लिए झोऊ युन जिम्मेदार थी और चूँकि उस समय वू फैन की तबीयत ठीक नहीं थी, इसलिए अधिकांश काम मेरे कंधों पर आ गया और मैंने बहुत दबाव महसूस किया। चूँकि मुझमें बहुत से पेशेवर कौशलों की कमी थी, इसलिए सभाओं के दौरान मैं भाई-बहनों के साथ उनकी कुछ दशाएँ हल करने के लिए ही संगति कर पाती थी, लेकिन मैं उन समस्याओं और भटकावों से नहीं निपटती थी जो काम में पैदा होते थे। एक बार जब मैं एक सभा में गई तो भाई-बहनों ने कहा, “जब झोऊ युन यहाँ सभाओं में आती थी तो जब कभी हम अपने काम में अटक जाते थे, वह असल में कारणों पर गौर करती थी और समस्याएँ हल करती थी, लेकिन जब तुम सभाओं में आती हो तो केवल दशाएँ हल करती हो और शायद ही कभी हमारे काम का विश्लेषण और सारांश बनाने में हमारी मदद करती हो। हम कठिनाइयाँ झेलते हैं क्योंकि हमारे काम का खराब प्रदर्शन हमारी दशाओं पर असर डालता है।” फिर भाई-बहनों ने सलाह दी कि मैं यह अनुभवजन्य गवाही वीडियो देखूँ : मैं एक झूठी अगुआ कैसे बनी। मैंने सोचा, “वे कहते हैं कि मैं झोऊ युन जितनी अच्छी नहीं हूँ; क्या ऐसा हो सकता है कि उन्हें लगता है कि मेरे पास कोई कार्य क्षमता नहीं है और वे मेरा भेद पहचानने लगे हैं? क्या वे मेरी रिपोर्ट करने जा रहे हैं? हाल ही में कलीसिया के कार्य के समग्र नतीजे बहुत अच्छे नहीं रहे हैं और अगर मेरी वास्तव में रिपोर्ट की जाती है और ऊपरी अगुआ काम को देखती है तो वह निश्चित रूप से कहेगी कि मेरी काबिलियत खराब है और मैं इतने लंबे समय के बाद भी काम सँभालने में असमर्थ हूँ। अगर यह उस बिंदु पर पहुँच गया जहाँ मेरी रिपोर्ट की जाती है और मुझे बरखास्त कर दिया जाता है तो यह बहुत शर्मनाक होगा। बेहतर होगा कि मैं पहले ही जिम्मेदारी स्वीकार कर लूँ और इस्तीफा दे दूँ और इस तरह मैं कम से कम कुछ आत्म-जागरूकता तो प्रदर्शित करूँगी।” उस दौरान जिम्मेदारी स्वीकारने और इस्तीफा देने का विचार बीच-बीच में मन में आता था। एक दिन मैंने संयोग से वू फैन और ऊपरी अगुआ को मेरे काम में कुछ भटकावों पर चर्चा करते सुना। मैंने मन में सोचा, “क्या उन्हें लगता है कि मुझमें काबिलियत की कमी है और कार्य क्षमताओं की भी?” फिर मैंने इस बारे में सोचा कि कैसे काम में हाल-फिलहाल कोई नतीजा नहीं मिला है और मैंने उन चीजों के बारे में भी सोचा जो भाई-बहनों ने मेरे बारे में कही थीं, इसलिए मैंने त्यागपत्र लिख दिया।

पत्र भेजने के बाद मैं बेचैन हो गई। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और यह खोजा कि क्या मेरा त्यागपत्र सिद्धांतों के अनुरूप है। बाद में मैंने पढ़ा कि “जिम्‍मेदारी स्‍वीकार करने और त्‍यागपत्र देने के सिद्धांत” में यह कहा गया है : “(1) अगर कोई झूठा अगुआ या कार्यकर्ता सत्‍य को स्‍वीकार नहीं करता, व्‍यावहारिक कार्य नहीं कर सकता, और लंबे समय तक पवित्र आत्‍मा के कार्य से वंचित रहा है, तो उसे जिम्मेदारी स्‍वीकार करनी चाहिए और त्‍यागपत्र दे देना चाहिए; (2) जो कोई भी कार्य-व्‍यवस्‍थाओं या उपदेशों और सहभागिता को जारी रखने या अमल में लाने से इनकार करके उस मार्ग में बाधा बनता है जिस पर परमेश्‍वर के चुने हुए लोगों को ले जाया जा रहा है और जिन्हें उच्च द्वारा मार्गदर्शन दिया जा रहा है, उसे जिम्‍मेदारी स्‍वीकार करके त्‍यागपत्र दे देना चाहिए; (3) जो कोई भी कार्य-व्‍यवस्‍थाओं का उल्‍लंघन करके और मनमाने ढंग से परमेश्‍वर के घर के कार्य और उसके चुने लोगों को कोई बड़ी क्षति पहुँचाता है और उनकी तबाही का कारण बनाता है, उसे जि‍म्‍मेदारी स्‍वीकार करके त्‍यागपत्र दे देना चाहिए” (सत्य का अभ्यास करने के 170 सिद्धांत, 65. जिम्‍मेदारी स्‍वीकार करने और त्‍यागपत्र देने के सिद्धांत)। मैंने देखा कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए जिम्मेदारी स्वीकार करने और इस्तीफा देने के सिद्धांत होते हैं। वे अगुआ और कार्यकर्ता जो असली कार्य नहीं कर पाते, जो कार्य व्यवस्थाओं को लागू नहीं करते या कार्य में बाधा डालते हैं और जो परमेश्वर के घर के कार्य को गंभीर नुकसान पहुँचाते हैं, उन्हें अवश्य ही जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए और इस्तीफा दे देना चाहिए। सिद्धांतों की रोशनी में खुद को देखने पर मैंने पाया कि एक अगुआ के बतौर मेरे कार्यकाल के दौरान हालाँकि नतीजे थोड़े खराब थे, मैंने कार्य की प्रगति में देरी नहीं की या बाधा नहीं डाली और मैं असली कार्य करने में पूरी तरह से असमर्थ नहीं थी। ठीक उसी तरह जब सिंचन कार्य में रुकावट आई थी तो मेरी खोज और संगति के माध्यम से सिंचित किए जा रहे नवागंतुकों की स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ और वे अपनी सर्वश्रेष्ठ क्षमताओं के अनुसार अपने कर्तव्य निभाने लगे। कभी-कभी समस्याओं की असलियत जानने में मेरी असमर्थता के कारण कार्य का कार्यान्वयन ठीक से नहीं हो पाता था या विचलन पैदा हो जाते थे। लेकिन सुसंगत सिद्धांत खोज कर मैं चीजों को बदलने में सक्षम रहती थी और मैं कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी या बाधा पैदा नहीं करती थी। इसके अलावा मैं पहले कभी कोई अगुआ या कार्यकर्ता नहीं रही थी और मैं विभिन्न कार्यों में शामिल सिद्धांत नहीं समझती थी, लेकिन सीखने और प्रशिक्षण के माध्यम से धीरे-धीरे मैंने कुछ सिद्धांतों पर पकड़ बना ली और मैं कुछ समस्याओं का पता लगाने में सक्षम हो गई। हालाँकि मेरे समाधान गहन नहीं थे, लेकिन मैं असली कार्य करने में पूरी तरह से असमर्थ नहीं थी। सिद्धांतों के आधार पर मैंने देखा कि मैं उस बिंदु तक नहीं पहुँची थी जहाँ मुझे जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए और इस्तीफा देना चाहिए। इसलिए मैंने खोज की और आत्म-चिंतन किया, खुद से पूछा, “इन मामलों का सामना करने समय क्यों मैंने सत्य नहीं खोजा या अपने काम में नतीजों की कमी के कारणों का सारांश तैयार नहीं किया, बल्कि जिम्मेदारी स्वीकार करने और इस्तीफा देने की जरूरत महसूस की?” मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा : “सत्य की खोज करने के बजाय, अधिकतर लोगों के अपने तुच्छ एजेंडे होते हैं। अपने हित, इज्जत और दूसरे लोगों के मन में जो स्थान या प्रतिष्ठा वे रखते हैं, उनके लिए बहुत महत्व रखते हैं। वे केवल इन्हीं चीजों को सँजोते हैं। वे इन चीजों पर मजबूत पकड़ बनाए रखते हैं और इन्हें ही बस अपना जीवन मानते हैं। और परमेश्वर उन्हें कैसे देखता या उनसे कैसे पेश आता है, इसका महत्व उनके लिए गौण होता है; फिलहाल वे उसे नजरअंदाज कर देते हैं; फिलहाल वे केवल इस बात पर विचार करते हैं कि क्या वे समूह के मुखिया हैं, क्या दूसरे लोग उनकी प्रशंसा करते हैं और क्या उनकी बात में वजन है। उनकी पहली चिंता उस पद पर कब्जा जमाना है। जब वे किसी समूह में होते हैं, तो प्रायः सभी लोग इसी प्रकार की प्रतिष्ठा, इसी प्रकार के अवसर तलाशते हैं। अगर वे अत्यधिक प्रतिभाशाली होते हैं, तब तो शीर्षस्थ होना चाहते ही हैं, लेकिन अगर वे औसत क्षमता के भी होते हैं, तो भी वे समूह में उच्च पद पर कब्जा रखना चाहते हैं; और अगर वे औसत क्षमता और योग्यताओं के होने के कारण समूह में निम्न पद धारण करते हैं, तो भी वे यह चाहते हैं कि दूसरे उनका आदर करें, वे नहीं चाहते कि दूसरे उन्हें नीची निगाह से देखें। इन लोगों की इज्जत और गरिमा ही होती है, जहाँ वे सीमा-रेखा खींचते हैं : उन्हें इन चीजों को कसकर पकड़ना होता है। भले ही उनमें कोई सत्यनिष्ठा न हो, और न ही परमेश्वर की स्वीकृति या अनुमोदन हो, मगर वे उस आदर, हैसियत और सम्मान को बिल्कुल नहीं खो सकते जिसके लिए उन्होंने दूसरों के बीच कोशिश की है—जो शैतान का स्वभाव है। मगर लोग इसके प्रति जागरूक नहीं होते। उनका विश्वास है कि उन्हें इस इज्जत की रद्दी से अंत तक चिपके रहना चाहिए। वे नहीं जानते कि ये बेकार और सतही चीजें पूरी तरह से त्यागकर और एक तरफ रखकर ही वे असली इंसान बन पाएंगे। यदि कोई व्यक्ति जीवन समझकर इन त्यागे जाने योग्य चीजों को बचाता है तो उसका जीवन बर्बाद हो जाता है। वे नहीं जानते कि दाँव पर क्या लगा है। इसीलिए, जब वे कार्य करते हैं तो हमेशा कुछ छिपा लेते हैं, वे हमेशा अपनी इज्जत और हैसियत बचाने की कोशिश करते हैं, वे इन्हें पहले रखते हैं, वे केवल अपने झूठे बचाव के लिए, अपने उद्देश्यों के लिए बोलते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं, अपने लिए करते हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर उजागर करता है कि अपने जीवन से अधिक अपने सम्मान और रुतबे को सँजोना शैतानी स्वभाव प्रकट करता है। आत्म-चिंतन के जरिए मुझे एहसास हुआ कि इस्तीफा देने की मेरी इच्छा का कारण मुख्य रूप से अपने सम्मान और रुतबे को बचाना था और इसलिए कि मैं अपने रुतबे को लेकर बहुत अधिक चिंतित थी। जब काम अप्रभावी था और भाई-बहनों ने मेरे काम में भटकाव और समस्याओं की ओर इशारा किया, तो मुझे डर था कि वे कहेंगे कि मैं नकली अगुआ हूँ और यह कि मैं असली काम किए बिना पद पर बैठी हूँ। मैं नहीं चाहती थी कि दूसरे मुझे नीची नजर से देखें या कहें कि मैं अच्छी नहीं हूँ, इसलिए अपने सम्मान और रुतबे की रक्षा के लिए मैं पूरी तरह से पीछे हट जाना चाहती थी, ताकि भाई-बहन कम से कम यह तो देख पाएँ कि मुझमें अभी भी कुछ आत्म-जागरूकता है, ताकि मेरी गरिमा का अंतिम हिस्सा तो बचा रहे। वास्तव में मेरे कर्तव्यों में जो भटकाव और कमियाँ भाई-बहनों ने बताई थीं, वे सच थीं और वे कलीसिया के कार्य की रक्षा करने के साथ ही मेरी मदद कर रहे थे, लेकिन मैंने इसे सकारात्मक तरीके से स्वीकार नहीं किया। इसके बजाय मैंने यह अटकल लगाई कि उन्हें लगता है मेरी काबिलियत कम है और मुझमें कार्य क्षमताएँ नहीं हैं और मुझे इससे भी अधिक डर यह था कि वे कहेंगे कि मैं नकली अगुआ हूँ जो असली काम नहीं कर पाती और इसका मतलब यह होगा कि मैं फिर कभी अपना चेहरा नहीं दिखा पाऊँगी। इसलिए मैं सम्मान और रुतबा गँवाने के बजाय इस्तीफा देने को ज्यादा तैयार थी। हालाँकि मेरे काम के खराब नतीजे मेरी कार्य क्षमताओं की कमी से जुड़े थे, लेकिन यह मेरे इस्तीफे की इच्छा का मुख्य कारण नहीं था। मुख्य कारण यह था कि मैंने देखा कि मैंने अपना काम ठीक से नहीं किया है और भाई-बहनों के सामने मेरी छवि खराब खो गई है, इसलिए मैंने दूसरों के दिलों में अपनी छवि और रुतबा गँवाने के बजाय अपने कर्तव्य और जिम्मेदारियाँ छोड़ना बेहतर समझा। मुझे एहसास हुआ कि मैं अपने कर्तव्यों और सत्य से अधिक अपनी प्रतिष्ठा को महत्व देती हूँ और अगर मैं अपनी इस दशा को नहीं बदलती तो मुझे कुछ भी हासिल नहीं होगा!

बाद में मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “तुम परमेश्वर के आदेशों को कैसे लेते हो, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है, और यह एक बहुत ही गंभीर मामला है। परमेश्वर ने जो लोगों को सौंपा है, यदि तुम उसे पूरा नहीं कर सकते, तो तुम उसकी उपस्थिति में जीने के योग्य नहीं हो और तुम्हें दंडित किया जाना चाहिए। यह पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है कि मनुष्यों को परमेश्वर द्वारा दिए जाने वाले सभी आदेश पूरे करने चाहिए। यह मनुष्य का सर्वोच्च दायित्व है, और उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उनका जीवन है। यदि तुम परमेश्वर के आदेशों को गंभीरता से नहीं लेते, तो तुम उसके साथ सबसे कष्टदायक तरीके से विश्वासघात कर रहे हो। इसमें, तुम यहूदा से भी अधिक शोचनीय हो और तुम्हें शाप दिया जाना चाहिए। परमेश्वर के सौंपे हुए कार्य को कैसे लिया जाए, लोगों को इसकी पूरी समझ हासिल करनी चाहिए, और उन्हें कम से कम यह समझना चाहिए कि वह मानवजाति को जो आदेश देता है, वे परमेश्वर से मिले उत्कर्ष और विशेष कृपाएँ हैं, और वे सबसे शानदार चीजें हैं। अन्य सब-कुछ छोड़ा जा सकता है। यहाँ तक कि अगर किसी को अपना जीवन भी बलिदान करना पड़े, तो भी उसे परमेश्वर का आदेश पूरा करना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। मैंने बार-बार परमेश्वर के वचनों पर विचार किया। इन वचनों में न्याय निहित था और मैंने व्यथित और अपराध-बोध महसूस किया। अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को बचाने की खातिर मैंने जिम्मेदारी स्वीकार की और इस्तीफा दे दिया और मैंने यह भी सोचा कि मैं आत्म-जागरूक हो रही हूँ, लेकिन परमेश्वर की नजर में इसकी प्रकृति विश्वासघात की थी। कलीसिया ने मुझे अगुआ बनने का अवसर मुझसे कलीसिया के कार्य की रक्षा कराने के लिए दिया था और साथ ही मुझसे सत्य के विभिन्न पहलुओं में प्रवेश का अभ्यास कराने के लिए दिया था। यह परमेश्वर द्वारा मुझे ऊपर उठाना था और यह भी एक बोझ था जो उसने मुझ पर डाला था। अगर मुझमें जरा भी मानवता और विवेक होता और परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता तो मैंने इस्तीफा देना और परमेश्वर को धोखा देना न चाहा होता और काम चाहे कितना ही कठिन था, मैं बस प्रार्थना करती और परमेश्वर पर भरोसा करती, अपनी क्षमताओं के दायरे में अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने की भरसक कोशिश करती और कम से कम मैं कलीसिया के कार्य को प्रभावित न होने देती। लेकिन जब मुझे अपने कर्तव्यों में कठिनाइयाँ आईं और काम प्रभावित हो गया तो मैं न केवल कलीसिया के कार्य की रक्षा करने में विफल रही, बल्कि पीछे हट गई। मैं अच्छी तरह से जानती थी कि वू फैन अभी-अभी अगुआ बनी थी और काम से अपरिचित थी और कलीसिया के कार्य में अभी भी कई अनसुलझे मुद्दे थे, फिर भी मैंने इस्तीफा देने का फैसला किया, मैंने देखा कि मेरी अंतरात्मा ने अपना काम करना बंद कर दिया था। यह महसूस करते हुए मैंने पश्चात्ताप में परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं अब अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार नहीं जीना चाहती। चाहे मुझे अपने कर्तव्यों में कितनी भी कठिनाइयों का सामना करना पड़े, मैं अब इस्तीफा नहीं देना चाहूँगी और जब तक मैं अभी भी यह कर्तव्य निभाने में सक्षम हूँ, मैं इसे अच्छी तरह से करने के लिए तुम पर भरोसा करने को तैयार हूँ।”

उसके बाद मैं अपनी कमियों के आधार पर समाधान खोजने लगी। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “अगुआ होने के नाते कार्य को व्यवस्थित कर लेने के बाद तुम्हें कार्य की प्रगति की खोज-खबर लेनी चाहिए। अगर तुम उस कार्यक्षेत्र से परिचित नहीं हो—यदि तुम्हें इसके बारे में कोई ज्ञान न हो—तब भी तुम अपना काम करने का तरीका खोज सकते हो। तुम जाँच करने और सुझाव देने के लिए किसी ऐसे व्यक्ति को खोज सकते हो, जो इस पर सच्ची पकड़ रखता हो, जो संबंधित पेशे को समझता हो। उसके सुझावों से तुम उपयुक्त सिद्धांत पता लगा सकते हो, और इस तरह तुम काम की खोज-खबर लेने में सक्षम हो सकते हो। चाहे तुम संबंधित पेशे से परिचित हो या नहीं हो या उस काम को समझते हो या नहीं, उसकी प्रगति से अवगत रहने के लिए तुम्हें कम-से-कम उसकी निगरानी तो करनी ही चाहिए, खोज-खबर लेनी चाहिए, उसकी प्रगति के बारे में लगातार पूछताछ करते हुए उसके बारे में सवाल करने चाहिए। तुम्हें ऐसे मामलों पर पकड़ बनाए रखनी चाहिए; यह तुम्हारी जिम्मेदारी है, यह तुम्हारे काम का हिस्सा है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (4))। परमेश्वर ने अभ्यास के एक बहुत ही विशिष्ट मार्ग पर संगति की है कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं को असली कार्य कैसे करना चाहिए। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कार्य में असल में भाग लेने की जरूरत है, उन कारणों पर गौर करने की जरूरत है कि भाई-बहनों का कार्य अप्रभावी क्यों है, समाधान खोजने के लिए चर्चाओं में भाग लेने की जरूरत है और बस कार्य को क्रियान्वित करने या बस उन मसलों पर सरल संगति प्रदान करने की जरूरत नहीं है जिन्हें वे पूरा हुआ देखते और मान लेते हैं। उन्हें इन मसलों के पीछे के कारणों को पहचानने और उनकी खोज-खबर रखने की भी जरूरत है। यदि यह भाई-बहनों की दशा से जुड़ा मसला है तो उन्हें इसे हल करने के लिए असल में सत्य पर संगति करनी होगी और अगर यह कौशल से जुड़ा मसला है तो उन्हें समाधान खोजने के लिए भाई-बहनों के साथ मिलकर सारांश तैयार करने और सीखने की जरूरत है। पहले मुझे लगता था कि मैं पेशेवर कौशल से जुड़े कार्य नहीं समझती और भाई-बहनों की दशा को हल करने के लिए संगति करना ही काफी है, लेकिन अब मुझे एहसास हुआ कि यह भटकाव था, क्योंकि केवल दशाओं पर संगति करने से असली समस्याओं का समाधान नहीं होता और कार्य से अभी भी कोई नतीजे नहीं मिलेंगे। इसके लिए यह जरूरत पड़ती है कि अगुआ और कार्यकर्ता सत्य खोजने के लिए भाई-बहनों के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से काम करें और प्रासंगिक सिद्धांत खोजें ताकि उन पर संगति कर सकें और उनमें मिलकर प्रवेश कर सकें। जब मैं ये चीजें समझ गई तो मेरी दशा सुधर गई। अगले कुछ दिनों तक ऊपरी अगुआ ने भी संगति की और मेरी मदद की और अंत में कलीसिया मेरे इस्तीफे पर सहमत नहीं हुई। जब मैंने देखा कि कैसे मैं इतनी विद्रोही थी और फिर भी परमेश्वर के घर ने मुझे एक अवसर दे दिया था तो मैंने परमेश्वर के प्रति गहराई से ऋण की भावना महसूस की और मैं अपने कर्तव्यों के प्रति अपना पिछला रवैया बदलने और ठीक से काम शुरू करने के लिए तैयार थी। तब से जब भी काम में मसले सामने आते तो मैं भाई-बहनों के साथ चर्चा और संवाद करती थी और अगर यह कौशल का मुद्दा होता तो मैं भाई-बहनों से सलाह लेती और सुझाव माँगती और मैं अपने कर्तव्यों में कठिनाइयों के बारे में जानने के लिए वाकई सिद्धांत और प्रासंगिक पेशेवर ज्ञान भी खोजती थी। कुछ समय बाद भाई-बहनों को उनके कर्तव्यों में मिलने वाले नतीजे कुछ हद तक सुधर गए।

बाद में भाई-बहनों के साथ संगति करके मुझे इस्तीफा देने की मेरी इच्छा के कारणों की कुछ अधिक गहरी समझ मिली। मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “किसी भी व्यक्ति को स्वयं को पूर्ण, प्रतिष्ठित, कुलीन या दूसरों से भिन्न नहीं समझना चाहिए; यह सब मनुष्य के अभिमानी स्वभाव और अज्ञानता से उत्पन्न होता है। हमेशा अपने आप को दूसरों से अलग समझना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी भी अपनी कमियाँ स्वीकार न कर पाना और कभी भी अपनी भूलों और असफलताओं का सामना न कर पाना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। “अहंकारी और आत्मतुष्ट लोग अक्सर ऐसे ही होते हैं। परमेश्वर कहता है कि समाधान के लिये अधीर मत हो, वह कहता है कि सत्य खोजो और सिद्धांतों के साथ कार्य करो, लेकिन अहंकारी और आत्मतुष्ट लोग परमेश्वर की इन अपेक्षाओं पर ध्यानपूर्वक विचार नहीं करते। इसके बजाय, वे चीजों को ताकत और ऊर्जा के विस्फोट के साथ पूरा करने, चीजों को साफ-सुथरे और सुंदर तरीके से करने और पलक झपकते ही बाकी सबसे आगे निकलने की कोशिश करने पर जोर देते हैं। वे अतिमानव बनना चाहते हैं और साधारण इंसान बनने से इनकार करते हैं। क्या यह प्रकृति के उन नियमों के विरुद्ध नहीं है जो परमेश्वर ने मनुष्य के लिए बनाए हैं? (बिल्कुल।) जाहिर है, वे सामान्य लोग नहीं हैं। उनमें सामान्य मानवता का अभाव है और वे बहुत अहंकारी हैं। वे उन अपेक्षाओं की उपेक्षा करते हैं, जो सामान्य मानवता के दायरे में आती हैं और जिन्हें परमेश्वर ने मानवजाति के लिए सामने रखा है। वे उन मानकों की उपेक्षा करते हैं जिन्हें सामान्य मानवता वाले लोग प्राप्त कर सकते हैं और जिन्हें परमेश्वर ने मानवजाति के लिए निर्धारित किया है। इसलिए वे परमेश्वर की अपेक्षाओं का तिरस्कार कर सोचते हैं, ‘परमेश्वर की अपेक्षाएँ बहुत कम हैं। परमेश्वर के विश्वासी सामान्य लोग कैसे हो सकते हैं? वे असाधारण लोग होने चाहिए, ऐसे व्यक्ति जो आम लोगों से श्रेष्ठ होते हैं और उनसे आगे निकल जाते हैं। वे महान और प्रसिद्ध व्यक्ति होने चाहिए।’ वे यह सोचते हुए परमेश्वर के वचनों की उपेक्षा करते हैं कि भले ही परमेश्वर के वचन सही और सत्य हैं, फिर भी वे बहुत सामान्य और साधारण हैं, इसलिए वे उसके वचनों को नजरअंदाज कर उन्हें तुच्छ समझते हैं। लेकिन ठीक इन्हीं सामान्य और साधारण वचनों में, जो उन तथाकथित महामानवों और महान हस्तियों द्वारा इतने तिरस्कृत हैं, परमेश्वर वे सिद्धांत और मार्ग इंगित करता है, जिनका लोगों को पालन और अभ्यास करना चाहिए। परमेश्वर के वचन बहुत ईमानदार, वस्तुनिष्ठ और व्यावहारिक हैं। वे लोगों से ऊँची माँग बिल्कुल नहीं करते। वे सब वे चीजें हैं, जिन्हें लोग हासिल कर सकते हैं और जो उन्हें हासिल करनी चाहिए। अगर लोगों में थोड़ा-सा भी सामान्य विवेक है तो उन्हें हवा में उड़ने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, इसके बजाय उन्हें अपने पैर जमीन पर मजबूती से टिकाकर परमेश्वर के वचनों और सत्य को स्वीकारना चाहिए, अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने चाहिए, परमेश्वर के सामने जीना चाहिए और सत्य को अपने आचरण और कार्यों का सिद्धांत मानना चाहिए। उन्हें अति महत्वाकांक्षी नहीं होना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि इस्तीफा देने की मेरी इच्छा मेरे अहंकारी स्वभाव के कारण थी। मैंने खुद को एक साधारण व्यक्ति की स्थिति में नहीं रखा और खुद को बहुत अधिक महत्व दिया। मुझे लगता था कि भाई-बहनों का मुझे अगुआ चुनना यह दर्शाता है कि हर कोई मुझे सकारात्मक रूप से देखता है। इसलिए मैं खुद को सक्षम साबित करने के लिए अपने कर्तव्य अच्छी तरह से करना चाहती थी और अपने भाई-बहनों की प्रशंसा पाना चाहती थी। हालाँकि जब मैं इसे हासिल करने में असमर्थ रही तो मैं अपनी कमियों और कमजोरियों का सीधे सामना नहीं कर पाई और मैं अपनी नाकामियों का सही तरीके से सामना करने में और भी कम सक्षम थी। जब मैं पहली बार अगुआ बनी तो मैं अपने काम में उत्कृष्टता हासिल करना चाहती थी ताकि मैं दूसरों से अपनी सराहना करवा सकूँ, लेकिन कुछ समय बाद भी मैं सिद्धांतों पर पूरी तरह से पकड़ नहीं बना पाई और मेरे काम में समस्याएँ आती रहीं। इसलिए मैं पूरी तरह से नाकाफी महसूस करती थी। खासकर झोऊ युन को दूसरा काम सौंपे जाने के बाद मैंने देखा कि बहुत सारा काम करने के बावजूद मेरा काम अभी भी मसलों और भटकावों से भरा हुआ था। न केवल भाई-बहनों ने मेरे काम को नहीं पहचाना, बल्कि अगुआओं ने भी मेरे काम में भटकावों और समस्याओं की ओर इशारा किया। मुझे लगा कि मेरे पास कार्य क्षमताओं और काबिलियत की कमी है, इसलिए मैंने हार मान ली और इस्तीफा देने की कोशिश की। मैंने देखा कि मैंने खुद को बहुत ऊँचा मान लिया था, सोचती थी कि एक अगुआ के रूप में मैं अपने कर्तव्यों में विफलताओं या भटकावों को बरदाश्त नहीं कर सकती, अन्यथा मैं अपनी अगुआई के कर्तव्य नहीं निभा पाऊँगी, जिसका अर्थ होगा कि मैं परेशानी खड़ी कर रही हूँ और मुझमें विवेक की कमी है। एक सामान्य व्यक्ति में अनिवार्य रूप से कमियाँ और ऐसी चीजें होती हैं जिन्हें वह अपने कर्तव्यों में हासिल नहीं कर पाता और यह परमेश्वर की नजर में पूरी तरह से सामान्य बात है, क्योंकि मनुष्य केवल साधारण लोग होते हैं और वे परमेश्वर द्वारा स्थापित सामान्य मानवता का दायरा पार नहीं कर सकते। इससे पहले मैंने केवल एकल-कार्य वाला काम किया था और कलीसिया के समग्र कार्य में शामिल नहीं हुई थी और साथ में अपनी औसत काबिलियत के चलते मैं विभिन्न कलीसियाई कार्यों के सिद्धांतों में प्रवेश करने में धीमी थी। इसका मतलब यह कि मेरे कर्तव्यों में भटकाव और दोष पैदा होना सामान्य था। जब भाई-बहनों ने इन बातों की ओर इशारा किया तो यही वह समय था जब मुझे सिद्धांतों में प्रवेश करना चाहिए था, लेकिन मैं इससे सही तरीके से नहीं निपट पाई और जब भी मेरे काम में समस्याएँ या भटकाव पैदा हुए तो मैंने उन्हें अपनी कार्य क्षमताओं के नकार के रूप में देखा। इन व्यवहारों पर आत्म-चिंतन करके मुझे एहसास हुआ कि मैं वास्तव में बहुत घमंडी और अज्ञानी थी और मैंने खुद को बहुत ऊँचा मान लिया था। मेरा सबसे घातक दोष यह था कि मैं बहुत घमंडी थी, लेकिन मैं खुद को नहीं जानती थी। भाई-बहनों ने मुझे मार्गदर्शन दिया, लेकिन मैंने इसे स्वीकार नहीं किया और मैंने खुद को एक साधारण व्यक्ति के रूप में बिल्कुल भी नहीं देखा। मैंने देखा कि मेरे पास विवेक की पूरी तरह से कमी थी।

कुछ समय बाद जिस वीडियो कार्य के लिए मैं जिम्मेदार थी, उसके नतीजे बहुत अच्छे नहीं निकले और ऊपरी अगुआ ने कुछ मुद्दों की ओर इशारा किया। जब मैंने काम में उजागर हुई समस्याएँ देखीं तो मैंने मन ही मन सोचा, “अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेगी? वह निश्चित रूप से कहेगी कि मैं सिद्धांतों के अनुसार काम की देखरेख करने में सक्षम नहीं थी और मैंने असली कार्य नहीं किया।” लेकिन मैं बहुत बेबस महसूस नहीं कर रही थी, क्योंकि मैं समझ गई थी कि अगुआ द्वारा मेरे कर्तव्यों में कमियों और कमजोरियों को इंगित करना मेरे लिए कर्तव्य अच्छी तरह से करने में मदद करना था, इसलिए मैं इन चीजों से सही तरीके से निपटने में सक्षम थी। इसके बाद मैंने और भाई-बहनों ने अगुआ के उठाए मुद्दों के बारे में एक साथ प्रासंगिक तकनीकी ज्ञान का अध्ययन किया और फिर हमने वीडियो में आ रही समस्याओं का असल में विश्लेषण किया और सारांश तैयार किया। इस तरह के असली सहयोग ने कार्य में कुछ मुद्दों और भटकाव को सुधारने में मदद की और भाई-बहनों को अपने कर्तव्यों में कुछ दिशा मिली। इस अनुभव के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि कठिनाइयों से बचना समस्याएँ हल करने का तरीका नहीं है, सत्य खोजना और सिद्धांतों पर पकड़ बनाना सीखना महत्वपूर्ण है और सिर्फ सिद्धांतों के अनुसार कर्तव्य निभाने से ही कार्य में नतीजे मिल सकते हैं। अब मैं कहीं अधिक राहत महसूस करती हूँ और मैं परमेश्वर को उसके मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद देती हूँ!

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