26. अपना कर्तव्य बदले जाने के प्रति मैं समर्पण क्यों नहीं कर सका?

वांग युआन, चीन

परमेश्वर को पाने के कुछ समय बाद ही मैं कलीसिया में वीडियो बनाने लगा था। बाद में मैं पाठ-आधारित कर्तव्य कर रहा था और मैं उच्च अगुआओं के संपर्क में था। मुझे विश्वास था कि ये कर्तव्य निभाने से मुझे और अधिक सत्य समझने में और बचाए जाने की अपनी उम्मीदें बढ़ाने में मदद मिलेगी। जब भी मैं सामान्य मामलों के काम में लगे भाई-बहनों से बातचीत करता, मैं देखता कि वे हर दिन बाहरी मामलों में व्यस्त रहते हैं। मुझे लगता कि वे बस उत्साही हैं और उनमें से ज्यादातर सत्य सिद्धांत नहीं समझते या उनके पास कोई जीवन प्रवेश नहीं है। इससे मुझे और भी यकीन हो गया कि अगुआओं व कार्यकर्ताओं और पाठ-आधारित कर्तव्य करने वालों के उद्धार की संभावना अधिक है और मैं वाकई भाग्यशाली हूँ कि मैं पाठ-आधारित कर्तव्य निभाते रह सकता हूँ।

अप्रैल 2023 में मेरा काम बदल दिया गया क्योंकि मुझे अपने पाठ-आधारित कर्तव्य में कोई नतीजा नहीं मिल रहा था। उसके बाद मैंने कलीसिया में सफाई कार्य किया। एक दिन एक अगुआ ने लिखा, “हमें तत्काल ऐसे लोगों की जरूरत है जो नेटवर्क तकनीक समझते हों। तुम इसमें अच्छे हो, इसलिए हम तुम्हें यह कर्तव्य सौंपने की योजना बना रहे हैं।” इस पत्र को पढ़ने के बाद मेरा दिल बेचैन हो गया और प्रतिरोध से भर गया : “क्या तुम जानते भी हो कि चीजों की व्यवस्था कैसे की जाती है? मैंने बहुत साल तक पाठ-आधारित कर्तव्य निभाया है और भेद पहचानने के कुछ सिद्धांत समझ लिए हैं। तुम मेरी खूबियों के आधार पर मेरे लिए कर्तव्यों की व्यवस्था क्यों नहीं करते?” अगले कुछ दिनों में नेटवर्क तकनीक से संबंधित कर्तव्य करने के विचार ने ही मुझे परेशान कर दिया। “यह कर्तव्य करने का मतलब है हर दिन अलग-अलग तरह के सॉफ्टवेयर से जूझना और मेहनत करना और चूँकि इस कर्तव्य में लोगों और चीजों के साथ कम संपर्क होगा, इसलिए मुझे कम सत्य हासिल होंगे और चाहे मैं कितना भी अच्छा करूँ, मैं सिर्फ एक मजदूर ही रहूँगा और आखिरकार मुझे निकाल दिया जाएगा। जबकि अगुआई और पाठ-आधारित कर्तव्यों में मैं हर दिन परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों से जुड़ पाऊँगा और जितना अधिक मैं प्रशिक्षण लूँगा, उतने ही अधिक सत्य सिद्धांत समझूँगा, मेरा जीवन तेजी से आगे बढ़ेगा और इसलिए उद्धार की मेरी आशा अधिक होगी।” लेकिन अंत में तर्कसंगतता के आधार पर मैंने अनिच्छा से इस कर्तव्य को स्वीकार कर लिया।

शुरुआत में भाई झाओ लेई ने मुझे यह तकनीक सिखाई। मुझे पढ़ाई के दौरान बहुत सारे ट्यूटोरियल सॉफ्टवेयर मिले, मुझे इनका इस्तेमाल करना नहीं आता था और मैं पहले सीखी गई अधिकांश बुनियादी चीजें भूल चुका था। लेकिन मैं शोध में प्रयास नहीं करना चाहता था और मुझे लगा, “अगर मैं सीखने में अपना दिल लगाता हूँ, वाकई जल्दी ही इस तकनीक में महारत हासिल कर लेता हूँ और अगुआ देखते हैं कि मैं अच्छी तरह से सीख रहा हूँ तो क्या वे मुझे इस कर्तव्य में लंबे समय तक नहीं लगा देंगे?” इस बात को ध्यान में रखते हुए मैंने अपनी पढ़ाई में कम मेहनत की और झाओ लेई द्वारा दिए गए अच्छे तकनीकी ट्यूटोरियल देखने की कोई प्रेरणा भी मुझमें नहीं रही। कुछ ही दिनों की पढ़ाई के बाद मेजबान घर के जोखिम में पड़ने के कारण हमें प्रशिक्षण रोकना पड़ा। मैं खुद को भाग्यशाली मान रहा था, क्योंकि इसका मतलब था कि मुझे यह कर्तव्य नहीं करना पड़ेगा। जब मैंने अगुआ को बताया कि मेरी पढ़ाई कैसी चल रही है तो मैंने अपने सीखे हुए कौशलों की संख्या जानबूझकर कम बताई, उम्मीद जताई कि इस तरह से अगुआ देखेगा कि मैं अपनी पढ़ाई से बहुत कुछ हासिल नहीं कर पा रहा हूँ, सोचेगा कि मैं इसमें अच्छा नहीं हूँ और मेरे लिए दूसरे कर्तव्य की व्यवस्था करेगा। अप्रत्याशित रूप से कुछ दिनों बाद अगुआ ने मुझसे कहा, “इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की मरम्मत करने वाला भाई अपना कर्तव्य करने के लिए कहीं और जा रहा है, और हमें इस काम को सँभालने के लिए तत्काल किसी की जरूरत है। चूँकि तुम नेटवर्क तकनीक में महारत हासिल नहीं कर पाए, इसलिए तुम्हें कंप्यूटर की मरम्मत करना सीखना चाहिए। देखते हैं कि क्या तुम यह करना सीख सकते हाे।” जब मैंने यह सुना तो मैं यह सोचकर दंग रह गया, “चीजें इस तरह कैसे हो सकती हैं? मरम्मत का अध्ययन करना नेटवर्क तकनीक का अध्ययन करने से भी बदतर है! मैं बस एक गैर-विश्वासी की तरह शारीरिक श्रम करता रहूँगा! ऐसा करने से मैं कौन सा सत्य हासिल कर सकता हूँ? मैंने एक भाई के बारे में सुना है जिसने आठ साल तक भाई-बहनों के लिए इलेक्ट्रॉनिक्स की मरम्मत की। अगर मैं यह करने में सक्षम हो गया तो क्या मैं उस भाई की तरह इस कर्तव्य में फँस जाऊँगा?” उस पल मैं पूरी तरह से निराश हो गया, सोचने लगा, “क्या ऐसा हो सकता है कि मैं सिर्फ सामान्य मामलों के काम करने, सिर्फ श्रम करने की जिंदगी जीने के लिए अभिशप्त हूँ? जबकि परमेश्वर का काम अपने अंत के करीब है, क्या मेरे लिए अभी भी उद्धार की कोई उम्मीद है?” जितना मैंने इसके बारे में सोचा, उतना ही मैं व्यथित हो गया। अगले कुछ दिनों में मेरी भूख भी मर गई और मेरे दिन उदासी में बीतते थे। भाई-बहनों ने मेरी मनोदशा देखी और इस स्थिति के प्रति समर्पण कराने के लिए मेरे साथ संगति की। लेकिन मैं बहुत प्रतिरोधी हो गया, सोचने लगा, “तुम जो कह रहे हो वह सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन अगर मैं सबक सीखता हूँ और समर्पण करता हूँ तो मैं इस कर्तव्य में फँस जाऊँगा। अगर ऐसा हुआ तो क्या मैं सिर्फ एक मजदूर नहीं रह जाऊँगा? फिर मुझे कैसे बचाया जा सकता है?” बाद में अपनी हताशा में डूबे हुए मैं मरम्मत की तकनीकें सीखने लगा, लेकिन मुझमें कोई उत्साह नहीं था। मैंने सोचा कि इतने साल की अपनी आस्था में अपने कर्तव्य पूरी लगन से निभाने के बाद आखिरकार मैं बस एक मजदूर बन गया हूँ। मेरी यह सोचने की हिम्मत भी नहीं हुई कि मेरा परिणाम क्या होगा। अगले कुछ दिनों में मैंने पाया कि मैं अभी भी अपने कर्तव्य के लिए कोई उत्साह नहीं जुटा पा रहा हूँ। मुझे लगा कि जिस मनोदशा में मैं अपना कर्तव्य कर रहा हूँ वह सही नहीं है और मेरी अंतरात्मा अपराध बोध से भर गई, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं समर्पण नहीं कर सकता और मैं वाकई नकारात्मक महसूस करता हूँ। मुझे लगातार यह एहसास होता है कि अगर मैं यह कर्तव्य करता हूँ तो मेरा कोई अच्छा भविष्य या गंतव्य नहीं होगा। परमेश्वर, मैं जानता हूँ कि मेरी मनोदशा सही नहीं है। मुझे प्रबोधन और मार्गदर्शन दो ताकि मैं तुम्हारा इरादा समझ लूँ, इस स्थिति के प्रति समर्पण कर सकूँ और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकूँ।” प्रार्थना करने के बाद मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “अभी से गंभीरता से इसका अनुसरण करना शुरू करो—लेकिन तुम्‍हें इसका अनुसरण कैसे करना चाहिए? तुम्हें उन मामलों पर विचार करने की जरूरत है जिनमें तुम अक्सर परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करते हो। परमेश्वर ने तुम्‍हें सबक सिखाने के लिए बार-बार तुम्‍हारे लिए परिस्थितियाँ तैयार की हैं, ताकि इन मामलों के माध्यम से तुम बदल सको, उसके वचन तुममें कार्यरत हों, और तुम सत्य वास्तविकता के किसी पहलू में प्रवेश कर सको, उन मामलों में तुम शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीना बंद करके परमेश्वर के शब्दों के अनुसार जिओ, और उसके वचन तुममें गढ़ दिए जाएँ और वे तुम्‍हारा जीवन बन जाएँ। लेकिन तुम अक्सर इन मामलों में परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करते हो, न तो उसके प्रति समर्पण करते हो और न ही सत्य स्वीकार करते हो, न ही उसके वचनों को ऐसे सिद्धांतों के रूप में लेते हो जिनका तुम्‍हें पालन करना चाहिए, और न ही उसके वचनों को जीते हो। इससे परमेश्वर को ठेस पहुँचती है और तुम बार-बार उद्धार का अवसर खो देते हो। तो तुम्‍हें स्‍वयं को कैसे बदलना चाहिए? आज से ही, ऐसे मामलों में जिनकी तुम आत्‍मचिंतन के जरिये पहचान कर सकते हो और स्‍पष्‍ट रूप से समझ सकते हो, तुम्‍हें परमेश्वर के आयोजन के प्रति समर्पण करना चाहिए, उसके वचनों को सत्य वास्तविकता के रूप में स्वीकार करना चाहिए, उसके वचनों को जीवन के रूप में स्वीकार करना चाहिए, और अपने जीने के तरीके को बदलना चाहिए। इस तरह की स्‍थ‍ितियों का सामना करने पर तुम्‍हें अपनी देह की इच्छाओं और प्राथमिकताओं से विद्रोह करना चाहिए और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। क्या यह अभ्यास का मार्ग नहीं है? (हाँ है।)” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (20))। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मैं समझ गया कि इस दौरान जब मुझे दूसरे काम सौंपे जाते रहे तो मैं समर्पण करने के लिए जितना कम तैयार रहता था, मुझे सौंपे गए दूसरे काम उतने ही ज्यादा मेरी इच्छाओं के अनुरूप नहीं होते थे। यह पता चला कि इसके पीछे परमेश्वर का इरादा था, जो मुझे आत्म-चिंतन करने और सत्य खोजने के लिए सक्रिय होकर परमेश्वर के सामने आने को प्रेरित करना था। लेकिन मैंने परमेश्वर को गलत समझा और मैंने परमेश्वर द्वारा मुझे सत्य पाने के लिए पूर्ण बनाने की खातिर दिए गए इस अवसर को इस रूप में लिया कि परमेश्वर मुझे बेनकाब और हटाना चाहता है। मेरे विचार वाकई परमेश्वर को चोट पहुँचाने वाले थे! मुझे सबसे पहले समर्पण करने की जरूरत थी, अपने कर्तव्य के दौरान दूसरे काम सौंपे जाने के इन उदाहरणों में मैंने जो भ्रष्टता प्रकट की थी, उस पर चिंतन करना था और इसके समाधान के लिए सत्य खोजने पर ध्यान केंद्रित करना था।

अगले कुछ दिनों तक मैं खुद से पूछता रहा, “मैं अपने कर्तव्य के दौरान दूसरे काम सौंपे जाने के प्रति समर्पण क्यों नहीं कर सका? मैं हमेशा सोचता था कि जो लोग अगुआई और पाठ-आधारित कर्तव्य करते हैं, उन्हें बचाया जा सकता है, जबकि सामान्य मामलों के काम करने वालों को नहीं। क्या मेरा दृष्टिकोण सत्य के अनुरूप है?” अपनी खोज में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “कई लोग स्पष्ट रूप से नहीं जानते कि बचाए जाने का क्या अर्थ होता है। कुछ लोगों का मानना है कि अगर उन्होंने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास किया है, तो उनके बचाए जाने की संभावना है। कुछ लोग सोचते हैं कि अगर वे बहुत सारे आध्यात्मिक सिद्धांत समझते हैं, तो उनके बचाए जाने की संभावना है या कुछ लोग सोचते हैं कि अगुआ और कार्यकर्ता निश्चित रूप से बचाए जाएँगे। ये सभी मनुष्य की धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि लोगों को समझना चाहिए कि उद्धार का क्या अर्थ होता है। मुख्य रूप से बचाए जाने का अर्थ है पाप से मुक्त होना, शैतान के प्रभाव से मुक्त होना, सही मायने में परमेश्वर की ओर मुड़ना और परमेश्वर के प्रति समर्पण करना। पाप से और शैतान के प्रभाव से मुक्त होने के लिए तुम्हारे पास क्या होना चाहिए? सत्य होना चाहिए। अगर लोग सत्य प्राप्त करने की आशा रखते हैं, तो उन्हें परमेश्वर के कई वचनों से युक्त होना चाहिए, उन्हें उनका अनुभव और अभ्यास करने में सक्षम होना चाहिए, ताकि वे सत्य को समझकर वास्तविकता में प्रवेश कर सकें। तभी उन्हें बचाया जा सकता है। किसी को बचाया जा सकता है या नहीं, इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं कि उसने कितने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास किया है, उसके पास कितना ज्ञान है, उसमें गुण या खूबियाँ हैं या नहीं या वह कितना कष्ट सहता है। एकमात्र चीज जिसका उद्धार से सीधा संबंध है, यह है कि व्यक्ति सत्य प्राप्त कर सकता है या नहीं। तो आज तुमने वास्तव में कितने सत्य समझे हैं? और परमेश्वर के कितने वचन तुम्हारा जीवन बन गए हैं? परमेश्वर की समस्त अपेक्षाओं में से तुमने किसमें प्रवेश किया है? परमेश्वर में अपने विश्वास के वर्षों के दौरान तुमने परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में कितना प्रवेश किया है? अगर तुम नहीं जानते या तुमने परमेश्वर के किसी भी वचन की किसी वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, तो स्पष्ट रूप से तुम्हारे उद्धार की कोई आशा नहीं है। तुम्हें बचाया नहीं जा सकता। यह कुछ महत्व नहीं रखता कि तुम्हारे पास उच्च स्तर का ज्ञान है या नहीं या तुमने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास किया है या नहीं, तुम्हारा रूप-रंग अच्छा है या नहीं, तुम अच्छा बोल सकते हो या नहीं और तुम कई वर्षों तक अगुआ या कार्यकर्ता रहे हो या नहीं। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते और परमेश्वर के वचनों का ठीक से अभ्यास और अनुभव नहीं करते और तुममें वास्तविक अनुभवजन्य गवाही की कमी है, तो तुम्हारे बचाए जाने की कोई आशा नहीं है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मैं समझ गया कि इससे फर्क नहीं पड़ता कि व्यक्ति क्या कर्तव्य निभाता है, अगर अपने कर्तव्य निभाते समय उसके पास समर्पण वाला हृदय है, चीजें घटित होने पर वह भ्रष्ट स्वभाव और भ्रामक विचार सुलझाने के लिए सत्य खोजने पर ध्यान केंद्रित करता है, अपने कर्तव्य में सत्य सिद्धांतों पर भरोसा करने के लिए अपनी देह को त्यागने में सक्षम होता है और अब परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह या प्रतिरोध नहीं करता है, तब ऐसा व्यक्ति उद्धार प्राप्त करेगा। किसी को बचाया जा सकता है या नहीं, इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि वह कितने धर्म-सिद्धांत बोल सकता है या वह क्या कर्तव्य करता है। मैं सोचता था कि एक अगुआ होने और पाठ-आधारित कर्तव्य करने का मतलब है हर दिन परमेश्वर के वचनों के संपर्क में रहना, अपने भाई-बहनों की विभिन्न मनोदशाओं और समस्याओं को सुलझाने के तरीके पर विचार करना और हर दिन जीवन प्रवेश से संबंधित विषयों पर संगति करना और इस तरह मैं अधिक सत्य प्राप्त करूँगा, जीवन में अधिक तेजी से आगे बढ़ूँगा और उद्धार की अधिक आशा रखूँगा। मैंने सोचा कि सामान्य मामलों का कर्तव्य निभाना सिर्फ शारीरिक श्रम का मामला है और इससे कोई जीवन प्रवेश नहीं होता और ऐसा करने से मैं आखिरकार सिर्फ एक मजदूर बन जाऊँगा। इसलिए इसने मुझे नकारात्मकता और प्रतिरोध की मनोदशा में जीने के लिए धकेल दिया और इस कर्तव्य को करने के लिए अनिच्छुक बना दिया। मेरे विचार गलत थे और परमेश्वर के वचनों के अनुरूप नहीं थे। कलीसिया से निकाले गए मसीह-विरोधियों के बारे में सोचते हुए मैंने देखा कि उनमें से ज्यादातर ने अगुआओं और कार्यकर्ताओं का कर्तव्य निभाया था और बहुत सारे धर्म-सिद्धांतों के बारे में बोलने में सक्षम थे और दूसरों के साथ संगति करने में अच्छे थे, लेकिन उन्होंने अपने भ्रष्ट स्वभाव को सुलझाने के लिए कभी सत्य की खोज नहीं की। अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में बरसों अपने कर्तव्य निभाने के बाद भी उनके जीवन स्वभाव में कभी बदलाव नहीं आया। उनमें से कुछ लगातार रुतबे के पीछे भागते थे, असंतुष्टों को बहिष्कृत करते थे और भाई-बहनों को दबाते थे, इस चक्कर में कलीसिया के कार्य में बाधा और गड़बड़ी पैदा करते थे और इसलिए उन्हें निष्कासित कर दिया गया। कुछ लोगों ने खुद को ऊँचा दिखाने, दिखावा करने और लोगों को गुमराह करने के लिए धर्म-सिद्धांत बोले, जिससे लोग उनके सामने आ गए। उन्होंने स्वतंत्र राज्य बनाने की कोशिश की और उन्हें निष्कासित कर दिया गया। अन्य लोग गिरफ्तार होने के बाद अपने निजी हितों की खातिर पुलिस की धमकियों और प्रलोभनों के आगे झुक गए और उन्होंने “तीन बयानों” पर हस्ताक्षर कर दिए और यहूदा बन गए। इसके लिए उन्हें निष्कासित कर दिया गया। पाठ-आधारित कर्तव्य करने और हर दिन परमेश्वर के वचन पढ़ने के अपने वर्षों पर विचार करूँ तो अपनी धारणाओं के अनुसार मुझे कुछ सत्य पा लेने चाहिए थे और कुछ सत्य वास्तविकताएँ प्राप्त कर लेनी चाहिए थीं, लेकिन जब मेरा कर्तव्य बदला गया और मुझे सामान्य मामलों का काम सँभालने के लिए कहा गया तो मैंने स्वीकारने या समर्पण करने में खुद को असमर्थ पाया, मैं नकारात्मकता और प्रतिरोध की मनोदशा में जीता रहा। इससे पता चला कि मेरे पास कोई सत्य वास्तविकता नहीं थी! मैंने देखा कि मेरा यह दृष्टिकोण पूरी तरह से निराधार है कि अगुआई और पाठ-आधारित कर्तव्य निभाने वालों के पास उद्धार की अधिक उम्मीदें होती हैं। इस पर चिंतन करने के बाद ही मुझे समझ आया कि अगर कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण नहीं करता है या अपने कर्तव्य का पालन करते समय अपने भ्रष्ट स्वभाव सुलझाने के लिए सबक सीखने पर ध्यान केंद्रित नहीं करता है तो कोई भी कर्तव्य निभाना सिर्फ श्रम करना है। मुझे एहसास हुआ कि यह महत्वपूर्ण नहीं है कि कोई व्यक्ति क्या कर्तव्य करता है और मायने यह रखता है कि क्या कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य के दौरान अक्सर आत्म-चिंतन कर सकता है और क्या वह सक्रियता से सत्य का अनुसरण कर सकता है और अपने भ्रष्ट स्वभाव सुलझाने के लिए इसका अभ्यास कर सकता है। जब कोई आखिरकार सत्य प्राप्त करता है तभी वह परमेश्वर का उद्धार पा सकता है।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “जब लोगों के कर्तव्यों का समायोजन किया जाता है, तब अगर निर्णय कलीसिया ने लिया है तो लोगों को इसे स्वीकार कर आज्ञा का पालन करना चाहिए, आत्म-चिंतन करना चाहिए और समस्या के सार और अपनी कमजोरियों को समझना चाहिए। यह लोगों के लिए बहुत फायदेमंद है और यह ऐसी चीज है जिसका अभ्यास किया जाना चाहिए। यह इतनी सरल चीज है कि साधारण लोग इसे समझ सकते हैं और बहुत अधिक कठिनाइयों या किसी दुर्गम बाधा का सामना किए बिना इससे सही तरीके से व्यवहार कर सकते हैं। जब लोगों के कर्तव्यों में समायोजन किया जाता है तो कम-से-कम उन्हें समर्पण करना चाहिए, आत्मचिंतन से लाभ उठाना चाहिए और साथ ही इस बात का सटीक आकलन करना चाहिए कि उनके कर्तव्यों का निर्वहन समुचित है या नहीं। लेकिन मसीह-विरोधियों के साथ ऐसा नहीं है। जो वे अभिव्यक्त करते हैं वह सामान्य लोगों से अलग होता है, चाहे उन्हें कुछ भी हो जाए। यह अंतर कहाँ होता है? वे आज्ञापालन नहीं करते, सक्रिय रूप से सहयोग नहीं करते, न ही वे सत्य की जरा-सी भी खोज करते हैं। इसके बजाय, वे इसके समायोजन के प्रति वैर-भाव महसूस करते हैं, और वे इसका विरोध और विश्लेषण करते हैं, इस पर चिंतन करते हैं, और दिमाग के घोड़े दौड़ाकर अटकलें लगाते हैं : ‘मुझे यह कर्तव्य क्यों नहीं निभाने दिया जा रहा है? मुझे ऐसा कर्तव्य क्यों सौंपा जा रहा है जो महत्वपूर्ण नहीं है? क्या यह मुझे बेनकाब करके हटाने का तरीका है?’ वे इस घटना को अपने दिमाग में उलटते-पलटते रहते हैं, उसका अंतहीन विश्लेषण करते हैं और उस पर चिंतन करते हैं। जब कुछ नहीं होता तो वे बिल्कुल ठीक होते हैं, लेकिन जब कुछ हो जाता है तो उनके दिलों में तूफानी लहरों जैसा मंथन शुरू हो जाता है, और उनका मस्तिष्क सवालों से भर जाता है। देखने पर ऐसा लग सकता है कि मुद्दों पर विचार करने में वे दूसरों से बेहतर हैं, लेकिन वास्तव में, मसीह-विरोधी सामान्य लोगों की तुलना में अधिक दुष्ट होते हैं। यह दुष्टता कैसे अभिव्यक्त होती है? उनके विचार चरम, जटिल और गुप्त होते हैं। जो चीजें किसी सामान्य व्यक्ति, किसी अंतःकरण और विवेक वाले व्यक्ति के साथ नहीं होतीं, मसीह-विरोधी के लिए वे आम बात हैं। जब लोगों के कर्तव्य में कोई साधारण समायोजन किया जाता है, तो उन्हें आज्ञाकारिता भरे रवैये के साथ उत्तर देना चाहिए, जैसा परमेश्वर का घर उनसे कहे वैसा करना चाहिए, जो वे कर सकते हैं वह करना चाहिए, और वे चाहे जो भी करें, उसे जितना उनके सामर्थ्य में है, उतना अच्छा करना चाहिए और अपने पूरे दिल से और अपनी पूरी ताकत से करना चाहिए। परमेश्वर ने जो किया है, वह गलती से नहीं किया है। लोग इस तरह के सरल सत्य का अभ्यास थोड़ी अंतरात्मा और विवेक के साथ कर सकते हैं, लेकिन यह मसीह-विरोधियों की क्षमताओं से परे है। ... मसीह-विरोधी कभी परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं का पालन नहीं करते, और वे हमेशा अपने कर्तव्य, प्रसिद्धि, फायदे और रुतबे को अपने आशीषों को प्राप्त करने की आशा और अपने भावी गंतव्य के साथ जोड़ते हैं, मानो अगर उनकी प्रतिष्ठा और हैसियत खो गई, तो उन्हें आशीष और पुरस्कार प्राप्त करने की कोई उम्मीद नहीं रहेगी, और यह उन्हें अपना जीवन खोने जैसा लगता है। वे सोचते हैं, ‘मुझे सावधान रहना है, मुझे लापरवाह नहीं होना चाहिए! परमेश्वर के घर, भाई-बहनों, अगुआओं और कार्यकर्ताओं, यहाँ तक कि परमेश्वर पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। मैं उनमें से किसी पर भरोसा नहीं कर सकता। जिस व्यक्ति पर तुम सबसे ज्यादा भरोसा कर सकते हो और जो सबसे ज्यादा विश्वसनीय है, वह तुम खुद हो। अगर तुम अपने लिए योजनाएँ नहीं बना रहे, तो तुम्हारी परवाह कौन करेगा? तुम्हारे भविष्य पर कौन विचार करेगा? कौन इस पर विचार करेगा कि तुम्हें आशीष मिलेंगे या नहीं? इसलिए, मुझे अपने लिए सावधानीपूर्वक योजनाएँ बनानी होंगी और गणनाएँ करनी होंगी। मैं गलती नहीं कर सकता या थोड़ा भी लापरवाह नहीं हो सकता, वरना अगर कोई मेरा फायदा उठाने की कोशिश करेगा तो मैं क्या करूँगा?’ इसलिए, वे परमेश्वर के घर के अगुआओं और कार्यकर्ताओं से सतर्क रहते हैं, और डरते हैं कि कोई उन्हें पहचान लेगा या उनकी असलियत जान लेगा, और फिर उन्हें बरखास्त कर दिया जाएगा और आशीष पाने का उनका सपना नष्ट हो जाएगा। वे सोचते हैं कि आशीष प्राप्त करने की आशा रखने के लिए उन्हें अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बरकरार रखना चाहिए। मसीह-विरोधी आशीष प्राप्ति को स्वर्ग से भी अधिक बड़ा, जीवन से भी बड़ा, सत्य के अनुसरण, स्वभावगत परिवर्तन या व्यक्तिगत उद्धार से भी अधिक महत्वपूर्ण, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने और मानक के अनुरूप सृजित प्राणी होने से अधिक महत्वपूर्ण मानता है। वह सोचता है कि मानक के अनुरूप एक सृजित प्राणी होना, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना और बचाया जाना सब तुच्छ चीजें हैं, जो मुश्किल से ही उल्लेखनीय हैं या टिप्पणी के योग्य हैं, जबकि आशीष प्राप्त करना उनके पूरे जीवन में एकमात्र ऐसी चीज होती है, जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। उनके सामने चाहे जो भी आए, चाहे वह कितना भी बड़ा या छोटा क्यों न हो, वे इसे आशीष प्राप्ति होने से जोड़ते हैं और अत्यधिक सतर्क और चौकस होते हैं, और वे हमेशा अपने बच निकलने का मार्ग रखते हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। परमेश्वर उजागर करता है कि मसीह-विरोधियों के पास कोई सामान्य विवेक नहीं होता। परमेश्वर पर विश्वास करने और अपने कर्तव्य करने का उनका एकमात्र उद्देश्य आशीष पाना होता है। कलीसिया चाहे जो भी कर्तव्य निर्धारित करे, मसीह-विरोधियों का पहला विचार यह नहीं होता कि उन्हें कैसे आज्ञा पालन करना है और कैसे स्वीकारना है या वे अपने कर्तव्यों में अपना सर्वश्रेष्ठ कैसे कर सकते हैं, बल्कि वे यह सोचते हैं कि क्या वर्तमान कर्तव्य उनके भविष्य और गंतव्य को प्रभावित करेगा। वे सावधानी से हिसाब लगाते हैं, चिंता करते हैं कि अगर उनके कर्तव्य बदले गए तो आशीष के लिए उनकी इच्छाएँ बिखर जाएँगी। अगर कोई चीज उनके भविष्य के आशीष के लिए लाभदायक नहीं है तो वे घृणा, प्रतिरोध और शक करेंगे और इसका विश्लेषण करने का प्रयास करेंगे। उनकी प्रकृति वाकई बुरी है। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन की रोशनी में मैंने देखा कि मैं जिस स्वभाव को प्रकट कर रहा था, वह बिल्कुल मसीह-विरोधी जैसा था। अगुआओं ने कार्य की जरूरतों और मेरी खूबियों के अनुसार यह व्यवस्था की थी कि मैं नेटवर्क तकनीक सीखूँ। यह कलीसिया के कार्य की सुरक्षा के उद्देश्य से था। सामान्य मानवता वाले लोग परमेश्वर के इरादों पर विचार कर समर्पण कर लेते और इस व्यवस्था को स्वीकार लेते। लेकिन मैंने सोचा कि नेटवर्क तकनीक का कर्तव्य तो बस सामान्य मामलों के काम का हिस्सा है, मैं जो सत्य प्राप्त कर सकता हूँ वह बहुत कम है और मेरे उद्धार की संभावना भी बहुत कम होगी, इसलिए मैंने प्रतिरोध किया और अगुआओं के खिलाफ शिकायतें पालीं। भले ही बाद में मैं अनिच्छा से इस कर्तव्य को करने के लिए सहमत हो गया, फिर भी मैंने लगन से अध्ययन नहीं किया। मैंने अपने सीखे हुए कौशल अगुआओं को कम करके बताकर भी धोखेबाजी की, ताकि अगुआओं को गलत तरीके से विश्वास हो जाए कि मैं इस कर्तव्य के लिए अनुपयुक्त हूँ। बाद में अगुआ ने मुझे मरम्मत तकनीक सीखने के लिए कहा। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि भाई-बहन भक्ति और कर्तव्यों के लिए सामान्य रूप से इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का उपयोग कर सकें। लेकिन मैंने सोचा कि मरम्मत का कर्तव्य करने से मुझे सत्य पाने या इसका अनुसरण करने में मदद नहीं मिलेगी और यह सिर्फ शारीरिक श्रम है, इसलिए मैं इसे स्वीकार नहीं करना चाहता था। अगुआओं ने सिद्धांतों के अनुसार मेरे कर्तव्य बदले और मेरे कर्तव्य बदले जाने से मेरी आस्था में अशुद्धियाँ और मेरे कर्तव्यों में मेरे गलत विचार भी उजागर हुए, जिससे मुझे इन भ्रष्ट स्वभावों को सुलझाने के लिए सत्य खोजने का मौका मिला। यह मेरे जीवन प्रवेश के लिए लाभदायक था, लेकिन मुझे गलतफहमी और शिकायत हो गई, मुझे संदेह था कि परमेश्वर इन सामान्य मामलों के कर्तव्यों का उपयोग मुझे बेनकाब करने और निकालने के लिए कर रहा है। मैं परमेश्वर के प्रति संदेह और सतर्कता से भरा हुआ था। यह मेरी बहुत बड़ी बुराई थी! परमेश्वर के प्रकाशन के माध्यम से मैंने अपने बरसों के बलिदान और खुद को खपाने पर चिंतन किया और देखा कि मैं ये चीजें परमेश्वर के इरादों पर विचार करने और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए नहीं कर रहा था, बल्कि परमेश्वर से अच्छे गंतव्य के बदले अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लेन-देन के लिए कर रहा था। मेरे कर्तव्य बदले जाने के बाद मुझे लगा कि आशीष की मेरी आशा टूट गई है, इसलिए मैं अपने कर्तव्य अनमने ढंग से करने लगा। मैंने देखा कि मुझमें वाकई कोई मानवता नहीं है और मैं पूरी तरह से स्वार्थी और नीच हूँ!

बाद में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “जब नूह ने वैसा किया जैसा परमेश्वर ने निर्देश दिया था, तो वह नहीं जानता था कि परमेश्वर के इरादे क्या थे। उसे नहीं पता था कि परमेश्वर कौन-सा कार्य पूरा करना चाहता था। परमेश्वर ने नूह को सिर्फ एक आज्ञा दी थी और अधिक स्पष्टीकरण के बिना उसे कुछ करने का निर्देश दिया था, नूह ने आगे बढ़कर इसे कर दिया। उसने गुप्त रूप से परमेश्वर की इच्छाओं को जानने की कोशिश नहीं की, न ही उसने परमेश्वर का विरोध किया या निष्ठाहीनता दिखाई। वह बस गया और एक शुद्ध एवं सरल हृदय के साथ इसे तदनुसार कर डाला। परमेश्वर उससे जो कुछ भी करवाना चाहता था, उसने किया और परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पित होना और उन्हें सुनना ही उसके कार्यों को सहारा देने वाला विश्वास था। इस प्रकार जो कुछ परमेश्वर ने उसे सौंपा था, उसने ईमानदारी एवं सरलता से उसे निपटाया था। समर्पण ही उसका सार था, उसके कार्यों का सार था—न कि अपनी अटकलें लगाना या प्रतिरोध करना, न ही अपने निजी हितों और अपने लाभ-हानि के विषय में सोचना था। इसके आगे, जब परमेश्वर ने कहा कि वह जलप्रलय से संसार का नाश करेगा, तो नूह ने नहीं पूछा कब या उसने नहीं पूछा कि चीजों का क्या होगा और उसने निश्चित तौर पर परमेश्वर से नहीं पूछा कि वह किस प्रकार संसार को नष्ट करने जा रहा था। उसने बस वैसा ही किया, जैसा परमेश्वर ने निर्देश दिया था। हालाँकि परमेश्वर चाहता था कि इसे बनाया जाए और जिससे बनाया जाए, उसने बिल्कुल वैसा ही किया, जैसा परमेश्वर ने उसे कहा था और तुरंत कार्रवाई भी शुरू कर दी। उसने परमेश्वर को संतुष्ट करने की इच्छा के रवैये के साथ परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार काम किया। क्या वह आपदा से खुद को बचाने में सहायता करने के लिए यह कर रहा था? नहीं। क्या उसने परमेश्वर से पूछा कि संसार को नष्ट होने में कितना समय बाकी है? उसने नहीं पूछा। क्या उसने परमेश्वर से पूछा या क्या वह जानता था कि जहाज़ बनाने में कितना समय लगेगा? वह यह भी नहीं जानता था। उसने बस समर्पण किया, सुना और तदनुसार कार्य किया(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गया कि नूह का अपने कर्तव्य के प्रति रवैया परमेश्वर की स्वीकृति से मिलता है और मुझे इसी का अनुकरण करने और उसमें प्रवेश करने की जरूरत है। जब परमेश्वर ने नूह को जहाज बनाने का निर्देश दिया तो नूह परमेश्वर का इरादा नहीं समझ पाया, लेकिन उसने परमेश्वर के आदेश का प्रतिरोध नहीं किया या परमेश्वर की इच्छाओं के बारे में अनुमान नहीं लगाया। उसने बस सुना, आज्ञा का पालन किया और परमेश्वर ने जो कुछ भी करने के लिए कहा, वह किया। मुझे नूह के उदाहरण का अनुसरण करना था और अपनी क्षमताओं के अनुसार अपना कर्तव्य भरसक निभाना था, मुझे आशीष नहीं खोजना था, बल्कि सिर्फ यह खोजना था कि मेरे पास परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण हो। मुझे अपने कर्तव्य में सबक सीखने पर भी ध्यान केंद्रित करना था। मैं चाहे जो भी कर्तव्य करूँ, मैं अभी भी भ्रष्टता प्रकट करूँगा और परमेश्वर जिन परिस्थितियों की व्यवस्था करता है उनके दायरे में मुझे अपने विचारों और सोच का लाभ उठाने पर ध्यान केंद्रित करना था ताकि मैं आत्म-चिंतन कर सकूँ और इन चीजों का समाधान करने के लिए सत्य खोज सकूँ। इसके माध्यम से मैं कुछ हासिल कर सकता था। परमेश्वर हर उस व्यक्ति के प्रति धार्मिक है जो उसका अनुसरण करता है। परमेश्वर ने कभी नहीं कहा कि अगुआई या पाठ-आधारित कर्तव्य करने से उद्धार की गारंटी मिलती है या कि सामान्य मामलों के कर्तव्य करने से उसकी स्वीकृति नहीं मिल सकती। व्यक्ति चाहे किसी भी तरह का कर्तव्य निभाए, मुख्य बात यह है कि क्या वह सत्य खोज सकता है और सबक सीख सकता है। ठीक वैसे ही जैसे अनुभवात्मक गवाही वीडियो में कुछ भाई-बहनों ने मेजबानी का काम किया, जबकि अन्य ने इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की मरम्मत का काम देखा, इत्यादि। ये सभी सामान्य मामलों के काम हैं, लेकिन ये लोग अपने कर्तव्यों के दौरान अपनी भ्रष्टता दूर करने के लिए सत्य की खोज पर ध्यान केंद्रित करने में सक्षम थे और इस प्रकार उनके जीवन स्वभाव में बदलाव आ सका। मैं उन सिद्धांतों को नहीं समझता था जिनके द्वारा परमेश्वर लोगों के परिणामों और गंतव्यों को निर्धारित करता है और मैं हमेशा ऐसे कर्तव्य करना चाहता था जिनके बारे में मुझे विश्वास था कि वे मेरे जीवन प्रवेश के लिए लाभकारी होंगे। लेकिन मैंने अपने कर्तव्यों के दौरान आत्म-चिंतन करने या अपने जीवन स्वभाव में बदलाव खोजने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया। तो भले ही मैं पाठ-आधारित कर्तव्य करना जारी रखूँ, इससे क्या फर्क पड़ेगा? क्या इसका मतलब यह होगा कि मैं सत्य प्राप्त करूँगा? क्या यह मेरे स्वभाव में बदलाव का संकेत होगा? अगर मैं सत्य का अनुसरण न करता तो मुझे आखिरकार तब भी निकाल दिया जाता। परमेश्वर के इरादे समझने के बाद मुझे अब अपने वर्तमान कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने पर ध्यान केंद्रित करना था और क्या मैं आखिरकार परमेश्वर का उद्धार पाऊँगा, इस पर विचार करना मेरा काम नहीं था।

इसके बाद मैंने अपने कर्तव्य में अपना दिल लगाना शुरू कर दिया और मैंने अपने कर्तव्य करते समय अपने विचारों, सोच और भ्रष्ट स्वभाव पर चिंतन करने पर ध्यान केंद्रित किया। मरम्मत सीखने का मतलब था कि मुझे सर्किट आरेखों को देखना था और विभिन्न घटकों के काम करने के तरीके को समझना था। शुरुआत में मैं यह सोचकर पस्त था, “इन उपकरणों की मरम्मत करना बहुत मुश्किल है। क्या मैं अपनी इस काबिलियत के साथ यह कर सकता हूँ?” कभी-कभी इन चीजों को देखते हुए मैं और सीखना नहीं चाहता था। लेकिन चिंतन के जरिए मैंने जाना कि अपने कर्तव्य में मुश्किलों का सामना करने पर मेरे पीछे हटने का मुख्य कारण यह था कि मैं अपने कर्तव्य में अडिग नहीं था, अपनी देह की लालसा करता था, मुझमें प्रेरणा की कमी थी और मेरे पास ऐसा हृदय नहीं था जो परमेश्वर के इरादों प्रति विचारशील हो। इसलिए मैंने खाने-पीने के लिए इस बारे में परमेश्वर के वचन खोजे और मुझे देखने के लिए भाई-बहनों की अनुभवजन्य गवाहियाँ मिल गईं। इन चीजों से मुझे अभ्यास का मार्ग मिला : जब मैं अपने कर्तव्यों में कठिनाइयों का सामना करता हूँ तो मुझे पीछे नहीं हटना चाहिए; मुझे नूह का अनुकरण करना था और ऐसा हृदय रखना था जो परमेश्वर के इरादों पर विचार करता हो। चाहे नूह के लिए जहाज बनाना कितना भी कठिन क्यों न रहा हो और चाहे कार्यभार कितना भी बड़ा क्यों न रहा हो, नूह इन मुश्किलों से घबराया नहीं, बल्कि उसने परमेश्वर के इरादों पर विचार किया और अपने पूरे प्रयास से सहयोग किया, जहाज बनाने में आ रहीं विभिन्न समस्याओं को सक्रियता से हल किया और आखिरकार उसने परमेश्वर का आदेश पूरा किया। मेरे कर्तव्य की मुश्किल की तुलना नूह के कर्तव्य से नहीं की जा सकती और मेरे पास मरम्मत सीखने के लिए मेरे भाई-बहनों द्वारा साझा किए गए संसाधन और अनुभव थे। अगर मैं परमेश्वर पर भरोसा करता और दृढ़ तरीके से सहयोग करता तो इन मुश्किलों पर काबू पाया जा सकता था। जब मैंने अपने दिल को शांत किया और चीजों को थोड़ा-थोड़ा करके सीखना शुरू किया तो भले ही मैं धीरे-धीरे सीख रहा था, फिर भी मैं इसे करने में सक्षम था और चीजें उतनी कठिन नहीं रहीं जितना मैंने सोचा था। थोड़े समय तक अभ्यास करने के बाद मैंने न सिर्फ कुछ मरम्मत तकनीकें सीखीं, बल्कि मेरे जीवन ने भी थोड़ी-सी प्रगति की और मैंने संतुष्ट होकर दिन बिताए।

अपने कर्तव्य बदले जाने से मैंने कर्तव्यों के प्रति अपने कुछ गलत विचारों को समझ और सुधार लिया। साथ ही मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर पर विश्वास करने और अपने कर्तव्य निभाने का मेरा इरादा सही नहीं था और मैं एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए नहीं, बल्कि आशीष पाने के लिए कर रहा था। यह परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं था। अब मैं सिर्फ परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति सच्चे मन से समर्पण करना चाहता हूँ और अपना वर्तमान कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहता हूँ। परमेश्वर का धन्यवाद!

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