28. मैंने अपने परिवार द्वारा सताए जाने से क्या हासिल किया
एक समय मेरा परिवार सामंजस्यपूर्ण और खुशहाल था, मेरे पति का व्यवहार मेरे साथ अच्छा था और हमारे पड़ोसी और मित्र हमसे ईर्ष्या करते थे। 1994 में मैंने प्रभु यीशु को अपने उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार कर लिया और मैंने अपने माता-पिता, सास, बड़े भाई और भाभी के साथ प्रभु यीशु का सुसमाचार साझा किया और सबने उसे स्वीकार किया। मेरा पति अपने व्यवसाय में इतना व्यस्त रहता था कि वह सभाओं में भाग नहीं ले पाता था, लेकिन मेरी आस्था का बहुत समर्थक था। अक्टूबर 2006 में किसी ने मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार सुनाया। सभाओं में भाग लेकर और परमेश्वर के वचन पढ़कर मैंने जाना कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही लौटकर आया प्रभु यीशु है और उसने प्रभु यीशु के कार्य के आधार पर न्याय और शुद्धिकरण के कार्य का एक चरण पूरा किया है जिससे कि लोगों को पाप से पूरी तरह से मुक्ति मिले और वे परमेश्वर द्वारा बचाए जा सकें, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को खुशी से स्वीकार कर लिया। इसके बाद मैंने सुसमाचार प्रचार का प्रशिक्षण लेना शुरू कर दिया, मैं उन लोगों के सामने परमेश्वर के नए कार्य की गवाही देने लगी जो ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास और प्रभु के प्रकटन की लालसा रखते थे। पहले तो मेरे पति ने सर्वशक्तिमान परमेश्वर में मेरी आस्था का विरोध नहीं किया, जब भाई-बहन मेरे घर आते तो मेरा पति उनका गर्मजोशी से स्वागत करता, कहता कि जब वह कुछ और पैसा कमा लेगा तो वह भी मेरे साथ परमेश्वर में विश्वास रखेगा। लेकिन कुछ महीने बाद मेरे पति ने सीसीपी द्वारा सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया की निंदा और बदनामी करने वाली निराधार अफवाहें सुनीं और धार्मिक अगुआ भी उसे भड़काते रहे, इसलिए उसने मेरी आस्था में बाधा डालना शुरू कर दिया। जब भी वह मुझे किसी सभा में जाते देखता तो मुझे सताता और मेरे रास्ते में खड़ा हो जाता।
2007 में मैं एक कलीसियाई अगुआ का कर्तव्य सँभाल चुकी थी। एक रात जब मैं अपना कर्तव्य करके लौटी तो दस बज चुके थे। जैसे ही मैं घर में दाखिल हुई मेरा पति लपककर मेरे पास आया और मुझे डाँटने लगा, “मुझे सच सच बता दो—तुम इतनी देर से घर क्यों लौटी हो? सर्वशक्तिमान परमेश्वर के तुम विश्वासियों को सरकारी कार्रवाई का निशाना बनाया जा रहा है और अगर तुम पकड़े जाते हो तो तुम्हारे साथ राजनीतिक अपराधियों जैसा व्यवहार किया जाता है और यहाँ तक कि तुम्हें कानूनी बचाव का मौका दिए बिना मार दिया जाता है। थोड़ी समझदारी से काम लो!” फिर उसने गुस्से से कहा, “मेरी बात सुनो, मैं कल अपने गाँव गया था, चाचा जी सरकार की अवज्ञा करने की तुलना पत्थर से सिर टकराने से कर रहे थे। तुम सरकार से नहीं लड़ सकती। विश्वासियों के बच्चों को कॉलेज में दाखिला नहीं मिलेगा और अगर तुम्हारा यही रवैया रहा तो तुम हमारे बच्चों को भी इसमें घसीट लोगी। चाचा जी ने कहा है कि मैं इस मामले को तुम्हारे साथ हमेशा के लिए सुलटा लूँ। अगर तुम इसी तरह अपनी आस्था पर अड़ी रही तो हमें तलाक लेना पड़ेगा! अगर तुम सचमुच अपनी आस्था त्यागती हो तो तुम्हें लिखित में वचन देना पड़ेगा कि अब तुम सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास नहीं रखोगी, घर पर रहोगी, तमीज से पेश आओगी और कहीं नहीं जाओगी। अगर मुझे पता चला कि तुमने फिर से ये हरकतें शुरू कर दी हैं तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा और फिर मुझे दोष मत देना।” पति की ये बातें सुनकर मुझे गुस्सा आ गया और मैं सोचने लगी, “मेरा परमेश्वर में विश्वास रखना और सुसमाचार का प्रचार करना पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है। तुम बड़े लाल अजगर की निराधार अफवाहों और शैतानी शब्दों का भेद क्यों नहीं पहचानते? और तुम चाहते हो कि मैं तुम्हें लिखित में वचन दूँ कि मैं अब परमेश्वर में विश्वास नहीं रखूँगी? यह तो बहुत ही घटिया बात है!” लेकिन फिर मैंने सोचा, “मेरे पति को बहुत गहराई तक विषाक्त कर दिया गया है। अगर मैं आज इस वचन-पत्र पर हस्ताक्षर नहीं करूँगी तो वह पक्का मुझे तलाक दे देगा—मुझे क्या करना चाहिए?” ऐसे में मुझे परमेश्वर के कुछ वचन याद आए : “तुम्हें जानना चाहिए कि तुम्हारे आसपास का सारा परिवेश मेरी अनुमति और मेरी व्यवस्था से बना है। इस बारे में स्पष्ट रहो और मैंने तुम्हें जो परिवेश दिया है उसमें मेरे दिल को संतुष्ट करो। इस या उस चीज से डरो मत, सेनाओं का सर्वशक्तिमान परमेश्वर निश्चित रूप से तुम्हारे साथ होगा; वह तुम लोगों के पीछे खड़ा सहायक बल है और तुम्हारी ढाल है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 26)। परमेश्वर के वचनों में अधिकार और सामर्थ्य है और उनसे मुझे आस्था मिली है। शैतान मुझे परमेश्वर में अपनी आस्था त्यागने को मजबूर करने के लिए सभी प्रकार की चालें चल रहा है, लेकिन मैं शैतान के साथ समझौता नहीं कर सकती। यह सोचकर मैंने अपने पति से कहा, “मैं यह बात अभी स्पष्ट कर देना चाहती हूँ। ऐसा नहीं है कि मैं तुम्हें तलाक देना चाहती हूँ; तुम मुझसे तलाक लेना चाहते हो क्योंकि तुम सीसीपी की निराधार अफवाहों और शैतानी शब्दों पर विश्वास करते हो। अगर तुम्हें सच में डर है कि मैं तुम्हें फँसा दूँगी तो मैं तलाक के लिए तैयार हूँ। मैंने परमेश्वर में विश्वास रखकर कोई कानून नहीं तोड़ा है, इसलिए मुझे तुम्हें वचन लिखकर देने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैं परमेश्वर में अपनी आस्था के प्रति प्रतिबद्ध हूँ!” मेरे पति ने दाँत पीसते हुए गुस्से से कहा, “अब तुम्हारा बचना नामुमकिन है। अगर मुझे पता चला कि तुम अब भी अपनी आस्था पर कायम हो तो मुझे पत्थर दिल होने का दोष मत देना।”
जून 2008 में एक दिन सुसमाचार प्रचार करके घर लौटते समय मैंने देखा कि मेरा पति और उसके चाचा मोटरसाइकिल पर मुझे ढूँढ़ रहे हैं। मुझे देखते ही सीधे मेरे पास आए। मेरे पति का चेहरा तमतमाया हुआ था, वह लपककर आया और मुझे दो तमाचे जड़ दिए। इससे पहले कि मैं कोई प्रतिक्रिया दे पाती, वह मेरे चेहरे और सिर पर जोर-जोर से मुक्के मारने लगा। मैं जमीन पर गिर गई, उसका चाचा मुझे पिटते हुए देखता रहा और खड़ा होकर गालियाँ बकने लगा। मैं गुस्से में थी और सोच रही थी, “परमेश्वर में मेरा विश्वास पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायसंगत है, लेकिन तुम पारिवारिक स्नेह की उपेक्षा करके मेरी आस्था के मार्ग में रोड़े बनकर खड़े हो। तुममें मानवता नाम की कोई चीज है या नहीं?” इसके तुरंत बाद मेरे पति ने मुझे जमीन से उठाया और गरियाते हुए मुझ पर लात-घूंसे बरसाता रहा, “क्या तुम अभी भी सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखती हो?” मैंने हताश होकर परमेश्वर को पुकारा, “परमेश्वर, अपने परिवार के हाथों इस तरह सताए जाने को शायद मैं बर्दाश्त न कर पाऊँ क्योंकि मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। मेरी रक्षा करो ताकि मैं दृढ़ रह सकूँ।” कांपते होठों से मैंने उससे कहा, “मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखती हूँ!” यह देखकर कि मैं झुकने वाली नहीं हूँ उसने दाँत पीसते हुए मुझे कोसा, “मैं आज तुमसे छुटकारा पाकर ही रहूँगा, देखता हूँ तुम्हारा परमेश्वर तुम्हें बचा पाता है या नहीं।” मैं जमीन पर निढाल पड़ी हुई थी मुझे घुटन महसूस हो रही थी और साँस लेने में कठिनाई हो रही थी। मेरे दिल में बेइंतिहा उदासी छा गई और आँखों से आँसू बह रहे थे। उसके तमतमाए चेहरे को देखकर मुझे लगा अगर मैं इसी बात पर अड़ी रही कि मैं परमेश्वर में विश्वास रखती हूँ तो यह मुझे पीट-पीटकर मार डालेगा। मैं दुखी और डरी हुई थी। मैंने पिछले दो वर्षों पर नजर डाली, जब भी मैं सभाओं में भाग लेती और अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने बाहर जाती तो लौटने पर मेरा पति मुझे पीटता था और मैं सोचती थी कि ये दुर्दिन कब खत्म होंगे। ऐसे में मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “आस्था एक ही लट्ठे से बने पुल की तरह है : जो लोग हर हाल में जीवन जीने की लालसा से चिपके रहते हैं उन्हें इसे पार करने में परेशानी होगी, परन्तु जो अपनी जान देने को तैयार रहते हैं, वे बिना किसी फिक्र के, मजबूती से कदम रखते हुए उसे पार कर सकते हैं। अगर मनुष्य कायरता और भय के विचार रखते हैं तो ऐसा इसलिए है कि शैतान ने उन्हें मूर्ख बनाया है, उसे डर है कि हम आस्था का पुल पार कर परमेश्वर में प्रवेश कर जाएँगे” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 6)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे जगा दिया। मेरे डर और कायरता का मतलब था कि मैं शैतान की चालों में फँस गई हूँ। हालाँकि मेरा पति खूँखार लगता था पर वह परमेश्वर के हाथों में था और परमेश्वर की अनुमति के बिना वह मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता था। अगर मैं अपने दैहिक-सुख का सोचती, मृत्यु के भय से अपने पति के साथ समझौता कर लेती और परमेश्वर के नाम को अस्वीकार कर देती तो यह मेरा परमेश्वर से विश्वासघात करना होता। मुझे अय्यूब का ख्याल आया जिसे परीक्षणों के दौरान अपने बच्चों और धन से वंचित कर दिया गया था। उसकी पत्नी उसका मजाक उड़ाती थी और उसे परमेश्वर को त्यागने के लिए कहती थी; अय्यूब ने आत्मा और देह दोनों से कष्ट सहा फिर भी उसने परमेश्वर के नाम को अस्वीकार नहीं किया। इस सबके बावजूद उसने परमेश्वर के नाम की स्तुति की और उसके लिए अपनी गवाही में दृढ़ रहा। पति के हाथों पिटने से तो मुझे केवल शारीरिक पीड़ा हुई जिसकी तुलना अय्यूब के कष्टों से नहीं की जा सकती। मैं अपना जीवन और मृत्यु परमेश्वर को सौंपने को तैयार थी। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, शायद मैं बच न पाऊँ, लेकिन मृत्यु में भी मैं शैतान से समझौता नहीं करूँगी, मैं अब भी तुम्हारा अनुसरण करूँगी। मैं तुमसे प्रार्थना करती हूँ कि मुझे आस्था प्रदान करो।” उसी समय एक महिला वहाँ से गुजरी और मेरे पति से बोली, “इसे मारना बंद करो। अगर ऐसे ही इसे पीटते रहे तो यह मर सकती है।” मेरे पति ने आखिरकार मुझे पीटना बंद कर दिया। मैंने मन ही मन परमेश्वर को धन्यवाद दिया। अगर परमेश्वर की सुरक्षा न होती तो शायद मैं वाकई उसके द्वारा पीट-पीटकर मार डाली गई होती।
उस शाम भी मेरा पति मुझे जाने देने के मूड में नहीं था और मुझे डाँटने के लिये मेरी माँ के घर ले गया। मेरी माँ मेरे शरीर पर जगह-जगह चोटें देखकर पीड़ा में रोने लगी और मेरे पति को कोसने लगी कि उसमें इंसानियत नाम की कोई चीज नहीं है। तब मेरे पिता, भाई और भाभी सब मुझ पर टूट पड़े। मेरी भाभी मुझ पर चिल्लाई, “यह सब कष्ट तुम्हारी अपनी करनी का फल है। मैंने तुम्हें बहुत पहले ही बता दिया था कि सीसीपी सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखने वालों को गिरफ्तार कर लेती है। यह बहुत अच्छी बात है कि हम कलीसिया में यीशु में विश्वास रखते हैं और सरकार हमें गिरफ्तार नहीं करती। क्या शांति से रहना अच्छी बात नहीं है? देखो अपने आपको, सर्वशक्तिमान परमेश्वर में अपनी आस्था पर अड़ी हुई हो। सीसीपी के खिलाफ जाकर क्या तुम खुद मरने की कोशिश नहीं कर रही हो?” मेरे पिताजी भी मुझ पर चिल्लाए, “तुम्हें पीट-पीटकर मार डालने से किसी का कुछ नहीं बिगड़ेगा। हमारा परिवार काफी बड़ा है और अच्छी-खासी प्रतिष्ठा है, लेकिन अब सर्वशक्तिमान परमेश्वर में तुम्हारी आस्था के चक्कर में लोग मुझ पर कटाक्ष करते हैं। तुमने हमारे परिवार को बदनाम करके रख दिया है। अगर तुम अपनी आस्था पर यूँ ही अड़ी रही तो मैं तुम्हें अपनी बेटी के रूप में अस्वीकार कर दूँगा।” मेरी ससुराल के लोग भी आ गए और मेरी आलोचना करते हुए कहने लगे, “सरकार सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखने वालों को जगह-जगह गिरफ्तार कर रही है। अगर तुम पकड़ी गई तो जेल जाओगी। अगर तुमने अपना रुख नहीं बदला तो यह परिवार बिखर जाएगा। परमेश्वर में अपनी आस्था के चक्कर में तुम अपने बच्चों को भी इसमें घसीट रही हो। जब तुम एक अच्छा जीवन जी सकती हो तो इतनी पीड़ा क्यों झेलना?” उन्होंने मुझे ऐसे डपटा जैसे मैं कोई अपराधी हूँ। मेरा दिल बेहद दुखी था और मैं गुस्से में भी थी। मैंने सोचा था कि मेरा परिवार प्रभु में विश्वास रखता है और मुझे समझेगा, लेकिन वे सही-गलत में अंतर नहीं कर सके और सीसीपी की निराधार अफवाहों पर विश्वास कर बैठे, वे लोग अपने स्वार्थों की खातिर एकदम पत्थर दिल हो गए थे, उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं थी कि मैं जीवित रहूँ या मर जाऊँ। मैंने उनसे कहा, “मैंने अपना चुनाव कर लिया है। मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर को चुन लिया है और मैं अपनी आस्था को लेकर दृढ़ हूँ।” चूँकि मैंने समझौता करने से इनकार कर दिया था इसलिए उन्होंने मुझे आधी रात तक जाने नहीं दिया। मैं इतनी कमजोर हो गई थी कि मैं खुद को संभाल भी नहीं पा रही थी और बार-बार कुर्सी से फिसल कर जमीन पर गिर रही थी। मेरी माँ ने देखा कि मैं अब और सहन नहीं कर पा रही हूँ तो उसने तमाम लोगों को जानवर कहकर धिक्कारा। उसने कहा, “अब अगर किसी ने उसके साथ कुछ भी किया तो उसे पहले मुझसे निपटना होगा।” यह सुनकर आखिरकार सब लोग चलते बने। मैंने देखा कि यह सब परमेश्वर की सुरक्षा है।
अगले दिन मेरी बड़ी बहन, जीजा, बड़ा भाई और भाभी सब लोग आए। वे मुझे एक वचन-पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर करने लगे, वे गारंटी चाहते थे कि मैं अब सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास नहीं रखूँगी। मेरे बड़े भाई ने कहा, “अगर तुम इस पर हस्ताक्षर कर दो तो तुम्हारी भाभी और मैं तुम्हें अपने घर ले चलेंगे। मैं तुम्हें वह सब दूँगा जो तुम चाहोगी और वादा करता हूँ कि मैं जीवन भर तुम्हारी देखभाल करूँगा। लेकिन अगर तुम आज इस पर हस्ताक्षर नहीं करोगी तो हम तुमसे सारे संबंध तोड़ लेंगे।” मैंने हॉल के चारों ओर नजर दौड़ाई; वहाँ एक दर्जन से अधिक लोग मेरे हस्ताक्षर की प्रतीक्षा कर रहे थे। मुझे बहुत दुःख हुआ। अगर मैंने परमेश्वर में विश्वास रखना चाहा तो मेरा परिवार मुझसे सम्बन्ध तोड़ लेगा। बुढ़ापे में मैं क्या करूँगी? कहाँ जाऊँगी? अगर मैंने अपने परिवार के साथ समझौता किया तो यह परमेश्वर के साथ विश्वासघात होगा। मैं बहुत उलझन में थी और मुझे लग रहा था कि मैं टूट जाऊँगी। मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की और परमेश्वर के इन वचनों के बारे में सोचा : “तुममें मेरा साहस होना चाहिए और जब उन रिश्तेदारों का सामना करने की बात आए जो विश्वास नहीं करते तो तुम्हारे पास सिद्धांत होने चाहिए। लेकिन मेरी खातिर तुम्हें किसी भी अंधकार की शक्ति से हार भी नहीं माननी चाहिए। पूर्ण मार्ग पर चलने के लिए मेरी बुद्धि पर भरोसा रखो; शैतान के किसी भी षड्यंत्र को कामयाब न होने दो। अपने हृदय को मेरे सम्मुख रखने हेतु जो बन पड़े वह सब करो, मैं तुम्हें आराम दूँगा, तुम्हें शांति और आनंद प्रदान करूँगा” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 10)। मैंने यह भी सोचा कि प्रभु यीशु ने क्या कहा था : “जो कोई मनुष्यों के सामने मेरा इन्कार करेगा, उस से मैं भी अपने स्वर्गीय पिता के सामने इन्कार करूँगा” (मत्ती 10:33)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि शैतान पारिवारिक संबंधों और मेरे देह के भविष्य का उपयोग करके मुझे परमेश्वर से दूर करने और उसके साथ विश्वासघात कराने का प्रयास कर रहा है। मुझे उसकी चालों को पहचानना था और शैतानी ताकतों के साथ समझौता नहीं करना था। लोगों द्वारा अस्वीकार किया जाना डरावना नहीं है क्योंकि लोग किसी के भी बिना रह सकते हैं, लेकिन अगर परमेश्वर ने मुझे त्याग दिया तो मैं जीवित नहीं रह पाऊँगी। केवल परमेश्वर ही लोगों को बचा सकता है। उन्हें डर था कि अगर मैं गिरफ्तार हो गई तो इससे उनके भविष्य पर असर पड़ेगा और उनकी प्रतिष्ठा धूमिल हो जाएगी, इसलिए उन्हें इस बात की परवाह नहीं थी कि मैं मरूँ या जिऊँ, वे तो नरमी और सख्ती दोनों तरह की रणनीति का इस्तेमाल करके मुझे परमेश्वर को छोड़ने और उसे धोखा देने के लिए मजबूर कर रहे थे। मैंने देखा कि उनका सार परमेश्वर के विरोध में है। हम मूल रूप से एक ही तरह के लोग नहीं थे। यह सोचकर मैंने उनसे कहा, “पिताजी, भाई, तुम मुझे इस पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर क्यों कर रहे हो? जिस प्रभु यीशु के लिए हम तरसते रहे हैं वह देहधारी होकर वापस आ गया है। उसने न्याय और शुद्धिकरण का कार्य किया है। तुम न केवल इसे नकार रहे हो बल्कि इसका विरोध और निंदा भी कर रहे हो और तुम चाहते हो कि मैं भी तुम्हारी तरह परमेश्वर को नकारूँ और उसका विरोध करूँ। यह पुराने फरीसियों से किस प्रकार भिन्न है? मैं इस पर बिल्कुल हस्ताक्षर नहीं करूँगी। अगर मैं इस पर हस्ताक्षर करती हूँ तो यह परमेश्वर के साथ विश्वासघात करना होगा।” जब मेरे भाई ने मुझे यह कहते सुना तो उसने गुस्से में मुझे कुर्सी से खींच लिया और धमकी दी, “अब से हम तुम्हारे साथ अपने सारे रिश्ते खत्म कर रहे हैं। अब तुम हमारे परिवार का हिस्सा नहीं हो!” यह सुनकर मुझे अब उतना दुःख नहीं हुआ क्योंकि इन तथ्यों से मुझे परमेश्वर का विरोध करने वाली उनकी असली प्रकृति को समझने में मदद मिली। मैंने संकल्प लिया कि चाहे मेरा पति और मेरे घरवाले मुझे कितना भी सताएँ, मैं अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करती रहूँगी।
दोपहर के भोजन के बाद मेरे भाई और भाभी ने कहा कि वे मुझे वापस ले जाने के लिए मेरे घर के पास से गुजर रहे हैं। जैसे ही हम सामने के दरवाजे के पास पहुँचे मेरे भाई और भाभी ने मुझे जबरदस्ती कार से बाहर निकाल दिया। मैंने आईने में देखा कि मेरे चेहरे पर चोट के ढेरों निशान हैं और मेरी आंखें सूजकर छोटी हो गई हैं। मैं लंगड़ाती हुई उनके पीछे चलने लगी और मेरा पति मुझे पीछे से लगातार धक्का दे रहा था मानो वह किसी अपराधी को ले जा रहा हो और मुझसे जल्दी चलने का आग्रह करता रहा। शहर की सड़क के दोनों ओर के दुकानदार मुझे देखकर आपस में बातें करने लगे। कुछ लोगों ने मुझसे पूछा, “तुम्हारी यह हालत किसने की?” मेरे पति ने घमंड से मेरे बारे में बहुत सी अपमानजनक बातें कहीं, मेरा भाई तो इतना तक बोला, “अगर मुझे पता चला कि तुम अभी भी सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखती हो तो मैं तुम्हें सीसीपी के हवाले करके जेल में बंद करवा दूँगा ताकि हमारी इज्जत मिट्टी में न मिल जाए।” किनारे खड़ी मेरी भाभी ने भी मुझे शर्मिंदा किया। तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि यह सब उनकी पूर्वनियोजित चाल थी, मुझे कार से जल्दी उतरने और सड़कों पर चलने के लिए मजबूर करना था ताकि हर कोई देख सके जिससे कि हर कोई मुझे ठुकराए, मुझे फटकारे ताकि मुझे परमेश्वर में अपनी आस्था त्यागने को मजबूर होना पड़े। घर लौटकर मेरे दिल में बहुत पीड़ा हुई, मुझे लगा कि परमेश्वर में विश्वास रखने का मार्ग बहुत कठिन है। मैंने अपने परिवार के साथ समझौता करने तक के बारे में सोचा। मैं बिस्तर पर गिर पड़ी और रोते हुए परमेश्वर से प्रार्थना करने लगी, “हे परमेश्वर, मुझे लगता है कि इस रास्ते पर चलना बहुत कष्टदायक है। मुझे कोई नहीं समझता, मुझे लगता है कि मैं अब और नहीं सह पाऊँगी ...” प्रार्थना करने के बाद मुझे परमेश्वर के वचनों का भजन याद आया : “परमेश्वर का साढ़े तैंतीस सालों तक देहधारण करके पृथ्वी पर रहना अपने आप में एक बेहद दर्दनाक चीज थी, और कोई भी उसे समझ नहीं सका। ... अधिकांश कष्ट जो वह सहता है, वह चरम सीमा तक भ्रष्ट मानवता के साथ रहना है; उपहास, अपमान, आलोचना, और सभी प्रकार के लोगों की निंदा सहने के साथ-साथ राक्षसों द्वारा पीछा किया जाना और धार्मिक दुनिया से ठुकराया जाना और उनकी शत्रुता सहना, जिससे आत्मा पर ऐसे घाव पड़े जिसकी भरपाई कोई नहीं कर सकता। यह एक दर्दनाक बात है। वह बहुत धैर्य के साथ भ्रष्ट मानवता को बचाता है, अपने घावों के बावजूद वह लोगों से प्रेम करता है, यह बेहद कष्टदायी कार्य है। मानवता के दुष्ट प्रतिरोध, निंदा और बदनामी, झूठे आरोप, उत्पीड़न, और उनके द्वारा पीछा करने और मार डाले जाने के कारण परमेश्वर का देह यह कार्य खुद पर इतना बड़ा जोखिम उठाकर करता है। जब वह यह दर्द सह रहा होता है तो उसे समझने वाला कौन है, और कौन उसे आराम दे सकता है?” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मसीह का सार प्रेम है)। मानवता के प्रति परमेश्वर के प्रेम के बारे में सोचकर मैं बेहद प्रभावित हुई। परमेश्वर ने मानवजाति को बचाने के लिए दो बार देहधारण किया है, भयंकर कष्ट और अपमान सहा है। समस्त मानवजाति के छुटकारे के कार्य को पूरा करने की वजह से प्रभु यीशु को दुनिया ने ठुकराया, उसे अपमानित और बदनाम किया। उसने सैनिकों की मार और उपहास सहा, कांटों का मुकुट पहना और अंततः सूली पर चढ़कर अपने प्राणों का बलिदान दिया। अंत के दिनों में परमेश्वर ने फिर से देहधारण किया है ताकि उस देश में कार्य करे और लोगों को बचाए जहाँ बड़ा लाल अजगर कुंडली मारकर बैठा है, वह सीसीपी द्वारा उत्पीड़न, निंदा सह रहा है और धार्मिक समुदाय की ओर से अस्वीकृति और बदनामी झेल रहा है। मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर चुपचाप यह सारा कष्ट सहता है। मानवजाति के लिए परमेश्वर का प्रेम इतना महान है! मैं भाग्यशाली हूँ कि परमेश्वर के अंत दिनों के नए कार्य का अनुसरण कर रही हूँ। सुसमाचार का प्रचार करना और अपना कर्तव्य निभाना सत्य प्राप्त करने और परमेश्वर का उद्धार पाने के लिए है; अगर इसके लिए मुझे थोड़ा उत्पीड़न भी सहना पड़े तो क्या फर्क पड़ता है? पहले मैं अक्सर भाई-बहनों के साथ संगति करती थी, कहती थी कि हम चाहे किसी भी अत्याचार या क्लेश का सामना करें, हमें अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करना चाहिए, लेकिन अब जब मैं इस स्थिति का सामना कर रही थी तो मुझमें इससे पार पाने की आस्था क्यों नहीं थी? मेरा आध्यात्मिक कद वाकई बहुत छोटा था। मैंने चुपचाप अपना संकल्प परमेश्वर के सामने रख दिया, यह प्रतिज्ञा की कि चाहे भविष्य में मुझे किसी भी प्रकार का उत्पीड़न, बदनामी या उपहास सहना पड़े मैं परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में अडिग रहूँगी, अब किसी से बेबस नहीं होऊँगी और सदा के लिए परमेश्वर का अनुसरण करूँगी।
देखते-देखते सितम्बर 2008 आ गया। मेरे पति ने देखा कि मैं अभी भी परमेश्वर में विश्वास रख रही हूँ और सुसमाचार का प्रचार कर रही हूँ, चूँकि वह कुछ सामान पहुँचाने गुआंगझू जा रहा था, उसने मुझे जबरन घसीटकर ट्रक में डाला और मेरे सारे पैसे छीन लिए। मैं बहुत चिंतित थी, जब उसका ध्यान कहीं और था तो मैंने तुरंत परमेश्वर के वचनों की एक पुस्तक अपने पास छिपा ली। इसके बाद उसने मुझे एक होटल में नजरबंद कर दिया और मकान मालकिन को मुझ पर नजर रखने को कहा। मुझे पाँच दिन तक बंधक बनाकर रखा गया, मुझे बहुत पीड़ा और यातना झेलनी पड़ी, मैं मन ही मन सोच रही थी, “यहाँ नजरबंद होकर मैं न तो भाई-बहनों से मिल पा रही हूँ और न ही अपना कर्तव्य निभा पा रही हूँ, एक-एक दिन एक-एक साल के बराबर लग रहा है।” मैंने सोचा कि मेरे पति का उत्पीड़न पिछले कुछ वर्षों में बढ़ता ही जा रहा है, मैं सोच रही थी कि आखिर ये दुर्दिन कब समाप्त होंगे। भविष्य में मुझे जो दर्द और कठिनाई झेलनी पड़ेंगी, उनके बारे में सोचकर ही मैं और अधिक हताश महसूस करने लगी, मैंने सोचा इससे अच्छा है मुझे मौत ही आ जाए। यह सोच कर मैंने अपने पति के गहरी नींद में होने का फायदा उठाया, परमेश्वर के वचनों की पुस्तक को अपने सीने में छिपाकर मैं चुपचाप होटल से बाहर निकल गई, और पास के एक पुल की ओर चली गई और आत्महत्या करने के इरादे से नदी में कूदने की तैयारी करने लगी। लेकिन मैं परमेश्वर को छोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। मैंने विचार किया कि कैसे मैंने दस वर्षों से अधिक समय तक प्रभु में विश्वास रखकर आखिरकार उसकी वापसी का स्वागत किया था—क्या मैं वाकई परमेश्वर को इस तरह छोड़ने वाली थी? लेकिन मैं वाकई अपनी स्थिति की वास्तविकता पर काबू नहीं पा सकी। मैंने रोते-रोते परमेश्वर से विदाई की प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं इस समय बहुत कमजोर हूँ, मैं अब यह पीड़ा और नहीं सहना चाहती। इससे पहले कि मैं इस दुनिया को छोड़ दूँ, मैं तुम्हारे वचनों का एक अंश पढ़ना चाहती हूँ ताकि मरने के बाद मुझे शांति मिल सके।” प्रार्थना करने के बाद मैंने हल्के प्रकाश में परमेश्वर के वचनों की पुस्तक खोली और परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “आज अधिकतर लोगों के पास यह ज्ञान नहीं है। वे मानते हैं कि कष्टों का कोई मूल्य नहीं है, कष्ट उठाने वाले संसार द्वारा त्याग दिए जाते हैं, उनका पारिवारिक जीवन अशांत रहता है, वे परमेश्वर के प्रिय नहीं होते, और उनकी संभावनाएँ धूमिल होती हैं। कुछ लोगों के कष्ट चरम तक पहुँच जाते हैं, और उनके विचार मृत्यु की ओर मुड़ जाते हैं। यह परमेश्वर के लिए सच्चा प्रेम नहीं है; ऐसे लोग कायर होते हैं, उनमें धीरज नहीं होता, वे कमजोर और शक्तिहीन होते हैं! परमेश्वर उत्सुक है कि मनुष्य उससे प्रेम करे, परंतु मनुष्य जितना अधिक उससे प्रेम करता है, उसके कष्ट उतने अधिक बढ़ते हैं, और जितना अधिक मनुष्य उससे प्रेम करता है, उसके परीक्षण उतने अधिक बढ़ते हैं। यदि तुम उससे प्रेम करते हो, तो तुम्हें हर प्रकार के कष्ट झेलने पड़ेंगे—और यदि तुम उससे प्रेम नहीं करते, तब शायद सब-कुछ तुम्हारे लिए सुचारु रूप से चलता रहेगा और तुम्हारे चारों ओर सब-कुछ शांतिपूर्ण होगा। जब तुम परमेश्वर से प्रेम करते हो, तो तुम महसूस करोगे कि तुम्हारे चारों ओर बहुत-कुछ दुर्गम है, और चूँकि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, इसलिए तुम्हारा शोधन किया जाएगा; इसके अलावा, तुम परमेश्वर को संतुष्ट करने में असमर्थ रहोगे और हमेशा महसूस करोगे कि परमेश्वर के इरादे बहुत बड़े हैं और वे मनुष्य की पहुँच से बाहर हैं। इस सबकी वजह से तुम्हारा शोधन किया जाएगा—क्योंकि तुममें बहुत निर्बलता है, और बहुत-कुछ ऐसा है जो परमेश्वर के इरादे पूरे करने में असमर्थ है, इसलिए तुम्हारा भीतर से शोधन किया जाएगा। फिर भी तुम लोगों को यह स्पष्ट देखना चाहिए कि शुद्धिकरण केवल शोधन के द्वारा ही प्राप्त किया जाता है। इस प्रकार, इन अंत के दिनों में तुम लोगों को परमेश्वर की गवाही देनी चाहिए। चाहे तुम्हारे कष्ट कितने भी बड़े क्यों न हों, तुम्हें बिल्कुल अंत तक चलना चाहिए, यहाँ तक कि अपनी अंतिम साँस पर भी तुम्हें परमेश्वर के प्रति निष्ठावान और उसके आयोजनों की दया पर निर्भर होना चाहिए; केवल यही वास्तव में परमेश्वर से प्रेम करना है, और केवल यही सशक्त और जोरदार गवाही है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पीड़ादायक परीक्षणों के अनुभव से ही तुम परमेश्वर की मनोहरता को जान सकते हो)। यह अंश बहुत अच्छा है! मुझे ऐसा महसूस हुआ मानो परमेश्वर मुझसे आमने-सामने बात कर रहा हो और मेरे हृदय में एक स्नेहमयी भावना उमड़ पड़ी, टूटे हुए हार के बिखरे मोतियों की तरह आँखों से आँसू बह रहे थे। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से मैं समय रहते उसका इरादा समझ गई, साथ ही अपने पति का उत्पीड़न न सह पाने के कारण नदी में कूदकर आत्महत्या करने के विचार पर भी मुझे पछतावा हुआ। मैं बहुत कमजोर थी और मुझमें दृढ़ता की कमी थी। परमेश्वर ने मेरी आस्था को पूर्ण करने के लिए ऐसी स्थिति की व्यवस्था की ताकि मैं क्लेश और पीड़ा के बीच अपनी गवाही में अडिग रहकर शैतान को अपमानित कर सकूँ। अगर मैं मर गई तो क्या शैतान की हँसी का पात्र नहीं बन जाऊँगी? यह सब सोचते हुए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर! चाहे भविष्य में मुझे किसी भी तरह के कष्ट या परीक्षण का सामना करना पड़े, मैं आगे बढ़ने के लिए तुम पर भरोसा करूँगी। तुम्हीं ने मुझे साँसें दी हैं इसलिए मैं सही तरीके से जिऊँगी और तुम्हारी गवाही दूँगी, मैं अब तुम्हें दुखी या निराश नहीं करूँगी।” परमेश्वर का इरादा समझ लेने पर मैं होटल लौट आई। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मेरे लिए कोई मार्ग खोल दे। अगले दिन दोपहर को मेरा पति होटल आया और मुझसे कहा कि मैं जल्दी से अपना सामान पैक कर घर चलूँ। अपने पति की बातें सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई और मैंने देखा कि सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है।
अक्टूबर 2011 में कलीसिया को सुसमाचार कार्यकर्ताओं की तत्काल आवश्यकता थी और अगुआ चाहते थे कि मैं किसी अन्य क्षेत्र में सुसमाचार प्रचार करूँ। मैं परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य निभाने को तैयार थी। लेकिन मैंने सोचा कि एक बार घर छोड़ दिया तो मैं अपने बच्चों को एक पूर्ण और खुशहाल परिवार नहीं दे पाऊँगी, इसलिए मैंने यह कहकर इनकार कर दिया कि बच्चों की देखभाल करने वाला कोई नहीं है। एक दिन मैं और मेरी बेटी कमरे में परमेश्वर के वचन पढ़ रहे थे, जब मेरे पति ने यह देखा तो उसने मेरे हाथों से परमेश्वर के वचनों की पुस्तक छीन ली और गुस्से से बोला, “जब से तुमने सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू किया है मैंने देखा है कि हमारा वैवाहिक संबंध खत्म हो गया है! तुम परमेश्वर में विश्वास रखना और बचाई जाना चाहती हो? ऐसा बिल्कुल नहीं होगा! अगर मैं मर भी जाऊँ तो तुम्हें अपने साथ ले जाऊँगा। तुम्हारी वजह से मेरा सारा परिवहन कारोबार पहले ही चौपट हो चुका है और इस बार मैं घर पर ही रहूँगा और तुम पर नजर रखूँगा। देखता हूँ कहाँ भागकर जाती हो। अब मैं फिर से तुमसे पूछता हूँ, क्या तुम अब भी परमेश्वर में विश्वास रखना चाहती हो?” मैंने उत्तर दिया, “कोई भी मुझसे परमेश्वर में विश्वास रखने का अधिकार नहीं छीन सकता। मैं हमेशा परमेश्वर में विश्वास रखूँगी।” यह सुनकर मेरे पति ने किताब मेरे चेहरे पर दे मारी और फिर लापरवाही से उसे खिड़की से बाहर फेंक दिया। जब मैंने अपने पति को परमेश्वर के वचनों की पुस्तक फेंकते देखा तो मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे दिल के टुकड़े किए जा रहे हों, मैं किताब लेने बाहर जाना चाहती थी, लेकिन उसने पास आकर मुझे इतनी जोर से जमीन पर पटका कि मैं उठ नहीं सकी। मेरी बेटी ने आकर मेरे पति से सवाल किया, “पापा, माँ ने परमेश्वर पर विश्वास करके कौन सा कानून तोड़ा है कि आप इन्हें इस तरह सताते रहते हैं?” मेरा पति जैसे पागल हो गया था, वह मेरी बेटी के बाल पकड़कर उसके चेहरे पर तमाचे मारने लगा। मार खाने से मेरी बेटी के चेहरे पर जख्म हो गए और सूजन आ गई। जमीन पर पड़े-पड़े ही मैंने गुस्से से उसे डाँटा, “तुम जानवर हो, शैतान हो!” यह देखकर कि मेरे पति ने अपनी बेटी को भी नहीं छोड़ा, मुझे उससे और भी अधिक नफरत हो गई। मुझे चिंता थी कि परमेश्वर के वचनों की पुस्तक किसी भी समय नष्ट हो सकती है, इसलिए मैं मन ही मन परमेश्वर को पुकारती रही। ठीक उसी समय मेरा पति अचानक बाथरूम में चला गया। मैंने जल्दी से अपनी बेटी को नीचे जाकर किताब ढूँढ़ने और उसे सुरक्षित रखने के लिए किसी बहन के घर भेज देने को कहा।
मैंने परमेश्वर में अपने बरसों विश्वास रखने पर विचार किया। मेरे पति ने मेरा रास्ता रोकने की हर मुमकिन कोशिश की, उसने मुझे पीटा, अपमानित किया, मुझे बहुत पीड़ा और दमन का अनुभव हुआ। मैं सचमुच अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ देना चाहती थी, लेकिन जब घर छोड़ने का समय आता तो मैं अपने बच्चों से अलग न हो पाती और हमेशा उनके प्रति ऋणी महसूस करती। उन रातों को मैं इतनी परेशान रही कि सो नहीं पाती थी, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। बाद में मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “वे घातक प्रभाव, जो हज़ारों वर्षो की ‘राष्ट्रवाद की बुलंद भावना’ ने मनुष्य के हृदय में गहरे छोड़े हैं, और साथ ही सामंती सोच, जिसके द्वारा लोग बिना किसी स्वतंत्रता के, बिना महत्वाकांक्षा या आगे बढ़ने की इच्छा के, बिना प्रगति की अभिलाषा के, बल्कि नकारात्मक और प्रतिगामी रहने और गुलाम मानसिकता से घिरे होने के कारण बँधे और जकड़े हुए हैं, इत्यादि—इन वस्तुगत कारकों ने मनुष्यजाति के वैचारिक दृष्टिकोण, आदर्शों, नैतिकता और स्वभाव पर अमिट रूप से गंदा और भद्दा प्रभाव छोड़ा है। ऐसा प्रतीत होता है, जैसे मनुष्य आतंक की अँधेरी दुनिया में जी रहे हैं, और उनमें से कोई भी इस दुनिया के पार नहीं जाना चाहता, और उनमें से कोई भी किसी आदर्श दुनिया में जाने के बारे में नहीं सोचता; बल्कि, वे अपने जीवन की सामान्य स्थिति से संतुष्ट हैं, बच्चे पैदा करने और पालने-पोसने, उद्यम करने, पसीना बहाने, अपना रोजमर्रा का काम करने; एक आरामदायक और खुशहाल परिवार के सपने देखने, और दांपत्य प्रेम, नाती-पोतों, अपने अंतिम समय में आनंद के सपने देखने में दिन बिताते हैं और शांति से जीवन जीते हैं...। सैकड़ों-हजारों साल से अब तक लोग इसी तरह से अपना समय व्यर्थ गँवा रहे हैं, कोई पूर्ण जीवन का सृजन नहीं करता, सभी इस अँधेरी दुनिया में केवल एक-दूसरे की हत्या करने के लिए तत्पर हैं, प्रतिष्ठा और लाभ की दौड़ में और एक-दूसरे के प्रति षड्यंत्र करने में संलग्न हैं। किसने कब परमेश्वर के इरादे जानने की कोशिश की है? क्या किसी ने कभी परमेश्वर के कार्य पर ध्यान दिया है? एक लंबे अरसे से मानवता के सभी अंगों पर अंधकार के प्रभाव ने कब्ज़ा जमा लिया है और वही मानव-प्रकृति बन गए हैं, और इसलिए परमेश्वर के कार्य को करना काफी कठिन हो गया है, यहाँ तक कि जो परमेश्वर ने लोगों को आज सौंपा है, उस पर वे ध्यान भी देना नहीं चाहते” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, कार्य और प्रवेश (3))। परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करते हुए मुझे अपने परिवार को न छोड़ पाने का कारण समझ आ गया और वह यह है कि मैं शैतान द्वारा मेरे मन में भरे गए गलत विचारों से प्रभावित थी जो कहते हैं कि मुझे एक “अच्छी पत्नी और प्यारी माँ” बनना है, “परिवार को खुश” रखना है वगैरह। मैं एक अच्छी पत्नी और प्यारी माँ बनना चाहती थी और जब घर से दूर अपना कर्तव्य निभाने का समय आता था तो मैं हमेशा हिचकिचाती थी, मुझे डर रहता था कि अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ने का मतलब होगा कि मैं अपने बच्चों को एक पूर्ण और खुशहाल परिवार नहीं दे पाऊँगी। आखिरकार मुझे समझ आ गया कि शैतान लोगों को बांधने और नियंत्रित करने के लिए इन भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों का उपयोग करता है, उन्हें परमेश्वर से दूर करने और उसके साथ विश्वासघात करने के लिए उकसाता है, जिसका अर्थ है कि वे आखिरकार उद्धार का अवसर गँवा बैठते हैं क्योंकि वे दैहिक-सुख के प्रति आसक्त होते हैं। यह सोचते हुए मैं आत्म-चिंतन करने लगी, “एक सृजित प्राणी के रूप में क्या मेरी बस यही जिम्मेदारी है कि मैं अपने बच्चों की अच्छी देखभाल करूँ? मेरा जीवन परमेश्वर द्वारा दिया गया है, इसलिए मुझे सत्य का अनुसरण करने, परमेश्वर को संतुष्ट करने और अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए जीना चाहिए।” अगर मैं एक खुशहाल परिवार को बनाए रखने के लिए अपने कर्तव्य निर्वहन को नकार दूँ तो यह मेरा परमेश्वर के साथ भयंकर विश्वासघात करना होगा! मुझे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होकर अपना कर्तव्य निभाना होगा। इसे परमेश्वर की स्वीकृति मिलेगी। फिर मैंने सोचा कि कैसे मेरा पति हमेशा सीसीपी द्वारा फैलाई गई निराधार अफवाहों पर विश्वास करता रहा है। उसने मुझे परमेश्वर में विश्वास रखने से रोकने के लिए बार-बार पीटा और अपमानित किया है, मुझे घर से बाहर तक नहीं जाने दिया। हमारी शादी के पहले कुछ वर्षों में मेरे पति ने मेरे साथ अच्छा व्यवहार किया क्योंकि मेरी माँ का परिवार प्रभावशाली था और मैं व्यापार करती थी, पैसा कमाती थी, उसके बच्चे पैदा करती थी और घर के सारे काम संभालती थी। लेकिन जब मैंने परमेश्वर में विश्वास रखने और अपने कर्तव्य निर्वहन का निर्णय लिया तो मेरा पति डर गया कि मुझे गिरफ्तार कर लिया जाएगा, इससे वह फँस जाएगा और हमारे बच्चों के भविष्य पर असर पड़ेगा, इसलिए वह मुझे सताने लगा और मेरे रास्ते का रोड़ा बन गया, मेरे साथ दुश्मन जैसा व्यवहार करने लगा। उसमें वैवाहिक स्नेह नाम की चीज कहाँ थी? जैसा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं : “पति अपनी पत्नी से क्यों प्रेम करता है? पत्नी अपने पति से क्यों प्रेम करती है? बच्चे क्यों माता-पिता के प्रति कर्तव्यशील रहते हैं? और माता-पिता क्यों अपने बच्चों से अतिशय स्नेह करते हैं? लोग वास्तव में किस प्रकार की इच्छाएँ पालते हैं? क्या उनकी मंशा उनकी खुद की योजनाओं और स्वार्थी आकांक्षाओं को पूरा करने की नहीं है? क्या उनका इरादा वास्तव में परमेश्वर की प्रबंधन योजना के लिए कार्य करने का है? क्या वे परमेश्वर के कार्य के लिए कार्य कर रहे हैं? क्या उनकी मंशा सृजित प्राणी के कर्तव्यों को अच्छे से पूरा करने की है?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि लोगों के बीच सच्चा प्रेम नहीं है, पति-पत्नी के बीच का प्रेम भी स्वार्थ पर आधारित होता है। मेरे पति द्वारा मुझ पर किये गए अत्याचार के कारण आखिरकार मुझे उसका सत्य और परमेश्वर से घृणा करने वाला राक्षसी सार समझ आ गया। यह पहचान कर मेरा दिल साफ हो गया और मैंने अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए घर छोड़ने का संकल्प ले लिया।
बाद में मेरे पति ने तलाक के लिए अर्जी दे दी और इस अर्जी के बाद मेरे पास कुछ भी नहीं बचने वाला था। मैं यह सोचकर गुस्से में आ गई, “सारी संपत्ति उसकी हो जाएगी और बच्चों से मेरा कोई संबंध नहीं रहेगा। जब मैं बूढ़ी हो जाऊँगी तो मेरे पास रहने तक को कोई जगह नहीं होगी। लेकिन अगर मैं तलाक के कागजात पर हस्ताक्षर नहीं करती तो परमेश्वर में विश्वास रखने के कारण मेरा पति मुझे सताता रहेगा और मुझ पर नियंत्रण रखेगा।” मैं दुविधा में फँसी थी, समझ नहीं पा रही थी कि कौन सा रास्ता चुनूँ। बाद में मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “तुम्हें सत्य के लिए कष्ट उठाने होंगे, तुम्हें सत्य के लिए खुद को बलिदान करना होगा, तुम्हें सत्य के लिए अपमान सहना होगा और तुम्हें और अधिक सत्य प्राप्त करने की खातिर और अधिक कष्ट सहना होगा। यही तुम्हें करना चाहिए। पारिवारिक सामंजस्य का आनंद लेने के लिए तुम्हें सत्य का त्याग नहीं करना चाहिए और तुम्हें अस्थायी आनन्द के लिए जीवन भर की गरिमा और सत्यनिष्ठा को नहीं खोना चाहिए। तुम्हें उस सबका अनुसरण करना चाहिए जो खूबसूरत और अच्छा है और तुम्हें जीवन में एक ऐसे मार्ग का अनुसरण करना चाहिए जो ज्यादा अर्थपूर्ण है। यदि तुम ऐसा साधारण और सांसारिक जीवन जीते हो और आगे बढ़ने के लिए तुम्हारा कोई लक्ष्य नहीं है तो क्या इससे तुम्हारा जीवन बर्बाद नहीं हो रहा है? ऐसे जीवन से तुम्हें क्या हासिल हो सकता है? तुम्हें एक सत्य के लिए देह के सभी सुखों का त्याग करना चाहिए, और थोड़े-से सुख के लिए सारे सत्यों का त्याग नहीं कर देना चाहिए। ऐसे लोगों में कोई सत्यनिष्ठा या गरिमा नहीं होती; उनके अस्तित्व का कोई अर्थ नहीं होता!” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। जब मैंने परमेश्वर के वचनों पर मनन किया तो मुझे समझ आया कि परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए इस उत्पीड़न और यातना को सहना इन सभी कष्टों को मूल्यवान और अर्थपूर्ण बनाता है। मुझे हमेशा यही चिंता रहती थी कि अगर मैंने अपने पति को तलाक दे दिया तो मेरा जीवन असुरक्षित हो जायेगा और इसलिए मैं हिचकिचाती थी। अब मुझे पता चल गया कि दैहिक सुख-सुविधाएँ चाहे कितनी भी अच्छी क्यों न हों, वे निरर्थक हैं। केवल परमेश्वर ही मेरा सहारा है, परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा ही पर्याप्त है। जहाँ तक यह सवाल है कि भविष्य में क्या होगा, इसकी चिंता करने या घबराने की मुझे कोई जरूरत नहीं है और जब तक मैं जीवित हूँ, मुझे सत्य का उचित रूप से अनुसरण करना चाहिए और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए। यह मेरे लिए जीवन जीने का सबसे सार्थक और मूल्यवान तरीका होगा। मैंने पतरस के बारे में सोचा। उसके माता-पिता ने उसे परमेश्वर में विश्वास रखने के कारण सताया और बाधाएँ डालीं, इसलिए उसने घर छोड़ दिया और प्रचार करते हुए हर जगह यात्रा की। जब उसने प्रभु का आह्वान सुना तो परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए उसने बेझिझक सब कुछ छोड़ दिया और अंत में उसे परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाया गया। यह सोचकर मेरा हृदय मुक्ति की भावना से भर गया और मैंने अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए घर छोड़ने का निर्णय ले लिया।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा जिससे अपनी बेटी को लेकर भी मेरी चिंताएँ कम हो गईं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “तुम्हारी पृष्ठभूमि जो भी हो और तुम्हारी आगे की यात्रा जैसी भी हो, किसी भी स्थिति में कोई भी स्वर्ग के आयोजनों और व्यवस्थाओं से बच नहीं सकता और कोई भी अपनी नियति को नियंत्रित नहीं कर सकता, क्योंकि जो सभी चीजों का संप्रभु है सिर्फ वही ऐसा करने में सक्षम है। मनुष्य के अस्तित्व में आने की शुरुआत से ही परमेश्वर अपने कार्य को हमेशा से इसी ढंग से करता आ रहा है, ब्रह्मांड को सँभाल रहा है और सभी चीजों के लिए परिवर्तन के नियमों और उनकी गतिविधियों के पथ को संचालित कर रहा है। सभी चीजों की तरह मनुष्य भी चुपचाप और अनजाने में परमेश्वर से मिठास और बारिश और ओस से पोषित हो रहा है; सभी चीजों की तरह मनुष्य भी अनजाने में परमेश्वर के हाथ के आयोजन के अधीन रहता है। मनुष्य का हृदय और आत्मा परमेश्वर की मुट्ठी में होते हैं और उसके जीवन की हर चीज परमेश्वर की दृष्टि में रहती है। चाहे तुम यह सब मानो या न मानो, एक-एक चीज चाहे वह सजीव हो या मृत, परमेश्वर के विचारों के अनुसार ही उसकी दशा, बदलेगी, नवीनीकृत और गायब होगी। परमेश्वर इसी तरह सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है)। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मुझे एहसास हुआ कि मेरी बेटी को भविष्य में जो कुछ भी झेलना पड़ेगा और जो पीड़ा वह सहेगी, वह सब परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है, उसके भविष्य की दिशा बहुत पहले से ही परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित कर दी गई है, मैं केवल इतना कर सकती थी कि सब कुछ परमेश्वर को सौंपकर उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो जाऊँ। मुझमें बस इतना विवेक होना चाहिए। इस बात को ध्यान में रखकर मैंने घर छोड़ दिया और अपने पति से वैवाहिक संबंध तोड़ लिया। तीन साल बाद मुझे अपनी बेटी का एक पत्र मिला, उसमें लिखा था कि उसने भी परमेश्वर के मार्गदर्शन में अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए घर छोड़ दिया है। जैसे ही मुझे पत्र मिला मैं बेहद भावुक हो गई, मुझे एहसास हुआ कि सब कुछ परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है। परमेश्वर के असीम प्रेम और उद्धार को देखकर मैंने दिल की गहराइयों से परमेश्वर को धन्यवाद दिया।
हालाँकि मार्ग में मुझे थोड़ी-बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन यह पीड़ा मूल्यवान और सार्थक थी। अपने पति और परिवार से मिले उत्पीड़न के कारण मुझे उनके दुष्ट परमेश्वर-विरोधी सार का भेद पहचानने की समझ प्राप्त हुई और मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर ने ही गुप्त रूप से मेरी देखभाल की और एक के बाद एक कठिनाइयों के दौरान मेरी रक्षा की, मुझे वह आस्था और शक्ति दी जिसकी मुझे अपने परिवार के बंधनों से मुक्त होने और एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए आवश्यकता थी। परमेश्वर ने ही मुझे जीवन का सही मार्ग दिखाया, मैं परमेश्वर को अपने हृदय की गहराइयों से धन्यवाद देती हूँ।