30. मैंने अपने बोन कैंसर का सामना कैसे किया
अक्टूबर 2019 में एक दिन मेरी टाँग में बहुत दर्द हो रहा था और दर्द निवारक दवाएँ भी काम नहीं कर रही थीं। मैंने एक बहन के बारे में सोचा, उसकी टाँग में भी दर्द रहता था और अस्पताल में इलाज के बाद वह ठीक हो गई थी। मैंने सोचा, “शायद यह कोई गंभीर बात नहीं है। आखिरकार मैंने कई सालों से परमेश्वर पर विश्वास किया है और मैं कलीसिया में कर्तव्य करती रही हूँ। उस समय मैंने अपनी स्थिर नौकरी और शादी छोड़ दी थी। मैंने बड़े लाल अजगर से उत्पीड़न, दुनिया का उपहास और बदनामी भी झेली है। लेकिन मैं हमेशा अपनी आस्था और कर्तव्यों में दृढ़ रही हूँ। मैंने इतनी बड़ी कीमत चुकाई है, इसलिए भले ही मैं वाकई बीमार हूँ, मुझे विश्वास है कि परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा और मुझे ठीक करेगा।” हालाँकि मैं लंगड़ा रही थी, फिर भी मैंने अपने कर्तव्य करना बंद नहीं किए।
जून 2020 में मेरी बाईं टाँग की हालत बिगड़ती गई और मैं अब सामान्य रूप से नहीं चल पाती थी। अस्पताल में जाँच के लिए जाने पर डॉक्टर ने मेरी टाँग का एक्स-रे देखा और मुझसे कहा “तुम्हें कैंसर है और तुम्हारी टाँग में दर्द ट्यूमर के कारण है। तुम्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ेगा और अभी अपने पैरों पर खड़े होने से बचना होगा।” जब मैंने डॉक्टर को यह कहते सुना कि मुझे कैंसर है तो मेरे शरीर की सारी ताकत खत्म हो गई और मेरा चेहरा आँसुओं से भीग गया। मैं बहुत डर गई, सोचने लगी, “कैंसर कैसे हो सकता है? अब परमेश्वर का कार्य अपने अंतिम चरण में है। भाई-बहन सभी सक्रियता से अपने कर्तव्य कर रहे हैं, लेकिन अब जब मुझे कैंसर है तो क्या इसका मतलब यह है कि मैं अपने कर्तव्य नहीं कर पाऊँगी? क्या इसका मतलब यह नहीं होगा कि बचाए जाने और राज्य में प्रवेश करने में मेरी कोई भागीदारी नहीं है?” मैंने अपनी माँ के बारे में सोचा, जिसे कोलन कैंसर था। उसने सिर्फ ट्यूमर निकलवाया था और उसने कीमोथेरेपी नहीं करवाई थी और कई साल बाद भी उसे फिर से कैंसर नहीं हुआ था। कलीसिया के कुछ भाई-बहन भी कैंसर से ठीक हो गए थे। मुझे लगा कि जब से मैंने परमेश्वर को पाया है, तब से मैं अपने कर्तव्य कर रही हूँ, इसलिए वह मेरी रक्षा करेगा। फिर मैंने अस्पताल में कई टेस्ट करवाए। निदान में बोन कैंसर पाया गया और ट्यूमर पहले ही 8 सेंटीमीटर तक बढ़ चुका था। डॉक्टर ने कहा कि अगर इसका समय पर इलाज नहीं किया गया तो मेरी बाई टाँग काटनी पड़ सकती है। उन्हें मेरे फेफड़े में छाया मिली। वे निश्चित नहीं थे कि कैंसर कोशिकाएँ वहाँ फैल गई हैं या नहीं, लेकिन अगर फैल गई होंगी तो सर्जरी का कोई मतलब नहीं होगा, क्योंकि तब मैं शायद सिर्फ तीन महीने ही जीवित रह पाऊँगी। इसका पता चलने पर मैं न चाहते हुए भी फिर से चिंतित हो गई और मन ही मन सोचने लगी, “अगर कैंसर कोशिकाएँ मेरे फेफड़ों में फैल गई हैं तो क्या मैं मर नहीं जाऊँगी?” उस रात मैं बिस्तर पर करवटें बदलती रही, सो नहीं पाई। मैंने सोचा कि कैसे मैंने अपने कर्तव्य पूरे करने के लिए सब कुछ छोड़ दिया है। पिछले कई सालों में मैंने बहुत मेहनत और भागदौड़ की है, लेकिन अब मुझे परमेश्वर का आशीष तो मिला नहीं, ऊपर से कैंसर भी हो गया। मुझे लगा कि परमेश्वर ने मेरी रक्षा नहीं की। जितना मैंने इसके बारे में सोचा, मेरा दिल उतना ही भारी होता गया। बाद में परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद भी मेरा दिल शांत नहीं हो पाया और मैंने अपने दिन लगातार चिंता में बिताए। मैं परमेश्वर के सामने आई और प्रार्थना की, “परमेश्वर, मुझे चिंता है कि मेरी कैंसर कोशिकाएँ फैल जाएँगी और मैं मर जाऊँगी, मैं दुख और चिंता में जी रही हूँ। इस स्थिति में सबक सीखने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो।” अपनी खोज में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “सर्वशक्तिमान परमेश्वर, सभी चीजों का मुखिया, अपने सिंहासन से अपनी राजसी शक्ति का निर्वहन करता है। वह समस्त ब्रह्माण्ड और सभी चीजों पर राज करता है और सम्पूर्ण पृथ्वी पर हमारा मार्गदर्शन करता है। हम हर क्षण उसके समीप होंगे, और शांतचित्त होकर उसके सम्मुख आएँगे, कभी एक पल भी नहीं खोएँगे और हर समय कुछ न कुछ सीखेंगे। हमारे इर्द-गिर्द के वातावरण से लेकर लोग, विभिन्न मामले और वस्तुएँ, सबकुछ उसके सिंहासन की अनुमति से अस्तित्व में हैं। किसी भी वजह से अपने दिल में शिकायतें मत पनपने दो, अन्यथा परमेश्वर तुम्हें अनुग्रह प्रदान नहीं करेगा। बीमारी का आना परमेश्वर का प्रेम ही है और निश्चित ही उसमें उसकी सदिच्छा निहित होती है। भले ही तुम्हारे शरीर को थोड़ी पीड़ा सहनी पड़े, लेकिन कोई भी शैतानी विचार मन में मत लाओ। बीमारी के मध्य परमेश्वर की स्तुति करो और अपनी स्तुति के मध्य परमेश्वर में आनंदित हो। बीमारी की हालत में निराश न हो, अपनी खोज निरंतर जारी रखो और हिम्मत न हारो, और परमेश्वर तुम्हें रोशन और प्रबुद्ध करेगा। अय्यूब की आस्था कैसी थी? सर्वशक्तिमान परमेश्वर एक सर्वशक्तिशाली चिकित्सक है! बीमारी में रहने का मतलब बीमार होना है, परन्तु आत्मा में रहने का मतलब स्वस्थ होना है। जब तक तुम्हारी एक भी साँस बाकी है, परमेश्वर तुम्हें मरने नहीं देगा” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 6)। परमेश्वर ब्रह्मांड और सभी चीजों को नियंत्रित करता है तो क्या मेरा जीवन उसके हाथों में नहीं है? मुझे कैंसर परमेश्वर की अनुमति से हुआ है और इससे मुझे सबक सीखना है। मैंने एक बहन के अनुभव के बारे में सोचा। उसे अंतिम चरण का मलाशय कैंसर था और डॉक्टरों ने कहा कि उसकी बीमारी लाइलाज है। लेकिन वह परमेश्वर से प्रार्थना करती रही, परमेश्वर के वचन खाती-पीती रही और आस्था पर निर्भर होकर इस स्थिति से बाहर निकल गई। आखिरकार उसकी बीमारी चमत्कारिक रूप से ठीक हो गई। मैंने देखा कि मनुष्य का जीना-मरना परमेश्वर के हाथों में है, इसे डॉक्टर निर्धारित नहीं करते। भले ही मुझे यह कैंसर हो गया है, अगर परमेश्वर मुझे जीवित रखना चाहे तो भले ही कैंसर कोशिकाएँ फैल जाए, मैं नहीं मरूँगी। लेकिन अगर मेरा समय आ गया हो तो कोई मेरी मदद नहीं कर सकता। ये सभी चीजें परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित हैं। मुझे खुद को परमेश्वर को सौंपना था, अपने नतीजे का इंतजार करते हुए मुझे परमेश्वर के और वचन खाने-पीने थे और उसके करीब जाना था। मुझे वाकई परमेश्वर पर निर्भर रहना था और उसके वचनों का अनुभव करना था। अय्यूब की तरह, चाहे परमेश्वर कैसे भी काम करे, मुझे परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय बनाए रखना चाहिए और उसके प्रति समर्पण करना चाहिए। यही परमेश्वर के इरादे के अनुरूप है। परमेश्वर के वचनों ने मेरा दिल शांत कर दिया और मैं अब इतनी व्यथित नहीं थी।
आधे महीने बाद डॉक्टर ने कहा कि कैंसर कोशिकाएँ नहीं फैली हैं और सर्जरी की जा सकती है। मैं बहुत भावुक हो गई और परमेश्वर को धन्यवाद देते नहीं थक रही थी। हालाँकि डॉक्टर ने कहा कि मेरे श्रोणि में ट्यूमर वाकई बड़ा है और सर्जरी बहुत जोखिम भरी है, लेकिन मुझे अब डर नहीं लगा। परमेश्वर की सुरक्षा की बदौलत सर्जरी काफी सफल रही। दस दिन बाद मैं अपनी रिकवरी शुरू करने के लिए एक पुनर्वास अस्पताल गई। मेरी श्रोणि की हड्डी में दर्द और मेरी टाँग में सुन्नता के कारण मैं एक घंटे से अधिक समय तक व्हीलचेयर पर नहीं बैठ पाती थी और मुझे हर दिन बहुत सारी दर्द निवारक दवाएँ लेनी पड़ती थीं। मैं बिस्तर पर भी करवट नहीं ले पाती थी और मैं रातभर दर्द के चलते जागती रहती थी। मैंने मन ही मन सोचा, “तकलीफ के दिन यह कब खत्म होंगे? मैं प्रार्थना करती रही हूँ और परमेश्वर के वचन खाती-पीती रही हूँ, फिर परमेश्वर ने मेरा दर्द कम क्यों नहीं किया? थोड़ी सी राहत भी बड़ी बात होगी और मैं इतना दुखी महसूस नहीं करूँगी! मेरी हड्डियों में दर्द के कारण मुझे ऐसा लगता है कि मेरा मर जाना ही बेहतर होगा। मैं बस मर जाना चाहती हूँ और इससे मुक्त होना चाहती हूँ।” लेकिन फिर मैंने सोचा, “क्या मैं परमेश्वर से बहस नहीं कर रही हूँ?” अपने दर्द में मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं बहुत कमजोर और हताश हूँ और मेरे शरीर में दर्द इतना ज्यादा है कि मैं इसे बर्दाश्त नहीं कर सकती। मुझे शिकायत करने या अपने शब्दों से पाप करने से रोको, इस स्थिति में अपनी गवाही में अडिग रहने में सक्षम बनाओ।” उसी पल मुझे फिर से अय्यूब का अनुभव याद आया और मैंने पढ़ने के लिए परमेश्वर के वचनों का एक अंश ढूँढ़ निकाला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर की अनुमति प्राप्त करने के बाद, शैतान अय्यूब पर झपटा और उसकी चमड़ी को पीड़ा पहुँचाने के लिए उसने अपना हाथ आगे बढ़ाया, उसके पूरे शरीर पर पीड़ादायक फोड़े पैदा कर दिए, और अय्यूब ने अपनी चमड़ी पर पीड़ा महसूस की। अय्यूब ने यहोवा परमेश्वर की चमत्कारिकता और पवित्रता की स्तुति की, जिसने शैतान को उसके ढीठपन में और भी अधिक जघन्य बना दिया। क्योंकि वह मनुष्य को पीड़ा पहुँचाने का आनंद महसूस कर चुका था, इसलिए शैतान ने अपना हाथ आगे बढ़ाया और अय्यूब का माँस खरोंच दिया, जिससे उसके पीड़ादायक फोड़े और तीखे हो गए। अय्यूब ने तत्काल अपनी देह पर ऐसी पीड़ा और यंत्रणा महसूस की जिसका कोई सानी नहीं था, और वह अपने हाथों से स्वयं को सिर से पाँव तक मसलने के सिवा और कुछ नहीं कर सका, मानो यह उसके शरीर की इस पीड़ा के द्वारा उसकी आत्मा को पहुँचाए गए इस आघात से उसे राहत दिलाएगा। उसे अहसास हुआ कि परमेश्वर उसकी बगल में खड़े होकर उसे देख रहा था, और उसने अपने को मज़बूत बनाने का भरसक प्रयत्न किया। वह एक बार फिर भूमि पर घुटनों के बल बैठ गया, और कहा : ‘तू मनुष्य के हृदय के भीतर झाँकता है, तू उसकी दुर्दशा देखता है; उसकी कमज़ोरी तुझे चिंतित क्यों करती है? यहोवा परमेश्वर के नाम की स्तुति हो।’ शैतान ने अय्यूब का असहनीय दर्द देखा, परंतु उसने अय्यूब को यहोवा परमेश्वर का नाम त्यागते नहीं देखा। इसलिए उसके टुकड़े-टुकड़े करने को अधीर होकर उसने अय्यूब की हड्डियों में पीड़ा पहुँचाने के लिए जल्दी से अपना आगे हाथ बढाया। तत्क्षण, अय्यूब ने अभूतपूर्व यंत्रणा महसूस की; यह ऐसा था मानो उसका माँस हड्डियों से चीरकर अलग कर दिया गया था, और मानो उसकी हड्डियों को टुकड़े-टुकड़े करके अलग किया जा रहा था। इस अत्यंत दुखदायी पीड़ा ने उसे सोचने पर मजबूर कर दिया कि इससे तो मर जाना बेहतर होता...। इस यंत्रणा को सहने की उसकी क्षमता अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई थी...। वह चीखना चाहता था, वह दर्द को कम करने की कोशिश में अपने शरीर की चमड़ी को चीरकर निकाल देना चाहता था—फिर भी उसने अपनी चीखें रोक लीं, और अपने शरीर की चमड़ी को नहीं चीरा, क्योंकि वह शैतान को अपनी कमज़ोरी देखने देना नहीं चाहता था। और इसलिए अय्यूब एक बार फिर घुटनों के बल बैठा, परंतु इस बार उसने यहोवा परमेश्वर की उपस्थिति महसूस नहीं की। वह जानता था कि यहोवा परमेश्वर अक़्सर उसके सामने, और उसके पीछे, और उसके दोनों तरफ होता था। परंतु उसकी पीड़ा के दौरान, परमेश्वर ने एक बार भी नहीं देखा; उसने अपना चेहरा ढँक लिया था और वह छिपा हुआ था, क्योंकि मनुष्य के उसके सृजन का उसका अभिप्राय मनुष्य के ऊपर पीड़ा बरपाना नहीं था। इस समय, अय्यूब रो रहा था, और इस शारीरिक यंत्रणा को सहने का भरसक प्रयास कर रहा था, फिर भी वह परमेश्वर को धन्यवाद देने से अपने आपको अब और रोक नहीं सका : ‘मनुष्य पहले धक्के में ही गिर जाता है, वह कमज़ोर और शक्तिहीन है, वह कच्चा और अज्ञानी है—तू उसके प्रति इतना चिंतित और नरमदिल होना क्यों चाहेगा? तू मुझे मारता है, पर ऐसा करने से तुझे तकलीफ़ होती है। मनुष्य में क्या है जो तेरी देखभाल और चिंता के लायक है?’ अय्यूब की प्रार्थनाएँ परमेश्वर के कानों तक पहुँच गईं, और परमेश्वर ख़ामोश था, कोई भी आवाज़ किए बिना बस देख रहा था...” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं भावुक हो गई। मैंने देखा कि शैतान ने अय्यूब को किस तरह नुकसान पहुँचाया। अय्यूब के फोड़े फूटने लगे, उसके शरीर और हड्डियों में दर्द से उसे लगा कि मरना जीने से बेहतर होगा, लेकिन उसने अपनी चीखें दबा लीं और घुटनों के बल बैठकर परमेश्वर से प्रार्थना की और उसने एक भी शिकायत किए बिना बेतहाशा दर्द सहा और फिर भी परमेश्वर के पवित्र नाम की स्तुति की। आखिरकार वह शैतान को शर्मिंदा करते हुए अपनी गवाही में अडिग रहा। अय्यूब से अपनी तुलना करते हुए मुझे वाकई शर्मिंदगी हुई और मैंने देखा कि मेरा आध्यात्मिक कद दयनीय रूप से कितना छोटा है। मैंने परमेश्वर के सामने कहा था कि मैं परमेश्वर के सामने समर्पण करूँगी और उसकी परीक्षा स्वीकारूँगी, लेकिन जब मेरे शरीर में दर्द होता रहा तो मैं परमेश्वर से बहस करने लगी, उससे अपने शारीरिक कष्ट दूर करने के लिए कहने लगी और यहाँ तक कि मैं अपनी मृत्यु का इस्तेमाल परमेश्वर को मजबूर करने के लिए भी करना चाहती थी। मैं वाकई अनुचित थी! मैं अय्यूब के उदाहरण का अनुसरण करना चाहती थी और परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में अडिग रहना चाहती थी और चाहे मेरी हड्डियों में दर्द हो या मेरे शरीर में तकलीफ, मैं शिकायत नहीं कर सकती थी! भले ही मेरे शरीर में दर्द मुझे बहुत तकलीफ दे रहा था, मुझे परमेश्वर के वचनों का प्रावधान मिला और हर दिन मैं अपने भाई-बहनों की अनुभवजन्य गवाहियाँ पढ़ती थी, जीवन प्रवेश पर धर्मोपदेश और संगति सुनती थी और मेरे दिल की कड़वाहट कम होने लगी।
कुछ ही समय बाद एक दोपहर को मेरे घाव से अचानक बहुत ज्यादा मवाद और खून निकलने लगा और डॉक्टर ने एक्स-रे लेने के बाद पाया कि मेरी जाँघ में सपोर्ट फ्रेम गिर गया है और उसे फिर से लगाने की जरूरत है। सर्जरी के बाद मुझे बहुत तेज बुखार आया जो कम नहीं हो रहा था और मैं मौत के कगार पर थी। डॉक्टर ने कहा कि मेरा घाव गंभीर रूप से संक्रमित हो गया है, मेरी जान को खतरा है और सपोर्ट फ्रेम को हटाना होगा और मुझे हफ्ते में दो से तीन बार डीब्राइडमेंट सर्जरी करवानी होगी। हर बार जब मेरा एमआरआई होता तो मुझे लगभग चालीस मिनट तक लेटना पड़ता और मेरे नितंबों में बहुत दर्द होता, मानो उन्हें किसी नुकीली चीज से छेदा जा रहा हो। उस पल मैं पूरी तरह से टूट गई, सोचने लगी, “मैं इतनी बीमार हूँ, ठीक होने और फिर से चलने की तो बात ही छोड़ो, मैं किसी भी पल मर सकती हूँ। क्या ऐसा हो सकता है कि परमेश्वर मुझे सजा दे रहा हो? क्या परमेश्वर को याद नहीं है कि मैंने क्या त्याग किए हैं और मैंने खुद को कैसे खपाया है? मैंने भले ही कोई योगदान न दिया हो, लेकिन मैंने मुश्किलें सही हैं। इस तरह से जीने से बेहतर है कि मर जाऊँ। लेकिन मौत की तलाश करना परमेश्वर के इरादे के अनुरूप नहीं है। लेकिन मैं सच में इस निरंतर दर्द को अब और सहन नहीं कर सकती। काश परमेश्वर मेरे दर्द को थोड़ा कम कर देता। परमेश्वर मुझ पर दया क्यों नहीं करता और मेरी बीमारी ठीक क्यों नहीं करता?” बाद में मुझे एहसास हुआ कि मैं एक बार फिर परमेश्वर से बहस कर रही हूँ और उसका विरोध कर रही हूँ और मुझे बहुत अपराध बोध हुआ। मैंने रोते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मेरी बीमारी अचानक से बहुत बदतर हो गई है और मैं अपने दिन तकलीफ में बिता रही हूँ। भले ही मुझे पता है कि इस स्थिति में मुझे कुछ सत्य खोजने चाहिए, फिर भी मैं न चाहते हुए भी तुमसे बहस कर रही हूँ। मैं वाकई विद्रोही हूँ! परमेश्वर, मुझे प्रबुद्ध करो और अपने मसले जानने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो।” प्रार्थना करने के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “बहुत-से लोग केवल इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनको चंगा कर सकता हूँ। बहुत-से लोग सिर्फ इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनके शरीर से अशुद्ध आत्माओं को निकालने के लिए अपनी शक्ति का इस्तेमाल करूँगा, और बहुत-से लोग मुझसे बस शांति और आनंद प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ और अधिक भौतिक संपदा माँगने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ इस जीवन को शांति से गुजारने और आने वाले संसार में सुरक्षित और स्वस्थ रहने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल नरक की पीड़ा से बचने के लिए और स्वर्ग के आशीष प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल अस्थायी आराम के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं और आने वाले संसार में कुछ हासिल करने की कोशिश नहीं करते। जब मैं लोगों पर अपना क्रोध उतारता हूँ और कभी उनके पास रही सारी सुख-शांति छीन लेता हूँ, तो मनुष्य शंकालु हो जाता है। जब मैं मनुष्य को नरक का कष्ट देता हूँ और स्वर्ग के आशीष वापस ले लेता हूँ, वे क्रोध से भर जाते हैं। जब लोग मुझसे खुद को चंगा करने के लिए कहते हैं, और मैं उस पर ध्यान नहीं देता और उनके प्रति गहरी घृणा महसूस करता हूँ; तो लोग मुझे छोड़कर चले जाते हैं और बुरी दवाइयों तथा जादू-टोने का मार्ग खोजने लगते हैं। जब मैं मनुष्य द्वारा मुझसे माँगी गई सारी चीजें वापस ले लेता हूँ, तो वे बिना कोई निशान छोड़े गायब हो जाते हैं। इसलिए मैं कहता हूँ कि लोग मुझ पर इसलिए विश्वास करते हैं, क्योंकि मेरा अनुग्रह अत्यंत विपुल है, और क्योंकि बहुत अधिक लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम आस्था के बारे में क्या जानते हो?)। परमेश्वर के हर वचन ने मेरे दिल को छेद दिया। मेरी मनोदशा और व्यवहार बिल्कुल वैसा ही था जैसा परमेश्वर ने उजागर किया है। मैं अपनी आस्था में परमेश्वर को परमेश्वर नहीं मान रही थी, मैं परमेश्वर को बस एक डॉक्टर मान रही थी, कोई ऐसा व्यक्ति समझ रही थी जिससे मैं अनुग्रह और आशीष माँग सकती हूँ। परमेश्वर में अपनी आस्था में अपने कर्तव्य पूरे करने के लिए सब कुछ त्यागने में सक्षम होना, परमेश्वर से अनुग्रह और आशीष प्राप्त करना था। मैंने सोचा कि जब तक मैं अपना कर्तव्य पूरी लगन से करती हूँ, कष्ट सहती हूँ और कीमत चुकाती हूँ, फिर भले ही मैं बीमार पड़ जाऊँ, परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा और मुझे ठीक करेगा। मुझे विश्वास था कि जब बड़ी आपदा आएगी तो मैं बच जाऊँगी और परमेश्वर द्वारा बचाई जाऊँगी और उसके राज्य में प्रवेश करूँगी। इसलिए जब मेरा परिवार मेरे रास्ते में खड़ा था, जब मुझे बड़े लाल अजगर ने सताया और मेरे कर्तव्यों में मुझे कितना भी कष्ट क्यों न सहना पड़ा हो, मैंने फिर भी परमेश्वर का अनुसरण किया। खासकर जब मैंने अपनी माँ को कैंसर से ठीक होते देखा तो मैंने सोचा कि परमेश्वर मेरी बीमारी भी ठीक कर देगा। इसने मुझे अपने कर्तव्यों में और अधिक सक्रिय बना दिया। लेकिन जब मैं अपने इलाज के दौरान पीड़ित हुई, जब मेरी हालत बिगड़ने लगी और जब मेरा सामना मृत्यु से हुआ, मैंने परमेश्वर के खिलाफ बहस और शिकायत की। मैंने माँग की कि परमेश्वर मेरे इतने वर्षों के त्याग और खपने को देखे और मुझे ठीक करे, मुझे इस दर्द से मुक्ति दिलाए। मैं अपने त्याग और खपने का इस्तेमाल करके परमेश्वर के साथ सौदा करने की कोशिश कर रही थी और मैं परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की कोशिश कर रही थी। मैंने परमेश्वर को एक डॉक्टर की तरह माना जो मुझे ठीक कर सकता है और किसी तरह का जादुई इलाज है। मैं परमेश्वर से माँगों और अनुरोधों से लबालब थी। मेरे पास कैसे कोई अंतरात्मा, विवेक या परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय था? अगर मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव को हल करने के लिए सत्य की खोज नहीं करती तो मैं निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा घृणित होती और निकाल दी जाती। मुझे अपने इस रवैये को बदलना था।
बाद में मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “लोगों के परमेश्वर से हमेशा माँग करते रहने में क्या समस्या है? और उनके हमेशा परमेश्वर के बारे में धारणाएँ पालने में क्या समस्या है? मनुष्य की प्रकृति में क्या निहित है? मैंने पाया कि लोगों के साथ चाहे कुछ भी घटित हो या वे चाहे जिस चीज से निपट रहे हों, वे हमेशा अपने हितों की सुरक्षा और अपने दैहिक सुखों की चिंता करते हैं, और वे हमेशा अपने पक्ष में तर्क और बहाने ढूंढ़ते रहते हैं। वे लेशमात्र भी सत्य खोजते और स्वीकारते नहीं हैं, और वे जो कुछ भी करते हैं वह अपने दैहिक सुखों को उचित ठहराने और अपनी संभावनाओं की योजना बनाने के लिए होता है। वे सब परमेश्वर से अनुग्रह पाना चाहते हैं ताकि हर संभव लाभ उठा सकें। लोग परमेश्वर से इतनी सारी माँगें क्यों करते हैं? यह साबित करता है कि लोग अपनी प्रकृति से लालची हैं, और परमेश्वर के समक्ष उनमें कोई समझ नहीं है। लोग जो कुछ भी करते हैं—वे चाहे प्रार्थना कर रहे हों या संगति या प्रचार कर रहे हों—उनके अनुसरण, विचार और आकांक्षाएँ, ये सारी चीजें परमेश्वर से माँगें हैं और उससे चीजें पाने के प्रयास हैं, ये सब परमेश्वर से कुछ हासिल करने की उम्मीद से किए जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि ‘यह मानव प्रकृति है,’ जो सही है! इसके अलावा, परमेश्वर से लोगों का बहुत अधिक माँगें करना और बहुत अधिक असंयत लालसाएँ रखना यह साबित करता है कि सचमुच लोगों में अंतरात्मा और विवेक की कमी है। वे सब अपने लिए चीजों की माँग और आग्रह कर रहे हैं, या अपने लिए बहस करने और बहाने ढूंढ़ने की कोशिश कर रहे हैं—वे यह सब अपने लिए करते हैं। कई मामलों में देखा जा सकता है कि लोग जो कुछ करते हैं वह पूरी तरह समझ से रहित है, जो इस बात का पूर्ण प्रमाण है कि ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए’ वाला शैतानी तर्क पहले ही मनुष्य की प्रकृति बन चुका है। परमेश्वर से लोगों का बहुत अधिक माँगें करना किस समस्या को दर्शाता है? यह दर्शाता है कि लोगों को शैतान एक निश्चित बिंदु तक भ्रष्ट कर चुका है, और परमेश्वर में अपने विश्वास में वे उसे परमेश्वर बिल्कुल नहीं मानते हैं। कुछ लोग कहते हैं : ‘अगर हम परमेश्वर को परमेश्वर न मानते तो फिर हम उस पर विश्वास क्यों करते? अगर हम उसे परमेश्वर न मानते तो क्या हम अब तक उसका अनुसरण कर रहे होते? क्या हम यह तमाम कष्ट सह सकते थे?’ ऊपरी तौर पर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, और तुम उसका अनुसरण करने में सक्षम हो, फिर भी उसके प्रति अपने रवैये में, और कई चीजों को लेकर अपने विचारों में, तुम परमेश्वर को स्रष्टा की तरह बिल्कुल भी नहीं मानते हो। अगर तुम परमेश्वर को परमेश्वर मानते हो, अगर परमेश्वर को स्रष्टा मानते हो तो तुम्हें सृजित प्राणी के रूप में खड़ा होना चाहिए, और तुम्हारे लिए परमेश्वर से कोई भी माँग करना या कोई असंयत इच्छा पालना असंभव होगा। इसके बजाय, तुम मन से सच्चा समर्पण करने में सक्षम रहोगे और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार उसमें विश्वास कर उसके सभी कार्यों के प्रति समर्पण करने में पूरी तरह सक्षम रहोगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं)। जब मैंने परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन पढ़ा तो मैंने बीमार पड़ने के बाद अपने व्यवहार के बारे में सोचा। मेरी मनोदशा बिल्कुल वैसी ही थी जैसा परमेश्वर ने वर्णन किया था। मैं कई वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास करती थी, लेकिन मैंने अनुग्रह और पुरस्कार पाने के लिए अपने कर्तव्य करने की खातिर अपनी शादी, परिवार और नौकरी छोड़ दी थी। मेरा कर्तव्य करना, पीड़ा सहना और कीमत चुकाना भी मेरे अपने उद्धार और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश के लिए था। जब पहलेपहल मेरी टाँग में दर्द हुआ, मैंने इस उम्मीद में अपने कर्तव्य करने की पूरी कोशिश की कि इससे परमेश्वर मेरी बीमारी की रक्षा करेगा और उसे ठीक करेगा। जब मैं असहनीय दर्द से पीड़ित थी, मैंने परमेश्वर से अपना दर्द कम करने के लिए कहा। और जब मेरी हालत खराब हो गई और मुझे बार-बार मौत का सामना करना पड़ा तो मैंने पाया कि मैं परमेश्वर से लगातार माँग कर रही हूँ, कह रही हूँ कि वह मेरी कमजोरी पर विचार करे और मेरा दर्द दूर करे। जब परमेश्वर ने मेरी इच्छा के अनुसार काम नहीं किया तो मैंने परमेश्वर से शिकायत की और बहस की। मैंने खुद को परमेश्वर के विरोध की मनोदशा में पाया, मैं परमेश्वर के वचन खाना-पीना या प्रार्थना करना नहीं चाहती थी। मेरी तथाकथित वफादारी, त्याग और खपना सब अपने लिए थे, ताकि मुझे परमेश्वर के अनुग्रह और आशीष मिलें, महाविपत्ति में जीवित रहने, बचाए जाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने का अवसर मिले। मैं परमेश्वर के साथ सौदा करने की कोशिश कर रही थी और परमेश्वर को धोखा देने और उसका फायदा उठाने की कोशिश कर रही थी! मैंने अनुग्रह के युग से पौलुस के बारे में सोचा। भले ही उसने यूरोप के अधिकांश हिस्सों में प्रभु यीशु के सुसमाचार का प्रचार करने के लिए त्याग किए और खुद को खपाया, अंत में उसने कहा, “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)। पौलुस का खपना और बलिदान आशीष और ताज प्राप्त करने के मकसद से थे और वह अपने कर्तव्य करने के लिए एक सृजित प्राणी की स्थिति में नहीं खड़ा था। इसके बजाय वह परमेश्वर के साथ सौदा करने की कोशिश कर रहा था, पूरी तरह से परमेश्वर की अपेक्षाओं के खिलाफ जा रहा था। पौलुस ने परमेश्वर का विरोध करने का मार्ग अपनाया और आखिरकार उसे परमेश्वर द्वारा दंडित किया गया। क्या मेरा नजरिया कि मुझे क्या करना चाहिए और परमेश्वर में विश्वास करने के लिए मैं जिस मार्ग पर चल रही थी, वह पौलुस के समान ही नहीं था? परमेश्वर धार्मिक और पवित्र है और भले ही मैं कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करती रही हूँ, लेकिन आशीष पाने का मेरा इरादा नहीं बदला था। मेरे पास परमेश्वर के प्रति कोई ईमानदारी या प्रेम नहीं था और मेरा स्वभाव बिल्कुल भी नहीं बदला था। मैं किस तरह से आशीष पाने या परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के लायक थी? सब कुछ त्यागने से मुझे पूंजी नहीं मिलती और अपने कर्तव्य करने के लिए कष्ट सहना और खुद को खपाना ऐसी शर्त नहीं है जिसका मतलब हो कि मैं परमेश्वर के साथ सौदा करने की कोशिश कर सकती हूँ। ये वही हैं जो मुझे एक सृजित प्राणी के रूप में करना चाहिए। अगर मैंने आशीष पाने का अपना इरादा नहीं छोड़ा, ईमानदारी से सत्य का अनुसरण नहीं किया और अपने जीवन स्वभाव में परिवर्तन और परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण करने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया तो चाहे मैंने कितना भी त्याग किया हो और खुद को खपाया हो, भले ही मैंने खुद को थका दिया हो, मुझे परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिलेगी और अंत में मुझे परमेश्वर द्वारा घृणित और दंडित किया जाएगा।
तब से चाहे मेरे घावों में कितना भी दर्द हुआ हो, मैं इस स्थिति का अनुभव करने के लिए परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और निर्भर होने के लिए तैयार हो गई। जब बीमारी फिर से बिगड़ती तो मैं मन ही मन प्रार्थना करती और पहले की तरह परमेश्वर से अनुचित माँगें नहीं करती। इसके बजाय मैं अपने शरीर के खिलाफ विद्रोह करती और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करती। मैंने अपना अधिकांश समय परमेश्वर से प्रार्थना करने, उनके वचन खाने-पीने, भजन सीखने और अनुभवजन्य गवाही वीडियो देखने पर ध्यान देने में बिताया। एक महीने बाद मेरा शरीर धीरे-धीरे ठीक हो गया। जब मुझे छुट्टी मिली तो डॉक्टर ने कीमोथेरेपी का जिक्र ही नहीं किया। उसने बस इतना कहा कि मुझे हर तीन महीने में चेक-अप के लिए आना होगा।
एक दिन भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “क्या तुम्हें याद है कि पतरस ने क्या कहा था? (‘भले ही परमेश्वर मनुष्यों के साथ इस तरह खेलता हो, जैसे कि वे खिलौने हों, तो भी मनुष्यों को क्या शिकायत होगी?’) यह समर्पण के बारे में है। यदि तुम चीजें इस तरह से अनुभव करते हो, तो धीरे-धीरे तुम सत्य जान जाओगे और तुम्हें स्वाभाविक रूप से इसके परिणाम प्राप्त होंगे। सबसे पहले, तुम्हें परमेश्वर के प्रति समर्पण भावना और सत्य की जरूरत है। इस बात की चिंता मत करो कि परमेश्वर तुम्हारी ओर किस दृष्टि से देख रहा है, तुम्हारे बारे में उसका रवैया और उसकी आवाज का लहजा कैसा है, क्या वह तुमसे विमुख है, और क्या वह तुम्हारा खुलासा करने वाला है। शुरुआत स्वयं की कठिनाइयों और समस्याओं का समाधान करने से करो। क्या सामान्य लोग पतरस ने जो कहा उसे आसानी से पा सकते हैं? (आसानी से नहीं पा सकते।) उसके पास क्या अनुभव थे और उसके पास कौन-सी वास्तविकताएँ थीं जिनके कारण वह ऐसा कह पाया? (उसे पूर्ण विश्वास था कि परमेश्वर मनुष्य के साथ चाहे कैसा भी व्यवहार करे, यह मनुष्य को बचाने के लिए है और यह सिर्फ प्रेम है और कुछ नहीं। इसीलिए वह समर्पण करने के लिए खुश था।) पतरस ने कहा ‘भले ही परमेश्वर मनुष्यों के साथ इस तरह खेलता हो, जैसे कि वे खिलौने हों,’ और तुमने कहा, ‘चाहे परमेश्वर मनुष्य के साथ कैसा भी व्यवहार करे।’ तुम स्वयं को एक सृजित प्राणी, परमेश्वर का अनुयायी और परमेश्वर के घर का सदस्य मान रहे हो। तो क्या इन दोनों में कोई अंतर है? हाँ, अंतर है। एक असमानता है! खिलौने और मनुष्य में क्या असमानता है? खिलौना कुछ भी नहीं है—वह बेकार है, एक दुखी मनहूस चीज है। इसे तुम खिलौना कहो, या जानवर कहो—यह उस तरह की चीज है। लेकिन मनुष्य के बारे में क्या कहोगे? मनुष्य के पास विचार और मस्तिष्क होता है; वह बोलने और काम करने में सक्षम है, और वह सामान्य मानवीय गतिविधियाँ कर सकता है। क्या खिलौने की तुलना में, मनुष्य की कीमत और हैसियत में कोई अंतर होता है? ... यदि तुम्हें एक मनुष्य माना जाए, तो तुम किस प्रकार के व्यवहार की अपेक्षा करोगे? कि तुम्हारा सम्मान किया जाए, तुमसे परामर्श लिया जाए, तुम्हारी भावनाओं का सम्मान किया जाए, तुम्हें पर्याप्त स्थान और स्वतंत्रता दी जाए, और तुम्हारी गरिमा और प्रतिष्ठा का सम्मान किया जाए। मनुष्य के साथ ऐसा ही व्यवहार किया जाता है। लेकिन खिलौनों का क्या? (वे कुछ भी नहीं हैं। उन्हें लातें मारी जा सकती हैं।) (तुम जब चाहो उनका उपयोग कर सकते हो, और जब उनका उपयोग नहीं करना चाहो तो उन्हें फेंक सकते हो।) यह उचित बात है। खिलौनों के साथ व्यवहार के बारे में तुम लोगों का यही कहना है, तो तुम मनुष्य के साथ खिलौने जैसे व्यवहार का वर्णन कैसे करोगे? (जब तुम्हें उनकी जरूरत होती है तुम उनका उपयोग करते हो, और जब तुम्हें उनकी जरूरत नहीं होती है तो उन्हें अनदेखा कर देते हो।) तुम उनके साथ असम्मानजनक व्यवहार करते हो, और उनके अधिकारों की रक्षा करने की तुम्हें कोई जरूरत नहीं है। तुम उन्हें कोई अधिकार, स्वायत्तता या चुनने की स्वतंत्रता नहीं देते हो। उनसे परामर्श लेने, या उनका सम्मान करने, या ऐसी किसी और चीज की तुम्हें कोई जरूरत नहीं है। जब तुम्हें अच्छा लगे तो उनके साथ अच्छा व्यवहार कर सकते हो, लेकिन जब तुम्हें अच्छा न लगे तो तुम उन्हें लात मार सकते हो। खिलौने के प्रति ऐसा ही रवैया अपनाया जाता है। यदि परमेश्वर लोगों के साथ खिलौनों जैसा व्यवहार करे, तो उन्हें कैसा लगेगा? क्या उन्हें अब भी लगेगा कि परमेश्वर प्यारा है? (नहीं लगेगा।) लेकिन पतरस परमेश्वर की स्तुति करने में सक्षम था। उसके पास ऐसी कौन-सी सत्य वास्तविकताएँ थीं जिन्होंने उसे मृत्यु तक समर्पण हासिल करने दिया? परमेश्वर ने वास्तव में मनुष्य के साथ खिलौने जैसा व्यवहार नहीं किया। लेकिन जब पतरस की समझ इस स्तर तक पहुँची, तो उसने सोचा : ‘यदि परमेश्वर मेरे साथ ऐसा व्यवहार करे, तब भी मुझे उसके प्रति समर्पण करना चाहिए। अगर परमेश्वर मुझसे एक खिलौने जैसा बर्ताव करता, तो मैं तैयार और इच्छुक क्यों नहीं होता?’ पतरस ने यह तत्परता, यह इच्छुकता हासिल की। ‘तैयार और इच्छुक’ होने का यहाँ क्या तात्पर्य है? (स्वयं को परमेश्वर के आयोजनों के हवाले कर देना और पूरी तरह से उनके प्रति समर्पण करना।) यही समर्पण का सत्य है। क्या तुम्हें शैतान को सौंपना तुम्हारे साथ खिलौने जैसा व्यवहार करना नहीं होगा? जब तुम्हारी जरूरत नहीं होगी तो तुम्हें निकाल दिया जाएगा, शैतान को सौंप दिया जाएगा ताकि वह तुम्हें प्रलोभित कर मूर्ख बना सके। पतरस का रवैया क्या था? क्या उसे कोई शिकायत थी? क्या उसने परमेश्वर से शिकायत की? क्या उसने परमेश्वर को श्राप दिया? क्या वह शैतान के पास चला गया? (नहीं।) समर्पण इसे कहा जाता है। उसे कोई शिकायत नहीं थी, उसमें निराशा या प्रतिरोध का कोई प्रदर्शन नहीं किया। क्या उसके भ्रष्ट स्वभाव का समाधान नहीं हुआ? यह परमेश्वर के साथ पूर्ण सामंजस्य की स्थिति थी। बात यह नहीं थी कि वह परमेश्वर को धोखा देगा या नहीं। बात यह थी : ‘चाहे परमेश्वर मुझे कहीं भी रखे, मेरे दिल में परमेश्वर होगा; चाहे परमेश्वर मुझे कहीं भी रखे, मैं उसका ही रहूँगा। चाहे वह मुझे भस्म कर दे, फिर भी मैं परमेश्वर का ही रहूँगा। मैं कभी भी शैतान के पास नहीं जाऊँगा।’ वह समर्पण के इस स्तर तक पहुँचने में सक्षम था। ये कहना आसान है, लेकिन करना मुश्किल है। तुम्हें एक निश्चित समय तक सत्य से लैस रहना होगा जब तक तुम यह सब पूर्ण और स्पष्ट रूप से नहीं देख लेते, फिर सत्य अभ्यास में लाना बहुत आसान हो जाएगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति समर्पण सत्य प्राप्त करने में बुनियादी सबक है)। मैं परमेश्वर के इन वचनों पर चिंतन करती रही और आखिरकार मुझे समझ आया कि परमेश्वर ने पतरस के अनुभव को हमारे अनुसरण के लिए एक उदाहरण के रूप में क्यों इस्तेमाल किया। पतरस ने कहा, “भले ही परमेश्वर मनुष्यों के साथ इस तरह खेलता हो, जैसे कि वे खिलौने हों, तो भी मनुष्यों को क्या शिकायत होगी?” पतरस परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने में सक्षम था और यहाँ तक कि परीक्षणों और शोधनों के दौरान भी वह परमेश्वर के न्याय और ताड़ना में आनंद लेने में सक्षम था और उसका हृदय परमेश्वर का भय मानने वाला था। पतरस ने कहा कि भले ही परमेश्वर उसके साथ खिलौने की तरह व्यवहार करे, उसे कोई शिकायत नहीं होगी। पतरस अपने उचित स्थान पर खड़ा था, उसकी परमेश्वर के साथ सौदा या माँग करने की कोई इच्छा नहीं थी और उसने सिर्फ समर्पण किया और चाहे परमेश्वर कुछ भी करे, उसने परमेश्वर को सारी योजना बनाने दी। आखिरकार पतरस को परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाया गया। मैंने सोचा कि जब मैं बीमारी से पीड़ित थी, तब मैं अपने उचित स्थान पर कैसे खड़ी नहीं थी और कैसे मैंने सिर्फ अपनी देह के लिए शांति की तलाश की। जब परमेश्वर ने मेरी माँगें पूरी नहीं कीं, मेरा शरीर कष्ट में था और आशीष की मेरी इच्छा चूर-चूर हो गई, मैंने परमेश्वर से बहस करने और प्रतिस्पर्धा करने की कोशिश की और मैंने यह सब खत्म करने के बारे में भी सोचा। पतरस की तुलना में मेरे पास कोई मानवता या विवेक कैसे था? मैं परमेश्वर के सामने जीने के लिए पूरी तरह से अयोग्य थी! मनुष्य का सृजन परमेश्वर ने किया है और परमेश्वर मेरे साथ जो कुछ भी करता है वह उचित है। परमेश्वर के कार्यों के पीछे के इरादे मेरी समझ से परे हैं। मनुष्य के नजरिए से अनुग्रह और शारीरिक शांति अच्छी चीजें लगती हैं। लेकिन असल में किसी का भ्रष्ट स्वभाव सुलझाने के लिए और भी अधिक न्याय, ताड़ना, पीड़ा और शोधन की जरूरत होती है। जैसे जब यह बीमारी मुझ पर आई, भले ही यह मेरी धारणाओं के अनुरूप नहीं थी, लेकिन यह वाकई मेरे जीवन के लिए फायदेमंद थी और यह मेरे भ्रष्ट स्वभाव को सुलझाने में और भी अधिक फायदेमंद थी। यह परमेश्वर का मुझ पर विशेष आशीष था। उस पल मुझे लगा कि मेरे दिल में एक लक्ष्य है जिसे मैं हासिल करना चाहती हूँ। मैं पतरस के उदाहरण का अनुसरण करना चाहती थी और चाहे कैंसर कैसे भी विकसित हो या मैं मर जाऊँ, मैं एक सृजित प्राणी के रूप में अपने सही स्थान पर बनी रहने, परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने के लिए तैयार थी।
बाद में मेरा शरीर धीरे-धीरे ठीक होने लगा और मैं छड़ी के सहारे चलने लगी और मैंने एक टाँग पर चलना सीख लिया। तीन महीने बाद मैं अस्पताल में जाँच के लिए गई और डॉक्टर ने कहा कि मैं काफी ठीक हो गई हूँ और चूँकि कैंसर फिर से नहीं हुआ है, इसलिए मुझे कीमोथेरेपी की जरूरत नहीं है। मार्च 2023 में मैं अनुवर्ती जाँच के लिए अपने गृहनगर लौट आई। जब डॉक्टर ने जाँच के परिणाम देखे तो वह आश्चर्यचकित हो गया और उसने कहा, “इस प्रकार के हड्डी के कैंसर के लिए 99% रोगियों को कीमोथेरेपी की आवश्यकता होती है, लेकिन न सिर्फ तुम्हें कीमोथेरेपी या रेडियोथेरेपी की जरूरत नहीं है, बल्कि कैंसर भी फिर से नहीं हुआ है। यह वाकई एक चमत्कार है!” डॉक्टर को यह कहते सुनकर मैंने मन ही मन परमेश्वर को धन्यवाद दिया और अपने हृदय में उसकी स्तुति की। बाद में मैं कलीसिया में अपने कर्तव्य फिर से करने लगी। हालाँकि लंबे समय तक बैठने से मेरी टाँग अभी भी सुन्न हो जाती है और मेरे कूल्हे की हड्डियों में दर्द होता है, लेकिन अब मैं इसके कारण बेबस नहीं होती या परमेश्वर से माँगें नहीं करती। इसके बजाय मैं बहुत आभारी हूँ और अपने कर्तव्य करने के अवसर सँजोती हूँ। जब मैंने आशीष पाने का इरादा छोड़ दिया, समर्पण किया और अपने कर्तव्यों को पूरा किया तो मुझे अपने दिल में बहुत सुकून मिला।