31. एक स्कूल प्रिंसिपल की पसंद
मेरा जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था और मेरे माता-पिता किसान थे। चूँकि मेरा परिवार गरीब था दूसरे लोग हमारे साथ भेदभाव करते थे और हमें नीची नजर से देखते थे, इसलिए बचपन से ही मुझमें हीनभावना थी। मेरे माता-पिता अक्सर मुझे कड़ी मेहनत से पढ़ाई करने को कहते थे ताकि मैं भविष्य में सफल हो सकूँ और मैं भी उन्हीं की तरह जमीन के एक छोटे से टुकड़े की देखभाल में ही अपने दिन न बिता दूँ। मैंने कुछ बनने के लिए संघर्ष करने का संकल्प लिया ताकि अलग दिखूँ और एक बेहतर जीवन जिऊँ।
जून 2012 में स्नातक होने के बाद मैं टीचर बन गई, लेकिन मेरी प्रबल प्रतिस्पर्धी भावना ने मुझे मेरे जीवन से असंतुष्ट बनाकर रखा। एक बैठक के दौरान मैंने प्रिंसिपल लियू को मंच पर प्रभावशाली ढंग से बोलते देखा। मैंने पलटकर देखा कि कई टीचर प्रिंसिपल लियू की ओर ईर्ष्या और प्रशंसा भरी नजरों से देख रहे हैं। मैंने सोचा, “काश ऐसा होता कि मैं भी मंच पर खड़ी होकर बोल रही होती! लेकिन फिलहाल तो मैं भी बाकियों की तरह एक साधारण टीचर हूँ, इसलिए मुझे कड़ी मेहनत करनी होगी और अपने शिक्षण में और अधिक प्रयास करना होगा। इस तरह देर-सवेर मैं भी प्रिंसिपल के रूप में अपनी जगह बना ही लूँगी।” आने वाले दिनों में मैंने अथक परिश्रम किया, यहाँ तक कि मैं अपने अवकाश के समय को पाठ योजना बनाने और शिक्षण सामग्री का अध्ययन करने में लगाने लगी और अगर मेरी कक्षा में किसी छात्र को विषय समझने में कठिनाई हो रही होती तो मैं अपने लंच ब्रेक का त्याग कर देती और उसे देर रात तक जागकर तब तक पढ़ाती जब तक वह समझ न जाता। मैं दिन-रात काम कर रही थी, हर दिन इतनी थक जाती थी कि मेरी पीठ और कमर में दर्द होने लगता था। जब मैं घर पहुँचती तो थककर चूर हो जाती थी और बिस्तर पर पड़ जाती थी। मैं वास्तव में काम से थोड़ा अवकाश लेना चाहती थी, लेकिन जब प्रिंसिपल लियू के मंच से दिए प्रभावशाली भाषण और टीचरों की ईर्ष्या और प्रशंसा भरी नजरों का ख्याल आता तो मैं यह सोचकर खुद को प्रेरित करती, “मैं बाद में बेहतर जीवन का आनंद लेने और दूसरों की प्रशंसा पाने के लिए अभी कष्ट उठा रही हूँ। उसके लिए यह सारा कष्ट सार्थक सिद्ध होगा!” इसलिए मैंने “शैक्षणिक मनोविज्ञान” की अपनी प्रति ली और अध्ययन शुरू कर दिया। मेरे प्रयासों से मेरे शिक्षण नतीजे बेहतरीन आए। मात्र तीन वर्षों में मैं एक साधारण टीचर से शिक्षण अनुसंधान समूह की प्रमुख, तकनीकी निदेशक, डिप्टी प्रिंसिपल और आखिरकार प्रिंसिपल बन गई। मैं बहुत खुश थी! तीस साल की उम्र से पहले ही मैं लीडरशिप के पद पर थी। अध्यापक और अभिभावक मेरे साथ बहुत सम्मान से पेश आते, रिश्तेदार, पड़ोसी और सहपाठी सभी मेरी ओर ईर्ष्या और प्रशंसा की दृष्टि से देखते और मेरे माता-पिता मेरे कारण अपना सिर ऊँचा करके चलते। मुझे सचमुच गर्व महसूस होता और मेरा अहंकार भी संतुष्ट होता। पदोन्नति के बाद मेरा वेतन भी बढ़ गया, इसके साथ ही मेरी धन-सम्पत्ति में भी सुधार हुआ। मैंने कई ऐसी विलासितापूर्ण चीजें खरीदीं जो बचपन में मेरी पहुँच से बाहर थीं। मैंने आखिरकार अपने बचपन की इच्छा पूरी कर ली थी और एक ऐसा जीवन जी रही थी जिसमें सम्मान था। मुझे लगा कि मेरे सारे प्रयास और कड़ी मेहनत सफल हो गई है।
लेकिन बाद में जीवन उतना अद्भुत नहीं निकला जितना मैंने सोचा था। प्रिंसिपल बनने के बाद, हालाँकि ऐसा लगा कि मुझे प्रतिष्ठा और प्रशंसा प्राप्त हुई है, लेकिन इस पद के कारण मुझे लगातार परेशानी और थकान भी महसूस होती थी। बतौर प्रिंसिपल मेरे लिए कार्य-संबंधी यात्राएँ करना और सामाजिक कार्यक्रम में भाग लेना आम बात हो गई थी, अपने वरिष्ठों का सम्मान हासिल करने और अपना पद बनाए रखने के लिए मैंने धीरे-धीरे शराब पीना और दूसरों की चापलूसी करना भी सीख लिया था। एक बार शिक्षा ब्यूरो के एक लीडर ने मुझसे कहा, “प्रिंसिपल शाओ को देखो, वह जानती है कि खुद का इस्तेमाल करके ज्यादा से ज्यादा फायदा कैसे उठाना है। जवानी एक जरिया है, लेकिन जानती हो इसका ज्यादा से ज्यादा फायदा कैसे उठाना है? महिलाओं को आगे बढ़ने और लंबे समय तक टिके रहने के लिए अपनी जवानी को हथियार बनाना होता है।” मैं जानती थी कि प्रिंसिपल शाओ सरकारी अधिकारियों की रखैल बनकर शिक्षा ब्यूरो में शिक्षा समूह के प्रमुख के पद पर पहुँचने में सफल रही थी। मुझे ऐसे हथकंडों से चिढ़ थी। जब भी मैं उन डिनर पार्टियों के बारे में सोचती जहाँ मुझे शराब पीनी पड़ती थी और अपने वरिष्ठों की गंदी बातें सुननी पड़ती थी, मुझे बेहद घृणा होती थी और कई बार तो वहाँ से भाग जाने का मन करता था, लेकिन प्रिंसिपल के रूप में अपने पद की खातिर मैं अनुपालन करने के अलावा कुछ न कर पाती थी। स्कूल चेयरमैन भी अक्सर मुझे सामाजिक कार्यक्रमों के लिए बाहर ले जाते थे, मुझे शिक्षा क्षेत्र की प्रमुख हस्तियों से मिलवाते, देखने में तो इनका मकसद पेशेवर मेल-जोल होता, लेकिन वास्तव में इनका मकसद मुझे अपनी रखैल बनाना और जिस्म-फरोशी करना होता था। मुझे बहुत घृणा होती। जब कभी वे मुझसे संपर्क करते, मैं उन्हें टाल जाती। लेकिन चूँकि मैं उनकी इच्छा के अनुरूप नहीं चल रही थी, इसलिए चेयरमैन मुझसे बेहद असंतुष्ट था और कभी-कभी तो कार्य को लेकर मुझे निशाना बनाता। हालाँकि मेरी कार्य रिपोर्ट बहुत अच्छी तरह से तैयार की गई होती थीं और मेरी कार्य-योजनाएँ अच्छी तरह से संरचित होती थीं, फिर भी वह हमेशा मुझमें गलतियाँ ढूँढ़ता रहता जिससे मैं अवाक रह जाती। एक बार मैंने देखा कि मेरे वरिष्ठ का फोन मेरी तस्वीरों से भरा पड़ा है, मैं बयाँ नहीं कर सकती कि मुझमें अचानक कितना खौफ पैदा हो गया और मैंने सोचा, “इनका अगला शिकार क्या मैं बनने वाली हूँ?” मैं भयभीत हो गई। मैं हर दिन बहुत थका हुआ महसूस करती थी, सभी सामाजिक कार्यक्रमों और कार्य-संबंधी यात्राओं से थककर चूर हो जाती थी और लगातार चिंतित रहती कि वरिष्ठ कहीं मेरा फायदा न उठा लें। मुझे ऐसा लगता था जैसे मैं हर दिन खतरे में हूँ, इतनी पीड़ा में हूँ मानो मैं तलवार की धार पर चल रही हूँ। मुझे डर रहता था कि मैं अपने वरिष्ठ की माँगों को पूरा करने के लिए पर्याप्त मेहनत नहीं कर रही हूँ और प्रिंसिपल के रूप में मेरा पद खतरे में पड़ जाएगा। इसलिए मैं अपने कार्य को और भी पूर्णता देने के लिए ज्यादा मेहनत कड़ी करती ताकि वरिष्ठ को मेरे कार्य में कोई दोष न मिले। इसे हासिल करने के लिए मैं दिन-रात कार्य में लगी रहती, कभी-कभी तो पूरे दिन में एक गिलास पानी पीने तक का समय नहीं मिलता था। मुझे अक्सर चक्कर आ जाते और मुझे थकान महसूस होती थी और समय के साथ मेरा गला सूखने लगा और गले में खुजली होने लगी, कभी-कभी तो मुझे इतनी बुरी खाँसी आती कि खाँसी में खून भी आ जाता। फिर भी मेरे विचार इसी बात पर केंद्रित रहते कि प्रिंसिपल के रूप में अपना पद कैसे बनाए रखूँ। दिन-ब-दिन, साल-दर-साल, मेरे अंदर हर दिन दबाव बढ़ता गया और कुछ समय के लिए मैं अनिद्रा की शिकार हो गई। मुझे लगा कि मैं अवसाद के कगार पर हूँ। मेरी सास ने मेरी ऐसी हालत देखकर मुझे सलाह दी कि प्रिंसिपल के पद से इस्तीफा देकर मैं कोई दूसरी नौकरी ढूँढ़ लूँ। उसने मुझे सुसमाचार भी सुनाया और परमेश्वर के वचनों का एक अंश ढूँढ़कर मुझे पढ़ने को दिया। परमेश्वर कहता है : “मनुष्य का भाग्य परमेश्वर के हाथों से नियंत्रित होता है। तुम स्वयं को नियंत्रित करने में असमर्थ हो : हमेशा अपनी ओर से भाग-दौड़ करते रहने और व्यस्त रहने के बावजूद मनुष्य स्वयं को नियंत्रित करने में अक्षम रहता है। यदि तुम अपने भविष्य की संभावनाओं को जान सकते, यदि तुम अपने भाग्य को नियंत्रित कर सकते, तो क्या तुम तब भी एक सृजित प्राणी होते?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के सामान्य जीवन को बहाल करना और उसे एक अद्भुत मंजिल पर ले जाना)। जब मैंने “नियति” शब्द पढ़ा तो मैंने अपने बारे में सोचा : मैं अपने जीवनसाथी के रूप में एक ऐसा व्यक्ति चाहती थी जो रोमांस और भावनाओं को समझता हो, लेकिन जो व्यक्ति मेरे साथ विवाह मंडप में बैठा वह ऐसा व्यक्ति था जो लचीलेपन या रोमांस के विचारों को नहीं समझता था, ऐसा व्यक्ति था जिसमें कल्पना और रचनात्मकता का अभाव था। बचपन से ही मैं अपने प्रयासों से दूसरों की प्रशंसा पाना चाहती थी, यह मानकर चलती थी कि इससे मुझे खुशी मिलेगी। लेकिन प्रिंसिपल बनने के बाद मैंने देखा कि मैं खुश नहीं हूँ, बल्कि पहले से भी ज्यादा दुखी हूँ। एक समय तो मैं अवसाद में ही चली गई थी। तब मुझे एहसास हुआ कि किसी व्यक्ति की नियति एक ऐसी चीज है जिस पर उसका नियंत्रण नहीं हो सकता।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “सर्वशक्तिमान ने बुरी तरह से पीड़ित इन लोगों पर दया की है; साथ ही, वह उन लोगों से विमुख महसूस करता है जिनमें जरा-सा भी चेतना नहीं है, क्योंकि उसे लोगों से जवाब पाने के लिए बहुत लंबा इंतजार करना पड़ा है। वह खोजना चाहता है, तुम्हारे दिल और तुम्हारी आत्मा को खोजना चाहता है, तुम्हें पानी और भोजन देना चाहता है, ताकि तुम जाग जाओ और अब तुम भूखे या प्यासे न रहो। जब तुम थक जाओ और तुम्हें इस दुनिया के बेरंगपन का कुछ-कुछ एहसास होने लगे, तो तुम दिशाहीन मत होना, रोना मत। सर्वशक्तिमान परमेश्वर, प्रहरी, किसी भी समय तुम्हारे आगमन को गले लगा लेगा” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सर्वशक्तिमान की आह)। परमेश्वर के वचनों के इस अंश को पढ़कर मैं बहुत प्रभावित हुई। मुझे लगा कि परमेश्वर लोगों को बहुत अच्छी तरह समझता है और मैं मानवता के प्रति उसका प्रेम देख सकती हूँ। मुझे अपना पिछला वक्त याद आया कि कैसे मैंने प्रिंसिपल बनने के लिए दिन-रात मेहनत की थी, कैसे मैं अक्सर कार्य के लिए यात्राएँ करती थी और सामाजिक कार्यक्रमों में शामिल होती थी, अपने वरिष्ठों की चापलूसी और खुशामद करने की कोशिश करती थी। मैं हर दिन भारी मानसिक दबाव में रहती थी। कोई ऐसा नहीं था जिस पर मैं भरोसा कर सकूँ, न ही मेरी बेचैन आत्मा के लिए कोई सुरक्षित आश्रय था। मैं अपनी माँ से बात करती तो वह मुझे यही सलाह देती, “तुम्हें कड़ी मेहनत करके यह जानना होगा कि अपने वरिष्ठों के सामने चीजों को कैसे संभालना है। अगर तुम्हारी नौकरी चली गई तो पड़ोसी हमें नीची नजर से देखेंगे।” मैंने अपने पति से बात की तो उसने मुझे समझाते हुए कहा, “थोड़े समय बाद सब ठीक हो जाएगा।” लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, मैं टूटने के कगार पर पहुँचती गई। कौन था जो मेरी भावनाओं को समझ पाता? परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि केवल परमेश्वर ही लोगों को सचमुच समझता है, वही मेरी असहनीय कड़वाहट को महसूस कर सकता है, जैसा कि उसने मुझसे कहा कि रोना मत या भ्रमित महसूस मत करना और वह मेरे आगमन को स्वीकारेगा। मुझे लगा कि केवल परमेश्वर ही सच में मेरे दिल को जानता है और मैं उसके साथ सब कुछ साझा कर सकती हूँ, मेरी आत्मा को बड़ी शांति मिली। मैं परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य की जाँच करना चाहती थी, लेकिन जब मैंने सोचा कि मैं कार्य में कितनी व्यस्त रहती हूँ तो मुझे लगा कि मेरे पास समय ही कहाँ है। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर अपने विचार उसे बताने की कोशिश की, “हे परमेश्वर! मैं ऐसी जिंदगी नहीं जीना चाहती, यह बहुत थका देने वाली है। मेरे लिए कोई मार्ग खोलो!” उसी समय मेरी बड़ी बहन का फोन आया और मुझे एक किंडरगार्टन में काम करने के लिए पूछा। पूरे प्रांत में वही एकमात्र सार्वजनिक किंडरगार्टन था, उसी स्कूल में सबसे अच्छी शैक्षिक सुविधाएँ और शिक्षण स्थितियाँ थीं। हालाँकि मैं जाना चाहती थी, लेकिन प्रिंसिपल का पद पाने के लिए मैंने कई त्याग किए थे, इसलिए मुझे लगा कि अब मेरे लिए यह सब छोड़ पाना कठिन होगा। मगर जब मैंने अपने वरिष्ठ के मेरे प्रति किये गये अनैतिक कारनामों के बारे में सोचा तो मुझे घृणा हुई। इसलिए मैंने यह सोचकर किंडरगार्टन में जाने पर विचार किया कि शायद मेरे प्रयासों से मेरे नए वरिष्ठ आखिरकार मुझे किंडरगार्टन के प्रमुख के रूप में पदोन्नत कर देंगे और मैं अपना रुतबा फिर से हासिल कर लूँगी। इस तरह मैं परमेश्वर के कार्य की जाँच और लोगों का सम्मान भी अर्जित कर सकती थी। मैं एक तीर से दो निशाने लगा सकती थी!
जुलाई 2019 में मैं प्रिंसिपल के पद से इस्तीफा देकर किंडरगार्टन में चली गई। लेकिन प्रारंभिक बाल्यावस्था शिक्षा के क्षेत्र में काम करना उतना सरल और आसान नहीं था जितना मैंने सोचा था, मुझे बुनियादी शिक्षण कौशल के लिए अक्सर विभिन्न प्रशिक्षण और प्रतियोगिताओं से गुजरना पड़ता था, इसलिए मैं हर दिन व्यस्त रहती थी। विशेष रूप से जब मैं देखती कि मेरे वरिष्ठ उत्कृष्ट शिक्षकों को प्रशंसा भरी नजरों से देखते हैं तो मुझे ईर्ष्या होती और मैं अनजाने में ही दूसरों का सम्मान पाने की कोशिश में लग जाती। मैंने दीवानों की तरह पियानो सीखना, नृत्य का अभ्यास करना और विभिन्न कार्यक्रमों की व्यवस्था करना शुरू कर दिया। मेरे पास बिल्कुल भी खाली समय नहीं बचता था और परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य की खोज करने का मेरा इरादा मेरी व्यस्त कार्य-सूची के कारण पीछे छूटता चला गया। बाद में कड़ी मेहनत करके मैंने जल्दी ही किंडरगार्टन में खुद को स्थापित कर लिया और मेरे वरिष्ठ मुझे बहुत महत्व देने लगे। लेकिन उच्च सम्मान प्राप्त होने से मुझे परेशानी भी होने लगी। कभी-कभी मेरे वरिष्ठ अपने लिए मुझसे कुछ वाद-विवाद भाषण और प्रस्तुति स्क्रिप्ट भी लिखवाने लगे, लेकिन चूँकि दिन में मुझे अपने छात्रों को पढ़ाना होता था, इसलिए ड्राफ्ट जल्दी तैयार करने के लिए मुझे रात में ओवरटाइम काम करना पड़ता था। मेरे पास हर दिन समय की बहुत तंगी रहती थी। मेरे सहककर्मी मेरे सामने तो मुस्कुराते, लेकिन पीठ पीछे खंजर छिपाए रहते थे क्योंकि वे रुतबे के लिए भयंकर प्रतिस्पर्धा कर रहे होते थे। इस स्थिति में फँसकर मुझे लगने लगा जैसे मैं फिर से अपनी पिछली जिंदगी में लौट आई हूँ। मैं हर समय थकी-थकी सी और काफी दबाव में रहने लगी, हर दिन ऐसा लगता जैसे मेरा सिर अभी फट जाएगा। मुझे अपने स्तनों में भी तेज दर्द महसूस होता मानो सुइयाँ चुभोई जा रही हों। मैं पूरी तरह असहाय महसूस करती और मेरे दिल में खालीपन था। अक्टूबर माह में एक दिन स्कूल ने स्वास्थ्य-जाँच का आयोजन किया। जब डॉक्टर ने मेरी जाँच की तो वह गंभीरता से बोला, “आपके स्तनों में कई समस्याएँ हैं।” मैंने पूछा, “क्या मुझे कैंसर है?” डॉक्टर ने बताया, “यह अभी निश्चित नहीं है, लेकिन आपको यथाशीघ्र सुई बायोप्सी करवा लेनी चाहिए क्योंकि शीघ्र पता लगने का मतलब है शीघ्र उपचार।” मुझे ऐसा लगा जैसे दुनिया में अंधेरा छा गया है, मैंने खुद से पूछा, “क्या मुझे सचमुच कैंसर हो सकता है?” मुझमें भयंकर बेबसी की भावना घर कर गई और मैं जमीन पर गिर पड़ी। इसके बाद मैं निदान के लिए प्रांतीय अस्पताल गई। डॉक्टर ने बताया कि यह स्तन का हाइपरप्लेसिया, सिस्ट और कई गाँठें हैं। उसने मुझे नियमित रूप से निगरानी करने और हर तीन से छह महीने में जाँच कराने की सलाह दी। लेकिन उसने भी कहा कि अगर गाँठें बढ़ीं तो शायद मुझे सर्जरी की जरूरत पड़ेगी। रिपोर्ट से पता चला कि इस समय गाँठें तीसरे चरण में हैं। डॉक्टर ने कहा कि अगर गाँठें चौथे चरण में पहुँच गईं तो यह कैंसर बन सकता है। मैं जितना अधिक इसके बारे में सोचती उतनी अधिक भयभीत होती। मैं यह समझ नहीं पा रही थी कि मुझ जैसी तीस वर्षीय महिला को इतनी गंभीर बीमारी कैसे हो सकती है। मुझे लगा जैसे आसमान टूट पड़ेगा। पूरा शरीर भारी-भारी सा लग रहा था, मैं किसी तरह घर पहुँची और दरवाजा बंद करके बिस्तर पर लेट गई। मेरे गाल आँसुओं से भीग गए थे, मैं लगातार खुद से पूछती रही, “मैं पिछले कुछ वर्षों से इतनी मेहनत क्यों कर रही हूँ? क्या मैंने सचमुच दूसरों की प्रशंसा पाने के लिए अपनी सेहत का बलिदान कर दिया है? दूसरों की प्रशंसा से मुझे वास्तव में क्या लाभ हुआ है? लोगों की प्रशंसा पाने के बाद भी मैं इतनी पीड़ा में क्यों जी रही हूँ? मैं एक सार्थक और मूल्यवान जीवन कैसे जी सकती हूँ?”
एक दिन जब मैं पीड़ा और उलझन में थी तो भाई-बहन मुझे एक सभा में आमंत्रित करने आए और मैंने कलीसिया जीवन में भाग लेना शुरू कर दिया। मैंने भाई-बहनों को सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के सिंचन और आपूर्ति के तहत सत्य का अनुसरण करते और स्वभाव में बदलाव खोजते देखा, मैंने देखा कि वे एक दूसरे से प्रेम और एक दूसरे को सहारा देते हैं, वे प्रसिद्धि या लाभ के लिए प्रतिस्पर्धा नहीं करते या एक दूसरे के विरुद्ध षड्यंत्र नहीं रचते। यह मेरे कार्य और सामाजिक गतिविधियों में देखी गई स्थिति से बिल्कुल विपरीत था। मैं परमेश्वर के वचनों की ओर खिंचने लगी, मैंने सभाओं में सक्रिय रूप से भाग लेना और कलीसियाई जीवन जीना शुरू कर दिया। अपनी एक भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “वास्तव में, मनुष्य के आदर्श चाहे कितने भी ऊँचे क्यों न हों, उसकी इच्छाएँ चाहे कितनी भी यथार्थपरक क्यों न हों या वे कितनी भी उचित क्यों न हों, वह सब जो मनुष्य हासिल करना चाहता है और खोजता है, वह अटूट रूप से दो शब्दों से जुड़ा है। ये दो शब्द हर व्यक्ति के जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, और ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें शैतान मनुष्य के भीतर बैठाना चाहता है। वे दो शब्द कौन-से हैं? वे हैं ‘प्रसिद्धि’ और ‘लाभ।’ शैतान एक बहुत ही सौम्य तरीका चुनता है, एक ऐसा तरीका जो मनुष्य की धारणाओं के बहुत ही अनुरूप है और जो बहुत आक्रामक नहीं है, ताकि वह लोगों से अनजाने में ही जीवित रहने के अपने साधन और नियम स्वीकार करवा ले, जीवन लक्ष्य और जीवन की दिशाएँ विकसित करवा ले और जीवन की आकांक्षाएँ रखवाने लगे। लोग अपने जीवन की आकांक्षाओं के बारे में चर्चा करने के लिए जिन शब्दों का इस्तेमाल करते हैं वे चाहे कितने ही आडंबरपूर्ण क्यों न लगते हों, ये आकांक्षाएँ ‘प्रसिद्धि’ और ‘लाभ’ से अटूट रूप से जुड़ी होती हैं। कोई भी महान या प्रसिद्ध व्यक्ति—या वास्तव में कोई भी व्यक्ति—जीवन भर जिन सारी चीजों का पीछा करता है वे केवल इन दो शब्दों से जुड़ी होती हैं : ‘प्रसिद्धि’ और ‘लाभ’। लोग सोचते हैं कि एक बार उनके पास प्रसिद्धि और लाभ आ जाए तो उनके पास वह पूँजी होती है जिसका इस्तेमाल वे ऊँचे रुतबे और अपार धन-संपत्ति का आनंद लेने के लिए कर सकते हैं और जीवन का आनंद लेने के लिए कर सकते हैं। उन्हें लगता है कि एक बार उनके पास प्रसिद्धि और लाभ आ जाए तो उनके पास वह पूँजी होती है जिसका इस्तेमाल वे सुख खोजने और देह के उच्छृंखल आनंद में लिप्त रहने के लिए कर सकते हैं। लोग जिस प्रसिद्धि और लाभ की कामना करते हैं उनकी खातिर वे स्वेच्छा से, यद्यपि अनजाने में, अपने शरीर, दिल और यहाँ तक कि अपनी संभावनाओं और नियतियों समेत वह सब जो उनके पास है, शैतान को सौंप देते हैं। वे ऐसा बिना किसी हिचकिचाहट के, बिना एक पल के संदेह के करते हैं और बिना कभी यह जाने करते हैं कि वे वह सब कुछ वापस पा सकते हैं जो कभी उनके पास था। लोग जब इस प्रकार खुद को शैतान को सौंप देते हैं और उसके प्रति वफादार हो जाते हैं तो क्या वे खुद पर कोई नियंत्रण बनाए रख सकते हैं? कदापि नहीं। वे पूरी तरह से और बुरी तरह शैतान से नियंत्रित होते हैं। वे पूरी तरह से और सर्वथा दलदल में धँस जाते हैं और अपने आप को मुक्त कराने में असमर्थ रहते हैं। जब कोई प्रसिद्धि और लाभ की दलदल में फँस जाता है तो फिर वह कभी उसे नहीं खोजता जो उजला है, जो न्यायोचित है या वे चीजें नहीं खोजता जो खूबसूरत और अच्छी हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि लोगों के लिए प्रसिद्धि और लाभ का प्रलोभन बहुत बड़ा होता है; ये ऐसी चीजें हैं जिनका अनुसरण लोग अंतहीन ढंग से अपने पूरे जीवन भर और यहाँ तक कि अनंत काल तक कर सकते हैं। क्या यह असली स्थिति नहीं है?” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। “शैतान मनुष्य के विचारों को नियंत्रित करने के लिए प्रसिद्धि और लाभ का तब तक उपयोग करता है, जब तक सभी लोग प्रसिद्धि और लाभ के बारे में ही नहीं सोचने लगते। वे प्रसिद्धि और लाभ के लिए संघर्ष करते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए कष्ट उठाते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए अपमान सहते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर देते हैं, और प्रसिद्धि और लाभ के लिए कोई भी फैसला या निर्णय ले लेते हैं। इस तरह शैतान लोगों को अदृश्य बेड़ियों से बाँध देता है और इन बेड़ियों को पहने रहते हुए, उनमें उन्हें उतार फेंकने का न तो सामर्थ्य होता है, न साहस। वे अनजाने ही ये बेड़ियाँ ढोते हैं और बड़ी कठिनाई से पैर घसीटते हुए आगे बढ़ते हैं। इस प्रसिद्धि और लाभ के लिए मानवजाति परमेश्वर से दूर हो जाती है, उसके साथ विश्वासघात करती है और अधिकाधिक दुष्ट होती जाती है। इसलिए, इस प्रकार एक के बाद एक पीढ़ी शैतान की प्रसिद्धि और लाभ के बीच नष्ट होती जाती है। अब, शैतान की करतूतें देखते हुए, क्या उसके भयानक इरादे एकदम घिनौने नहीं हैं? हो सकता है, आज शायद तुम लोग शैतान के भयानक इरादों की असलियत न देख पाओ, क्योंकि तुम लोगों को लगता है कि व्यक्ति प्रसिद्धि और लाभ के बिना नहीं जी सकता। तुम लोगों को लगता है कि अगर लोग प्रसिद्धि और लाभ पीछे छोड़ देंगे, तो वे आगे का मार्ग नहीं देख पाएँगे, अपना लक्ष्य देखने में समर्थ नहीं हो पाएँगे, उनका भविष्य अंधकारमय, धुँधला और विषादपूर्ण हो जाएगा। परंतु, धीरे-धीरे तुम लोग समझ जाओगे कि प्रसिद्धि और लाभ वे विशाल बेड़ियाँ हैं, जिनका उपयोग शैतान मनुष्य को बाँधने के लिए करता है। जब वह दिन आएगा, तुम पूरी तरह से शैतान के नियंत्रण का विरोध करोगे और उन बेड़ियों का विरोध करोगे, जिनका उपयोग शैतान तुम्हें बाँधने के लिए करता है। जब वह समय आएगा कि तुम वे सभी चीजें निकाल फेंकना चाहोगे, जिन्हें शैतान ने तुम्हारे भीतर डाला है, तब तुम शैतान से अपने आपको पूरी तरह से अलग कर लोगे और उस सबसे सच में घृणा करोगे, जो शैतान तुम्हारे लिए लाया है। तभी मानवजाति को परमेश्वर के प्रति सच्चा प्रेम और तड़प होगी” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मुझे शैतान की दुर्भावनापूर्ण मंशाओं का एहसास हुआ। शैतान प्रसिद्धि और लाभ को चारे के रूप में इस्तेमाल करता है ताकि लोगों को धीरे-धीरे प्रसिद्धि और लाभ के भँवर में फँसाया जा सके और जब लोग इन चीजों के लिए कष्ट उठाते और संघर्ष करते हैं तो वे दुष्ट, धोखेबाज और अस्थिर बुद्धि के हो जाते हैं, फिर एक सामान्य व्यक्ति के समान नहीं रहते और आखिरकार अनैतिकता की खाई में जा गिरते हैं। मैंने आत्मचिंतन किया तो मुझे एहसास हुआ कि बचपन से ही मेरे अंदर “भीड़ से ऊपर उठो और श्रेष्ठ बनो,” और “अपने पूर्वजों का नाम करो,” और अन्य शैतानी जहर जैसे “आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है” विचार भर दिए गए थे। मेरा मानना था कि व्यक्ति को जीवित रहते हुए प्रसिद्धि और लाभ के पीछे भागना चाहिए, केवल रुतबा हासिल करके और अलग दिखकर ही कोई व्यक्ति मूल्यवान और गरिमामय जीवन जी सकता है। मैं इन शैतानी जहर को अंतर्दृष्टिपूर्ण कथनों के रूप में लेती थी और इन्हें अपने जीवन का लक्ष्य मान बैठी थी। जब मैंने प्रिंसिपल लियू को मंच पर प्रभावशाली ढंग से बोलते हुए और लोगों की प्रशंसा पाते देखा तो मुझे यह प्रभावशाली लगा और मैंने प्रिंसिपल लियू जैसा बनना चाहा। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए मैं सुबह से शाम तक काम करती, दिन-रात शिक्षण सामग्री का अध्ययन करती और छात्रों को ट्यूशन देने के लिए अपने आराम का समय त्याग देती। हालाँकि मैं थक जाती और आराम करने की इच्छा होती, लेकिन प्रिंसिपल का पद पाने और प्रसिद्धि और लाभ प्राप्त करने का विचार मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता, इसलिए मैं जी-जान से जुटी रहती। आखिरकार अपनी कड़ी मेहनत से मुझे प्रिंसिपल का पद मिल गया और मैंने लोगों द्वारा प्रशंसा किये जाने की संतुष्टि का आनंद लिया। लेकिन धीरे-धीरे मेरे जीने का ढंग ऐसा हो गया जिसमें मानवीय समानता का पूरी तरह से अभाव था। प्रिंसिपल के रूप में अपना पद बचाए रखने के लिए मैंने अपने वरिष्ठों की बात मान ली, मैं उनकी चापलूसी और खुशामद करते हुए अधिक से अधिक अस्थिर बुद्धि और धोखेबाज बनती जा रही थी। बाद में जब मैं किंडरगार्टन गई और मैंने देखा कि जो सहकर्मी मुझसे अधिक उत्कृष्ट हैं उन्हें वरिष्ठों की प्रशंसा हासिल होती है तो मुझे फिर से ईर्ष्या होने लगी। मैंने हताशा में पियानो, नृत्य और गिटार का अभ्यास करना शुरू कर दिया, मैं हमेशा हर सार्वजनिक सबक और उच्च गुणवत्ता वाले सबक के लिए मेहनत से अनुसंधान करने में जुट गई, मैं भीड़ से अलग दिखना और अपने आस-पास के लोगों की प्रशंसा पाना चाहती थी। मैं प्रसिद्धि और लाभ के लिए दिन-रात मेहनत करने लगी, लेकिन मैंने मानवीय आचरण की बुनियादी आवश्यकताओं को नजरअंदाज कर दिया क्योंकि मैं शैतान के जीवित रहने के सिद्धांतों के अनुरूप ढलती गई और अस्थिर बुद्धि और धोखेबाज बन गई। प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे ने मुझे पूरी तरह से अंधा कर दिया था क्योंकि ये चीजें मेरे विचारों को नियंत्रित करने लगी थीं और इनके लिए कीमत चुकाने में मुझे खुशी मिलती थी। मैंने प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे को किसी भी अन्य चीज से अधिक महत्वपूर्ण माना, हालाँकि मैं परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य के बारे में जानती थी, फिर भी मैंने उसकी जाँच करने की कोशिश नहीं की। मैं सचमुच अज्ञानी और मूर्ख थी! मुझे अपने छोटे भाई का ख्याल आया जो हाई स्कूल के प्रिंसिपल के लिए चुनाव में खड़ा था और चुनाव के लिए अपना भाषण तैयार करने में उसने कितनी ही रातें जागकर बिताई थीं। अपने वरिष्ठों को क्या उपहार दे इसकी योजना बनाने में वह अपना पूरा दिन लगा देता था, डिनर और सामाजिक कार्यक्रमों के दौरान वह हमेशा उनकी चापलूसी करने के नए-नए तरीके खोजने की कोशिश करता रहता था। जब उसने देखा कि अन्य कई उम्मीदवार अपने वरिष्ठों को लाखों रुपये के उपहार दे रहे हैं तो वह बुरी तरह से खुद को असहाय महसूस करने लगा क्योंकि उसे डर था कि उसके उपहार उसके वरिष्ठों को प्रभावित नहीं कर पाएँगे और वह प्रिंसिपल का पद पाने का मौका गँवा बैठेगा, इसलिए वह दर्द और बेबसी की हालत में रहने लगा था। मैंने अपने वरिष्ठ के बारे में भी सोचा जो लगातार डिनर पार्टियों और शराब पीने के कारण बाद में गंभीर मधुमेह से पीड़ित हो गया था। आखिरकार उसे प्रतिदिन इंसुलिन इंजेक्शन लेकर अपनी शुगर को नियंत्रित करना पड़ता था और उसे अक्सर सीने में जलन और पेट में असहनीय दर्द भी होता था...। इन ज्वलंत उदाहरणों से मुझे यह स्पष्ट रूप से समझ आ गया कि प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा वास्तव में वे साधन हैं जिनके द्वारा शैतान लोगों को भ्रष्ट करता है और उन्हें नुकसान पहुँचाता है, ये शैतान द्वारा लोगों के लिए बिछाए गए जाल हैं, वह लोगों को प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे बुरी तरह भागने में ही अपना जीवन लगा देने के लिए लुभाता है। अगर मैं इस गलत रास्ते पर ही चलती रही तो आखिरकार मैं अपने उद्धार का अवसर गँवा बैठूँगी और तबाही और बरबादी की राह पर चल दूँगी। यह समझ जाने पर मैंने परमेश्वर में उचित विश्वास रखने, उसके वचनों को खाने और पीने और जीवन के सही मार्ग पर चलने का संकल्प लिया।
2022 में भयंकर महामारी के कारण मैं बाहर नहीं जा सकी, इसलिए मैं घर पर ही रहकर परमेश्वर के वचन खाती और पीती रही और खुद को सत्य से युक्त करती रही, इससे मुझे बहुत शांति मिली और हृदय में संतुष्टि का अनुभव हुआ। मुझे पता भी नहीं चला कि मेरी नींद कब सामान्य हो गई और मेरे स्तनों का दर्द भी कम हो गया। मैंने परमेश्वर के प्रति बहुत आभारी महसूस किया। महामारी संबंधी प्रतिबंध हटने के बाद मैं स्कूल में काम पर लौट आई, लेकिन मैं अब ऊँचा पद पर नहीं पाना चाहती थी और बस एक साधारण टीचर बनकर रहना चाहती थी। एक दिन कुछ समय बाद ही प्रांतीय शिक्षा ब्यूरो द्वारा किंडरगार्टन बिजनेस डायरेक्टर के पद के लिए एक प्रतियोगिता आयोजित की गई। मेरे वरिष्ठ ने मुझसे धीरे से कहा, “थोड़ी देर में तुम प्रतिस्पर्धा करने ऊपर जाओगी। तुम्हारी कार्यक्षमताओं को देखते हुए यह पद तुम्हारे लिए ही है।” यह सुनकर मुझे भाग लेने की उत्सुकता हुई, मैं सोचने लगी कि अगर मैं सचमुच प्रतियोगिता में सफल हो गई तो मैं लोगों की प्रशंसा हासिल करूँगी और पहले की तरह प्रसिद्धि और लाभ दोनों का आनंद लूँगी। मैंने मन ही मन सोचा, “मैं ऐसा क्यों न करूँ?” लेकिन फिर मुझे याद आया कि कलीसिया ने मुझे कई समूहों की सभाओं की देखरेख करने का काम सौंपा है, अगर मैं डायरेक्टर बन गई तो मुझे सभाओं और अपने कर्तव्यों के लिए समय कैसे मिलेगा? उस समय मुझे प्रभु यीशु की कही बात याद आई : “यदि मनुष्य सारे जगत को प्राप्त करे, और अपने प्राण की हानि उठाए, तो उसे क्या लाभ होगा? या मनुष्य अपने प्राण के बदले क्या देगा?” (मत्ती 16:26)। इन वचनों पर विचार कर मुझे कुछ अंतर्दृष्टि प्राप्त हुई। लोग इस दुनिया में आते हैं और लगातार व्यस्त रहते हुए प्रसिद्धि और लाभ की होड़ में अपने दिन बिता देते हैं। भले ही वे ऊँचा रुतबा हासिल कर लें, अपार संपत्ति अर्जित कर लें और पूरी दुनिया अपनी मुट्ठी में कर लें, लेकिन थकावट के कारण उनके पूरे शरीर में बीमारियाँ फैल जाती हैं और आखिरकार उनकी जान चली जाती है। क्या यह सब व्यर्थ नहीं है? मैंने एक साधारण टीचर से लेकर प्रिंसिपल बनने तक की अपनी यात्रा पर विचार किया, कहने को तो मैं टीचरों की लीडर थी, लेकिन एक बार जब मैं वाकई लीडर के पद पर बैठ गई तो चीजें उतनी सही नहीं थीं जितनी मैंने सोची थीं। हालाँकि मेरा वेतन बढ़ गया था और लोग मेरा आदर करने लगे थे, लेकिन फिर भी हर दिन मैं थककर चूर हो जाती थी, सेहत संबंधी मसले खड़े हो गए थे और मैं मानसिक अवसाद के कगार पर पहुँच गई थी। यह धन और रुतबा मेरी पीड़ा को दूर नहीं कर सकते थे। बल्कि इन चीजों ने मुझे और अधिक खोखलेपन और बेबसी का एहसास कराया। मुझे अपनी साथी मिस लियांग का ख्याल आया जो हर तरह से उत्कृष्ट थी और जो आखिरकार शिक्षण और अनुसंधान समूह की प्रमुख बनी। लेकिन स्वास्थ्य जाँच के दौरान पता चला कि उसे चौथे चरण का थायरॉइड नोड्यूल है जिसके घातक ट्यूमर होने का संदेह है। उसे उपचार के लिए जीवनभर दवाओं पर निर्भर रहना था और नियमित रूप से सुई बायोप्सी के लिए अस्पताल के चक्कर लगाने थे। फिर मुझे अपनी अच्छी दोस्त मिस दू का ख्याल आया जो जवान और खूबसूरत थी। वह स्कूल के हर प्रदर्शन और गतिविधि में अपरिहार्य रूप से शामिल होती थी और वह वरिष्ठों की भी पसंदीदा थी। वह असीम महिमा का आनंद ले रही थी। लेकिन बाद में उसे भयंकर ल्यूकेमिया हो गया और उसकी हालत गंभीर हो गई। जितना अधिक मैंने इसके बारे में सोचा उतना ही अधिक मुझे लगा कि प्रसिद्धि और लाभ बेकार हैं, भले ही कोई व्यक्ति प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा हासिल कर ले, लेकिन आखिरकार अगर वह अपना स्वास्थ्य खो देता है तो सारी प्रसिद्धि, धन और सारी उपलब्धियाँ व्यर्थ हैं। मैंने मन ही मन सोचा, “अगर मैं डायरेक्टर के पद के लिए प्रतिस्पर्धा कर फिर से उच्च पद पर पहुँच भी जाऊँ तो क्या यह मुझे और आगे प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा पाने के मार्ग पर नहीं ले जाएगा? चाहे मेरा पद कितना भी ऊँचा हो जाए या मैं कितनी भी लोकप्रिय हो जाऊँ, मैं बस एक ऐसे रास्ते पर चल रही हूँगी जहाँ से वापसी संभव नहीं है, जो मुझे विनाश की ओर ले जाएगा।” इस बात का ख्याल कर मैंने प्रतियोगिता से हटने का निर्णय ले लिया। उस पल मुझे बहुत राहत महसूस हुई और मेरा दिल रोशन हो गया, ऐसा लगा जैसे मैं उन बेड़ियों से मुक्त हो गई हूँ जिनमें मैं लंबे समय से जकड़ी हुई थी, मैं वाकई राहत और मुक्ति का अनुभव कर रही थी।
बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “तुम्हें अपना जीवन कैसे जीना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर से कैसे प्रेम करना चाहिए और इस प्रेम का उपयोग करके उसके इरादों को कैसे पूरा करना चाहिए? तुम्हारे जीवन में इससे बड़ा कोई मुद्दा नहीं है। सबसे बढ़कर, तुम्हारे अंदर ऐसी आकांक्षा और कर्मठता होनी चाहिए, न कि तुम्हें एक रीढ़विहीन निर्बल प्राणी की तरह होना चाहिए। तुम्हें सीखना चाहिए कि एक अर्थपूर्ण जीवन का अनुभव कैसे किया जाता है, तुम्हें अर्थपूर्ण सत्यों का अनुभव करना चाहिए, और अपने-आपसे लापरवाही से पेश नहीं आना चाहिए। यह अहसास किए बिना, तुम्हारा जीवन तुम्हारे हाथ से निकल जाएगा; क्या उसके बाद तुम्हें परमेश्वर से प्रेम करने का दूसरा अवसर मिलेगा? क्या मनुष्य मरने के बाद परमेश्वर से प्रेम कर सकता है? तुम्हारे अंदर पतरस के समान ही आकांक्षाएँ और चेतना होनी चाहिए; तुम्हारा जीवन अर्थपूर्ण होना चाहिए, और तुम्हें अपने साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए!” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर के वचनों से मुझे मानवता के प्रति उसकी आशाओं का एहसास हुआ। मैंने सोचा कि पहले मैं किस तरह प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के लिए जीती थी। मैं अब उस तरह का जीवन नहीं जीना चाहती थी। अंत के दिनों में परमेश्वर के सभी वचन मानवता की आवश्यकताओं के लिए हैं। लोग परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करके ही सच्ची मानवीय समानता का जीवन जी सकते हैं। मेरा कलीसिया में अपना कर्तव्य निभा पाना परमेश्वर का उत्कर्ष है और अपना कर्तव्य निर्वहन मेरा मिशन और जिम्मेदारी है। मुझे परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए, ईमानदारी से सत्य का अनुसरण कर मानवीय सदृश जीवन जीना चाहिए और ऐसा व्यक्ति बनना चाहिए जो परमेश्वर की बात सुने और उसके अधीन रहे।
मार्च 2023 में मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया। क्योंकि अगुआ होने के नाते मैं काफी व्यस्त रहती थी और अभी भी टीचर के तौर पर कार्य कर रही थी, मुझे हमेशा लगता था जैसे दिन के घंटे पर्याप्त नहीं हैं। इसलिए मेरे मन में टीचर की नौकरी से इस्तीफा देने का विचार आया, लेकिन फिर मैंने सोचा कि अगर मैंने इस्तीफा दे दिया तो मेरे रिश्तेदार और पड़ोसी मेरे बारे में क्या सोचेंगे। क्या वे यह नहीं कहेंगे कि मैं कितनी मूर्ख हूँ जो इतनी अच्छी नौकरी छोड़ दी? हो सकता है कि वे मेरी पीठ पीछे व्यंग्य करें या मेरा उपहास उड़ाएँ! क्या मैं लोगों की व्यर्थ की बातचीत में हँसी की पात्र नहीं बन जाऊँगी? मैं इस बारे में जितना अधिक सोचती उतनी ही ज्यादा दुखी होती और कुछ समय तक तो मुझे समझ ही नहीं आया कि क्या करूँ। बाद में मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला और मैंने रोशन महसूस किया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अगर किसी का सामाजिक रुतबा बहुत छोटा है, उनका परिवार बहुत गरीब है और उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं की है, लेकिन फिर भी वे व्यावहारिक रूप से परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं, तो परमेश्वर की नजरों में उनका मूल्य ऊँचा होगा या नीचा, क्या वे महान होंगे या तुच्छ? वे मूल्यवान होते हैं। अगर हम इस परिप्रेक्ष्य से देखें, तो किसी का मूल्य—चाहे अधिक हो या कम, उच्च हो या निम्न—किस पर निर्भर करता है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि परमेश्वर तुम्हें कैसे देखता है। अगर परमेश्वर तुम्हें किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में देखता है जो सत्य का अनुसरण करता है, तो फिर तुम मूल्यवान हो और तुम कीमती हो—तुम एक कीमती पात्र हो। अगर परमेश्वर देखता है कि तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते हो और तुम ईमानदारी से उसके लिए खुद को नहीं खपाते, तो फिर तुम उसके लिए बेकार हो और मूल्यवान नहीं हो—तुम एक तुच्छ पात्र हो। चाहे तुमने कितनी भी उच्च शिक्षा प्राप्त की हुई हो या समाज में तुम्हारा रुतबा कितनी भी ऊँचा हो, अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते या उसे नहीं समझते, तो तुम्हारा मूल्य कभी भी ऊँचा नहीं हो सकता; भले ही बहुत से लोग तुम्हारा समर्थन करते हों, तुम्हे महिमामंडित करते हों और तुम्हारा आदर सत्कार करते हों, फिर भी तुम एक नीच कमबख्त ही रहोगे। तो आखिर परमेश्वर लोगों को इस नजर से क्यों देखता है? ऐसे ‘कुलीन’ व्यक्ति को जिसका समाज में इतनी ऊँचा रुतबा है, जिसकी इतने लोग प्रशंसा और सराहना करते हैं, जिसकी प्रतिष्ठा इतनी ऊँची है, उसे परमेश्वर निम्न क्यों समझता है? परमेश्वर लोगों को जिस नजर से देखता है वह दूसरों के बारे में लोगों के विचार से बिल्कुल विपरीत क्यों है? क्या परमेश्वर जानबूझकर खुद को लोगों के विरुद्ध खड़ा कर रहा है? बिल्कुल भी नहीं। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर सत्य है, परमेश्वर धार्मिकता है, जबकि मनुष्य भ्रष्ट है और उसके पास कोई सत्य या धार्मिकता नहीं है, और परमेश्वर मनुष्य को अपने खुद के मानक के अनुसार मापता है और मनुष्य के मापन के लिए उसका मानक सत्य है। यह बात थोड़ी अमूर्त लग सकती है, इसलिए दूसरे शब्दों में कहें तो, परमेश्वर के माप का मानक परमेश्वर के प्रति एक व्यक्ति के रवैये, सत्य के प्रति उनके रवैये और सकारात्मक चीजों के प्रति उनके रवैये पर आधारित होता है—यह बात अब काल्पनिक नहीं है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग एक))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे एहसास हुआ कि आज परमेश्वर के सामने आकर एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा पाना सबसे बड़ा आशीष है। परमेश्वर लोगों को इस आधार पर नहीं आँकता कि संसार में उनका पद या रुतबा कितना ऊँचा है या कितने लोग उनका आदर करते हैं या उनकी आराधना करते हैं। परमेश्वर यह देखता है कि क्या कोई व्यक्ति उसके समक्ष आ सकता है, उसकी वाणी सुन सकता है, क्या उसके उद्धार को स्वीकार सकता है और क्या कोई व्यक्ति अपनी आस्था में सत्य का अनुसरण कर सकारात्मक चीजों से प्रेम कर सकता है। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर के समक्ष आकर उसकी अपेक्षाओं के अनुसार कार्य कर सकता है तो वह व्यक्ति परमेश्वर की नजर में अनमोल है। परमेश्वर ऐसे लोगों को संजोता है। इसके विपरीत अगर किसी व्यक्ति का सामाजिक रुतबा ऊँचा है और उसके पास बहुत शक्ति है, लेकिन वह परमेश्वर के समक्ष नहीं आता, न ही उसका उद्धार स्वीकार है तो ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के लिए घृणित है क्योंकि वह केवल बुरी और नकारात्मक चीजों को ही जीता है। यह एहसास होने पर मुझे काफी ज्यादा मुक्ति का एहसास हुआ। परमेश्वर के लिए अपने आपको पूरे दिल से समर्पित कर पाना एक बहुत बड़ा आशीष है। केवल परमेश्वर के घर में सत्य की खोज के मार्ग पर चलकर ही हम लोगों और चीजों को देख सकते हैं, आचरण कर सकते हैं और परमेश्वर के वचनों के अनुसार व्यवहार कर सकते हैं और तभी ऐसे लक्ष्य सार्थक और मूल्यवान सिद्ध हो सकते हैं। इसलिए मैंने बिना किसी हिचकिचाहट के अपने वरिष्ठ को अपना इस्तीफा सौंप दिया। कुछ समय बाद मेरा इस्तीफा मंजूर हो गया और मैंने अपना पूरा समय कलीसिया में अपने कर्तव्यों के प्रति समर्पित कर दिया। मैं परमेश्वर को धन्यवाद देती हूँ कि उसने मुझे प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के बंधनों से बचा लिया और मुझे जीवन में सही दिशा खोजने में मदद की!