32. मुझे अपने अपराधों को किस तरह से लेना चाहिए

जियांग लाई, चीन

2020 में मैं प्रसिद्धि और रुतबे के पीछे भागते हुए अपना कर्तव्य निर्वहन कर रही थी और लोगों पर हमला कर उन्हें बाहर कर रही थी जिससे कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी और बाधा उत्पन्न हो रही थी और मुझे बरखास्त कर दिया गया था। यह सोचकर बहुत नकारात्मक हो गई थी कि मैंने कितना बड़ा पाप किया है कि मुझे निष्कासित कर दिया गया है और मुझे बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं है। बाद में अगुआओं ने देखा कि मैंने कुछ आत्मचिंतन किया है, अपने व्यवहार को और जिस मार्ग पर चल मैं रही थी उसे समझ लिया है, इसलिए उन्होंने मेरे लिए फिर से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने की व्यवस्था कर दी। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। यह देखकर कि परमेश्वर का घर अभी भी मुझे कर्तव्य निर्वहन का मौका दे रहा है, मेरी आँखों में आँसू आ गए और मेरा हृदय परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता से भर गया। मैंने मन में संकल्प लिया, “मुझे अपने पिछले अपराधों की भरपाई करने के लिए अपने कर्तव्यों का निर्वहन उचित ढंग से करना चाहिए, अब मैं पहले की तरह प्रसिद्धि और रुतबे के पीछे नहीं भाग सकती और गलत रास्ते पर नहीं चल सकती।”

बाद में मुझे दो कलीसियाओं में सुसमाचार कार्य का जिम्मा दे दिया गया। पहले तो मुझे सुसमाचार प्रचार के सिद्धांत समझ में नहीं आए, मुझे अपने कार्य में कई समस्याओं और कठिनाइयों का सामना करना पड़ा जिनका समाधान करना मुझे नहीं आता था, इसलिए मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की और जब भी मेरे पास समय होता, मैं चीजों पर विचार कर सिद्धांत खोजने का प्रयास करती। सभाओं के दौरान मैं भाई-बहनों को सुसमाचार प्रचार में अपने अनुभवों और लाभों के बारे में बात करते हुए सुनती थी। मुझे यह सोचकर ईर्ष्या होती कि अन्य लोग अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए परमेश्वर का मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हैं, मैं दूसरों से अलग हूँ क्योंकि मैंने गंभीर अपराध किए हैं। मुझे लगा कि चूँकि परमेश्वर अभी भी मुझे पश्चात्ताप करने का अवसर दे रहा है, इसलिए मुझे दूसरों की तुलना में अधिक मेहनत करनी होगी और अब मैं कोई गलती नहीं कर सकती। हर दिन दोनों कलीसियाओं में मेरा आना-जाना होता था, यहाँ तक कि मुझे ज्यादा चक्कर आने लगे थे, लेकिन तब भी मैं बिना आराम किए अपने कर्तव्यों में लगी रहती थी, सोचती थी, “अगर मैं अपने कर्तव्यों में अधिक प्रयास करूँगी और कुकर्म नहीं करूँगी या गड़बड़ी नहीं करूँगी तो मैं अपने पिछले अपराधों की भरपाई कर सकती हूँ और अभी भी बचाए जाने का मौका पा सकती हूँ।” कुछ समय बाद मेरे पास जिस सुसमाचार कार्य की जिम्मेदारी थी उसमें कुछ नतीजे दिखने लगे थे और नवागत सामान्य रूप से सभाओं में भाग ले सकते थे। इस दौरान जब मैंने सुसमाचार प्रचार में अपने लाभों के बारे में बात की तो पर्यवेक्षक मेरी संगति से सहमत थी और मुझे यह सोचकर बहुत खुशी हुई, “मैंने अपने कर्तव्यों में कड़ी मेहनत की है और भाई-बहनों की मान्यता प्राप्त की है, सभाओं के दौरान संगति में प्रबोधन प्राप्त किया है और मैं पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन को भी महसूस कर सकती हूँ। अगर मैं अपनी वर्तमान मनोदशा बनाए रखूँ, अपने कर्तव्यों का निर्वहन और मेहनत से करूँ, गड़बड़ी या बाधा न डालूँ, और अधिक अच्छे कार्य संचित करूँ तो आखिरकार हो सकता है परमेश्वर मेरे पिछले अपराधों पर विचार न करे।” बाद में अगुआओं ने मुझे और अधिक कलीसियाओं में सुसमाचार कार्य की जिम्मेदारी सौंप दी, मुझे पता चला कि इनमें से कुछ कलीसिया मेरे घर से बहुत दूर हैं। मैंने सोचा कि मेरा स्वास्थ्य खराब रहता है और इस तरह से कार्य करते रहने से मैं निश्चित रूप से थक जाऊँगी, इसलिए मैंने अगुआओं को अपनी स्थिति के बारे में बताने की सोची। लेकिन फिर मैंने सोचा, “अगर मैं अपने कर्तव्यों को नकारती हूँ तो परमेश्वर मुझे किस नजर से देखेगा?” इसलिए मैंने कुछ नहीं कहा। इसके बाद कार्य से अधिक तेजी से परिचित होने के लिए मैं सुबह से शाम तक कार्य करती, यहाँ तक कि जब मैं अस्वस्थ महसूस करती तब भी मैं जबरदस्ती काम करती रहती और कभी-कभी तो बहनें मुझे अपनी बाइक पर बिठाकर सभाओं में ले जातीं। चूँकि मैं अक्सर देर तक जागता रहती थी, इसलिए मेरा स्वास्थ्य और भी खराब हो गया। मुझे पूरे शरीर में कमजोरी महसूस होती, मेरे हाथ-पैर शिथिल पड़ गए थे और मैं किसी तरह बिस्तर के सिराहने का सहारा लेती और सभाओं में भाग लेती। सच तो यह है कि मैं बहुत कमजोर महसूस करती थी और स्वास्थ्य लाभ के लिए घर जाना चाहती थी, लेकिन यह देखते हुए कि कलीसिया के कार्य को लोगों के सहयोग की आवश्यकता है, मैं यह सोचकर चिंतित हो जाती, “अगर मैं इस महत्वपूर्ण समय में अपने कर्तव्यों का निर्वहन छोड़कर घर जाकर आराम करूँगी तो परमेश्‍वर मुझे किस नजर से देखेगा? क्या तब भी मेरा भविष्य अच्छा होगा? क्या मेरा बचाया जाना तब भी संभव होगा?” इसलिए चाहे हालात कितने भी कठिन क्यों न हो गए हों, मैंने अपना कर्तव्य निर्वहन जारी रखा। बाद में उपचार से मेरी हालत धीरे-धीरे सुधरने लगी।

कुछ महीनों बाद मुझे सुसमाचार कार्य का पर्यवेक्षक चुन लिया गया। जब मुझे यह दायित्व सौंपा गया तो मुझे चिंता हुई कि मेरे खराब स्वास्थ्य का मतलब है कि मैं इस कार्य के लिए सक्षम नहीं हो पाऊँगी। लेकिन फिर मैंने सोचा, “अगर मैं बीमार होने पर भी अपना कर्तव्य अच्छे से निभा पाती हूँ तो शायद परमेश्वर मेरे पिछले अपराधों को क्षमा कर देगा और तब मेरे पास बचाए जाने का अवसर होगा।” इस बात को ध्यान में रखते हुए मैं यह कर्तव्य लेने को तैयार थी। एक बार अगुआओं ने मुझे एक सभा में उपस्थित होने के लिए सूचित किया, लेकिन सभा से पहले दोपहर को मेरी हालत अचानक खराब हो गई। मुझे पेट में बहुत दर्द हुआ, पूरे शरीर में कमजोरी महसूस हो रही थी और सिरदर्द था, मैं बड़ी मुश्किल से हिलडुल पा रही थी। डॉक्टर ने कहा कि मुझे आईवी लगाकर बिस्तर पर आराम करना होगा। उस समय मैं अपनी भावनाओं पर काबू नहीं कर पा रही थी और सोच रही थी, “मेरी तबियत फिर से क्यों बिगड़ गई? अभी मैं अपने कर्तव्य में बहुत व्यस्त हूँ। मेरी साथी बहनें हर दिन सुसमाचार प्रचार में व्यस्त रहती हैं, लेकिन ऐसे महत्वपूर्ण समय में मैं अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ हूँ। क्या परमेश्वर इस परिवेश का उपयोग मुझे प्रकट करने और हटाने के लिए कर रहा है? अगर मैं वाकई अपने कर्तव्यों का पालन न कर पाऊँ तो मेरा भविष्य क्या होगा?” यह सोचकर ही मैं बहुत दबाव महसूस कर रही थी मानो परमेश्वर ने मुझे त्याग दिया हो। आईवी के कारण मुझ पर मदहोशी सी छा रही थी और फिर उस रात मैं गहरी नींद में चली गई। अगली सुबह जब मैंने इस मामले पर मन में विचार किया तो मुझे अचानक परमेश्वर के ये वचन याद आए : “कड़वे शुद्धिकरण के दौरान मनुष्य बड़ी आसानी से शैतान के प्रभाव में आ सकता है, इसलिए ऐसे शुद्धिकरण के दौरान तुम्हें परमेश्वर से कैसे प्रेम करना चाहिए? तुम्हें अपना हृदय परमेश्वर के समक्ष रखते हुए और अपना अंतिम समय परमेश्वर को समर्पित करते हुए अपनी इच्छा जगानी चाहिए। परमेश्वर चाहे कैसे भी तुम्हारा शुद्धिकरण करे, तुम्हें परमेश्वर के इरादों को पूरा करने के लिए सत्य को अभ्यास में लाने योग्य बनना चाहिए, और परमेश्वर को खोजने और उसके साथ समागम की कोशिश करने की जिम्मेदारी खुद उठानी चाहिए। ऐसे समय में जितने अधिक निष्क्रिय तुम होओगे, उतने ही अधिक नकारात्मक तुम बन जाओगे और तुम्हारे लिए पीछे हटना उतना ही अधिक आसान हो जाएगा(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल शोधन का अनुभव करके ही मनुष्य सच्चे प्रेम से युक्त हो सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि इंसान जितना अधिक शोधन की पीड़ा में होता है उसे उतना ही अधिक सत्य और परमेश्वर का इरादा खोजना चाहिए। मैं अब अपने भविष्य और गंतव्य के बारे में नहीं सोच सकती थी, मुझे परमेश्वर से अधिक प्रार्थना करनी थी और इस बात की परवाह नहीं करनी थी कि मेरे लिए कोई अच्छा भविष्य या गंतव्य है या नहीं, मैं अपना दिल परमेश्वर के सामने रखने को तैयार थी फिर चाहे परमेश्वर कैसे भी कार्य करे, मैं समर्पण करने को तैयार थी। मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे परमेश्वर मुझे देख रहा है और इंतजार कर रहा है कि मैं उठूँ और आगे बढ़ूँ। मेरा दिल धीरे-धीरे शांत हो गया और मुझे अधिक राहत महसूस हुई, मैं ऐसे परिवेश में सत्य खोजने को तैयार थी।

एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और मुझे अपनी मनोदशा के बारे में कुछ समझ प्राप्त हुई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “पौलुस स्वयं अपना सार या भ्रष्टता नहीं जानता था, वह अपने विद्रोहीपन को तो और भी नहीं जानता था। उसने मसीह के प्रति अपनी कुत्सित अवज्ञा का कभी उल्लेख नहीं किया, न ही वह बहुत अधिक पछतावे से भरा था। उसने बस एक स्पष्टीकरण दिया, और, अपने हृदय की गहराई में, वह परमेश्वर के प्रति पूर्ण रूप से नहीं झुका था। यद्यपि वह दमिश्क के रास्ते पर गिर पड़ा था, फिर भी उसने अपने भीतर गहराई से झाँककर नहीं देखा था। वह मात्र काम करते रहने से ही संतुष्ट था, और वह स्वयं को जानने और अपना पुराना स्वभाव बदलने को सबसे महत्वपूर्ण विषय नहीं मानता था। वह तो बस सत्य बोलकर, स्वयं अपने अंतःकरण के लिए औषधि के रूप में दूसरों को पोषण देकर, और अपने अतीत के पापों के लिए अपने को सांत्वना देने और अपने को माफ करने की ख़ातिर यीशु के शिष्यों को अब और न सताकर ही संतुष्ट था। उसने जिस लक्ष्य का अनुसरण किया वह भविष्य के मुकुट और क्षणिक कार्य से अधिक कुछ नहीं था, उसने जिस लक्ष्य का अनुसरण किया वह भरपूर अनुग्रह था। उसने पर्याप्त सत्य का पीछा नहीं किया था, न ही उसने उस सत्य की अधिक गहराई में जाने का निरंतर प्रयास किया था जिसे उसने पहले नहीं समझा था। इसलिए स्वयं के विषय में उसके ज्ञान को नकली कहा जा सकता है, और उसने ताड़ना और न्याय स्वीकार नहीं किया था। वह कार्य करने में सक्षम था इसका अर्थ यह नहीं है कि वह स्वयं अपनी प्रकृति या सार के ज्ञान से युक्त था; उसका ध्यान केवल बाहरी अभ्यासों पर था। यही नहीं, उसने जिसके लिए कठिन परिश्रम किया था वह बदलाव नहीं, बल्कि ज्ञान था। उसका कार्य पूरी तरह दमिश्क के मार्ग पर यीशु के प्रकटन का परिणाम था। यह कोई ऐसी चीज नहीं थी जिसे उसने मूल रूप से करने का संकल्प लिया था, न ही यह वह कार्य था जो उसके द्वारा अपने पुराने स्वभाव की काँट-छाँट स्वीकार करने के बाद हुआ था। उसने चाहे जिस प्रकार कार्य किया, उसका पुराना स्वभाव नहीं बदला था, और इसलिए उसके कार्य ने उसके अतीत के पापों का प्रायश्चित नहीं किया बल्कि उस समय की कलीसियाओं के मध्य एक निश्चित भूमिका मात्र निभाई थी। इस जैसे व्यक्ति के लिए, जिसका पुराना स्वभाव नहीं बदला था—कहने का तात्पर्य यह, जिसने उद्धार प्राप्त नहीं किया था, तथा सत्य से और भी अधिक रहित था—वह प्रभु यीशु द्वारा स्वीकार किए गए लोगों में से एक बनने में बिल्कुल असमर्थ था। ... वह हमेशा मानता था : ‘मैं कार्य करने में सक्षम हूँ, मैं अधिकांश लोगों से बेहतर हूँ; मैं प्रभु के बोझ का उतना ध्यान रखता हूँ जितना कोई और नहीं रखता है, और कोई भी उतनी गहराई से पश्चात्ताप नहीं करता है जितना मैं करता हूँ, क्योंकि बड़ी ज्योति मेरे ऊपर चमकी थी, और मैं बड़ी ज्योति देख चुका हूँ, और इसलिए मेरा पश्चात्ताप किसी भी अन्य की अपेक्षा अधिक गहरा है।’ यही वह है जो उसने उस समय अपने हृदय के भीतर सोचा था। अपने कार्य के अंत में, पौलुस ने कहा : ‘मैं लड़ाई लड़ चुका हूँ, मैंने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, और मेरे लिए धर्म का मुकुट रखा हुआ है।’ उसकी लड़ाई, कार्य और दौड़ पूरी तरह धार्मिकता के मुकुट के लिए थे, और वह सक्रिय रूप से तेज़ी से आगे नहीं निकला था। यद्यपि वह अपने कार्य में असावधान नहीं था, फिर भी यह कहा जा सकता है कि उसका कार्य बस उसकी ग़लतियों की भरपाई करने के लिए, और उसके अंतःकरण के आरोपों की क्षतिपूर्ति करने के लिए था। वह बस यथासंभव जल्दी से जल्दी अपना कार्य पूरा करने, अपनी दौड़ समाप्त करने, और अपनी लड़ाई लड़ने की आशा करता था, ताकि वह अपना इच्छित धार्मिकता का मुकुट जल्द से जल्द प्राप्त कर सके। वह जिस चीज के लिए लालायित था वह अपने अनुभवों और सच्चे ज्ञान के साथ प्रभु यीशु से मिलना नहीं था, बल्कि यथासंभव जल्द से जल्द अपना कार्य समाप्त करना था, ताकि प्रभु यीशु से मिलने पर वह वे पुरस्कार प्राप्त करेगा जो उसने अपने कार्य से कमाए थे। उसने अपने को आराम देने के लिए, और भविष्य के मुकुट के लिए बदले में एक सौदा करने के लिए अपने कार्य का उपयोग किया था। उसने जिसकी खोज की वह सत्य या परमेश्वर नहीं था, बल्कि केवल मुकुट था। ऐसा अनुसरण मानक स्तर का कैसे हो सकता है? उसकी प्रेरणा, उसका कार्य, उसने जो मूल्य चुकाया, और उसके समस्त प्रयास—उसकी अद्भुत स्वैर कल्पनाएँ उन सबमें व्याप्त थीं, और उसने पूरी तरह स्वयं अपनी इच्छाओं के अनुसार कार्य किया था। उसके कार्य की संपूर्णता में, वह मूल्य चुकाने की रत्ती भर इच्छा नहीं थी जो उसने चुकाया था; वह तो बस सौदा करने में लगा था। उसके प्रयास अपना कर्तव्य निभाने के लिए सहर्ष नहीं किए गए थे, बल्कि सौदे का उद्देश्य प्राप्त करने के लिए सहर्ष किए गए थे। क्या ऐसे प्रयासों का कोई मूल्य है? कौन ऐसे अशुद्ध प्रयासों की प्रशंसा करेगा? किसे ऐसे प्रयासों में रुचि है? उसका कार्य भविष्य के स्वप्नों से भरा था, अद्भुत योजनाओं से भरा था, और उसमें ऐसा कोई मार्ग नहीं था जिससे मानव स्वभाव को बदला जा सके। उसका बहुत कुछ परोपकार ढोंग था; उसका कार्य जीवन प्रदान नहीं करता था, बल्कि शिष्टता का ढकोसला था; यह सौदा करना था। इस जैसा कार्य मनुष्य को अपने मूल कर्तव्य की पुनः प्राप्ति के पथ पर कैसे ले जा सकता है?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। परमेश्वर ने उजागर किया कि पौलुस में प्रभु यीशु को सताने और उसके शिष्यों को गिरफ्तार करने के अपने पिछले बुरे कर्मों की कोई वास्तविक समझ नहीं थी, न ही वह परमेश्वर के विरुद्ध अपने प्रतिरोध का सार समझ पाया था। वह बस यह जानकर संतुष्ट था कि वह गलत है और भविष्य में परमेश्वर का प्रतिरोध करने के लिए ऐसी चीजें नहीं करेगा। फिर उसने त्याग, खपने और कड़ी मेहनत के दिखावटी कार्यों के जरिए अपने पापों का प्रायश्चित्त करने की कोशिश की। अंत में उसने यह भी दावा किया कि उसके लिए धार्मिकता का मुकुट सुरक्षित रखा है। मुझे एहसास हुआ कि पौलुस के त्याग और खपने के कार्य एक सृजित प्राणी के कर्तव्य का निर्वहन नहीं थे, न ही वे वास्तविक पश्चात्ताप थे, बल्कि अपने पापों का प्रायश्चित्त करने और बदले में धार्मिकता का मुकुट पाने के लिए अपने कार्य का उपयोग करने का एक प्रयास था। यह पाखंड था, परमेश्वर को धोखा देने और उसके साथ सौदेबाजी करने का एक प्रयास था। मैंने अपने पिछले कर्तव्यों पर विचार किया जब मैंने प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागते हुए कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी और बाधा डाली थी और अपराध किया था, लेकिन मैंने अपने अपराधों पर गहराई से विचार नहीं किया या उन्हें जाना नहीं था, न ही मैं इसके कारण परमेश्‍वर या भाई-बहनों के प्रति अक्सर ऋणी महसूस करती थी। मैंने केवल कलीसिया के कार्य को हुई क्षति देखी थी और भाई-बहनों पर इसका प्रभाव देखा था। मुझे एहसास हुआ कि मैंने परमेश्वर का प्रतिरोध किया है और अगर मैं ऐसी ही हरकते करती रही तो मुझे उसकी सजा भुगतनी पड़ेगी और भयभीत हो गई। इसलिए जब मैंने दोबारा अपना कार्यभार संभाला तो मैंने कड़ी मेहनत की और खुद को खपाया, कलीसिया ने मेरे लिए जो भी कर्तव्य निर्धारित किया उसे स्वीकारा और उसके प्रति समर्पित हो गई। यहाँ तक कि जब मैं इतनी बीमार पड़ गई कि मुश्किल से खड़ी हो पाती थी, तब भी मैं अपना कर्तव्य निर्वहन करती थी। मेरे सारे त्याग मेरे पापों के प्रायश्चित्त के लिए थे, मैं व्यर्थ में उम्मीद लगाए थी कि एक दिन मैं उनके बदले परमेश्वर की क्षमा और पुरस्कार पा लूँगी। मुझे एहसास हुआ कि मेरे त्याग, मेरे खपने और कड़ी मेहनत में ईमानदारी नहीं थी, वे एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निर्वहन तो बिल्कुल नहीं थे। पौलुस की तरह मेरे ये कृत्य पापों का प्रायश्चित्त करने और मेरे पिछले अपराधों की भरपाई करने के उद्देश्य से थे, आखिरकार उनका लक्ष्य एक अनुकूल परिणाम और गंतव्य हासिल करना था। मैंने परमेश्वर के अनुग्रह, आशीष, अच्छे परिणाम और गंतव्य पाने की व्यर्थ आशा में प्रत्यक्ष त्याग, खपने और कड़ी मेहनत का इस्तेमाल किया जिसके परिणामस्वरूप परमेश्‍वर के साथ हितों का एक स्पष्ट सम्बन्ध स्थापित हुआ। मैंने इस बात पर विचार किया कि कैसे मेरी पिछली गड़बड़ियों और बाधाओं के कारण मुझे लगभग निष्कासित कर दिया गया था क्योंकि जब से मैंने परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू किया था, तब से मैं प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भाग रही थी। मैंने देखा कि मेरी साथी बहन शियाओयू मुझसे बेहतर है, मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे उसने मुझे निस्तेज कर दिया है और मेरा आभामंडल छीन लिया है, इसकी वजह से मेरे मन में उसके प्रति ईर्ष्या, अस्वीकृति और आलोचना की भावना पैदा हो गई। मुझे पता था कि शियाओयू को हाल ही में अगुआ बनाया गया है और वह कार्य से बिल्कुल भी परिचित नहीं है, इसलिए जब उच्च अगुआ ने हमें कार्य संबंधी मसलों पर विचार करने सभाओं में भाग लेने के लिए सूचित किया तो मैंने सुनिश्चित किया कि वह भी उपस्थित हो, ऐसा मैंने यह सोचकर किया कि अगर वह इस दौरान कुछ नहीं कह पाई तो वह खुद ही शर्मिंदा हो जाएगी और अगुआ भी देखेंगे कि उसमें कोई खास बात नहीं है, इससे उसे सुर्खियाँ बटोरने का मौका नहीं मिलेगा। जब शियाओयू ने मेरे कार्य से जुड़े मसलों की बात की तो मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी नाक कट गई, लेकिन आत्म-चिंतन करने के बजाय मैंने उसकी भ्रष्टता के मसले को पकड़ लिया और उसे सब जगह फैला दिया जिससे अन्य लोग उससे दूरी बनाने लगे। बाद में मुझे सुरक्षा संबंधी चिंताएँ होने लगीं और मैं केवल घर पर रहकर ही अपना कर्तव्य निर्वहन कर सकती थी। शियाओयू हर दिन कार्य के लिए बाहर जाती थी और भाई-बहन उसके साथ संगति करने को तैयार रहते थे तो मुझे और भी अधिक दृढ़ता से महसूस होता कि उसने मेरी सुर्खियाँ चुरा ली हैं, इस तरह मेरी ईर्ष्या और भी बढ़ गई और साथ ही उसके प्रति मेरा पूर्वाग्रह भी बढ़ गया। जब वार्षिक कलीसिया चुनाव का समय आया तो मैंने शियाओयू के मसलों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया और यह दावा किया कि वह चुनाव में भाग लेने योग्य नहीं है। इस तरह मुझे पूरी उम्मीद थी कि कोई भी मेरे रुतबे को खतरे में नहीं डालेगा। मैंने चुनाव प्रक्रिया में गड़बड़ी पैदा की और शियाओयू को बहुत नुकसान पहुँचाया। इन कृत्यों से मेरा दुर्भावनापूर्ण स्वभाव उजागर हुआ और यह जाहिर हुआ कि मैं मसीह-विरोधी के मार्ग पर हूँ। मैंने इन मामलों पर चिंतन नहीं किया ताकि मैं अपनी परमेश्वर विरोधी शैतानी प्रकृति को पहचान सकूँ, न ही मैंने पश्चात्ताप किया या खुद में बदलाव किया, इसके बजाय मैंने प्रत्यक्ष पीड़ा और खपने के जरिए अपने अपराधों का प्रायश्चित्त करने की कोशिश की, एक अच्छे गंतव्य के लिए सौदेबाजी करने की उम्मीद की। मैं गुप्त रूप से परमेश्वर से सौदेबाजी करने की कोशिश कर रही थी और यह सार रूप में परमेश्वर को धोखा देने का प्रयास था। इस रास्ते पर चलते रहने से मुझे अपने पापों का प्रायश्चित्त करने का मौका न मिलकर, केवल बुरे कर्मों का संचय ही होता और अंत में मुझे परमेश्वर का प्रतिरोध करने के कारण उसके द्वारा दंडित किया जाता। कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए मैंने जो मार्ग अपनाया था, उस पर पीछे मुड़कर देखने पर मुझे अचानक महसूस हुआ कि मेरा बरसों का अनुसरण पूरी तरह बेतुका था और उस समय मुझे खुद से चिढ़ और घृणा हुई। इच्छा हुई कि बस अपना सिर जोर से पटकूँ। आखिर मैंने सत्य का अनुसरण क्यों नहीं किया!

बाद में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े और मुझे अपनी प्रकृति सार की कुछ समझ प्राप्त हुई। परमेश्वर कहता है : “इन दिनों, अधिकांश लोग इस तरह की स्थिति में हैं : आशीष प्राप्त करने के लिए मुझे परमेश्वर के लिए खुद को खपाना होगा और परमेश्वर के लिए कीमत चुकानी होगी। आशीष पाने के लिए मुझे परमेश्वर के लिए सब-कुछ त्याग देना चाहिए; मुझे उसके द्वारा सौंपा गया काम पूरा करना चाहिए, और मुझे अपना कर्तव्य अच्छे से अवश्य निभाना चाहिए। इस दशा पर आशीष प्राप्त करने का इरादा हावी है, जो पूरी तरह से परमेश्वर से पुरस्कार पाने और मुकुट हासिल करने के उद्देश्य से अपने आपको उसके लिए खपाने का उदाहरण है। ऐसे लोगों के दिल में सत्य नहीं होता, और यह निश्चित है कि उनकी समझ केवल कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों से युक्त है, जिसका वे जहाँ भी जाते हैं, वहीं दिखावा करते हैं। उनका रास्ता पौलुस का रास्ता है। ऐसे लोगों का विश्वास निरंतर कठिन परिश्रम का कार्य है, और गहराई में उन्हें लगता है कि वे जितना अधिक करेंगे, परमेश्वर के प्रति उनकी निष्ठा उतनी ही अधिक सिद्ध होगी; वे जितना अधिक करेंगे, वह उनसे उतना ही अधिक संतुष्ट होगा; और जितना अधिक वे करेंगे, वे परमेश्वर के सामने मुकुट पाने के लिए उतने ही अधिक योग्य साबित होंगे, और उन्हें मिलने वाले आशीष उतने ही बड़े होंगे। वे सोचते हैं कि यदि वे पीड़ा सह सकें, उपदेश दे सकें और मसीह के लिए मर सकें, यदि वे अपने जीवन का त्याग कर सकें, और परमेश्वर द्वारा सौंपे गए सभी कर्तव्य पूरे कर सकें, तो वे वो होंगे जिन्हें सबसे बड़े आशीष मिलते हैं, और उन्हें मुकुट प्राप्त होने निश्चित हैं। पौलुस ने भी यही कल्पना की थी और यही चाहा था। यही वह मार्ग है जिस पर वह चला था, और ऐसे ही विचार लेकर उसने परमेश्वर की सेवा करने का काम किया था। क्या इन विचारों और इरादों की उत्पत्ति शैतानी प्रकृति से नहीं होती? यह सांसारिक मनुष्यों की तरह है, जो मानते हैं कि पृथ्वी पर रहते हुए उन्हें ज्ञान की खोज करनी चाहिए, और उसे प्राप्त करने के बाद वे भीड़ से अलग दिखाई दे सकते हैं, पदाधिकारी बनकर हैसियत प्राप्त कर सकते हैं। वे सोचते हैं कि जब उनके पास हैसियत हो जाएगी, तो वे अपनी महत्वाकांक्षाएँ पूरी कर सकते हैं और अपने व्यवसाय और पारिवारिक पेशे को समृद्धि के एक निश्चित स्तर पर ले जा सकते हैं। क्या सभी गैर-विश्वासी इसी मार्ग पर नहीं चलते? जिन लोगों पर इस शैतानी प्रकृति का वर्चस्व है, वे अपने विश्वास में केवल पौलुस की तरह हो सकते हैं। वे सोचते हैं : ‘मुझे परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की खातिर सब-कुछ त्याग देना चाहिए। मुझे परमेश्वर के समक्ष वफ़ादार होना चाहिए, और अंततः मुझे बड़े पुरस्कार और शानदार मुकुट मिलेंगे।’ यह वही रवैया है, जो उन सांसारिक लोगों का होता है, जो सांसारिक चीजें पाने की कोशिश करते हैं। वे बिल्कुल भी अलग नहीं हैं, और वे उसी प्रकृति के अधीन हैं। जब लोगों की शैतानी प्रकृति इस प्रकार की होगी, तो दुनिया में वे ज्ञान, शिक्षा, हैसियत प्राप्त करने और भीड़ से अलग दिखने की कोशिश करेंगे। यदि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे बड़े मुकुट और बड़े आशीष प्राप्त करने की कोशिश करेंगे। यदि परमेश्वर में विश्वास करते हुए लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो उनका इस मार्ग पर चलना निश्चित है। यह एक अडिग तथ्य है, यह एक प्राकृतिक नियम है। सत्य का अनुसरण न करने वाले लोग जो मार्ग अपनाते हैं, वह पतरस के मार्ग से एकदम विपरीत होता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें)। मैंने परमेश्वर द्वारा उजागर की गई अपनी मनोदशा देखी। मैंने आशीष पाने की खातिर अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए सब कुछ त्याग दिया, आशीष प्राप्त करने के लिए कष्ट सहे और कीमत चुकाई, बीमार होने के बावजूद मैं अपने कर्तव्य पर अडिग रही और आशीष पाने की खातिर अपना कर्तव्य निर्वहन अच्छे से करने के लिए हर संभव प्रयास किया। मैंने आशीषों की खातिर विशेष रूप से आज्ञाकारिता और अनुपालन करते हुए व्यवहार किया। मेरा हर कार्य आशीष प्राप्त करने की इच्छा से प्रेरित था। जब मैंने अपने कर्तव्य के दौरान कलीसिया के कार्य में बाधा डाली तो मुझे लगा था कि मैंने दाग छोड़े हैं और परमेश्वर के सामने अपराध किए हैं और सोचा कि अगर मैंने अपने पापों की माफी नहीं माँगी तो मुझे परमेश्वर की सजा भुगतनी पड़ेगी। इसलिए मैंने अपने कर्तव्य की उपेक्षा करने का साहस नहीं किया। जब मुझे अपना कर्तव्य निभाते हुए चक्कर आते तो मैं यह सोचकर कर्तव्य निर्वहन के दौरान ही दवा ले लेती कि यह परमेश्वर के प्रति वफादारी है। जब मैंने अपने कर्तव्य में कुछ नतीजे और परमेश्वर का मार्गदर्शन देखा तो मुझे लगा कि आशीष पाना मेरी पहुँच में है, इसलिए अपने कर्तव्य के प्रति मेरा उत्साह और भी बढ़ गया, मैं अक्सर बीमार होने पर भी बिना किसी शिकायत के कार्य करती थी। यह पीड़ा मेरी पूँजी बन गई, मुझे विश्वास था कि मैंने जो कुछ भी दिया है उसके बाद परमेश्वर को मुझे स्वीकार और मुझ पर अनुग्रह करना चाहिए। लेकिन बाद में जब मेरी तबियत और भी बदतर हो गई तो मैं हताश होकर शिकायत करने लगी, मैं सोचती, “मैं जब भी अपना कर्तव्य निभाना चाहती हूँ तो इतनी बीमार क्यों हो जाती हूँ? अगर मैं अपना कर्तव्य न कर पाऊँ तो कैसे बचाई जा सकती हूँ?” मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे मेरे पिछले अपराध परमेश्वर और मेरे बीच एक गहरी दरार पैदा कर चुके हैं, जिससे मुझे लगता है कि मेरे बचाए जाने की संभावना बहुत कम है, मेरा मानना था कि केवल अधिक कार्य करके ही मैं इस अंतर को पाट सकती हूँ और एक बार फिर से परमेश्वर की दया पाकर बचाई जा सकती हूँ। उस समय मुझे एहसास हुआ कि मुझे सत्य की कोई समझ नहीं है, न ही मुझे परमेश्‍वर के बारे में कोई सच्ची समझ है। मैंने गलती से यह मान लिया था कि अपना कर्तव्य निभाते हुए व्यक्ति जितना अधिक कष्ट उठाता है, उतना ही अधिक वह परमेश्वर को संतुष्ट कर सकता है, इसलिए जब मेरे शरीर ने टूटने की इंतिहा पार कर ली थी तब भी मैं यह सोचकर आराम नहीं करती थी कि अगर मैं बीमार रहते हुए कार्य करूँ तो परमेश्वर मेरा कष्ट देखेगा और मुझे स्वीकार कर आशीष देगा। सच तो यह है कि लोगों से परमेश्‍वर की अपेक्षाएँ ज्यादा नहीं हैं। वह बस यही चाहता है कि लोग अपनी क्षमता के अनुसार अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें। फिर भी ऐसा लग रहा था जैसे मेरे विचार धुंधला गए हों, मैं अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार तब तक लगातार अभ्यास करती जब तक कि मेरा शरीर थकान की चरम अवस्था तक न पहुँच जाता, फिर भी मैं अपनी रक्षा न करने के लिए परमेश्वर के विरुद्ध शिकायत करती थी और सारा दोष परमेश्वर पर डाल देती। मैं सचमुच अनुचित व्यवहार कर रही थी और निराधार आरोप लगा रही थी! मुझे यह भी एहसास हुआ कि जिस बीमारी का मैं सामना कर रही थी, वह मुझे हटाने के लिए परमेश्वर का तरीका नहीं था, बल्कि यह मेरे गलत इरादों और गलत रास्ते का प्रतिबिंब था। परमेश्वर इस वातावरण का उपयोग मेरी भ्रष्टता और कमियों का खुलासा करने के लिए कर रहा था, ताकि मैं खुद को पहचानकर आत्मचिंतन करूँ। परमेश्वर मुझे बचा रहा था। लेकिन मैंने परमेश्वर के मायने खोजने की कोशिश नहीं की, बल्कि उसे गलत समझा और उसके खिलाफ शिकायत की। मुझमें सचमुच जमीर और विवेक की कमी थी। मुझे मन में गहरा खेद हुआ और मैंने प्रार्थना में परमेश्वर को पुकारा, “हे परमेश्वर, पिछले एक साल से तुम मुझे स्वच्छ करने और बचाने के लिए परिस्थितियों की व्यवस्था कर रहे हो, फिर भी मैंने तुम्हारे इरादे की कोई खोज नहीं की। इसके बजाय मैं हमेशा आशीषों के पीछे भागती रही, यहाँ तक कि तुम्हें गलत समझा। मैं बहुत स्वार्थी और नीच हूँ और तुम्हारी बहुत ऋणी हूँ। मैं पश्चात्ताप करने और खुद को बदलने को तैयार हूँ।”

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक भजन सुना जो मेरे लिए काफी मददगार था।

सफलता या विफलता मनुष्य की कोशिश पर निर्भर है

1  सृजित प्राणी के रूप में मनुष्य को सृजित प्राणी का कर्तव्य अच्छे से निभाने की कोशिश करनी चाहिए और दूसरे विकल्पों को छोड़कर परमेश्वर से प्रेम करने की कोशिश करनी चाहिए, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के प्रेम के योग्य है। वे जो परमेश्वर से प्रेम करने की तलाश करते हैं, उन्हें कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं ढूँढ़ने चाहिए या वह नहीं ढूँढ़ना चाहिए जिसके लिए वे व्यक्तिगत रूप से लालायित हैं; यह अनुसरण का सबसे सही माध्यम है। यदि तुम जिसकी खोज करते हो वह सत्य है, तुम जिसे अभ्यास में लाते हो वह सत्य है और यदि तुम जो प्राप्त करते हो वह तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन है, तो तुम जिस पथ पर कदम रखते हो वह सही पथ है।

2  यदि तुम जिसे खोजते हो वह देह के आशीष हैं और तुम जिसे अभ्यास में लाते हो वह तुम्हारी अपनी अवधारणाओं का सत्य है और यदि तुम्हारे स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं होता है और तुम देहधारी परमेश्वर के प्रति बिल्कुल भी समर्पित नहीं हो और तुम अभी भी अस्पष्टता में जीते हो, तो तुम जिसकी खोज कर रहे हो वह निश्चय ही तुम्हें नरक ले जाएगा, क्योंकि जिस पथ पर तुम चल रहे हो वह विफलता का पथ है। तुम्हें पूर्ण बनाया जाएगा या निकाला जाएगा यह तुम्हारे अपने अनुसरण पर निर्भर करता है, जिसका तात्पर्य यह भी है कि सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है

मैंने बार-बार भजन सुना और मेरा हृदय रोशन हो गया। मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर इस बात पर विचार नहीं करता कि कोई व्यक्ति कितना कार्य करता है या उसने किस हद तक प्रत्यक्ष पीड़ा सही है, बल्कि यह देखता है कि क्या वह व्यक्ति परमेश्वर से प्रेम करने और उसे संतुष्ट करने का प्रयास करता है, क्या वह अपना कर्तव्य सत्य सिद्धांतों के अनुसार निभाता है और क्या उसका भ्रष्ट स्वभाव बदल गया है। जैसे पतरस था, उसने सत्य का अनुसरण किया और अंत में परमेश्वर से अत्यन्त प्रेम करने तथा मृत्यु पर्यन्त उसकी आज्ञा मानने की चरम सीमा तक पहुँच गया, इस प्रकार उसने सही तौर पर एक सृजित प्राणी की तरह जीवन जिया। इस चीज को परमेश्‍वर स्वीकार करता है। लेकिन अगर कोई निरंतर आशीषों के पीछे भागता रहता है, केवल परमेश्वर के लिए कार्य करने और कष्ट सहने पर ही ध्यान देता है, मगर सत्य नहीं खोजता या अपने कर्तव्यों में सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं करता, फिर भी परमेश्वर से माँग करता है और उसके साथ सौदेबाजी करता है, अपने भ्रष्ट स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं लाता तो यह असफलता का मार्ग है। मैंने यह भी समझा कि आज परमेश्वर का कार्य मानवता के जमीर और विवेक को फिर से स्थापित करना है ताकि लोग परमेश्वर के वचन सुन सकें, उसकी आज्ञा मान सकें और उसकी आराधना कर सकें। यह सही तौर पर सृजित प्राणी के समान जीना है। यह जानकर मुझे राहत महसूस हुई और समझ गई कि मुझे अपने मार्ग के अगले कदम पर कैसे आगे बढ़ना चाहिए। बाद में अपने कर्तव्य के दौरान जब भी मुझे किसी चीज का सामना करना पड़ता था तो मैं सचेत होकर आत्मचिंतन करती थी, इस बात पर विचार करती थी कि मेरे कौन से विचार गलत हैं और मैंने कौन से भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किए हैं, मैंने अपनी मनोदशा पर साथी बहनों के साथ खुलकर बात करती थी, अभ्यास करने और प्रवेश करने के लिए परमेश्वर के वचनों की खोज करती थी। इस अभ्यास से मुझे अपने भ्रष्ट स्वभावों की कुछ समझ प्राप्त हुई और मेरे कार्य के नतीजे बेहतर हो गए।

बाद में मैंने खुद से पूछा कि मैं हमेशा अपने अपराधों से बाधित कैसे रहती थी और सोचा कि मुझे इस मसले को किस तरह लेना चाहिए। एक दिन मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला और मुझे अभ्यास का मार्ग मिल गया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “ऐसे बहुत-से लोग जरूर होंगे जिन्होंने छोटा या बड़ा, कोई-न-कोई अपराध किया होगा, मगर बहुत संभव है कि नैतिकता के दायरे लांघने वाले गंभीर अपराध बहुत कम लोगों ने किए हों। हम यहाँ उनकी बात नहीं करेंगे जिन्होंने तरह-तरह के दूसरे अपराध किए हैं, बल्कि हम सिर्फ इस बारे में बात करेंगे कि जिन लोगों ने गंभीर अपराध किए हैं और जिन्होंने नैतिक सीमाओं और नीतियों के पार के अपराध किए हैं, उन्हें क्या करना चाहिए। जहाँ तक गंभीर अपराध करने वालों की बात है—और यहाँ मैं उन अपराधों की बात कर रहा हूँ जो नैतिक सीमाओं से परे हैं—इसमें परमेश्वर के स्वभाव का अपमान और उसके प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन शामिल नहीं है। समझ गए? मैं उन अपराधों की बात नहीं कर रहा हूँ जो परमेश्वर, उसके सार या उसकी पहचान और हैसियत के अपमान से जुड़े हैं, मैं उन अपराधों की भी बात नहीं कर रहा हूँ, जो परमेश्वर की निंदा से जुड़े हैं। मैं ऐसे अपराधों की बात कर रहा हूँ जो नैतिक सीमाएँ पार कर जाते हैं। यह भी बताना है कि ऐसे अपराध करने वाले लोग अपनी हताशा की भावना कैसे दूर कर सकते हैं। ऐसे लोग दो रास्ते पकड़ सकते हैं, और यह मुद्दा सरल है। पहले, अगर तुम्हें दिल से लगता है कि तुमने जो किया उसे जाने दे सकते हो या तुम्हारे पास दूसरे व्यक्ति से माफी माँगने और फिर से करीब आने का मौका है, तो तुम उनसे माफी माँग कर करीब आ सकते हो। इस तरह तुम्हारी आत्मा को शांति और आराम की भावनाएँ वापस मिल जाएँगी; अगर तुम्हारे पास ऐसा करने का मौका नहीं है, यह संभव नहीं है और अगर तुम अपने अंतरतम में अपनी समस्या को सचमुच जान गए हो, अगर तुम्हें एहसास है कि तुम्हारी करतूत कितनी गंभीर है और तुम्हें सचमुच पछतावा है, तो तुम्हें पाप स्वीकार कर प्रायश्चित्त करने के लिए परमेश्वर के समक्ष आना चाहिए। जब भी तुम अपनी करतूत के बारे में सोचते हो और खुद को दोषी मानते हो, उसी समय तुम्हें पाप-स्वीकार और प्रायश्चित्त के लिए परमेश्वर के समक्ष आना चाहिए, परमेश्वर से क्षमा और दोष-मुक्ति पाने के लिए तुममें पूरी ईमानदारी और सच्ची भावना होनी चाहिए। परमेश्वर तुम्हें किस तरह से क्षमादान देकर दोष-मुक्त कर सकता है? यह तुम्हारे दिल पर निर्भर करता है। अगर तुम ईमानदारी से पाप-स्वीकार करते हो, सच में अपनी गलती और समस्या को पहचान लेते हो, यह पहचानते हो कि तुमने क्या किया है-भले ही वह अपराध हो या पाप-सच्चे पाप-स्वीकार का रवैया अपनाते हो, तुम अपनी करतूत के लिए सच्ची घृणा महसूस करते हो और सच में सुधर जाते हो और तुम वह गलत काम दोबारा कभी नहीं करते, तो अंतत: एक दिन आएगा जब तुम्हें परमेश्वर से क्षमादान और दोष-मुक्ति मिल जाएगी, यानी परमेश्वर तुम्हारी की हुई अज्ञानतापूर्ण, मूर्खतापूर्ण और गंदी करतूतों के आधार पर तुम्हारा परिणाम तय नहीं करेगा। जब तुम इस स्तर पर पहुँच जाओगे, तो परमेश्वर इस मामले को पूरी तरह भूल जाएगा; तुम भी दूसरे सामान्य लोगों जैसे ही होगे, जरा भी फर्क नहीं होगा। लेकिन यह इस बात पर निर्भर होगा कि तुम ईमानदार रहो और तुम्हारा रवैया दाऊद की तरह सच्चा हो। अपने अपराध के लिए दाऊद ने कितने आँसू बहाए थे? अनगिनत आँसू। वह कितनी बार रोया था? अनगिनत बार। उसके बहाए आँसुओं को इन शब्दों में बयान किया जा सकता है : ‘मैं हर रात अपने आँसुओं में तैरते बिस्तर पर सोता हूँ।’ मुझे नहीं पता कि तुम्हारा अपराध कितना गंभीर है। अगर सचमुच गंभीर है, तो तुम्हें तब तक रोना पड़ सकता है जब तक कि तुम्हारा बिस्तर तुम्हारे आँसुओं पर तैरने न लगे—परमेश्वर से क्षमा पाने से पहले तुम्हें उस स्तर तक पाप-स्वीकार और प्रायश्चित्त करना पड़ सकता है। अगर तुम ऐसा नहीं करते, तो मुझे डर है कि तुम्हारा अपराध परमेश्वर की नजरों में पाप बन जाएगा और तुम्हें इससे छुटकारा नहीं मिलेगा। तब तुम मुसीबत में पड़ जाओगे और फिर इस बारे में कुछ भी और कहना बेतुका होगा। इसलिए परमेश्वर से क्षमादान और दोष-मुक्ति पाने का पहला कदम यह है कि तुम्हें ईमानदार बनना चाहिए और पाप-स्वीकार कर प्रायश्चित्त करने के लिए व्यावहारिक कदम उठाने चाहिए(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि अपने अपराधों से निपटते समय मुझे सबसे पहले परमेश्वर के सामने आना चाहिए, उसके सामने अपने पापों को स्वीकारना चाहिए और आत्मचिंतन करना चाहिए। फिर मुझे अपने अपराधों के विषय में सत्य खोजना चाहिए ताकि मैं खुद के बारे में सच्ची समझ हासिल कर खुद से घृणा कर सकूँ जिससे कि सच में पश्चात्ताप कर पाऊँ। ठीक दाऊद की तरह जिसे अपराध करने के बाद अपने कृत्यों पर सच में पछतावा हुआ, परमेश्वर के आगे पश्चात्ताप किया और फिर कभी वैसा अपराध नहीं किया। पश्चात्ताप से भरा यह सच्चा हृदय बहुत मूल्यवान था! मैं अब अपने अपराधों से बच नहीं सकती थी। मुझे परमेश्वर के सामने अपने पापों को स्वीकार कर पश्चात्ताप करना था और यह सुनिश्चित करना था कि मैं भविष्य में ऐसे कृत्य नहीं करूँगी। बाद में जब मैं देखा कि मैं अपने कर्तव्य में प्रसिद्धि और रुतबे के पीछे भाग रही हूँ तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे शाप दे और दंडित करे ताकि मैं आगे से अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार कार्य न करूँ। इस अभ्यास से अपने दैहिक-सुख के खिलाफ विद्रोह करने का मेरा संकल्प और मजबूत हो गया। पहले मैं इस बात को लेकर बहुत चिंतित रहती थी कि दूसरे लोग मेरे बारे में क्या सोचते हैं और दूसरों के दिलों में हमेशा अपनी अच्छी छवि बनाए रखना चाहती थी। लेकिन अब मैं सचेत रहती हूँ और खुलकर अपनी भ्रष्टता उजागर करती हूँ, इस अभ्यास से मैं अपने दिल में सहजता और शांति महसूस करती हूँ। जब अपने कर्तव्य में मेरा समस्याओं से सामना होता है तो मैं अब सचेत होकर परमेश्वर के वचनों और सिद्धांतों की खोज कर पाती हूँ, मैं अब अपने पिछले अपराधों से बाधित नहीं होती और अपने दिल में अधिक मुक्ति महसूस करती हूँ।

इस बीमारी ने मेरे गलत दृष्टिकोण का खुलासा कर दिया और इससे मुझे एहसास हुआ कि मैं अपनी आस्था में गलत रास्ते पर चल पड़ी थी। अगर ये परिस्थितियाँ न होतीं तो मुझमें कोई आत्म-जागरूकता न आ पाती और मैं इसी रास्ते पर चलती रहती, आखिरकार कुछ भी हासिल न कर पाती और हटा दी जाती। आगे बढ़ते हुए मैं परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने को तैयार हूँ, परमेश्वर के दिल को संतुष्ट करने और उसके प्रेम का प्रतिदान देने के लिए एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निर्वहन करने को तैयार हूँ।

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