39. चापलूस होने के दुष्परिणाम

चेंगकियान, चीन

अक्टूबर 2022 में मुझे और झांग कियांग को अगुआ का एक पत्र मिला जिसमें वीडियो कार्य की निगरानी के लिए सहयोग करने को कहा गया था। हम दोनों पत्र पाकर काफी खुश थे। उस रात झांग कियांग पहले सो गया और मुझे लगा कि अगुआ को दिया गया हमारा जवाब थोड़ा सरल लग रहा था, इसलिए मैंने अंत में अपने कुछ विचार जोड़ दिए। थोड़ी देर बाद झांग कियांग जाग गया, मैंने उसे बताया कि मैंने कुछ चीजें जोड़ी हैं। अप्रत्याशित रूप से झांग कियांग ने उपदेशात्मक लहजे में कहा कि मैं तानाशाही ढंग से काम कर रहा था और मुझे अपने इरादों पर आत्म-चिंतन करने के लिए कहा। मैं काफी हैरान था, मैंने सोचा, “मैंने बस अपने कुछ विचार जोड़े हैं और मूल सामग्री को नहीं बदला है, तो मैं तानाशाही कैसे कर रहा था? तुम स्थिति को समझे बिना मुझे उपदेश कैसे दे सकते हो?” मैंने अपने बचाव में कुछ शब्द कहे। बोलने के बाद मैं सोचने लगा, “हमने अभी-अभी सहयोग करना शुरू किया है, अगर हमारा रिश्ता अभी से तनावपूर्ण हो जाता है, तो हम बाद में साथ कैसे चल पाएँगे?” आगे टकराव से बचने के लिए मैंने उसकी प्रतिक्रिया स्वीकार कर ली और आत्म-चिंतन करना शुरू कर दिया। अगले दिन जब हम संगति में खुलकर बोलने लगे तो झांग कियांग ने मुझसे कहा कि मैं उसके मसले बताऊँ। उसके कहने पर मैंने बता दिया कि वह अक्सर दूसरों को नीचा दिखाता है और उपदेश देता है। झांग कियांग का चेहरा तुरंत उतर गया और उसने कहा कि उसके साथ ऐसा कोई मसला नहीं है। उसका कठोर रवैया और मेरी कही गई बातें स्वीकार करने की अनिच्छा देखकर मुझे डर था कि अगर मैं बोलता रहा तो हमारा रिश्ता खराब हो जाएगा, इसलिए मैंने कहा, “शायद मैं इसे स्पष्ट रूप से नहीं देख पा रहा हूँ, अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारे साथ ऐसा कोई मसला नहीं है तो हो सकता है कि मैं गलत हूँ।” ऐसा कहकर मैंने विषय बदल दिया और उसके चेहरे पर नरमी देखकर मुझे राहत महसूस हुई।

उसके बाद मैंने झांग कियांग के साथ और अधिक सावधानी बरतनी शुरू कर दी। झांग कियांग के साथ टकराव से बचने के लिए मैं आमतौर पर कार्य की चर्चाओं के दौरान इंतजार करता था कि वह पहले अपने विचार साझा कर ले और अगर उसकी राय मेरी राय से मिलती-जुलती होती, तो मैं उसके मुताबिक चलता। लेकिन अगर हमारे विचार अलग होते, तो मैं यथासंभव चतुराई से इसे सामने लाने की कोशिश करता और उसे फैसला लेने देता था। अगर वह यह तय नहीं कर पाता कि कौन सा सही है, तो हम अगुआ से पूछते थे। एक बार कुछ भाई-बहनों ने वीडियो निर्माण के सिद्धांतों के बारे में पूछते हुए लिखा। मैंने देखा कि एक हिस्से में झांग कियांग का जवाब बहुत उचित नहीं था क्योंकि वह थोड़ा कठोर था। मुझे पता था कि बहुत मुमकिन है कि उसका जवाब दूसरों को गुमराह करे, लेकिन मुझे लगा कि अगर मैंने सीधे तौर पर इसे उठाया तो झांग कियांग शायद इसे नहीं सुनना चाहेगा, इसलिए मैं इसका जिक्र नहीं करना चाहता था। लेकिन फिर मैंने सोचा कि कैसे परमेश्वर हमसे ईमानदार होने और कलीसिया के कार्य को बनाए रखने की अपेक्षा रखता है, इसलिए मैंने झांग कियांग को इस मुद्दे के बारे में बताया। मगर झांग कियांग ने मेरी बात नहीं मानी और यह कहने के लिए बहाने ढूँढ़े कि वही सही था। हालाँकि उसे अंततः एहसास हुआ कि उसने जो लिखा था वह अनुचित था और मुझे उसे संपादित करने देने को मान गया, लेकिन असहमति के बाद मुझे थका हुआ महसूस हुआ। मैंने मन ही मन सोचा, “कुछ न कहना ही बेहतर होता। इस तरह की बातें सिर्फ तर्क-वितर्क में ही बदलती हैं और आगे चलकर चीजें तकलीफदेह हो जाती हैं। अगर मैं इसका जिक्र न करूँ तो हम सबमें अच्छी बनेगी और मैं अधिक सहज महसूस करूँगा। देर-सबेर उसका स्वभाव उसे ही मुश्किल में डालेगा और नाकाम करेगा। बाद में उसकी काट-छाँट के लिए मैं परमेश्वर को हालात बनाने दूँगा। मैं उसे नाराज करने के लिए अपनी गर्दन जोखिम में नहीं डालने वाला।” कुछ समय बाद चूँकि भाई-बहनों के बनाए गए वीडियो में अक्सर विचलन होते थे, तो मैंने सुझाव दिया कि हम मसलों का विश्लेषण करके एक साथ सिद्धांतों का अध्ययन करें। झांग कियांग नाखुश था और उसने कहा, “ये सिद्धांत पहले से ही एकदम स्पष्ट हैं। कोई भी उन्हें एक नजर में समझ सकता है। हमें उनका अध्ययन करने की क्या जरूरत है?” मैंने मन ही मन सोचा, “पिछली गलतियाँ सिद्धांतों के प्रति हमारे लापरवाह रवैये की वजह से ही हुई थीं। हमें लगा कि हम सिद्धांत समझ गए हैं, लेकिन वास्तव में हम उन्हें नहीं समझ पाए थे। अगर हम अभी भी उनका ठीक से अध्ययन न करें, तो क्या वह पहले जैसा ही नहीं रहेगा? ऐसे नहीं चलेगा। अगर हम इन सिद्धांतों का अध्ययन नहीं करते तो हम सिद्धांतों की समस्याएँ खड़ी करते रहेंगे।” इसलिए मैं झांग कियांग के सामने यह बात रखना चाहता था, लेकिन शब्द होंठों पर आते ही मैं यह सोचकर झिझक गया, “झांग कियांग की स्थिति स्पष्ट है, वह अध्ययन नहीं करना चाहता। अगर मैं इसे फिर से न उठाऊँ, तो कम से कम हम चीजों में शांति बनाए रख सकते हैं। अगर मैं इस बारे में उसके साथ संगति करता हूँ, तो हम फिर से बहस करेंगे।” यह सोचकर कि हर बहस के बाद मैं कितने दिनों तक असहज महसूस करता था, मुझे इसे फिर से उठाने की हिम्मत नहीं हुई। उसके बाद मैंने धीरे-धीरे सिद्धांतों का अध्ययन करना छोड़ दिया। चूँकि भाई-बहनों ने सिद्धांतों में उचित ढंग से प्रवेश नहीं किया, इसलिए मामूली सुधार के साथ वीडियोज निर्माण में विचलन जारी रहे।

कुछ समय बाद अगुआ ने मुझे और दूसरे भाई-बहनों को झांग कियांग का मूल्यांकन लिखने के लिए कहा। जब उसने देखा कि झांग कियांग लगातार दूसरों के साथ सहयोग नहीं कर पा रहा था और इससे उसके कर्तव्यों पर असर पड़ रहा था, तो अगुआ ने उसे बरखास्त कर दिया। मैं काफी खुश था क्योंकि आखिरकार मुझे अब झांग कियांग के साथ सहयोग नहीं करना पड़ेगा। लेकिन अगले दिन अगुआ ने एक पत्र भेजा, जिसमें कहा गया था कि चूँकि हमारे वीडियो के इतने लंबे समय के कोई नतीजे नहीं आ रहे हैं, इसलिए हमारी टीम को भंग किया जा रहा है। यह सुनकर मैं दंग रह गया, मैंने सोचा, “मैंने इस कर्तव्य में अपना सब कुछ लगाया भी नहीं था और अब यह खत्म भी हो गया?” पिछले कुछ महीनों से मैं झांग कियांग के साथ बिना किसी सिद्धांत के सहयोग कर रहा था, खुशामदी की भूमिका निभा रहा था, इस हद तक संघर्ष से बचता था कि मैं शायद ही कभी अपनी राय जताता था, काम को अच्छी तरह पूरा करने में अपना दिल और प्राण लगाना तो दूर की बात है। अब इसी कर्तव्य के लिए मेरी जरूरत नहीं थी और मेरे पास अपने अपराधों की भरपाई करने का कोई मौका नहीं था। घर लौटकर मैंने आत्म-चिंतन किया। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “ज़्यादातर लोग सत्य का अनुसरण और अभ्यास करना चाहते हैं, लेकिन अधिकतर समय उनके पास ऐसा करने का केवल संकल्प और इच्छा ही होती है; सत्य उनका जीवन नहीं बना है। इसके परिणामस्वरूप जब लोगों का बुरी शक्तियों से वास्ता पड़ता है या ऐसे राक्षसी लोगों या बुरे लोगों से उनका सामना होता है जो बुरे कामों को अंजाम देते हैं, या जब ऐसे नकली अगुआओं और मसीह विरोधियों से उनका सामना होता है जो अपना काम इस तरह से करते हैं जिससे सिद्धांतों का उल्लंघन होता है—इस तरह कलीसिया के कार्य में बाधा पड़ती है, और परमेश्वर के चुने गए लोगों को हानि पहुँचती है—वे डटे रहने और खुलकर बोलने का साहस खो देते हैं। जब तुम्हारे अंदर कोई साहस नहीं होता, इसका क्या अर्थ है? क्या इसका अर्थ यह है कि तुम डरपोक हो या कुछ भी बोल पाने में अक्षम हो? या फिर यह कि तुम अच्छी तरह नहीं समझते और इसलिए तुम में अपनी बात रखने का आत्मविश्वास नहीं है? दोनों में से कुछ नहीं; यह मुख्य रूप से भ्रष्ट स्वभावों द्वारा बेबस होने का परिणाम है। तुम्हारे द्वारा प्रदर्शित किए जाने वाले भ्रष्ट स्वभावों में से एक है कपटी स्वभाव; जब तुम्हारे साथ कुछ होता है, तो पहली चीज जो तुम सोचते हो वह है तुम्हारे हित, पहली चीज जिस पर तुम विचार करते हो वह है नतीजे, कि यह तुम्हारे लिए फायदेमंद होगा या नहीं। यह एक कपटी स्वभाव है, है न? दूसरा है स्वार्थी और नीच स्वभाव। तुम सोचते हो, ‘परमेश्वर के घर के हितों के नुकसान से मेरा क्या लेना-देना? मैं कोई अगुआ नहीं हूँ, तो मुझे इसकी परवाह क्यों करनी चाहिए? इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। यह मेरी जिम्मेदारी नहीं है।’ ऐसे विचार और शब्द तुम सचेतन रूप से नहीं सोचते, बल्कि ये तुम्हारे अवचेतन द्वारा उत्पन्न किए जाते हैं—जो वह भ्रष्ट स्वभाव है जो तब दिखता है जब लोग किसी समस्या का सामना करते हैं। ऐसे भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारे सोचने के तरीके को नियंत्रित करते हैं, वे तुम्हारे हाथ-पैर बाँध देते हैं और तुम जो कहते हो उसे नियंत्रित करते हैं। अपने दिल में, तुम खड़े होकर बोलना चाहते हो, लेकिन तुम्हें आशंकाएँ होती हैं, और जब तुम बोलते भी हो, तो इधर-उधर की हाँकते हो, और बात बदलने की गुंजाइश छोड़ देते हो, या फिर टाल-मटोल करते हो और सत्य नहीं बताते। स्पष्टदर्शी लोग इसे देख सकते हैं; वास्तव में, तुम अपने दिल में जानते हो कि तुमने वह सब नहीं कहा जो तुम्हें कहना चाहिए था, कि तुमने जो कहा उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा, कि तुम सिर्फ बेमन से कह रहे थे, और समस्या हल नहीं हुई है। तुमने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई है, फिर भी तुम खुल्लमखुल्ला कहते हो कि तुमने अपनी जिम्मेदारी निभा दी है, या जो कुछ हो रहा था वह तुम्हारे लिए अस्पष्ट था। क्या यह सच है? और क्या तुम सचमुच यही सोचते हो? क्या तब तुम पूरी तरह से अपने शैतानी स्वभाव के नियंत्रण में नहीं हो? भले ही तुम जो कुछ कहते हो उसका कुछ हिस्सा तथ्यों के अनुरूप हो, लेकिन मुख्य स्थानों और महत्वपूर्ण मुद्दों पर तुम झूठ बोलते हो और लोगों को धोखा देते हो, जो साबित करता है कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो झूठ बोलता है, और जो अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार जीता है। तुम जो कुछ भी कहते और सोचते हो, वह तुम्हारे मस्तिष्क द्वारा संसाधित किया गया होता है, जिससे तुम्हारा हर कथन नकली, खोखला, झूठा हो जाता है; वास्तव में, तुम जो कुछ भी कहते हो वह तथ्यों के विपरीत, खुद को सही ठहराने की खातिर, अपने फायदे के लिए होता है, और तुम्हें लगता है कि जब तुम लोगों को गुमराह करते हो और उन्हें विश्वास दिला देते हो, तो तुम अपने लक्ष्य हासिल कर लेते हो। ऐसा है तुम्हारे बोलने का तरीका; यह तुम्हारा स्वभाव भी दर्शाता है। तुम पूरी तरह से अपने शैतानी स्वभाव से नियंत्रित हो। तुम जो कहते और करते हो, उस पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं होता। यहाँ तक कि अगर तुम चाहते भी, तो भी तुम सच न बता पाते या वह न कह पाते जो तुम वास्तव में सोचते हो; चाहकर भी तुम सत्य का अभ्यास न कर पाते; चाहकर भी तुम अपनी जिम्मेदारियाँ न निभा पाते। तुम जो कुछ भी कहते, करते हो और जिसका भी अभ्यास करते हो, वह सब झूठ है, और तुम सिर्फ अनमने हो। तुम पूरी तरह से अपने शैतानी स्वभाव की बेड़ियों में जकड़े हुए और उससे नियंत्रित हो। हो सकता है कि तुम सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास करना चाहो, लेकिन यह तुम पर निर्भर नहीं है। जब तुम्हारे शैतानी स्वभाव तुम्हें नियंत्रित करते हैं, तो तुम वही कहते और करते हो जो तुम्हारा शैतानी स्वभाव तुमसे करने को कहता है। तुम भ्रष्ट देह की कठपुतली के अलावा और कुछ नहीं हो, तुम शैतान का एक औजार बन गए हो। बाद में तुम्हें एक बार फिर भ्रष्ट देह का अनुसरण करने पर और इस बात पर पछतावा महसूस होता है कि तुम सत्य का अभ्यास करने में विफल कैसे हो सकते हो। तुम मन ही मन सोचते हो, ‘मैं अपने दम पर देह की इच्छाओं पर विजय नहीं पा सकता और मुझे परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। मैं उन लोगों को रोकने के लिए खड़ा नहीं हुआ जो कलीसिया के काम में बाधा डाल रहे थे, और मेरा जमीर मुझे कचोट रहा है। मैंने मन बना लिया है कि जब दोबारा ऐसा होगा, तो मुझे उनका डटकर मुकाबला करना होगा और उनकी काट-छाँट करनी होगी जो अपने कर्तव्यों के निर्वाह में कुकर्म कर रहे हैं और कलीसिया के काम में बाधा डाल रहे हैं, ताकि वे अच्छा व्यवहार करें और लापरवाही से काम करना बंद कर दें।’ अंततः बोलने का साहस जुटाने के बाद, जैसे ही दूसरा व्यक्ति क्रोधित होता है और मेज पर हाथ पटकता है, तुम डरकर पीछे हट जाते हो। क्या तुम प्रभारी बनने में सक्षम हो? दृढ़ संकल्प और इच्छाशक्ति किस काम की? दोनों ही बेकार हैं। ... तुम कभी सत्य नहीं खोजते, उसका अभ्यास करना तो दूर की बात है। तुम सिर्फ लगातार प्रार्थना कर रहे हो, संकल्प कर रहे हो, महत्वाकांक्षाएँ तय कर रहे हो और अपने दिल में प्रतिज्ञा कर रहे हो। और नतीजा क्या होता है? तुम खुशामदी बने रहते हो, तुम अपने सामने आने वाली समस्याओं के बारे में स्पष्टवादी नहीं होते, तुम बुरे लोगों को देखकर उन पर ध्यान नहीं देते, जब कोई बुराई या गड़बड़ी करता है तो तुम प्रतिक्रिया नहीं देते, और अगर तुम व्यक्तिगत रूप से प्रभावित नहीं होते तो तुम अलग रहते हो। तुम सोचते हो, ‘मैं ऐसी किसी चीज के बारे में बात नहीं करता, जिसका मुझसे कोई सरोकार नहीं है। अगर वह मेरे हितों, मेरी शान या मेरी छवि को ठेस नहीं पहुँचाती, तो मैं बिना किसी अपवाद के हर चीज की उपेक्षा करता हूँ। मुझे बहुत सावधान रहना होगा, क्योंकि जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है। मैं कोई बेवकूफी नहीं करूँगा!’ तुम पूरी तरह से और अटूट रूप से दुष्टता, कपट, कठोरता और सत्य से विमुखता के अपने भ्रष्ट स्वभावों से नियंत्रित हो। इन्हें सहना तुम्हारे लिए वानर राजा द्वारा पहने गए उस सुनहरे सरबंद से ज्यादा मुश्किल हो गया है जो असहनीय ढंग से कसता जाता था। भ्रष्ट स्वभावों के नियंत्रण में रहना बहुत थकाऊ और कष्टदायी है!(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि झांग कियांग की समस्याएँ बताने में मेरे साहस की कमी झांग कियांग के दबंग या अहंकारी स्वभाव के कारण नहीं थी, बल्कि इसलिए थी क्योंकि मैं पूरी तरह से अपनी धोखेबाज और स्वार्थी प्रकृति के नियंत्रण में था। लगभग हर बार बोलने से पहले मैं विचार करता था कि कहीं मैं झांग कियांग को नाराज तो नहीं कर बैठूँगा और क्या कोई ऐसी चीज तो नहीं है जो उसे नापसंद हो, भले ही वह कार्य के लिए फायदेमंद हो, तो भी मैं उसे नहीं कहता था। जब मैं पहली बार झांग कियांग के साथ काम करना शुरू करने के दिनों के बारे में सोचता हूँ तो मैंने देखा कि उसके साथ तालमेल बिठाना मुश्किल था, तो मैंने तुरंत अपने लिए एक सिद्धांत बना लिया : टकरावों से बचो, उसके मुद्दे न छुओ और अच्छे संबंध बनाए रखो। जब मैंने देखा कि झांग कियांग के जवाब का एक हिस्सा अनुचित है तो मैंने वह मसला सामने रख दिया, इससे बात बहस तक पहुँच गई, हमारे बीच अजीबो-गरीब स्थिति बन गई और मैं और भी अधिक आश्वस्त हो गया कि सांसारिक आचरण का यह फलसफा सही है कि “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है”। मुझे लगा कि मुझे कुछ भी ऐसा कहने से बचना चाहिए जिससे झांग कियांग नाराज हो। बाद में जब मैंने पेशों और सिद्धांतों के अध्ययन के प्रति झांग कियांग का लापरवाह रवैया देखा तो मुझे साफ पता चल गया कि इससे काम में बाधा आएगी, लेकिन संघर्ष से बचने के लिए मैंने पीछे हटने का फैसला किया। नतीजतन, चूँकि भाई-बहनों ने वीडियो निर्माण के सिद्धांतों में प्रवेश नहीं किया था, इसलिए अधिकांश काम बेकार हो गया। मैं अपने कपटी और स्वार्थी स्वभाव के आधार पर लोगों के साथ बातचीत करता था, किसी के साथ टकराव या उसकी नाराजी से बचने की भरसक कोशिश करता था और भले ही मैंने अपने रिश्ते बचा लिए, पर अपनी जिम्मेदारियाँ बिल्कुल भी पूरी नहीं कर रहा था। जब दूसरों को चेताना चाहिए था, मैंने नहीं चेताया, न ही मैंने सिद्धांतों को कायम रखा। इससे काम को नुकसान पहुँचा। लग रहा था कि मैं एक अच्छा इंसान हूँ, लेकिन वास्तव में ये “अच्छे” व्यवहार मेरे धोखेबाज और स्वार्थी भ्रष्ट स्वभाव से निकले थे। इन सबका संबंध मेरे अपने हितों की रक्षा से था, जिनसे परमेश्वर घृणा करता है।

बाद में मैंने परमेश्वर के वो वचन पढ़े जिनमें शैतानी जहर “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है” का गहन-विश्लेषण किया गया है, इन्होंने ठीक मेरी समस्या पर चोट की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “परिवार दूसरे तरीकों से भी तुम्हें शिक्षा देता है और तुम्हें प्रभावित करता है, जैसे कि इस कहावत से कि ‘सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है।’ परिवार के सदस्य अक्सर तुम्हें सिखाते हैं : ‘दयालु बनो और दूसरों से बहस मत करो या दुश्मन मत बनाओ, क्योंकि अगर तुम बहुत सारे दुश्मन बनाओगे, तो समाज में अपने पैर नहीं जमा पाओगे, और अगर तुमसे नफरत और तुम्हारी हानि करने वालों की संख्या ज्यादा होगी, तो तुम समाज में सुरक्षित नहीं रहोगे। तुम पर हमेशा खतरे की तलवार लटकी रहेगी, और तुम्हारा अस्तित्व, रुतबा, परिवार, व्यक्तिगत सुरक्षा, और यहाँ तक कि तुम्हारे करियर में प्रगति की संभावनाएँ भी खतरे में पड़ जाएँगी और बुरे लोग इसमें बाधा डालेंगे। तो तुम्हें यह सीखना होगा कि “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है।” सबके प्रति दयालु बनो, अच्छे रिश्ते मत तोड़ो, ऐसी बातें मत कहो जिसका बाद में तुम्हें पछतावा हो, लोगों के आत्मसम्मान को ठेस मत पहुँचाओ, और उनकी कमियों को उजागर मत करो। ऐसी बातें कहने से बचो या मत कहो जिन्हें लोग सुनना नहीं चाहते। सिर्फ तारीफें करो, क्योंकि किसी की तारीफ करने से कोई नुकसान नहीं होता है। तुम्हें बड़े और छोटे, दोनों तरह के मामलों में धीरज दिखाना और समझौता करना सीखना होगा, क्योंकि “समझौते से संघर्ष सुलटना आसान हो जाएगा।”’ जरा सोचो, तुम्हारा परिवार एक बार में तुम्हारे मन में दो विचार और दृष्टिकोण डालता है। एक ओर, वे कहते हैं कि तुम्हें दूसरों के प्रति दयालु बनना होगा; तो वहीं दूसरी ओर, वे चाहते हैं कि तुम धीरज दिखाओ, अपनी बारी आए तभी बोलो, और अगर तुम्हें कुछ कहना है, तो उस वक्त अपना मुँह बंद ही रखो और घर आकर सारी बातें सिर्फ अपने परिवार को बताओ। या इससे भी बेहतर, अपने परिवार को भी मत बताओ, क्योंकि दीवारों के भी कान होते हैं—अगर कभी राज़ सामने आ गया, तो तुम्हारे लिए अच्छा नहीं होगा। इस समाज में पैर जमाने और जीवन जीने के लिए, लोगों को एक चीज जरूर सीखनी चाहिए, और वह है गोलमोल बातें करने वाला बनना। बोलचाल की भाषा में कहें तो तुम्हें झूठा और चालाक बनना होगा। तुम यूँ ही अपने मन की बात नहीं कह सकते। अगर तुम बगैर सोचे अपने मन की बात कह देते हो, तो यह बेवकूफी कहलाएगी, चतुराई नहीं। ... कलीसिया में ऐसे व्यक्ति को कुछ लोग हमेशा पसंद करते हैं, क्योंकि वे कभी बड़ी गलतियाँ नहीं करते, अपनी सच्चाई कभी बाहर नहीं आने देते, और कलीसिया अगुआओं और भाई-बहनों का उनके बारे में मूल्यांकन यह होता है कि वे सभी के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं। वे अपने कर्तव्य को लेकर उदासीन रहते हैं, उनसे जो कहा जाता है वही करते हैं। वे विशेष रूप से आज्ञाकारी होते हैं और अच्छा व्यवहार करते हैं, बातचीत में या मामलों से निपटते हुए कभी दूसरों को दुखी नहीं करते, और कभी किसी का गलत फायदा नहीं उठाते हैं। वे कभी किसी के बारे में बुरा नहीं बोलते, और पीठ पीछे लोगों की आलोचना भी नहीं करते। हालाँकि, यह कोई नहीं जानता कि वे अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार हैं या नहीं, और वे दूसरों के बारे में क्या सोचते हैं या उनके बारे में क्या राय रखते हैं। बहुत सोच-विचार के बाद, तुम्हें लगता है कि यह व्यक्ति वाकई थोड़ा अजीब है और उसकी थाह पाना मुश्किल है, और उसे अपने साथ रखने से दिक्कत हो सकती है। अब तुम्हें क्या करना चाहिए? यह तय करना मुश्किल है, है न? ... वे किसी के खिलाफ मन में खोट नहीं रखते। अगर कोई उन्हें दुख पहुँचाने के लिए कुछ कहता है या ऐसे भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा करता है जिससे उनकी गरिमा को चोट पहुँचती है, तब वे क्या सोचते हैं? ‘मैं धीरज से काम लूँगा, इस कारण मैं तुमसे बैर नहीं करूँगा, पर एक दिन ऐसा आएगा जब तुम खुद का मजाक बनाओगे!’ जब उस व्यक्ति से वास्तव में निपटा जाता है या वह खुद का मजाक बनाता है, तो वे मन-ही-मन उस पर हँसते हैं। वे आसानी से दूसरे लोगों, अगुआओं और परमेश्वर के घर का मजाक उड़ाते हैं, पर अपना मजाक नहीं बनने देते। वे खुद ही नहीं जानते कि उनमें क्या समस्याएँ या खामियाँ हैं। ऐसे लोग सावधानी बरतते हैं कि कहीं कुछ ऐसा खुलासा न कर दें जिससे दूसरों को ठेस पहुँचे या जिससे दूसरों को उनकी असलियत पता चल जाए; हालाँकि, वे इन चीजों के बारे में मन-ही-मन जरूर सोचते हैं। जब ऐसी चीजों की बात आती है जो दूसरों को सुन्न या गुमराह कर सकती हैं, तो वे खुलकर उन्हें व्यक्त करते हैं और लोगों को उन्हें देखने देते हैं। ऐसे लोग बेहद मक्कार होते हैं और इनसे निपटना कठिन होता है। तो ऐसे लोगों के प्रति परमेश्वर का घर कैसा रवैया अपनाता है? अगर उनका इस्तेमाल किया जा सकता है तो करो, नहीं तो उन्हें बाहर निकाल दो—यही सिद्धांत है। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए है क्योंकि इस तरह के लोग कभी सत्य का अनुसरण नहीं कर सकते। वे छद्म-विश्वासी हैं जो चीजें गलत होने पर परमेश्वर के घर, भाई-बहनों और अगुआओं का मजाक बनाते हैं। वे क्या भूमिका निभाते हैं? क्या यह शैतान और राक्षसों की भूमिका है? (बिल्कुल।) जब वे भाई-बहनों के प्रति धैर्य दिखाते हैं, इसमें न तो वास्तविक सहनशीलता होती है और न ही सच्चा प्रेम। वे ऐसा इसलिए करते हैं ताकि खुद की रक्षा कर सकें और किसी दुश्मन या खतरे को अपने रास्ते में न आने दें। वे अपने भाई-बहनों को बचाने या उनके प्रति प्रेम दिखाने के लिए उन्हें बर्दाश्त नहीं करते हैं, और वे ऐसा सत्य का अनुसरण करने या सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने के कारण तो कतई नहीं करते। उनका रवैया पूरी तरह से धारा के साथ बहने और लोगों को गुमराह करने पर केंद्रित होता है। ऐसे लोग गोलमोल बातें करने वाले और कपटी होते हैं। वे सत्य को पसंद या उसका अनुसरण नहीं करते, बल्कि बस धारा के साथ बहते जाते हैं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (12))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे बहुत दुख हुआ। मैं बहुत लंबे समय से चापलूस बना रहा हूँ, मुख्य रूप से दुश्मनी से बचने के लिए और इसलिए ताकि मेरा जीवन थोड़ा और आरामदायक हो सके। मैं सांसारिक आचरण के फलसफों “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है” और “समझौते से संघर्ष सुलटना आसान हो जाएगा” का पालन कर रहा था। पीछे का सोचूँ, तो मैं बचपन से ही लोगों के साथ इस तरह बातचीत करता रहा हूँ। जब अनुचित हालात से सामना होता था, जैसे जब सहपाठी मेरी चीजें चुरा लेते या पैसे उधार लेकर वापस नहीं करते, तो मैं उनसे तर्क-वितर्क करने की कोशिश करता, लेकिन जब मैं उनके कठोर रवैये या अपने प्रति नाराजगी देखता, तो टकराव बढ़ाने या खुद के लिए परेशानी पैदा करने से बचने के लिए ज्यादातर समय सहनशील बना रहता था। परमेश्वर को पाने के बाद भी मैंने लोगों के साथ इसी तरह बातचीत जारी रखी। झांग कियांग के साथ सहयोग के दौरान जब भी हमारी राय अलग होती या उसके शब्दों से गुस्सा आता, तो संघर्ष से बचने के लिए मैं इन मुद्दों को सहन करके जितना संभव हो उतना कम बोलकर और जहाँ तक हो चुप रहकर निपटाता था। मेरी “सहिष्णुता” से लगता था मानो मैं तुच्छ होना या तर्क-वितर्क नहीं करना चाहता, मानो मैं दूसरों के प्रति सहिष्णु हूँ, लेकिन यह खुद के बचाव के लिए केवल मानवीय संयम और बहाना था। सहन करते हुए मैं वास्तव में बिल्कुल भी सहिष्णु नहीं था और मैं दूसरों के प्रति पूर्वाग्रहों और आक्रोश से भरा था। उदाहरण के लिए जब मैंने झांग कियांग को अपने भ्रष्ट स्वभाव से काम करके काम में गड़बड़ करते देखा, तो मैंने उसे उजागर करने, रोकने, याद दिलाने या उसकी मदद करने के बारे में नहीं सोचा, बल्कि मैं चुपचाप यह इंतजार करता रहा कि वह नाकाम हो जाए और थक जाए। इसलिए जब झांग कियांग को बरखास्त किया गया, तो मुझे खुशी हुई, यहाँ तक कि मैंने चाहा कि वह जल्दी चला जाए। मैं वीडियो के काम में भी पूरी तरह से गैर-जिम्मेदार था, अपनी सुविधा को प्राथमिकता दे रहा था और संघर्षों से बच रहा था, निष्क्रिय रहकर बिना किसी चिंता के कार्य को नुकसान पहुँचते देख रहा था। मैं इतना स्वार्थी और नीच था, मुझमें परमेश्वर के प्रति कोई वफादारी नहीं थी! इस बार कर्तव्य में मुझे दूसरा काम सौंपा जाना परमेश्वर का मुझे याद दिलाने और चेतावनी देने का तरीका था। अगर मैं सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफों के अनुसार चलता रहता और कार्य-कलाप करता रहता, तो मैं और भी अधिक स्वार्थी और धोखेबाज बन जाता और कलीसिया के कार्य में रुकावट डालने और परमेश्वर के प्रतिरोध की आशंका और बढ़ जाती और अंत में मैं परमेश्वर द्वारा घृणा करके हटा दिया जाता।

बाद में मुझे एहसास हुआ कि मुझे दूसरों के साथ सहयोग करने के लिए कभी सही सिद्धांत नहीं मिले, इसलिए मैंने इस मामले से संबंधित परमेश्वर के वचनों की खोज की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “सहयोग क्या होता है? तुम्हें एक-दूसरे के साथ चीजों पर विचार-विमर्श करने और अपने विचार और राय व्यक्त करने में सक्षम होना चाहिए; तुम्हें एक-दूसरे का पूरक बनना चाहिए, परस्पर निगरानी करनी चाहिए, एक-दूसरे से माँगना चाहिए, एक-दूसरे से पूछताछ करनी चाहिए, और एक-दूसरे को प्रोत्साहित करना चाहिए। सामंजस्य के साथ सहयोग करना यही होता है। उदहारण के लिए मान लो, तुमने अपनी इच्छा के अनुसार किसी चीज को सँभाला, और किसी ने कहा, ‘तुमने यह गलत किया, पूरी तरह से सिद्धांतों के विरुद्ध। तुमने सत्य को खोजे बिना, जैसे चाहे वैसे इसे क्यों सँभाला?’ जवाब में तुम कहते हो, ‘बिल्कुल सही—मुझे खुशी है कि तुमने मुझे सचेत किया! यदि तुमने नहीं चेताया होता, तो तबाही मच गई होती!’ यही है एक-दूसरे को प्रोत्साहित करना। तो फिर एक-दूसरे की निगरानी करना क्या होता है? सबका स्वभाव भ्रष्ट होता है, और हो सकता है कि वे परमेश्वर के घर के हितों की नहीं, बल्कि केवल अपने रुतबे और गौरव की सुरक्षा करते हुए अपना कर्तव्य निभाने में लापरवाह हो जाएँ। प्रत्येक व्यक्ति में ऐसी अवस्थाएँ होती हैं। यदि तुम यह जान जाते हो कि किसी व्यक्ति में कोई समस्या है, तो तुम्हें उसके साथ संगति करने की पहल करनी चाहिए, उसे सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाने की याद दिलानी चाहिए, और साथ ही इसे अपने लिए एक चेतावनी के रूप में लेना चाहिए। यही है पारस्परिक निगरानी। पारस्परिक निगरानी से कौन-सा कार्य सिद्ध होता है? इसका उद्देश्य परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना होता है, और साथ ही लोगों को गलत मार्ग पर कदम रखने से रोकना होता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गया कि सच्चा सामंजस्यपूर्ण सहयोग सहिष्णुता के माध्यम से नहीं बल्कि सत्य का अभ्यास करने से स्थापित होता है और यह भाई-बहनों के बीच आपसी सहिष्णुता, मदद, अनुस्मारकों और पर्यवेक्षण के माध्यम से निर्मित होता है। जब हम भाई-बहनों में छोटी-मोटी गलतियाँ या कमियाँ देखते हैं, तो हमें उनकी कमियों के प्रति सहनशील होना चाहिए। लेकिन अगर हम उन्हें सिद्धांतों के विरुद्ध काम करते देखते हैं, जो कलीसिया के कार्य में रुकावट या बाधा डालता है, तो हमें तुरंत उन्हें याद दिलाना और रोकना चाहिए और हमें इसे आसानी से सहन नहीं करना चाहिए। उदाहरण के लिए, जब मैंने देखा कि झांग कियांग सिद्धांतों का अध्ययन करने के लिए सभी को इकट्ठा करने के लिए तैयार नहीं था और मेरे साथ संगति करने के बाद भी जिद्दी बना रहा, तो मुझे उसी समय उसकी समस्या बता देनी चाहिए थी। यूँ तो इससे उस दौरान कुछ टकराव हो सकता था, लेकिन अगर वह एक ऐसा व्यक्ति होता जो सत्य का अनुसरण करता है तो इससे उसे और कलीसिया के कार्य दोनों को फायदा होता। भले ही उसने मेरी बात न सुनी हो, मुझे आसानी से हार नहीं माननी चाहिए थी। इसके बजाय मुझे सिद्धांत बनाए रखने और कलीसिया के कार्य की रक्षा के लिए उसे याद दिलाना, काट-छाँट करना, चेतावनी देना या यहाँ तक कि जरूरत पड़ने पर रिपोर्ट करना और उजागर करते रहना चाहिए था। केवल इसी तरह मैं एक सहयोगी के बतौर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर सकता था। पहले मैं नाकाम रहा क्योंकि मैं सतही सामंजस्य कायम रखने के लिए सहनशीलता का सहारा लेता था और अपने सहयोगी को खबरदार करने या उसकी निगरानी करने या समस्याओं की रिपोर्ट करने की अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं करता था। इससे लंबे समय तक वास्तविक दोस्ताना बातचीत या आपसी मदद में कमी आई, परिणामस्वरूप हमारे सहयोग में कोई सच्चा सामंजस्य नहीं बना। अगर मैंने आपसी सहयोग के दौरान देखी गई समस्याओं को चर्चा और परामर्श के लिए सामने रखा होता और वह किया होता जो भाई-बहनों और कलीसिया के कार्य दोनों के लिए फायदेमंद होता, तो वीडियो के काम को इतना बड़ा नुकसान नहीं होता और मैं अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर पाता।

बाद में मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया। मैंने देखा कि मैं और मेरे सहकर्मी जीवन प्रवेश पर ध्यान केंद्रित किए बिना कार्य करने के लिए अलग-थलग दशा में जी रहे हैं और हम शायद ही कभी काम के बारे में संवाद करते थे। मैंने यह भी देखा कि उपदेशिका कलीसिया के कार्य में हमारी सहायता नहीं कर रही है और अपने कर्तव्य में बहुत निष्क्रिय है। मैं इन मुद्दों को उठाना चाहता था, लेकिन शब्द होठों तक पहुँचते ही मैं झिझक गया और मैंने मन ही मन सोचा, “लोग आम तौर पर इस तरह की बातें सुनना पसंद नहीं करते। अगर मैं ऐसा कह देता हूँ तो कहीं इससे हमारे बीच मनमुटाव पैदा तो नहीं होगा?” लेकिन फिर मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से खुद को बचाने की कोशिश कर रहा था, इसलिए मैंने परमेश्वर से अपनी दशा ठीक करने के लिए प्रार्थना की। फिर मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “सही और गलत के प्रमुख मुद्दों और परमेश्वर के घर के हितों पर असर डालने वाले मामलों का सामना होने पर, अगर ऐसे लोग कुछ सही फैसले करके परमेश्वर के घर के हितों को बनाए रखने, अपने अपराधों को कम करने, और परमेश्वर के समक्ष अपने कुकर्मों को कम करने के लिए, सांसारिक आचरण के उन फलसफों को त्याग दें जो उनके दिलों में बसे हैं, जैसे कि ‘सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है,’—तो इससे उन्हें क्या फायदा होगा? कम से कम, जब भविष्य में परमेश्वर हर एक व्यक्ति का परिणाम निर्धारित करेगा, तो इससे उनकी सजा कम हो जाएगी और परमेश्वर उन्हें कम ताड़ना देगा। इस तरह अभ्यास करने से, ऐसे लोगों के पास खोने के लिए कुछ नहीं होगा, पर पाने के लिए सब कुछ होगा, है न?(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (12))। परमेश्वर के वचनों से मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। मुझे परिस्थितियों का सामना करते समय शैतान के फलसफों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए और इसके बजाय मुझे परमेश्वर के घर के हितों को पहले रखना चाहिए और अपने अपराध कम करने चाहिए। यह महसूस करते हुए मैंने उपदेशिका के वो मसले बता दिए जो उसके कर्तव्य में पेश आ रहे थे। बहन ने प्रतिरोध नहीं किया, बल्कि उसने अपनी दशा के बारे में हमारे साथ खुलकर बात की। मैंने हम सहकर्मियों के बीच सहयोग के मुद्दे भी उठाए और कुछ सुझाव दिए। सहयोगी बहनों ने आत्म-चिंतन किया और खुद को जाना और उसके बाद चीजें बेहतरी के लिए बदल गईं। मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने से ही सहयोग में सच्चा सामंजस्य आ सकता है और इससे हमारे दिलों में शांति और स्थिरता की गहरी भावना आ सकती है।

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