40. जब अचानक नेत्र रोग हो गया
2002 की शुरुआत में मैंने परमेश्वर के अंत दिनों का कार्य स्वीकार किया। कुछ ही समय में मैंने सुसमाचार का प्रचार और नवागंतुकों का सिंचन शुरू कर दिया, परमेश्वर में पूर्ण आस्था के साथ और कई वर्ष तक दिन-प्रतिदिन अपने कर्तव्य निभाती रही। चाहे बारिश हो या धूप, हवा हो या बर्फ, कुछ भी मुझे अपने कर्तव्य निभाने से नहीं रोक सका। मुझे याद है कि एक बार जब मैं सुसमाचार का प्रचार कर रही थी, तो संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता ने न केवल मुझे ठुकराया, बल्कि मुझ पर उँगली भी उठाई, डाँट-फटकार की और पुलिस को बुलाने की धमकी दी। उस समय मैंने बहुत अपमानित, कमजोर और नकारात्मक महसूस किया, लेकिन फिर मैंने मन में सोचा, “अगर मैं सुसमाचार के प्रचार के लिए उपहास और अपमान सहन कर सकती हूँ, तो निश्चित रूप से परमेश्वर मुझे आशीष देगा।” इस सोच-विचार के साथ मुझे बेहतर महसूस हुआ और मैंने अपने कर्तव्य निभाना जारी रखा। साल बीते और अपने कर्तव्य निभाने के इस समय के दौरान हालाँकि मेरी देह को पीड़ा हुई और अभिमान को ठेस पहुँची, मैंने परमेश्वर के कई आशीषों और अनुग्रह का भी आनंद लिया। परमेश्वर में विश्वास के इन वर्षों में मेरे परिवार ने शांति का अनुभव किया और आपदाओं या कठिनाइयों से बचा रहा। मैं मन ही मन सोचती थी, “जरूर यह परमेश्वर में मेरी दृढ़ आस्था की वजह से है।” जब मैं खुश थी, तभी कुछ अप्रत्याशित हो गया।
जून 2008 में एक दिन अचानक मेरी आँखों में अचानक धुँधलापन सा आ गया, मानो किसी चीज ने उन्हें ढक दिया हो। मैंने सोचा कि शायद मेरी आँखों में जलन हो रही है, इसलिए मैंने ज्यादा ध्यान नहीं दिया और हमेशा की तरह अपना काम करती रही। मेरा मानना था कि चूँकि मेरा परमेश्वर में विश्वास है, इसलिए परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा और डरने की कोई बात नहीं है। अगर मैं बीमार भी होती हूँ, तो मुझे अपने कर्तव्य निभाना बंद नहीं करना चाहिए। शायद कुछ दिनों में मेरी आँखें ठीक हो जाएँ। लेकिन अप्रत्याशित रूप से मेरी हालत में सुधार के बजाय और भी गिरावट आ गई। मेरी दृष्टि लगातार धुँधली होती गई और जब मैं दूर देखती, तो मेरी आँखों के सामने लगातार कुछ चमकता जिससे मुझे चक्कर आने लगते। इस समय तक मुझे डर लगने लगा था। अगर मैंने तुरंत इलाज न करवाया, अगर मैं इलाज के लिए सबसे अच्छा समय चूक गई और मैं अंधी हो गई तो क्या होगा? यह एक बड़ी समस्या होगी! इसलिए मैं जाँच के लिए काउंटी अस्पताल गई। डॉक्टर ने कहा कि कोई बड़ी समस्या नहीं है और कुछ दिनों के इंजेक्शन से यह ठीक हो जाएगा। इसके बाद मुझे राहत महसूस हुई। लेकिन कुछ दिनों तक इंजेक्शन लगाने के बाद भी कोई सुधार नहीं हुआ, मेरी चिंताएँ फिर से लौट आईं : अगर मैं अंधी हो गई तो क्या होगा? हालाँकि मैंने फिर सोचा, “परमेश्वर में विश्वास करने के वर्षों के दौरान मैं सुसमाचार का प्रचार और नवागंतुकों का सिंचन करती रही हूँ। परमेश्वर यह देखकर निश्चित रूप से मेरी रक्षा करेगा कि मैंने चीजों का त्याग किया और खुद को खपाया है। मेरी आँखें खराब नहीं होंगी; मुझे खुद को डराना नहीं चाहिए। इसके अलावा आज की उन्नत चिकित्सा तकनीक के साथ मेरी आँखों की बीमारी निश्चित रूप से ठीक हो जाएगी।”
बाद में मेरे पति मुझे नेत्र विशेषज्ञ को दिखाने और आँखों का सीटी स्कैन कराने के लिए शहर के अस्पताल ले गए। डॉक्टर ने कहा कि मेरी आँखों के पिछले हिस्से में सूजन है। शुरू में कुछ दिनों के द्रव उपचार से थोड़ा सुधार हुआ, लेकिन यह ज्यादा समय नहीं चला। मेरी दृष्टि लगातार खराब होती गई और मेरी नजरें इतनी धुँधली हो गईं कि मैं अपने सामने लोगों को मुश्किल से पहचान पाती थी। इसके अलावा डॉक्टर ने हार्मोनल दवाएँ निर्धारित कीं और धीरे-धीरे मेरे पूरे शरीर में सूजन आने लगी। मैं पाँच बार शहर के अस्पताल गई। मेरी आँख की बिगड़ती हुई हालत देखकर डॉक्टर ने खुद को शक्तिहीन महसूस किया। उसने मुझसे बहुत गंभीरता से कहा, “आँख की बीमारी का इलाज करना मुश्किल है और यह दोबारा हो सकती है। गंभीर मामलों में यह अंधेपन का कारण बन सकती है। इसके अलावा हार्मोनल दवाओं के लंबे समय तक इस्तेमाल से ऑस्टियोपोरोसिस हो सकता है और अगर तुम गिर गई, तो तुम्हारी हड्डियाँ आसानी से टूट सकती हैं।” डॉक्टर के शब्दों ने मुझे बिजली की तरह झटका दिया। मैं पूरी तरह से असहाय महसूस कर रही थी और मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था कि डॉक्टर का कहा हुआ सच है। मैंने फिर से डॉक्टर से पूछा, उसकी बातें सच थीं। उस पल मेरा पूरा शरीर बेकाबू होकर काँपने लगा। बस सब खत्म! मेरी बीमारी लाइलाज थी! जब मैं घर लौटी, तो मुझे बहुत हताशा और बेचैनी महसूस हुई। मुझे लगने लगा कि परमेश्वर मेरी रक्षा नहीं कर रहा है और मैं परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करना चाहती थी। मेरी नजरें धुँधली होती जा रही थीं, जिससे स्पष्ट रूप से देखना मुश्किल हो रहा था। एक बार मेरी चचेरी बहन मुझसे मिलने आई। अगर वह नहीं बोलती, तो मुझे पता ही न चलता कि वह कौन है; मुझे अपने सामने सिर्फ एक काली छाया दिखाई दी। मैंने मन ही मन सोचा, “मैं अभी भी बहुत छोटी हूँ। अगर मेरी आँखें सच में चली जाएँगी, तो क्या मैं बेकार नहीं हो जाऊँगी? अब से मैं अपना जीवन कैसे जियूँगी?” धीरे-धीरे मैं दूर होती गई, घर में बंद हो गई और लोगों से कटने लगी। मैं अक्सर रोती रहती थी और हर दिन मुझे अनंत काल जैसा लगता था। मेरे पति खेतों और घर दोनों जगह काम में व्यस्त रहते थे, वह अधीरता दिखाने लगे। उन्होंने मुझसे कई बार कहा, “तुम देख नहीं सकती और कुछ कर भी नहीं सकती। तुम हो किस काम की? मुझे तुम्हें छोड़ ही देना चाहिए!” इसने मुझे और अधिक संतप्त और कड़वा बना दिया। अपनी पीड़ा और लाचारी में मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मुझे यह बीमारी क्यों हुई? अब जब मैं देख नहीं सकती, तो मैं तुम पर कैसे विश्वास करती रहूँ और कैसे अपने कर्तव्य निभाऊँ? अगर मेरी आँखें सच में चली जाएँगी, तो मैं अपना ख्याल भी नहीं रख पाऊँगी, कोई काम करना तो दूर की बात है। अगर मैं हर चीज के लिए अपने पति पर निर्भर रही, तो वह शायद काफी हद तक मेरी अनदेखी कर देगा। मेरा हमेशा से ही बहुत ज्यादा आत्मसम्मान रहा है और मैं कभी किसी की धौंस बरदाश्त नहीं करना चाहती थी। अब से मैं कैसे जियूँगी? परमेश्वर, अगर मेरे हाथ-पैर बेकार हो जाते, तो भी यह देख न पाने से बेहतर होता! परमेश्वर, मैं बहुत पीड़ा में हूँ। इस बीमारी को दूर करो। अगर मैं ठीक हो गई, तो तुम जो भी कर्तव्य मुझसे करने को कहोगे, मैं करूँगी।” आखिरकार, कुछ समय तक बिना सुधार के परमेश्वर से प्रार्थना करने के बाद मैंने आस्था खो दी और प्रार्थना करना बंद कर दिया। मेरा मानना था कि चूँकि परमेश्वर मेरी रक्षा नहीं करेगा और मेरा पति मुझे नहीं चाहता, तो जीने का क्या मतलब है? मैं मरने के बारे में सोचने लगी। लेकिन फिर मैंने सोचा, “अगर मैं मर गई, तो मेरा छोटा बेटा कैसे जिएगा?” इस बात के ध्यान में आने पर मैं मरने के लिए अनिच्छुक महसूस करने लगी। बाद में मैंने एक और अस्पताल के बारे में सुना जो नेत्र रोगों के इलाज के लिए प्रसिद्ध था, इसलिए मेरे पति और मैं जल्दी से वहाँ कार से गए। हम इलाज के लिए दस दिन से अधिक समय अस्पताल में रहे, लेकिन अंततः बीमारी ठीक नहीं हुई। छह महीने बीत गए और हमने अपनी सारी बचत खर्च कर दी। मेरी आँखों की स्थिति में सुधार नहीं हुआ; बल्कि यह और भी खराब हो गई। मुझे अपने नेत्र रोग के ठीक होने की उम्मीद पूरी तरह से खत्म हो गई।
जब मैं पीड़ा और निराशा में थी, तो संयोग से मेरी मुलाकात एक बहन से हो गई। उसने मुझे याद दिलाते हुए कहा, “तुम अपनी बीमारी में नहीं जीते नहीं रह सकती। तुम्हें परमेश्वर के इरादे को खोजना चाहिए, आत्म-चिंतन करना चाहिए और इस बीमारी से सबक सीखने चाहिए।” इस वाक्य से उसने मुझे जगा दिया और मैंने सोचा, “वाकई। जब से मैं बीमार हुई हूँ, मैंने बिल्कुल भी आत्म-चिंतन नहीं किया है और मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है। मेरा ध्यान पूरी तरह से सिर्फ डॉक्टरों को खोजने पर है, सोच रही हूँ कि केवल डॉक्टर और उन्नत चिकित्सा तकनीक ही मेरी आँखें ठीक कर सकते हैं। मैं परमेश्वर के बारे में कैसे भूल सकती हूँ?” लेकिन जब मैं परमेश्वर वचन पढ़ना चाहती थी, तो चाहे मैंने अपनी आँखों पर कितना भी जोर डाला, मैं उन्हें देख नहीं पाई, इससे मुझे बेचैनी महसूस होने लगी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और मुझे प्रबुद्ध करके मेरा मार्गदर्शन करने को कहा। बाद में मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : “बीमारी का आना परमेश्वर का प्रेम ही है और निश्चित ही उसमें उसकी सदिच्छा निहित होती है। भले ही तुम्हारे शरीर को थोड़ी पीड़ा सहनी पड़े, लेकिन कोई भी शैतानी विचार मन में मत लाओ। बीमारी के मध्य परमेश्वर की स्तुति करो और अपनी स्तुति के मध्य परमेश्वर में आनंदित हो। बीमारी की हालत में निराश न हो, अपनी खोज निरंतर जारी रखो और हिम्मत न हारो, और परमेश्वर तुम्हें रोशन और प्रबुद्ध करेगा। अय्यूब की आस्था कैसी थी? सर्वशक्तिमान परमेश्वर एक सर्वशक्तिशाली चिकित्सक है! बीमारी में रहने का मतलब बीमार होना है, परन्तु आत्मा में रहने का मतलब स्वस्थ होना है। जब तक तुम्हारी एक भी साँस बाकी है, परमेश्वर तुम्हें मरने नहीं देगा” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 6)। हाँ, सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही सर्वशक्तिशाली चिकित्सक है। इस दौरान मैं बीमारी में जी रही थी और परमेश्वर में मेरी आस्था खत्म हो गई थी। मैंने अपनी बीमारी में परमेश्वर के इरादे को नहीं खोजा था, न ही मैंने आत्म-चिंतन किया था और अपनी बीमारी से सबक सीखे थे। मैं सचमुच सुन्न थी! मेरी बीमारी परमेश्वर के हाथों में थी और मैं उसमें आस्था नहीं गँवा सकती थी। भले ही मैं अभी भी परमेश्वर के इरादे को नहीं समझी थी, मैं परमेश्वर से और अधिक प्रार्थना करने और उसे मुझे प्रबुद्ध करने और मुझे पूरी तरह से आत्म-चिंतन करने और खुद को जानने के लिए मार्गदर्शन करने को कहने के लिए तैयार थी।
इस दौरान मैं परमेश्वर के वचनों के केवल कुछ पाठ ही सुन पाती थी। कभी-कभी जब मैंने परमेश्वर के कुछ वचन सुने कि बीमारी में उससे प्रार्थना कैसे करनी है, तो मैंने परमेश्वर के वचनों में अभ्यास के मार्ग के अनुसार प्रार्थना का अभ्यास किया। मैंने प्रार्थना की, “परमेश्वर, मेरी पिछली प्रार्थनाओं में विवेक की कमी थी। मैंने तुमसे यहाँ तक कहा कि मेरी दृष्टि छीनने के बजाय मेरे हाथ-पैर छीन लेते। मैंने तुमसे यह भी कहा कि तुम इस बीमारी को दूर कर दो और अगर मैं ठीक हो गई तो कोई भी कर्तव्य करने का वादा करती हूँ। परमेश्वर, मेरी पिछली प्रार्थनाएँ सचमुच अनुचित थीं!” बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश सुना : “यीशु की प्रार्थनाओं के बारे में सोचो। उसने गतसमनी की वाटिका में प्रार्थना की : ‘हो सके तो...।’ अर्थात्, ‘यदि ऐसा किया जा सके तो।’ यह एक चर्चा के हिस्से के रूप में कहा गया था। उसने यह नहीं कहा, ‘मैं तुझसे निवेदन करता हूँ।’ एक समर्पित हृदय के साथ और एक विनीत अवस्था में, उसने प्रार्थना की : ‘हो सके तो इस कटोरे को मेरे पास से गुजर जाने दो : फिर भी, जैसा मैं चाहता हूँ वैसा नहीं बल्कि जैसा तू चाहता है वैसा हो।’ वह दूसरी बार भी इसी प्रकार प्रार्थना करता रहा, और तीसरी बार उसने प्रार्थना की, ‘तेरी इच्छा पूरी हो।’ परमपिता परमेश्वर की इच्छा को समझ लेने के बाद, उसने कहा : ‘तेरी इच्छा पूरी हो।’ वह बिना इसी व्यक्तिगत चुनाव के पूरी तरह से समर्पण करने में समर्थ था। ... हालाँकि, लोग बस इस प्रकार से प्रार्थना नहीं करते हैं। अपनी प्रार्थनाओं में, लोग हमेशा कहते हैं, ‘हे परमेश्वर मैं तुझे यह या वह करने को कहता हूँ, और मैं तुझसे इस या उस में मेरा मार्गदर्शन करने के लिए कहता हूँ, और मेरे लिए परिस्थितियाँ तैयार करने के लिए कहता हूँ...।’ हो सकता है कि परमेश्वर तुम्हारे लिए उपयुक्त परिस्थितियाँ तैयार न करे, और तुम्हें यह कष्ट झेलने दे और सबक सिखाए। अगर तुम हमेशा इस तरह प्रार्थना करते हो—‘हे परमेश्वर, मैं तुमसे मेरे लिए तैयारी करने और मुझे शक्ति देने के लिए कहता हूँ’—तो यह बेहद अनुचित है! जब तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते हो, तो तुम्हें विवेकशील होना चाहिए, और तुम्हें समर्पण वाले दिल के साथ उससे प्रार्थना करनी चाहिए। यह तय करने की कोशिश मत करो कि तुम क्या करोगे। अगर तुम प्रार्थना करने से पहले यह तय करने की कोशिश करते हो कि क्या करना है, तो यह परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं होगा। प्रार्थना में, तुम्हारा दिल विनम्र होना चाहिए, और तुम्हें पहले परमेश्वर के साथ खोजना चाहिए। इस तरह, प्रार्थना के दौरान तुम्हारा दिल स्वाभाविक रूप से प्रकाशित हो जाएगा, और तुम्हें पता चल जाएगा कि क्या करना उपयुक्त है। प्रार्थना करने से पहले अपनी योजना से लेकर प्रार्थना के बाद अपने दिल में आए बदलाव तक जाना पवित्र आत्मा के कार्य का परिणाम है। अगर तुमने पहले ही अपना निर्णय ले लिया है और यह तय कर लिया है कि क्या करना है, और फिर तुम परमेश्वर से अनुमति माँगने के लिए प्रार्थना करते हो या परमेश्वर से वह करने के लिए कहते हो जो तुम चाहते हो, तो इस प्रकार की प्रार्थना अनुचित है। कई बार, परमेश्वर लोगों की प्रार्थनाओं का सटीक जवाब नहीं देता है, क्योंकि उन्होंने पहले ही तय कर लिया है कि उन्हें क्या करना है, और वे बस परमेश्वर से अनुमति माँगते हैं। परमेश्वर कहता है, ‘तुमने तय कर लिया है कि तुम्हें क्या करना है, तो फिर मुझसे क्यों पूछ रहे हो?’ इस तरह की प्रार्थना थोड़ी परमेश्वर को धोखा देने जैसी लगती है, और इसलिए, उनकी प्रार्थनाएँ असफल रह जाती हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, प्रार्थना के मायने और उसका अभ्यास)। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर से मेरी प्रार्थनाएँ केवल उससे मेरी बीमारी दूर करने के लिए कहने पर केंद्रित थीं। मुझमें विवेक की इतनी कमी थी! मैं, मात्र एक सृजित प्राणी यह माँग करने के योग्य कैसे हो सकती थी कि परमेश्वर मुझे ठीक कर दे? मैं तो यहाँ तक चाहती थी कि परमेश्वर मेरी इच्छा के अनुसार कार्य करे और मेरे निजी हितों को पूरा करे। मुझमें वास्तव में परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं था! फिर मैंने प्रभु यीशु की प्रार्थना के बारे में सोचा। वह जानता था कि क्रूस पर कीलों से ठोंका जाना बहुत दर्दनाक होगा, फिर भी अपनी प्रार्थना में उसने परमेश्वर से माँग रखने की कोशिश नहीं की। वह स्वर्गिक पिता की इच्छा के आगे समर्पण करने में सक्षम था और भले ही इसका मतलब पीड़ा हो, वह परमेश्वर के आगे समर्पण करने के लिए दृढ़ था। मुझे परमेश्वर के इरादे को खोजना चाहिए और अपनी बीमारी में उसके आगे समर्पण करना चाहिए। फिर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं समर्पण के हृदय के साथ तुमसे प्रार्थना करने और खोजने की इच्छुक हूँ। यह बीमारी संयोग से नहीं हुई, लेकिन मैं अभी भी तुम्हारे इरादे को नहीं समझ पाई हूँ। मुझे नहीं पता कि मुझे इस बीमारी से क्या सबक सीखने चाहिए। परमेश्वर, मुझे प्रबुद्ध करो और मेरा मार्गदर्शन करो।” इसलिए मैं कुछ समय तक परमेश्वर से इसी तरह प्रार्थना करती रही और अप्रत्याशित रूप से मेरी नजरें धीरे-धीरे बेहतर होने लगीं। जब मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े, तो मैं उनमें से कुछ को धुँधला-धुँधला देख पाई।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और अपनी दशा के बारे में बेहतर समझ हासिल की। परमेश्वर कहता है : “सभी लोगों के लिए शोधन बेहद कष्टदायी होता है, और उसे स्वीकार करना बहुत कठिन होता है—परंतु शोधन के दौरान ही परमेश्वर मनुष्य के समक्ष अपना धार्मिक स्वभाव स्पष्ट करता है और मनुष्य से अपनी अपेक्षाएँ सार्वजनिक करता है, और अधिक प्रबुद्धता, अधिक व्यावहारिक काट-छाँट प्रदान करता है; तथ्यों और सत्य के बीच की तुलना के माध्यम से मनुष्य अपने और सत्य के बारे में बृहत्तर ज्ञान प्राप्त करता है, और उसे परमेश्वर के इरादों की और अधिक समझ प्राप्त होती है, और इस प्रकार उसे परमेश्वर के प्रति सच्चा और शुद्ध प्रेम प्राप्त होता है। शोधन का कार्य क्रियान्वित करने में परमेश्वर के लक्ष्य ऐसे होते हैं। उस समस्त कार्य के, जो परमेश्वर मनुष्य में करता है, अपने लक्ष्य और अपना अर्थ होता है; परमेश्वर निरर्थक कार्य नहीं करता, और न ही वह ऐसा कार्य करता है, जो मनुष्य के लिए लाभदायक न हो। शोधन का अर्थ लोगों को परमेश्वर के सामने से हटा देना नहीं है, और न ही इसका अर्थ उन्हें नरक में नष्ट कर देना होता है। बल्कि इसका अर्थ है शोधन के दौरान मनुष्य के स्वभाव को बदलना, उसके इरादों को बदलना, उसके पुराने विचारों को बदलना, परमेश्वर के प्रति उसके प्रेम को बदलना, और उसके पूरे जीवन को बदलना। शोधन मनुष्य की व्यावहारिक परीक्षा और व्यावहारिक प्रशिक्षण का एक रूप है, और केवल शोधन के दौरान ही उसका प्रेम अपने अंतर्निहित कार्य कर सकता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल शोधन का अनुभव करके ही मनुष्य सच्चे प्रेम से युक्त हो सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि परमेश्वर ने इस बीमारी का उपयोग अपने लिए मेरी आस्था के पीछे के उद्देश्यों और अशुद्धियों को प्रकट करने के लिए किया, मुख्य रूप से मुझे शुद्ध करने और बदलने के लिए किया। यह परमेश्वर का इरादा था। परमेश्वर में आस्था के इन वर्षों में मैंने हमेशा सोचा था कि जब तक मैं दुख सहती रहूँगी और कीमत चुकाती रहूँगी, तब तक परमेश्वर मुझे याद रखेगा और मुझे उसके आशीष मिलते रहेंगे। मैंने यहाँ तक माना कि इन वर्षों में बिना किसी आपदा या कठिनाई के हमारा शांतिपूर्ण पारिवारिक जीवन निश्चित रूप से मेरी दृढ़ आस्था के कारण था, जिसने परमेश्वर की सुरक्षा अर्जित की। फिर अचानक मेरी आँखें अब और स्पष्ट रूप से नहीं देख पा रही थीं और मैंने उपचार के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की। जब परमेश्वर ने मेरी माँग के अनुसार कार्य नहीं किया, तो मैंने उस पर आस्था गँवा दी और डॉक्टरों पर भरोसा करना शुरू कर दिया, यह माना कि उन्नत चिकित्सा तकनीक मेरी आँखों को ठीक कर सकती है। लेकिन जब डॉक्टर भी शक्तिहीन हो गए, तो मैं निराशा में डूब गई और मृत्यु के बारे में सोचने लगी। इस दौरान मैंने कभी भी परमेश्वर के इरादे को नहीं खोजा, आत्म-चिंतन करना तो दूर की बात है। आखिरकार अब जाकर मैंने देखा कि जब मैं परमेश्वर पर विश्वास कर रही थी और अपना कर्तव्य निभा रही थी, तो मेरे अपने इरादे और मिलावटें थीं। मैं परमेश्वर का उपयोग कर रही थी, उससे चालबाजी कर रही थी और उसके साथ सौदेबाजी करने की कोशिश कर रही थी! परमेश्वर का धन्यवाद! अगर इस बीमारी के माध्यम से प्रकाशन न होता, तो मैं खुद को समझ नहीं पाती।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ और अंश पढ़े और अपने मसलों के बारे में स्पष्ट समझ प्राप्त की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “तुम परमेश्वर में विश्वास करने के बाद शांति प्राप्त करना चाहते हो—ताकि अपनी संतान को बीमारी से दूर रख सको, अपने पति के लिए एक अच्छी नौकरी पा सको, अपने बेटे के लिए एक अच्छी पत्नी और अपनी बेटी के लिए एक अच्छा पति पा सको, अपने बैल और घोड़े से जमीन की अच्छी जुताई कर पाने की क्षमता और अपनी फसलों के लिए साल भर अच्छा मौसम पा सको। तुम यही सब पाने की कामना करते हो। तुम्हारा लक्ष्य केवल सुखी जीवन बिताना है, तुम्हारे परिवार में कोई दुर्घटना न हो, आँधी-तूफान तुम्हारे पास से होकर गुजर जाएँ, धूल-मिट्टी तुम्हारे चेहरे को छू भी न पाए, तुम्हारे परिवार की फसलें बाढ़ में न बह जाएं, तुम किसी भी विपत्ति से प्रभावित न हो सको, तुम परमेश्वर के आलिंगन में रहो, एक आरामदायक घरौंदे में रहो। तुम जैसा डरपोक इंसान, जो हमेशा दैहिक सुख के पीछे भागता है—क्या तुम्हारे अंदर एक दिल है, क्या तुम्हारे अंदर एक आत्मा है? क्या तुम एक पशु नहीं हो? मैं बदले में बिना कुछ मांगे तुम्हें एक सत्य मार्ग देता हूँ, फिर भी तुम उसका अनुसरण नहीं करते। क्या तुम उनमें से एक हो जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं? मैं तुम्हें एक सच्चा मानवीय जीवन देता हूँ, फिर भी तुम अनुसरण नहीं करते। क्या तुम कुत्ते और सूअर से भिन्न नहीं हो? सूअर मनुष्य के जीवन की कामना नहीं करते, वे शुद्ध होने का प्रयास नहीं करते, और वे नहीं समझते कि जीवन क्या है। प्रतिदिन, उनका काम बस पेट भर खाना और सोना है। मैंने तुम्हें सच्चा मार्ग दिया है, फिर भी तुमने उसे प्राप्त नहीं किया है : तुम्हारे हाथ खाली हैं। क्या तुम इस जीवन में एक सूअर का जीवन जीते रहना चाहते हो? ऐसे लोगों के जिंदा रहने का क्या अर्थ है? तुम्हारा जीवन घृणित और ग्लानिपूर्ण है, तुम गंदगी और व्यभिचार में जीते हो और किसी लक्ष्य को पाने का प्रयास नहीं करते हो; क्या तुम्हारा जीवन अत्यंत निकृष्ट नहीं है? क्या तुम परमेश्वर का सामना करने का साहस कर सकते हो? यदि तुम इसी तरह अनुभव करते रहे, तो क्या केवल शून्य ही तुम्हारे हाथ नहीं लगेगा? तुम्हें एक सच्चा मार्ग दे दिया गया है, किंतु अंततः तुम उसे प्राप्त कर पाओगे या नहीं, यह तुम्हारी व्यक्तिगत खोज पर निर्भर करता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। “सभी भ्रष्ट लोग स्वयं के लिए जीते हैं। हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए—यह मानव प्रकृति का निचोड़ है। लोग अपनी खातिर परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; जब वे चीजें त्यागते हैं और परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते हैं, तो यह धन्य होने के लिए होता है, और जब वे परमेश्वर के प्रति वफादार रहते हैं, तो यह भी पुरस्कार पाने के लिए ही होता है। संक्षेप में, यह सब धन्य होने, पुरस्कार पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के उद्देश्य से किया जाता है। समाज में लोग अपने लाभ के लिए काम करते हैं, और परमेश्वर के घर में वे धन्य होने के लिए कोई कर्तव्य करते हैं। आशीष प्राप्त करने के लिए ही लोग सब-कुछ छोड़ते हैं और काफी दुःख सहन कर पाते हैं। मनुष्य की शैतानी प्रकृति का इससे बेहतर प्रमाण नहीं है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर जो कुछ भी उजागर करता है, वह तथ्यात्मक है। परमेश्वर में मेरी आस्था केवल मेरे परिवार के लिए शांति और सुरक्षा का अनुसरण था, मेरा मानना था कि परमेश्वर में विश्वास करने का यही अर्थ है। मैं “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” और “बिना पुरस्कार के कभी कोई काम मत करो” के शैतानी जहर के अनुसार जी रही थी। इसलिए मैंने केवल अपने लिए आशीष और शांति पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास किया और अपने कर्तव्य निभाए, चीजों को त्याग दिया और स्वर्ग के राज्य के आशीष अर्जित करने के लिए खुद को खपाया, सब कुछ अपने लाभ के लिए किया। जब मैंने परमेश्वर में विश्वास किया और उसके आशीष और अपने परिवार की शांति देखी, तो मैं चीजों को त्यागने और परमेश्वर के लिए खुद को खपाने में सक्षम हो गई, यह सोचा कि मैं परमेश्वर के प्रति वफादार हूँ और वास्तव में उस पर विश्वास करती हूँ, सत्य से प्रेम करने वाली इंसान हूँ। हालाँकि जब मैं बीमार पड़ी और उपचार के लिए मेरी प्रार्थनाओं का उत्तर नहीं मिला, तो मैंने खुद को परमेश्वर से दूर कर लिया और प्रार्थना करना या उस पर भरोसा करना बंद कर दिया। भले ही मैं अपनी आँखों से नहीं देख पाती थी, फिर भी मैं परमेश्वर के वचनों का पाठ सुन सकती थी। लेकिन मैंने परमेश्वर के वचन सुनने के बजाय आलस्य में झपकी लेना पसंद किया। मेरा दिल परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से बंद था और मैं उसके करीब नहीं जाना चाहती थी। परमेश्वर में मेरी आस्था और धर्म में उन लोगों की आस्था में क्या अंतर था जो रोटी से पेट भरने की कोशिश करते हैं? वे केवल भौतिक लाभ और शांति पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हैं, अपनी फसलों के लिए अच्छे मौसम की कामना करते हैं और पूरे साल अपने परिवारों के लिए अच्छी सेहत और सुरक्षा की कामना करते हैं। जब उन्हें वह नहीं मिलता जो वे चाहते हैं और कभी-कभी इसके बजाय आपदा झेलते हैं, तो वे खुद को परमेश्वर से दूर कर लेते हैं और उससे विश्वासघात करते हैं। मुझे एहसास हुआ कि मैं भी उनके जैसी ही स्वार्थी और नीच थी, जिसमें कोई अंतरात्मा और विवेक नहीं था! परमेश्वर ने इतना सत्य व्यक्त किया था, फिर भी मैंने उसका अनुसरण नहीं किया, न मैंने शुद्धिकरण या परिवर्तन का प्रयास किया। फिर मेरे और सूअरों और कुत्तों जैसे जानवरों के बीच क्या अंतर था?
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और परमेश्वर में सच्ची आस्था क्या है और परमेश्वर में विश्वास करने का महत्व क्या है, इस बारे में कुछ समझ हासिल की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “‘परमेश्वर में विश्वास’ का अर्थ यह मानना है कि परमेश्वर है; यह परमेश्वर में विश्वास की सरलतम अवधारणा है। इससे भी बढ़कर, यह मानना कि परमेश्वर है, परमेश्वर में सचमुच विश्वास करने जैसा नहीं है; बल्कि यह मजबूत धार्मिक संकेतार्थों के साथ एक प्रकार का सरल विश्वास है। परमेश्वर में सच्चे विश्वास का अर्थ यह है : इस विश्वास के आधार पर कि सभी वस्तुओं पर परमेश्वर की संप्रभुता है, व्यक्ति परमेश्वर के वचनों और कार्यों का अनुभव करता है, अपने भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध करता है, परमेश्वर के इरादे संतुष्ट करता है और परमेश्वर को जान पाता है। केवल इस प्रकार की यात्रा को ही ‘परमेश्वर में विश्वास’ कहा जा सकता है। फिर भी लोग परमेश्वर में विश्वास को अक्सर बहुत सरल और हल्के रूप में लेते हैं। परमेश्वर में इस तरह विश्वास करने वाले लोग, परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ गँवा चुके हैं और भले ही वे बिलकुल अंत तक विश्वास करते रहें, वे कभी परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त नहीं करेंगे, क्योंकि वे गलत मार्ग पर चलते हैं। आज भी ऐसे लोग हैं, जो परमेश्वर में शब्दों और खोखले धर्म-सिद्धांत के अनुसार विश्वास करते हैं। वे नहीं जानते कि परमेश्वर में उनके विश्वास में कोई सार नहीं है और वे परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त नहीं कर सकते। फिर भी वे परमेश्वर से सुरक्षा के आशीषों और पर्याप्त अनुग्रह के लिए प्रार्थना करते हैं। आओ रुकें, अपने हृदय शांत करें और खुद से पूछें : क्या परमेश्वर में विश्वास करना वास्तव में पृथ्वी पर सबसे आसान बात हो सकती है? क्या परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ परमेश्वर से अधिक अनुग्रह पाने से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता है? क्या परमेश्वर को जाने बिना उसमें विश्वास करने वाले या उसमें विश्वास करने के बावजूद उसका विरोध करने वाले लोग सचमुच उसके इरादे संतुष्ट करने में सक्षम हैं?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, प्रस्तावना)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के माध्यम से मैं समझ गई कि परमेश्वर में विश्वास करने का वास्तव में क्या अर्थ होता है। मुझे एहसास हुआ कि इन सभी वर्षों में मैं अज्ञात धारणाओं के साथ परमेश्वर पर विश्वास कर रही थी, यह सोचती थी कि परमेश्वर पर विश्वास करना केवल इस जीवन में सौ गुना और आने वाली दुनिया में अनंत जीवन पाने के लिए है। परमेश्वर पर विश्वास करने के बारे में मेरा दृष्टिकोण गलत था और मैं एक गलत मार्ग पर चल रही थी। इस तरह चाहे मैं कितने भी लंबे समय तक परमेश्वर पर विश्वास करती, मुझे बचाया नहीं जाता। कोई जो सचमुच परमेश्वर पर विश्वास करता है, परमेश्वर के वचनों और उसके कार्यों का अनुभव करता है, वह परमेश्वर को जान पाता है, भ्रष्ट स्वभाव त्याग देता है और परमेश्वर के साथ संगत हो जाता है, यह सब इस विश्वास के आधार पर होता है कि परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभु है। मैंने अनुग्रह के युग के दौरान पतरस की आस्था पर चिंतन किया : उसके अनुसरण का मार्ग परमेश्वर के इरादे के अनुरूप था। उसने सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित किया और दैनिक जीवन के सबसे छोटे विवरणों में भी परमेश्वर के इरादे समझने की कोशिश कर पाया। इसके अलावा पतरस ने एक सृजित प्राणी की स्थिति में अपने कर्तव्य निभाए। उसने परमेश्वर के प्रति प्रेम और उसके प्रति समर्पण का अनुसरण किया, अंततः परमेश्वर के लिए उल्टा सूली पर चढ़ाया गया और एक सुंदर और जबर्दस्त गवाही दी। पतरस की तुलना में मैं वास्तव में शर्मिंदा और लज्जित थी। मैंने पश्चात्ताप में परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं तुम्हारे सामने पश्चात्ताप करने की इच्छुक हूँ। मेरे पास जो शेष समय है, मैं ईमानदारी से सत्य का अनुसरण करूँगी और अपने कर्तव्य निभाने में तुम्हारे इरादे खोजूँगी, आत्म-चिंतन करूँगी और अपने जीवन प्रवेश पर ध्यान केंद्रित करूँगी।”
नेत्र रोग के इस दौर के जरिए मैंने अपने दृष्टिकोणों और परमेश्वर में अपनी आस्था में अपनाए मार्ग पर चिंतन किया और इन्हें जाना। जैसे-जैसे मैंने कुछ सबक सीखे, मेरी आँखें धीरे-धीरे ठीक होती गईं। दस साल से अधिक समय बीत चुका है और मेरा नेत्र रोग फिर नहीं हुआ है। भले ही मैंने अपनी दृष्टि लगभग गँवा दी थी और इस बीमारी से पीड़ित थी लेकिन इससे गुजरने के बाद मैंने परमेश्वर के श्रमसाध्य इरादे का अनुभव किया और स्पष्ट रूप से देखा कि कैसे मैं शैतान द्वारा भ्रष्ट की गई थी। मैंने लोगों को बचाने में परमेश्वर की कार्य पद्धति और उसके श्रमसाध्य इरादे का कुछ व्यावहारिक ज्ञान भी प्राप्त किया। इसे मैं एक आरामदायक परिवेश में कभी प्राप्त नहीं कर सकती। उद्धार के लिए परमेश्वर का धन्यवाद!