41. एक छोटे से मामले से मेरा कपटीपन प्रकट हुआ

झांग दी, चीन

नवंबर 2023 के अंत में मैं कई कलीसियाओं में सिंचन कार्य की देखरेख के लिए दो बहनों के साथ सहयोग करती थी। हर बार जब हम अपने काम में भटकावों और समस्याओं का सारांश देती थीं तो मैं बहुत अधिक दबाव महसूस करती थी। मेरी कार्य क्षमताएँ बहुत अच्छी नहीं थीं, मुझे समस्याएँ धीरे-धीरे पता चलती थीं और मैं अपनी सहयोगी बहनों जितनी हाजिर-जवाब नहीं थी, न मेरे पास उनके जैसी अच्छी काबिलियत थी। उदाहरण के लिए, कभी-कभी नवागंतुक नियमित रूप से सभा नहीं करते थे, सिंचन कार्यकर्ता कुछ वस्तुनिष्ठ कारणों का जिक्र करते थे, केवल नवागंतुकों की समस्याएँ बताते थे और इस बात पर चिंतन नहीं करते थे कि क्या उनके कर्तव्यों में कोई भटकाव तो नहीं है। चूँकि मुझमें भेद की पहचान नहीं थी, इसलिए मैं सिंचनकर्ताओं की बातों में आ जाती थी और नवागंतुकों पर ही ध्यान गड़ाए रखती थी। लेकिन मेरी साझेदार बहनें सिंचनकर्ताओं की बताई समस्याओं के विवरण का विश्लेषण करने में सक्षम थीं और वे समस्याओं की जड़ का पता लगा लेती थीं। इससे समस्या-समाधान अधिक प्रभावी हो जाता था। जब भी मैं बहनों से अपनी तुलना करती, खुद को अपर्याप्त महसूस करती थी और हालाँकि बहनें कुछ नहीं कहती थीं, पर मुझे शर्मिंदगी महसूस होती थी। मैं लगातार चिंतित रहती थी, “वे मेरे बारे में क्या सोचेंगी? क्या वे कहेंगी कि मैंने कुछ समय प्रशिक्षण लेने के बाद भी ज्यादा प्रगति नहीं की है? क्या वे सोचेंगी कि मुझमें काबिलियत की कमी है?” जब भी हम अपने काम का सारांश देते, मैं बहुत दमित महसूस करती थी और ऐसी स्थितियों का सामना करने की बहुत अनिच्छुक रहती थी।

जनवरी 2024 में एक दिन हम अपने काम का सारांश देने को इकट्ठे हुए। मैंने मन में सोचा, “इस बार मैं सबसे पहले संगति करने वाली नहीं हो सकती। मैं यह इंतजार करूँगी कि बहनें सारांश पेश कर लें और फिर खुद सबसे अंत में बोलूँगी। जब वे अधिकतर बिंदुओं का सारांश दे देंगी और कुछ सामान्य मुद्दे हुए, तो मैं अंत में एक संक्षिप्त सारांश दे दूँगी। इस तरह वे मुझे वैसा नहीं देख पाएँगी जैसी मैं वास्तव में हूँ।” इसलिए जब बहन एन रैन ने पूछा कि कौन पहले अपना सारांश देगा, तो मैं चुप रही। उसके बाद एन रैन ने प्रत्येक कलीसिया और प्रत्येक समस्या का विस्तार से सारांश देना शुरू किया। उसके सारांश जितने विस्तृत होते गए, मैं उतनी ही चिंतित महसूस करने लगी, सोचने लगी, “एन रैन के इतने विस्तार से सारांश देने के बाद क्या मेरी साधारण संगति मुझे अपर्याप्त नहीं दिखाएगी? क्या वे कहेंगे कि मुझमें अंतर्दृष्टि की कमी है और मेरी काबिलियत कम है?” मैं उन समस्याओं पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाई, जिनका एन रैन सारांश दे रही थी क्योंकि मैं बहुत बेचैन महसूस कर रही थी। थोड़ी देर बाद एन रैन ने बात खत्म की और उसके बाद यांग शी ने आगे बात की। हालाँकि यांग शी का सारांश एन रैन जितना विस्तृत नहीं था, लेकिन वह सिंचाई कार्य में कुछ प्रमुख मुद्दों को बताने में सक्षम रही। इस बिंदु पर मैं वास्तव में चिंतित थी और मुझे लगा जैसे समय तेजी से बीत रहा है। कुछ ही देर में यांग शी ने भी बात खत्म कर दी और कहा, “इन कलीसियाओं में मुद्दे काफी हद तक एक समान हैं।” एन रैन ने समर्थन किया, “सच है।” बहनों को यह कहते हुए सुनकर मैंने मौके का फायदा उठाया और सोचा, “चूँकि ये सभी कह रही हैं कि मुद्दे समान हैं तो क्या इसका यह मतलब है कि मुझे सारांश देने की जरूरत नहीं है? इस तरह मैं साधारण संगति के साथ खुद को शर्मिंदा होने से बचा सकती हूँ।” मुझे तुरंत ही यह कहने का मौका मिल गया, “मेरा सारांश आप जैसे मुद्दों के बारे में ही है।” घड़ी की ओर देखते हुए मैंने पाया कि आधी रात हो चुकी है और सभी थोड़े थके हुए लग रहे हैं। इसलिए मैंने सोचा, “अब चूँकि सभी को नींद आ रही है, भले ही उन्हें मेरा सारांश साधारण दिखाई दे, उन्हें लग सकता है कि ऐसा बस मेरे स्पष्ट ढंग से सोच न पाने के कारण है। इस तरह मैं बस खानापूरी कर सकती हूँ।” इसलिए मैंने कहा, “काफी देर हो चुकी है और मेरा ध्यान केंद्रित नहीं हो पा रहा है। मेरा सारांश आप लोगों जैसा ही है, इसलिए मैं इसे मोटे तौर पर ही बताऊँगी।” लेकिन अप्रत्याशित रूप से एन रैन ने कहा, “अभी सारांश बनाने के अच्छे नतीजे नहीं मिलेंगे, चलो इसे कल सुबह करते हैं।” लेकिन फिर मैंने सोचा, “कल सुबह जब सभी अधिक ऊर्जावान होंगे, तो वे तुरंत ताड़ लेंगे कि मेरा सारांश साधारण है। तब वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? मेरे लिए अभी ही सारांश बताना बेहतर है, इसलिए भले ही मेरा सारांश साधारण हो, वे शायद ध्यान न दें। इस तरह मैं थोड़ा सा अपना सम्मान बचा सकती हूँ।” मैंने जल्दी से कहा, “आज रात को सारांश समाप्त कर लेते हैं, कल सुबह हमारे पास दूसरे काम हैं।” बहनों ने जवाब में कुछ नहीं कहा, वे मेरा सारांश सुनने के दौरान नींद में दिख रही थीं। बोलने के बाद मुझे आखिर में राहत का एहसास हुआ।

बाद में अपनी दशा पर चर्चा के दौरान मैंने एक सभा में यह अनुभव साझा किया। बोलते समय मुझे लगा कि मैंने काम का सारांश देने में खुद को काफी बुरी तरह उलझा लिया था! मेरी साथी बहनों ने भी मुझे यह बताया और कहा, “देखो, इतना ज्यादा सोचने से तुम्हारे विचार कितने उलझ गए हैं! क्या तुम्हें पता है कि तुम समस्याएँ क्यों नहीं पहचान पाईं? केवल इसलिए क्योंकि तुम अपनी छवि बचाने पर केंद्रित थीं और तुम्हारा दिमाग उचित कार्य में नहीं लगा था।” बहनों ने जो कहा वह वास्तव में सच था। हाल ही में हमारे काम की प्रभावशीलता खराब रही थी और मैं इस बारे में नहीं सोच रही थी कि समस्याओं और भटकावों का साफ तौर पर सारांश कैसे बनाऊँ और प्रभावी समाधान कैसे हासिल करूँ, मैंने इस बात पर ध्यान नहीं दिया है कि मेरी साथी बहनों ने समस्याओं को कैसे खोजा, उनका सार कैसे निकाला और उनसे क्या सीखा। इसके बजाय मैं अपने सभी विचारों को इस बात पर केंद्रित कर रही थी कि अपनी छवि और रुतबे को कैसे बचाया जाए। इस बिंदु पर मुझे एक अनुभवजन्य गवाही लेख याद आया जिसे मैंने कुछ दिन पहले पढ़ा था, जिसमें परमेश्वर के उन वचनों का एक अंश उद्धृत था जो मेरी जैसी मनोदशा का गहन-विश्लेषण करते थे। मैंने जल्दी से इसे पढ़ने के लिए ढूँढ़ निकाला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “मसीह-विरोधियों की मानवता बेईमान होती है, जिसका अर्थ है कि वे जरा भी सच्चे नहीं होते। वे जो कुछ भी कहते और करते हैं वह मिलावटी होता है, उसमें उनके इरादे और मकसद शामिल होते हैं और इस सबमें छिपी होती हैं उनकी घृणित और अकथनीय चालें और षड्यंत्र। इसलिए मसीह-विरोधियों के शब्द और क्रियाकलाप अत्यधिक दूषित और झूठ से भरे होते हैं। चाहे वे कितना भी बोलें, यह जानना असंभव होता है कि उनकी कौन सी बात सच्ची है और कौन सी झूठी, कौन सी सही है और कौन सी गलत। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे बेईमान होते हैं और उनके दिमाग बेहद जटिल होते हैं, कपटी साजिशों से भरे और चालों से ओतप्रोत होते हैं। वे एक भी सीधी बात नहीं कहते। वे एक को एक, दो को दो, हाँ को हाँ और ना को ना नहीं कहते। इसके बजाय वे सभी मामलों में गोलमोल बातें करते हैं और चीजों के बारे में अपने दिमाग में कई बार सोचते हैं, परिणामों के बारे में सोच-विचार करते हैं, हर कोण से गुण और कमियाँ तोलते हैं। फिर वे जो कुछ कहना चाहते हैं उसे भाषा का उपयोग करके बदल देते हैं, जिससे वे जो कुछ कहते हैं वह काफी बोझिल लगता है। ईमानदार लोग उनकी बातें कभी समझ नहीं पाते और वे उनसे आसानी से धोखा खा जाते हैं और ठगे जाते हैं, जो भी ऐसे लोगों से बोलता और बात करता है उसका यह अनुभव थका देने वाला और दुष्कर होता है। वे कभी एक को एक और दो को दो नहीं कहते, वे कभी नहीं बताते कि वे क्या सोच रहे हैं और वे चीजों का वैसा वर्णन नहीं करते जैसी वे होती हैं। वे जो कुछ भी कहते हैं, वह अथाह होता है और उनके क्रियाकलापों के लक्ष्य और इरादे बहुत जटिल होते हैं। अगर सच बाहर आ जाता है—अगर दूसरे लोग उनकी असलियत जान जाते हैं और उन्हें समझ लेते हैं—तो वे इससे निपटने के लिए तुरंत एक और झूठ गढ़ लेते हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण चार : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग एक))। परमेश्वर ने एक खास तरह के लोगों को उजागर किया है, जो मसीह-विरोधी स्वभाव के हैं। उनकी कथनी और करनी में ईमानदारी का कोई तत्व नहीं होता, वे हमेशा निजी इरादों और उद्देश्य से काम करते हैं और उनके सभी विचार उलझे हुए होते हैं। उनके लिए एक साधारण मामला भी जटिल हो जाता है। उनका स्वभाव बहुत ही धोखेबाज होता है। मैं बिल्कुल वैसी ही इंसान थी, जिसे परमेश्वर ने उजागर किया। चूँकि मैंने बहुत सी समस्याओं की पहचान नहीं की थी, इसलिए काम का सारांश देते समय तो मुझे चिंता थी कि मेरी संगति की साधारणता के कारण दूसरी बहनें मुझे नीची नजर से देखेंगी, इसलिए मेरे दिमाग में योजनाएँ और साजिशें घुमड़ने लगीं, मैंने सोचा कि मैं बहनों की संगति समाप्त होने तक प्रतीक्षा कर सकती हूँ और फिर अंत में एक सामान्य संगति दे सकती हूँ। जब मैंने देखा कि बहनों ने काम में भटकाव और मुख्य मुद्दे पहचान लिए हैं, तो मैंने इस बात से बचना चाहा कि उन्हें मुद्दे के बारे में मेरी साधारण समझ का पता चले और मैं खुद को शर्मिंदा कर बैठूँ और भले ही ऐसे मुद्दे मौजूद थे जिन पर मैंने ध्यान नहीं दिया था, फिर भी मैंने बहनों की टिप्पणियों के साथ सहमति जताई, यह दावा किया कि मेरा सारांश उनके जैसा ही था। यहाँ तक कि मैंने तब सारांश देने का चुनाव किया जब सभी उनींदे थे, मैं इस कोशिश में थी कि उन्हें मेरे सारांश की साधारणता मेरी गलती न लगे, बल्कि यह लगे कि इसका कारण देर रात होना और मेरा दिमाग अस्पष्ट होना है। जब एन रैन ने बेहतर नतीजे पाने के लिए अगले दिन सारांश बताने का सुझाव दिया, मुझे डर था कि अगर मैंने यह मौका गँवा दिया तो मैं झाँसा देकर इस स्थिति से निकल नहीं पाऊँगी, इसलिए मैंने उसी रात सारांश बताने पर जोर दिया, दावा किया कि इसे स्थगित करने से अगले दिन के कार्य में देरी हो जाएगी। मुझे एहसास हुआ कि मेरे विचारों, कथनी और करनी में ईमानदारी का कोई नामो-निशान नहीं था और मेरा दिमाग भ्रमित हो गया था। वास्तव में चाहे मैं कितनी भी समस्याओं की पहचान कर पाती, मुझे ईमानदारी से बोलना चाहिए था और अगर ऐसी समस्याएँ होतीं जिन्हें मैंने नहीं पहचाना था, तो मैं अपने भटकाव देख पाती और बाद में उन्हें ठीक कर सकती थी। लेकिन मैंने इस मामले को बहुत जटिल बना दिया। मुझे हर शब्द बोलने से बहुत पहले उसे तौलने की जरूरत महसूस हो रही थी और मेरे सारे विचार इस बात के आसपास घूम रहे थे कि कैसे प्रतिष्ठा बचाई जाए। मेरा दिमाग कपटी साजिशों से भरा था, मैं इतनी धोखेबाज थी!

बाद में परमेश्वर के वचन खाने-पीने के माध्यम से मुझे कुछ समझ मिली कि मैं क्यों धोखेबाज बन रही थी और धोखेबाज बनने की प्रकृति और परिणाम क्या होते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “तुम लोग क्या कहते हो—क्या धोखेबाज लोगों का जीवन थकाऊ नहीं है? वे अपना पूरा समय झूठ बोलने और फिर उन्हें छिपाने के लिए और ज्यादा झूठ बोलने और चालबाजी करने में लगा देते हैं। वे ही खुद को इतना थकाते हैं। वे जानते हैं कि इस तरह जीना थकाऊ है—फिर भी वे क्यों धोखेबाज बने रहना चाहते हैं, ईमानदार क्यों नहीं होना चाहते? क्या तुम लोगों ने कभी इस सवाल पर विचार किया है? यह लोगों के अपनी शैतानी प्रकृति द्वारा बेवकूफ बनाए जाने का नतीजा है; यह उन्हें ऐसे जीवन और ऐसे स्वभाव से छुटकारा पाने से रोकता है। लोग इस तरह बेवकूफ बनाए जाने और इस तरह जीने को तैयार रहते हैं; वे सत्य का अभ्यास नहीं करना चाहते, प्रकाश के मार्ग पर नहीं चलना चाहते। तुम्हें लगता है कि इस तरह जीना थकाऊ है और इस तरह कार्य करना जरूरी नहीं है—लेकिन धोखेबाज लोग सोचते हैं कि यह पूरी तरह से जरूरी है। वे सोचते हैं कि ऐसा न करने से उनका अपमान होगा, उनकी छवि, प्रतिष्ठा और हितों को भी नुकसान पहुँचेगा, और वे बहुत-कुछ खो देंगे। वे ये चीजें सँजोते हैं, वे अपनी छवि, प्रतिष्ठा और हैसियत को सँजोते हैं। यह उन लोगों का असली चेहरा है जो सत्य से प्रेम नहीं करते। संक्षेप में, लोग ईमानदार होने या सत्य का अभ्यास करने को इसलिए तैयार नहीं होते क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते। अपने दिल में वे प्रतिष्ठा और हैसियत जैसी चीजों को संजोते हैं, वे सांसारिक प्रवृत्तियों के पीछे भागना और शैतान की सत्ता के अधीन रहकर जीना पसंद करते हैं। यह उनकी प्रकृति की समस्या है। अभी ऐसे लोग हैं जिन्होंने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, अनेक धर्मोपदेश सुने हैं और जानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखना क्या होता है। लेकिन फिर भी वे सत्य का अभ्यास नहीं करते और जरा भी नहीं बदले हैं—ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते। भले ही वे थोड़ा-बहुत सत्य समझते हों, फिर भी वे उस का अभ्यास नहीं कर पाते। ऐसे लोग परमेश्वर में चाहे जितने वर्ष विश्वास रख लें, वह कुछ भी नहीं होगा। क्या सत्य से प्रेम न करने वालों को बचाया जा सकेगा? यह बिल्कुल नामुमकिन है। सत्य से प्रेम न करना किसी व्यक्ति के दिल, उसकी प्रकृति की समस्या है। इसे दूर नहीं किया जा सकता। अपनी आस्था में कोई बचाया जा सकता है या नहीं, यह मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि वह सत्य से प्रेम करता है या नहीं। सिर्फ सत्य का प्रेमी ही सत्य को स्वीकार सकता है; सिर्फ वही मुश्किलें झेल सकता है और सत्य की खातिर कीमत चुका सकता है, सिर्फ वही परमेश्वर से प्रार्थना कर उस पर भरोसा कर सकता है। सिर्फ वही सत्य को खोज सकता है, और अपने अनुभवों के जरिए आत्मचिंतन कर खुद को जान सकता है, देह-सुख के विरुद्ध विद्रोह करने, सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर को समर्पित होने का साहस रखता है। सिर्फ सत्य के प्रेमी ही उसका इस तरह अनुसरण कर सकते हैं, उद्धार के पथ पर चल सकते हैं और परमेश्वर की स्वीकृति पा सकते हैं। इसके सिवाय दूसरा कोई रास्ता नहीं है। सत्य से प्रेम न करने वालों के लिए इसे स्वीकार करना बहुत मुश्किल होता है। ऐसा इसलिए कि अपनी प्रकृति से ही वे सत्य से विमुख होते हैं और उससे घृणा करते हैं। अगर वे परमेश्वर का प्रतिरोध करना बंद कर देना चाहें या बुरे कर्म न करना चाहें, तो ऐसा करना उनके लिए बहुत मुश्किल होगा, क्योंकि वे शैतान के हैं और वे पहले ही दानव और परमेश्वर के शत्रु बन चुके हैं। परमेश्वर मानव जाति को बचाता है, वह दानवों या शैतान को नहीं बचाता। कुछ लोग ऐसे सवाल पूछते हैं : ‘मैं वास्तव में सत्य को समझता हूँ। मैं सिर्फ उसका अभ्यास नहीं कर सकता। मैं क्या करूँ?’ यह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य से प्रेम नहीं करता। अगर कोई सत्य से प्रेम नहीं करता, तो उसे समझ कर भी वह उसका अभ्यास नहीं कर सकता क्योंकि दिल से वह ऐसा करने को तैयार नहीं है, और उसे सत्य पसंद नहीं है। ऐसा व्यक्ति उद्धार से परे है। कुछ लोग कहते हैं : ‘मुझे लगता है कि ईमानदार व्यक्ति बन कर तुम बहुत-सी चीजें खो देते हो, इसलिए मैं ऐसा व्यक्ति नहीं बनाना चाहता। धोखेबाज लोग कभी खोते नहीं—यहाँ तक कि वे दूसरों का फायदा उठाकर लाभान्वित होते हैं। तो मैं धोखेबाज बनना पसंद करूँगा। मैं दूसरों को अपना निजी व्यवसाय जानने देने, मुझे जानने या समझने देने को तैयार नहीं हूँ। मेरा भाग्य मेरे अपने हाथों में होना चाहिए।’ फिर ठीक है, हर तरह से आजमा कर देख लो। देखो तुम्हें कैसे नतीजा मिलता है; देखो अंत में कौन नरक में जाता है, और कौन दंडित किया जाता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि धोखेबाज लोग स्वाभाविक रूप से सत्य से प्रेम नहीं करते और ईमानदार होने का अभ्यास करने के लिए तैयार नहीं होते हैं। वे अपनी छवि और रुतबे को बचाने के लिए अपना दिन गणनाएँ करने और धोखा देने में बिताते हैं और इस प्रकार वे एक ऐसा जीवन जीते हैं जो थकाऊ और कष्टदायक होता है। यह सब उनकी शैतानी प्रकृति की पीड़ा और चालाकी के कारण होता है। समस्याओं और भटकावों की पहचान के लिए कार्य का सारांश बनाना आगे चलकर सिंचाई कार्य को बेहतर बनाने के लिए था, लेकिन मुझे हमेशा यह चिंता रहती थी कि मेरे सारांश की साधारणता के कारण बहनें मुझे हेय दृष्टि से देखेंगीं, इसलिए मैं लगातार हिसाब-किताब और साजिश करती रहती थी। स्पष्ट रूप से मैंने किसी भी समस्या की पहचान नहीं की थी, फिर भी मैंने सत्य को खुलकर बोलने की हिम्मत नहीं की। जिन बहनों के साथ मैं सहयोग कर रही थी, उन्होंने सुझाव दिया कि सारांश से नतीजे प्राप्त करने के लिए हमें तब सारांश बनाना चाहिए जब हमारे पास पर्याप्त ऊर्जा हो। मुझे पता था कि बहन के सुझाव से कार्य को लाभ होगा, फिर भी मैंने अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए चालाकी का सहारा लिया। मैं इतनी धोखेबाज थी! ऊपरी तौर पर मैं दूसरे लोगों के खिलाफ साजिश करती लग रही थी, लेकिन सार रूप में मैं परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश कर रही थी। जैसे मेरी साथी बहनों ने कहा, कार्य सारांश के दौरान मैं हाथ में मौजूद उचित कार्य पर ध्यान केंद्रित नहीं कर रही थी, न ही मैं आगे का काम बेहतर बनाने के लिए समस्याओं और भटकावों की पहचान के लिए सारांश का उपयोग कर रही थी। इसके बजाय मैं केवल अपनी निजी छवि और रुतबे के बारे में सोच रही थी, अपनी कमियों को छिपाने के लिए सावधानीपूर्वक षड्यंत्र रच रही थी। जिस तरह से मैं जी रही थी, वह न केवल थकाऊ था बल्कि मैं परमेश्वर का प्रबोधन या मार्गदर्शन भी प्राप्त नहीं कर सकी। वास्तव में मैं केवल इस विशेष सारांश सत्र के दौरान ही धोखेबाज और कपटपूर्ण नहीं थी। हमारी नियमित चर्चाओं के दौरान भी मैं अक्सर अपनी कमियाँ उजागर करने से बचने के लिए धोखेबाजी से पेश आती थी। जिन मुद्दों की मैंने पहचान नहीं की थी, उनके लिए मैं बस बहनों की कही बातें दोहरा देती थी या बहाना बनाने के लिए कोई सम्मानजनक लगता कारण ढूँढ़ लेती थी। मैंने सोचा कि कैसे परमेश्वर ने इतने सारे सत्य व्यक्त किए हैं, हमें सत्य का अनुसरण करने, ईमानदार होने और सामान्य मानव समान जीवन जीने का मार्गदर्शन दिया है, लेकिन मैं लगातार परमेश्वर की अपेक्षाओं के विरुद्ध जा रही थी और अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार जी रही थी। ऊपर से मैंने एक पक्का स्वांग रच रखा था ताकि मेरी साथी बहनें मेरी कमियाँ न देख सकें और मैं अपनी छवि और रुतबे की क्षणिक भावना बनाए रख सकूँ। लेकिन परमेश्वर हर चीज की जाँच-पड़ताल करता है। मैं जो कपटी स्वभाव प्रकट कर रही थी, उसने और साथ ही अपने हितों को बचाने के मेरे घृणित इरादे ने परमेश्वर को मुझसे घिनाने और अत्यधिक घृणा करने पर मजबूर कर दिया था। मुझे याद आया कि प्रभु यीशु ने क्या कहा था : “मैं तुम से सच कहता हूँ कि जब तक तुम न फिरो और बालकों के समान न बनो, तुम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने नहीं पाओगे(मत्ती 18:3)। परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक और पवित्र है और वह उन लोगों को स्वीकृति देता है जो सरल और ईमानदार हैं। अगर मैं अपने कपटी स्वभाव के अनुसार जीना जारी रखती हूँ और ईमानदार होने का अभ्यास किए बिना लोगों और परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश करती रहती हूँ, तो मैं अंततः परमेश्वर द्वारा त्याग और हटा दी जाऊँगी।

बाद में मुझे परमेश्वर के वचनों के माध्यम से अभ्यास और प्रवेश का मार्ग मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर का लोगों से ईमानदार बनने का आग्रह करना यह साबित करता है कि वह धोखेबाज लोगों से सचमुच घृणा करता है, उन्हें नापसंद करता है। धोखेबाज लोगों के प्रति परमेश्वर की नापसंदगी उनके काम करने के तरीके, उनके स्वभावों, उनके इरादों और उनकी चालबाजी के तरीकों के प्रति नापसंदगी है; परमेश्वर को ये सब बातें नापसंद हैं। यदि धोखेबाज लोग सत्य स्वीकार कर लें, अपने धोखेबाज स्वभाव को मान लें और परमेश्वर का उद्धार स्वीकार करने को तैयार हो जाएँ, तो उनके बचने की उम्मीद भी बँध जाती है, क्योंकि परमेश्वर सभी लोगों के साथ समान व्यवहार करता है, जैसा कि सत्य करता है। और इसलिए, यदि हम परमेश्वर को प्रसन्न करने वाले लोग बनना चाहें, तो सबसे पहले हमें अपने व्यवहार के सिद्धांतों को बदलना होगा। अब हम और शैतानी फलसफों के अनुसार नहीं जी सकते, हम और झूठ और चालबाजी के सहारे नहीं चल सकते। हमें अपने सारे झूठ त्याग कर ईमानदार बनना होगा। तब हमारे प्रति परमेश्वर का दृष्टिकोण बदलेगा। पहले लोग दूसरों के बीच रहते हुए हमेशा झूठ, ढोंग और चालबाजी पर निर्भर रहते थे, और अपने आचरण में शैतानी फलसफों को अपने अस्तित्व, अपने जीवन और अपनी नींव के रूप में लेते थे। इससे परमेश्वर को घृणा थी। गैर-विश्वासियों के बीच यदि तुम खुलकर बोलते हो, सच बोलते हो और ईमानदार रहते हो, तो तुम्हें बदनाम किया जाएगा, तुम्हारी आलोचना की जाएगी और तुम्हें त्याग दिया जाएगा। इसलिए तुम सांसारिक चलन का पालन करते हो और शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हो; तुम झूठ बोलने में ज्यादा-से-ज्यादा माहिर और अधिक से अधिक धोखेबाज होते जाते हो। तुम अपना मकसद पूरा करने और खुद को बचाने के लिए कपटपूर्ण साधनों का उपयोग करना भी सीख जाते हो। तुम शैतान की दुनिया में समृद्ध होते चले जाते हो और परिणामस्वरूप, तुम पाप में इतने गहरे गिरते जाते हो कि फिर उसमें से खुद को निकाल नहीं पाते। परमेश्वर के घर में चीजें ठीक इसके विपरीत होती हैं। तुम जितना अधिक झूठ बोलते और कपटपूर्ण खेल खेलते हो, परमेश्वर के चुने हुए लोग तुमसे उतना ही अधिक ऊब जाते हैं और तुम्हें त्याग देते हैं। यदि तुम पश्चात्ताप नहीं करते, अब भी शैतानी फलसफों और तर्क से चिपके रहते हो, अपना भेस बदलकर खुद को बढ़िया दिखाने के लिए चालें चलते हो और बड़ी-बड़ी साजिशें रचते हो, तो बहुत संभव है कि तुम्हारा खुलासा कर तुम्हें हटा दिया जाए। ऐसा इसलिए क्योंकि परमेश्वर धोखेबाज लोगों से घृणा करता है। केवल ईमानदार लोग ही परमेश्वर के घर में समृद्ध हो सकते हैं, धोखेबाज लोगों को अंततः त्याग कर हटा दिया जाता है। यह सब परमेश्वर ने पूर्वनिर्धारित कर दिया है। केवल ईमानदार लोग ही स्वर्ग के राज्य में साझीदार हो सकते हैं। यदि तुम ईमानदार व्यक्ति बनने की कोशिश नहीं करोगे, सत्य का अनुसरण करने की दिशा में अनुभव प्राप्त नहीं करोगे और अभ्यास नहीं करोगे, यदि अपना भद्दापन उजागर नहीं करोगे और यदि खुद को खोल कर पेश नहीं करोगे, तो तुम कभी भी पवित्र आत्मा का कार्य और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त नहीं कर पाओगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर हमसे सत्य का अभ्यास करने और ईमानदार व्यक्ति बनने की अपेक्षा करता है। स्थितियाँ उत्पन्न होने पर हमें परमेश्वर की जाँच-पड़ताल स्वीकार करने में सक्षम होना चाहिए, हमें बोलते और कार्य करते हुए अपने इरादों की जड़ से बदलने की जरूरत है और हमें अपने खुद के दैहिक हितों, छवि या रुतबे की रक्षा के लिए दूसरों को या परमेश्वर को धोखा नहीं देना चाहिए। इसके बजाय हमें सत्य का अभ्यास करना चाहिए और ईमानदार व्यक्ति होने के लिए प्रशिक्षण लेना चाहिए। जब हम बोलते और क्रिया-कलाप करते हैं, तो हमें बिना किसी छिपाव या पाखंड के सच्चा और ईमानदार होना चाहिए। केवल ऐसे लोग ही परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हैं। आगे बढ़ते हुए मुझे एक ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास करना था, मैं अब अपनी कमियों को छिपा या ढक नहीं सकती थी, मुझे उतना ही बोलना था, जितना मैं जानती थी और जब मेरी कमियाँ और कमजोरियाँ उजागर हों तो मुझे अपने भटकावों का सारांश तैयार करना था और दूसरों की खूबियों से सीखना था। बाद में जब बहनों के साथ काम का सारांश तैयार करते हुए राय साझा करने का समय आया तो मुझे कम बेबस महसूस हुआ। जब मुझे चीजें समझ में नहीं आती थीं तो मैं कह देती थी और अपनी बात खुलकर रखती थी और बहनों से मदद माँगती थी। बहनें मुझे नीची नजर से नहीं देखती थीं, बल्कि मेरा मार्गदर्शन और मेरी मदद करती थीं। उनकी मदद से मुझे कुछ मुद्दों की जड़ के बारे में स्पष्ट समझ मिली और मैंने काम को सारांशित करने और समस्याएँ हल करने के लिए कुछ रास्ते भी खोजने शुरू कर दिए।

बाद में मैंने खोजा कि मुझे कैसे इस समस्या को लेकर अभ्यास और प्रवेश करना चाहिए : मुझे हमेशा लगता था कि मेरी काबिलियत मेरी साथी बहनों से कमतर है और खासकर मुद्दों को सारांशित करते समय मैं बहनों की तरह समस्याएँ नहीं पहचान पाती, जिससे मुझे उनके साथ सहयोग करते समय हमेशा बाधित महसूस होता था। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “इस गीत की अगली पंक्ति कहती है, ‘भले ही मेरी योग्यता कम है, लेकिन मेरे पास एक ईमानदार दिल है।’ ये शब्द बहुत वास्तविक लगते हैं, और उस अपेक्षा के बारे में बताते हैं जो परमेश्वर लोगों से चाहता है। कैसी अपेक्षा? यही कि यदि लोगों में योग्यता की कमी है, तो यह दुनिया का अंत नहीं है, लेकिन उनके पास ईमानदार हृदय होना चाहिए, और यदि उनके पास यह है, तो वे परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने में सक्षम होंगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारी स्थिति या पृष्ठभूमि क्या है, तुम्हें एक ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए, ईमानदारी से बोलना चाहिए, ईमानदारी से कार्य करना चाहिए, पूरे हृदय और मस्तिष्क से अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम होना चाहिए, अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, चालाकी करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, धूर्त या कपटी व्यक्ति मत बनो, झूठ मत बोलो, धोखा मत दो, और घुमा-फिरा कर बात मत करो। तुम्हें सत्य के अनुसार कार्य करना चाहिए और ऐसा व्यक्ति बनना चाहिए जो सत्य का अनुसरण करे। बहुत से लोगों को लगता है कि उनमें कम योग्यता है और वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से या मानक के अनुरूप नहीं निभाते हैं। वे जो करते हैं उसमें अपना सर्वश्रेष्ठ देते हैं, लेकिन वे सिद्धांतों को कभी भी समझ नहीं पाते हैं, और अभी बहुत अच्छे परिणाम नहीं दे पाते हैं। अंततः वे केवल यह शिकायत कर पाते हैं कि उनकी योग्यता बहुत कम है, और वे नकारात्मक हो जाते हैं। तो, क्या जब किसी व्यक्ति की योग्यता कम हो तो आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं है? कम योग्यता होना कोई घातक बीमारी नहीं है, और परमेश्वर ने कभी नहीं कहा कि वह कम योग्यता वाले लोगों को नहीं बचाता। जैसा कि परमेश्वर ने पहले कहा था, वह उन लोगों से दुखी होता है जो ईमानदार लेकिन अज्ञानी हैं। अज्ञानी होने का क्या मतलब है? कई मामलों में अज्ञानता कम योग्यता के कारण आती है। जब लोगों में योग्यता कम होती है तो उन्हें सत्य की सतही समझ होती है। यह विशिष्ट या पर्याप्त व्यावहारिक नहीं होती, और अक्सर सतही स्तर या शाब्दिक समझ तक ही सीमित होती है—यह धर्म-सिद्धांतों और विनियमों तक ही सीमित होती है। इसीलिए वे कई समस्याओं को स्पष्ट रूप से देख नहीं पाते हैं, और अपना कर्तव्य निभाते समय कभी भी सिद्धांतों को नहीं समझ पाते हैं, या अपना कर्तव्य अच्छी तरह नहीं निभा पाते हैं। तो क्या परमेश्वर कम योग्यता वाले लोगों को नहीं चाहता? (वह चाहता है।) परमेश्वर लोगों को कैसा मार्ग और दिशा दिखाता है? (एक ईमानदार व्यक्ति बनने का।) क्या ऐसा कहने मात्र से तुम एक ईमानदार व्यक्ति बन सकते हो? (नहीं, तुममें एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजनाएँ होनी चाहिए।) एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजनाएँ क्या हैं? सबसे पहले, परमेश्वर के वचनों के बारे में कोई संदेह नहीं होना। यह ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजनाओं में से एक है। इसके अलावा, सबसे महत्वपूर्ण अभिव्यंजना है सभी मामलों में सत्य की खोज और उसका अभ्यास करना—यह सबसे महत्वपूर्ण है। तुम कहते हो कि तुम ईमानदार हो, लेकिन तुम हमेशा परमेश्वर के वचनों को अपने मस्तिष्क के कोने में धकेल देते हो और वही करते हो जो तुम चाहते हो। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजना है? तुम कहते हो, ‘भले ही मेरी योग्यता कम है, लेकिन मेरे पास एक ईमानदार दिल है।’ फिर भी, जब तुम्हें कोई कर्तव्य मिलता है, तो तुम इस बात से डरते हो कि अगर तुमने इसे अच्छी तरह से नहीं किया तो तुम्हें पीड़ा सहनी और इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी, इसलिए तुम अपने कर्तव्य से बचने के लिए बहाने बनाते हो या फिर सुझाते हो कि इसे कोई और करे। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजना है? स्पष्ट रूप से, नहीं है। तो फिर, एक ईमानदार व्यक्ति को कैसे व्यवहार करना चाहिए? उसे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए, जो कर्तव्य उसे निभाना है उसके प्रति निष्ठावान होना चाहिए और परमेश्वर के इरादों को पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। यह कई तरीकों से व्यक्त होता है : एक तरीका है अपने कर्तव्य को ईमानदार हृदय के साथ स्वीकार करना, अपने दैहिक हितों के बारे में न सोचना, और इसके प्रति अधूरे मन का न होना या अपने लाभ के लिए साजिश न करना। ये ईमानदारी की अभिव्यंजनाएँ हैं। दूसरा है अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए अपना तन-मन झोंक देना, चीजों को ठीक से करना, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य में अपना हृदय और प्रेम लगा देना। अपना कर्तव्य निभाते हुए एक ईमानदार व्यक्ति की ये अभिव्यंजनाएँ होनी चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन एक ऐसी गर्म धारा की तरह थे जिसने मेरे दिल को सुकून दिया और इन वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिखाया। परमेश्वर कहता है कि खराब काबिलियत होना मुख्य मुद्दा नहीं है और परमेश्वर मुख्य रूप से यह देखता है कि क्या किसी व्यक्ति के पास अपने कर्तव्य में एक ईमानदार दिल है और क्या वह वफादारी से अपना कर्तव्य निभा सकता है और अपनी भरसक क्षमताओं के अनुसार सहयोग कर सकता है। भले ही हम किसी ऐसी चीज का सामना करें जिसे हम नहीं समझते या नहीं जानते कि कैसे करना है, हमें परमेश्वर से अधिक प्रार्थना करनी चाहिए और उनका मार्गदर्शन खोजना चाहिए, सभी चीजों में सत्य सिद्धांत खोजने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और उन भाई-बहनों के साथ संगति करनी चाहिए जिनके साथ हम सहयोग कर रहे हैं। एक बार जब हम समझ हासिल कर लेते हैं, तो हमें सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए और अपने निजी हितों, छवि या रुतबे को नहीं बचाना चाहिए और इसके बजाय जहाँ संभव हो, हमें सहयोग करने की पूरी कोशिश करनी चाहिए। यह ईमानदार मानव समानता है जिसे परमेश्वर चाहता है कि हम जिएँ और यह अभ्यास का मार्ग भी है जिसे परमेश्वर ने हमें अपने कर्तव्य अच्छी तरह से करने के लिए दिखाया है। वास्तव में जिन बहनों के साथ मैं सहयोग कर रही थी वे विस्तृत समस्याओं और भटकावों का पता केवल इसलिए नहीं लगा लेती थीं कि उनके पास बेहतर काबिलियत थी, बल्कि वे इनका पता इसलिए भी लगा लेती थीं क्योंकि वे प्रयास करती थीं और चीजों पर सचमुच भली-भाँति विचार करती थीं। मेरी काबिलियत औसत थी और कार्य सारांशों के दौरान मेरा दिल शांत नहीं रहता था और मैं काम पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय हमेशा अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा करने के बारे में सोचती रहती थी। यही नहीं, अपने कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया भी गलत था और मुझे समस्याओं के बारे में सोचना थकाऊ लगता था, इसलिए मैं प्रयास नहीं करना चाहती थी। परिणामस्वरूप, मैं बहुत कम समस्याएँ ही ढूँढ़ पाती थी और मैं अपनी क्षमताओं का पूरा-पूरा उपयोग तक नहीं कर पाती थी। वास्तव में मैं जिन बहनों के साथ सहयोग कर रही थी, वे मेरी काबिलियत अच्छी तरह जानती थीं, लेकिन उन्होंने मेरी कम काबिलियत के कारण मुझे कभी नीची नजर से नहीं देखा। इसके बजाय वे मुझे अक्सर प्रोत्साहित करती थीं कि मैं अपनी कमियों को सही ढंग से देखूँ और अपनी खूबियों को और अधिक दिखाऊँ। जब वे मुझमें समस्याएँ देखती थीं तो धैर्यपूर्वक मेरा मार्गदर्शन और मेरी मदद करती थीं और उन्होंने मुझे सिखाया कि चीजों को परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर कैसे देखना है। उनकी धैर्यपूर्ण मदद से मुझे अपने काम में कुछ रास्ते मिले। परमेश्वर ने यह व्यवस्था की कि मैं अपने कर्तव्य में इन बहनों के साथ सहयोग करूँ, इसलिए अपने कर्तव्य मिलकर पूरे करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए मुझे कृतज्ञ हृदय के साथ सामंजस्यपूर्ण सहयोग करना था। मैं अब अपनी कम काबिलियत से बाधित नहीं हो सकती थी और मुझे अपने इरादे सही करने थे और अपनी खूबियों का उपयोग करना था।

जब मैंने परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास और प्रवेश किया तो मैं काम का सारांश देते समय या मुद्दों पर चर्चा करते समय अपने मन को शांत करने और ध्यान से सोचने में सक्षम रही। कभी-कभी मैं अपनी राय जताने की पहल करती थी, जो मैं जानती थी उसे कहती थी। हालाँकि ऐसा करने से मेरी कई कमियाँ उजागर होती थीं और मुझे थोड़ी शर्मिंदगी महसूस होती थी, लेकिन अब मैं ठीक से इस मामले का सामना कर सकती थी। एक ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास करने से मुझे खुशी मिली और मुझे मुक्ति और आजादी का एहसास हुआ। परमेश्वर का धन्यवाद!

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