57. अब मैं अपनी बीमारी के कारण परेशान नहीं रहती

मेंगफैन, चीन

दिसंबर 2022 में मुझे ट्राइजेमिनल न्यूराल्जिया हो गया था। सर्जरी के बाद भी मेरे सिर का दाहिना हिस्सा सुन्न रहता, मुझे अक्सर चक्कर आते और मैं असहज हो जाती। कभी-कभी जब मैं चलती तो ऐसा लगता कि मैं नशे में हूँ और मुझे इतना चक्कर आता कि मैं मुश्किल से खड़ी हो पाती। डॉक्टरों का कहना था कि इसकी वजह मस्तिष्क में खून की आपूर्ति में कमी है। उन्होंने मुझे हल्के सेरेब्रल आर्टेरी स्क्लेरोसिस से भी पीड़ित बताया और कहा कि मुझे खुद पर बहुत अधिक दबाव नहीं डालना चाहिए या देर तक नहीं जागना चाहिए। यह सुनने के बाद मैंने मन ही मन सोचा, “मेरे दोनों पड़ोसियों को सख्त रक्त वाहिकाओं के कारण मस्तिष्क रक्तस्राव हुआ था और वे निष्क्रिय दशा में चले गए और कुछ ही समय बाद उनकी मृत्यु हो गई। अगर मुझे किसी दिन चक्कर आ गए, गलती से गिर गई, मस्तिष्क की रक्त वाहिका फट गई और निष्क्रिय दशा में चली गई तो?” मैंने अपने दिल के मसला के बारे में भी सोचा और मुझे लगा कि मुझे भविष्य में खुद पर बहुत अधिक दबाव नहीं डालना चाहिए। आखिरकार अगर मैं अत्यधिक परिश्रम से थककर गिर गई और अपने कर्तव्य पूरे नहीं कर पाई तो क्या इससे मेरी जीवन प्रगति में रुकावट नहीं आएगी? फिर मैं उद्धार कैसे प्राप्त कर पाऊँगी? इसलिए मैं हर दिन कसरत करने लगी, ताकि मैं जल्द से जल्द ठीक हो जाऊँ। अप्रैल 2023 तक मैं कुछ हद तक ठीक हो गई थी, इसलिए मैं स्वेच्छा से सामान्य मामलों के कुछ कलीसियाई कर्तव्य करने लगी। मेरे साथ सहयोग करने वाली बहनें विचारशील थीं, उन्होंने मुझे केवल हल्के और साधारण कार्य दिए। मैं बहुत खुश थी। मुझे लगा कि मेरा कर्तव्य बहुत अच्छा है, मुझे चिंता करने या खुद पर ज्यादा दबाव डालने की जरूरत नहीं है और यह कर्तव्य करने से मेरे उद्धार की खोज में देरी नहीं होगी।

मई 2023 में सामान्य मामलों के उपयाजक और मेरी साथी बहनें सुरक्षा चिंताओं के कारण अपने कर्तव्य जारी नहीं रख सकीं और अचानक उनकी सारी जिम्मेदारियाँ अकेले मुझ पर आ गईं। मैं थोड़ी प्रतिरोधी हो गई, सोचने लगी, “मैं अभी भी पूरी तरह से ठीक नहीं हुई हूँ और इतना सारा काम है। अगर मेरी बीमारी बढ़ गई, मुझे चक्कर आ गया और मैं सड़क पर गिर गई तो?” मुझे एहसास हुआ कि कलीसिया को सामान्य मामलों के काम के लिए कोई और उपयुक्त व्यक्ति नहीं मिल रहा है और मैं ही एकमात्र इंसान हूँ जो काम से परिचित है, इसलिए मैं इनकार नहीं कर सकती। मैंने सोचा कि अगर मैं कलीसिया के काम को आगे बढ़ाने के लिए सक्रिय रूप से सहयोग करती हूँ तो परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा। इसलिए मैंने समर्पण कर दिया। सँभालने के लिए बहुत सारे काम थे और मैं हर दिन व्यस्त रहती थी। कुछ समय बाद मुझे बहुत ज्यादा चक्कर आने लगे और कभी-कभी दिन में शारीरिक काम करने के बाद शाम को मेरे अंग-प्रत्यंग ठीक से काम नहीं करते थे। इसके अलावा मेरी हर्नियेटेड डिस्क में समस्या हो गई और मुझे पीठ के निचले हिस्से में दर्द रहने लगा। मैंने मन ही मन सोचा, “अगर मैं खुद को इसी तरह से थकाती रही तो कहीं मैं अपने पड़ोसियों की तरह बिस्तर पर पड़कर निष्क्रिय दशा में तो नहीं चली जाऊँगी? मेरी जान भी जा सकती है। अगर मैं साधारण कर्तव्य भी नहीं कर सकती तो मैं उद्धार कैसे पाऊँगी? मैंने सोचा कि जिम्मेदारियाँ उठाने से परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा और मुझे जल्दी ठीक होने में मदद करेगा। लेकिन अब मेरी हालत सुधरने के बजाय और बिगड़ गई है। लगता है कर्तव्यों के बारे में बहुत ज्यादा चिंता करने के बजाय मुझे अपने स्वास्थ्य को प्राथमिकता देनी चाहिए।” उस समय कलीसिया ने अभी तक सामान्य मामलों के लिए उपयाजक नहीं चुना था और कुछ चीजों को तत्काल सँभालने की जरूरत थी, लेकिन मुझे लगा इन चीजों को सँभालने के लिए बहुत ज्यादा मेहनत और प्रयास की जरूरत होगी, इसलिए मैं तैयार नहीं थी। मैंने सोचा, “मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं है और अगर मैं थकावट से गिर पड़ी तो सब व्यर्थ हो जाएगा। वैसे भी मैं सामान्य मामलों की उपयाजक तो हूँ नहीं, इसलिए मुझे अपने स्वास्थ्य को प्राथमिकता देनी चाहिए।” नतीजतन मैंने सिर्फ अपने शारीरिक स्वास्थ्य पर विचार किया और इन चीजों को नहीं सँभाला। बाद में जब अगुआ ने इसका जायजा लिया और इस बारे में पूछा, तब जाकर मैंने आखिरकार कुछ भाई-बहनों के साथ मिलकर उन्हें सँभाला। उसके बाद अगुआ ने मुझे कुछ सामान्य मामलों के कर्मियों के लिए कलीसियाई जीवन की अस्थायी रूप से जिम्मेदारी सँभालने के लिए कहा। मैंने मन ही मन सोचा, “मुझे वाकई ये लोग समझ नहीं आते। अगर कोई बुरी मनोदशा में है तो मुझे उसके साथ संगति करने और समाधान देने के लिए प्रासंगिक सत्य खोजने होंगे। मैं अपने कर्तव्यों से पहले ही काफी थक चुकी हूँ, हाल ही में चक्कर आने की मेरी समस्या और भी बढ़ गई है और मेरी पीठ के निचले हिस्से में दर्द रहता है। मैं अपने खाली समय में आराम करना पसंद करूँगी। क्या उनके लिए सभाओं की मेजबानी करना मेरे लिए और भी अधिक थकाऊ नहीं होगा?” इसलिए मैंने यह कहते हुए मना कर दिया कि मैं पर्यवेक्षक नहीं हूँ। बाद में मुझे पता चला कि उनमें से एक बहन बीमारी से जूझ रही है और उसकी आध्यात्मिक मनोदशा खराब है। मुझे थोड़ा अपराध बोध हुआ। मेरे पास कुछ समय था, लेकिन मैं बस खुद को अधिक परिश्रम करने और अपनी स्थिति बिगड़ने से डरती थी। क्योंकि मैंने कभी अपनी मनोदशा नहीं सुधारी, जब भी मेरे कर्तव्य थोड़े व्यस्त हो जाते या मैं कुछ शारीरिक काम करती और मुझे थकान या असहजता होती तो मैं चिंता में पड़ जाती और सोचती, “क्या मेरी हालत फिर से खराब हो रही है? अगर किसी दिन मैं अपनी बाइक से गिरकर सड़क पर मर गई तो?” जितना मैंने इसके बारे में सोचा, उतनी ही मैं डर गई। मुझे डर था कि मेरी हालत बिगड़ जाएगी और मैं अपने कर्तव्य करने में असमर्थ हो जाऊँगी या इससे भी बदतर कि मैं अपना जीवन और उद्धार पाने का मौका गँवा दूँगी। इसलिए मैं अगुआ से आग्रह करती रही कि वह जल्द से जल्द सामान्य मामलों के लिए उपयाजक चुन ले। इस तरह मुझे चिंता करने और खुद को ज्यादा थकाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। मुझे हैरानी हुई है जब अगस्त 2023 में एक दिन मुझे सामान्य मामलों का उपयाजक चुन लिया गया। यह समाचार सुनकर मैं बहुत प्रतिरोधी हो गई, सोचने लगी, “मैंने सोचा था कि सामान्य मामलों का नया उपयाजक चुने जाने के बाद मैं पहले की तरह हल्के, सरल कर्तव्य कर सकूँगी। मुझे उम्मीद नहीं थी कि वे मुझे ही सामान्य मामलों का उपयाजक बना देंगे। सामान्य मामलों के उपयाजक को कलीसिया के सभी सामान्य मामलों का जायजा लेना होता है और कभी-कभी शारीरिक काम भी करना पड़ता है। अगर मैं अपने स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाती हूँ या अपनी जान गँवा देती हूँ तो मैं कैसे उद्धार पा सकती हूँ? मैं यह कर्तव्य बिल्कुल नहीं निभाऊँगी।” इसलिए मैंने बहाना बनाया, “मेरी योग्यता सामान्य मामलों के उपयाजक के कर्तव्य के अनुरूप नहीं है।” अगुआ ने मेरे साथ परमेश्वर के इरादे के बारे में संगति की और मुझसे और अधिक खोजने के लिए कहा। मुझे थोड़ा अपराध बोध हुआ और मुझे एहसास हुआ कि भाई-बहनों ने मुझे उपयाजक चुना, जो परमेश्वर की सहमति से हुआ है। मैं अब और प्रतिरोध नहीं कर सकती, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उसे फिलहाल स्वीकार कर लिया।

बाद में मुझे एहसास हुआ कि मेरी बीमारी पर मेरा निरंतर ध्यान परमेश्वर की संप्रभुता के बारे में मेरी समझ की कमी को दर्शाता है, इसलिए मैंने इस संबंध में परमेश्वर के वचनों की तलाश की। एक दिन मैंने एक अनुभवजन्य गवाही वीडियो देखा, जिसमें परमेश्वर के वचनों का एक अंश था जिसने मेरी बहुत मदद की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “फिर ऐसे लोग होते हैं जिनकी सेहत ठीक नहीं है, जिनका शारीरिक गठन कमजोर और ऊर्जाहीन है, जिन्हें अक्सर छोटी-बड़ी बीमारियाँ पकड़ लेती हैं, जो दैनिक जीवन में जरूरी बुनियादी काम भी नहीं कर पाते, और जो न सामान्य लोगों की तरह जी पाते हैं, न तरह-तरह के काम कर पाते हैं। ऐसे लोग अपने कर्तव्य निभाते समय अक्सर बेआराम और बीमार महसूस करते हैं; कुछ लोग शारीरिक रूप से कमजोर होते हैं, कुछ को वास्तविक बीमारियाँ होती हैं, और बेशक कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें किसी-न-किसी प्रकार के ज्ञात और संभाव्य रोग हैं। ऐसी व्यावहारिक शारीरिक मुश्किलों के कारण ऐसे लोग अक्सर संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में डूब जाते हैं। वे किस बात को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव करते हैं? उन्हें चिंता होती है कि अगर वे अपना कर्तव्य इसी तरह निभाते रहे, परमेश्वर के लिए खुद को इसी तरह खपाते रहे, भाग-दौड़ करते रहे, हमेशा थका हुआ महसूस करते रहे, तो कहीं उनकी सेहत और ज्यादा न बिगड़ जाए? 40 या 50 के होने पर क्या वे बिस्तर से लग जाएँगे? क्या ये चिंताएँ सही हैं? क्या कोई इससे निपटने का ठोस तरीका बताएगा? इसकी जिम्मेदारी कौन उठाएगा? जवाबदेह कौन होगा? कमजोर सेहत वाले और शारीरिक तौर पर अयोग्य लोग ऐसी बातों को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव करते हैं। बीमार लोग अक्सर सोचते हैं, ‘ओह, मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने को दृढ़संकल्प हूँ, मगर मुझे यह बीमारी है। मैं परमेश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वह मुझे हानि न होने दे, और परमेश्वर की सुरक्षा के तहत मुझे डरने की जरूरत नहीं। लेकिन अपना कर्तव्य निभाते समय अगर मैं थक गया, तो क्या मेरी हालत बिगड़ जाएगी? अगर मेरी हालत बिगड़ गई तो मैं क्या करूँगा? अगर किसी ऑपरेशन के लिए मुझे अस्पताल में दाखिल होना पड़ा और मेरे पास वहाँ देने को पैसे न हों, तो अगर मैं अपने इलाज के लिए पैसे उधार न लूँ, तो कहीं मेरी हालत और ज्यादा न बिगड़ जाए? और अगर ज्यादा बिगड़ गई, तो कहीं मैं मर न जाऊँ? क्या ऐसी मृत्यु को सामान्य मृत्यु माना जा सकेगा? अगर मैं सच में मर गया, तो क्या परमेश्वर मेरे निभाए कर्तव्य याद रखेगा? क्या माना जाएगा कि मैंने नेक कार्य किए थे? क्या मुझे उद्धार मिलेगा?’ ऐसे भी कुछ लोग हैं जो जानते हैं कि वे बीमार हैं, यानी वे जानते हैं कि उन्हें वास्तव में कोई-न-कोई बीमारी है, मिसाल के तौर पर, पेट की बीमारियाँ, निचली पीठ और टाँगों का दर्द, गठिया, संधिवात, साथ ही त्वचा रोग, स्त्री रोग, यकृत रोग, उच्च रक्तचाप, दिल की बीमारी, वगैरह-वगैरह। वे सोचते हैं, ‘अगर मैं अपना कर्तव्य निभाता रहा, तो क्या परमेश्वर का घर मेरी बीमारी के इलाज का खर्च उठाएगा? अगर मेरी बीमारी बदतर हो गई और इससे मेरा कर्तव्य-निर्वहन प्रभावित हुआ, तो क्या परमेश्वर मुझे चंगा करेगा? परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद दूसरे लोग ठीक हो गए हैं, तो क्या मैं भी ठीक हो जाऊँगा? क्या परमेश्वर मुझे ठीक कर देगा, उसी तरह जैसे वह दूसरों को दयालुता दिखाता है? अगर मैंने निष्ठा से अपना कर्तव्य निभाया, तो परमेश्वर को मुझे चंगा कर देना चाहिए, लेकिन अगर मैं सिर्फ यह कामना करूँ कि परमेश्वर मुझे चंगा कर दे और वह न करे, तो फिर मैं क्या करूँगा?’ जब भी वे इन चीजों के बारे में सोचते हैं, उनके दिलों में व्याकुलता की तीव्र भावना उफनती है। हालाँकि वे अपना कर्तव्य-निर्वाह कभी नहीं रोकते, और हमेशा वह करते हैं जो उन्हें करना चाहिए, फिर भी वे अपनी बीमारी, अपनी सेहत, अपने भविष्य और अपने जीवन-मृत्यु के बारे में निरंतर सोचते रहते हैं। अंत में, वे खयाली पुलाव वाले इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, ‘परमेश्वर मुझे चंगा कर देगा, परमेश्वर मुझे सुरक्षित रखेगा। परमेश्वर मेरा परित्याग नहीं करेगा, और अगर वह मुझे बीमार पड़ता देखेगा, तो कुछ किए बिना अलग खड़ा नहीं रहेगा।’ ऐसी सोच का बिल्कुल कोई आधार नहीं है, और कहा जा सकता है कि यह एक प्रकार की धारणा है। ऐसी धारणाओं और कल्पनाओं के साथ लोग कभी अपनी व्यावहारिक मुश्किलों को दूर नहीं कर पाएँगे, और अपनी सेहत और बीमारियों को लेकर अपने अंतरतम में वे अस्पष्ट रूप से संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करेंगे; उन्हें कोई अंदाजा नहीं होता कि इन चीजों की जिम्मेदारी कौन उठाएगा, या क्या कोई इनकी जिम्मेदारी उठाएगा भी(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। अपनी तुलना परमेश्वर के वचनों से करते हुए मैंने देखा कि मैं बिल्कुल वैसी ही इंसान हूँ जैसा परमेश्वर ने वर्णन किया है। सर्जरी के बाद शारीरिक रूप से कमजोर और अत्यधिक चक्कर आने के बाद और जब से मुझे मस्तिष्क में खून की कम आपूर्ति और हल्के मस्तिष्क धमनी स्केलेरोसिस का पता चला है मैं लगातार संकट और चिंता में जी रही हूँ, हमेशा यह चिंता करती रहती हूँ कहीं मेरी हालत खराब न हो जाए, मुझे लकवा न मार जाए, मैं बिस्तर पर न पड़ जाऊँ और कहीं अपने कर्तव्य निर्वहन में असमर्थ न हो जाऊँ, जिसका मतलब होगा कि मैं उद्धार के अपने अवसर को गँवा दूँगी। खासकर कलीसिया के मामलों में अपना कर्तव्य शुरू करने के बाद मेरी हालत सुधरने के बजाय और खराब हो गई। मुझे चिंता रहती कि अपने कर्तव्यों में अत्यधिक परिश्रम के कारण किसी दिन मैं गिर कर कहीं निष्क्रिय दशा में न पहुँच जाऊँ, इसलिए मैं ऐसे कार्य करने के लिए तैयार नहीं थी जिसके लिए प्रयास और ध्यान देने की जरूरत होती है। मैं बस अपनी ताकत को बचाए रखना और अधिक आराम करना चाहती थी। मैं कलीसिया की मदों को भी नहीं सँभालना चाहती थी और खुद को थका देने के डर से भाई-बहनों के लिए सभाओं की मेजबानी करने से भी हिचकिचाती थी। नतीजतन मैं समय रहते एक बहन की मनोदशा को हल करने में विफल रही, जिससे उसके जीवन प्रवेश में देरी हुई। अपने कर्तव्य में मैं हमेशा अपने शरीर के बारे में सोचती रहती थी और अपने स्वास्थ्य की रक्षा के लिए यथासंभव कम प्रयास करना चाहती थी। मुझमें अपने कर्तव्य के प्रति दायित्व-बोध नहीं था। सामान्य मामलों की उपयाजक चुनी जाने के बाद मुझे और भी अधिक चिंता होने लगी कि मैं खुद को इस हद तक थका दूँगी कि बीमार पड़ जाऊँगी, जिससे मुझे उद्धार का मौका गँवाना पड़ेगा और मैं प्रतिरोधी हो गई। मैंने कपटपूर्ण तरीके से यहाँ तक दावा किया कि मैं अपनी खराब काबिलियत के कारण इस कर्तव्य के लिए योग्य नहीं हूँ। असल में मेरी हालत खराब होनी है या नहीं और मुझे जीना है या मरना है, यह सब परमेश्वर के हाथ में है। लेकिन मैं चिंता और संकट में जी रही थी, अपने तरीकों पर भरोसा करके अपने शरीर की रक्षा करने की कोशिश कर रही थी। मैं परमेश्वर की संप्रभुता पर भरोसा नहीं कर रही थी और मैं एक छद्म-विश्वासी की तरह पेश आ रही थी। इसका एहसास होने पर मैं अपनी हालत परमेश्वर के हाथों में सौंपने और अपने मुद्दों को हल करने के लिए सत्य खोजने को तैयार हो गई।

इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “जब परमेश्वर किसी को छोटी या बड़ी बीमारी देने की व्यवस्था करता है, तो ऐसा करने के पीछे उसका उद्देश्य तुम्हें बीमार होने के पूरे विवरण, बीमारी से तुम्हें होने वाली हानि, बीमारी से तुम्हें होने वाली असुविधाओं और मुश्किलों और तुम्हारे मन में उठने वाली विभिन्न भावनाओं को समझने देना नहीं है—उसका प्रयोजन यह नहीं है कि तुम बीमार होकर बीमारी को समझो। इसके बजाय उसका प्रयोजन यह है कि बीमारी से तुम सबक सीखो, सीखो कि परमेश्वर के इरादों को कैसे पकड़ें, अपने द्वारा प्रदर्शित भ्रष्ट स्वभावों और बीमार होने पर परमेश्वर के प्रति अपनाए गए अपने गलत रवैयों को जानो, और सीखो कि परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति कैसे समर्पित हों, ताकि तुम परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण प्राप्त कर सको, और अपनी गवाही में डटे रह सको—यह बिल्कुल अहम है। परमेश्वर बीमारी के जरिए तुम्हें बचाना और स्वच्छ करना चाहता है। वह तुम्हारी किस चीज को स्वच्छ करना चाहता है? वह परमेश्वर से तुम्हारी तमाम अत्यधिक आकांक्षाओं और माँगों, और यहाँ तक कि हर कीमत पर जीवित रहने और जीने की तुम्हारे अलग-अलग हिसाबों, फैसलों और योजनाओं को स्वच्छ करना चाहता है। परमेश्वर तुमसे नहीं कहता कि योजनाएँ बनाओ, वह तुमसे नहीं कहता कि न्याय करो, और उससे अत्यधिक आकांक्षाएँ रखो; उसकी बस इतनी अपेक्षा होती है कि तुम उसके प्रति समर्पित रहो, और समर्पण करने के अपने अभ्यास और अनुभव में, तुम बीमारी के प्रति अपने रवैये को जान लो, और उसके द्वारा तुम्हें दी गई शारीरिक स्थितियों के प्रति अपने रवैये को और साथ ही अपनी निजी कामनाओं को जान लो। जब तुम इन चीजों को जान लेते हो, तब तुम समझ सकते हो कि तुम्हारे लिए यह कितना फायदेमंद है कि परमेश्वर ने तुम्हारे लिए बीमारी की परिस्थितियों की व्यवस्था की है, या उसने तुम्हें ये शारीरिक दशाएँ दी हैं; और तुम समझ सकते हो कि तुम्हारा स्वभाव बदलने, तुम्हारे उद्धार हासिल करने, और तुम्हारे जीवन-प्रवेश में ये कितनी मददगार हैं। इसीलिए जब बीमारी दस्तक देती है, तो तुम्हें हमेशा यह नहीं सोचना चाहिए कि उससे कैसे बच निकलें, दूर भाग जाएँ या उसे ठुकरा दें(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर कहता है कि बीमारी हम पर इसलिए नहीं आती कि हम चिंता और संकट में रहें, न ही इसलिए कि हम उससे बचने का प्रयत्न करें, बल्कि यह हमें सबक सीखने, उस भ्रष्टता, अशुद्धियों और गलत इरादों को जानने का अवसर देती है जो हम बीमारी के आने पर प्रकट करते हैं, ताकि हम परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर सकें। आत्म-चिंतन करने पर मैंने देखा कि बीमारी का सामना होने पर मैं लगातार चिंतित रहती हूँ कि अपने कर्तव्य पूरे करने और खुद को अत्यधिक परिश्रम करने से कहीं मुझे लकवा न मार जाए और मैं बिस्तर पर न पड़ जाऊँ और फिर मैं साधारण कर्तव्य भी नहीं कर पाऊँगी और इस तरह उद्धार का अपना मौका गँवा दूँगी। इसके बाद अपने कर्तव्य करते समय मैंने हमेशा कम से कम प्रयास करने की कोशिश की और जब मुझे सामान्य मामलों का उपयाजक चुना गया, तब भी मैंने धोखेबाज बनने और इससे बचने की कोशिश की। मैं हमेशा अपने स्वास्थ्य को लेकर चिंतित रहती थी, अपने भविष्य की संभावनाओं और रास्तों के बारे में चिंता करती थी, कलीसिया के काम के बारे में जरा भी नहीं सोचती थी। मैं बहुत स्वार्थी और नीच थी! अगर यह बीमारी न होती तो मेरा अंदरूनी विद्रोहीपन और भ्रष्टता प्रकट नहीं होती, शुद्ध और रूपांतरित होना तो दूर की बात है। मुझे परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के आगे समर्पण करना था और सबक सीखने के लिए सत्य की खोज करनी थी।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “व्यक्ति के जीवन का मूल्य क्या है? क्या यह केवल खाने, पीने और मनोरंजन जैसे शारीरिक सुखों में शामिल होने की खातिर है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) तो फिर यह क्या है? तुम लोग अपने विचार साझा करो। (व्यक्ति को अपने जीवन में कम से कम एक सृजित प्राणी के कर्तव्य को पूरा करने का लक्ष्य हासिल करना चाहिए।) सही कहा। मुझे बताओ, यदि जीवन भर किसी व्यक्ति के दैनिक क्रियाकलाप और विचार केवल बीमारी और मृत्यु से बचने, अपने शरीर को स्वस्थ और बीमारियों से मुक्त रखने और दीर्घायु होने की कोशिश पर केंद्रित होते हैं, तो क्या व्यक्ति के जीवन का यही मूल्य होना चाहिए? (नहीं, यह नहीं होना चाहिए।) किसी व्यक्ति के जीवन का यह मूल्य नहीं होना चाहिए। ... जब कोई व्यक्ति इस संसार में आता है, तो यह केवल देह के आनंद के लिए नहीं होता, न ही यह केवल खाने, पीने और मौज-मस्ती करने के लिए होता है। व्यक्ति को उन चीजों के लिए नहीं जीना चाहिए; यह मानव जीवन का मूल्य नहीं है, न ही यह सही मार्ग है। मानव जीवन के मूल्य और अनुसरण के सही मार्ग में कुछ मूल्यवान हासिल करना या एक या अनेक मूल्यवान कार्य करना शामिल है। इसे करियर नहीं कहा जाता है; इसे सही मार्ग कहा जाता है और इसे उचित कार्य भी कहा जाता है। मुझे बताओ, क्या व्यक्ति के लिए किसी मूल्यवान कार्य को पूरा करना, सार्थक और मूल्यवान जीवन जीना और सत्य का अनुसरण करना और उसे प्राप्त करना इस योग्य है कि उसके लिए कीमत चुकाई जाए? यदि तुम वास्तव में सत्य का अनुसरण करने की समझ रखने, जीवन में सही मार्ग पर चलने, अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से पूरा करने, और एक मूल्यवान और सार्थक जीवन जीने की इच्छा रखते हो, तो तुम अपनी सारी ऊर्जा लगाने, सभी कीमतें चुकाने, अपना सारा समय और जीवन के बचे हुए दिन देने में संकोच नहीं करोगे। यदि तुम इस अवधि के दौरान थोड़ी बीमारी का अनुभव करते हो, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, इससे तुम टूट नहीं जाओगे। क्या यह जीवन भर आराम, आजादी और आलस्य के साथ जीने, शरीर को इस हद तक पोषित करने कि वह सुपोषित और स्वस्थ हो और अंत में दीर्घायु होने से ज्यादा बेहतर नहीं है? (हाँ।) इन दोनों विकल्पों में से कौन-सा एक मूल्यवान जीवन है? इनमें से कौन-सा विकल्प लोगों को अंत में मृत्यु का सामना करते हुए राहत दे सकता है, जिससे उन्हें कोई पछतावा नहीं होगा? (एक सार्थक जीवन जीना।) सार्थक जीवन जीना। इसका अर्थ है कि अपने दिल में तुम कुछ प्राप्त कर चुके होगे और सुकून महसूस करोगे। उन लोगों का क्या जो अच्छा खाना खाते हैं और जिनके चेहरे पर मृत्यु तक गुलाबी चमक बनी रहती है? वे सार्थक जीवन नहीं जीते हैं, तो मरने पर उन्हें कैसा महसूस होता है? (मानो उनका जीवन व्यर्थ रहा।) ये तीन शब्द चुभने वाले हैं—जीवन व्यर्थ रहना(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (6))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गई कि परमेश्वर पर विश्वास करने, उसका अनुसरण करने और इस जीवन में सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करने और सृष्टिकर्ता की स्वीकृति पाने में सक्षम होना सार्थक और मूल्यवान है, फिर भले ही इसमें पीड़ा और थकावट शामिल हो। अगर मैं अपना कर्तव्य पूरी लगन से निभाने में नाकाम रहती और केवल शारीरिक आराम के पीछे भागती, फिर भले ही मैं अपना स्वास्थ्य बनाए रखकर बुढ़ापे तक जीवित रहती, ऐसा जीवन मूल्यहीन और निरर्थक होता। सामान्य मामलों के एक उपयाजक का कर्तव्य निभाने में सक्षम होना परमेश्वर द्वारा मेरा उत्कर्ष करना था। भले ही इसमें कभी-कभी मुझे चिंता और थकावट हो सकती है, लेकिन अगर मैं सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य अच्छे से निभाऊँ, कलीसिया की मदों की अच्छे से और सिद्धांतों के अनुसार रक्षा करूँ और यह सुनिश्चित करूँ कि भेंट और परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें बिना किसी नुकसान के संरक्षित रहें, तब मेरा दिल शांत और सहज होगा। लेकिन अगर मैं सिर्फ अपने स्वास्थ्य को बनाए रखने पर ध्यान केंद्रित करती, कोई भी ऐसा काम करने को तैयार नहीं होती जिसके लिए विचार और प्रयास की जरूरत पड़ती तो भले ही मैं अपने स्वास्थ्य को बनाए रखने में सफल हो जाती, अगर मैं अपना कर्तव्य ठीक से निभाने में नाकाम रहती और कलीसिया के हितों को नुकसान पहुँचाती और परमेश्वर के सामने अपराधों और दागों का सिलसिला छोड़ जाती तो आखिरकार मुझे परमेश्वर द्वारा ठुकरा दिया जाता और मैं उद्धार पाने का अपना मौका गँवा बैठती। परमेश्वर के इरादे समझते हुए मैं अब पहले की तरह जीना नहीं चाहती थी। मैं परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य ठीक से करना चाहती थी। कभी-कभी जब काम जमा हो जाते तो मुझे बहुत ज्यादा चिंता करने और खुद पर ज्यादा कार्य करने का डर लगता, लेकिन मैं परमेश्वर से प्रार्थना करती और उसके द्वारा आयोजित परिस्थितियों के आगे समर्पित होने को तैयार रहती। मुझे अब इस बात की चिंता नहीं रहती कि मेरी बीमारी और बढ़ेगी या मैं थकावट से गिर जाऊँगी और मैं सिर्फ इस बात पर ध्यान देती कि अपना कर्तव्य कैसे ठीक से निभाऊँ।

एक सभा के दौरान मुझे पता चला कि एक और बहन भी बीमार रहती है तो मैंने अपना अनुभव उसके साथ साझा किया। फिर हमने परमेश्वर के वचनों का एक भजन सुना :

मनुष्य का जीवनकाल परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित किया जा चुका है

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2  जब लोग बीमारी से पीड़ित होते हैं, तो वे अक्सर परमेश्वर के सामने आ सकते हैं, और विवेक और सावधानी के साथ, वह करना सुनिश्चित कर सकते हैं जो उन्हें करना चाहिए, और दूसरों की तुलना में अपने कर्तव्य से अधिक सावधानी और परिश्रम के साथ पेश आते हैं। जहाँ तक लोगों का सवाल है, यह एक सुरक्षा है, बंधन नहीं। यह निष्क्रिय दृष्टिकोण है। इसके अलावा, हर व्यक्ति का जीवन-काल परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित किया गया है। चिकित्सीय दृष्टिकोण से कोई बीमारी प्राणांतक हो सकती है, लेकिन परमेश्वर के नजरिये से अगर तुम्हारा जीवन अभी जारी रहना चाहिए और तुम्हारा समय अभी नहीं आया है तो तुम चाहकर भी नहीं मर सकते।

3  अगर तुम्हारे पास परमेश्वर का कोई आदेश है और तुम्हारा मिशन अभी तक पूरा नहीं हुआ है तो तुम नहीं मरोगे, फिर भले ही तुम्हें ऐसी कोई बीमारी क्यों न लग जाए जिसे प्राणघातक माना जाता है—परमेश्वर अभी तुम्हें नहीं ले जाएगा। भले ही तुम प्रार्थना न करो, सत्य न खोजो और अपनी बीमारी का इलाज न कराओ या भले ही तुम अपने इलाज में देरी कर दो—फिर भी तुम मरोगे नहीं। यह खास तौर से उन लोगों के लिए सच है जिनके पास परमेश्वर का एक महत्वपूर्ण आदेश है : जब उनका मिशन अभी पूरा होना बाकी है तो उन्हें चाहे कोई भी बीमारी हो जाए, वे तुरंत नहीं मरेंगे; वे अपने मिशन के पूरा होने के अंतिम क्षण तक जियेंगे।

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—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि मनुष्य का जीवन काल परमेश्वर के हाथों में है, जीवन और मृत्यु परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित हैं। भले ही कोई बीमारी गंभीर हो, अगर किसी व्यक्ति का जीवनकाल समाप्त नहीं हुआ है तो वह बिना देखभाल के भी नहीं मरेगा, लेकिन अगर उसका समय समाप्त हो गया है तो सर्वोत्तम देखभाल के बाद भी वह मर जाएगा। मुझे दस साल पहले मधुमेह के कारण अपने बड़े भाई के हृदय रोग की याद आई। अस्पताल ने कई बार गंभीर स्थिति के नोटिस जारी किए, जिसमें कहा गया कि उसे बचाया नहीं जा सकता। लेकिन कुछ समय तक घर पर आराम करने के बाद उसका स्वास्थ्य धीरे-धीरे ठीक हो गया और वह आज भी जीवित है। लेकिन उसका बेटा, जो बीस साल का एक मजबूत युवक था, सेना से छुट्टी पर घर आया और बीमार पड़ गया, अस्पताल जाने पर उसे तीव्र ल्यूकेमिया होने का पता चला। डॉक्टरों ने सर्वोत्तम दवा और उपकरण का इस्तेमाल किया और शीर्ष विशेषज्ञों से परामर्श किया, लेकिन एक सप्ताह के भीतर ही वह मर गया। इन घटनाओं ने मुझे दिखाया कि मानव जीवन और मृत्यु वाकई परमेश्वर द्वारा निर्धारित हैं। लेकिन मुझे हमेशा चिंता रहती थी कि कड़ी मेहनत करने से मेरी हालत और बिगड़ सकती है और इसलिए मैं अपने कर्तव्य करते समय हल्के और आसान काम चुनती थी, सोचती थी कि इससे मेरी बीमारी बदतर नहीं होगी। इससे पता चलता है कि मुझे इस बात पर भरोसा नहीं है कि जीवन और मृत्यु वाकई परमेश्वर के हाथों में है। असल में परमेश्वर ने पहले से ही मेरे जीवनकाल को पूर्वनिर्धारित कर दिया है और इसके बारे में चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि यह केवल मुझे बांधता है और चोट पहुँचाता है और यह मुझे अपने कर्तव्य के प्रति वफादार होने और उस कर्तव्य को अच्छी तरह से करने से रोकता है जिसे मैं अच्छी तरह से करने में सक्षम हूँ। इस बात को समझने से मुझे आस्था मिली। फिर मैं हमेशा की तरह अपनी दवाएँ लेती और जब भी संभव होता कसरत करती और अब मैं मौत के भय से बेबस नहीं होती थी। भले ही मैं अभी भी हर दिन अपने कर्तव्यों में व्यस्त रहती थी, लेकिन मुझे अपनी हालत बिगड़ती हुई महसूस नहीं होती थी। दरअसल मैं दिन-ब-दिन अधिक ऊर्जावान महसूस करने लगी थी।

बाद में मैंने अपनी हालिया मनोदशा के बारे में एक बहन से बात की, उसके चेताने से मुझे एहसास हुआ कि मेरी निरंतर चिंताओं और बेचैनी के पीछे आशीष पाने की मंशा थी। मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “बहुत-से लोग केवल इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनको चंगा कर सकता हूँ। बहुत-से लोग सिर्फ इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनके शरीर से अशुद्ध आत्माओं को निकालने के लिए अपनी शक्ति का इस्तेमाल करूँगा, और बहुत-से लोग मुझसे बस शांति और आनंद प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ और अधिक भौतिक संपदा माँगने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ इस जीवन को शांति से गुजारने और आने वाले संसार में सुरक्षित और स्वस्थ रहने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल नरक की पीड़ा से बचने के लिए और स्वर्ग के आशीष प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल अस्थायी आराम के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं और आने वाले संसार में कुछ हासिल करने की कोशिश नहीं करते। जब मैं लोगों पर अपना क्रोध उतारता हूँ और कभी उनके पास रही सारी सुख-शांति छीन लेता हूँ, तो मनुष्य शंकालु हो जाता है। जब मैं मनुष्य को नरक का कष्ट देता हूँ और स्वर्ग के आशीष वापस ले लेता हूँ, वे क्रोध से भर जाते हैं। जब लोग मुझसे खुद को चंगा करने के लिए कहते हैं, और मैं उस पर ध्यान नहीं देता और उनके प्रति गहरी घृणा महसूस करता हूँ; तो लोग मुझे छोड़कर चले जाते हैं और बुरी दवाइयों तथा जादू-टोने का मार्ग खोजने लगते हैं। जब मैं मनुष्य द्वारा मुझसे माँगी गई सारी चीजें वापस ले लेता हूँ, तो वे बिना कोई निशान छोड़े गायब हो जाते हैं। इसलिए मैं कहता हूँ कि लोग मुझ पर इसलिए विश्वास करते हैं, क्योंकि मेरा अनुग्रह अत्यंत विपुल है, और क्योंकि बहुत अधिक लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम आस्था के बारे में क्या जानते हो?)। “सभी भ्रष्ट लोग स्वयं के लिए जीते हैं। हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए—यह मानव प्रकृति का निचोड़ है। लोग अपनी खातिर परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; जब वे चीजें त्यागते हैं और परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते हैं, तो यह धन्य होने के लिए होता है, और जब वे परमेश्वर के प्रति वफादार रहते हैं, तो यह भी पुरस्कार पाने के लिए ही होता है। संक्षेप में, यह सब धन्य होने, पुरस्कार पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के उद्देश्य से किया जाता है। समाज में लोग अपने लाभ के लिए काम करते हैं, और परमेश्वर के घर में वे धन्य होने के लिए कोई कर्तव्य करते हैं। आशीष प्राप्त करने के लिए ही लोग सब-कुछ छोड़ते हैं और काफी दुःख सहन कर पाते हैं। मनुष्य की शैतानी प्रकृति का इससे बेहतर प्रमाण नहीं है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर उजागर करता है कि हम उससे विभिन्न लाभों की माँग करने के इरादे से उस पर विश्वास करते हैं। इसके पीछे अशुद्धियाँ और उद्देश्य होते हैं। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मैंने देखा कि मैं ठीक उसी तरह की इंसान हूँ जिसे परमेश्वर उजागर करता है। मैंने आशीष और अनुग्रह पाने के लिए परमेश्वर पर विश्वास किया। मैं परमेश्वर से सौदेबाजी करने की कोशिश कर रही थी। जब मैंने पहली बार परमेश्वर को पाया तो मेरी पुरानी राइनाइटिस एलर्जी ठीक हो गई थी, इसलिए मैंने परमेश्वर को एक सर्वशक्तिमान उपचारक माना, जो न केवल बीमारियाँ ठीक करने में सक्षम है, बल्कि हमें आपदा टालने, बचाए जाने और जीवित रहने की भी अनुमति देता है, इसलिए मैं अपना कर्तव्य पूरी लगन से निभाने के लिए तैयार हुई। ब्रेन सर्जरी के बाद मुझे डर था कि मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाऊँगी और मुझे बचाया नहीं जा सकेगा, इसलिए मैं अपनी कमजोरी के बावजूद स्वेच्छा से कर्तव्य निभाने के लिए तैयार हो गई। मैंने सोचा कि जब तक मैं अपना कर्तव्य निभा सकती हूँ, तब तक उद्धार की आशा रहेगी। जब सामान्य मामलों के उपयाजक और मेरी साथी बहनों को सुरक्षा संबंधी चिंताओं का सामना करना पड़ा और उन्हें छिपना पड़ा, मुझे कलीसिया के हितों को प्राथमिकता देनी चाहिए थी और सामान्य मामलों के कर्तव्यों को अपने कंधों पर उठाना चाहिए था, लेकिन मुझे डर था कि अधिक काम करने से मैं अपने कर्तव्य पूरा करने में असमर्थ हो जाऊँगी और इस तरह मैं अपने उद्धार का मौका गँवा दूँगी, इसलिए मैं सहयोग नहीं करना चाहती थी। यहाँ तक कि जब मैंने अनिच्छा से सामान्य मामलों का काम सँभाला तो उम्मीद करती रही कि परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा और मुझे जल्दी ठीक कर देगा। बाद में मेरी बीमारी न केवल ठीक नहीं हुई बल्कि और भी बदतर हो गई, इसलिए मैं अब कीमत नहीं चुकाना चाहती थी और अपने कर्तव्य में निष्क्रिय हो गई, अक्सर अगुआ से आग्रह करती थी कि वे जल्दी से सामान्य मामलों का उपयाजक खोजें ताकि मैं एक आसान कर्तव्य पर वापस लौट सकूँ। मैंने देखा कि परमेश्वर में मेरा विश्वास उसका अनुग्रह और आशीष पाने को लेकर था। मैं हमेशा जितना देती थी उससे अधिक पाना चाहती थी और मैं यह नहीं सोच रही थी कि अपने कर्तव्य को कैसे अच्छी तरह से निभाऊँ और परमेश्वर के इरादों पर विचार करूँ। मेरी प्रकृति बहुत स्वार्थी और नीच थी। मैं सिर्फ आशीष और शांति पाने के लिए परमेश्वर पर विश्वास कर रही थी। कर्तव्य करना एक सृजित प्राणी की जिम्मेदारी होती है, लेकिन मैं परमेश्वर पर सिर्फ इसलिए विश्वास कर रही थी ताकि अपने कर्तव्यों का इस्तेमाल करके उद्धार पा सकूँ और जीवित रह सकूँ। इस तरह की आस्था परमेश्वर को धोखा देने और हेरफेर करने का एक प्रयास है। मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल भी नहीं था। इस तरह के व्यवहार से परमेश्वर को चिढ़ होती है और वह उससे घृणा करता है! परमेश्वर ने मुझे अपना कर्तव्य निभाने का अवसर दिया है, इसलिए मुझे परमेश्वर के इरादों पर विचार करना चाहिए और अपनी जिम्मेदारियों को यथासंभव सर्वोत्तम तरीके से निभाना चाहिए। चाहे परमेश्वर ने मेरे लिए या मेरी शारीरिक स्थिति के लिए जो भी परिणाम या गंतव्य निर्धारित किया हो, मैं अब परमेश्वर से सौदेबाजी नहीं करना चाहती। मैं सिर्फ एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य पूरा करना चाहती हूँ।

इस बीमारी के जरिए मैंने अपने लिए परमेश्वर का उद्धार देखा है। परमेश्वर ने इस बीमारी के जरिए मुझे सत्य खोजने का मार्ग दिखाया है, जिससे मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव की कुछ समझ हो पाई। यह वाकई एक वरदान है!

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