58. क्या “दूसरों के प्रति सहिष्णु होना” सचमुच अच्छी मानवता है?

ली कुन, चीन

2022 में मैं कलीसिया में नवागंतुकों का सिंचन कर रही थी और मैंने देखा कि कलीसिया की अगुआ लियू जिंग केवल अपनी मुख्य जिम्मेदारियों पर ही ध्यान देती थी, वह दूसरे कामों का जायजा शायद ही कभी लेती थी और वह दूसरी अगुआ, बहन आन शिन के साथ सामंजस्य से सहयोग नहीं करती थी, जिससे कलीसिया के काम में अक्सर देरी होती थी। बाद में लियू जिंग को बरखास्त कर दिया गया और मैं कलीसिया की अगुआ चुनी गई और मैंने मन ही मन सोचा : “मुझे आन शिन के साथ सामंजस्य से सहयोग करना चाहिए, ताकि भाई-बहनों को दिखा सकूँ कि मैं लियू जिंग की तरह नीचतापूर्ण और संकीर्ण मन की बिलकुल नहीं हूँ, जो सिर्फ अपनी मुख्य जिम्मेदारियों पर ध्यान देती है और दूसरे कामों की परवाह नहीं करती।” कार्यकुशलता बढ़ाने के लिए हमने काम का बँटवारा कर लिया। मैं मुख्य रूप से सुसमाचार कार्य और पाठ-आधारित कार्य के लिए जिम्मेदार थी, जबकि आन शिन मुख्य रूप से सिंचन कार्य और शुद्धिकरण कार्य के लिए जिम्मेदार थी। भाई-बहनों को यह दिखाने के लिए कि मुझमें अच्छी मानवता है और मैं चीजों को समझती हूँ, मैंने पहल की और कुछ सामान्य मामलों के काम भी सँभाल लिए। उसके बाद मैं या तो सबके साथ सभाएँ करती या सुसमाचार कार्य और पाठ-आधारित कार्य का जायजा लेती। धीरे-धीरे मैंने देखा कि आन शिन अपने कर्तव्यों के प्रति पहले की तरह जिम्मेदारी महसूस नहीं करती थी, और कुछ कामों को केवल लापरवाही से निपटाया जा रहा था और उनका ठीक से जायजा नहीं लिया जा रहा था। मैं उसे यह बताना चाहती थी, लेकिन फिर मैंने सोचा : “कोई भी इंसान पूर्ण नहीं है, हर कोई अपने कर्तव्य करते समय कभी-न-कभी लापरवाही करता है। मुझे उसके लिए मानक बहुत ऊँचे नहीं रखने चाहिए। आखिर, अगर मैं समस्या बताऊँगी तो ऐसा लगेगा कि मैं बहुत कठोर हूँ। जो काम उसने नहीं किए हैं, मैं देर रात तक जागकर उनका जायजा ले लूँगी।” इस तरह मैंने वे सारे काम अपने ऊपर ले लिए जो उसने पूरे नहीं किए थे। उस दौरान मैं सुसमाचार प्रचार के सिद्धांतों के बारे में और जानना चाहती थी, लेकिन मेरे पास पर्याप्त समय नहीं था। मैं थोड़ी अनिच्छुक महसूस कर रही थी, लेकिन मैं नहीं चाहती थी कि आन शिन यह सोचे कि मैं केवल अपने ही काम से मतलब रखती हूँ, इसलिए मैंने खुद को काम करते रहने को मजबूर किया।

कुछ समय बाद मैंने देखा कि आन शिन अपने कर्तव्यों के प्रति जिम्मेदारी की भावना कम से कम महसूस करने लगी थी, और वह कुछ ऐसे लोगों के बारे में जानकारी इकट्ठा करने में भी जल्दी नहीं कर रही थी जिन्हें बाहर निकालने की जरूरत थी। उस समय सुसमाचार का काम काफी व्यस्त था, और अगर मैं शुद्धिकरण कार्य का जायजा लेती तो सुसमाचार कार्य को अच्छी तरह से सँभाल नहीं पाती, इसलिए मैंने आन शिन को जल्द से जल्द जानकारी इकट्ठा करने की याद दिलाई। लेकिन बाद में भी वह जल्दी में नहीं दिखी, और मैंने इस बारे में उसके साथ संगति करने का सोचा, लेकिन मुझे डर था कि अगर मैंने बहुत ज्यादा कह दिया तो वह मुझसे नाराज हो जाएगी, इसलिए मैंने अपनी बात मन में ही रख ली। साथ ही, मैं चाहती थी कि आन शिन कलीसिया के सामान्य मामलों के काम में भी हाथ बँटाए, ताकि मैं सुसमाचार कार्य का जायजा लेने के लिए कुछ समय निकाल सकूँ, लेकिन फिर मैंने सोचा : “आन शिन मुझसे बड़ी है और उसकी सेहत ठीक नहीं है, इसलिए अगर मैं उससे और काम करने को कहूँगी, तो ऐसा लगेगा कि मुझे उसकी कठिनाइयों की समझ नहीं है और मुझमें प्रेम नहीं है। बेहतर होगा कि मैं थोड़ा और कर लूँ। थोड़ी थकान ही तो है, सह लूँगी।” मैं अंदर से बहुत अनिच्छुक महसूस कर रही थी, लेकिन मुझे डर था कि अगर मैंने ये भावनाएँ जाहिर कीं तो भाई-बहन सोचेंगे कि मैं नीचता कर रही हूँ, मैंने सोचा, “तब वे मेरे बारे में क्या कहेंगे? इस बात को जाने देती हूँ, और जिस काम का मैं जायजा ले सकती हूँ, उसे करने की पूरी कोशिश करूँगी!” अगले कुछ दिनों में मैं अक्सर देर रात तक जागती रही। समय के साथ मेरा दबा हुआ असंतोष उबलने लगा, लेकिन फिर मैंने सोचा कि चूँकि मैं सारे काम सँभाल रही हूँ, तो आन शिन निश्चित रूप से सोचेगी कि मुझमें अच्छी मानवता है, इसलिए मैंने इसे मन में ही रखा। दूसरे भाई-बहनों के साथ बातचीत करते समय भी मैं ऐसी ही थी। कुछ भाई-बहन कंप्यूटर सुरक्षा सेटिंग्स और सॉफ्टवेयर अपडेट से संबंधित मुद्दों को नहीं समझते थे, लेकिन वे सिर्फ ट्यूटोरियल देखकर सीख सकते थे, फिर भी वे इसे सेट करने में मेरी मदद का इंतजार करते थे। मैंने मन में शिकायत की : “मुझे अगुआ के तौर पर इतना काम करना है, तुम लोग ये काम खुद करने के बजाय मेरी मदद का इंतजार क्यों करते हो?” लेकिन मुझे उनकी समस्याएँ बताने की हिम्मत नहीं हुई, इस डर से कि इससे मैं बहुत छोटी सोच और नुक्ताचीनी करने वाली लगूँगी और उन पर मेरा बुरा प्रभाव पड़ेगा, इसलिए मैंने फैसला किया कि अगर मैं कर सकती हूँ तो उनकी थोड़ी और मदद करूँगी। इस तरह मैं हमेशा दूसरों के सामने झुकती और समझौता करती रही, खुद पर सख्त माँगें रखती रही जबकि दूसरों के प्रति सहिष्णु थी। भाई-बहन मुझ पर बहुत निर्भर हो गए, इसलिए मैं खुद को अच्छी मानवता वाली, छोटी सोच न रखने वाली और किसी के भी साथ सहयोग कर सकने वाली समझती थी। खासकर जब मैंने भाई-बहनों को यह कहते सुना कि मैं बहुत थकी हुई और व्यस्त दिखती हूँ, तो मुझे अंदर से काफी सुकून मिला, मैंने सोचा कि मेरा कष्ट सार्थक था। अगले कुछ महीनों में मैंने कलीसिया में तरह-तरह के काम सँभाल लिए, जिससे मेरे पास भक्ति के लिए कोई समय नहीं बचा और मैं सुसमाचार कार्य का जायजा नहीं ले पाई। नतीजतन, कोई भी सुसमाचार प्रचार के सिद्धांतों में प्रवेश नहीं कर रहा था, कार्य में कोई विचलन नहीं पहचाना जा सका और सुसमाचार कार्य से कोई नतीजा नहीं निकला। आन शिन के जिम्मे जो शुद्धिकरण कार्य था, उसकी प्रगति भी धीमी थी, और सिंचनकर्ताओं की समस्याओं का न तो जायजा लिया गया और न ही उन्हें हल किया गया। यह देखकर मैं अंदर से बहुत चिंतित और असहाय महसूस कर रही थी। इस समय मैं प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आई : “परमेश्वर, मैंने एक अगुआ के रूप में अपने कर्तव्यों में बहुत बड़ी कीमत चुकाई है, लेकिन काम से कोई नतीजा नहीं निकला है। कृपया मुझे प्रबुद्ध करो और मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मैं अपनी समस्याएँ पहचान सकूँ।”

एक दिन, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला : “आओ, अब नैतिक आचरण से संबंधित अगली कहावत पर संगति करते हैं—‘अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो’—इस कहावत का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि तुम्हें खुद से सख्त अपेक्षाएँ करनी चाहिए और दूसरे लोगों के साथ नरमी बरतनी चाहिए, ताकि वे देख सकें कि तुम कितने उदार और दरियादिल हो। तो, लोगों को ऐसा क्यों करना चाहिए? यह क्या हासिल करने के लिए है? क्या यह करने योग्य है? क्या यह वाकई लोगों की मानवता की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है? इसे करने के लिए तुम्हें बहुत समझौता करना होगा! तुम्हें इच्छाओं और अपेक्षाओं से मुक्त होना चाहिए, खुद से कम आनंद महसूस करने, थोड़ा ज्यादा कष्ट उठाने, ज्यादा कीमत चुकाने और ज्यादा काम करने की अपेक्षा करनी चाहिए, ताकि दूसरों को खुद को थकाने की जरूरत न पड़े। और अगर दूसरे लोग ठिनठिनाते हैं, शिकायत करते हैं या खराब प्रदर्शन करते हैं, तो तुम्हें उनसे बहुत ज्यादा माँग नहीं करनी चाहिए—थोड़ा ऊपर नीचे चलता है। लोग मानते हैं कि यह उत्कृष्ट नैतिकताओं का चिह्न है—लेकिन यह मुझे झूठा क्यों लगता है? क्या यह झूठा नहीं है? (है।) सामान्य परिस्थितियों में, एक साधारण व्यक्ति की मानवता की स्वाभाविक अभिव्यक्ति खुद के प्रति सहिष्णु और दूसरों के प्रति सख्त होना है। यह एक तथ्य है। ... अगर लोगों से ‘अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु’ होने के विचार पर खरा उतरने की अपेक्षा की जाती है, तो उन्हें किस पीड़ा से गुजरना होगा? क्या वे सचमुच इसे सहन कर सकते हैं? कितने लोग ऐसा करने में कामयाब होंगे? (कोई नहीं।) और ऐसा क्यों है? (लोग प्रकृति से स्वार्थी होते हैं। वे इस सिद्धांत के अनुसार कार्य करते हैं कि ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।’) वाकई, मनुष्य जन्मजात स्वार्थी है, वह एक स्वार्थी प्राणी है और इस शैतानी फलसफे के प्रति गहराई से प्रतिबद्ध है : ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।’ लोग सोचते हैं कि जब चीजें उन पर आ पड़ें, तब उनके लिए स्वार्थी न होना और वह न करना जो वे अपने लिए सही समझते हैं, विनाशकारी और अप्राकृतिक होगा। लोग यही मानते हैं और वे इसी तरह कार्य करते हैं। अगर लोगों से यह अपेक्षा की जाए कि वे स्वार्थी न हों, खुद से सख्त अपेक्षाएँ करें, और दूसरों से फायदा उठाने के बजाय स्वेच्छा से हार जाएँ, और अगर उनसे यह अपेक्षा की जाए कि जब कोई उनका फायदा उठाए तो वे खुशी से कहें, ‘तुम मेरा शोषण कर रहे हो, लेकिन मैं इससे नाराज नहीं हो रहा। मैं एक सहिष्णु व्यक्ति हूँ, मैं तुम्हारी बुराई या तुमसे बदला लेने की कोशिश नहीं करूँगा, और अगर तुमने अभी तक मेरा पर्याप्त शोषण नहीं किया है, तो बेझिझक जारी रखो’—क्या यह एक व्यावहारिक अपेक्षा है? कितने लोग ऐसा करने में कामयाब हो सकेंगे? क्या भ्रष्ट मनुष्य सामान्य रूप से इसी तरह व्यवहार करता है? जाहिर है, ऐसा होना असंगत है। ऐसा क्यों है? क्योंकि भ्रष्ट स्वभाव वाले लोग, खासकर स्वार्थी और मतलबी लोग, अपने ही हितों के लिए संघर्ष करते हैं, और दूसरों के बारे में सोचने से उन्हें बिल्कुल भी संतुष्टि महसूस नहीं होगी। इसलिए यह घटना, अगर घटती भी है तो, एक असंगति है। ‘अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो’—नैतिक आचरण के बारे में यह दावा स्पष्ट रूप से केवल एक अपेक्षा है, जो तथ्यों या मानवता से मेल नहीं खाती, जो मानवता को न समझने वाले सामाजिक नैतिकतावादियों द्वारा मनुष्य पर थोपी जाती है। यह चूहे को यह कहने जैसा है कि उसे बिल बनाने की अनुमति नहीं है या बिल्ली से यह कहने जैसा है कि उसे चूहे पकड़ने की अनुमति नहीं है। क्या इस तरह की अपेक्षा करना सही है? (नहीं। यह मानवता के नियमों की अवहेलना करता है।) यह अपेक्षा स्पष्ट रूप से वास्तविकता के अनुरूप नहीं है और बहुत खोखली है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (6))। परमेश्वर कहता है कि मनुष्य की प्रकृति स्वाभाविक रूप से स्वार्थी है, कि लोग लगातार अपने हितों के लिए योजना बनाते और सोचते हैं, और दूसरों के साथ बातचीत करते समय लोग केवल लाभ कमाना और नुकसान से बचना चाहते हैं। यह ये दिखाने के लिए पर्याप्त है कि भ्रष्ट इंसान मौलिक रूप से “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो” के स्तर तक नहीं पहुँच सकते। अपने कर्तव्यों में आन शिन के साथ अपने सहयोग पर विचार करते हुए, जब मैंने देखा कि जिन लोगों को बाहर निकालने की जरूरत थी, वह उन लोगों के बारे में सामग्री इकट्ठा या व्यवस्थित करने की जल्दी में नहीं थी, तो मैं सचमुच उसे यह बताना चाहती थी, लेकिन मुझे डर था कि वह कहेगी कि मैं बहुत ज्यादा माँग कर रही हूँ और विचारशील नहीं हूँ। सबको यह दिखाने के लिए कि मैं सचमुच उदार हूँ और नीचतापूर्ण नहीं हूँ, मैं उसके व्यवहार को बढ़ावा देती रही, जब भी हो सके खुद से और ज्यादा करने की सख्ती से माँग करती रही, हर दिन व्यस्त रहती रही। इससे मेरे पास भक्ति के लिए कोई समय नहीं बचा, और जिस सुसमाचार कार्य के लिए मैं मुख्य रूप से जिम्मेदार थी, उससे भी कोई नतीजा नहीं निकला। सतह पर मैं “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो” के विचार का पालन करती दिख रही थी, लेकिन जब मेरे शारीरिक हितों से समझौता हुआ, तो मैं असंतुष्ट महसूस कर रही थी और अनिच्छुक भी थी, यहाँ तक कि शिकायतों से भरी हुई थी। मैंने उदारता का दिखावा भी किया। तब मुझे सचमुच एहसास हुआ कि “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो” की कहावत सचमुच पाखंडी थी, और यह बिल्कुल भी सत्य नहीं था। नैतिक आचरण के इस दावे के अनुसार जीने से मैं शारीरिक और मानसिक, दोनों रूप से थक गई थी।

इसके बाद मैं खुद पर विचार करना जारी रखने के लिए परमेश्वर के सामने आई। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जो लोग खुद से ‘अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु’ होने की नैतिकता पूरी करने की अपेक्षा करते हैं, वे हैसियत के प्रति आसक्त हैं। अपने भ्रष्ट स्वभाव से संचालित होने के कारण वे दूसरों की नजरों में लोगों के बीच प्रतिष्ठा, सामाजिक ख्याति और हैसियत के पीछे दौड़े बिना नहीं रह पाते। ये सभी चीजें उनकी हैसियत पाने की इच्छा से संबंधित हैं, और उनके अच्छे नैतिक आचरण की आड़ में इनके पीछे दौड़ा जाता है। और उनके ये अनुसरण कहाँ से आते हैं? वे पूरी तरह से उनके भ्रष्ट स्वभावों से आते और प्रेरित होते हैं। इसलिए, चाहे कुछ भी हो, चाहे कोई ‘अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु’ होने की नैतिकता पूरी करता हो या नहीं, और चाहे वह ऐसा पूर्णता के साथ करता हो या नहीं, यह उनका मानवता-सार बिल्कुल नहीं बदल सकता। इसका निहितार्थ यह है कि यह किसी भी तरह से जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण या उनकी मूल्य-प्रणाली नहीं बदल सकता, या तमाम लोगों, घटनाओं और चीजों पर उनके रवैये और दृष्टिकोण निर्देशित नहीं कर सकता। क्या ऐसा नहीं है? (है।) जितना ज्यादा कोई व्यक्ति अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनने में सक्षम होता है, उतना ही वह दिखावा करने में, खुद को छिपाने में, और दूसरों को अच्छे व्यवहार और मनभावन शब्दों से गुमराह करने में बेहतर होता है, और उतना ही ज्यादा वह प्रकृति से कपटी और दुष्ट होता है। जितना ज्यादा वह इस प्रकार का व्यक्ति होता है, हैसियत और ताकत के प्रति उसका प्रेम और अनुसरण उतना ही गहरा होता जाता है। उसका बाहरी नैतिक आचरण कितना भी महान, गौरवशाली और सही क्यों न प्रतीत होता हो, और लोगों के लिए उसे देखना कितना भी सुखद क्यों न हो, उसके दिल की गहराइयों में मौजूद अनकहा अनुसरण, और साथ ही उसका प्रकृति-सार, यहाँ तक कि उसकी महत्वाकांक्षाएँ भी किसी भी समय उसके भीतर से फूटकर बाहर आ सकती हैं। इसलिए, उसका नैतिक आचरण कितना भी अच्छा क्यों न हो, वह उसके आंतरिक मानवता-सार या उसकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ नहीं छिपा सकता। वह उसके भयानक प्रकृति-सार को नहीं छिपा सकता, जो सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करता और सत्य से विमुख होता और घृणा करता है। जैसा कि इन तथ्यों से पता चलता है, ‘अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो’ कहावत बहुत बेतुकी है—यह उन महत्वाकांक्षी किस्म के लोगों को उजागर करती है, जो ऐसी कहावतों और व्यवहारों का उपयोग अपनी उन महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को ढकने के लिए करने का प्रयास करते हैं, जिनके बारे में वे बोल नहीं सकते(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (6))। परमेश्वर के वचनों ने मेरी असलियत उजागर कर दी। मैंने इस पर विचार किया कि कैसे मैंने महत्वाकांक्षा और इच्छा के साथ अगुआई की भूमिका सँभाली और भाई-बहनों के दिलों में एक अच्छी छवि बनाना चाहा। जब मैंने देखा कि आन शिन अपने कर्तव्य में जिम्मेदारी की भावना की कमी महसूस कर रही है, तो मैंने न तो उसे उजागर किया और न ही उसकी मदद की, बल्कि उसे बढ़ावा देती रही, और जिन कामों का उसने जायजा नहीं लिया था, उन्हें खुद के ऊपर ले लिया और उदारता के दिखावे के लिए ऊपरी तौर पर अच्छा व्यवहार किया। जब मैंने देखा कि भाई-बहन कंप्यूटर कौशल सीखने में सक्रिय नहीं थे और निष्क्रिय रूप से मेरे द्वारा इसे सँभालने का इंतजार कर रहे थे, तो मैं उनकी समस्याएँ बताना चाहती थी, लेकिन मुझे डर था कि वे कहेंगे कि मैं उनके प्रति विचारशील नहीं हूँ, इसलिए मैं बस झुकती रही। जब मेरी ऊर्जा खत्म हो गई और मैं मानसिक रूप से और नहीं सह सकी, तो मैं कड़वाहट से भर गई और थक गई, साथ ही असंतुष्ट और अनिच्छुक भी महसूस करने लगी। लेकिन सबको यह दिखाने के लिए कि मैं छोटी सोच वाली नहीं हूँ, कि मैं दूसरों के प्रति विचारशील, सहिष्णु हूँ, उनके बारे में सोचती हूँ, मैंने सब कुछ सहा और उनकी समस्याएँ नहीं बताईं, जिसके परिणामस्वरूप मेरी मुख्य जिम्मेदारियाँ अच्छी तरह से पूरी नहीं हुईं। मैंने यह सब लोगों के दिलों में अपनी छवि और रुतबा बचाने के लिए किया। मैं सचमुच बहुत पाखंडी थी!

बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े और खुद के बारे में कुछ नई समझ हासिल की। परमेश्वर कहता है : “कुछ लोग परमेश्वर में अपने विश्वास को लेकर बहुत उत्साही प्रतीत होते हैं। उन्हें कलीसिया के मामलों में शामिल होना और उनमें दिलचस्पी लेना अच्छा लगता है और वे इसमें हमेशा जोर-शोर से सबसे आगे रहते हैं। और फिर भी अगुआ बनने के बाद अप्रत्याशित रूप से वे सभी को निराश कर देते हैं। वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों की व्यावहारिक समस्याओं को सुलझाने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते हैं, इसके बजाय वे अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर कार्य करने के लिए भरसक प्रयास करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। वे दूसरों से अपना सम्मान करवाने के लिए दिखावा करना पसंद करते हैं और वे हमेशा इस बारे में बात करते रहते हैं कि वे परमेश्वर के लिए खुद को कैसे खपाते हैं और कष्ट सहते हैं, लेकिन फिर भी वे सत्य और अपने जीवन प्रवेश के अनुसरण में प्रयास नहीं करते हैं। यह वह चीज नहीं है जिसकी उनसे उम्मीद की जाती है। हालाँकि वे खुद को अपने कार्य में व्यस्त रखते हैं, हर अवसर पर दिखावा करते हैं, कुछ शब्दों और सिद्धांतों का उपदेश देते हैं, कुछ लोगों से सम्मान और आराधना हासिल करते हैं, लोगों के दिलों को गुमराह करते हैं और अपने रुतबे को मजबूत करते हैं, लेकिन आखिर में इसका क्या परिणाम होता है? चाहे ये लोग दूसरों को रिश्वत देने के लिए थोड़ी-बहुत मदद करते हों या अपने गुण और अपनी योग्यताएँ दिखाते हों या लोगों को गुमराह करने के लिए अलग-अलग तरीकों का उपयोग करते हों और इससे उनकी अपने प्रति अच्छी राय बनवाते हों, वे लोगों के दिल जीतने और उनमें जगह बनाने के लिए चाहे किसी भी तरीके का उपयोग करते हों, उन्होंने क्या खो दिया है? उन्होंने एक अगुआ के कर्तव्य करते हुए सत्य हासिल करने का अवसर खो दिया है। साथ ही अपनी अलग-अलग अभिव्यक्तियों के कारण उन्होंने बुरे कर्म भी जमा कर लिए हैं जो उनके आखिरी परिणाम का कारण बनेंगे। चाहे वे लोगों को रिश्वत देने और फँसाने के लिए थोड़ी-बहुत मदद का उपयोग कर रहे हों या अपनी खूबियाँ दिखा रहे हों या लोगों को गुमराह करने के लिए मुखौटों का उपयोग कर रहे हों और बाहरी तौर पर चाहे ऐसा प्रतीत क्यों न हो कि ऐसा करके वे बहुत सारे फायदे और बहुत सारी संतुष्टि हासिल कर रहे हैं, पर अब इसे देखते हुए यह बताओ कि क्या यह मार्ग सही है? क्या यह सत्य की खोज करने का मार्ग है? क्या यह ऐसा मार्ग है जो किसी को उद्धार दिला सकता है? स्पष्ट रूप से यह नहीं है। ये तरीके और युक्तियाँ चाहे कितनी भी चतुराईपूर्ण क्यों न हों, वे परमेश्वर को धोखा नहीं दे सकती हैं और आखिर में परमेश्वर इनकी निंदा और इनसे घृणा करता है क्योंकि ऐसे व्यवहारों के पीछे मनुष्य की निरंकुश महत्वाकांक्षा और परमेश्वर के प्रति विरोध का रवैया और सार छिपा होता है। परमेश्वर अपने दिल में इन लोगों को कभी ऐसे लोगों के रूप में नहीं पहचानेगा जो अपने कर्तव्य कर रहे हैं, और इसके बजाय वह उन्हें कुकर्मियों के रूप में निरूपित करेगा। कुकर्मियों से निपटते समय परमेश्वर क्या फैसला सुनाता है? ‘हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।’ जब परमेश्वर कहता है, ‘मेरे पास से चले जाओ,’ तो वह ऐसे लोगों को कहाँ भेजना चाहता है? वह उन्हें शैतान को सौंप रहा है, उन्हें ऐसी जगह भेज रहा है जहाँ शैतानों की भीड़ रहती है। उनके लिए आखिरी परिणाम क्या है? उन्हें दुष्ट आत्माएँ यातना देकर मौत के घाट उतार देती हैं, जिसका मतलब है कि शैतान उन्हें निगल जाता है। परमेश्वर इन लोगों को नहीं चाहता है, जिसका मतलब है कि वह उन्हें नहीं बचाएगा, वे परमेश्वर की भेड़ें नहीं हैं, उसके अनुयायी होना तो दूर की बात है, इसलिए वे उन लोगों में शामिल नहीं हैं जिन्हें वह बचाएगा। परमेश्वर इस तरह से इन लोगों को परिभाषित करता है। तो फिर दूसरों के दिल जीतने का प्रयास करने की प्रकृति क्या है? यह एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलना है; यह एक मसीह-विरोधी का व्यवहार और सार है। परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए उससे होड़ करने का सार और भी गंभीर बात है; ऐसा करने वाले लोग परमेश्वर के दुश्मन हैं। इस तरह से मसीह-विरोधियों को निरूपित और श्रेणीबद्ध किया जाता है और यह पूरी तरह से सटीक है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद एक : वे लोगों के दिल जीतने का प्रयास करते हैं)। परमेश्वर उजागर करता है कि लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते और अगुआई की भूमिकाएँ सँभालने के बाद वे लोगों के दिल जीतने और उन्हें गुमराह करने के लिए तरह-तरह के तरीके और चालें अपनाते हैं। वे दूसरों की कठिनाइयों को समझने वाले और सहानुभूतिपूर्ण दिखते हैं, लेकिन उनका लक्ष्य अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा करना और दूसरों से आदर पाना होता है। यही मसीह-विरोधियों का मार्ग है। परमेश्वर ने जो उजागर किया, वह बिल्कुल मेरी ही दशा थी। बचपन से ही मैं “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो” की कहावत से प्रभावित थी। मेरा मानना था कि दूसरों के साथ बातचीत में व्यक्ति को समझदार और सहिष्णु होना चाहिए, दूसरों के प्रति अधिक विचारशील होना चाहिए, इसलिए खुद थोड़ा कष्ट या थकान सहना कुछ भी नहीं है और ऐसा करना उत्तम चरित्र की निशानी है। मैं शैतान की पारंपरिक संस्कृति के अनुसार जीती थी। जब मैंने देखा कि आन शिन अपने कर्तव्य लापरवाही से कर रही है, तो मैंने इसका खुलासा नहीं किया और यहाँ तक कि जो काम उसने नहीं किए थे, उन्हें भी अपने ऊपर ले लिया। नतीजतन, अपने कर्तव्यों के प्रति उसकी जिम्मेदारी की भावना धीरे-धीरे कम होती गई। जब मैंने भाई-बहनों को आलसी होते देखा और कुछ बुनियादी कंप्यूटर सेटिंग्स खुद सीखने का प्रयास करने को तैयार नहीं देखा, तो मैंने न केवल उनकी समस्याएँ नहीं बताईं, बल्कि उनके लिए वह काम भी कर दिया, जिससे वे हर चीज के लिए अनजाने में ही मुझ पर निर्भर हो गए। भाई-बहनों की प्रशंसा पाने के लिए, मैंने समझने का दिखावा किया, भले ही मैं अंदर से पूरी तरह से अनिच्छुक थी और ऐसे दूसरों को गुमराह किया। मैंने लोगों के दिल जीतने के लिए उनके शारीरिक हितों की जरूरतें पूरा करने वाले काम किए, और मैं ज्यादा से ज्यादा दुष्ट, धोखेबाज और पाखंडी होती गई। हालाँकि मुझे लोगों की प्रशंसा मिली, मैंने कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचाया और भाई-बहनों को हानि पहुँचाई; सुसमाचार कार्य के खराब नतीजे मिले और शुद्धिकरण कार्य में देरी हुई। मैं अपने कर्तव्य नहीं कर रही थी, मैं बुराई कर रही थी। मैं एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही थी। यह महसूस करते हुए मैं रोई और परमेश्वर से प्रार्थना की : “परमेश्वर! मैं हमेशा लोगों के दिलों में अपने रुतबे की रक्षा करने की कोशिश करती हूँ, जिससे कलीसिया के काम में देरी होती है। मैं तेरे उद्धार के योग्य नहीं हूँ। मैं तेरे सामने पश्चात्ताप करना और व्यावहारिक तरीके से अपने कर्तव्य करना चाहती हूँ।” बाद में मैंने आन शिन से अपनी हाल की दशा के बारे में खुलकर बात की और मैंने उसे वे समस्याएँ भी बताईं जो मैंने उसमें देखी थीं। यह सुनने के बाद वह खुद पर विचार करने और सबक सीखने को तैयार हो गई। आन शिन को ऐसा कहते सुनकर मुझे अपराधबोध और थोड़ी राहत दोनों महसूस हुई। मुझे शैतान की पारंपरिक संस्कृति के अनुसार जीने के लिए अपराधबोध हुआ, और इसलिए भी कि मैंने आन शिन की समस्याओं को स्पष्ट रूप से देखा पर उसे बताया नहीं, लेकिन खुशी हुई क्योंकि परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन में मैं आखिरकार खुद के खिलाफ विद्रोह कर सकी और सत्य का अभ्यास कर सकी।

इसके बाद मैं प्रार्थना करने और विचार करने के लिए परमेश्वर के सामने आई। मुझे एहसास हुआ कि सामान्य मामलों की उपयाजिका बहन ली युन के साथ मेरे व्यवहार में भी ऐसी ही समस्याएँ थीं। उसकी काबिलियत के आधार पर कुछ ऐसे काम थे जो वह अच्छी तरह से कर सकती थी, लेकिन उसने अपनी देह को खुश किया और प्रयास करने को तैयार नहीं थी। मैंने उसकी समस्याएँ देखीं लेकिन उन्हें नहीं बताया और इसके बजाय उसकी देह को खुश किया, यह सोचते हुए कि मैं बस थोड़ी और कीमत चुकाऊँगी और थोड़ा और करूँगी, ताकि वह यह न कहे कि मैं उसके प्रति विचारशील नहीं हूँ। मुझे एहसास हुआ कि मैं भी “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो” के पारंपरिक सांस्कृतिक विचार के अनुसार जी रही थी। मैं चाहती थी कि वह अच्छी मानवता के लिए मेरी प्रशंसा करे। इसलिए मैं परमेश्वर के सामने आई और प्रार्थना की, परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे मेरे गलत इरादों के खिलाफ विद्रोह करने, उसके वचनों के अनुसार आचरण करने और कार्य करने की राह दिखाए। मुझे परमेश्वर के वचन याद आए : “हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, इंसान के हितों पर ध्यान मत दे, और अपने गौरव, प्रतिष्ठा और हैसियत पर विचार मत कर। तुम्‍हें सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उन्‍हें अपनी प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुम्‍हें परमेश्वर के इरादों का ध्‍यान रखना चाहिए और इस पर चिंतन से शुरुआत करनी चाहिए कि तुम्‍हारे कर्तव्‍य निर्वहन में अशुद्धियाँ रही हैं या नहीं, तुम वफादार रहे हो या नहीं, तुमने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं या नहीं, और अपना सर्वस्व दिया है या नहीं, साथ ही तुम अपने कर्तव्य, और कलीसिया के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार करते रहे हो या नहीं। तुम्‍हें इन चीजों के बारे में अवश्‍य विचार करना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे आचरण करने और काम करने के सिद्धांत दिए। अपने कर्तव्य दिखावे के लिए नहीं करने चाहिए। मुझे परमेश्वर की जाँच-पड़ताल स्वीकार करनी चाहिए और अपने इरादे सही रखने चाहिए। कलीसिया के काम को प्राथमिकता देनी चाहिए। केवल इस तरह से अभ्यास करके ही मैं परमेश्वर के इरादे के अनुरूप हो सकती हूँ। परमेश्वर चाहता है कि हम अपने कर्तव्यों में अपनी-अपनी भूमिकाएँ पूरी करें और सामंजस्य से सहयोग करें, ताकि हम समय के साथ अपने कर्तव्य बेहतर ढंग से कर सकें। मुझे अपने गलत इरादों के खिलाफ विद्रोह करना था और अपने भाई-बहनों के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करना था। अच्छी काबिलियत वाले अगर अच्छा काम कर सकते हैं लेकिन नहीं करते, कामचोरी करते हैं या लापरवाही बरतते हैं, तो उनकी समस्याओं को बताया और उजागर किया जाना चाहिए ताकि वे अपनी भ्रष्टता को जान सकें, अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकें और अधिक प्रशिक्षण पा सकें। खराब काबिलियत वाले भाई-बहनों को अगर सचमुच कठिनाइयाँ हैं, तो उन्हें धैर्यपूर्वक मदद और सहारे की जरूरत होती है, ताकि वे अपनी क्षमताओं के दायरे में अपनी भूमिका निभा सकें। इस तरह से अभ्यास करके मैं सुसमाचार कार्य में देरी किए बिना अपनी ऊर्जा को अपने मुख्य कर्तव्यों पर केंद्रित कर सकी। एक दिन सभा के बाद, मैं ली युन के पास गई। मैंने उसकी वास्तविक कठिनाइयों को समझा। मैंने उसे उसके कर्तव्य के दायरे का काम स्पष्ट रूप से समझा दिया। मैंने उसकी समस्याएँ भी बताईं। ली युन ने कहा : “हाल ही में मुझे अपने कर्तव्यों में सचमुच जिम्मेदारी का एहसास नहीं था। तुम्हारे इस तरह से संगति करने पर अब मुझे पता है कि कैसे अभ्यास करना है और मैं अपनी जिम्मेदारियाँ उठाने को तैयार हूँ।” ली युन के शब्द सुनकर मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई। मैंने देखा कि अपने भाई-बहनों को उनकी जिम्मेदारियाँ पूरी करने और उनके कर्तव्यों में उन्हें अपनी भूमिका निभाने में मदद करना कलीसिया के काम के लिए अधिक फायदेमंद है।

अब मैं “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो” के पारंपरिक सांस्कृतिक विचार के आधार पर अपने भाई-बहनों के साथ बातचीत नहीं करती और मैं उनकी समस्याएँ बताती हूँ और उनमें उनकी मदद करती हूँ, अपने भौतिक संबंधों की रक्षा करने की कोशिश नहीं करती। मुझे लगता है कि इस तरह से आचरण करना आश्वस्त करने वाला और मुक्त करने वाला है। ये सभी बदलाव परमेश्वर के वचन का ही नतीजा हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!

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