63. जब मेरा बेटा बीमार पड़ा
सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “लोगों का विवेक बहुत कमजोर होता है—वे परमेश्वर से बहुत अधिक अपेक्षाएँ रखते हैं, उससे बहुत कुछ माँगते रहते हैं, उनके पास थोड़ा सा भी विवेक नहीं होता। लोग हमेशा अपेक्षाएँ करते रहते हैं कि परमेश्वर यह करे या वह करे, और स्वयं उसके प्रति पूरी तरह समर्पित नहीं हो पाते या उसकी आराधना नहीं कर पाते। इसके बजाय वे खुद की प्राथमिकताओं के अनुसार परमेश्वर से अनुचित अपेक्षाएँ करते रहते हैं...। मानवीय विवेक काफी तुच्छ होता है, है न? न केवल लोग पूरी तरह से परमेश्वर के आयोजनों और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने में अक्षम होते हैं या जो कुछ भी परमेश्वर से आता है उसे स्वीकार नहीं कर पाते, बल्कि इसके उलट वे परमेश्वर पर अतिरिक्त अपेक्षाएँ थोपते रहते हैं। परमेश्वर से इस प्रकार की अपेक्षाएँ रखने वाले लोग उसके प्रति निष्ठावान कैसे हो सकते हैं? वे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित कैसे हो सकते हैं? वे परमेश्वर से प्रेम कैसे कर सकते हैं? सभी लोगों की ये अपेक्षाएँ होती हैं कि परमेश्वर लोगों से किस तरह प्रेम करे, किस तरह उन्हें बर्दाश्त करे, उनकी निगरानी करे, उनकी रक्षा करे और उनकी देखभाल करे, लेकिन उनमें से कोई यह अपेक्षाएँ नहीं रखता कि वे स्वयं परमेश्वर को किस प्रकार प्रेम करें, किस प्रकार परमेश्वर के बारे में सोचें, किस प्रकार परमेश्वर के प्रति विचारशील हों, किस तरह परमेश्वर को संतुष्ट करें, किस तरह परमेश्वर के लिए अपने हृदय में स्थान बनाएँ और किस तरह परमेश्वर की आराधना करें” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। पहले जब मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा था तो मैंने इसके आधार पर खुद को नहीं परखा था। मुझे लगा कि परमेश्वर उन विश्वासियों के बारे में बात कर रहा था जो बस भरपेट निवाले खाने की कोशिश में रहते हैं, कि सिर्फ ऐसे लोग ही लगातार परमेश्वर से अपेक्षाएँ रखते हैं और उससे अनुग्रह और आशीष माँगते रहते हैं। जहाँ तक मेरी बात है, मैं परमेश्वर के इतने सारे वचन खा और पी चुका था; मैं जानता था कि मैं एक सृजित प्राणी हूँ और मुझे एक सृजित प्राणी का स्थान लेना चाहिए और मुझे पता था कि चाहे परमेश्वर मुझे आशीष दे या न दे और चाहे वह अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियाँ खड़ी करे, मुझे उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए। इस तरह की समझ और आकांक्षा के साथ मुझे लगता था कि मैं परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम हूँ और मैंने उससे कुछ नहीं माँगा। पर इस बार मेरे बेटे की बीमारी ने आखिरकार मुझे मेरा असली आध्यात्मिक कद और मेरी भ्रष्टता का सच स्पष्ट रूप से दिखा दिया।
सितंबर 2015 में मेरा बेटा अपनी दादी के घर से वापस लौटा और उसकी दादी ने कहा कि उसका वजन बढ़ गया है। मैंने देखा कि मेरे बेटे की पलकें थोड़ी सी सूजी हुई हैं; उनमें कुछ ऐसी बात थी जो ठीक नहीं लग रही थी। मैंने अपने बेटे से उसकी शर्ट और पैंट उतारने को कहा ताकि मैं उसकी जाँच कर सकूँ और मैंने देखा कि उसके पैर काफी सूजे हुए थे और उनमें चमक थी। जब मैंने उसका पैर दबाया तो उसमें गड्ढा बन गया और तुरंत ठीक नहीं हुआ, जैसा कि एक सामान्य व्यक्ति में हो जाना चाहिए। अचानक मुझे एक बात याद आई जो बुजुर्ग लोग अक्सर कहते थे : “लड़के पैर सूजने से डरते हैं जबकि लड़कियाँ सिर सूजने से डरती हैं।” इसका मतलब है कि अगर किसी लड़के के पैर सूजे हुए हैं तो उसे कोई अच्छी खासी गंभीर बीमारी होगी। मुझे दिल में बुरे खयाल आ रहे थे; मेरे बेटे को निश्चित रूप से कोई गंभीर बीमारी है। अगले दिन हम अपने बेटे को प्रांतीय गुर्दा रोग अस्पताल ले गए। डॉक्टर ने कहा कि उसे नेफ्रोटिक सिंड्रोम हो सकता है। इस तरह की बीमारी में शरीर में प्रोटीन का स्तर बहुत कम हो जाता है, जबकि क्रिएटिनिन का स्तर बहुत अधिक बढ़ जाता है। रोगी लगातार कमजोर होता जाता है और अगर यह बदतर हो गया तो यह यूरेमिया में विकसित हो जाएगा। मुझे याद आया कि चीनी चिकित्सा में कहा जाता है कि गुर्दा एक व्यक्ति की जन्मजात नींव होता है। अगर गुर्दे में कुछ गड़बड़ हो जाए, तो इसका सीधा असर बच्चे के स्वास्थ्य पर पड़ता है। अगर यह बीमारी ठीक नहीं होती, तो मेरा बेटा सामान्य बच्चों की तरह स्कूल नहीं जा पाता और उसके लिए शादी करना भी एक मसला बन जाता। यह सोचकर मैं बहुत चिंतित हो गया और मैंने सोचा, “मेरा बेटा सिर्फ 14 साल का है; उसके सामने लंबा जीवन पड़ा है। क्या वह हमेशा इस बीमारी से ग्रस्त रहने वाला है? उसकी उम्र का बच्चा यह कैसे सहन कर सकता है? मैं अपने बेटे को ऐसे ही बीमार नहीं रहने दे सकता; भले ही हमें अपना मकान और जमीन बेचनी पड़े, मैं यह सुनिश्चित करूँगा कि उसका इलाज हो जाए।” मैं अपने बेटे के निदान के नतीजों के लिए अस्पताल में व्यग्र होकर इंतजार कर रहा था। अपने दिल में मैं लगातार परमेश्वर से प्रार्थना कर रहा था। प्रार्थना के दौरान मुझे याद आया कि मुझे तो बीते कल अपने घर पर एक सभा की मेजबानी करनी थी। क्या मैं अपने कर्तव्य में देरी नहीं कर रहा था? मुझे बहुत आत्मग्लानि हुई, मैंने सोचा कि मैं अपने बेटे की बीमारी के इलाज को सभाओं की मेजबानी करने के आड़े नहीं आने दे सकता। बेटे की देखभाल के लिए मेरी पत्नी अस्पताल में थी, इसलिए मैं पहले घर गया और काम करते हुए सभाओं की मेजबानी की।
बाद में मेरे बेटे को नेफ्रोटिक सिंड्रोम का निदान किया गया। जब मैंने यह खबर सुनी तो मानो बिजली गिर गई हो। इसी चीज का मुझे सबसे ज्यादा डर था और अब यह बात सच हो गई। आगे चलकर मेरा बेटा सामान्य रूप से स्कूल नहीं जा पाएगा और केवल अस्पताल में रह सकता है। उस जैसे एक छोटे बच्चे से कैसे यह सहने की उम्मीद की जा सकती है? इस पर सोचते हुए मैं अपने आँसू नहीं रोक पाया। उन दिनों मेरा दिल बहुत भारी रहता था और मैं यह सोचने से खुद को रोक नहीं पाता था, “परमेश्वर का कार्य स्वीकार करने के बाद से मैंने दैहिक मामलों के संबंध में परमेश्वर से कोई विनती नहीं की है। बहुत अच्छा होगा यदि इस बार परमेश्वर मेरे बेटे को पूरी तरह से ठीक होने देने का उपकार कर सके।” मैं बहुत चाहता था कि परमेश्वर से प्रार्थना करूँ और उससे कहूँ कि वह अपने बेटे को बीमारी से निजात दिला दे, लेकिन मैं जानता था कि परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य न्याय और ताड़ना, परीक्षण और शोधन का कार्य है; यह मानवजाति के भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध करने के लिए किया जाता है। परमेश्वर से ऐसा अनुरोध करना उसके इरादे के अनुरूप नहीं था। लेकिन बेटे की बीमारी का खयाल आते ही, मैं अब भी उम्मीद करता था कि मेरे “समर्पण” के कारण परमेश्वर उस पर कृपा करेगा। अगर ऐसा हुआ, तो मेरे बेटे को इस तरह की पीड़ा नहीं सहनी पड़ेगी। एक अरसे तक मैं उम्मीद करता रहा, लेकिन मेरे बेटे की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। हालाँकि मैंने सतही तौर पर अपने कर्तव्य में देरी नहीं की, लेकिन मेरा दिल बहुत भारी था। अपनी पीड़ा दूर करने के लिए मैं बस परमेश्वर से प्रार्थना ही कर सकता था, उसे खोज सकता था और उसके वचनों को खा-पी सकता था।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “तुम परमेश्वर में विश्वास करने के बाद शांति प्राप्त करना चाहते हो—ताकि अपनी संतान को बीमारी से दूर रख सको, अपने पति के लिए एक अच्छी नौकरी पा सको, अपने बेटे के लिए एक अच्छी पत्नी और अपनी बेटी के लिए एक अच्छा पति पा सको, अपने बैल और घोड़े से जमीन की अच्छी जुताई कर पाने की क्षमता और अपनी फसलों के लिए साल भर अच्छा मौसम पा सको। तुम यही सब पाने की कामना करते हो। तुम्हारा लक्ष्य केवल सुखी जीवन बिताना है, तुम्हारे परिवार में कोई दुर्घटना न हो, आँधी-तूफान तुम्हारे पास से होकर गुजर जाएँ, धूल-मिट्टी तुम्हारे चेहरे को छू भी न पाए, तुम्हारे परिवार की फसलें बाढ़ में न बह जाएं, तुम किसी भी विपत्ति से प्रभावित न हो सको, तुम परमेश्वर के आलिंगन में रहो, एक आरामदायक घरौंदे में रहो। तुम जैसा डरपोक इंसान, जो हमेशा दैहिक सुख के पीछे भागता है—क्या तुम्हारे अंदर एक दिल है, क्या तुम्हारे अंदर एक आत्मा है? क्या तुम एक पशु नहीं हो? मैं बदले में बिना कुछ मांगे तुम्हें एक सत्य मार्ग देता हूँ, फिर भी तुम उसका अनुसरण नहीं करते। क्या तुम उनमें से एक हो जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर के वचनों के पाठ ने मेरे दिल को गहराई तक वेध दिया। परमेश्वर ने एकदम सही जगह चोट की थी और परमेश्वर में मेरे विश्वास में आशीषों के अनुसरण के मेरे दृष्टिकोण को उजागर कर दिया था। मेरे बेटे में नेफ्रोसिस सिंड्रोम की पुष्टि होने के बाद ऊपरी तौर पर मैंने प्रार्थना करते समय परमेश्वर से माँग करने से बचने की पूरी कोशिश की, लेकिन अंदर ही अंदर मैं उम्मीद करता था कि परमेश्वर मेरे “समर्पण” के कारण मुझ पर दया करेगा और मेरे बेटे को बीमारी से छुटकारा दिला देगा। जब परमेश्वर ने मेरी माँगें पूरी नहीं कीं तो मुझे अपने दिल में पीड़ा महसूस हुई और मैंने वो सबक नहीं खोजे जो मुझे अपने साथ इस तरह की चीज घटित होने से सीखने चाहिए थे। मैं धर्म के उन लोगों से कैसे कुछ अलग था? मैं अपने विश्वास में जिस चीज का अनुसरण करता था वह था भूख मिटाने के लिए अभी भी रोटी की खोज करना, जो बिल्कुल भी परमेश्वर के इरादे के अनुरूप नहीं था। इस पर चिंतन करते हुए मुझे सत्य का अनुसरण न करने और परमेश्वर से ये माँगें करने के लिए बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई और खुद से नफरत हो गई। मेरे पास वास्तव में किसी भी तरह का विवेक नहीं था। मैंने अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मैं अपने बेटे की बीमारी तुम्हें सौंपने और तुम्हारे आयोजनों और व्यवस्थाओं के लिए समर्पण करने का इच्छुक हूँ। मुझे बोझ की भावना दो और मुझे आस्था दो ताकि मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकूँ और तुम्हें संतुष्ट कर सकूँ।” प्रार्थना के बाद मेरा दिल थोड़ा और शांत और सहज महसूस करने लगा।
मार्च 2016 में मैंने कलीसिया की अगुआई के कर्तव्य सँभाले। कई महीने बाद मेरा बेटा फिर से बीमार हो गया। उसे पेशाब आता था पर वह बाहर नहीं निकाल पाता था, जिससे उसके पूरे शरीर में सूजन आ गई। यह देखकर मैं पूरी तरह से टूट गया। जो बच्चा कभी इतना स्वस्थ था न जाने कैसे ऐसी स्थिति में आ गया था। बार-बार हालत बिगड़ते जाने से वह कब ठीक हो पाएगा? मैंने मन में सोचा, “शायद यह बात है कि मैं अपने कर्तव्य में पर्याप्त कोशिश नहीं कर रहा हूँ। अगर मैं कुछ और अधिक प्रयास करूँ तो क्या यह संभव है कि उसकी स्थिति थोड़ी सी सुधर जाएगी?” और इसलिए मैंने अपना कर्तव्य निभाने में और अधिक ऊर्जा लगा दी। मेरे लिए आश्चर्य की बात थी कि मेरा बेटा धीरे-धीरे बेहतर होने लगा। मैं परमेश्वर का बहुत आभारी था और मैं अपना कर्तव्य और भी अधिक लगन से निभाने लगा, जिससे विभिन्न कार्यों में कुछ नतीजे प्राप्त हुए। समय गुजरता गया और 2016 के पतझड़ में मेरे बेटे की हालत अप्रत्याशित रूप से खराब हो गई। हर दिन वह कम से कम मूत्र प्रवाहित करता जा रहा था और लगभग सारा द्रव उसके शरीर के भीतर जमा होता जा रहा था। उसका शरीर इस हद तक बेहद सूज गया था कि उसके चेहरे का आकार बदल गया था और उसकी आँखें संकरी हो गई थीं; वह पहचान में नहीं आ रहा था। उसके पैर हाथी के पैरों जैसे लगते थे, उसकी त्वचा चमकने लगी थी और वह मुश्किल से बिस्तर से उठ पाता था। जब हम दूर अपने कर्तव्य निभा रहे होते थे तो वह केवल अपने फोन पर खेलकर समय बिता पाता था। जब हम उसे अस्पताल ले जाने को होते थे तो वह सयानों की तरह कहता था, “मेरी बीमारी ठीक नहीं होगी; जाने का कोई फायदा नहीं है। बस जाओ और जो करना है करो।” मैं चाहता था कि मैं उसकी जगह वह सारी पीड़ा सह सकूँ, लेकिन मैं कुछ नहीं कर सकता था। मुझे पता भी नहीं चला कि मैं परमेश्वर से शिकायत कर रहा था, सोच रहा था, “हे परमेश्वर! मैं अय्यूब नहीं हूँ, न ही मैं पतरस हूँ; मेरा आध्यात्मिक कद इतना बड़ा नहीं है। इसके अलावा इस पूरे समय में मैंने अपना कर्तव्य निभाना कभी नहीं छोड़ा। मेरा बेटा ठीक क्यों नहीं हो रहा है? भले ही उसकी बीमारी तुरंत ठीक न हो पाए, लेकिन मैं इतने से ही संतुष्ट हो जाऊँगा कि यह लगातार बदतर न होती जाए।” यह चिंतन करते हुए मुझे एहसास हुआ कि मैं यह शिकायत कर रहा था कि परमेश्वर अधार्मिक है। मुझे बहुत बेचैनी महसूस हुई और मैंने जल्दी से परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मुझे पता है कि मुझे तुमसे इस तरीके से शिकायत नहीं करनी चाहिए, लेकिन मैं वास्तव में इससे बाहर नहीं निकल पा रहा और मुझे नहीं पता कि मुझे कौन से सबक सीखने चाहिए। इस मामले में मेरा मार्गदर्शन करो।”
प्रार्थना करने के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “धार्मिकता किसी भी तरह से निष्पक्षता या तर्कसंगतता नहीं है; यह समतावाद नहीं है, या तुम्हारे द्वारा पूरे किए गए काम के अनुसार तुम्हें तुम्हारे हक का हिस्सा आवंटित करने, या तुमने जो भी काम किया हो उसके बदले भुगतान करने, या तुम्हारे किए प्रयास के अनुसार तुम्हारा देय चुकाने का मामला नहीं है। यह धार्मिकता नहीं है, यह केवल निष्पक्ष और विवेकपूर्ण होना है। बहुत कम लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को जान पाते हैं। मान लो कि अय्यूब द्वारा उसकी गवाही देने के बाद परमेश्वर अय्यूब को खत्म कर देता : क्या यह धार्मिक होता? वास्तव में, यह धार्मिक होता। इसे धार्मिकता क्यों कहा जाता है? लोग धार्मिकता को कैसे देखते हैं? अगर कोई चीज लोगों की धारणाओं के अनुरूप होती है, तब उनके लिए यह कहना बहुत आसान हो जाता है कि परमेश्वर धार्मिक है; परंतु, अगर वे उस चीज को अपनी धारणाओं के अनुरूप नहीं पाते—अगर यह कुछ ऐसा है जिसे वे बूझ नहीं पाते—तो उनके लिए यह कहना मुश्किल होगा कि परमेश्वर धार्मिक है। अगर परमेश्वर ने पहले तभी अय्यूब को नष्ट कर दिया होता, तो लोगों ने यह न कहा होता कि वह धार्मिक है। वास्तव में, लोग भ्रष्ट कर दिए गए हों या नहीं, वे बुरी तरह से भ्रष्ट कर दिए गए हों या नहीं, उन्हें नष्ट करते समय क्या परमेश्वर को इसका औचित्य सिद्ध करना पड़ता है? क्या उसे लोगों को बतलाना चाहिए कि वह ऐसा किस आधार पर करता है? क्या परमेश्वर को लोगों को बताना चाहिए कि उसने कौन से नियम बनाए हैं? इसकी आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर की नजरों में, जो व्यक्ति भ्रष्ट है, और जो परमेश्वर का विरोध कर सकता है, वह व्यक्ति बेकार है; परमेश्वर चाहे जैसे भी उससे निपटे, वह उचित ही होगा, और यह सब परमेश्वर की व्यवस्था है। अगर तुम लोग परमेश्वर की निगाहों में अप्रिय होते, और अगर वह कहता कि तुम्हारी गवाही के बाद तुम उसके किसी काम के नहीं हो और इसलिए उसने तुम लोगों को नष्ट कर दिया होता, तब भी क्या यह उसकी धार्मिकता होती? हाँ, होती। तुम इसे तथ्यों से इस समय भले न पहचान सको, लेकिन तुम्हें धर्म-सिद्धांत में इसे समझना ही चाहिए। तुम लोग क्या कहोगे—परमेश्वर द्वारा शैतान का विनाश क्या उसकी धार्मिकता की अभिव्यक्ति है? (हाँ।) अगर उसने शैतान को बने रहने दिया होता, तब तुम क्या कहते? तुम हाँ कहने का दुस्साहस तो नहीं करते? परमेश्वर का सार धार्मिकता है। हालाँकि वह जो करता है उसे बूझना आसान नहीं है, तब भी वह जो कुछ भी करता है वह सब धार्मिक है; बात सिर्फ इतनी है कि लोग समझते नहीं हैं। जब परमेश्वर ने पतरस को शैतान के सुपुर्द कर दिया था, तब पतरस की प्रतिक्रिया क्या थी? ‘तुम जो भी करते हो उसकी थाह तो मनुष्य नहीं पा सकता, लेकिन तुम जो भी करते हो उस सब में तुम्हारी सदिच्छा समाई है; उस सब में धार्मिकता है। यह कैसे सम्भव है कि मैं तुम्हारी बुद्धि और कर्मों की सराहना न करूँ?’ अब तुम्हें यह देखना चाहिए कि मनुष्य के उद्धार के समय परमेश्वर द्वारा शैतान को नष्ट न किए जाने का कारण यह है कि मनुष्य स्पष्ट रूप से देख सकें कि शैतान ने उन्हें कैसे और किस हद तक भ्रष्ट किया है, और परमेश्वर कैसे उन्हें शुद्ध करके बचाता है। अंततः, जब लोग सत्य समझ लेंगे और शैतान का घिनौना चेहरा स्पष्ट रूप से देख लेंगे, और शैतान द्वारा उन्हें भ्रष्ट किए जाने का महापाप देख लेंगे, तो परमेश्वर उन्हें अपनी धार्मिकता दिखाते हुए शैतान को नष्ट कर देगा। जब परमेश्वर शैतान को नष्ट करेगा, वह समय परमेश्वर के स्वभाव और बुद्धि से भरा होगा। वह सब जो परमेश्वर करता है धार्मिक है। भले ही लोग परमेश्वर की धार्मिकता को समझ न पाएँ, तब भी उन्हें मनमाने ढंग से आलोचना नहीं करनी चाहिए। अगर मनुष्यों को उसका कोई कृत्य अतर्कसंगत प्रतीत होता है, या उसके बारे में उनकी कोई धारणाएँ हैं, और उसकी वजह से वे कहते हैं कि वह धार्मिक नहीं है, तो वे सर्वाधिक विवेकहीन साबित हो रहे हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गया कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव वैसा नहीं है जैसा मैंने सोचा था—निष्पक्ष और तर्कसंगत और समतावादी। मैं सोचता था कि जब तक लोग कुछ कर्तव्य निभा सकते हैं, परमेश्वर को उन पर कृपा करनी चाहिए और लोग अपने कर्तव्यों में जितनी अधिक कीमत चुका सकते हैं, परमेश्वर को उन्हें उतना ही अधिक आशीष देना चाहिए। ये दुनिया के लेन-देन के दृष्टिकोण हैं और मूल रूप से सत्य के अनुरूप नहीं हैं। परमेश्वर का सार धार्मिक है। वह जो कुछ भी करता है वह उसके धार्मिक स्वभाव का एक स्वाभाविक प्रकाशन है। मुझे खयाल आया कि कैसे अय्यूब परमेश्वर का भय मानता था और बुराई से दूर रहता था और परमेश्वर की नजर में एक पूर्ण व्यक्ति था। मनुष्य की धारणाओं के अनुसार उसे शैतान के प्रलोभनों का सामना नहीं करना चाहिए था, लेकिन परमेश्वर ने उसके साथ ऐसा होने दिया। भले ही यह मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप नहीं था, लेकिन इसने अय्यूब की आस्था को पूर्ण किया। मैंने देखा कि चाहे परमेश्वर ने लोगों को आशीष दिया हो या वंचित किया हो, चाहे उसने उन्हें प्रकट किया हो या उन्हें पूर्ण बनाया हो, ये सभी परमेश्वर के धार्मिक सार के प्रकाशन थे और हर व्यक्ति को उनके प्रति समर्पण और उन्हें स्वीकार करना चाहिए। लोगों को परमेश्वर को यह बताने के लिए कि उसे क्या करना चाहिए, अपनी खपाई का इस्तेमाल पूँजी में रूप में नहीं करना चाहिए। लेकिन मैं परमेश्वर की धार्मिकता को नहीं समझता था। जब मैंने खुद को अपने कर्तव्य में थोड़ा सा खपाया और देखा कि मेरे बेटे की स्थिति में सुधार हो रहा है तो मुझे विश्वास था कि परमेश्वर धार्मिक है और मैं अपने कर्तव्य में कर्मठ हूँ। जब मेरे बेटे की हालत फिर से बिगड़ी और अधिकाधिक गंभीर होती गई तो मैंने परमेश्वर के बारे में शिकायत की और सोचा कि वह मुझे जिन परीक्षणों से गुजार रहा है, वे बहुत ही कठिन हैं। मैंने परमेश्वर से तर्क-वितर्क और उसका विरोध करने लगा। इससे पता चला कि परमेश्वर की धार्मिकता की मेरी परिभाषा इस बात पर आधारित थी कि मेरी कड़ी मेहनत और खुद को खपाने से मुझे अनुग्रह और आशीष मिल सकता है या नहीं; यह लेन-देन और आदान-प्रदान से भरा हुआ था। क्या मैं अपनी धारणाओं के अनुसार परमेश्वर से माँगें नहीं कर रहा था? मैं एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य बिल्कुल भी नहीं निभा रहा था और मुझमें बिल्कुल भी वह अंतरात्मा और विवेक नहीं था जो एक सृजित प्राणी में होना चाहिए। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मैं एक ऐसा व्यक्ति बनना चाहता हूँ जिसके पास अंतरात्मा और विवेक हो और मैं तुम्हें संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहता हूँ। जब भी मैं उन चीजों का सामना करता हूँ जो मेरी पसंद की नहीं हैं तो मैं तुम्हें गलत क्यों समझता हूँ और तुम्हारे बारे में शिकायत क्यों करता हूँ? परमेश्वर, मुझे मार्गदर्शन दो ताकि मैं इस मामले में खुद को समझ सकूँ।”
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “मनुष्य ने जब पहले-पहल परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ किया था, उसी समय से मनुष्य ने परमेश्वर को एक अक्षय पात्र, एक स्विस आर्मी चाकू माना है, और अपने आपको परमेश्वर का सबसे बड़ा साहूकार माना है, मानो परमेश्वर से आशीष और प्रतिज्ञाएँ प्राप्त करने की कोशिश करना उसका जन्मजात अधिकार और दायित्व है, जबकि परमेश्वर की जिम्मेदारी मनुष्य की रक्षा और देखभाल करना, और उसे भरण-पोषण देना है। ऐसी है ‘परमेश्वर में विश्वास’ की मूलभूत समझ, उन सब लोगों की जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और ऐसी है परमेश्वर में विश्वास की अवधारणा की उनकी गहनतम समझ। मनुष्य के प्रकृति सार से लेकर उसके व्यक्तिपरक अनुसरण तक, ऐसा कुछ भी नहीं है जो परमेश्वर के भय से संबंधित हो। परमेश्वर में विश्वास करने में मनुष्य के लक्ष्य का परमेश्वर की आराधना के साथ कोई लेना-देना संभवतः नहीं हो सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य ने न कभी यह विचार किया और न समझा कि परमेश्वर में विश्वास करने के लिए परमेश्वर का भय मानने और आराधना करने की आवश्यकता होती है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। “लोगों के परमेश्वर से हमेशा माँग करते रहने में क्या समस्या है? और उनके हमेशा परमेश्वर के बारे में धारणाएँ पालने में क्या समस्या है? मनुष्य की प्रकृति में क्या निहित है? मैंने पाया कि लोगों के साथ चाहे कुछ भी घटित हो या वे चाहे जिस चीज से निपट रहे हों, वे हमेशा अपने हितों की सुरक्षा और अपने दैहिक सुखों की चिंता करते हैं, और वे हमेशा अपने पक्ष में तर्क और बहाने ढूंढ़ते रहते हैं। वे लेशमात्र भी सत्य खोजते और स्वीकारते नहीं हैं, और वे जो कुछ भी करते हैं वह अपने दैहिक सुखों को उचित ठहराने और अपनी संभावनाओं की योजना बनाने के लिए होता है। वे सब परमेश्वर से अनुग्रह पाना चाहते हैं ताकि हर संभव लाभ उठा सकें। लोग परमेश्वर से इतनी सारी माँगें क्यों करते हैं? यह साबित करता है कि लोग अपनी प्रकृति से लालची हैं, और परमेश्वर के समक्ष उनमें कोई समझ नहीं है। लोग जो कुछ भी करते हैं—वे चाहे प्रार्थना कर रहे हों या संगति या प्रचार कर रहे हों—उनके अनुसरण, विचार और आकांक्षाएँ, ये सारी चीजें परमेश्वर से माँगें हैं और उससे चीजें पाने के प्रयास हैं, ये सब परमेश्वर से कुछ हासिल करने की उम्मीद से किए जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि ‘यह मानव प्रकृति है,’ जो सही है! इसके अलावा, परमेश्वर से लोगों का बहुत अधिक माँगें करना और बहुत अधिक असंयत लालसाएँ रखना यह साबित करता है कि सचमुच लोगों में अंतरात्मा और विवेक की कमी है। वे सब अपने लिए चीजों की माँग और आग्रह कर रहे हैं, या अपने लिए बहस करने और बहाने ढूंढ़ने की कोशिश कर रहे हैं—वे यह सब अपने लिए करते हैं। कई मामलों में देखा जा सकता है कि लोग जो कुछ करते हैं वह पूरी तरह समझ से रहित है, जो इस बात का पूर्ण प्रमाण है कि ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए’ वाला शैतानी तर्क पहले ही मनुष्य की प्रकृति बन चुका है। परमेश्वर से लोगों का बहुत अधिक माँगें करना किस समस्या को दर्शाता है? यह दर्शाता है कि लोगों को शैतान एक निश्चित बिंदु तक भ्रष्ट कर चुका है, और परमेश्वर में अपने विश्वास में वे उसे परमेश्वर बिल्कुल नहीं मानते हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं)। ये वचन पढ़कर मेरा दिल गहराई से बिंध गया। मैं बिल्कुल वैसा ही व्यक्ति था जिसे परमेश्वर ने उजागर किया था; मैंने खुद को परमेश्वर का ऋणदाता माना था और उसे सृष्टिकर्ता नहीं माना था। परमेश्वर में विश्वास करने के अपने समय के बारे में पीछे मुड़कर सोचता हूँ तो परमेश्वर के अनुग्रह और आशीषों का आनंद लेने के बाद मुझे विश्वास हो गया था कि अगर लोग कठिनाइयों का सामना करते समय परमेश्वर से प्रार्थना और विनती करते हैं तो वह उनकी इच्छाएँ पूरी करेगा, क्योंकि मनुष्य के लिए परमेश्वर के प्रेम से बड़ा कुछ भी नहीं है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारने के बाद मुझे परमेश्वर के वचनों से समझ में आ गया कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है और लोगों को यह कहते हुए उससे अविवेकपूर्ण माँगें नहीं करनी चाहिए कि वह उन्हें अनुग्रह और आशीष प्रदान करे। मगर मेरे भीतर आशीष प्राप्त करने का दृष्टिकोण अभी भी नहीं बदला था। उदाहरण के लिए मेरे बेटे की बीमारी को ही ले लो : मैं शुरू में ही इसे परमेश्वर को सौंपने में सक्षम था और जब मैंने देखा कि मेरे बेटे की स्थिति में कुछ सुधार हुआ है तो मुझे लगा कि परमेश्वर वास्तव में हमारी परवाह करता है। मैंने सोचा कि अगर मैं अपने कर्तव्य पर डटा रहता हूँ और परमेश्वर मुझे खुद को खपाते हुए देखता है तो मेरा बेटा शायद ठीक हो जाए। इन इरादों के नियंत्रण में मैं अपना कर्तव्य निभाते समय विशेष रूप से ऊर्जावान था। लेकिन जब खुद को खपाने से मुझे वांछित परिणाम नहीं मिले और मेरे बेटे की बीमारी अधिकाधिक गंभीर होती गई तो मैं परमेश्वर के खिलाफ शिकायत करने से खुद को नहीं रोक पाया। मैं सोचता था कि मुझे कुछ कर्तव्य निभाने और थोड़ी सी कीमत चुकाने का श्रेय मिलना चाहिए और इससे मैं परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने के योग्य हो जाता हूँ। मैंने देखा कि मैं महज परमेश्वर को संतुष्ट करने के बजाय आशीष और लाभ प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास कर रहा था और अपना कर्तव्य निभा रहा था। मेरी प्रकृति सचमुच बहुत स्वार्थी थी! एक सृजित प्राणी के रूप में परमेश्वर पर विश्वास करना और उसकी आराधना करना पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है, लेकिन मैं हमेशा अपने अंदर अपने इरादे और माँगें पाल रहा था, जो कुछ भी मैंने किया उसमें परमेश्वर को धोखा दिया। ऐसे विश्वास को कभी भी परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिल सकती। मुझे बहुत शर्मिंदगी और ग्लानि महसूस हुई। मैं बस परमेश्वर के पास लौटना चाहता था, एक सृजित प्राणी का पद लेना चाहता था और स्पष्ट रूप से सोचना चाहता था, अब परमेश्वर से और कोई माँग नहीं करना चाहता था या उससे कोई शिकायत नहीं करना चाहता था और अपने बेटे को उसे सौंपना चाहता था।
2018 के अंत में मुझे सुरक्षा जोखिमों के कारण घर छोड़ना पड़ा। यही वह समय था कि जब लंबे समय तक हार्मोन युक्त दवा लेने के कारण मेरे बेटे को फीमरल हेड का ऑस्टियोनेक्रोसिस (ओएनएफएच) होने का पता चला। वह चलते समय अपनी कमर सीधी नहीं रखा पाता था और अपने दोनों हाथों को घुटनों पर रखकर ही चल पाता था। भले ही मैं जानता था कि घर में मेरी पत्नी मेरे बेटे की देखभाल करने के लिए मौजूद है और ऐसी कोई चीज नहीं है जिसमें मैं मदद करता हूँ, फिर भी मेरे बेटे की स्थिति मुझे बहुत पीड़ा देती थी और मैं सोचता था, “मेरे बेटे की पुरानी बीमारी अभी तक ठीक नहीं हुई है और अब उसे अब एक नई बीमारी हो गई है; मुझे क्या करना चाहिए? क्या मुझे घर छोड़ देना चाहिए?” जितना मैंने इस बारे में सोचा, मैं उतना ही दुखी होता गया और मुझे उम्मीद थी कि परमेश्वर कोई चमत्कार करेगा जिससे मेरे बेटे की हालत जल्द से जल्द नियंत्रण में आ जाएगी। मुझे हल्का-सा अहसास हुआ कि मैं फिर से परमेश्वर से माँग कर रहा हूँ और इसलिए मैंने दिल में परमेश्वर से चुपचाप प्रार्थना की, उससे विनती की कि वह मेरी रक्षा करे ताकि मैं एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी स्थिति में अडिग रह सकूँ और इन परिस्थितियों के प्रति समर्पण कर सकूँ। प्रार्थना करने के बाद मैंने कुछ कपड़े पैक किए और घर से निकल गया।
घर से दूर रहने के दौरान मैं कभी-कभी अपने बेटे के बारे में सोचने लगता था, जिससे मुझे अपना कर्तव्य निभाते समय कुछ बाधाएँ होती थीं और इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उसके वचनों को खाया-पीया। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े, जो कहते हैं : “जन्म देने और बच्चे के पालन-पोषण के अलावा बच्चे के जीवन में माता-पिता का उत्तरदायित्व उसके बड़ा होने के लिए बाहर से महज एक परिवेश प्रदान करना है और बस इतना ही होता है क्योंकि सृष्टिकर्ता के पूर्वनिर्धारण के अलावा किसी भी चीज का उस व्यक्ति के भाग्य से कोई सम्बन्ध नहीं होता। किसी व्यक्ति का भविष्य कैसा होगा, इसे कोई नियन्त्रित नहीं कर सकता; इसे बहुत पहले ही पूर्व निर्धारित किया जा चुका होता है, किसी के माता-पिता भी उसके भाग्य को नहीं बदल सकते। जहाँ तक भाग्य की बात है, हर कोई स्वतन्त्र है और हर किसी का अपना भाग्य है। इसलिए किसी के भी माता-पिता जीवन में उसके भाग्य को बिल्कुल भी नहीं रोक सकते या जब उस भूमिका की बात आती है जो वे जीवन में निभाते हैं तो उसमें जरा-सा भी योगदान नहीं दे सकते हैं। ऐसा कहा जा सकता है कि वह परिवार जिसमें किसी व्यक्ति का जन्म लेना नियत होता है, और वह परिवेश जिसमें वह बड़ा होता है, वे जीवन में उसके ध्येय को पूरा करने के लिए मात्र पूर्वशर्तें होती हैं। वे किसी भी तरह से किसी व्यक्ति के भाग्य को या उस प्रकार की नियति को निर्धारित नहीं करते जिसमें रहकर कोई व्यक्ति अपने ध्येय को पूरा करता है। और इसलिए, किसी के भी माता-पिता जीवन में उसके ध्येय को पूरा करने में उसकी सहायता नहीं कर सकते, किसी के भी रिश्तेदार जीवन में उसकी भूमिका निभाने में उसकी सहायता नहीं कर सकते। कोई किस प्रकार अपने ध्येय को पूरा करता है और वह किस प्रकार के परिवेश में रहते हुए अपनी भूमिका निभाता है, यह पूरी तरह से जीवन में उसके भाग्य द्वारा निर्धारित होता है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गया कि परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति के भाग्य पर संप्रभुता रखता है और उसकी व्यवस्था करता है। हर किसी को जीवन में कुछ कष्ट सहने चाहिए और कोई भी अन्य व्यक्ति उसकी जगह उन्हें नहीं सह सकता। जहाँ तक मेरे बेटे की बात है, मैं बस इतना ही कर सकता था कि उसे एक वयस्क के रूप में बड़ा करूँ और अपनी जिम्मेदारी पूरी करूँ। जहाँ तक यह बात है कि उसे अपने जीवन में किन कठिनाइयों को सहना चाहिए और आगे उसका जीवन कैसा रहेगा तो यह सब परमेश्वर के हाथों में था। मैं इसे तय नहीं कर सकता था या इसे बदल नहीं सकता था। पहले जब मैं घर पर होता था तो मैं अपने बेटे की थोड़ी सी देखभाल कर लिया करता था और उसे समय पर दवाएँ लेने की याद दिलाता था, लेकिन फिर भी उसका निदान ओएनएफएच हुआ। मेरी देखभाल और मेरे साथ से मेरे बेटे को होने वाले कष्ट बदल नहीं सकते थे। भले ही मैं अपने बेटे की बगल में खड़ा रहता हूँ, मैं बस इतना ही कर पाऊँगा कि उसके साथ रहूँ और उसे थोड़ा आराम दूँ; मैं यह बिल्कुल तय नहीं कर सकता कि उसकी बीमारी बढ़ेगी या ठीक होगी। मुझे अपना बेटा परमेश्वर को सौंपना था; एकमात्र उचित बात यह थी कि परमेश्वर को उस पर संप्रभुता रखने दी जाए और इसकी व्यवस्था करने दी जाए। यह सोचकर मैं अपने कर्तव्य के निर्वहन में थोड़ा अधिक मुक्त महसूस करने और मन की शांति पाने में सक्षम था।
बाद में मेरी पत्नी ने मुझे एक पत्र भेजा जिसमें कहा गया था कि मेरा बेटा वापस अस्पताल में आ गया है। जब मैंने देखा कि मेरे बेटे की बीमारी फिर से लौट आई है तो मैं काफी परेशान हो गया और मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, कहा कि मैं अपने बेटे को उसे सौंपने का इच्छुक हूँ और उसे अपनी संप्रभुता रखने और सब कुछ व्यवस्थित करने के लिए छोड़ता हूँ। मुझे बस परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना चाहिए। जब मैंने परमेश्वर से इस तरह प्रार्थना की, उससे अब और माँगें नहीं कीं तो मुझे बहुत ही शांति और सहजता महसूस हुई और मैं अपने कर्तव्य में अपना दिल लगाने में सक्षम हो गया।