64. दमनात्मक भावनाओं से कैसे मुक्त हुआ जाए
सितंबर 2023 में मैं कई कलीसियाओं के सिंचन कार्य के लिए जिम्मेदार थी। कुछ समय बाद अधिक लोगों ने परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार कर लिया और इन कलीसियाओं को कुछ और सिंचनकर्ताओं की जरूरत थी। हर दिन नवागंतुकों को सिंचन देने के अलावा मुझे नए चुने गए सिंचनकर्ताओं को भी विकसित करना पड़ता था। चूँकि उन सभी ने अभी-अभी प्रशिक्षण लेना शुरू किया था, इसलिए मुझे उन्हें हर पहलू में हाथ पकड़कर सिखाना होता था और विस्तृत संगति देनी पड़ती थी। दिन के दौरान मैं नए लोगों के सिंचन के लिए बाहर जाती थी और शाम को मुझे सिंचनकर्ताओं के सामने आने वाले मुद्दों और कठिनाइयों पर संगति प्रदान करनी होती थी। कभी-कभी एक ही मुद्दे पर संगति करने में कई घंटे लग जाते थे और कभी-कभी जब उनकी दशाएँ खराब होती थीं, तो मुझे संगति करने और उनके मुद्दे हल करने के लिए परमेश्वर के वचन खोजने पड़ते थे, जिसके कारण कई बार देर रात तक जागना पड़ता था। समय के साथ मुझे लगा कि लोगों को विकसित करना सच में मुसीबत का काम था। इसने मुझे न केवल शारीरिक रूप से बल्कि मानसिक रूप से भी थका दिया। जब से मैंने सिंचनकर्ताओं को विकसित करना शुरू किया था, तब से मेरे काम-आराम का संतुलन गड़बड़ा गया था। कभी-कभी मन करता कि कह दूँ कि वे मुझे अकेला छोड़ दें, लेकिन मुझे चिंता होती थी कि इससे वे बेबस महसूस कर सकते हैं, तो मैं चुप रह जाती। उस समय सीसीपी बड़े पैमाने पर विश्वासियों को गिरफ्तार कर रही थी और सिंचनकर्ता तियान युन की देखरेख में आने वाले नवागंतुक भयभीत और निराश हो गए थे। मुझे नवागंतुकों के मुद्दों को लेकर लगभग हर दिन तियान युन से बात करनी पड़ती थी और मैं हमेशा ही तनावग्रस्त रहती थी। टीम अगुआ ने मुझे योजना बनाने के लिए लिखा, जिसमें यह अनुमान लगाना था कि सिंचनकर्ताओं को कितने समय तक विकसित करना है कि वे नवागंतुकों का स्वतंत्र रूप से सिंचन कर सकें। जब मैंने कार्य में सभी प्रकार की कठिनाइयाँ देखीं और कार्य के बारे में कई अनुवर्ती पत्रों को देखा, तो मैं खुद को और नहीं रोक पाई। मैंने सोचा, “पहले सिर्फ नवागंतुकों का सिंचन करना काफी बेहतर था। हालाँकि बहुत से नवागंतुकों का सिंचन करना पड़ता था, कम से कम मेरे पास कुछ खाली समय होता था और कभी-कभी मैं मेजबान बहनों से भी बात कर लेती थी। जब से मैंने सिंचनकर्ताओं को विकसित करना शुरू किया है, मैं रात को जल्दी नहीं सो पाती, ऊपर से सुबह भी जल्दी उठना पड़ता है। आराम और काम का संतुलन बिगड़ गया है और मुझे बहुत अधिक मानसिक और शारीरिक मेहनत करनी पड़ती है। ये दिन कब खत्म होंगे? अगर ऐसे ही चलता रहा, तो क्या मेरा शरीर जवाब नहीं दे देगा? शायद मुझे अगुआ से बात करनी चाहिए और उसे बताना चाहिए कि मैं यह काम नहीं कर सकती और एक ही काम वाली भूमिका में लौटने को कह देती हूँ?” लेकिन फिर मैंने सोचा, “इन कलीसियाओं में सभी सिंचनकर्ता नए-नए चुने गए हैं और वे अभी तक नवागंतुकों के सिंचन कार्य के सिद्धांत नहीं समझते। क्या अभी छोड़ने का मतलब यह नहीं होगा कि मैं अपना कर्तव्य त्याग रही होऊँगी और परमेश्वर से विश्वासघात करूँगी?” यह सोचकर मेरी इसे छोड़ने की हिम्मत नहीं हुई, लेकिन मैंने खुद को विकसित करने के कार्य में पहले जितना नहीं लगाया। उदाहरण के लिए, तियान युन को विकसित करने को लेकर मुझे पता था कि उसने अभी-अभी प्रशिक्षण लेना शुरू किया है और नवागंतुकों के साथ मुद्दों और कठिनाइयों पर संगति के जरिए उसे सीधे मार्गदर्शन देना सबसे अच्छा था, लेकिन मैं इतना प्रयास नहीं करना चाहती थी, इसलिए मैं उसके साथ बस नवागंतुकों की दशा का विश्लेषण करती, उसे परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश खोजने में मदद करती और उसे खुद ही संगति करने और मुद्दों को हल करने देती थी। कभी-कभी मैं स्पष्ट रूप से देखती थी कि कुछ सिंचनकर्ता खराब मनोदशा में होते थे, लेकिन मैं उन्हें अनदेखा कर देती थी, सोचती थी, “नवागंतुकों का सिंचन करने में ही मैं काफी व्यस्त हूँ। अगर मैंने तुम्हारी मनोदशा के बारे में पूछ लिया, तो निश्चित रूप से मेरे सामने समस्याओं का एक और ढेर लग जाएगा और मुझे ये मुद्दे हल करने के लिए कितना मानसिक बोझ लेना पड़ेगा और संगति करनी पड़ेगी। इसमें कितनी दिमागी शक्ति लगेगी!” इसलिए मैं इन चीजों को बस अनदेखा कर देती थी। कुछ सिंचनकर्ता मुझसे सवाल पूछते और मैं उनके साथ पहले की तरह ध्यान से संगति नहीं करती थी और उन्हें बस खुद ही परमेश्वर से प्रार्थना करने और समाधान खोजने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करने के लिए छोड़ देती थी। कुछ समय बाद कुछ सिंचनकर्ता नवागंतुकों के मुद्दे हल करने में असमर्थ होने के कारण खराब दशाओं में आ गए और अपनी कठिनाइयों से जूझ रहे थे। हल करने के लिए इतने सारे मुद्दे देखकर मैं वास्तव में दमित और दुखी महसूस कर रही थी, यही चाह रही थी कि इस परिवेश से निकल भागूँ।
एक दिन मैंने सुना कि बहन लू मेई को खराब काबिलियत के कारण दूसरा कर्तव्य सौंपा गया था और उनका कार्यभार कम कर दिया गया था। मैंने सोचा, “अगर मैं भी कोई हल्का कर्तव्य कर पाऊँ, तो मुझे इतनी चिंता या इतना दुख नहीं सहना पड़ेगा।” उस पल अचानक मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा गलत थी और मैंने सोचा, “क्या अपना कर्तव्य त्यागने की मेरी निरंतर इच्छा का मतलब यह नहीं है कि मैं परमेश्वर से विश्वासघात कर रही हूँ?” मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मेरे विचार बहुत ही भ्रष्ट हैं। तुमने मुझे इतना महत्वपूर्ण कर्तव्य निभाने के लिए ऊँचा उठाया है, फिर भी मैं उस बहन के प्रति कृतघ्न और ईर्ष्यालु हूँ जिसे दूसरा कर्तव्य सौंपा गया है। मैं वास्तव में नहीं जानती कि मेरे लिए क्या अच्छा है! परमेश्वर, मैं अनिच्छा से अपना कर्तव्य निभा रही हूँ, लगातार शारीरिक और मानसिक थकान महसूस कर रही हूँ। मुझे पता है कि यह दशा गलत है, लेकिन यह नहीं पता कि इसे कैसे हल करूँ। इस दशा से बाहर निकालने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो।” उसके बाद मैंने अगुआ से अपनी दशा के बारे में बात की। उसने मेरे लिए परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश ढूँढ़े और इनमें से कुछ वचनों ने मुझ पर गहरी छाप छोड़ी : “ऐसा भी होता है कि लोग अपना कर्तव्य करते समय कठिनाइयों की शिकायत करते हैं, वे मेहनत नहीं करना चाहते, जैसे ही उन्हें थोड़ा अवकाश मिलता है, वे आराम करते हैं, बेपरवाही से बकबक करते हैं, या आराम और मनोरंजन में हिस्सा लेते हैं। और जब काम बढ़ता है और वह उनके जीवन की लय और दिनचर्या भंग कर देता है, तो वे इससे नाखुश और असंतुष्ट होते हैं। वे भुनभुनाते और शिकायत करते हैं, और अपना कर्तव्य करने में अनमने हो जाते हैं। यह दैहिक सुखों का लालच करना है, है न?” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (2))। परमेश्वर के वचनों ने ठीक-ठीक मेरी दशा उजागर कर दी। पहले जब मैं नवागंतुकों का सिंचन कर रही थी, तो काम का बोझ हल्का था और शारीरिक रूप से बहुत थकाने वाला नहीं था, इसलिए मैं सहयोग करने के लिए तैयार रहती थी। लेकिन जैसे-जैसे काम का बोझ बढ़ा और मुझे सिंचनकर्ताओं को भी विकसित करना पड़ा और संगति के जरिए उनके मुद्दे सुलझाने पड़े, तो मुझे लगा मेरे शरीर को कष्ट उठाना पड़ रहा है, इसलिए मैंने दुखी महसूस किया, मैं ठिनकती थी, शिकायत करती थी और यहाँ तक कि अपना कर्तव्य त्यागना चाहती थी। क्या ये सिर्फ शारीरिक आराम के लिए मेरी लालसा की अभिव्यक्तियाँ नहीं थीं?
बाद में मुझे परमेश्वर के वचनों का एक और अंश मिला जो मेरी दशा से पूरी तरह मेल खाता था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अगर लोग लगातार भौतिक सुख और खुशी की तलाश करते हैं, अगर वे लगातार भौतिक सुख और आराम के पीछे भागते हैं, और कष्ट नहीं उठाना चाहते, तो थोड़ा-सा भी शारीरिक कष्ट, दूसरों की तुलना में थोड़ा ज्यादा कष्ट सहना या सामान्य से थोड़ा ज्यादा काम का बोझ महसूस करना उन्हें दमित महसूस कराएगा। यह दमन के कारणों में से एक है। अगर लोग थोड़े-से शारीरिक कष्ट को बड़ी बात नहीं मानते और वे भौतिक आराम के पीछे नहीं भागते, बल्कि सत्य का अनुसरण करते हैं और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य निभाने की कोशिश करते हैं, तो उन्हें अक्सर शारीरिक कष्ट महसूस नहीं होगा। यहाँ तक कि अगर वे कभी-कभी थोड़ा व्यस्त, थका हुआ या क्लांत महसूस करते भी हों, तो भी सोने के बाद वे बेहतर महसूस करते हुए उठेंगे और फिर अपना काम जारी रखेंगे। उनका ध्यान अपने कर्तव्यों और अपने काम पर होगा; वे थोड़ी-सी शारीरिक थकान को कोई महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं मानेंगे। हालाँकि जब लोगों की सोच में कोई समस्या उत्पन्न होती है और वे लगातार शारीरिक सुख की तलाश में रहते हैं, किसी भी समय जब उनके भौतिक शरीर के साथ थोड़ी सी गड़बड़ होती है या उसे संतुष्टि नहीं मिल पाती, तो उनके भीतर कुछ नकारात्मक भावनाएँ पैदा हो जाती हैं। तो इस तरह का व्यक्ति जो हमेशा जैसा चाहे वैसा करना चाहता है और दैहिक सुख भोगना और जीवन का आनंद लेना चाहता है, जब भी असंतुष्ट होता है तो अक्सर खुद को दमन की इस नकारात्मक भावना में फँसा हुआ क्यों पाता है? (इसलिए कि वह आराम और शारीरिक आनंद के पीछे भागता है।) यह कुछ लोगों के मामले में सच है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (5))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे अपनी दशा के बारे में स्पष्ट समझ मिल गई। मैं हमेशा दमित और पीड़ाग्रस्त महसूस करती थी क्योंकि मैं लगातार शारीरिक आराम और आनंद के पीछे दौड़ती रहती थी और अपने शरीर को थोड़ा भी कष्ट नहीं होने देना चाहती थी। मेरे अनुसरण की दिशा और लक्ष्य गलत थे। अगर मेरे अनुसरण का लक्ष्य परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना होता और मैं अपने कर्तव्य को अपनी जिम्मेदारी और दायित्व मानती, तो मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए कोई भी कष्ट सहने को तैयार हो जाती और मैं थोड़े से कष्ट के कारण खुद को दमित महसूस न करती। जब कार्यभार हल्का था और शारीरिक कष्ट न्यूनतम था, तब भी मैं समर्पण कर पाई, लेकिन जब कार्यभार बढ़ा और मुझे अपनी देह पर लगाम कसनी पड़ी और मुझे शारीरिक और मानसिक रूप से थकान महसूस होने लगी, मानो मुझ पर किसी पहाड़ का बोझ आ पड़ा हो। मैंने शिकायत की कि यह कर्तव्य बहुत थकाऊ और दर्दनाक था और इससे लापरवाही और गैर-जिम्मेदारी से पेश आई। मैंने यहाँ तक उम्मीद रखी कि मुझे कोई दूसरा हल्का कर्तव्य सौंप दिया जाए और हमेशा चाहा कि मुझे इतनी शारीरिक पीड़ा से न गुजरना पड़े और मैं एक आसान कर्तव्य कर सकूँ और फिर भी अंत में परमेश्वर द्वारा बचाई जा सकूँ। क्या यह सिर्फ एक खयाली पुलाव नहीं था?
बाद में मैंने सोचा, “मैंने इतने सालों तक परमेश्वर पर विश्वास किया है और मैं हमेशा कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाती रही हूँ, तो ऐसा क्यों होता है कि जब मेरे कर्तव्य में कुछ कठिनाइयाँ आती हैं और थोड़े दबाव आते हूँ, तो मैं दमित महसूस करने लगती हूँ और यहाँ तक कि मैं अपने कर्तव्य त्यागने के बारे में सोचने लगती हूँ?” मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “अपनी प्रकृति में लोग जिन चीजों को पसंद करते हैं, उन्हें उजागर करने के अलावा, प्रकृति की समझ के स्तर तक पहुँचने के लिए, उनकी प्रकृति से संबंधित कुछ बेहद महत्वपूर्ण पहलुओं को भी उजागर करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, चीजों पर लोगों के दृष्टिकोण, लोगों के तरीके और जीवन के लक्ष्य, लोगों के जीवन के मूल्य और जीवन पर दृष्टिकोण, साथ ही सत्य से संबंधित सभी चीजों पर उनके नजरिए और विचार। ये सभी चीजें लोगों की आत्मा के भीतर गहरी समाई हुई हैं और स्वभाव में परिवर्तन के साथ उनका एक सीधा संबंध है। तो फिर, भ्रष्ट मानवजाति का जीवन को लेकर क्या दृष्टिकोण है? इसे इस तरह कहा जा सकता है : ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।’ सभी लोग अपने लिए जीते हैं; अधिक स्पष्टता से कहें तो, वे देह-सुख के लिए जी रहे हैं। वे केवल अपने मुँह में भोजन डालने के लिए जीते हैं। उनका यह अस्तित्व जानवरों के अस्तित्व से किस तरह भिन्न है? इस तरह जीने का कोई मूल्य नहीं है, उसका कोई अर्थ होने की तो बात ही छोड़ दो। व्यक्ति के जीवन का दृष्टिकोण इस बारे में होता है कि दुनिया में जीने के लिए तुम किस पर भरोसा करते हो, तुम किसके लिए जीते हो, और किस तरह जीते हो—और इन सभी चीजों का मानव-प्रकृति के सार से लेना-देना है। लोगों की प्रकृति का विश्लेषण करके तुम देखोगे कि सभी लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं। वे सभी शैतान हैं और वास्तव में कोई भी अच्छा व्यक्ति नहीं है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, स्वभाव बदलने के बारे में क्या जानना चाहिए)। “मनुष्य की देह साँप के समान है : इसका सार अपने जीवन को हानि पहुँचाना है—और जब पूरी तरह से उसकी मनमानी चलने लगती है, तो तुम जीवन पर से अपना अधिकार खो बैठते हो। देह शैतान से संबंधित है। इसके भीतर हमेशा असंयमित इच्छाएँ होती हैं, यह केवल अपने बारे में सोचता है, यह हमेशा सुविधा की इच्छा रखता है और आराम भोगना चाहता है, सुस्ती और आलस्य में धँसा रहता है, और इसे एक निश्चित बिंदु तक संतुष्ट करने के बाद तुम अंततः इसके द्वारा खा लिए जाओगे। कहने का अर्थ है कि, यदि तुम इसे इस बार संतुष्ट करोगे, तो अगली बार यह फिर इसे संतुष्ट करने की माँग करेगा। इसकी हमेशा असंयमित इच्छाएँ और नई माँगें रहती हैं, और अपने आपको और अधिक पोषित करवाने और उसके सुख के बीच रहने के लिए तुम्हारे द्वारा अपने को दिए गए बढ़ावे का फायदा उठाता है—और यदि तुम इस पर कभी जीत नहीं हासिल करोगे, तो तुम अंततः स्वयं को बरबाद कर लोगे। तुम परमेश्वर के सामने जीवन प्राप्त कर सकते हो या नहीं, और तुम्हारा अंतिम परिणाम क्या होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम देह के प्रति अपना विद्रोह कैसे कार्यान्वित करते हो। परमेश्वर ने तुम्हें बचाया है, और तुम्हें चुना और पूर्वनिर्धारित किया है, फिर भी यदि आज तुम उसे संतुष्ट करने के लिए तैयार नहीं हो, तुम सत्य को अभ्यास में लाने के लिए तैयार नहीं हो, तुम अपनी देह के विरुद्ध एक सच्चे परमेश्वर-प्रेमी हृदय के साथ विद्रोह करने के लिए तैयार नहीं हो, तो अंततः तुम अपने आप को बरबाद कर लोगे, और इस प्रकार चरम पीड़ा सहोगे। यदि तुम हमेशा अपनी देह को खुश करते हो, तो शैतान तुम्हें धीरे-धीरे निगल लेगा, और तुम्हें जीवन या पवित्रात्मा के स्पर्श से रहित छोड़ देगा, जब तक कि वह दिन नहीं आ जाता, जब तुम भीतर से पूरी तरह अंधकारमय नहीं हो जाते। जब तुम अंधकार में रहोगे, तो तुम्हें शैतान के द्वारा बंदी बना लिया जाएगा, तुम्हारे हृदय में अब परमेश्वर नहीं होगा, और उस समय तुम परमेश्वर के अस्तित्व को नकार दोगे और उसे छोड़ दोगे” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल परमेश्वर से प्रेम करना ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करना है)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे आराम और सहजता की लालसा के मूल और गंभीर परिणामों की कुछ समझ मिली। मैं भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों के साथ जी रही थी, जैसे “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” “जीवन सिर्फ अच्छा खाने और सुंदर कपड़े पहनने के बारे में है,” और “खुद से अच्छा व्यवहार करो और जीवन का आनंद लो।” मैं अपने कर्तव्य में थोड़ा सा भी कष्ट सहने को तैयार नहीं थी और अपने शारीरिक आराम को ध्यान में रखने के बाद ही किसी चीज की योजना बनाती और उस पर विचार करती। कलीसिया ने मेरे लिए नवागंतुकों का सिंचन करने और सिंचनकर्ताओं को विकसित करने की व्यवस्था की थी। यह मेरी जिम्मेदारी थी। लेकिन मुझे हमेशा लगता था कि मेरा कर्तव्य थकाऊ है और इससे मुझे नुकसान होता है, इसलिए मैं इसे लापरवाही से करती थी। यहाँ तक कि जब मैंने कुछ सिंचनकर्ताओं की खराब दशाएँ देखीं, तो मैंने उनकी दशाओं का समाधान करने के लिए उनके साथ संगति नहीं की। कुछ नवागंतुकों को गिरफ्तारी का डर था, इसलिए वे नकारात्मक और कमजोर हो गए और तियान युन ने अभी-अभी प्रशिक्षण शुरू किया था, वह स्पष्ट रूप से सत्य की संगति नहीं कर पाई। मुझे नवागंतुकों को सहारा देने के लिए उसका मार्गदर्शन करना चाहिए था, लेकिन असल में भौतिक सुख-सुविधाओं के लालच में मैंने उनके साथ संगति करने के लिए तियान युन का मार्गदर्शन नहीं किया, जिसके कारण नवागंतुकों के मुद्दे अनसुलझे रह गए और तियान युन कठिनाइयों में फँस गई। इसने न केवल नवागंतुकों का जीवन प्रभावित किया, बल्कि सिंचनकर्ताओं को विकसित करने में भी देरी की और इस बीच मैं अंधेरे और असहनीय दर्द में जी रही थी, मैंने लगभग अपना कर्तव्य त्याग दिया था और परमेश्वर से विश्वासघात कर ही दिया था। तब जाकर मुझे पता चला कि सुख-सुविधाओं का लालच करने के परिणाम कितने गंभीर थे। अगर मैं न बदली, तो अंततः बरबाद हो जाऊँगी। इतने सालों तक परमेश्वर के घर ने मुझे विकसित किया था, लेकिन अब जब कलीसिया में कई नवागंतुकों के सिंचन की जरूरत थी, तो मैंने यह नहीं सोचा कि नवागंतुकों का अच्छी तरह से सिंचन करने और सिंचनकर्ताओं को विकसित करने का ऋण कैसे चुकाया जाए। इसके बजाय मैंने कड़ी मेहनत से परहेज किया और महत्वपूर्ण क्षणों में मैं कठिनाई देखकर पीछे हट गई और आलस का सहारा लिया। मैं सचमुच स्वार्थी और घृणित थी! साथ ही मैंने यह भी समझा कि परमेश्वर ने इस परिवेश की व्यवस्था जान-बूझकर मेरे लिए चीजें कठिन बनाने को नहीं की है, बल्कि इसका उपयोग मेरी भ्रष्टता उजागर करने और मुझे अपने देह के खिलाफ विद्रोह करने, शैतान द्वारा डाले गए इन भ्रष्ट विचारों और दृष्टिकोणों से खुद को मुक्त करने, परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने और मानवता वाला व्यक्ति बनने का अनुसरण करने के लिए किया है। यह मेरे लिए परमेश्वर का उद्धार था!
तब मैंने परमेश्वर के वचनों को फिर से पढ़ा : “जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वे सभी ऐसे व्यक्ति होते हैं जो अपना उचित कार्य करते हैं, वे सभी अपने कर्तव्य निभाने के इच्छुक होते हैं, वे किसी कार्य का दायित्व लेकर उसे अपनी काबिलियत और परमेश्वर के घर के विनियमों के अनुसार अच्छी तरह से करने में सक्षम होते हैं। निस्संदेह शुरू में इस जीवन के साथ सामंजस्य बैठाना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। तुम शारीरिक और मानसिक रूप से थका हुआ महसूस कर सकते हो। लेकिन अगर तुम में वास्तव में सहयोग करने का संकल्प है और एक सामान्य और अच्छा इंसान बनने और उद्धार प्राप्त करने की इच्छा है, तो तुम्हें थोड़ी कीमत चुकानी होगी और परमेश्वर को तुम्हें अनुशासित करने देना होगा। जब तुममें जिद्दी होने की तीव्र इच्छा हो, तो तुम्हें उसके खिलाफ विद्रोह कर उसे त्याग देना चाहिए, धीरे-धीरे अपना जिद्दीपन और स्वार्थपूर्ण इच्छाएँ कम करनी चाहिए। तुम्हें निर्णायक मामलों में निर्णायक समय पर और निर्णायक कार्यों में परमेश्वर की मदद लेनी चाहिए। अगर तुम में संकल्प है, तो तुम्हें परमेश्वर से कहना चाहिए कि वह तुम्हें ताड़ना देकर अनुशासित करे, और तुम्हें प्रबुद्ध करे ताकि तुम सत्य समझ सको, इस तरह तुम्हें बेहतर परिणाम मिलेंगे। अगर तुम में वास्तव में दृढ़ संकल्प है और तुम परमेश्वर की उपस्थिति में उससे प्रार्थना कर विनती करते हो, तो परमेश्वर कार्य करेगा। वह तुम्हारी अवस्था और तुम्हारे विचार बदल देगा। अगर पवित्र आत्मा थोड़ा-सा कार्य करता है, तुम्हें थोड़ा प्रेरित और थोड़ा प्रबुद्ध करता है, तो तुम्हारा हृदय बदल जाएगा और तुम्हारी अवस्था रूपांतरित हो जाएगी। जब यह रूपांतरण होता है, तो तुम महसूस करोगे कि इस तरह से जीना दमनात्मक नहीं है। तुम्हारी दमित अवस्था और भावनाएँ रूपांतरित होकर हलकी हो जाएँगी, और वे पहले से अलग होंगी। तुम महसूस करोगे कि इस तरह जीना थका देने वाला नहीं है। तुम्हें परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने में आनंद मिलेगा। तुम महसूस करोगे कि इस तरह से जीना, आचरण करना और अपना कर्तव्य निभाना, कठिनाइयाँ सहना और कीमत चुकाना, नियमों का पालन करना और सिद्धांतों के आधार पर काम करना अच्छा है। तुम महसूस करोगे कि सामान्य लोगों को इसी तरह का जीवन जीना चाहिए। जब तुम सत्य के अनुसार जीते हो और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाते हो, तो तुम महसूस करोगे कि तुम्हारा दिल स्थिर और शांत है और तुम्हारा जीवन सार्थक है। ... हर वयस्क को एक वयस्क की जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, चाहे उन्हें कितने भी दबाव का सामना करना पड़े, जैसे मुसीबतें, बीमारियाँ, यहाँ तक कि विभिन्न कठिनाइयाँ भी—ये वे चीजें हैं जो सभी को अनुभव करनी और सहनी चाहिए। ये एक सामान्य व्यक्ति के जीवन का हिस्सा होती हैं। अगर तुम दबाव नहीं झेल सकते या पीड़ा नहीं सह सकते, तो इसका मतलब है कि तुम बहुत नाजुक और बेकार हो। जो जीवित है, उसे यह कष्ट अवश्य सहना होगा, और कोई भी इसे टाल नहीं सकता। चाहे समाज में हो या परमेश्वर के घर में, यह सभी के लिए समान होती है। यही वह जिम्मेदारी है जिसे तुम्हें उठाना चाहिए, एक भारी बोझ जिसे एक वयस्क को उठाना चाहिए, वह चीज जो उसे उठानी चाहिए, और तुम्हें इससे बचना नहीं चाहिए। अगर तुम हमेशा इस सबसे बचने या इसे त्यागने का प्रयास करते हो, तो तुम्हारी दमनात्मक भावनाएँ बाहर निकल आएँगी, और तुम हमेशा उनमें उलझे रहोगे। हालाँकि अगर तुम यह सब ठीक से समझ और स्वीकार सको, और इसे अपने जीवन और अस्तित्व का एक आवश्यक हिस्सा मानो, तो ये मुद्दे तुम्हारे लिए नकारात्मक भावनाएँ विकसित करने का कारण नहीं होने चाहिए। एक लिहाज से तुम्हें वे जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभाना सीखना चाहिए, जो वयस्कों को लेने और उठाने चाहिए। दूसरे लिहाज से तुम्हें अपने रहने और काम करने के परिवेश में दूसरों के साथ सामान्य मानवता के साथ सामंजस्यपूर्वक रहना सीखना चाहिए। बस जैसा चाहे वैसा मत करो। सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व का क्या उद्देश्य होता है? यह काम बेहतर ढंग से पूरा करने और वे दायित्व और जिम्मेदारियाँ बेहतर ढंग से निभाने के लिए है, जिन्हें एक वयस्क के रूप में तुम्हें पूरा करना और निभाना चाहिए, ताकि तुम्हारे काम में आने वाली समस्याओं के कारण होने वाला नुकसान कम किया जा सके, और तुम्हारे कार्य के परिणाम और दक्षता बढ़ाई जा सके। यही वह चीज है जो तुम्हें हासिल करनी चाहिए। अगर तुम में सामान्य मानवता है, तो तुम्हें लोगों के बीच काम करते समय इसे हासिल करना चाहिए। जहाँ तक काम के दबाव की बात है, चाहे यह ऊपर वाले से आता हो या परमेश्वर के घर से, या अगर यह दबाव तुम्हारे भाई-बहनों द्वारा तुम पर डाला गया हो, यह ऐसी चीज है जिसे तुम्हें सहन करना चाहिए। तुम यह नहीं कह सकते, ‘यह बहुत ज्यादा दबाव है, इसलिए मैं इसे नहीं करूँगा। मैं बस अपना कर्तव्य करने और परमेश्वर के घर में काम करने में फुरसत, सहजता, खुशी और आराम तलाश रहा हूँ।’ यह नहीं चलेगा; यह ऐसा विचार नहीं है जो किसी सामान्य वयस्क में होना चाहिए, और परमेश्वर का घर तुम्हारे आराम करने की जगह नहीं है। हर व्यक्ति अपने जीवन और कार्य में एक निश्चित मात्रा में दबाव और जोखिम उठाता है। किसी भी काम में, खास तौर से परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम्हें इष्टतम परिणामों के लिए प्रयास करना चाहिए” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (5))। परमेश्वर के वचनों से मैंने लोगों के लिए परमेश्वर की अपेक्षाओं को समझा। सामान्य मानवता वाला वयस्क होने के नाते, व्यक्ति को अपनी जिम्मेदारियाँ उठानी चाहिए और अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने चाहिए, जिसके लिए कष्ट उठाने, कीमत चुकाने और सत्य सिद्धांतों में प्रयास करने की जरूरत होती है। उन्हें लगातार अपनी देह के बारे में नहीं सोचना चाहिए। व्यक्ति को अपने कर्तव्यों के प्रति यही रवैया रखना चाहिए। मैंने सोचा कि कैसे कुछ भाई-बहन अगुआओं, पर्यवेक्षकों, सुसमाचार कार्यकर्ताओं के रूप में सेवाएँ दे रहे हैं या कलीसिया में सामान्य मामलों के कर्तव्य निभा रहे हैं और कैसे अपनी उम्र की परवाह किए बगैर वे सभी अपने कार्य निभाते हैं और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करते हैं जबकि मैं लगातार शिकायत कर रही हूँ और अपनी जिम्मेदारी और कर्तव्य निभाने में विफल हो रही हूँ। मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई। इतने सालों तक परमेश्वर का अनुसरण करने और परमेश्वर के वचनों से इतने सारे सिंचन और पोषण का आनंद लेने के बावजूद मैं परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील नहीं थी और हमेशा शारीरिक आराम की लालसा रखती थी। मैं वास्तव में इंसान कहलाने योग्य नहीं थी! कलीसिया ने मेरे लिए नवागंतुकों का सिंचन करने और सिंचनकर्ताओं को विकसित करने की व्यवस्था की थी। यह परमेश्वर द्वारा मेरा उत्थान था। मुझे विचार करना चाहिए कि मैं कैसे अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाऊँ, और जल्दी से सिंचनकर्ताओं विकसित करूँ। मैंने यह भी समझा कि चाहे मैं कितनी भी कठिनाइयों या पीड़ा का सामना करूँ, यह आदेश को अस्वीकार करने का कारण नहीं है और निश्चित रूप से इससे मुझे दमित महसूस नहीं करना चाहिए। इसके बजाय मुझे ये कठिनाइयाँ हल करने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए और सत्य की खोज करनी चाहिए।
थोड़ी देर बाद मैंने पाया कि एक नवागंतुक बहन टिंगटिंग में अच्छी समझ थी और वह विकसित करने के लिए उपयुक्त थी। मगर यह देखते हुए कि मैं पहले से ही कुछ सिंचनकर्ताओं को विकसित कर रही थी और नवागंतुकों के सिंचनकार्य के लिए जिम्मेदार थी, अगर मैं टिंगटिंग को भी विकसित करती, तो मेरे पास आराम करने के लिए और भी कम समय बचता। इसके अलावा टिंगटिंग ने छह महीने पहले से ही परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया था, वह कई सत्य नहीं समझती थी और उसे विकसित करने के लिए काफी प्रयास करने की जरूरत थी, इसलिए मैंने अन्य सिंचनकर्ताओं से उसे विकसित कराने का फैसला किया। बाद में मुझे एहसास हुआ कि मेरी यह दशा गलत थी और मैं अभी भी चीजों के बारे में चिंता नहीं करना चाहती थी, कीमत नहीं चुकाना चाहती थी या थका हुआ और पीड़ित महसूस नहीं करना चाहती थी। मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश के बारे में सोचा : “जब ऐसा कुछ होता है, जिसमें तुम्हें कठिनाई झेलने की आवश्यकता होती है, तो उस समय तुम्हें समझना चाहिए कि परमेश्वर के इरादे क्या हैं, और कैसे तुम्हें उसके इरादों के प्रति विचारशील रहना चाहिए। तुम्हें स्वयं को संतुष्ट नहीं करना चाहिए : पहले अपने आप को एक तरफ रख दो। देह से अधिक अधम कोई और चीज नहीं है। तुम्हें परमेश्वर को संतुष्ट करने की कोशिश करनी चाहिए, और अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए। ऐसे विचारों के साथ, परमेश्वर इस मामले में तुम पर अपनी विशेष प्रबुद्धता लाएगा, और तुम्हारे हृदय को भी आराम मिलेगा” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल परमेश्वर से प्रेम करना ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करना है)। मुझे एहसास हुआ कि मुझे केवल अपने दैहिक आराम के बारे में ही नहीं सोचना चाहिए। मुझे इस बात पर विचार करना चाहिए कि मैं परमेश्वर को कैसे संतुष्ट करूँ और कलीसिया के कार्य को कैसे लाभ पहुँचाऊं। टिंगटिंग में अच्छी काबिलियत, शुद्ध समझ और खोजने की प्रबल इच्छा थी और अगर उसे विकसित किया जाए, तो वह कुछ कार्य कर सकती है। मुझे उसे जल्द से जल्द कर्तव्य निभाने में सक्षम बनाना था। इससे कार्य को फायदा होगा और उसके जीवन के विकास में भी मदद मिलेगी। उसके बाद मैंने टिंगटिंग के साथ संगति करने का समय निकालने और सिंचनकार्य करने के बारे में मार्गदर्शन देने का प्रयास किया। हालाँकि कभी-कभी मुझे काफी थकान होती थी और मुझे कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था, लेकिन अब मैं दमित महसूस नहीं करती थी, बल्कि वास्तव में सहयोग करने के लिए अपनी देह के खिलाफ विद्रोह करती थी। मुझमें यह बदलाव परमेश्वर के वचनों का नतीजा था। परमेश्वर का धन्यवाद!