90. मैं अपने भाग्य को लेकर फिर कभी शिकायत नहीं करूँगी
मेरा जन्म एक साधारण किसान परिवार में हुआ था और अपनी आजीविका चलाने के लिए मेरे माता-पिता फसलें उगाते थे। हमारे गाँव में एक संपन्न परिवार रहता था और उसके पास एक बड़ा और सुंदर घर था। बच्चों के पास अक्सर पहनने को नए कपड़े और खाने के लिए अच्छा खाना होता था। मैं उनसे बहुत ईर्ष्या करती थी। मुझे लगता था कि मुझे अच्छी तरह पढ़ना चाहिए, भविष्य में एक अच्छे विश्वविद्यालय में दाखिला लेना चाहिए और अच्छी नौकरी लेनी चाहिए। इस तरह मैं भीड़ से अलग दिखूँगी, लोग मेरे बारे में अच्छा सोचेंगे और मुझसे ईर्ष्या करेंगे। लेकिन हाई स्कूल के अपने पहले वर्ष के दौरान मुझे सिस्टेमिक ल्यूपस एरिथेमाटोसस का पता चला। यह गठिया रोग संबंधी एक लाइलाज ऑटो इम्यून बीमारी है। इसमें जीवन भर दवा लेनी पड़ती है। उस समय मैं बहुत उदास थी और मुझे नहीं पता था कि मुझे यह बीमारी क्यों हुई। मैंने अपनी सारी ऊर्जा पढ़ाई में लगा दी। मेरे ग्रेड्स अक्सर कक्षा में सबसे अच्छे होते थे, मेरा खयाल था कि अगर मैं एक आदर्श विश्वविद्यालय में प्रवेश पा सकी, तो मैं फिर से अपना भाग्य लिख पाऊँगी। लेकिन अप्रत्याशित रूप से, परीक्षा से कोई बीस दिन पहले मुझे तेज बुखार आया जो कम नहीं हो रहा था और मुझे इलाज के लिए अस्पताल में रहना पड़ा, इससे परीक्षा में मेरे प्रदर्शन पर असर पड़ा। आखिरकार मैं एक आदर्श विश्वविद्यालय में नहीं जा पाई और केवल एक साधारण व्यावसायिक कॉलेज में दाखिला मिला। लेकिन मैं अपने भाग्य के आगे झुकने को तैयार नहीं थी, और उस कॉलेज में प्रवेश लेने के बाद मैंने विश्वविद्यालय प्रवेश की परीक्षा की तैयारी के लिए एक कक्षा में दाखिला ले लिया। लेकिन केवल छमाही कक्षाओं के बाद ही मेरी तबियत और बिगड़ गई। मुझे अक्सर हल्का बुखार रहता था, मेरे हाथ-पैर के जोड़ों में सूजन आ जाती थी और दर्द होता था, यहाँ तक कि सीढ़ियाँ चढ़ना भी मुश्किल हो जाता था। कई बार ऐसा भी होता था कि मैं अपना थर्मस भी साथ नहीं ले जा पाती थी। आखिरकार मेरे पास स्कूल छोड़ने और घर लौटने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। मेरी उम्र के मेरे दोस्त स्वस्थ थे और अपने सपने पूरे करने की दिशा में काम कर रहे थे। मैं बस आसमान की ओर देखती और आहें भरती थी, सोचती थी, “मेरे साथ भाग्य इतना बुरा क्यों कर रहा है? मुझ पर ही इतनी परेशानियाँ क्यों आईं?” मैं अक्सर हर किसी को और हर चीज को दोष देती थी, और कभी-कभी तो मरने के बारे में भी सोचती थी। लेकिन माता-पिता को मेरे लिए फिक्रमंद देखकर आत्महत्या करने का दिल न करता। मैं बस असहाय होकर दिन काटती रहती थी।
फिर मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत दिनों के कार्य को स्वीकार कर लिया। मेरी सेहत काफी हद तक ठीक हो गई और मैं सामान्य जीवन जी सकती थी। एक अगुआ ने मेरे लिए वीडियो प्रोडक्शन की व्यवस्था की। तब मैं काफी उत्सुक रहती थी और पूरे जोश से वीडियो तैयार करने का काम सीखती थी। बाद में मुझे सुपरवाइजर की भूमिका पर पदोन्नत कर दिया गया, मैं बेहद खुश थी। मैं अपने काम के दौरान और अधिक सक्रिय हो गई। कभी-कभी मुझे हल्का बुखार आ जाता था, पर मैं अपना कार्य करने में लगी रहती थी। बाद में, मेरी सेहत की स्थिति देखते हुए, अगुआ ने मेरे घर लौटने और वहाँ मैं जो भी काम कर सकती थी, उसे करने की व्यवस्था कर दी। मैं थोड़ी खोई-खोई सी रहती थी। ऐसा लगता था कि मुझे कभी भी विकसित होने का मौका नहीं मिलेगा, मैंने सोचा, “क्या यह सब इस भयानक बीमारी की वजह से नहीं है? मेरा भाग्य वास्तव में बुरा है।” उसके बाद मैंने कलीसिया में पाठ-आधारित कर्तव्य निभाए। मैं अक्सर सोचती थी, “मैं केवल पाठ-आधारित काम ही कर रही हूँ; मैं विशिष्ट नहीं हो पाऊँगी या मुझ पर किसी का ध्यान नहीं जाएगा।” मैं बहुत उदास थी। यह देखकर कि कैसे अगुआ अक्सर परमेश्वर के वचनों पर संगति करने और समस्याएँ हल करने विभिन्न सभा स्थलों पर जाते हैं, बेहद प्रभावशाली और सफल दिखते हैं, मैंने मन ही मन सोचा, “अगर मैं सत्य को थोड़ा और समझ पाती और भाई-बहनों की दशाओं से जुड़कर उनके मुद्दे हल कर पाती, तो शायद हर कोई मुझे भी अगुआ के रूप में चुनता।” इसलिए जब भी मैं सभा में जाती मैं भाई-बहनों की दशाओं पर ध्यान देती। जब मैं घर जाती, तो मैं परमेश्वर के कुछ वचन ढूँढ़ती और फिर अगली सभा में भाई-बहनों के साथ इन वचनों पर संगति करती। जाहिर है कि सबको अपनी संगति ध्यान से सुनते देखकर मुझे बहुत खुशी होती थी। जब सब कुछ सही दिशा में चल रहा था, तो एक सभा में जाते समय मैं अपनी बाइक से गिर गई। मेरे पैर में इतनी गहरी चोट लगी कि मैं चल नहीं पाती थी, और मुझे ठीक होने तक घर पर रहना पड़ा। मैं बहुत उलझन में थी, सोचने लगी, “मैं हाल ही में अपने कर्तव्य में काफी सक्रिय रही हूँ; अचानक मेरे साथ ऐसा कैसे हो सकता है? मैं इतनी बदकिस्मत क्यों हूँ?” जिस बात ने मुझे और ज्यादा परेशान किया, वह यह थी कि कलीसिया में जल्द ही चुनाव होने वाले थे; मैंने सोचा था कि मैं चुनी जा सकती हूँ, लेकिन अगुआ ने मुझसे कहा, “अगुआओं के पास कलीसिया के सभी कामों की जिम्मेदारी होती है। तुम्हारी खराब सेहत को देखते हुए मुझे लगता है तुम थक जाओगी। बेहतर होगा कि तुम पाठ-आधारित कर्तव्यों पर ही टिकी रहो।” अगुआ की बात सुनकर मुझे लगा जैसे किसी ने मेरे ऊपर ठंडा पानी डाल दिया हो, मेरा उत्साह खत्म हो गया। ऐसा लगा कि अगुआ बनना मेरे बस की बात नहीं है। फिर सभाओं में जाने पर मेरे अंदर पहले वाला जोश नहीं रहा। मैं भाई-बहनों की समस्याओं पर विचार करने का प्रयास नहीं करना चाहती थी। उस समय नई चुनी गई अगुआ चेन फैंग मेरी ही उम्र की थी और मैं वास्तव में उससे ईर्ष्या करती थी। वह स्वस्थ थी और उसे अगुआ के रूप में चुना जा सकता था, जबकि मैं केवल पाठ-आधारित कर्तव्य ही निभा सकती थी। मैंने मन ही मन शिकायत की, सोचने लगी, “मैं खुद को परमेश्वर के लिए पूरी लगन से खपाना चाहती हूँ; मेरा शरीर इतना कमजोर क्यों है? मेरे पास दिल है लेकिन ताकत नहीं है। मेरा भाग्य वाकई बहुत खराब है।” चकराकर मैंने सोचा, “हालाँकि मैं अगुआ नहीं बन सकती, अगर मैं अपने पाठ-आधारित कर्तव्यों में कुछ उपलब्धियाँ हासिल कर लूँ, तो क्या भाई-बहन तब भी मेरे बारे में बहुत अच्छा नहीं सोचेंगे?” इस बात को ध्यान में रखते हुए, मैंने उत्सुकता से पांडुलिपियों का निरीक्षण किया। लेकिन साल के अंत तक मेरे पैर में इतना दर्द होने लगा कि मैं चल नहीं पाती थी। खून की कमी की वजह से मेरी हड्डियाँ कमजोर हो गई थीं। इसके तुरंत बाद कलीसिया में गिरफ्तारियाँ हुईं और मैं भाई-बहनों से संपर्क करने बाहर नहीं जा सकी। मैं यह सोचकर बेहद उदास हो गई, “मेरा भाग्य इतना बुरा कैसे निकला? पहले मैं अपने भाग्य को बदलने के लिए पढ़ाई करना चाहती थी, पर यह योजना के अनुसार नहीं हो पाया। मैंने सोचा था कि परमेश्वर में विश्वास करने के बाद मैं एक अच्छा भाग्य पा सकूँगी, लेकिन चीजें फिर भी मेरे लिए ठीक नहीं रहीं। मेरी बीमारी अभी भी गंभीर है और मैं खतरनाक परिस्थितियों के कारण अपना कर्तव्य नहीं निभा सकती। मेरे चमकने का दिन कभी नहीं आएगा। मेरे भाग्य में दुख भोगना लिखा है!” मैं दिनभर रोती रही और मुझे नहीं पता था कि मुझे कैसे जीना चाहिए। उस समय मेरे मन में यह भी आया कि मैं लेख लिख सकती हूँ, लेकिन जैसे ही मैं अपने भाग्य के बारे में सोचती कि कैसे मेरे सारे प्रयास बेकार हो जाएँगे, तो मैं लिखने की मनःस्थिति में न होती और मेरा पूरा दिन अवसाद की स्थिति में बीत जाता।
एक दिन पास में रहने वाली एक बहन परमेश्वर के कुछ वचन लेकर आई। मैं परमेश्वर की बहुत आभारी थी, मैंने उससे प्रार्थना की, “परमेश्वर, तुम्हारी दया के लिए धन्यवाद। इस दौरान, मैं अवसाद की स्थिति में जीती रही हूँ। मैं सोचती रही हूँ कि मेरा भाग्य बुरा है, इसलिए मैंने सत्य की खोज नहीं की या सबक नहीं सीखा। परमेश्वर, मैं बहुत विद्रोही हूँ!” बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े और अपनी स्थिति के बारे में कुछ समझ हासिल की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “प्रत्येक व्यक्ति के लिए हताशा की नकारात्मक भावना पैदा होने का मूल कारण अलग होता है। किसी एक प्रकार के व्यक्ति में इस बात से हताशा की भावना आ सकती है कि वह अपनी भयावह नियति के ख्याल से निरंतर घिरा रहता है। क्या यह एक कारण नहीं है? (अवश्य है।) ऐसे लोगों का बचपन गाँव-कस्बे या किसी गरीब इलाके में गुजरा था, उनका परिवार समृद्ध नहीं था, कुछ जरूरी चीजों के अलावा उनके परिवार के पास कीमती चीजें नहीं थीं। शायद उनके पास पहनने के लिए एक-दो जोड़ी फटे-पुराने कपड़े थे, आमतौर पर वे कभी भी अच्छा भोजन नहीं खा पाते थे, और उन्हें माँस-मच्छी खाने के लिए नए साल या छुट्टियों की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। कभी-कभी वे भूखे रह जाते थे, उनके पास शरीर को गर्म रखने के लिए पर्याप्त कपड़े भी नहीं थे, कटोरा भर माँस-मच्छी खाना उनके लिए बस एक सपना था और खाने को एक टुकड़ा फल पाना भी मुश्किल था। ऐसे माहौल में रहते हुए वे बड़े शहरों में रहने वाले उन दूसरे लोगों से अलग महसूस करते, जिनके माता-पिता समृद्ध थे, जो अपने मन का खा और पहन सकते थे, जिनकी पसंद की हर चीज उन्हें फौरन मिल जाती थी और जिन्हें चीजों का अच्छा ज्ञान था। वे सोचते, ‘ये लोग बहुत भाग्यशाली हैं। मेरा भाग्य इतना खराब क्यों है?’ वे हमेशा भीड़ में अलग दिखना चाहते हैं, अपनी नियति बदलना चाहते हैं। मगर किसी के लिए अपनी नियति बदलना इतना आसान नहीं होता। जब कोई ऐसी स्थिति में पैदा होता है, तो कोशिश करके भी वह अपने भाग्य को कितना बदल सकता है, उसे कितना बेहतर बना सकता है? वयस्क होने के बाद ऐसे लोग समाज में जहाँ भी जाते हैं, बाधाएँ उन्हें रोक देती हैं, हर कहीं उन्हें डराया-धमकाया जाता है, ऐसे में वे हमेशा बड़ा अभागा महसूस करते हैं। उन्हें लगता है, ‘मैं इतना अभागा क्यों हूँ? मेरी मुलाकात हमेशा कमीनों से क्यों होती है? बचपन में मेरा जीवन मुश्किलों में गुजरा, बस ऐसा ही था। अब मेरे बड़े हो जाने पर भी इतना ही बुरा हाल है। मैं हमेशा दिखाना चाहता हूँ कि मैं क्या कर सकता हूँ, मगर मुझे कभी मौका नहीं मिलता। मुझे मौका न मिले, तो न मिले। मैं बस कड़ी मेहनत कर अच्छी जिंदगी जीने के लिए काफी पैसा कमाना चाहता हूँ। मैं इतना भी क्यों नहीं कर सकता? अच्छी जिंदगी जीना इतना मुश्किल कैसे हो सकता है? मुझे बाकी सबसे बेहतर जिंदगी जीने की जरूरत नहीं। मैं कम-से-कम एक शहरी की जिंदगी जीना चाहता हूँ, ऐसी कि लोग मुझे हेय दृष्टि से न देखें, मैं दूसरे-तीसरे दर्जे का नागरिक न रहूँ। कम-से-कम जब लोग मुझे पुकारें, तो यूँ न चिल्लाएँ, ‘ए सुन, इधर आ!’ कम-से-कम वे मुझे मेरे नाम से पुकारें, आदर से संबोधित करें। लेकिन मुझे आदर से संबोधित किए जाने का आनंद भी नहीं मिलता। मेरा भाग्य इतना क्रूर क्यों है? यह कब खत्म होगा?’ जब ऐसे व्यक्ति को परमेश्वर में विश्वास नहीं था, तो वह भाग्य को क्रूर मानता था। मगर परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद और यह देखकर कि यही सच्चा मार्ग है, उसने सोचा, ‘पहले का वह सारा कष्ट इस लायक था। यह परमेश्वर द्वारा आयोजित और किया गया था, और उसने यह अच्छे से किया। यदि मैंने उस तरह कष्ट नहीं सहा होता, तो परमेश्वर में विश्वास नहीं रखा होता। अब चूँकि मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, तो यदि मैं सत्य को स्वीकार कर सकूँ, तो मेरी नियति बदल कर बेहतर होनी चाहिए। मैं अब कलीसिया में भाई-बहनों के साथ बराबरी का जीवन जी सकता हूँ, लोग मुझे ‘भाई’ या ‘बहन’ कहकर पुकारते हैं, और मुझसे आदरपूर्वक बात करते हैं। मैं अब दूसरों से सम्मान पाने की भावना का आनंद लेता हूँ।’ ऐसा लगता है मानो उसकी नियति बदल गई है, वह कष्ट नहीं सह रहा है, और अब वह अभागा नहीं रहा। एक बार परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद, ऐसे लोग परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने की ठान लेते हैं, वे कठिनाइयाँ झेलने और कड़ी मेहनत करने लायक हो जाते हैं, हर मामले में किसी भी दूसरे से ज्यादा सहने में समर्थ हो जाते हैं, और वे ज्यादातर लोगों की स्वीकृति और आदर पाने का प्रयत्न करते हैं। उन्हें लगता है कि शायद उन्हें कलीसिया अगुआ, कोई प्रभारी या टीम अगुआ भी चुना जा सकता है, और तब क्या वे अपने पूर्वजों और अपने परिवार का सम्मान नहीं बढ़ाएंगे? तब क्या उन्होंने अपनी नियति नहीं बदल ली होगी? मगर वास्तविकता उनकी कामनाओं पर खरी नहीं उतरती और वे मायूस होकर सोचते हैं, ‘मैंने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, और अपने भाई-बहनों से मेरे अच्छे संबंध हैं, लेकिन ऐसा क्यों है कि जब कभी अगुआ, प्रभारी या टीम अगुआ चुनने का समय आता है, मेरी बारी कभी नहीं आती? क्या इसलिए कि मैं दिखने में बहुत साधारण हूँ, या मेरा कामकाज बढ़िया नहीं रहा, और मुझ पर किसी का ध्यान नहीं गया? हर बार चुनाव होने पर मुझे थोड़ी-सी आशा होती है, और मैं एक टीम अगुआ भी चुन लिया जाऊँ तो मुझे खुशी होगी। मुझमें परमेश्वर का प्रतिदान करने का बड़ा जोश है, मगर हर बार चुनाव के समय चुने न जाने के कारण मैं निराश हो जाता हूँ। इसका कारण क्या है? क्या इसलिए कि मैं जीवन भर सच में सिर्फ एक औसत, साधारण और मामूली व्यक्ति ही बना रहूँगा? जब मैं पीछे मुड़कर अपने बचपन, अपने यौवन और अपनी अधेड़ उम्र को देखता हूँ, तो जिस मार्ग पर मैं चला हूँ, वह हमेशा बेहद मामूली रहा है और मैंने कुछ भी उल्लेखनीय नहीं किया है। ऐसी बात नहीं है कि मेरी कोई महत्वाकांक्षा नहीं है या मेरी क्षमता बहुत कम है, ऐसा भी नहीं है कि मैं पर्याप्त प्रयास नहीं करता या कठिनाइयाँ नहीं झेल सकता। मेरे संकल्प हैं, मेरे लक्ष्य हैं, और कह सकते हैं कि मैं महत्वाकांक्षी भी हूँ। तो फिर ऐसा क्यों है कि मैं कभी भी भीड़ में सबसे अलग नहीं दिख सकता? अंतिम विश्लेषण यही है कि मेरा ही भाग्य खराब है, दुख सहना मेरी नियति है, और परमेश्वर ने मेरे लिए ऐसी ही व्यवस्था की है।’ वे इस बारे में जितना सोचते हैं, उन्हें लगता है कि उनका भाग्य उतना ही खराब है। ... उनके साथ जो भी होता है, उसे वे हमेशा अपनी खराब किस्मत से जोड़ देते हैं; अपनी खराब किस्मत के विचार पर वे निरंतर प्रयास करते हैं, इसकी और गहरी समझ और गुण-दोष विवेचना पाने की कोशिश करते हैं, और जब वे इस बारे में और चिंतन करते हैं, तो अधिक हताशा में डूब जाते हैं। अपने कर्तव्य में कोई मामूली-सी गलती करने पर वे सोचते हैं, ‘ओह, मेरी किस्मत इतनी बुरी है, तो मैं अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से कैसे निभा सकता हूँ?’ सभाओं में भाई-बहन संगति करते हैं, तो वे बार-बार सोचकर भी उनकी बातें नहीं समझ पाते और सोचते हैं, ‘ओह, ऐसी फूटी किस्मत हो, तो मैं भला ये बातें कैसे समझ सकता हूँ?’ जब कभी वे ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जो उनसे बेहतर बोलता है, जो अपनी समझ के बारे में उनसे अधिक स्पष्ट और प्रकाशमान ढंग से चर्चा करता है, तो वे और अधिक हताश हो जाते हैं। जब वे किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जो कठिनाइयाँ सह सकता है, कीमत चुका सकता है, जिसे अपने कर्तव्य-निर्वहन में परिणाम मिलता है, जिसे भाई-बहनों की स्वीकृति मिलती है, और जो पदोन्नत होता है, तो वे दिल से दुखी हो जाते हैं। जब वे किसी को अगुआ या कार्यकर्ता बनते देखते हैं, तो हताशा में और अधिक डूब जाते हैं, और जब वे किसी व्यक्ति को खुद से बेहतर नाचते-गाते देखते हैं, तो उसकी अपेक्षा स्वयं को हीन महसूस करते हैं और हताश हो जाते हैं। किसी भी तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों से उनका सामना हो, या उनके सामने कैसी भी स्थितियाँ आएँ, वे हमेशा हताशा की इस भावना के साथ प्रतिक्रिया देते हैं। वे जब किसी को अपने से अच्छे कपड़े पहने या बेहतर बाल बनाए देखते हैं, तो हमेशा उदास हो जाते हैं, और उनके दिलों में ईर्ष्या और जलन पैदा हो जाती है, जब तक कि वे हताशा की उस भावना में लौट नहीं जाते” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। “अंत में, चूँकि वे हमेशा मानते हैं कि उनकी किस्मत खराब है, इसलिए वे मायूसी में डूब जाते हैं, किसी असल मकसद के बिना जीते हैं, बस खाते और सोते हैं, और मृत्यु की प्रतीक्षा करते हैं; इस तरह से वे सत्य का अनुसरण करने, अच्छे ढंग से अपना कर्तव्य निभाने, उद्धार प्राप्त करने, और परमेश्वर की ऐसी ही दूसरी अपेक्षाओं में उनकी रुचि घटती जाती है, और वे इन चीजों को और अधिक दूर करते और ठुकराते जाते हैं। वे सत्य का अनुसरण न करने और उद्धार प्राप्त न कर पाने के पीछे आदतन अपनी खराब किस्मत को कारण और आधार मान लेते हैं। उनका जिन स्थितियों से सामना होता है, उनमें वे अपने भ्रष्ट स्वभाव या नकारात्मक भावनाओं का विश्लेषण नहीं करते, और इस तरह अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानकर उसे दूर नहीं करते, बल्कि उनका जिस किसी व्यक्ति, घटना और चीज से सामना और अनुभव होता है, उसकी प्रतिक्रिया में वे खराब किस्मत की अपनी दृष्टि का प्रयोग करते हैं, नतीजतन वे हताशा की भावना में और गहरे डूब जाते हैं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर ने मेरी वास्तविक स्थिति को उजागर किया था। मुझे हमेशा लगता था कि मेरा भाग्य बुरा और क्रूर है, और इस वजह से मैं अक्सर अवसादग्रस्त रहती थी। जब मैं छोटी थी तो मैंने देखा कि मैं साधारण परिवार में जन्मी हूँ और पढ़ाई के सहारे ही अपना भाग्य बदल सकती हूँ, लेकिन दुर्भाग्य से हाई स्कूल के अपने पहले वर्ष में मुझे पता चला कि मेरा इम्यून सिस्टम कमजोर है। जब परीक्षा से ठीक पहले मेरी बीमारी फिर उभरी, तो मैं एक आदर्श विश्वविद्यालय में प्रवेश नहीं ले पाई। बाद में, मुझे अपनी सेहत की गंभीर स्थिति के कारण स्कूल छोड़कर घर जाना पड़ा। मुझे लगा कि अपना भाग्य बदलने के लिए ज्ञान पर भरोसा करने का कोई तरीका नहीं है, मेरे मन में बहुत पीड़ा होती थी और मैं अक्सर शिकायत करती कि मेरा भाग्य खराब है। परमेश्वर में विश्वास करने के बाद मैं हमेशा बेमन से चुपचाप पाठ-आधारित कर्तव्यों का पालन करती थी, मैं भाई-बहनों की अवस्थाओं को सक्रिय रूप से हल करके अगुआ के रूप में चुना जाना चाहती थी। लेकिन मेरी सेहत की स्थिति देखते हुए भाई-बहनों ने मुझे नहीं चुना। मुझे और भी ज्यादा लगने लगा कि मेरा भाग्य खराब है और मैं अब सभाओं में पहले की तरह सक्रिय नहीं रही थी। मेरी हालत देखते हुए कलीसिया ने मेजबान परिवार के घर पर मेरे रहने और पांडुलिपियों का निरीक्षण करने की व्यवस्था कर दी। मैं अभी भी कुछ उपलब्धियाँ हासिल करना चाहती थी और चाहती थी कि लोग मेरे बारे में अच्छा सोचें, लेकिन मेरी सेहत अचानक खराब हो गई और बिगड़ती तबियत के चलते काम के लिए मेरा बाहर जाना बंद हो गया। मैं और भी ज्यादा अवसाद की शिकार हो गई। मुझे लगा मैंने जो कुछ किया वह ठीक नहीं रहा और दुख सहना ही मेरा भाग्य है। मैं अवसाद में जी रही थी और मैंने हार मान ली, अब मैं सत्य का अनुसरण नहीं करना चाहती थी और अब लेख भी नहीं लिखना चाहती थी। मेरा मानना था कि मेरा भाग्य ही खराब है और अनुसरण करने का कोई मतलब नहीं रहा है। चीजों के बारे में मेरा दृष्टिकोण उन लोगों जैसा ही था जो परमेश्वर में विश्वास नहीं करते : विपत्तियों से जूझने के दौरान मैंने यह निष्कर्ष निकाल लिया था कि मेरा भाग्य ही खराब है और मैं अपनी किस्मत से जूझना चाहती थी। जब मैं लड़ाई हारी, तो मैं शिकायत करने लगी कि मेरा भाग्य खराब है। मैं वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास कर रही थी, पर उसके प्रति मेरा कोई सच्चा समर्पण नहीं था। मैं अपनी समस्याएँ हल करने के लिए सत्य नहीं खोजना जानती थी, केवल अवसाद की स्थिति में रहते हुए परमेश्वर पर दोष मढ़ती रहती थी। मैं खुद को परमेश्वर का विश्वासी कैसे कह सकती थी?
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े और जाना कि अच्छा या बुरा भाग्य जैसी कोई चीज नहीं होती। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “मनुष्य का भाग्य कैसा होगा, वह अच्छा होगा या बुरा, इसे लेकर परमेश्वर की व्यवस्था को मनुष्य या किसी भविष्यवक्ता की दृष्टि से देखा या मापा नहीं जाना चाहिए, न ही उसे इस अनुसार मापना चाहिए कि वह व्यक्ति अपने जीवनकाल में कितने धन और महिमा का आनंद लेता है, वह कितने कष्ट सहता है, या अपनी संभावनाओं, शोहरत और लाभ की तलाश में वह कितना सफल है। फिर भी ठीक यही गंभीर गलती वे लोग करते हैं जो कहते हैं कि उनका भाग्य खराब है, और साथ ही ज्यादातर लोग अपना भाग्य मापने में इसी तरीके का प्रयोग करते हैं। अधिकतर लोग अपना भाग्य कैसे मापते हैं? सांसारिक लोग कैसे मापते हैं कि किसी व्यक्ति का भाग्य अच्छा है या बुरा? सबसे पहले तो वे उसे इस आधार पर देखते हैं कि उस व्यक्ति का जीवन आराम से गुजर रहा है या नहीं, वह धन और महिमा का आनंद ले पाता है या नहीं, क्या वह दूसरों से बेहतर जीवनशैली के साथ जी पाता है, अपने जीवनकाल में वह कितने कष्ट सहता है और कितना आनंद ले पाता है, वह कितना लंबा जीवन जीता है, उसका करियर क्या है, उसका जीवन श्रमसाध्य है या आरामदेह और आसान है—वे किसी व्यक्ति का भाग्य अच्छा है या बुरा, यह मापने के लिए इनका और ऐसी ही दूसरी चीजों का प्रयोग करते हैं। क्या तुम भी इसे इसी तरह से नहीं मापते? (हाँ।) तो, जब तुममें से ज्यादातर लोगों का सामना किसी ऐसी चीज से होता है जो तुम्हें पसंद नहीं, जब मुश्किल वक्त आता है, या तुम बेहतर जीवनशैली का आनंद नहीं ले पाते, तो तुम सब सोचोगे कि तुम्हारा भाग्य भी खराब है, और हताशा में डूब जाओगे” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। “परमेश्वर ने बहुत पहले ही लोगों के भाग्य तय कर दिए थे, और उन्हें बदला नहीं जा सकता। यह ‘सौभाग्य’ और ‘दुर्भाग्य’ हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग होता है, और लोगों के परिवेश और इस बात पर निर्भर करता है कि वे कैसा महसूस करते हैं और किसका अनुसरण करते हैं। इसलिए किसी का भाग्य न तो अच्छा होता है न ही बुरा। हो सकता है कि तुम्हारा जीवन बहुत कष्टमय हो, पर शायद तुम सोचो, ‘मैं कोई आलीशान जिंदगी नहीं जीना चाहता। बस भरपेट खाना और पहनने के लिए पर्याप्त कपड़े हों, तो मैं खुश हूँ। अपने जीवनकाल में सभी कष्ट सहते हैं। सांसारिक लोग कहते हैं, ‘अगर बारिश न हो, तो तुम इंद्रधनुष नहीं देख सकते,’ तो कष्ट का अपना महत्व है। यह बहुत बुरा नहीं है, और मेरा भाग्य भी बुरा नहीं है। स्वर्ग ने मुझे कुछ पीड़ा, कुछ परीक्षण और तकलीफें दी हैं। ऐसा इसलिए कि वह मेरे बारे में अच्छी राय रखता है। यह सौभाग्य है!’ कुछ लोग सोचते हैं कि कष्ट सहना बुरा है, इसका अर्थ है कि उनका भाग्य खराब है, और सिर्फ ऐसे ही जीवन का अर्थ, जिसमें कष्ट न हों, आराम और आसानी हो, अच्छा भाग्य होना है। गैर-विश्वासी इसे ‘मत भिन्नता’ कहते हैं। परमेश्वर में विश्वास रखने वाले ‘भाग्य’ के इस मामले को किस तरह देखते हैं? क्या हम ‘सौभाग्य’ या ‘दुर्भाग्य’ होने की बात करते हैं? (नहीं।) हम ऐसी बातें नहीं कहते। मान लो कि परमेश्वर में विश्वास रखने के कारण तुम्हारा भाग्य अच्छा है, फिर यदि तुम अपने विश्वास में सही मार्ग पर नहीं चलते, तुम्हें दंडित किया जाता है, उजागर कर हटा दिया जाता है, तब इसका क्या अर्थ है, तुम्हारा भाग्य अच्छा है या खराब? यदि तुम परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, तो संभवतः तुम्हें उजागर किया या हटाया नहीं जा सकता। गैर-विश्वासी और धार्मिक लोग, लोगों को उजागर करने या समझने की बात नहीं करते, और वे निकाले या हटाए जा रहे लोगों की बात भी नहीं करते। इसका अर्थ होना चाहिए कि परमेश्वर में विश्वास रखने में समर्थ होने पर लोगों का भाग्य अच्छा है, मगर यदि अंत में वे दंडित होते हैं, तो क्या इसका अर्थ है कि उनका भाग्य खराब है? एक पल उनका भाग्य अच्छा है और दूसरे ही पल बुरा—तो फिर वह कैसा है? किसी का भाग्य अच्छा है या नहीं, यह एक ऐसी बात नहीं है जिसका फैसला हो सकता हो, लोग इसका फैसला नहीं कर सकते। यह सब परमेश्वर द्वारा होता है, और परमेश्वर की हर व्यवस्था अच्छी होती है। बस इतना ही है कि प्रत्येक व्यक्ति का भाग्य-पथ या उसका परिवेश, वे लोग, घटनाएँ और चीजें जिनसे उसका वास्ता पड़ता है, और अपने जीवन में वह जिस जीवन मार्ग का अनुभव करता है, वे सब भिन्न होते हैं; ये चीजें हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग होती हैं। प्रत्येक व्यक्ति के जीने के परिवेश और विकास करने के परिवेश की व्यवस्था परमेश्वर करता है और ये दोनों ही अलग होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवनकाल में जिन चीजों का अनुभव करता है, वे अलग-अलग होती हैं। कोई तथाकथित सौभाग्य या दुर्भाग्य नहीं होता—परमेश्वर इन सबकी व्यवस्था करता है, और परमेश्वर ही ये सब करता है। यदि हम इस मामले को इस नजरिए से देखें कि यह सब परमेश्वर करता है, परमेश्वर का हर कार्य अच्छा और सही होता है; तो बस इतना ही है कि लोगों के झुकाव, भावनाओं और चुनावों के नजरिए से देखें, तो कुछ लोग आरामदेह जीवन जीना चुनते हैं, शोहरत, लाभ, प्रतिष्ठा, संसार में समृद्धि और अपनी सफलता चुनते हैं। वे मानते हैं कि इसका अर्थ अच्छे भाग्य का होना है, और जीवन भर औसत दर्जे का और असफल रहना, हमेशा समाज के बिल्कुल निचले तबके में जीना भाग्य का खराब होना है। गैर-विश्वासियों और सांसारिक चीजों के पीछे भागने वाले और संसार में जीने की इच्छा रखने वाले सांसारिक लोगों के नजरिए से चीजें यूँ ही नजर आती हैं, और इस तरह से सौभाग्य और दुर्भाग्य का विचार पैदा होता है। सौभाग्य और दुर्भाग्य का विचार भाग्य के बारे में मनुष्य की संकीर्ण समझ और सतही नजरिए से, और लोग कितना शारीरिक कष्ट सहते हैं, कितना आनंद वे पाते हैं और कितनी शोहरत और लाभ वे प्राप्त करते हैं, इत्यादि पर लोगों की सोच से पैदा होता है। दरअसल, यदि हम इसे मनुष्य के भाग्य पर परमेश्वर की व्यवस्था और संप्रभुता के नजरिए से देखें, तो अच्छे भाग्य और बुरे भाग्य की ऐसी कोई व्याख्याएँ नहीं हैं। क्या यह सही नहीं है? (सही है।) यदि तुम परमेश्वर की संप्रभुता के नजरिए से मनुष्य के भाग्य को देखो, तो परमेश्वर जो भी करता है, वह अच्छा ही होता है, और हर व्यक्ति को इसी की जरूरत होती है। ऐसा इसलिए है कि पिछले और वर्तमान जीवन में कारण और प्रभाव अपनी भूमिका अदा करते हैं, ये परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित होते हैं, इन पर परमेश्वर की संप्रभुता होती है, और परमेश्वर इनकी योजना बनाता और इनकी व्यवस्था करता है—मानवजाति के पास कोई विकल्प नहीं है। यदि हम इसे इस नजरिए से देखें, तो लोगों को यह फैसला नहीं करना चाहिए कि उनका भाग्य अच्छा है या बुरा, ठीक है न?” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचन पढ़कर आखिर मुझे यह एहसास हुआ कि परमेश्वर के दृष्टिकोण से अच्छे या बुरे भाग्य जैसी कोई चीज नहीं होती। परमेश्वर जो कुछ करता है, वह अच्छा होता है। परमेश्वर की संप्रभुता प्रत्येक व्यक्ति के भाग्य पर है और वही उसे व्यवस्थित करता है। लोगों के आकलन का यह मानक कि उनका भाग्य अच्छा है या बुरा, इस पर आधारित होता है कि वे अपने जीवनकाल में कितना कष्ट उठाते हैं, वे महिमा और धन का कितना आनंद लेते हैं, और प्रसिद्धि, लाभ और भविष्य की संभावनाओं को खोजने में कितने सफल रहते हैं। यह मनुष्य की देह की प्राथमिकताओं के दृष्टिकोण से होता है और यह परमेश्वर के इरादे के बिल्कुल अनुरूप नहीं है। यही वह था जिस पर मैंने विश्वास किया था; मुझे लगता था कि जिन लोगों की सेहत अच्छी होती है, जो प्रसिद्धि और लाभ प्राप्त कर सकते हैं महिमा और धन भोग सकते हैं, वे अच्छे भाग्य वाले लोग होते हैं, जबकि जो लोग बीमार रहते हैं, गरीबी में रहकर औसत दर्जे का जीवन जीते हैं, कोई भी उनके बारे में अच्छी राय नहीं रखता, उनके भाग्य खराब होते हैं। इसलिए, चूँकि मैं हमेशा बीमारी से ग्रस्त रहती थी, और प्रसिद्धि, लाभ और भविष्य की संभावनाओं के पीछे भागना चाहती थी, पर कभी सफल नहीं हुई थी, मैं सोचती थी कि मेरा भाग्य खराब है। चीजों के बारे में मेरा दृष्टिकोण अविश्वासियों के जैसा ही था; यह छद्म-विश्वासियों का ही दृष्टिकोण था। कुछ लोगों की सेहत अच्छी होती है वे अपना पूरा जीवन लगातार धन, प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के लिए जूझते हुए बिताते हैं। भले ही उनकी इच्छाएँ पूरी हो जाएँ, वे जीने का मूल्य या अर्थ नहीं जानते। कुछ लोग अपने दिन खुद को खोखला महसूस करते हुए बिताते हैं, जबकि दूसरे सभी तरह की उत्तेजना ढूँढ़ते हैं। कुछ लोग भोग-विलास में डूब जाते हैं, जबकि दूसरे आत्महत्या करके अपना जीवन समाप्त करने का विकल्प चुनते हैं। क्या इन लोगों का भाग्य अच्छा होता है? क्या वे वास्तव में खुश और प्रसन्न हैं? मैंने सोचा कि हालाँकि कुछ भाई-बहन साधारण परिवारों से थे उन्हें परमेश्वर के घर में अगुआ या सुपरवाइजर के बतौर पदोन्नत नहीं किया गया था फिर भी उन्होंने अपना कर्तव्य निभाया था और कुछ सत्यों को समझा था। यहाँ तक कि उनमें से कुछ ने परमेश्वर की गवाही देते हुए लेख भी लिखे; उनके भाग्य खराब नहीं थे। हालाँकि मैं बीमारी से पीड़ित थी, मैं अक्सर इस कारण परमेश्वर से प्रार्थना करती रहती थी, और मेरा दिल उसे छोड़ने की हिम्मत नहीं करता था। इसके अलावा इन वर्षों के दौरान अपने पाठ-आधारित कर्तव्यों के माध्यम से मैं कुछ सत्य समझ गई थी। यह सब मेरे जीवन प्रवेश के लिए फायदेमंद था। साथ ही मेरा स्वभाव बहुत अहंकारी था और प्रतिष्ठा और रुतबे की मेरी इच्छा काफी प्रबल थी, इसलिए ऊँचे दर्जे के वे कर्तव्य करने के लिए पदोन्नत न करना मुझे बचाने का परमेश्वर का तरीका था। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह कि अगर मुझे यह बीमारी न होती, तो मैं निश्चित रूप से दुनिया में पैसा, प्रसिद्धि और लाभ पाने में पूरा दिल लगा देती, मैं शैतान की शक्ति के अधीन रहती, वह मुझे नुकसान पहुँचाता और छल करता और मैं पूरी तरह से उसके कब्जे में होती, मुझे अंत के दिनों में परमेश्वर का उद्धार प्राप्त नहीं होता। वास्तव में, मुझे इस बीमारी से बहुत कुछ हासिल हुआ, लेकिन मैं हमेशा शिकायत करती थी कि मेरा भाग्य ही खराब है। इस दौरान मुझे भरपूर आशीष मिल रहा था और मुझे उसका पता भी नहीं था! मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा, जो कहते हैं : “कुछ लोग बीमारी के कारण परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ करते हैं। यह बीमारी तुम्हारे लिए परमेश्वर का अनुग्रह है; इसके बिना तुम परमेश्वर में विश्वास न करते, और यदि तुम परमेश्वर में विश्वास न करते, तो तुम यहाँ तक न पहुँच पाते—और इस प्रकार यह अनुग्रह भी परमेश्वर का प्रेम है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पीड़ादायक परीक्षणों के अनुभव से ही तुम परमेश्वर की मनोहरता को जान सकते हो)। अब मैं परमेश्वर के इन वचनों को प्रत्यक्ष रूप से अनुभव कर चुकी थी। मैं अब यह शिकायत नहीं करती थी कि मेरी बीमारी के कारण भाग्य खराब है।
मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “क्या तुम सब समझ पाए हो कि हमेशा अपने भाग्य को खराब बताने वाले लोगों के विचार और नजरिए सही हैं या गलत? (वे गलत हैं।) साफ तौर पर, अतिवाद में फँसने के कारण इन लोगों को हताशा की भावना का अनुभव होता है। ... वे समस्याओं और लोगों को इस अतिवादी और गलत दृष्टिकोण से देखते हैं, जिससे वे बार-बार इस नकारात्मक भावना के असर और प्रभाव में जीते, लोगों और चीजों को देखते एवं आचरण और कार्य करते हैं। अंत में, वे जैसे भी जियें, वे इतने थके हुए लगते हैं कि परमेश्वर में आस्था और सत्य के अनुसरण के लिए कोई जोश नहीं जुटा पाते। वे अपना जीवन किसी भी तरह से जीना पसंद करें, वे सकारात्मक या सक्रिय ढंग से अपना कर्तव्य नहीं निभा सकते, और अनेक वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बावजूद वे हृदय और प्राण से अपना कर्तव्य निभाने या अपना कर्तव्य संतोषजनक ढंग से निभाने पर कभी ध्यान नहीं देते, जाहिर है, सत्य का अनुसरण करना या सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना तो दूर की बात है। ऐसा क्यों है? अंतिम विश्लेषण में, ऐसा इसलिए है क्योंकि वे हमेशा सोचते हैं कि उनका भाग्य खराब है, और इससे उनमें गहन हताशा की भावना पैदा हो जाती है। वे पूरी तरह से मायूस, विवश, जिंदा लाश की तरह, शक्तिहीन हो जाते हैं, कोई सकारात्मक या आशावादी व्यवहार नहीं दर्शाते, अपने कर्तव्य, अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों के प्रति अपनी निष्ठा अर्पित करने का संकल्प या सहनशीलता दिखाना तो दूर की बात है। इसके बजाय वे अनमने ढंग से हर दिन एक ढुलमुल रवैये के साथ निरुद्देश्य और भ्रमित होकर संघर्ष करते रहते हैं, यहाँ तक कि अनजाने ही दिन गुजारते जाते हैं। उन्हें कोई अंदाजा नहीं होता कि वे कब तक यूँ ही जैसे तैसे काम चलाते रहेंगे। अंत में, उनके पास यह कहकर खुद को फटकारने के सिवाय कोई रास्ता नहीं होता, ‘ओह, जब तक जैसे तैसे काम चल जाए, तब तक मैं जीता रहूँगा! अगर किसी दिन मैं आगे इसी तरह जीता न रह सकूँ, और कलीसिया मुझे निष्कासित कर हटा देना चाहे, तो उसे बस मुझे हटा देना चाहिए। ऐसा इसलिए कि मेरा भाग्य खराब है!’ देखा, उनकी बातें भी बेहद हारी हुई होती हैं। हताशा की यह भावना सिर्फ एक सरल-सी मनःस्थिति नहीं है, बल्कि अधिक महत्वपूर्ण तौर पर लोगों के विचारों, दिलों और उनके अनुसरण पर इसका विनाशकारी प्रभाव पड़ता है। यदि तुम समय रहते तेजी से अपनी हताशा की भावना को नहीं पलट सकते, तो यह न सिर्फ तुम्हारे पूरे जीवन को प्रभावित करेगी, बल्कि तुम्हारे जीवन को नष्ट कर तुम्हें मृत्यु के कगार पर भी पहुँचा देगी। भले ही तुम परमेश्वर में विश्वास रखो, फिर भी सत्य हासिल कर उद्धार प्राप्त नहीं कर पाओगे, और अंत में, तुम नष्ट हो जाओगे। इसीलिए जो लोग मानते हैं कि उनका भाग्य खराब है, उन्हें अब जाग जाना चाहिए; हमेशा गौर करते रहना कि उनका भाग्य अच्छा है या खराब, हमेशा किसी किस्म के भाग्य का अनुसरण करना, हमेशा अपने भाग्य को लेकर परेशान रहना—यह अच्छी बात नहीं है। हमेशा अपने भाग्य को बड़ी गंभीरता से लेने पर, थोड़ी-सी गड़बड़ी या निराशा होने, या विफलता, रुकावटें आने या शर्मिंदगी होते ही तुम फौरन यह मानने लगते हो कि यह तुम्हारे खराब भाग्य और बदकिस्मती के कारण है। इसलिए, तुम बार-बार खुद को याद दिलाते हो, कि तुम एक खराब भाग्य वाले व्यक्ति हो, दूसरे लोगों की तरह तुम्हारा भाग्य अच्छा नहीं है, और तुम बार-बार खुद को हताशा में डुबो लेते हो, हताशा की नकारात्मक भावना से घिरकर बँध जाते हो और उसी में फँसे रहते हो, और उसमें से बाहर नहीं निकल पाते। ऐसा होना बहुत डरावनी और खतरनाक बात है। हालाँकि हताशा की इस भावना से शायद तुम अधिक अहंकारी और कपटी न बनो, या तुम धूर्तता या हठ या ऐसे ही अन्य भ्रष्ट स्वभाव न दिखाओ; यह शायद इस स्तर तक न पहुँचे कि तुम भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर परमेश्वर की अवज्ञा करो, या तुम भ्रष्ट स्वभाव दिखाकर सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करो, या तुम बाधाएँ और गड़बड़ियाँ पैदा करो, या बुरे काम करो, फिर भी सार के संदर्भ में, हताशा की यह भावना लोगों के वास्तविकता के प्रति असंतोष की अत्यंत गंभीर अभिव्यक्ति है। सार रूप में, वास्तविकता के प्रति असंतोष की यह अभिव्यक्ति परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति भी असंतोष है। और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति असंतोष के क्या परिणाम होते हैं? वे निश्चित रूप से बहुत गंभीर हैं, और ये कम-से-कम तुमसे परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह और उसकी अवज्ञा करवायेंगे, और तुम्हें इस ओर आगे बढ़ाएँगे कि तुम परमेश्वर के कथनों और पोषण को स्वीकार करने में असमर्थ हो जाओ, और उसकी शिक्षाओं, आग्रहों, अनुस्मारकों, चेतावनियों को सुनने में असमर्थ हो जाओ” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि हमेशा निराशावाद और अवसाद की इस नकारात्मक भावना में फँसे रहने के परिणाम गंभीर होते हैं। इससे न केवल लोग अपने साथ होने वाली चीजों को सही ढंग से नहीं देख पाते, बल्कि यह उन्हें अपना कर्तव्य करने और सत्य का अनुसरण करने में भी रुचि नहीं लेने देता, वे बचाए जाने का अपना मौका खो देते हैं। इससे भी अधिक गंभीर बात यह है कि इस तरह की उदासी की भावना वास्तविकता और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को लेकर असंतोष होती है। इसका सार परमेश्वर से शिकायत करना और चुपचाप उसके खिलाफ विद्रोह करना होता है। इसकी प्रकृति बहुत गंभीर होती है। मेरी बीमारी फिर से उभरने के कारण मेरी परीक्षा के स्कोर पर असर पड़ा, और अपनी बीमारी के कारण मैं स्कूल से भी निकल गई और घर चली गई। इस वजह से मैं बहुत ज्यादा दर्द में थी, हर किसी को और हर चीज को दोष देती रहती थी। परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद मेरी बीमारी ने मुझे पदोन्नत और विकसित होने से रोक दिया, मैं हमेशा सोचती थी कि मेरा भाग्य खराब है, परमेश्वर को दोषी ठहराती थी कि उसने मुझे ऐसा शरीर दिया है। मैं अपना कर्तव्य निभाते समय भी औपचारिक रहती थी, सक्रिय रूप से सहयोग करने की मुझमें कोई इच्छा नहीं होती थी। मैं हमेशा से इस गलत दृष्टिकोण में फँसी हुई थी कि मेरा भाग्य खराब है, और मैं लगातार उदास होती चली गई, हमेशा परमेश्वर से शिकायत करती और उसे गलत समझती थी। अगर मैंने अपना रास्ता न बदला, तो अंत में मैं परमेश्वर का विरोध करने के कारण बचाए जाने का अपना मौका खो दूँगी। इस तरह की गलत सोच और दृष्टिकोण बहुत जहरीला होता है। यह लोगों को उन मामलों का सामना करने को प्रेरित करता है जो उनके सामने समर्पण के रवैये के बिना आते हैं, अंत में वे केवल शैतान द्वारा मूर्ख बनाए जा सकते हैं और नुकसान उठा सकते हैं। इस बात का एहसास होने पर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैंने हमेशा शिकायत की है कि मेरा भाग्य खराब है और मैं अवसाद की इस नकारात्मक भावना के अंदर रहती हूँ। यह तुम्हारे खिलाफ एक मौन विद्रोह था; मैं तुम्हारा विरोध कर रही थी। परमेश्वर, मुझे इस तरह से नहीं जीना; कृपया मेरा मार्गदर्शन करो।”
इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े और जाना कि अपने भाग्य को सही तरीके से कैसे देखा जाए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “भाग्य के प्रति लोगों का रवैया कैसा होना चाहिए? तुम्हें सृष्टिकर्ता की व्यवस्थाओं का पालन करना चाहिए, सक्रियता और मेहनत से इन सब चीजों की व्यवस्था में सृष्टिकर्ता का प्रयोजन और अर्थ खोजना चाहिए, और सत्य की समझ हासिल करनी चाहिए, परमेश्वर द्वारा इस जीवन में तुम्हारे लिए व्यवस्थित बड़े-से-बड़े कार्यकलाप पूरे करने चाहिए, सृजित प्राणी के कर्तव्य, दायित्व और उत्तरदायित्व निभाने चाहिए, और अपने जीवन को तब तक और अधिक सार्थक और मूल्यवान बनाना चाहिए जब तक कि अंततः सृष्टिकर्ता खुश होकर तुम्हें याद न रखने लगे। बेशक, इससे भी अच्छा यह होगा कि तुम अपनी खोज और मेहनतकश प्रयासों से उद्धार प्राप्त करो—यह परिणाम सर्वोत्तम होगा। किसी भी हाल में, भाग्य के मामले में, सृजित मानवजाति को जो सबसे उपयुक्त रवैया अपनाना चाहिए, वह मनमाने फैसले और परिभाषा का नहीं है, या इससे निपटने के लिए अतिवादी विधियों के प्रयोग करने का नहीं है। बेशक लोगों को अपने भाग्य का प्रतिरोध करने, उसे चुनने या बदलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, बल्कि इसके बजाय उन्हें सकारात्मक ढंग से इसका सामना करने से पहले, अपने दिल से इसकी सराहना कर, खोजना, अधिक जानना और इसका पालन करना चाहिए। अंततः जीने के माहौल और जीवन में परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए तय यात्रा में, तुम्हें वह आचरण विधि खोजनी चाहिए जो परमेश्वर तुम्हें सिखाता है, वह मार्ग खोजना चाहिए जिसे अपनाने की परमेश्वर तुमसे अपेक्षा करता है, और इस प्रकार परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए व्यवस्थित भाग्य का अनुभव करना चाहिए, और अंत में, तुम आशीष पाओगे। जब तुम सृष्टिकर्ता द्वारा इस तरह तुम्हारे लिए व्यवस्थित भाग्य का अनुभव करोगे, तब तुम जिसे समझ पाओगे वह सिर्फ दुख, विषाद, आँसू, पीड़ा, निराशा और विफलता ही नहीं, बल्कि अधिक अहम तौर पर तुम उल्लास, शांति और सुकून का अनुभव करोगे, और साथ ही प्रबुद्धता और सत्य की रोशनी का भी अनुभव करोगे, जो सृष्टिकर्ता तुम्हें प्रदान करता है। इसके अलावा, जब तुम जीवन के अपने मार्ग में खो जाओगे, जब निराशा और विफलता से तुम्हारा सामना होगा, और तुम्हें एक विकल्प चुनना होगा, तब तुम सृष्टिकर्ता के मार्गदर्शन का अनुभव करोगे, और अंत में, तुम अत्यंत सार्थक जीवन जीने के तरीके की समझ और अनुभव हासिल कर उसे सराह सकोगे। फिर अपने भाग्य को खराब मानने के कारण हताशा की भावना में डूबना तो दूर की बात रही, तुम कभी भी जीवन में दोबारा खोओगे नहीं, कभी भी निरंतर व्याकुलता की अवस्था में नहीं रहोगे, और बेशक कभी भी भाग्य खराब होने की शिकायत नहीं करोगे। यदि तुम ऐसा रवैया रखो और सृजनकर्ता द्वारा व्यवस्थित भाग्य का सामना करने के लिए इस तरीके का प्रयोग करो, तो केवल यह मामला नहीं होगा कि तुम्हारी मानवता और अधिक सामान्य हो जाएगी, तुम सामान्य मानवता वाले बन जाओगे और तुम्हारे पास चीजों को देखने के लिए सोच, नजरिए और सिद्धांत होंगे, जो सामान्य मानवता से संबंधित हैं-इससे भी अधिक, बेशक तुम जीवन के उस अर्थ के बारे में नजरिए और समझ पा लोगे, जो गैर-विश्वासियों के पास कभी नहीं होगा” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि परमेश्वर हमारे लिए चाहे जैसे भाग्य की व्यवस्था करे, हमें हमेशा उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए। सृजित प्राणियों में यह सूझ-बूझ होनी चाहिए। हमारे भाग्य का चाहे कुछ भी हो, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हम सत्य का अनुसरण कर पाएँ, एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य पूरा कर पाएँ, एक मूल्यवान और सार्थक जीवन जी सकें। अय्यूब के साथ, जब परमेश्वर ने पहली बार उसे पशुधन के पूरे पहाड़, भरपूर संपत्ति और सुंदर बच्चों का आशीष दिया, तो लोगों ने सोचा कि उसका भाग्य अच्छा है। लेकिन अय्यूब ने इन चीजों को आनंद के रूप में नहीं देखा और केवल परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर चलने पर ध्यान केंद्रित किया। बाद में उसने परीक्षणों का सामना किया। उसकी सारी संपत्ति एक ही रात में गायब हो गई, उसके बच्चे मर गए, उसका पूरा शरीर भी घावों से भर गया। लोगों की नजर में यह उसका बहुत बड़ा दुर्भाग्य था। लेकिन अय्यूब ने अपने साथ घटित हुई चीजों को मनुष्य के दृष्टिकोण से नहीं देखा, न ही उसने विद्रोह और प्रतिरोध किया। इसके बजाय उसने परमेश्वर से चीजें स्वीकार कीं, परमेश्वर के इरादे को खोजा और उसके पवित्र नाम की स्तुति की, अंततः वह अपनी गवाही में दृढ़ रहा। परमेश्वर ने खुद को अय्यूब के सामने प्रकट किया और अय्यूब ने उसे देखा। उसके हृदय को शांति और खुशी मिल गई, और अंत में वह संतुष्ट होकर मरा। लेकिन जहाँ तक मेरे भाग्य की बात है, मैं हमेशा इसे बदलना चाहती थी और इससे छूटने के लिए संघर्ष करना चाहती थी। मैंने परिश्रमपूर्वक उसकी खोज नहीं की या सकारात्मकता के साथ उसका सामना नहीं किया और इसीलिए मैं असहनीय दर्द में रही। मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा जो कहते हैं : “इस पीड़ा का कारण क्या है? क्या यह परमेश्वर की संप्रभुता के कारण है, या इसलिए है क्योंकि वह व्यक्ति अभागा ही जन्मा था? स्पष्ट है कि दोनों में कोई भी बात सही नहीं है। वास्तव में, लोग जिस मार्ग पर चलते हैं, जिस तरह से वे अपना जीवन बिताते हैं, उसी कारण से यह पीड़ा होती है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। मुझे एहसास हुआ कि मैं इतनी पीड़ा में इसलिए थी क्योंकि मेरे अनुसरण के मार्ग में कोई समस्या थी। परमेश्वर में विश्वास करने से पहले मैं अपना भाग्य बदलने के लिए ज्ञान पर भरोसा करना चाहती थी। मैंने भीड़ से अलग दिखने और आराम और धन का जीवन जीने का प्रयास किया। परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी मैं अपने कर्तव्य में प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे दौड़ती रही, दूसरों से उच्च सम्मान प्राप्त करने की इच्छा रखी। जब मेरी बीमारी की वजह से मेरी इच्छाएँ पूरी नहीं हो पाईं, तो मैंने शिकायत की कि मेरा भाग्य खराब है और मैं उदासी की भावना में जीने लगी। प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए मेरी इच्छा बहुत प्रबल थी। मैं खुद से यह पूछे बिना नहीं रह पाई, “क्या किसी का भाग्य वास्तव में अच्छा होता है और क्या प्रतिष्ठा और रुतबा पाने का वास्तव में जीवन में कोई मूल्य है?” मैंने सोचा कि कैसे कलीसिया ने कई लोगों को बेनकाब करके हटा दिया था। हालाँकि कुछ लोगों को अगुआई के कर्तव्य करने के लिए पदोन्नत किया गया था, उनमें से कुछ ने सत्य का अनुसरण नहीं किया, जिद्दी होकर प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे दौड़ते रहे और भाई-बहनों के इर्द-गिर्द खुद की बड़ाई करते हुए गवाही देते रहे। उन्होंने काट-छाँट को स्वीकार नहीं किया, अंत में उन्हें बेनकाब करके हटा दिया गया। मैंने देखा कि अगर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते और जमीन से जुड़े रहते हुए अपने कर्तव्य नहीं निभाते, तो भले ही उन्हें पदोन्नत और विकसित किया जाए, बहुत से लोग उनके बारे में उच्च विचार रखें, लेकिन वे परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त नहीं कर पाएँगे और अंततः बेनकाब करके हटा दिए जाएँगे। मैंने सोचा कि कैसे शुरू में अपनी बीमारी के कारण मैंने परमेश्वर पर विश्वास करना शुरू कर दिया था। मैंने परमेश्वर के वचनों के प्रावधान का आनंद लिया और कुछ सत्य समझ पाई। जब भी मैं बीमार पड़ी और अपनी नकारात्मकता में जीने लगी, परमेश्वर ने अपने वचनों का उपयोग मुझे प्रबुद्ध करने और मेरा मार्गदर्शन करने और मुझे जीवित रहने देने के लिए किया। परमेश्वर ने वास्तव में मुझे बहुत कुछ दिया था। लेकिन मैंने उसके प्रेम का बदला चुकाने और जमीन से जुड़कर अपने कर्तव्य पर टिके रहने के बारे में नहीं सोचा। मैं तो बस अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए तरस रही थी और मैं परमेश्वर के प्रति ईमानदार नहीं थी। मैं सचमुच बहुत विद्रोही थी! मैं पश्चात्ताप के आँसू बहाए बिना नहीं रह पाई और मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं बहुत विद्रोही रही हूँ। मैंने हमेशा प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण किया है और सही मार्ग पर नहीं चली हूँ; मैं वास्तव में तुम्हारे चयन के अयोग्य हूँ। परमेश्वर, मैं बस इतना चाहती हूँ कि तुम पर उचित ढंग से विश्वास करूँ और तुम्हारे प्रति समर्पित रहूँ, अपने पैरों को जमीन पर टिकाए रखकर अपना कर्तव्य करूँ।” इतना समझने के बाद मुझे अब उदासी महसूस नहीं हुई।
उस दौरान मैं अपने भाई-बहनों के संपर्क में नहीं रह पाई, तो मैंने हर दिन परमेश्वर के वचन पढ़ने, उससे प्रार्थना करने और उसके करीब आने और धर्मोपदेश लिखने का अभ्यास करने में लगाया। कभी-कभी मेरी तबीयत थोड़ी खराब हो जाती थी और मेरे जोड़ों में इतना दर्द होता था कि मैं चल-फिर नहीं पाती थी या खड़ी नहीं हो पाती थी। अनजाने ही मैं थोड़ा परेशान हो जाती थी, खासकर जब मैं भाई-बहनों के गाने, नाचने और परमेश्वर की स्तुति करने के वीडियो देखती थी। मैं बहुत ईर्ष्यालु हो जाती थी, सोचती थी, “वे भाई-बहन स्वस्थ हैं, नाच-गा सकते हैं और परमेश्वर की स्तुति कर सकते हैं। कितना अच्छा लगता होगा! मैं तो खड़ी भी नहीं हो सकती।” मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा सही नहीं है, और मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे अपने दिल की रक्षा करने के लिए कहा। मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा जो कहते हैं : “कार्य समान नहीं हैं। एक शरीर है। प्रत्येक अपना कर्तव्य करता है, प्रत्येक अपनी जगह पर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करता है—प्रत्येक चिंगारी के लिए प्रकाश की एक चमक है—और जीवन में परिपक्वता की तलाश करता है। इस प्रकार मैं संतुष्ट हूँगा” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 21)। परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक अलग कर्तव्य की व्यवस्था करता है। उन भाई-बहनों ने नाच-गाना किया, परमेश्वर की स्तुति की और मैंने पाठ-आधारित कर्तव्य किए और उसकी गवाही दी। प्रत्येक अपना कार्य करता है। जब तक कोई अपनी क्षमता के अनुसार कार्य करता है, परमेश्वर उसे स्वीकार करेगा। यह सोचकर मेरे दिल को बहुत राहत मिली। अब मैं यह नहीं मानती कि मैं बदकिस्मत हूँ। मैं केवल परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना, सत्य का उचित ढंग से अनुसरण करना और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहती हूँ। मेरा इस गलत दृष्टिकोण से बाहर निकल पाना कि मैं बदकिस्मत हूँ, यह सब परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन के कारण था।