93. आशीष पाने के मेरे इरादे कैसे गायब हो गए

यी शान, चीन

2003 में मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार कर लिया। मैं वास्तव में उत्साहित थी क्योंकि लंबे समय से प्रतीक्षित हमारा प्रभु यीशु आखिरकार लौट आया था। उसके बाद मैं सक्रिय रूप से सुसमाचार का प्रचार करने गई, मैं यह महान समाचार अधिकाधिक लोगों के साथ साझा करना चाहती थी जो परमेश्वर के प्रकटन के लिए तरसते हैं। चाहे धार्मिक लोगों ने मुझे कितना भी रोका हो, पीटा हो या कोसा हो या बड़े लाल अजगर ने मुझे चाहे जैसे सताने और गिरफ्तार करने की कोशिश की हो, मैंने सुसमाचार का प्रचार जारी रखा। कुछ समय बाद मेरे स्तन में जो ट्यूमर कई वर्षों से था, बिना सर्जरी के चमत्कारिक रूप से ठीक हो गया, पारिवारिक व्यवसाय से हमारी आय दोगुनी हो गई और तब से मैंने अपने कर्तव्यों में और अधिक प्रयास लगाने शुरू कर दिए। मैं सुसमाचार का प्रचार करने चाहे जहाँ भी गई, कितनी भी दूर गई या चाहे जितनी कठिन परिस्थितियाँ रही हों, मैं सचमुच इच्छुक थी। 2012 में मैं कलीसिया अगुआ के रूप में सेवा दे रही थी और अपने कर्तव्यों में व्यस्त थी, इसलिए मैं कुछ समय के लिए घर नहीं लौटी थी। एक दिन एक सभा में जाते समय मेरी अपने बेटे से मुलाकात हुई। उसने कहा कि मेरी पोती को घातक ब्रेन ट्यूमर हो गया है, यहाँ तक कि सैकड़ों हजार युआन खर्च कर लेने के बाद भी उसका इलाज नहीं हो पाया है और डॉक्टर ने कह दिया है कि उसके पास सिर्फ दो महीने का जीवन बचा है। मेरा दिल बैठ गया और सिर घूमने लगा : “हे परमेश्वर, इतनी छोटी बच्ची को ऐसी बीमारी कैसे हो सकती है?” जब मैं घर पहुँची, तो मैंने देखा कि मेरी पोती के सिर पर पट्टी बँधी थी और उसकी एक आँख पहले से ही अंधी थी, फिर भी वह टीवी के सामने नाच रही थी। मुझ पर दुख की लहर छा गई और मैं इस हकीकत को स्वीकार नहीं कर पाई और फूट-फूट कर रोने लगी। मेरी पोती सिर्फ तीन साल की थी, जीवन से भरपूर थी; क्या उसका छोटा सा जीवन वाकई खत्म होने वाला था? मेरा दिल एक अवर्णनीय दर्द से भर गया और मैंने जल्दी से अपने पति से पूछा कि क्या हम उसे एक और बार दिखाने के लिए सबसे अच्छे अस्पताल ले जा सकते हैं, लेकिन मेरे पति ने कहा, “इसका कोई फायदा नहीं है, बहुत देर हो चुकी है, उसका इलाज नहीं हो सकता, उसके पास जीने के लिए सिर्फ दो महीने बचे हैं।” पति की बात सुनकर मैं उस रात बिल्कुल भी सो नहीं पाई। मैंने सोचा, “मेरी पोती को यह बीमारी कैसे हो सकती है? मैं परमेश्वर को पाने के बाद से ही अपने कर्तव्य निभा रही हूँ और मैंने बहुत कुछ सहा है। परमेश्वर ने मेरी पोती की रक्षा क्यों नहीं की? मुझ पर इतना बड़ा परीक्षण क्यों आ गया है?” जितना मैंने इस बारे में सोचा, उतना ही मुझे दुख हुआ और मैं अब अपने कर्तव्य निभाने के लिए बाहर नहीं जाना चाहती थी। मुझे पता था कि यह मनोदशा ठीक नहीं है, इसलिए मैंने स्वयं के खिलाफ विद्रोह करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की, लेकिन दिल में मुझे अभी भी उम्मीद थी कि परमेश्वर मेरी पोती को ठीक कर देगा। मुझे बाइबल की कहानी याद आई जिसमें एक छोटी बच्ची की मौत हो जाती है। प्रभु यीशु उसका हाथ थामता है और वह वापस जीवित हो जाती है। इसलिए मैंने प्रार्थना की और अपनी पोती को परमेश्वर को सौंप दिया। मैंने सोचा कि मुझे जल्दी करनी चाहिए और अपने कर्तव्य निभाते रहना चाहिए, यह विश्वास रखते हुए कि अगर परमेश्वर ने देखा कि मैं कितना त्याग कर रही हूँ और खुद को खपा रही हूँ, तो हो सकता है कि वह मेरी पोती को ठीक कर दे। मैंने अपने बेटे और पति से भी उसके लिए और प्रार्थना करने को कहा।

उस दौरान मुझे अपने दिल में पोती के ठीक होने की उम्मीद थी और अपने कर्तव्य निभाते हुए मैं उसके बारे में सोचना बंद नहीं कर पाती थी। उसकी जीवंत और प्यारी यादें किसी चलचित्र की तरह मेरे दिमाग में चलती रहती थीं। हालाँकि मैं अभी भी अपने कर्तव्य निभा रही थी, लेकिन यह पहले की तरह बोझ की भावना के साथ नहीं था और खासकर जब मुझे खयाल आता कि मेरी पोती कितनी प्यारी है और उसके पास जीने के लिए केवल दो महीने बचे हैं, तो मेरा दिल दुखता था जैसे कोई उसे चाकू से चीर रहा हो। मैं रात को सो नहीं पाती थी और मुझे पता भी नहीं होता था, मैं अक्सर रोने लगती थी। मैं कमजोरी और नकारात्मकता में जी रही थी, मैं अपने कर्तव्य में अप्रभावी थी और मुझे एहसास हुआ कि मेरी मनोदशा खतरनाक थी। मुझे पता था कि अगर मैंने जल्दी से चीजों को न बदला तो मैं पवित्र आत्मा के कार्य को गँवा दूँगी। इसलिए मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मेरी पोती को इतनी गंभीर बीमारी है और मैं बहुत पीड़ा में हूँ। तुमसे प्रार्थना है कि मेरे दिल की देखभाल करो और अपने इरादे समझने के लिए मुझे प्रबुद्ध करो।” बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “परीक्षणों से गुजरते समय लोगों का कमजोर होना या उनके भीतर नकारात्मकता आना या परमेश्वर के इरादों या अभ्यास के मार्ग के बारे में स्पष्टता का अभाव होना सामान्य बात है। लेकिन कुल मिलाकर तुम्हें परमेश्वर के कार्य पर आस्था होनी चाहिए और अय्यूब की तरह तुम्हें भी परमेश्वर को नकारना नहीं चाहिए। यद्यपि अय्यूब कमजोर था और अपने जन्म के दिन को धिक्कारता था, उसने इस बात से इनकार नहीं किया कि जन्म के बाद लोगों के पास जो भी चीजें होती हैं वे सब यहोवा द्वारा दी जाती हैं और यहोवा ही उन्हें ले भी लेता है। उसे चाहे जिन परीक्षणों से गुजारा गया, उसने यह विश्वास बनाए रखा। लोगों के अनुभवों में, परमेश्वर के वचनों के चाहे जिस भी शोधन से वे गुजरें, परमेश्वर कुल मिलाकर जो चाहता है वह है उनकी आस्था और परमेश्वर-प्रेमी हृदय। इस तरह से कार्य करके वह जिस चीज को पूर्ण बनाता है, वह है लोगों की आस्था, प्रेम और दृढ़ निश्चय। परमेश्वर लोगों पर पूर्णता का कार्य करता है और वे इसे देख नहीं सकते, छू नहीं सकते; ऐसी परिस्थितियों में आस्था आवश्यक होती है। जब कोई चीज नग्न आँखों से न देखी जा सकती हो, तब आस्था आवश्यक होती है। जब तुम अपनी धारणाएँ नहीं छोड़ पाते, तब आस्था आवश्यक होती है। जब तुम परमेश्वर के कार्य के बारे में स्पष्ट नहीं होते तो यही अपेक्षा की जाती है कि तुम आस्था रखो, ठोस रुख अपनाए रखो और अपनी गवाही में अडिग रहो। जब अय्यूब इस मुकाम पर पहुँच गया तो परमेश्वर उसके सामने प्रकट हुआ और उससे बोला। यानी जब तुममें आस्था होगी, तभी तुम परमेश्वर को देखने में समर्थ हो पाओगे। जब तुममें आस्था होगी, परमेश्वर तुम्हें पूर्ण बनाएगा और अगर तुममें आस्था नहीं है तो वह ऐसा नहीं कर सकता(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। परमेश्वर के वचनों पर मनन करते हुए मैं समझ गई कि मेरी पोती की बीमारी परमेश्वर की अनुमति से हुई थी और यह परमेश्वर की ओर से एक परीक्षण था, जिसका उद्देश्य मेरी आस्था को पूर्ण करना था। मैंने अय्यूब के बारे में सोचा, जिसे पता था कि उसकी सारी संपत्ति और जो कुछ उसके पास था, वह परमेश्वर का दिया हुआ था और यह कि परमेश्वर द्वारा उसे छीन लेना पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित था। जब परमेश्वर ने उसे परीक्षणों से गुजारा, तो अय्यूब ने परमेश्वर के बारे में शिकायत करने के बजाय अपने जन्म के दिन को कोसने का चुनाव किया। और वह कह पाया : “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” (अय्यूब 1:21)। उसके भीतर सच्ची आस्था थी और उसने अपना जीवन परमेश्वर को दे दिया, जिससे परमेश्वर सब कुछ आयोजित कर पाया। अय्यूब की मानवता बहुत ही ईमानदार और अच्छी थी। मैंने अपने बारे में सोचा। मुझे पहले अपना कर्तव्य निभाने में जोश रहता था और चाहे सुसमाचार का प्रचार करते समय मुझे कितनी भी पीड़ा सहनी पड़े और चाहे धार्मिक दुनिया या बड़े लाल अजगर ने मुझे सताने और मेरी निंदा करने की कितनी भी कोशिश की हो, मैं कभी नकारात्मक नहीं हुई। इसके बजाय मैंने हमेशा की तरह सुसमाचार का प्रचार करना और त्याग करना जारी रखा। लेकिन यह सच्ची आस्था नहीं थी। ऐसा इसलिए था क्योंकि परमेश्वर को पाने के बाद से मेरे परिवार का व्यवसाय सुधर गया था और परमेश्वर ने मेरी बीमारी ठीक कर दी थी। मैं परमेश्वर के अनुग्रह और आशीषों का आनंद ले रही थी। लेकिन अब जब मेरी पोती को मस्तिष्क कैंसर हो गया था और उसके पास जीने के लिए केवल दो महीने बचे थे और मेरे अनुरोध करने पर भी परमेश्वर उसे ठीक नहीं कर रहा था, तो मैंने अपने पिछले त्यागों के आधार पर परमेश्वर से बहस करनी शुरू कर दी, अपनी पोती की रक्षा न करने के लिए उससे शिकायत करने लगी। मुझे यह भी लगा कि परमेश्वर जो कर रहा था वह विचारशील होना नहीं था और उसे मुझ पर इतना गंभीर परीक्षण नहीं आने देना चाहिए था। मुझे एहसास हुआ कि मुझमें मानवता और विवेक की कमी है। मुझमें परमेश्वर के प्रति कोई वास्तविक आस्था या समर्पण नहीं था। यह सोचकर मुझे लगा जैसे मैंने वास्तव में परमेश्वर को निराश किया है। परमेश्वर ने मुझे इतना कुछ दिया है, मैं इतनी लालची नहीं बनी रह सकती। मुझे अय्यूब का अनुकरण करना था और परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना था।

बाद में अपना कर्तव्य निभाते हुए जब भी मैं भाई-बहनों के बच्चों को देखती, तो मैं अपनी पोती के बारे में सोचती, कल्पना करने लगती कि कब मेरी पोती भी फिर से स्वस्थ हो पाएगी, मेरे चारों ओर उछल-कूद करेगी और दौड़ेगी। मुझे याद आया कि मुझे ब्रेस्ट ट्यूमर हुआ था और डॉक्टर ने कहा था कि ट्यूमर बड़ा हो गया है और अगर मैं सर्जरी नहीं करवाती तो यह खतरनाक हो सकता है। मैंने परमेश्वर पर भरोसा किया और अपना कर्तव्य निभाना जारी रखा और चमत्कारिक रूप से ट्यूमर गायब हो गया। इस बार मैं फिर से अपना कर्तव्य पूरी लगन से निभाना चाहती थी, इसलिए मैंने अपनी कार्य-सूची को भर लिया, अक्सर भाई-बहनों के साथ सभाएँ करती और कार्य पर चर्चा करती थी। भाई-बहनों ने सक्रिय रूप से सुसमाचार का प्रचार किया और नवागंतुकों की मदद की और कोई भी काम देरी से नहीं हुआ। मैंने मन में सोचा, “शायद एक दिन मेरी पोती की बीमारी अचानक ठीक हो जाएगी।” दो महीने बाद जब मैं घर लौटी, तो मैंने पाया कि न केवल मेरी पोती की बीमारी में सुधार नहीं हुआ था, बल्कि कैंसर उसके पूरे शरीर में फैल चुका था। वह अपनी आखिरी साँस तक पहुँच गई थी। एक छोटा ताबूत पहले से ही तैयार कर लिया गया था। मेरा बेटा और बहू लगातार रो रहे थे। मेरा दिल टूट गया था और मैं खुद को रोने से नहीं रोक पा रही थी। मैंने फिर से परमेश्वर से तर्क करने की कोशिश की, मन ही मन कहा, “पिछले दो महीनों के दौरान जब मेरी पोती बीमार रही, मैंने अपने कर्तव्य की उपेक्षा नहीं की है। जब से मैंने परमेश्वर पर विश्वास करना शुरू किया है, मैंने हमेशा त्याग किए हैं और खुद को खपाया है। मैंने व्यवसाय करना बंद कर दिया है, दुनिया मुझे बदनाम करती है, मेरे रिश्तेदारों ने मुझे त्याग दिया है और बड़ा लाल अजगर भी मेरे पीछे पड़ा है। चाहे परिवेश कितना भी कठोर क्यों न हो, मैं अपने कर्तव्यों में लगी रही हूँ। इसका नतीजा यह कैसे हो सकता है? मैंने परमेश्वर का स्पष्ट रूप से प्रतिरोध करने के लिए कुछ भी नहीं किया है! मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ? परमेश्वर ने मेरी पोती की रक्षा क्यों नहीं की?” मेरी दशा बहुत बिगड़ गई। मुझमें चलने-फिरने की ताकत नहीं बची और मैं खाना भी नहीं चाहती थी। मैं बहुत पीड़ा और नकारात्मकता में थी और मेरे मन में अपने कर्तव्य न करने के विचार उठने लगे। मुझे पता था कि मुझे शिकायत नहीं करनी चाहिए, लेकिन जब मैंने अपनी पोती को मौत के कगार पर देखा तो मैं खुद को रोक नहीं पाई। मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर! मैं तुम्हारे बारे में शिकायत नहीं करना चाहती, लेकिन मैं वास्तव में इससे उबर नहीं सकती। मैं बहुत कमजोर और असहाय महसूस करती हूँ, मेरे दिल को शिकायत करने से रोको।” जल्दी ही मेरी पोती का निधन हो गया। मेरा दिल बहुत पीड़ित था। मुझमें परमेश्वर के वचन पढ़ने या सभाओं में संगति करने की कोई इच्छा नहीं बची थी। खासकर जब मैं भाई-बहनों के बच्चों को देखती थी, जो मेरी पोती की उम्र के थे, तो मैं खुद को रोने से नहीं रोक पाती थी। मैं नकारात्मकता और गलतफहमी में जी रही थी और मेरी दशा कुछ समय तक नहीं सुधरी। मुझे अपने कर्तव्यों में भी कोई नतीजे नहीं मिले। तब मैं प्रार्थना करने और खोजने के लिए परमेश्वर के सामने आई।

एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और मेरा दिल काफी उज्ज्वल हो गया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “यदि किसी व्यक्ति का जन्म उसके पिछले जीवन से नियत था, तो उसकी मृत्यु उस नियति के अंत को चिह्नित करती है। यदि किसी का जन्म इस जीवन में उसके मिशन की शुरुआत है, तो उसकी मृत्यु उसके उस मिशन के अंत को चिह्नित करती है। चूँकि सृष्टिकर्ता ने प्रत्येक व्यक्ति के जन्म के लिए परिस्थितियों का एक निश्चित समुच्चय तय किया है, तो यह तय है कि उसने उसकी मृत्यु के लिए भी परिस्थितियों के एक निश्चित समुच्चय की व्यवस्था की है। दूसरे शब्दों में, कोई भी व्यक्ति संयोग से पैदा नहीं होता है, किसी भी व्यक्ति की मृत्यु अकस्मात नहीं होती है और जन्म-मरण दोनों ही अनिवार्य रूप से उसके पिछले और वर्तमान जीवन से जुड़े हैं। किसी व्यक्ति के जन्म की परिस्थितियाँ कैसी हैं और उसकी मृत्यु की परिस्थितियाँ कैसी हैं, इनका संबंध सृष्टिकर्ता के पूर्वनिर्धारणों से है; यह व्यक्ति की नियति है, व्यक्ति का भाग्य है। चूँकि किसी व्यक्ति के जन्म के बारे में बहुत सारी व्याख्याएँ होती हैं, इसलिए उसकी मृत्यु के लिए भी अनिवार्य रूप से विभिन्न विशेष परिस्थितियाँ होनी चाहिए। इस तरह मानवजाति में लोगों के अलग-अलग जीवनकाल और मृत्यु के अलग-अलग तरीके और समय होते हैं। कुछ लोग ताकतवर और स्वस्थ होते हैं, फिर भी जल्दी मर जाते हैं; कुछ लोग कमजोर और बीमार होते हैं, फिर भी बूढ़े होने तक जीते रहते हैं और बिना कोई कष्ट पाए मर जाते हैं। कुछ की मृत्यु अस्वाभाविक कारणों से होती है और कुछ की मृत्यु स्वाभाविक कारणों से होती है। कुछ की मृत्यु अपने घर से दूर होती है, कुछ अपने प्रियजनों के साथ उनके सान्निध्य में आखिरी साँस लेते हैं। कुछ आसमान में मरते हैं, कुछ धरती के नीचे। कुछ पानी में डूब जाते हैं, कुछ आपदाओं में नष्ट हो जाते हैं। कुछ सुबह मरते हैं, कुछ रात्रि में। ... हर कोई एक शानदार जन्म, एक बहुत बढ़िया जीवन और एक गौरवशाली मृत्यु की कामना करता है, परन्तु कोई भी व्यक्ति अपनी नियति से परे नहीं जा सकता है, कोई भी सृष्टिकर्ता की संप्रभुता से बचकर नहीं निकल सकता है। यह मनुष्य का भाग्य है। लोगअपने भविष्य के लिए तमाम तरह की योजनाएँ बना सकते हैं, लेकिन कोई भी यह योजना नहीं बना सकता कि वह कैसे पैदा होगा या संसार से उसके जाने का तरीका और समय क्या होगा। यूँ तो सभी लोग मृत्यु को आने से टालने और रोकने की भरसक कोशिश करते हैं, फिर भी उन्हें भनक लगे बिना मृत्यु चुपचाप पास आ जाती है। कोई नहीं जानता है कि वह कब या कैसे मरेगा और यह तो बिल्कुल भी नहीं जानता कि वह कहाँ मरेगा। जाहिर है, जीवन-मृत्यु को लेकर सर्वोच्च शक्ति न तो मनुष्य के हाथ में है, न ही प्राकृतिक संसार में किसी जीवित प्राणी के हाथ में, बल्कि यह सृष्टिकर्ता के हाथ में है जो अद्वितीय अधिकार संपन्न है। मनुष्य का जीवन-मरण प्राकृतिक संसार के किन्हीं नियमों का परिणाम नहीं है, बल्कि सृष्टिकर्ता के अधिकार की संप्रभुता का परिणाम है(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि मनुष्य का भाग्य, जीवन और मृत्यु सब परमेश्वर के हाथों में है। किसी व्यक्ति का जन्म कब होता है और कब उसकी मृत्यु होगी, यह सब परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित है। लोग इसे बदल नहीं सकते। ठीक वैसे ही मेरी पोती की बीमारी और उसकी मृत्यु का समय भी परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित था और यह ऐसा कुछ नहीं था जिसे मेरे व्यक्तिपरक इरादे बदल पाते। इसे मेरे काम, पीड़ा या त्याग के माध्यम से नहीं बदला जा सकता। मैं परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के आगे समर्पण नहीं कर पाई, जबकि यह भी उम्मीद कर रही थी कि मेरे काम और खुद को खपाने से परमेश्वर मेरी पोती का भाग्य बदल देगा। क्या मैं वास्तव में परमेश्वर का विरोध नहीं कर रही थी? मेरी पोती का जीवन और मृत्यु उसके पिछले और वर्तमान जीवन से जुड़े हुए थे। वह केवल इतने कुछ वर्ष ही जी सकती थी और यही उसका भाग्य था। वास्तव में अविश्वासी परिवारों के कई बच्चे भी विभिन्न घातक बीमारियों से मर जाते हैं। उदाहरण के लिए, मैं एक अविश्वासी को जानती थी, जिसके बच्चे को भी ब्रेन ट्यूमर था। पहले तो यह ठीक हो गया, लेकिन फिर बारह साल की उम्र में बच्चे को फिर से बीमारी हुई और अंततः उसकी मृत्यु हो गई। इससे मैंने देखा कि कोई व्यक्ति कितने समय तक जीवित रहता है, यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित है और इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि उनके परिवार के सदस्य परमेश्वर में विश्वास करते हैं या नहीं। लेकिन मैंने सोचा कि चूँकि मैं परमेश्वर में विश्वास करती हूँ, इसलिए मेरी पोती को अपनी बीमारी से नहीं मरना चाहिए। यह एक भ्रामक दृष्टिकोण था। यह एहसास होने के बाद मुझे अपने दिल में इतनी पीड़ा महसूस नहीं हुई। मैं अपनी पोती की मृत्यु को परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारने और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने में भी सक्षम थी। मैंने इन समझदारियों को अपने पति और बेटे के साथ साझा किया ताकि वे भी परमेश्वर के बारे में शिकायत न करें।

एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और अपने मसलों के बारे में कुछ समझ प्राप्त की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब आशीषों या दुःखों की बात आती है तो एक सत्य ऐसा है जिसे खोजना चाहिए। लोगों को किस बुद्धिमानी भरी कहावत का पालन करना चाहिए? अय्यूब ने कहा, ‘क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?’ (अय्यूब 2:10)क्या ये शब्द सत्य हैं? ये एक मनुष्य के शब्द हैं; इन्हें सत्य की ऊँचाइयों पर नहीं रखा जा सकता, हालाँकि ये किसी न किसी रूप में सत्य के अनुरूप जरूर हैं। ये किस रूप में सत्य के अनुरूप हैं? लोग आशीष पाते हैं या दुःख भोगते हैं, यह सब परमेश्वर के हाथ में है, यह सब परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है। यह सत्य है। क्या मसीह-विरोधी इसमें विश्वास करते हैं? नहीं, वे नहीं करते। वे यह नहीं मानते। वे इसमें विश्वास क्यों नहीं करते या इसे क्यों नहीं मानते हैं? (परमेश्वर में उनका विश्वास आशीष पाने की खातिर होता है—वे सिर्फ आशीष पाना चाहते हैं।) (क्योंकि वे बहुत स्वार्थी होते हैं और सिर्फ देह के हितों के पीछे भागते हैं।) अपने विश्वास में मसीह-विरोधी सिर्फ आशीष पाना चाहते हैं और दुःख नहीं भोगना चाहते। जब वे यह देखते हैं कि किसी व्यक्ति को आशीष मिला है, उसे लाभ मिला है, अनुग्रह मिला है और उसे अधिक भौतिक सुख और बड़े लाभ मिले हैं, तो उन्हें लगता है कि यह परमेश्वर ने किया है; और अगर उसे ऐसे भौतिक आशीष नहीं मिले हैं तो फिर यह परमेश्वर का कार्य नहीं है। इसका तात्पर्य है, ‘अगर तुम सचमुच परमेश्वर हो तो फिर तुम लोगों को सिर्फ आशीष दे सकते हो; तुम्हें लोगों का दुःख टालना चाहिए और उन्हें पीड़ा नहीं होने देनी चाहिए। केवल तभी लोगों के लिए तुममें विश्वास करने का मूल्य और अर्थ है। अगर तुममें विश्वास करने के बाद भी लोग दुःख से घिरे हैं, अभी भी पीड़ा में हैं, तो फिर तुममें विश्वास करने का क्या औचित्य है?’ वे यह स्वीकार नहीं करते कि सभी चीजें और घटनाएँ परमेश्वर के हाथ में हैं, कि परमेश्वर समस्त चीजों का संप्रभु है। और वे ऐसा क्यों नहीं स्वीकारते? क्योंकि मसीह-विरोधी दुःख भोगने से घबराते हैं। वे सिर्फ लाभ उठाना चाहते हैं, फायदे में रहना चाहते हैं, आशीषों का आनंद लेना चाहते हैं; वे परमेश्वर की संप्रभुता या आयोजन नहीं स्वीकारना चाहते, बल्कि परमेश्वर से सिर्फ लाभ पाना चाहते हैं। मसीह-विरोधियों का यही स्वार्थी और घृणित दृष्टिकोण होता है। यह परमेश्वर के वादों और आशीषों जैसे वचनों को लेकर मसीह-विरोधियों द्वारा प्रदर्शित अभिव्यक्तियों की एक कड़ी होती है। कुल मिलाकर इन अभिव्यक्तियों में मुख्य रूप से मसीह-विरोधियों के अपने अनुसरणों के पीछे के परिप्रेक्ष्य, साथ ही परमेश्वर लोगों के लिए इस प्रकार का जो कार्य करता है उसके प्रति उनके दृष्टिकोण, मूल्यांकन और समझ भी शामिल होती है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग छह))। परमेश्वर के वचनों ने परमेश्वर में मसीह-विरोधियों के विश्वास के पीछे के घृणित इरादे उजागर किए हैं। मसीह-विरोधी केवल आशीष और फायदे प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन जैसे ही दुर्भाग्य से सामना होता है, वे परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हैं और उससे विश्वासघात करते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं वह आशीष और फायदों की अपेक्षा पर आधारित होता है। वे वास्तव में परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की कोशिश कर रहे होते हैं। परमेश्वर में विश्वास के अपने इरादों और लक्ष्यों पर आत्म-चिंतन करते हुए मुझे एहसास हुआ कि वे मसीह-विरोधियों से बहुत अलग नहीं थे। मैं भी आशीषें ही खोज रही थी। जब मैंने पहली बार परमेश्वर पर विश्वास किया था, तो मेरे स्तन का ट्यूमर अनजाने में ही ठीक हो गया था और मेरे परिवार का व्यवसाय फल-फूल रहा था। परमेश्वर ने मुझे बहुत सारे आशीष दिए और अनुग्रह किए और मैं इतनी खुश थी कि मैं मुस्कराती रहती थी और चलते समय गाना भी गाती थी। हमारा परिवार हँसी-खुशी से भर गया और यहाँ तक कि मेरे पति और बच्चों ने भी कहा कि परमेश्वर सचमुच अच्छा है। मुझे अपने कर्तव्य निभाने में अंतहीन ऊर्जा महसूस होती थी और मुझे लगता था कि मेरा त्याग करना, खुद को खपाना और कष्ट सहना सार्थक है। मैं अपने दिल की गहराई से परमेश्वर की प्रशंसा करती थी और उसका धन्यवाद करती थी। लेकिन जब मैंने देखा कि मेरी पोती को ब्रेन ट्यूमर है और उसके पास जीने के लिए केवल दो महीने बचे हैं, तो मैंने परमेश्वर से उसकी रक्षा न करने के लिए शिकायत की। मैं हर दिन परमेश्वर से प्रार्थना करती और विनती करती, अपनी पोती के ठीक होने की उम्मीद करती और चाहती थी कि परमेश्वर उसे ठीक कर दे। मैंने अपने कर्तव्य निभाने के लिए कड़ी मेहनत भी की, उम्मीद रखी कि परमेश्वर अपने कर्तव्य निभाने में मेरी निष्ठा के आधार पर चमत्कारिक रूप से मेरी पोती को फिर से ठीक कर देगा। लेकिन जब मेरी पोती का निधन हुआ तो मैं नकारात्मक हो गई और फिर से शिकायत करने लगी और मैं अब अपने कर्तव्य भी नहीं निभाना चाहती थी। यहाँ तक कि मैंने परमेश्वर से तर्क-वितर्क करने के लिए अपने पिछले त्यागों और खुद को खपाने का जिक्र भी किया। मैं किस तरह से परमेश्वर की विश्वासी थी? मैंने सोचा कि कैसे पौलुस ने अपना जीवन परमेश्वर को समर्पित कर दिया, हर जगह कलीसियाएँ स्थापित कीं, यहाँ तक कि कारावास भी भुगता, यह सब परमेश्वर से पुरस्कार और आशीषें पाने की आशा में किया। उसने खुद को खपाने के अपने सभी मामलों को धार्मिकता के मुकुट के लिए सौदेबाजी के साधन के तौर पर देखा, इन चीजों का इस्तेमाल परमेश्वर को मजबूर करने के लिए किया। उसने परमेश्वर के स्वभाव को बुरी तरह से नाराज किया और अंततः उसे परमेश्वर से दंड और शाप भुगतने पड़े। अनुसरण के बारे में मेरा दृष्टिकोण पौलुस जैसा ही था। मैं सोचती थी कि जितना ज्यादा मैं परमेश्वर के लिए त्याग करूँगी और खुद को खपाऊँगी, उतना ही ज्यादा उसे मुझे बदले में देना चाहिए और जब परमेश्वर ने मुझे आशीष नहीं दिया, तो मैंने उसके अधार्मिक होने की शिकायत की। मैंने देखा कि मैं कितनी स्वार्थी और नीच थी, सिर्फ मुनाफा खोज रही थी, मानो मैं बाहरी दुनिया में काम कर रही थी, यह सोचती थी कि मैं जितना अधिक काम करूँगी, मुझे उतना ज्यादा वेतन मिलेगा और अगर मुझे यह न मिला, तो मैं काम नहीं करूँगी। अपना कर्तव्य निभाना पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायसंगत है, लेकिन मैं सिर्फ इसलिए अपना कर्तव्य निभा रही थी कि परमेश्वर मुझे आशीष और अनुग्रह दे। मैं सिर्फ अपने हितों की खातिर अपने कर्तव्य निभा रही थी। मुझमें कोई ईमानदारी नहीं थी और यह पूरी तरह से लेन-देन था। मेरे नीच इरादों के कारण सचमुच परमेश्वर मुझसे घृणा करने लगा था।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “चाहे उसके साथ कितनी भी चीजें घटित हो जाएँ, मसीह-विरोधी जैसा व्यक्ति कभी परमेश्वर के वचनों में सत्य खोजकर उन्हें हल करने की कोशिश नहीं करता, चीजें परमेश्वर के वचनों के माध्यम से देखने की कोशिश तो वह बिल्कुल भी नहीं करता—जो पूरी तरह से इसलिए है, क्योंकि वह इस पर विश्वास नहीं करता कि परमेश्वर के वचनों की प्रत्येक पंक्ति सत्य है। परमेश्वर का घर सत्य पर चाहे जिस भी तरह संगति करे, मसीह-विरोधी उसे ग्रहण नहीं करते, जिसका नतीजा यह होता है कि चाहे उन्हें किसी भी स्थिति का सामना करना पड़े, उनमें सही रवैये का अभाव रहता है; विशेष रूप से, जब यह बात आती है कि वे परमेश्वर और सत्य को कैसे लेते हैं, तो मसीह-विरोधी हठपूर्वक अपनी धारणाएँ अलग रखने से इनकार कर देते हैं। जिस परमेश्वर में वे विश्वास करते हैं, वह एक ऐसा परमेश्वर है जो चिह्न और चमत्कार दिखाता है, यानी एक अलौकिक परमेश्वर। जो कोई भी संकेत और चमत्कार दिखा सकता है—चाहे वह गुआनयिन बोधिसत्व हो, बुद्ध हो या माजू हो—वे उन्हें देवता कहते हैं। वे मानते हैं कि जो संकेत और चमत्कार दिखा सकते हैं, सिर्फ वे ही देवताओं की पहचान रखने वाले देवता हैं और जो संकेत और चमत्कार नहीं दिखा सकते, वे चाहे कितने भी सत्य व्यक्त करें, आवश्यक नहीं कि वे देवता हों। वे यह नहीं समझते कि सत्य व्यक्त करना परमेश्वर की महान शक्ति और सर्वशक्तिमत्ता है; इसके बजाय, उन्हें लगता है कि सिर्फ संकेत और चमत्कार दिखाना ही देवताओं की महान शक्ति और सर्वशक्तिमत्ता है। इसलिए, लोगों को जीतने और बचाने, उनका सिंचन करने, उनकी चरवाही करने और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुआई करने, उन्हें वास्तव में परमेश्वर के न्याय, ताड़ना, परीक्षणों और शोधन का अनुभव करने और सत्य समझने, अपने भ्रष्ट स्वभावों को त्यागने, और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने और उसकी आराधना करने वाले लोग बनने में सक्षम बनाने, आदि के लिए सत्य व्यक्त करने के देहधारी परमेश्वर के व्यावहारिक कार्य की बात करें तो—मसीह-विरोधी इन सबको मनुष्य का कार्य मानते हैं, परमेश्वर का नहीं। मसीह-विरोधियों के विचार में देवताओं को वेदी के पीछे छिपा होना चाहिए और अपने लिए चढ़ावे चढ़वाने चाहिए, लोगों द्वारा चढ़ाए गए खाद्य पदार्थ खाने चाहिए, उनकी जलाई गई धूपबत्ती का धुआँ सूँघना चाहिए, उनके मुसीबत में होने पर मदद के लिए हाथ बढ़ाना चाहिए, खुद को बहुत शक्तिशाली दिखाना चाहिए और लोगों की समझ के दायरे में उन्हें तत्काल सहायता प्रदान करनी चाहिए, और जब लोग मदद माँगें और उनकी विनती में ईमानदारी हो तो उनकी जरूरतें पूरी करनी चाहिए। मसीह-विरोधियों के अनुसार सिर्फ ऐसा परमेश्वर ही सच्चा परमेश्वर है। इस बीच, आज परमेश्वर जो कुछ भी करता है, उसमें उसे मसीह-विरोधियों का तिरस्कार झेलना पड़ता है। और ऐसा क्यों है? मसीह-विरोधियों के प्रकृति सार को देखते हुए, उन्हें जिस चीज की जरूरत है, वह सिंचन, चरवाही और उद्धार का वह कार्य नहीं है जो सृष्टिकर्ता सृजित प्राणियों पर करता है, बल्कि सभी चीजों में समृद्धि और उनकी इच्छाओं की पूर्ति करना, इस दुनिया में दंडित न किया जाना और आने वाली दुनिया में स्वर्ग जाना है। उनका दृष्टिकोण और जरूरतें सत्य के प्रति उनकी घृणा के उनके सार की पुष्टि करती हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद पंद्रह : वे परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते और वे मसीह के सार को नकारते हैं (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मुझे एहसास हुआ कि कई साल तक परमेश्वर का अनुसरण करने के बावजूद मैं अभी भी एक अज्ञात परमेश्वर में विश्वास करती थी। मैंने परमेश्वर को एक बोधिसत्व की तरह माना, उसे केवल आशीष देने वाली वस्तु के रूप में देखा, यह विश्वास किया कि जब तक मैं ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करती हूँ और अपने कर्तव्य निभाती हूँ, परमेश्वर मुझे आशीष देगा और मेरे परिवार की शांति सुनिश्चित करेगा और उन्हें बीमारी और आपदा से मुक्त रखेगा। जब मेरी पोती को एक लाइलाज बीमारी होने का पता चला, तो मैंने सोचा कि मैं अपने कर्तव्य और अधिक करके परमेश्वर से चमत्कार करने और उसे ठीक करने की माँग कर सकती हूँ। मैंने परमेश्वर को एक ऐसी वस्तु के रूप में माना जो बड़े आशीष प्रदान करती है, यह सोचा कि परमेश्वर को मेरे “ईमानदार” त्यागों के आधार पर मेरी माँगें पूरी करनी चाहिए। यह परमेश्वर में सच्चा विश्वास कैसे था? अंत के दिनों में परमेश्वर का कार्य चमत्कार करना या लोगों को ठीक करना और राक्षसों को निकालना नहीं होता, बल्कि न्याय और ताड़ना का कार्य करने, लोगों को शुद्ध करने और उनके भ्रष्ट स्वभाव से बचाने के लिए सत्य व्यक्त करना होता है ताकि उन्हें बचाया जा सके। फिर भी मैं परमेश्वर के कार्य को नहीं जानती थी और इस बात पर आत्म-चिंतन नहीं करती थी कि मेरी आस्था के वर्षों में अनुसरण के बारे में मेरे क्या विचार थे और मैंने कौन सा मार्ग अपनाया था। मैंने परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों पर ध्यान नहीं दिया था, न ही मैंने परमेश्वर के वचनों का व्यावहारिक रूप से अनुभव किया या परमेश्वर द्वारा आयोजित परिवेशों में स्वभाव में परिवर्तन का प्रयास किया। इसके बजाय मैं बस परमेश्वर से सौदेबाजी करने की कोशिश कर रही थी, अनुग्रह और आशीषों की माँग कर रही थी। परमेश्वर में विश्वास करने के मेरे और मूर्तिपूजकों के रवैये में क्या अंतर था? क्या यह परमेश्वर के प्रति ईशनिंदा नहीं थी? मैंने परमेश्वर में अपनी आस्था में सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया, बल्कि उसका अनुग्रह और आशीष पाने पर ध्यान केंद्रित किया। यहाँ तक कि मैं अपनी पोती की मृत्यु के कारण प्रतिरोधी भी थी और अपने दिल में शिकायत करती थी, सोचती थी कि परमेश्वर अधार्मिक है। मैं तो अब अपने कर्तव्य भी नहीं करना चाहती थी। मैं परमेश्वर के पूर्ण विरोध में खड़ी थी और अगर मैं पश्चात्ताप न करती, तो चाहे मैंने जितना भी त्याग किया हो या खुद को खपाया हो, मुझे परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिल पाती।

बाद में मैंने परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़े और मुझे इस बात की अधिक स्पष्ट समझ मिली कि परमेश्वर में विश्वास करने में मेरा अनुसरण क्या होना चाहिए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “तुम्हें लग सकता है कि परमेश्वर पर विश्वास करना कष्ट सहने या उसके लिए कई चीजें करने से ताल्लुक रखता है; तुम्हें लग सकता है कि परमेश्वर में विश्वास का प्रयोजन तुम्हारी देह की शांति के लिए है, या इसलिए है कि तुम्हारी जिंदगी में सब-कुछ ठीक रहे, या इसलिए कि तुम आराम से रहो और हर चीज में सहज रहो। परंतु इनमें से कोई भी प्रयोजन ऐसा नहीं है, जिसे लोगों को परमेश्वर पर अपने विश्वास के साथ जोड़ना चाहिए। अगर तुम इन प्रयोजनों के लिए विश्वास करते हो, तो तुम्हारा दृष्टिकोण गलत है, और तुम्हें पूर्ण बनाया जाना बिलकुल संभव नहीं है। परमेश्वर के क्रियाकलाप, परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव, उसकी बुद्धि, उसके वचन, और उसकी अद्भुतता और अगाधता ही वे सब चीजें हैं, जिन्हें लोगों को समझना चाहिए। यह समझ होने पर, तुम्हें इसका उपयोग अपने हृदय को व्यक्तिगत माँगों, आशाओँ और धारणाओं से छुटकारा दिलाने के लिए करना चाहिए। केवल इन चीजों को दूर करके ही तुम परमेश्वर द्वारा अपेक्षित शर्तें पूरी कर सकते हो, और केवल ऐसा करके ही तुम जीवन प्राप्त कर सकते हो और परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हो। परमेश्वर पर विश्वास करने का प्रयोजन उसे संतुष्ट करना और उसके द्वारा अपेक्षित स्वभाव को जीना है, ताकि अयोग्य लोगों के इस समूह के माध्यम से उसके क्रियाकलाप और उसकी महिमा प्रकट हो सके। परमेश्वर पर विश्वास करने का यही सही दृष्टिकोण है और यही वह लक्ष्य भी है, जिसे तुम्हें पाना चाहिए(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। “मनुष्य के कर्तव्य और उसे आशीष का प्राप्त होना या दुर्भाग्य सहना, इन दोनों के बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। आशीष प्राप्त होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। दुर्भाग्य सहना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें आशीष प्राप्त होते हैं या दुर्भाग्य सहना पड़ता है, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल आशीष प्राप्त करने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें दुर्भाग्य सहने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि परमेश्वर में विश्वास करने का मतलब आशीष खोजना या अपने लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अपने कर्तव्यों का उपयोग करना नहीं होना चाहिए, इसके बजाय मुझे अपना भ्रष्ट स्वभाव ठीक करने के लिए परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित किए गए परिवेशों में सत्य की खोज करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, अपने वास्तविक अनुभवों का उपयोग करके परमेश्वर की गवाही देनी चाहिए और सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य पूरे करने चाहिए। परमेश्वर में विश्वास करने में अनुसरण का यही सही दृष्टिकोण है। साथ ही मुझे यह भी एहसास हुआ कि अपनी आस्था में कर्तव्यों का पालन करने का आशीष प्राप्त करने या दुर्भाग्य सहने से कोई संबंध नहीं है क्योंकि एक सृजित प्राणी के कर्तव्य पूरे करना हमारी जिम्मेदारी है और चाहे हम आशीषों का सामना करें या दुर्भाग्य का, हमें अपने कर्तव्यों से दूर हुए बिना निष्ठापूर्वक उन्हें पूरा करना चाहिए। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मुझे तुम्हारे बारे में शिकायत नहीं करनी चाहिए या तुमसे अनुग्रह और आशीषों की माँग नहीं करनी चाहिए। तुम जो कुछ भी करते हो वह अच्छा है और तुमसे सौदेबाजी करने की कोशिश के दौरान मैं सत्य का अनुसरण न करने या तुम्हारे कार्य को न समझ पाने के मामले में अंधी थी। अब मैं अनुसरण के बारे में अपना गलत दृष्टिकोण त्यागने और तुम्हारी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने के लिए तैयार हूँ।”

इस परीक्षण और शोधन का अनुभव करने के बाद मुझे परमेश्वर में अपनी आस्था में आशीषें प्राप्त करने के अशुद्ध इरादे के बारे में कुछ समझ मिली, परमेश्वर में विश्वास करने के बारे में मेरा परिप्रेक्ष्य थोड़ा बदल गया है और मुझे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता के बारे में कुछ समझ प्राप्त हुई है। मैं यह भी समझती हूँ कि परीक्षणों और शोधन का अनुभव करना अच्छी बात है और यह मेरे लिए परमेश्वर का प्रेम है। परमेश्वर को उसके उद्धार के लिए धन्यवाद!

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