94. अपने कर्तव्य में दूसरा काम सौंपे जाने से सीखे गए सबक

सुन यान, चीन

अप्रैल 2023 में मुझे दूसरा काम सौंपा गया क्योंकि मुझे कई महीनों से अपने पाठ-आधारित कर्तव्य में कोई नतीजा नहीं मिला था। अगुआ ने कहा कि मेरी काबिलियत खराब है और मैं पाठ-आधारित कर्तव्य के लिए उपयुक्त नहीं हूँ और इसलिए वह मुझे भाई-बहनों को पत्र पहुँचाने के लिए कह रहा था। जब मैंने यह सुना तो मेरा दिल काँप उठा और मैंने सोचा, “ऐसा कहकर अगुआ मूल रूप से मुझे खराब काबिलियत वाले व्यक्ति का ठप्पा लगा रहा है और मुझे फिर कभी पाठ-आधारित कर्तव्य जैसा काम करने का मौका नहीं मिलेगा!” फिर मैंने भाई-बहनों को पत्र पहुँचाने के बारे में सोचा और मेरा दिल और भी बैठ गया। मुझे लगा कि यह सिर्फ तुच्छ श्रम है और यह बिल्कुल भी महत्वपूर्ण नहीं है। मैंने मन ही मन सोचा, “सिर्फ शिक्षित और बौद्धिक गहराई वाले लोग ही पाठ-आधारित कर्तव्य कर सकते हैं और इस कर्तव्य में जीवन प्रवेश भी शामिल है और इसके लिए सत्य की अच्छी समझ की जरूरत होती है। यह अपेक्षाकृत सम्मानजनक कर्तव्य है। अब जब मुझे सामान्य मामलों के कर्तव्यों में दूसरा काम सौंपा गया है तो मेरे आस-पास के भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? निश्चित रूप से उनके दिलों में मेरा महत्व पहले जैसा नहीं रहेगा। मेरी काबिलियत खराब है, इसलिए मैं अगुआ या कार्यकर्ता का कर्तव्य नहीं निभा सकती और मैं वचनों के साथ भी अच्छी नहीं हूँ, इसलिए मैं सुसमाचार कार्य या नवागंतुकों के सिंचन के लिए भी उपयुक्त नहीं हूँ। इसलिए अब से ऐसा लगता है कि मैं सामान्य मामलों के कर्तव्य करने में फँस जाऊँगी।” ये विचार मेरे दिल पर चाकू मारने जैसे थे। मुझे लगा जैसे मेरा रुतबा गिर गया है और मेरी अहमियत कम हो गई है, जैसे मैं किसी सम्मानित व्यक्ति से सड़क पर चलते किसी अनजान राहगीर में बदल रही हूँ। मैं इसे स्वीकार नहीं सकी और मैं वाकई नकारात्मक और निराश हो गई। अगुआ ने मुझसे मेरे विचार पूछे और मैं वाकई कहना चाहती थी कि मैं यह कर्तव्य नहीं करना चाहती, लेकिन मुझे लगा कि अगर मैं ऐसा कहूँगी तो यह अनुचित होगा। आखिरकार क्या यह अपना कर्तव्य अस्वीकारना और परमेश्वर के साथ विश्वासघात करना नहीं होगा? अंत में मैंने अपनी राय नहीं बताई। उस रात मैं अपना दिल शांत नहीं कर सकी और मैं अगुआ की बातों पर विचार करती रही कि मैं अपनी खराब काबिलियत के कारण पाठ-आधारित कर्तव्य के लिए उपयुक्त नहीं हूँ। मुझे एहसास हुआ कि मेरी मनोदशा अच्छी नहीं है, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मुझे प्रबुद्ध करने और मेरी मनोदशा उलटने के लिए मार्गदर्शन करने को कहा।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसमें किसी के कर्तव्य में दूसरा काम सौंपे जाने के बारे में बताया गया था। परमेश्वर कहता है : “जिन मामलों में लोग अपने उचित स्थान पर रहने में विफल रहे हैं, और जो उन्हें करना चाहिए, उसे पूरा करने में असफल रहे हैं—यानी, जब वे अपने कर्तव्य में विफल होते हैं—तो यह उनके भीतर एक गाँठ बन जाएगा। यह एक बहुत ही व्यावहारिक समस्या है, और इसे हल किया जाना है। तो इसे हल कैसे किया जाए? लोगों का रवैया कैसा होना चाहिए? सबसे पहले, उन्हें खुद को परिवर्तित करने के लिए तैयार रहना चाहिए। और परिवर्तित होने की इस इच्छा का अभ्यास कैसे किया जाए? मिसाल के तौर पर, कोई व्यक्ति एक-दो वर्ष तक अगुआ होता है, लेकिन काबिलियत कम होने के कारण वह अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से नहीं निभा पाता, किसी भी हालत को स्पष्ट रूप से नहीं देख सकता, नहीं जानता कि समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य का प्रयोग कैसे करें, कोई वास्तविक कार्य नहीं कर सकता; इसलिए उसे बर्खास्त कर दिया जाता है। अगर बर्खास्त होने जाने के बाद, वह आज्ञापालन कर पाता है, अपना कर्तव्य निर्वहन जारी रख पाता है, और परिवर्तित होने को तैयार है, तो उसे क्या करना चाहिए? सबसे पहले, उसे यह बात समझनी चाहिए, ‘परमेश्वर ने जो किया वह सही था। मेरी काबिलियत बहुत खराब है, और इतने लंबे समय से मैंने कोई वास्तविक काम नहीं किया है, बल्कि कलीसिया कार्य और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को बाधित ही किया है। मैं भाग्यशाली हूँ कि परमेश्वर के घर ने मुझे पूरी तरह से निष्कासित नहीं किया है। मैं वास्तव में बहुत बेशर्म रहा हूँ, इतने समय तक अपने स्थान से चिपका रहा हूँ और यह मानता भी रहा हूँ कि मैंने बहुत महान काम किया है। मैं कितना नासमझ था!’ आत्म-घृणा और पछतावे की भावना महसूस करने में सक्षम होने के लिए : क्या यह सुधार कर वापस मुड़ने के लिए तैयार होने की अभिव्यक्ति है या नहीं है? यदि वह ऐसा कह पाता है, तो इसका अर्थ है कि वह तैयार है। यदि वह अपने मन में कहे, ‘इतने वर्षों तक अगुआ रहने के दौरान, मैंने हमेशा हैसियत के लाभ पाने के प्रयास किए हैं, मैं हमेशा धर्मसिद्धांत का प्रचार करता रहा हूँ, अपने आप को सिद्धांत से युक्त करता रहा हूँ; मैंने जीवन प्रवेश के लिए प्रयास नहीं किया, अब जबकि मुझे हटा दिया गया है, तब जाकर मैं समझ सका हूँ कि मेरे अंदर कितनी कमियाँ हैं, मैं कितना नाकाफी हूँ। परमेश्वर ने सही किया, और मुझे आज्ञापालन करना चाहिए। पहले, मेरे पास हैसियत थी, भाई-बहन मेरे साथ अच्छा व्यवहार करते थे; मैं जहाँ भी जाता लोग मुझे घेर लेते थे। अब कोई मेरी ओर ध्यान भी नहीं देता, मैं त्याग दिया गया हूँ; यह तो मेरे साथ होना ही था, मैं इस प्रतिकार के ही लायक हूँ। इसके अलावा, परमेश्वर के सामने किसी सृजित प्राणी की कोई हैसियत कैसे हो सकती है? किसी की हैसियत चाहे जितनी भी ऊँची क्यों हो, यह न तो अंत है और न ही गंतव्य; परमेश्वर मुझे इसलिए आदेश नहीं सौंपता कि मैं अपना भाव दिखाता फिरूँ या अपनी हैसियत के मजे लूटूं, बल्कि इसलिए सौंपता है कि मैं अपना कर्तव्य निभाऊँ, और जो कुछ मैं कर सकता हूँ, वह करूँ। मुझे परमेश्वर की संप्रभुता और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के प्रति आज्ञाकारिता का रवैया रखना चाहिए। हालाँकि आज्ञाकारिता कठिन हो सकती है, लेकिन मुझे आज्ञापालन करना चाहिए; परमेश्वर जो करता है, ठीक ही करता है, यदि मेरे पास हजारों-हज़ार बहाने होते, तो भी उनमें से कोई भी सत्य नहीं होता। परमेश्वर का आज्ञापालन करना ही सत्य है!’ ये सभी परिवर्तित होने की इच्छा की सटीक अभिव्यक्तियाँ हैं। और यदि किसी के अंदर ये सारे गुण हों, तो परमेश्वर ऐसे व्यक्ति का मूल्यांकन कैसे करेगा? परमेश्वर कहेगा कि यह व्यक्ति जमीर और विवेकपूर्ण है। क्या यह मूल्यांकन ऊँचा है? यह बहुत अधिक ऊँचा नहीं है; केवल जमीर और विवेक का होना परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के मानकों से कम है—लेकिन जहाँ तक इस प्रकार के व्यक्ति का संबंध है, यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। समर्पण करने में समर्थ होना मूल्यवान है। इसके बाद, व्यक्ति अपने बारे में परमेश्वर की सोच को किस तरह बदलने का प्रयास करता है यह इस पर निर्भर करता है कि वह कौन-सा पथ चुनता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (3))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मुझे अपने कर्तव्य में दूसरा काम सौंपे जाने के बारे में पश्चात्ताप का रवैया अपनाना चाहिए। चाहे कोई भी वजह हो या कोई भी बात मुझे समझ न आ रही हो, मुझे खुद को अलग रखना था, सबसे पहले स्वीकारना और समर्पण करना था, अपने मसलों को जानना था और अपने कर्तव्य अच्छी तरह से न निभाने के लिए पछतावा और अपराध बोध महसूस करना था। मैंने अपने पाठ-आधारित कर्तव्य में कोई नतीजा हासिल नहीं किया था और मैंने काम में लंबे समय तक देरी की थी, इसलिए मुझे इसके अनुरूप दूसरा काम सौंपे जाने को स्वीकारना चाहिए। चाहे कलीसिया ने मेरे लिए जो भी व्यवस्था की हो या मेरे साथ कैसा भी व्यवहार किया हो, मेरी अपनी प्राथमिकताएँ नहीं होनी चाहिए और मुझे स्वीकारना और आज्ञापालन करना चाहिए। तार्किक होने का यही मतलब है। लेकिन मैंने न सिर्फ अपने कर्तव्य में नाकाम होने और कलीसिया के कार्य में देरी करने के लिए पछतावा या ऋणी महसूस नहीं किया, बल्कि मैं हताशा और प्रतिरोध की भावनाओं में भी डूबी हुई थी क्योंकि मुझे लगा कि मैंने अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा गँवा दिया है। मेरे पास वाकई विवेक की कमी थी! इन बातों को पहचानने के बाद भले ही मैं अपनी मानसिकता को कुछ हद तक समायोजित करने में सक्षम हो गई, कभी-कभी मैं अभी भी इस बात को लेकर चिंतित रहती थी कि भाई-बहन मुझे कैसे देखेंगे और जब भी मैं इन बातों के बारे में सोचती तो मैं बहुत परेशानी हो जाती। मेरे दिल में अभी भी उम्मीद की एक किरण थी, सोच रही थी, “शायद अगुआ मुझे फिर से पाठ-आधारित कर्तव्य करने का एक और मौका देगा? इस तरह मैं अपना गौरव वापस पा सकूँगी,” लेकिन फिर मैंने सोचा, “मेरे कर्तव्य के नतीजे सभी के लिए स्पष्ट हैं। अगर मुझे फिर से पाठ-आधारित कर्तव्य करने की अनुमति दी जाती है तो क्या मैं कलीसिया के कार्य में देरी नहीं करूँगी?” यह एहसास होने पर कि मेरी मनोदशा अब भी वैसी ही थी, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मुझे पता है कि मेरे लिए अपने कर्तव्य में दूसरा काम सौंपा जाना सही है, लेकिन मैं अभी भी बहुत परेशान होती हूँ। मुझे लगता है कि सामान्य मामलों के कर्तव्य करना कमतर है और मैं अभी भी इस बात की बहुत परवाह करती हूँ कि दूसरे मेरे बारे में क्या सोचते हैं। हे परमेश्वर, मैं समर्पण कर ही नहीं पा रही और मैं अभी भी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे पर ध्यान केंद्रित कर रही हूँ। यह मेरा भ्रष्ट स्वभाव है, लेकिन मैं इसे सुलझाने के लिए सत्य की खोज करने को तैयार हूँ। मेरी गलत मनोदशा को उलटने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो।”

प्रार्थना करने के बाद मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया और मैंने उसे खोजकर पढ़ा। परमेश्वर कहता है : “अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के प्रति मसीह-विरोधियों का चाव सामान्य लोगों से कहीं ज्यादा होता है और यह एक ऐसी चीज है जो उनके स्वभाव सार के भीतर होती है; यह कोई अस्थायी रुचि या उनके परिवेश का क्षणिक प्रभाव नहीं होता—यह उनके जीवन, उनकी हड्डियों में समायी हुई चीज है और इसलिए यह उनका सार है। कहने का तात्पर्य यह है कि मसीह-विरोधी लोग जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार उनकी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे का होता है और कुछ नहीं। मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा ही उनका जीवन और उनके जीवन भर का लक्ष्य होता है। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार यही होता है : ‘मेरे रुतबे का क्या होगा? और मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? क्या ऐसा करने से मुझे अच्छी प्रतिष्ठा मिलेगी? क्या इससे लोगों के मन में मेरा रुतबा बढ़ेगा?’ यही वह पहली चीज है जिसके बारे में वे सोचते हैं, जो इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि उनमें मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार है; इसलिए वे चीजों को इस तरह से देखते हैं। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा कोई अतिरिक्त आवश्यकता नहीं है, ये कोई बाहरी चीज तो बिल्कुल भी नहीं है जिसके बिना उनका काम चल सकता हो। ये मसीह-विरोधियों की प्रकृति का हिस्सा हैं, ये उनकी हड्डियों में हैं, उनके खून में हैं, ये उनमें जन्मजात हैं। मसीह-विरोधी इस बात के प्रति उदासीन नहीं होते कि उनके पास प्रतिष्ठा और रुतबा है या नहीं; यह उनका रवैया नहीं होता। फिर उनका रवैया क्या होता है? प्रतिष्ठा और रुतबा उनके दैनिक जीवन से, उनकी दैनिक स्थिति से, जिस चीज का वे रोजाना अनुसरण करते हैं उससे, घनिष्ठ रूप से जुड़ा होता है। और इसलिए मसीह-विरोधियों के लिए रुतबा और प्रतिष्ठा उनका जीवन हैं। चाहे वे कैसे भी जीते हों, चाहे वे किसी भी परिवेश में रहते हों, चाहे वे कोई भी काम करते हों, चाहे वे किसी भी चीज का अनुसरण करते हों, उनके कोई भी लक्ष्य हों, उनके जीवन की कोई भी दिशा हो, यह सब अच्छी प्रतिष्ठा और ऊँचा रुतबा पाने के इर्द-गिर्द घूमता है। और यह लक्ष्य बदलता नहीं; वे कभी ऐसी चीजों को दरकिनार नहीं कर सकते। यह मसीह-विरोधियों का असली चेहरा और सार है। तुम उन्हें पहाड़ों की गहराई में किसी घने-पुराने जंगल में छोड़ दो, फिर भी वे प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे दौड़ना नहीं छोड़ेंगे। तुम उन्हें लोगों के किसी भी समूह में रख दो, फिर भी वे सिर्फ प्रतिष्ठा और रुतबे के बारे में ही सोचेंगे। यूँ तो मसीह-विरोधी भी परमेश्वर में विश्वास करते हैं, फिर भी वे प्रतिष्ठा और रुतबे के अनुसरण को परमेश्वर में आस्था के समकक्ष देखते हैं और दोनों चीजों को समान पायदान पर रखते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जब वे परमेश्वर में आस्था के मार्ग पर चलते हैं तो वे प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण भी करते हैं। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों के दिलों में परमेश्वर पर उनकी आस्था में सत्य का अनुसरण ही प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण है तो प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण सत्य का अनुसरण भी है; प्रतिष्ठा और रुतबा हासिल करना सत्य और जीवन हासिल करना है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर उजागर करता है कि मसीह-विरोधी जो कुछ भी करते हैं, हमेशा उसमें अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को सबसे पहले ध्यान में रखते हैं, यह प्रतिष्ठा और रुतबा उनके दिल पर हावी होता है। चाहे उनकी परिस्थितियाँ कुछ भी हों या वे जो भी कर रहे हों, वे प्रतिष्ठा और रुतबा प्राप्त करने का अपना लक्ष्य नहीं बदलते। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह उनकी हड्डियों और उनके जीवन में समा गया है। यह उनका प्रकृति सार है। मैं बिल्कुल मसीह-विरोधी की तरह व्यवहार कर रही थी। जब अगुआ ने कहा कि मेरी काबिलियत पाठ-आधारित कर्तव्य के लिए अपर्याप्त है और मुझे सामान्य मामलों के कर्तव्य करने के लिए व्यवस्थित किया, मैं अपनी समस्याओं से सही ढंग से पेश नहीं आ सकी और उचित रूप से समर्पण नहीं कर सकी। इसके बजाय मुझे अचानक लगा कि मेरी अहमियत कम हो गई है। मैं सोचती रही कि दूसरे मुझे कैसे देखेंगे और मुझे डर था कि भाई-बहनों के दिलों में मेरा ओहदा कम हो जाएगा और मुझे डर था कि वे मुझे महत्वहीन सामान्य मामलों के कार्यकर्ता के रूप में देखेंगे। मेरी काबिलियत कम थी और मैं पाठ-आधारित कर्तव्य में अच्छी नहीं थी, इसलिए अगुआ ने मुझे एक अलग कर्तव्य सौंपा, जो कलीसिया के कार्य के लिए विचारशील होने पर आधारित था और यह पूरी तरह से उचित था। एक तर्कशील व्यक्ति इस मामले को सही तरीके से स्वीकारेगा और व्यवहार करेगा, लेकिन मैंने प्रतिष्ठा और रुतबे पर बहुत ज्यादा जोर दिया। मुझे हमेशा यह चिंता रहती थी कि सामान्य मामलों के कर्तव्य करने से दूसरे लोग मुझे नीची नजर से देखेंगे, इसलिए मैं बस समर्पण नहीं कर सकी, यहाँ तक कि जब मुझे लगा कि प्रतिष्ठा और रुतबे की मेरी इच्छा पूरी नहीं हो रही है तो मुझे अपने कर्तव्यों में कोई अर्थ नहीं मिला। मेरे मन में अपने कर्तव्य को अस्वीकारने और परमेश्वर को धोखा देने के विचार भी आए। मैं शैतानी दर्शन के अनुसार जीती थी जैसे “एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है” और “लोगों को हमेशा अपने समकालीनों से बेहतर होने का प्रयत्न करना चाहिए।” मेरा मानना था कि जीवन में एक व्यक्ति को दूसरों से आगे निकलना चाहिए और दूसरों को उसका आदर करना चाहिए और तभी जीवन महिमामय और मूल्यवान होगा। जब से मैंने परमेश्वर को पाया है, मैं हमेशा कलीसिया में एक उच्च पद चाहती थी और चाहती थी कि मेरे भाई-बहनों द्वारा मेरा बहुत सम्मान किया जाए। अपने कर्तव्यों में मैंने अक्सर प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण करने के भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट किया और भले ही मैंने इस संबंध में परमेश्वर के कई वचन पढ़े थे, फिर भी मैं जिद्दी होकर प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भाग रही थी। ये शैतानी जहर मुझमें इतनी गहराई से जड़ जमा चुके थे! अगर मैं बिना बदले प्रतिष्ठा और रुतबे का पीछा करती रही तो मैं इस निराशा की मनोदशा में रहूँगी और आखिरकार मैं निस्संदेह परमेश्वर को छोड़ दूँगी क्योंकि प्रतिष्ठा और रुतबे की मेरी इच्छाएँ संतुष्ट नहीं हो रही थीं। मुझे खुद के खिलाफ विद्रोह करना था, प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण करना बंद करना था।

एक दिन अगुआ ने मुझे भाई-बहनों को कुछ पत्र देने के लिए कहा। मेरे दिल में फिर से यह विचार आया, “इस कर्तव्य में तो बस दौड़-भाग करनी है।” मैं दमन की अपनी भावनाओं को बाहर निकालने के लिए आह भरने से खुद को रोक नहीं पाई। अपनी गलत मनोदशा पहचानते हुए मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की, अपने भ्रष्ट स्वभाव के खिलाफ विद्रोह करने और गर्व या रुतबे पर ध्यान न देने को मैं तैयार थी। इस तरह से सोचने से आखिरकार मुझे थोड़ी शांति मिली। मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश के बारे में सोचा जो मैंने पहले पढ़ा था : “परमेश्वर के घर में परमेश्वर का आदेश स्वीकारने और इंसान के कर्तव्य-निर्वहन का निरंतर उल्लेख होता है। कर्तव्य कैसे अस्तित्व में आता है? आम तौर पर कहें, तो यह मानवता का उद्धार करने के परमेश्वर के प्रबंधन-कार्य के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आता है; खास तौर पर कहें, तो जब परमेश्वर का प्रबंधन-कार्य मानवजाति के बीच खुलता है, तब विभिन्न कार्य प्रकट होते हैं, जिन्हें पूरा करने के लिए लोगों का सहयोग चाहिए होता है। इससे जिम्मेदारियाँ और विशेष कार्य उपजते हैं, जिन्हें लोगों को पूरा करना है, और यही जिम्मेदारियाँ और विशेष कार्य वे कर्तव्य हैं, जो परमेश्वर मानवजाति को सौंपता है। परमेश्वर के घर में जिन विभिन्न कार्यों में लोगों के सहयोग की आवश्यकता है, वे ऐसे कर्तव्य हैं जिन्हें उन्हें पूरा करना चाहिए। तो, क्या बेहतर और बदतर, बहुत ऊँचा और नीचा या महान और छोटे के अनुसार कर्तव्यों के बीच अंतर होता है? ऐसे अंतर नहीं होते; यदि किसी चीज का परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के साथ कोई लेना-देना हो, उसके घर के काम की आवश्यकता हो, और परमेश्वर के सुसमाचार-प्रचार को उसकी आवश्यकता हो, तो यह व्यक्ति का कर्तव्य होता है। यह कर्तव्य की उत्पत्ति और परिभाषा है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?)। “तो इस कर्तव्य की तुलना तुम्हारे सांसारिक मिशन से की जाए तो अधिक महत्वपूर्ण कौन-सा है? (मेरा कर्तव्य।) ऐसा क्यों है? कर्तव्य वह है जिसकी परमेश्वर तुमसे अपेक्षा करता है, जो उसने तुम्हें सौंपा है—एक कारण तो यही है। दूसरा, प्राथमिक कारण यह है कि जब तुम परमेश्वर के घर में कर्तव्य निर्वहन करते हुए परमेश्वर का आदेश स्वीकारते हो, तो तुम परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के लिए प्रासंगिक हो जाते हो। परमेश्वर के घर में, जब भी तुम्हारे लिए कोई व्यवस्था की जाती है, चाहे वह कठिन हो या थका देने वाला काम हो, और चाहे वह तुम्हें पसंद हो या नहीं, वह तुम्हारा कर्तव्य है। अगर तुम उसे परमेश्वर द्वारा दिया गया आदेश और जिम्मेदारी मान सकते हो, तो तुम मनुष्य को बचाने के उसके कार्य के लिए प्रासंगिक हो। और अगर तुम जो करते हो और जो कर्तव्य निभाते हो, वे मनुष्य को बचाने के परमेश्वर के कार्य के लिए प्रासंगिक हैं, और तुम परमेश्वर द्वारा दिए गए आदेश को गंभीरता और ईमानदारी से स्वीकार कर सकते हो, तो वह तुम्हें कैसे देखेगा? वह तुम्हें अपने परिवार के सदस्य के रूप में देखेगा। यह आशीष है या शाप? (आशीष।) यह एक बड़ा आशीष है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि अविश्वासियों की दुनिया में और परमेश्वर के घर में एक ही काम या कार्य की प्रकृति अलग-अलग होती है। परमेश्वर के घर में प्रत्येक कर्तव्य मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर की प्रबंधन योजना और कलीसिया के कार्य की जरूरतों से उत्पन्न होता है और इसमें रैंक में कोई भेद नहीं है, न ही बेहतर या बदतर, उच्च या निम्न के संदर्भ में कोई अंतर है। कोई भी कार्य चाहे कितना भी महत्वहीन क्यों न लगे, यह अभी भी एक कर्तव्य है जिसे किया जाना चाहिए। लेकिन मैंने कर्तव्यों को रैंकों में विभाजित किया, लोगों के रुतबे और ओहदे को वर्गीकृत करने के लिए कर्तव्यों का इस्तेमाल किया। मैंने सोचा कि एक अगुआ या कार्यकर्ता होना या पाठ-आधारित कर्तव्य करना जीवन प्रवेश से संबंधित बौद्धिक कार्य हैं और इन कर्तव्यों को करना सम्मानजनक, गौरवशाली, उच्च श्रेणी का है और इससे किसी व्यक्ति को महत्व मिलता है। इस बीच मैंने सामान्य मामलों के कर्तव्यों को कलीसिया के परिधीय कार्य के रूप में देखा, कि इन कर्तव्यों में सिर्फ शारीरिक श्रम शामिल है और इनका थोड़ा ही महत्व है और जो लोग इन्हें करते हैं वे अन्य कर्तव्यों को करने वालों की तुलना में हीन और निम्न स्तर के हैं। इस तरह से चीजों का न्याय करना सत्य के अनुरूप नहीं है। परमेश्वर के घर में हर कोई सुसमाचार कार्य फैलाने में अपना योगदान देने के लिए अपने कर्तव्य करता है। मशीन के हिस्सों की तरह प्रत्येक घटक अपनी भूमिका निभाता है और पूरी मशीन के लिए अपरिहार्य है। मैं जो सामान्य मामलों के कर्तव्य कर रही थी, वे भी कलीसिया के कार्य के लिए जरूरी थे। भाई-बहनों को परमेश्वर के वचनों के पत्र और किताबें पहुँचाने जैसे कार्य सामान्य मामलों के काम लग सकते हैं, लेकिन चूँकि वे कलीसिया के कार्य से जुड़े हैं, ये कर्तव्य किसी एक व्यक्ति के लिए नहीं किए जाते, बल्कि परमेश्वर के सामने अच्छे से पूरी की जाने वाली जिम्मेदारी हैं। इसके अलावा मेरे कर्तव्यों में दूसरा काम सौंपे जाने के माध्यम से प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण करने का मेरा गलत रास्ता, साथ ही कर्तव्यों के बारे में मेरे भ्रामक विचार प्रकट हुए। यह मेरे लिए परमेश्वर का उद्धार था!

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और सीखा कि कर्तव्यों में दूसरा काम सौंपे जाने को सही तरीके से कैसे लिया जाए। परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर सभी के साथ निष्पक्ष और समान व्यवहार करता है; चूँकि तुम कुछ नहीं कर पाते हो, इसलिए तुमसे सुसमाचार का उपदेश देने के लिए कहा जाता है—यह इसलिए किया जाता है ताकि तुम अपना अंतिम संभव कार्य उन हालातों में कर सको जिनमें तुम कोई दूसरा कर्तव्य स्वीकार करने में समर्थ नहीं हो। इसके जरिए तुम्हें एक अवसर और उम्मीद की एक किरण दी जा रही है; तुम्हें तुम्हारा कर्तव्य करने के अधिकार से वंचित नहीं किया जा रहा है। परमेश्वर के पास अब भी तुम्हारे लिए एक आदेश है और वह तुम्हारे खिलाफ पक्षपाती नहीं है। इसलिए सुसमाचार टीमों में नियुक्त किए गए लोगों को भुला दी गई पिछली दराज में नहीं भेजा जा रहा है और ना ही उनका त्याग किया जा रहा है बल्कि वे एक अलग जगह अपना कर्तव्य कर रहे हैं। ... इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम्हें कहाँ रखा गया है, तुम किस समय में हो या किस जगह हो, तुम किन लोगों के संपर्क में आते हो और तुम क्या कर्तव्य करते हो। परमेश्वर हमेशा तुम्हें देखेगा और तुम्हारे दिल की गहराइयों की पड़ताल करेगा। ऐसा मत सोचो कि चूँकि तुम सुसमाचार टीम के सदस्य हो इसलिए परमेश्वर तुम पर ध्यान नहीं देता है या परमेश्वर तुम्हें देख नहीं पाता है, इसलिए तुम जो चाहे कर सकते हो। और ऐसा मत सोचो कि अगर तुम्हें किसी सुसमाचार टीम में नियुक्त किया जाता है तो अब तुम्हारे पास बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं है और फिर इसे नकारात्मक रूप से सँभालने मत लगो। सोचने के ये दोनों तरीके ही गलत हैं। तुम्हें चाहे कहीं भी रखा गया हो या कोई भी कर्तव्य करने के लिए व्यवस्थित किया गया हो, तुम्हें यही करना चाहिए और तुम्हें इसे लगन और जिम्मेदारी से करना चाहिए। परमेश्वर की तुमसे अपेक्षाएँ नहीं बदलती हैं और इसलिए परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति तुम्हारा समर्पण भी नहीं बदलना चाहिए। सुसमाचार कार्यकर्ताओं का रुतबा वही है जो दूसरे कर्तव्य करने वाले लोगों का है; किसी व्यक्ति का मूल्य उसके द्वारा किए जाने वाले कर्तव्य से नहीं मापा जाता है, बल्कि इस बात से मापा जाता है कि क्या वह सत्य का अनुसरण करता है और क्या उसके पास सत्य वास्तविकता है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (9))। परमेश्वर के वचनों के इस अंश को पढ़ने के बाद कर्तव्यों में दूसरा काम सौंपे जाने पर मेरे गलत विचार सही हो गए। शुरू में मुझे हमेशा लगता था कि मेरा सामान्य मामलों के कर्तव्य करने का मतलब है कि मैं एक सम्मानित व्यक्ति से सड़क पर चलते किसी अनजान राहगीर में बदल रही हूँ। मुझे तो यहाँ तक भी लगा कि जैसे मुझे भुला देने के लिए किसी कोने में रख दिया गया है ताकि मुझ पर कभी किसी का ध्यान ही न जाए। लेकिन परमेश्वर के वचनों की रोशनी में मुझे एहसास हुआ कि यह समझ भ्रामक थी। अपनी खराब काबिलियत की वजह से मैं पाठ-आधारित कर्तव्य के लिए अनुपयुक्त थी। कलीसिया ने मेरे लिए मेरी काबिलियत के अनुसार सामान्य मामलों के कर्तव्य करने की व्यवस्था की थी। इसमें मुझे अपनी क्षमता के अनुसार कर्तव्य करने और अपनी भूमिका निभाने का अवसर दिया गया था। इसका एहसास होने पर मुझे वाकई अपराध बोध हुआ। मेरे पास कोई विशेष कौशल नहीं था और मैं अन्य कर्तव्य नहीं कर सकती थी, फिर भी परमेश्वर के घर ने जहाँ तक संभव हो मेरे लिए एक कर्तव्य की व्यवस्था की थी, जिससे मुझे उद्धार का मौका मिला। लेकिन मैंने इसे कैसे देखा था? मैंने कर्तव्यों में दूसरा काम सौंपे जाने को अपने अपमान और हाशिये पर धकेले जाने के रूप में देखा था। मेरी समझ बहुत बेतुकी थी और मुझे नहीं पता था कि मेरे लिए क्या अच्छा है! जितना मैंने इसके बारे में सोचा, उतना ही मैं परमेश्वर के प्रति ऋणी होती गई। मैंने सोचा कि मुझे सामान्य मामलों के काम की जरूरतों और सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य ठीक से करना था और इसे परमेश्वर की ओर से एक आदेश मानना था, मुझे यह कर्तव्य अच्छी तरह से करना था ताकि परमेश्वर के श्रमसाध्य इरादों को निराश न करूँ। मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा : “कार्य समान नहीं हैं। एक शरीर है। प्रत्येक अपना कर्तव्य करता है, प्रत्येक अपनी जगह पर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करता है—प्रत्येक चिंगारी के लिए प्रकाश की एक चमक है—और जीवन में परिपक्वता की तलाश करता है। इस प्रकार मैं संतुष्ट हूँगा(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 21)। मुझे वह करना था जो मैं कर सकती थी और जो मेरे पास था उसका पूरा उपयोग करना था। मुझे अपनी प्रतिष्ठा या रुतबे पर विचार किए बिना अपने जगह पर खड़े होकर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना था। अपना कर्तव्य करते हुए मुझे सत्य और जीवन प्रवेश का अनुसरण करना था और अपनी पूरी क्षमता से परमेश्वर के इरादों और अपेक्षाओं को पूरा करने का प्रयास करना था।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और मेरा हृदय और भी ज्यादा प्रबुद्ध हो गया। परमेश्वर कहता है : “अगर परमेश्वर किसी को पीड़ा और गरीबी से पीड़ित करता है, तो क्या इसका यह मतलब है कि उनके पास बचाए जाने की कोई आशा नहीं है? अगर उनका मूल्य कम है और उनकी सामाजिक स्थिति निचली है, तो क्या परमेश्वर उन्हें नहीं बचाएगा? अगर उनकी समाज में हैसियत कम है, तो क्या वे परमेश्वर की नजर में भी छोटी हैसियत रखते हैं? जरूरी नहीं है। यह सब किस पर निर्भर करता है? यह इस पर निर्भर करता है कि यह व्यक्ति किस रास्ते पर चलता है, वह किस चीज का पीछा कर रहा है और सत्य और परमेश्वर के प्रति उसका रवैया क्या है। अगर किसी की सामाजिक हैसियत बहुत छोटी है, उनका परिवार बहुत गरीब है और उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं की है, लेकिन फिर भी वे व्यावहारिक रूप से परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं, तो परमेश्वर की नजरों में उनका मूल्य ऊँचा होगा या नीचा, क्या वे महान होंगे या तुच्छ? वे मूल्यवान होते हैं। अगर हम इस परिप्रेक्ष्य से देखें, तो किसी का मूल्य—चाहे अधिक हो या कम, उच्च हो या निम्न—किस पर निर्भर करता है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि परमेश्वर तुम्हें कैसे देखता है। अगर परमेश्वर तुम्हें किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में देखता है जो सत्य का अनुसरण करता है, तो फिर तुम मूल्यवान हो और तुम कीमती हो—तुम एक कीमती पात्र हो। अगर परमेश्वर देखता है कि तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते हो और तुम ईमानदारी से उसके लिए खुद को नहीं खपाते, तो फिर तुम उसके लिए बेकार हो और मूल्यवान नहीं हो—तुम एक तुच्छ पात्र हो। चाहे तुमने कितनी भी उच्च शिक्षा प्राप्त की हुई हो या समाज में तुम्हारी हैसियत कितनी भी ऊँची हो, अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते या उसे नहीं समझते, तो तुम्हारा मूल्य कभी भी ऊँचा नहीं हो सकता; भले ही बहुत से लोग तुम्हारा समर्थन करते हों, तुम्हे महिमामंडित करते हों और तुम्हारा आदर सत्कार करते हों, फिर भी तुम एक नीच कमबख्त ही रहोगे। ... अब इसे देखते हुए, किसी के मूल्य के उच्च हो या निम्न के रूप में परिभाषित करने का क्या आधार होता है? (इसका आधार परमेश्वर, सत्य और सकारात्मक चीजों के प्रति उनका रवैया होता है।) बिल्कुल सही। सबसे पहले तो यह समझना चाहिए कि परमेश्वर का रवैया क्या है। परमेश्वर के रवैये को समझना और उन सिद्धांतों और मानकों को समझना जिनसे परमेश्वर लोगों पर फैसले सुनाता है, और फिर लोगों को उन सिद्धांतों और मानकों के आधार पर मापना जिनसे परमेश्वर लोगों के साथ व्यवहार करता है—केवल यही सबसे सटीक, उचित और निष्पक्ष तरीका है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि परमेश्वर किसी व्यक्ति के मूल्य को उसके स्पष्ट सामाजिक रुतबे से नहीं मापता, न ही उसके द्वारा किए जाने वाले कर्तव्य से, बल्कि सत्य और परमेश्वर के प्रति उसके रवैये से मापता है। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं और उसका अनुसरण करते हैं, चाहे वे कोई भी कर्तव्य करें या दूसरों द्वारा उनका आदर किया जाए या नहीं, वे परमेश्वर की दृष्टि में मूल्यवान हैं। लेकिन जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, भले ही उनके कर्तव्य उन्हें महिमामय और अहम बनाते हों और कई लोगों द्वारा उनका आदर किया जाए, वे फिर भी परमेश्वर की दृष्टि में नीच और बेकार ही रहेंगे। परमेश्वर न सिर्फ ऐसे लोगों की उपेक्षा करता है, बल्कि उनसे घृणा और घिन भी करता है। इन चीजों का एहसास होने पर मेरा दिल उज्ज्वल और सहज हो गया। मेरे मन में बस एक ही विचार था, “चाहे मैं कोई भी कर्तव्य करूँ, मैं सिर्फ सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित करूँगी।” इसी पल मैं सामान्य मामलों के काम को अपने कर्तव्य के रूप में स्वीकारने में सक्षम हो गई और मैं इस कर्तव्य को अच्छी तरह से करने के बारे में सक्रियता से सोचने लगी। जब अगुआ ने मुझे फिर से भाई-बहनों को परमेश्वर के वचनों के पत्र और किताबें पहुँचाने का काम सौंपा तो मैं अब और प्रतिरोधी नहीं हुई। इसके बजाय मैंने इसे अपना कर्तव्य और ऐसा कुछ माना जो मुझे करना चाहिए और मैंने अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने का संकल्प लिया। मेरी मनोदशा उलट जाने के बाद मेरा दिल शांत हो गया और मैं मन की शांति के साथ अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम हो गई। मैं परमेश्वर के वचनों के प्रबोधन और मार्गदर्शन के लिए वाकई आभारी हूँ, जिसने मुझे यह समझ और परिवर्तन प्राप्त करने की अनुमति दी!

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