95. क्या किसी की दयालुता का बदला चुकाना आत्म-आचरण का सिद्धांत है?

ली चुन, चीन

फरवरी 2022 में एक दिन कलीसिया अगुआ ने मुझसे वु जून का मूल्यांकन लिखने के लिए कहा। मैं चौंक गया और सोचा, “कलीसिया इस समय के दौरान सफाई का कार्य कर रही है। क्या ऐसा हो सकता है कि कलीसिया वु जून को बाहर निकालने की तैयारी में उसका मूल्यांकन एकत्र कर रही हो?” उस पल उसके साथ मेरी बातचीत के दृश्य मेरे दिमाग में कौंध गए। 2019 में वु जून एक पाठ-आधारित कर्तव्य कर रहा था और मैं कलीसिया के पाठ-आधारित कार्य के लिए जिम्मेदार था। उस समय वह अक्सर अपने सहयोगी भाई के साथ छोटे-मोटे मामलों पर अंतहीन बहस करता था। सभाओं के दौरान वह हमसे विवादों का न्याय करने के लिए कहता था। हमने उसके साथ संगति की, उससे आग्रह किया कि वह चीजों का अधिक विश्लेषण न करे बल्कि इसे परमेश्वर से स्वीकारे और सबक सीखे। लेकिन उसने इसे स्वीकारने से इनकार कर दिया और उसके बाद भी यही सिलसिला जारी रहा। उस अवधि के दौरान हर सभा में उसकी समस्याएँ सुलझाने पर ध्यान केंद्रित करना पड़ता था और हम सामान्य संगति नहीं कर पाते थे। कलीसियाई जीवन और कलीसिया का कार्य दोनों ही काफी हद तक बाधित हो गए थे। क्योंकि वु जून ने सत्य की खोज नहीं की, लगातार सही और गलत पर बहस की और दूसरों से मार्गदर्शन या मदद को स्वीकार नहीं किया, आखिरकार उसे उसके कर्तव्य से बरखास्त कर दिया गया। 2021 में मैं कई कलीसियाओं के सुसमाचार कार्य के लिए जिम्मेदार था। उस समय वु जून कलीसिया में एक सुसमाचार कार्यकर्ता था और सुसमाचार के उपयाजक ली चेंग का बहुत साथ देता था। ली चेंग वास्तविक काम नहीं करता था, इसलिए अगुआओं ने भाई-बहनों से ली चेंग का मूल्यांकन करने की मांग की, लेकिन वु जून ने भाई-बहनों से कहा, “अगर कोई ली चेंग के बारे में बुरा बोलता है तो मैं उसके साथ रार रखूँगा!” इसके बाद अगुआओं ने सिद्धांतों के आधार पर ली चेंग को बरखास्त कर दिया। वु जून इस मामले से बेहद असंतुष्ट था और प्रतिरोधी मनोदशा में रहता था, खुद को श्रेष्ठ दिखाता था और इसके खिलाफ था। सुसमाचार कार्य के बारे में चर्चा के दौरान वह मुँह फुला लेता और चुप्पी साधे रहता था। कई मौकों पर तो वह सभी के आने से पहले सभाओं के दौरान अपना असंतोष व्यक्त करता था, कहता, “अगुआ सिर्फ मेरे सहयोगी भाई से काम के बारे में चर्चा करते हैं और मेरे पास नहीं आते। अभी मुझे तो यह भी नहीं पता कि मुझे बरखास्त कर दिया गया है या नहीं!” मैंने उस समय उसे याद दिलाया कि वह चीजों का बहुत अधिक विश्लेषण कर रहा है और उसे सलाह दी कि वह इसे परमेश्वर से स्वीकारे, सबक सीखे और आत्म-चिंतन पर ध्यान केंद्रित करे। लेकिन उसने न सिर्फ इसे स्वीकारने से इनकार कर दिया, बल्कि बहस की और खुद को सही ठहराया। कुछ ही समय बाद उसे बरखास्त कर दिया गया, लेकिन उसे खुद के बारे में ज्यादा ज्ञान नहीं था, वह लगातार परेशानी खड़ा करता रहा और हंगामा करता रहा। उसने अगुआओं की भी आलोचना की, दावा किया कि उन्हें नहीं पता कि अपना काम कैसे करें। उसके कई अन्य व्यवहार भी ऐसे ही थे।

इस पर विचार करते हुए मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा : “क्या यह घृणित नहीं है कि कुछ लोग अपने साथ कुछ भी घटने पर, उसके बाल की खाल निकालकर बेवजह वक्त जाया करते हैं। यह एक बड़ी समस्या है। साफ सोचवाले लोग ऐसी गलती नहीं करते, बेतुके लोग ही ऐसे होते हैं। वे हमेशा कल्पना करते हैं कि दूसरे लोग उनका जीना दूभर कर रहे हैं, उन्हें मुश्किलों में डाल रहे हैं, इसलिए वे हमेशा दूसरों से दुश्मनी मोल लेते हैं। क्या यह भटकाव नहीं है? सत्य को लेकर वे प्रयास नहीं करते, उनके साथ कुछ घटने पर वे बेकार की बातों में उलझना पसंद करते हैं, सफाई माँगते हैं, लाज बचाने की कोशिश करते हैं, और इन मामलों को सुलझाने के लिए वे हमेशा इंसानी हल ढूँढ़ते हैं। जीवन प्रवेश में यह सबसे बड़ी बाधा है। अगर तुम परमेश्वर में इस तरह विश्वास रखते हो, या इस तरह अभ्यास करते हो, तो कभी भी सत्य हासिल नहीं कर पाओगे, क्योंकि तुम कभी परमेश्वर के सामने नहीं आते। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जो कुछ तय कर रखा है, वह पाने के लिए तुम कभी परमेश्वर के सामने नहीं आते, न ही तुम इन सब तक पहुँचने के लिए सत्य का प्रयोग करते हो, इसके बजाय तुम चीजों तक पहुँचने के लिए इंसानी समाधानों का प्रयोग करते हो। इसलिए, परमेश्वर की दृष्टि में, तुम उससे बहुत दूर भटक गए हो। न सिर्फ तुम्हारा दिल उससे भटक गया है, तुम्हारा पूरा अस्तित्व उसकी मौजूदगी में नहीं जीता है। हमेशा जरूरत से ज्यादा विश्लेषण कर बाल की खाल निकालने वालों को परमेश्वर इसी नजर से देखता है। ... मैं तुम लोगों को बताता हूँ कि परमेश्वर के विश्वासी चाहे कोई भी कर्तव्य निभाएँ—वे बाहरी मामले संभालते हों, या कोई ऐसा कर्तव्य निभाते हों जिनका संबंध परमेश्वर के घर में विभिन्न कार्यों या विशेषज्ञता के क्षेत्रों से हो—अगर वे अक्सर परमेश्वर के सामने नहीं आते, उसकी मौजूदगी में नहीं रहते, उसकी पड़ताल स्वीकारने की हिम्मत नहीं रखते, और वे परमेश्वर से सत्य प्राप्त करने की कोशिश नहीं करते, तो वे छद्म-विश्वासी हैं, और अविश्वासियों से अलग नहीं हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि जो कोई भी लोगों और चीजों का अत्यधिक विश्लेषण करता है और सही-गलत के बारे में बहस करता है, हमेशा अपने ही दृष्टिकोण से चिपका रहता है, मानता है कि वही सही है, परमेश्वर से चीजों को स्वीकारता या सत्य की खोज नहीं करता है, वह परमेश्वर में ईमानदार विश्वासी नहीं है। सार सह है कि ऐसा व्यक्ति छद्म-विश्वासी है। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन की रोशनी में मैंने सोचा, “वु जून बिल्कुल ऐसा ही है। अगर मैं उसके व्यवहार के बारे में सच्चाई से लिखूँ तो बहुत संभव है कि उसे बाहर निकाल दिया जाएगा।” जैसे ही मैंने उसका मूल्यांकन लिखने के बारे में सोचा, अतीत में उसके मेरी मदद करने के दृश्य मन में आ गए। जब परमेश्वर में विश्वास करते हुए मुझे दो-तीन साल हुए थे, मेरी पत्नी का निधन हो गया और घर में कुछ मुश्किलें पैदा हुईं, जिससे मैं नकारात्मकता की मनोदशा में आ गया। उस दौरान मैंने परमेश्वर के वचन पढ़ना बंद कर दिया, भजन गाना बंद कर दिया और यहाँ तक कि सभाओं में भी शामिल नहीं हुआ। एक महीने से ज्यादा समय तक मैं पूरी तरह से अंधेरे में जी रहा था और यहाँ तक कि मेरे मन में ये विचार भी आ रहे थे कि मैं अब और जीना नहीं चाहता। जब वु जून को मेरी स्थिति के बारे में पता चला तो उसने बार-बार मेरे साथ संगति की, मदद और समर्थन की पेशकश की। हर बार वह बहुत देर से घर लौटता था। मैं उसके कार्यकलापों से बहुत प्रभावित हुआ। कुछ समय बाद मैं धीरे-धीरे अपनी नकारात्मकता से बाहर आ गया। यह वु जून ही था जिसने मेरे सबसे नकारात्मक और दर्दनाक समय में मेरी मदद की थी। इसके बारे में सोचते हुए मुझमें उसके प्रति कृतज्ञता की भावना बढ़ गई। मैंने सोचा, “जब उसने पहले मेरी मदद की और मेरा साथ दिया तो यह मुझे परमेश्वर के सामने लाने के लिए था। अब अगर मैं उसका मूल्यांकन लिखता हूँ तो इसका असर इस बात पर पड़ेगा कि उसे कलीसिया से बाहर निकाला जाता है या नहीं। अगर वु जून को वाकई बाहर निकाला जाता है और उसे पता चलता है कि मैंने उसे उजागर किया है तो वह निश्चित रूप से कहेगा कि मैं कृतघ्न हूँ। फिर मैं उसे अपना चेहरा कैसे दिखा सकता हूँ?” यह सोचकर मैंने निष्ठाहीन होकर लिखा, “हाल में मैं वु जून के संपर्क में ज्यादा नहीं रहा हूँ; हम सिर्फ कुछ सभाओं में एक साथ गए थे और मैं उसके बारे में ज्यादा नहीं जानता।”

कुछ दिनों बाद मुझे कलीसिया अगुआ से एक और पत्र मिला, जिसमें मुझसे वु जून के व्यवहार के बारे में लिखने के लिए कहा गया था। मैंने सोचा, “अगुआ मुझसे वु जून का मूल्यांकन लिखने के लिए कहते रहते हैं। अगर मैं उसके सभी व्यवहारों के बारे में लिखता हूँ, तो दूसरे भाई-बहनों द्वारा दी गई जानकारी के साथ बहुत संभव है कि उसे छद्म-विश्वासी के रूप में चित्रित करना उचित ठहराया जाएगा। कलीसिया लोगों को उनके निरंतर व्यवहार के आधार पर शुद्ध करती है। एक अच्छे व्यक्ति का न्याय गलत तरीके से नहीं किया जाएगा, न ही एक बुरे व्यक्ति को इससे छूट मिलेगी। मुझे कलीसिया के सफाई कार्य में सहयोग करने और उसके व्यवहार के बारे में लिखने की जरूरत है, वरना यह उसे छिपाने और बचाने जैसा होगा।” लेकिन फिर मैंने सोचा, “अगर वु जून को वाकई बाहर निकाल दिया गया तो मैं उसका फिर सामना कैसे कर पाऊँगा? अगर उसे पता चल गया कि मैंने उसका मूल्यांकन लिखा है तो क्या वह कहेगा कि मेरे पास कोई अंतरात्मा नहीं है? अगर ऐसा हुआ तो मैं वाकई कृतघ्न करार दिया जाऊँगा और फिर कौन मेरे साथ काम करने या जुड़ने को तैयार होगा?” इस पर विचार करते हुए मैं मूल्यांकन लिखने से पहले वु जून के साथ संगति करने का अवसर ढूँढ़ना चाहता था। इसलिए मैंने अपने विचार व्यक्त किए बिना बस कुछ संक्षिप्त वाक्य लिखे। पत्र भेजने के बाद मैं कुछ असहज हो गया, “क्या मैं व्यक्तिगत संबंधों को कलीसिया के हितों पर प्राथमिकता दे रहा हूँ?” लेकिन फिर मैंने सोचा कि शायद यह कोई बड़ी बात नहीं है और यह सिद्धांतों का बहुत बड़ा उल्लंघन नहीं है, क्योंकि मेरा इरादा भाई की मदद करना था। मैंने बस इसके बारे में संक्षेप में सोचा और फिर मामले से आगे बढ़ गया। कुछ समय बाद अगुआ कुछ मामलों के कारण मेजबान के घर में आया जहाँ मैं रह रहा था और मुझे देखकर उसने साफ कहा, “भाई, तुम्हें वु जून का मूल्यांकन लिखने के लिए कहा गया है। तुमने इसे इतने लंबे समय से टाल क्यों रखा है? क्या तुम बस एक ईमानदार व्यक्ति होकर पूरी तरह इसकी हर छोटी-बड़ी बात नहीं लिख सकते? तुम वाकई इस तरह से चीजों को रोक रहे हो।” इस तरह की फटकार का सामना करते हुए मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई और मैंने मन ही मन सोचा, “मैंने इस मूल्यांकन में पहले ही एक महीने से ज्यादा समय की देरी की है और इसके लिए कोई बहाना नहीं है।” यही वह क्षण था जब मैंने चिंतन शुरू किया, सोचने लगा कि मूल्यांकन को सच्चाई से लिखने में मेरी अनिच्छा के पीछे मूल कारण क्या है।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े जो सीधे मेरी मनोदशा को संबोधित करते थे। परमेश्वर कहता है : “यह विचार कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए, पारंपरिक चीनी संस्कृति में यह आँकने के लिए एक प्रारूपिक कसौटी है कि किसी व्यक्ति का आचरण नैतिक है या अनैतिक। किसी व्यक्ति की मानवता अच्छी है या बुरी, और उसका आचरण कितना नैतिक है, इसका आकलन करने का एक मापदंड यह है कि क्या वह किसी के एहसान या मदद का बदला चुकाने की कोशिश करता है—क्या वह ऐसा व्यक्ति है जो दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाता है या नहीं। पारंपरिक चीनी संस्कृति में, और मानवजाति की पारंपरिक संस्कृति में, लोग इसे नैतिक आचरण के एक अहम पैमाने के रूप में देखते हैं। अगर कोई यह नहीं समझता है कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए, और वह कृतज्ञता नहीं दिखाता है, तो ऐसा माना जाता है कि उसमें जमीर का अभाव है, वह मेलजोल के लिए अयोग्य है और ऐसे व्यक्ति से सभी लोगों को घृणा करनी चाहिए, उसका तिरस्कार करना चाहिए या उसे ठुकरा देना चाहिए। दूसरी तरफ, अगर कोई व्यक्ति यह समझता है कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए—अगर वह कृतज्ञ है और उपलब्ध सभी साधनों का इस्तेमाल करके खुद पर किए गए एहसान या मदद का बदला चुकाता है—तो उसे जमीर और मानवता युक्त इंसान माना जाता है। अगर कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से लाभ या मदद लेता है, पर इसका बदला नहीं चुकाता, या सिर्फ जरा-सा ‘शुक्रिया’ कहकर आभार जता देता है, और इसके अलावा कुछ नहीं करता, तो दूसरा व्यक्ति क्या सोचेगा? शायद उसे यह असहज लगेगा? शायद वह सोचेगा, ‘यह इंसान मदद किए जाने के योग्य नहीं है। यह अच्छा व्यक्ति नहीं है। मैंने उसकी इतनी मदद की, अगर इस पर उसकी यही प्रतिक्रिया है, तो उसमें जमीर और इंसानियत नाम की चीज नहीं है, और इस योग्य नहीं है कि उससे संबंध रखा जाए।’ अगर उसे दोबारा कोई ऐसा व्यक्ति मिले, क्या वह तब भी उसकी मदद करेगा? कम-से-कम वह ऐसा करना तो नहीं चाहेगा(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (7))। “कुछ लोग जब परेशानी या खतरे में होते हैं और उन्हें किसी बुरे व्यक्ति से मदद मिल जाती है जिससे वे अपनी परेशानी से निकल पाते हैं, तो वे मानते हैं कि बुरा व्यक्ति असल में अच्छा इंसान है और वे अपना आभार जताने की खातिर उसके लिए कुछ करना चाहते हैं। लेकिन, ऐसे मामलों में, बुरा इंसान उन्हें अपने घृणित कृत्यों में शामिल करने की कोशिश करेगा और बुरे कर्म करने के लिए उनका इस्तेमाल करेगा। अगर वे इनकार नहीं कर पाते तो यह खतरनाक हो सकता है। कुछ ऐसे लोग इन हालात में उलझन में पड़ जाएँगे, क्योंकि उन्हें लगता है कि अगर उन्होंने कुछ बुरे कर्मों में अपने बुरे दोस्त की मदद नहीं की, तो लगेगा कि वे यह दोस्ती ठीक से नहीं निभा रहे हैं, और इससे उनके जमीर और विवेक का हनन होगा और वे कुछ गलत करेंगे। इस तरह वे दुविधा में फँस जाते हैं। दयालुता का बदला चुकाने को लेकर पारंपरिक संस्कृति के इस विचार से प्रभावित होने का यही नतीजा है—वे इस विचार से बाधित और नियंत्रित होकर बँध जाते हैं। कई मामलों में, पारंपरिक संस्कृति की ये कहावतें मनुष्य के जमीर की समझ और उसके सामान्य फैसले की जगह ले लेती हैं; स्वाभाविक रूप से, वे मनुष्य की सामान्य सोच और सही फैसले लेने की क्षमता को भी प्रभावित करती हैं। पारंपरिक संस्कृति के विचार गलत हैं और वे चीजों के बारे में मनुष्य के दृष्टिकोणों पर सीधा प्रभाव डालते हैं, जिसके कारण वह बुरे फैसले लेने लगता है। प्राचीन समय से लेकर आज तक अनगिनत लोग दयालुता का बदला चुकाने के संबंध में नैतिक आचरण के इस विचार, दृष्टिकोण और कसौटी से प्रभावित हुए हैं। यहाँ तक कि जब उन पर दया दिखाने वाला व्यक्ति दुष्ट या बुरा इंसान हो और उन्हें घृणित कृत्य और बुरे कर्म करने के लिए मजबूर करता हो, तब भी वे अपने जमीर और विवेक के खिलाफ जाकर उसकी दयालुता का बदला चुकाने के लिए बिना सोचे-विचारे उसकी बात मानते हैं, जिसके विध्वंसक परिणाम होते हैं। यह कहा जा सकता है कि बहुत से लोग, नैतिक आचरण की इस कसौटी से बाधित, बेबस और बंधे होने के कारण बिना सोचे-विचारे और गलती से दयालुता का बदला चुकाने के इस दृष्टिकोण पर कायम रहते हैं, और बुरे लोगों की मदद और सहयोग तक कर सकते हैं। अब जबकि तुम लोगों ने मेरी संगति सुन ली है, तुम्हारे पास इन हालात की साफ तस्वीर मौजूद है और तुम तय कर सकते हो कि यह मूर्खतापूर्ण वफादारी है, और ऐसा व्यवहार कोई सीमा तय किए बिना आचरण करना और बिना किसी समझदारी के बेपरवाही से दयालुता का बदला चुकाना कहलाता है, और इसमें अर्थ और मूल्य का सर्वथा अभाव होता है। चूँकि लोग जनमत के जरिए तिरस्कृत या दूसरों के द्वारा निंदित होने से डरते हैं, इसलिए वे न चाहकर भी दूसरों की दयालुता का बदला चुकाने में अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, यहाँ तक कि इस प्रक्रिया में अपना जीवन बलिदान कर देते हैं, जो चीजों से निपटने का एक भ्रामक और मूर्खतापूर्ण तरीका है। पारंपरिक संस्कृति की इस कहावत ने केवल लोगों की सोच को ही बाधित नहीं किया है, बल्कि उनके जीवन पर एक अनावश्यक भार और असुविधा का बोझ डाल दिया है, और उनके परिवारों को अतिरिक्त पीड़ा और बोझ तले दबा दिया है। बहुत से लोगों ने दयालुता का बदला चुकाने के लिए बहुत बड़ी कीमतें चुकाई हैं—वे दयालुता का बदला चुकाने को एक सामाजिक जिम्मेदारी या अपना कर्तव्य मानते हैं, और बहुत से लोगों ने तो दूसरों की दयालुता का बदला चुकाने के लिए अपना पूरा जीवन न्योछावर कर दिया है। उनका मानना है कि ऐसा करना बिल्कुल स्वाभाविक और उचित है, यह ऐसा कर्तव्य है जिससे बचा नहीं जा सकता है। क्या यह दृष्टिकोण और चीजों को करने का तरीका मूर्खतापूर्ण और बेतुका नहीं है? इससे साफ पता चलता है कि लोग कितने अज्ञानी और अबोध हैं। किसी भी स्थिति में, नैतिक आचरण की यह कहावत कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए, भले ही लोगों की धारणाओं के अनुरूप हो, लेकिन यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप बिल्कुल नहीं है। यह परमेश्वर के वचनों के अनुरूप भी नहीं है और यह चीजों को करने का गलत दृष्टिकोण और तरीका है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (7))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि यह विचार कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए, चीनी पारंपरिक संस्कृति में यह निर्धारित करने के मानदंडों में से एक है कि किसी व्यक्ति का आचरण नैतिक है या अनैतिक। यही वो पारंपरिक सांस्कृतिक शिक्षा है जिसने लोगों के विचारों और नजरिए को विकृत कर दिया है। जब किसी को दूसरों से उपकार या सहायता मिलती है, अगर वे उस दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाने में सक्षम हैं तो उन्हें अंतरात्मा और मानवता वाले व्यक्ति के रूप में देखा जाता है, जो दूसरों से अनुमोदन अर्जित करते हैं। वरना उन्हें कृतघ्न, अंतरात्मा और मानवता से रहित व्यक्ति के रूप में चिह्नित किया जाता है और नतीजतन दूसरों और समाज से अवमानना का सामना करना पड़ता है और यहां तक कि अस्वीकृति और अलगाव का भी। पीछे मुड़कर देखें तो जब से मैं बातें समझने लगा, मैं “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” और “एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए” के विचारों से प्रभावित और शिक्षित हो गया था। जब मुझे दूसरों से उपकार या सहायता मिलती, तो मैं सोचता कि मैं उनका बदला कैसे चुका सकता हूँ। अगर मैं तुरंत ऐसा नहीं कर पाता तो मैं बाद में इसे पूरा करने का मौका ढूँढ़ लेता। मेरा मानना था कि ऐसा करने से ही मैं अंतरात्मा और मानवता वाला और उच्च नैतिक चरित्र वाला माना जा सकता हूँ। मैंने हमेशा नैतिक आचरण के बारे में इस कथन को दुनिया में अपना आचरण कैसे करना है, इसके लिए मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में लिया था, इसका इस्तेमाल मानक निर्धारित करने, अपनी कथनी और करनी को विनियमित करने के लिए किया था। उदाहरण के लिए मेरे बहनोई ने मुझे पहाड़ों से उपनगरों में ले जाने और मेरा परिवार बसाने में भी मदद की। इसलिए मैंने उसे महान उपकारकर्ता के रूप में माना, उसने मेरे प्रति जो दयालुता दिखाई, उसे कभी नहीं भूला। हर छुट्टी या त्यौहार के दौरान मैं उससे मिलने उपहार लेकर जाता था। सिर्फ ऐसा करने से ही मैं सहज होता था, मानता था कि अंतरात्मा वाला अच्छा व्यक्ति होने का यही मतलब है। परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करने के बाद मैंने नैतिक आचरण के इस मानक के अनुसार कार्यकलाप करना और अपना आचरण करना जारी रखा कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए। जब मैं सबसे कमजोर और सबसे नकारात्मक स्थिति में था, वु जून ही था जो अथक रूप से मेरे साथ संगति करने, मेरी मदद करने और मेरा साथ देने आया। इसलिए मैं उसे अपना उपकारकर्ता मानता था और डरता था कि अगर मैंने उसे उजागर करते हुए कोई मूल्यांकन लिखा तो इससे कृतघ्न और अंतरात्मा रहित होने के रूप में मेरी छवि खराब हो जाएगी। इस वजह से मैं उसके व्यवहार के बारे में सच लिखने के लिए तैयार नहीं था। मैंने तथ्यों को छिपाने के लिए यह बहाना बनाकर झूठ भी बोला और धोखेबाजी भी की, “हाल ही में मेरा वु जून के साथ ज्यादा संपर्क नहीं रहा है; हमने केवल एक-दो सभाओं में एक साथ भाग लिया है और मैं उसके बारे में ज्यादा नहीं जानता हूँ।” जब अगुआ ने मुझे फिर से मूल्यांकन लिखने के लिए कहा, मैंने सरसरी तौर पर लिखा, सिर्फ छोटी-मोटी बातों का उल्लेख किया, यहाँ तक कि कोई स्पष्ट राय भी व्यक्त नहीं की। मैं अच्छी तरह से जानता था कि वु जून सत्य नहीं स्वीकारता है, लोगों और चीजों का अत्यधिक विश्लेषण करने के लिए प्रवृत्त है, जिसने कलीसियाई जीवन और कलीसिया के कार्य दोनों को अस्त-व्यस्त कर दिया। इसलिए मुझे तथ्यों को स्पष्टवादिता और ईमानदारी से लिखना चाहिए था, सत्य पर पूरी तरह से अड़े रहना चाहिए था, फिर भी उसकी दयालुता का बदला चुकाने के लिए मैंने टाल-मटोल की और अपनी अंतरात्मा के खिलाफ काम किया। मैं वाकई विद्रोही था! तभी मुझे एहसास हुआ कि “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” के पारंपरिक सांस्कृतिक विचार के अनुसार जीने से मैं ऐसे काम करने लगा जो सिद्धांतों के विरुद्ध थे और परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह थे, जिससे परमेश्वर मुझसे नफरत और घिन करने लगा। इस मुद्दे को सुलझाने के लिए मुझे तत्काल सत्य खोजने की जरूरत थी।

अपनी खोज में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “नैतिक आचरण को लेकर ऐसे कथन कि ‘दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,’ लोगों को यह नहीं बताते कि समाज में और मानवजाति के बीच उनकी जिम्मेदारियाँ क्या हैं। इसके बजाय, ये लोगों को एक खास तरीके से सोचने और व्यवहार करने के लिए बाध्य करते हैं, भले ही वे ऐसा चाहें या न चाहें, और वे परिस्थितियाँ या संदर्भ चाहे कुछ भी हों जिनमें दयालुता के ऐसे व्यवहार उन पर किए जाते हैं। प्राचीन चीन से ऐसे ढेरों उदाहरण हैं। उदाहरण के लिए, एक भूखे भिखारी लड़के को एक परिवार ने अपने पास रख लिया, जिसने उसे खाना-कपड़ा दिया, मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग दी और उसे हर तरह का ज्ञान सिखाया। उन्होंने उसके बड़े होने तक इंतजार किया और फिर उसे कमाई का जरिया बना लिया। उसे बुरे काम करने के लिए, लोगों को मारने और ऐसी चीजें करने के लिए भेजने लगे, जो वह नहीं करना चाहता था। अगर तुम उसकी कहानी को उन एहसानों की रोशनी में देखो जो उस परिवार ने उस पर किए, तो उसका बचाया जाना एक अच्छी बात थी। लेकिन अगर यह सोचा जाए कि उससे बाद में क्या करवाया गया तो क्या यह सचमुच अच्छी बात थी या बुरी बात? (बुरी बात थी।) लेकिन पारंपरिक संस्कृति की शिक्षा, जैसे कि ‘दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए’ के कारण लोग इसमें भेद नहीं कर पाते। ऊपर से देखा जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि लड़के के सामने बुरे काम करने, लोगों को चोट पहुँचाने और हत्यारा बनने के अलावा कोई रास्ता नहीं था—ऐसे काम जो ज्यादातर लोग नहीं करना चाहेंगे। लेकिन क्या अपने मालिक के कहने पर ऐसे बुरे काम करने और दूसरों की जान लेने के तथ्य के पीछे उसकी दयालुता का बदला चुकाने की गहरी भावना नहीं थी? खास तौर से पारंपरिक चीनी संस्कृति की ‘दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए’ जैसी शिक्षा के कारण, लोग ऐसे विचारों के प्रभाव और नियंत्रण से बच नहीं पाते। वे जिस तरह व्यवहार करते हैं, और उनके क्रियाकलापों के पीछे जो इरादे और मकसद होते हैं, वे यकीनन इनसे नियंत्रित होते हैं। जब लड़के ने खुद को इस स्थिति में पाया तो उसके मन में पहला विचार क्या आया होगा? ‘मुझे इस परिवार ने बचाया है, और वे सब मेरे साथ कितने अच्छे रहे हैं। मैं एहसान फरामोश नहीं हो सकता, मुझे उनकी दया का बदला चुकाना ही होगा। मेरी जिंदगी उनकी दी हुई है, इसलिए मुझे इसे उन पर अर्पित कर देना होगा। वे जो भी कहें मुझे करना चाहिए, चाहे इसका मतलब बुरे काम करना और लोगों की जान लेना हो। मैं यह नहीं सोच सकता कि यह सही है या गलत, मुझे उनकी दयालुता का कर्ज चुकाना ही है। अगर मैंने ऐसा न किया तो क्या मैं मनुष्य कहलाने लायक भी हूँ?’ परिणामस्वरूप, जब भी परिवार उसे किसी की हत्या करने या कोई और बुरा काम करने के लिए कहता था, तो वह बिना किसी झिझक या संकोच के कर देता था। तो क्या उसका आचरण, उसके कृत्य, और उसकी निर्विवाद आज्ञाकारिता, सब इस विचार और दृष्टिकोण से संचालित नहीं होते थे कि ‘दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए’? क्या वह नैतिक आचरण के इसी मानक को पूरा नहीं कर रहा था? (हाँ।) तुम इस उदाहरण से क्या समझते हो? ‘दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए’ की कहावत अच्छी बात है या नहीं? (यह अच्छी बात नहीं है, क्योंकि इसके पीछे कोई सिद्धांत नहीं है।) दरअसल, जो व्यक्ति दयालुता का बदला चुकाता है उसका एक सिद्धांत तो होता है, जो यह है कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए। अगर कोई तुम पर दया करता है तो बदले में तुम्हें भी दया करनी चाहिए। अगर तुम ऐसा नहीं कर पाते तो तुम मनुष्य नहीं हो, और अगर इसके लिए तुम्हारी निंदा की जाए तो तुम कुछ नहीं कह सकते। एक कहावत है कि ‘एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए,’ पर इस मामले में, लड़के पर कोई छोटी-मोटी दया नहीं दिखाई जाती है, बल्कि उसकी जान बचाई जाती है, इसलिए उसके पास इसका मोल एक जीवन देकर चुकाने के सभी कारण मौजूद थे। उसे नहीं पता था कि दयालुता के प्रतिदान की सीमाएँ और सिद्धांत क्या थे। उसका विश्वास था कि उसका जीवन उस परिवार का दिया हुआ था, इसलिए उसे बदले में अपना जीवन अर्पित करना होगा, और वे जो भी चाहते थे उसे करना होगा, चाहे किसी की हत्या हो या दूसरे बुरे काम। दयालुता के प्रतिदान के इस तरीके में न कोई सिद्धांत होता है न सीमा। उसने कुकर्मियों का साथ देने का काम किया और इस चक्कर में खुद को बर्बाद कर लिया। क्या उसका इस तरीके से दयालुता का बदला चुकाना सही था? बिल्कुल नहीं। यह चीजों को करने का एक मूर्खतापूर्ण तरीका था। यह सही है कि इस परिवार ने उसे बचाया और जीने का मौका दिया, लेकिन किसी व्यक्ति की दयालुता का बदला चुकाने के लिए सिद्धांत, सीमाएँ और संतुलन होना चाहिए। उन्होंने उसका जीवन बचाया, लेकिन उसके जीवन का मकसद बुरे कर्म करना नहीं है। मनुष्य के जीवन के अर्थ और मूल्य के साथ-साथ उसका मकसद बुरे कर्म और हत्या करना नहीं है, और उसे सिर्फ दयालुता का बदला चुकाने मात्र के उद्देश्य से नहीं जीना चाहिए। लड़के ने यह गलत समझ लिया कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाना ही जीवन का अर्थ और मूल्य था। यह बेहद गंभीर गलतफहमी थी। क्या यह नैतिक आचरण की कसौटी ‘दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए’ से प्रभावित होने का नतीजा नहीं था? (बिल्कुल था।) क्या वह दयालुता का बदला चुकाने की इस कहावत के प्रभाव में पथभ्रष्ट हो गया था या उसे अभ्यास का सही मार्ग और सिद्धांत मिल चुके थे? जाहिर है कि वह पथभ्रष्ट हो चुका था—यह बात बिल्कुल दिन के उजाले की तरह साफ है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (7))। परमेश्वर के वचन बहुत स्पष्ट हैं। पारंपरिक संस्कृति में लोग नैतिक मानक का पालन करते हैं कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए और जब तक दूसरे उन पर दयालुता दिखाते हैं, वे बिना किसी हिचकिचाहट के इसका बदला चुकाने के लिए बाध्य महसूस करते हैं। इस तरह से कार्यकलाप और अपना आचरण करने से सिद्धांतों और न्यूनतम मानकों का आसानी से खो सकते हैं। कभी-कभी दयालुता का बदला चुकाने के प्रयास में लोग अपने जीवन को जोखिम में डालकर अपराध या बुराई भी कर सकते हैं। यह वाकई मूर्खतापूर्ण है! परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन की रोशनी में मैंने आत्म-चिंतन किया। जब अगुआ ने मुझे वु जून के व्यवहार के बारे में लिखने के लिए कहा था तो मैं अच्छी तरह से जानता था कि उसने लगातार सत्य को अस्वीकारा है और कलीसिया के कार्य में बाधा डाली है। लेकिन उसकी दयालुता का बदला चुकाने और कृतघ्न व अंतरात्मा रहित के रूप में चिह्नित किए जाने से बचने के प्रयास में मैंने टाल-मटोल की और उसे उजागर नहीं किया, यहाँ तक कि अपने भीतर की आत्म-निंदा की भावना को भी नजरअंदाज किया। नतीजतन मैंने एक महीने से अधिक समय तक देरी की। परमेश्वर का घर छद्म-विश्वासियों और बुरे लोगों को बाहर निकाल कर कलीसिया को शुद्ध करता है, भाई-बहनों के लिए अच्छा परिवेश और व्यवस्था बनाता है, ताकि वे सामान्य कलीसियाई जीवन जी सकें। यह परमेश्वर का इरादा है। लेकिन मैं कलीसिया के हितों और अपने भाई-बहनों के जीवन प्रवेश की अवहेलना करते हुए वु जून को कलीसिया में रखना चाहता था। मेरे कार्यकलाप की प्रकृति वाकई एक छद्म-विश्वासी को छिपाने और उसकी रक्षा करने की थी, उसे कलीसिया को अस्त-व्यस्त करने की खुली छूट देना थी। मैं जो कर रहा था वह कलीसिया के सफाई कार्य में रुकावट पैदा कर रहा था। मैं वाकई बुराई कर रहा था और परमेश्वर का प्रतिरोध कर रहा था! मैंने अपने आचरण के सिद्धांतों और न्यूनतम मानकों को गँवा दिया था। मैं जो कर रहा था वह आँख मूंद कर दयालुता का बदला चुकाने के अलावा और कुछ नहीं था। यह प्रकृति में एक भिखारी द्वारा दयालुता का बदला चुकाने के लिए हत्या जैसे बुरे काम करने के समान था। यह वाकई मूर्खतापूर्ण था! उसी पल मुझे आखिरकार यह एहसास हुआ कि शैतान पारंपरिक संस्कृति में नैतिक आचरण के बारे में कही गई बातों का इस्तेमाल करता है, जिन्हें लोग आमतौर पर अच्छा मानते हैं, ताकि उन्हें गुमराह और भ्रष्ट किया जा सके। यह अविश्वसनीय रूप से कपटी और दुष्ट है!

इसके बाद मैंने इस बात पर चिंतन किया कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाने का विचार गलत क्यों है। फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “वे सामाजिक जिम्मेदारियाँ और दायित्व जो मनुष्य पूरा करने में सक्षम है, ऐसे कर्म जो मनुष्य अंतःप्रेरणा से करने में सक्षम होगा और जो उसे करने चाहिए, और सेवा के सामान्य कृत्य जो दूसरों के लिए मददगार और लाभकारी हैं—इन चीजों को किसी भी तरह से दयालुता नहीं माना जा सकता, क्योंकि वे सभी ऐसे मामले हैं जहाँ मनुष्य बस मदद का हाथ बढ़ा रहा है। किसी जरूरतमंद व्यक्ति की सही समय और स्थान पर मदद करना एक बहुत ही सामान्य घटना है। यह मानवजाति के प्रत्येक सदस्य की जिम्मेदारी भी है। यह बस एक तरह की जिम्मेदारी और दायित्व है। परमेश्वर ने लोगों को सृजित करते समय ऐसी अंतःप्रेरणाएँ दी थीं। मैं यहाँ किन अंतःप्रेरणाओं की बात कर रहा हूँ? मैं मनुष्य की अंतरात्मा और विवेक की बात कर रहा हूँ। ... इसी तरह परमेश्वर के घर में लोग अपने कर्तव्य और जिम्मेदारियाँ निभाने में सक्षम हैं और जिस व्यक्ति के पास अंतरात्मा और विवेक है उसे यही करना चाहिए। इस प्रकार, लोगों की मदद करने और उनके प्रति दया दिखाने में इंसानों को लगभग कोई प्रयास नहीं करना पड़ता, यह मानवीय अंतःप्रेरणा के दायरे में आता है, और ऐसी चीज है जिसे करने में लोग पूरी तरह से सक्षम हैं। इसे दयालुता जितना ऊँचा दर्जा देने की कोई आवश्यकता नहीं। हालाँकि, कई लोग दूसरों की मदद को दयालुता के बराबर समझते हैं, और यह सोचकर हमेशा इसके बारे में बात करते रहते हैं और लगातार इसका मूल्य चुकाते रहते हैं कि अगर वे ऐसा नहीं करते, तो उनमें जमीर नहीं है। वे खुद को हिकारत से देखते हैं और तुच्छ समझते हैं, यहाँ तक कि इस बात की चिंता भी करते हैं कि उन्हें जनमत द्वारा फटकार लगाई जाएगी। क्या इन बातों की चिंता करना जरूरी है? (नहीं।) ऐसे बहुत-से लोग हैं जो असलियत नहीं देख पाते और लगातार इस मुद्दे से विवश रहते हैं। सत्य सिद्धांतों को न समझना यही है। उदाहरण के लिए, अगर तुम किसी दोस्त के साथ रेगिस्तान में गए हो और उसके पास पानी खत्म हो जाता है, तो तुम बेशक उसे अपना थोड़ा-सा पानी दोगे, तुम उसे प्यासा मरने नहीं दोगे। भले ही तुम्हें पता हो कि तुम्हारी बोतल से दो लोग पानी पिएँगे तो वह आधा ही रह जाएगा, फिर भी तुम अपने दोस्त को पानी पिलाओगे। अब, तुम भला ऐसा क्यों करोगे? क्योंकि जब तुम्हारा दोस्त तुम्हारे सामने प्यासा खड़ा होगा, तब पानी की बूँद तुम्हारे गले से भी नीचे नहीं उतरेगी—तुम उस दृश्य को बर्दाश्त नहीं कर पाओगे। अपने दोस्त को प्यास से तड़पते देखना तुम क्यों बर्दाश्त नहीं कर पाओगे? यह तुम्हारी अंतरात्मा की समझ है जहाँ से यह एहसास पैदा होता है। भले ही तुम इस तरह की जिम्मेदारी और दायित्व पूरा करना न चाहो, तुम्हारी अंतरात्मा ऐसा कर देगी कि तुम इसे न करना बर्दाश्त नहीं कर सकते, यह तुम्हें बेचैन कर देगा। क्या यह सब मानवीय अंतःप्रेरणाओं का नतीजा नहीं है? क्या यह सब मनुष्य की अंतरात्मा और विवेक से तय नहीं होता है? अगर वह दोस्त कहता है, ‘ऐसे हालात में अपने हिस्से का थोड़ा-सा पानी देने पर मैं तुम्हारा एहसानमंद हूँ!’ क्या ऐसा कहना भी गलत नहीं होगा? इसका दयालुता से कोई लेना-देना नहीं है। अगर मामला पलट जाए, और दोस्त में मानवता, अंतरात्मा और विवेक हो, तो वह भी अपना पानी तुम्हें पिलाएगा। यह लोगों के बीच बस एक बुनियादी सामाजिक जिम्मेदारी या संबंध है। ये सभी सबसे बुनियादी सामाजिक संबंध या जिम्मेदारियाँ या दायित्व मनुष्य की अंतरात्मा की समझ, उसकी मानवता और अंतःप्रेरणाओं के कारण उत्पन्न होते हैं जो परमेश्वर मनुष्य की सृष्टि के समय उसे देता है। सामान्य परिस्थितियों में, ये चीजें माता-पिता या समाज को सिखाने या समझाने की जरूरत नहीं होती हैं, और दूसरों को तुम्हें बार-बार ऐसा करने की चेतावनी देने की जरूरत तो बिल्कुल नहीं होती। जिन लोगों में अंतरात्मा और विवेक नहीं है, जिनमें सामान्य संज्ञानात्मक चीजों का अभाव है उनके लिए सिर्फ शिक्षा होना जरूरी है—उदाहरण के लिए, मानसिक रूप से बीमार लोग या मंदबुद्धि—या जिन लोगों में अच्छी काबिलियत नहीं होती, और जो अज्ञानी और अड़ियल होते हैं। जिन लोगों में सामान्य मानवता होती है उन्हें ये चीजें सिखाने की जरूरत नहीं होती है—अंतरात्मा और विवेक से संपन्न सभी लोगों में ये चीजें होती हैं। इसलिए, जब कोई व्यवहार या कार्य बस अंतःप्रेरणा की बात हो और अंतरात्मा और विवेक के अनुरूप हो तो उसे बहुत बढ़ा-चढ़ाकर दयालुता बताना अनुचित है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (7))। “अगर परमेश्वर तुम्हें बचाना चाहता है, तो चाहे वह ऐसा करने के लिए किसी की भी सेवाओं का उपयोग करे, तुम्हें पहले परमेश्वर को धन्यवाद देना चाहिए और इसे परमेश्वर से स्वीकारना चाहिए। तुम्हें अपनी कृतज्ञता सिर्फ लोगों के प्रति निर्देशित नहीं करनी चाहिए, कृतज्ञता में किसी को अपना जीवन अर्पित करने की तो बात ही छोड़ दो। यह एक गंभीर भूल है। महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हारा हृदय परमेश्वर का आभारी हो, और तुम इसे परमेश्वर की ओर से स्वीकारो(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (7))। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मुझे एहसास हुआ कि दूसरों की मदद करना एक सहज प्रवृत्ति है जो परमेश्वर ने लोगों को तब दी थी, जब उसने उनका सृजन किया था। जब तक किसी के पास अंतरात्मा और विवेक है, वह ऐसा कर सकता है। यह सेवा का एक सरल कार्यकलाप है और इसे दयालुता नहीं माना जा सकता। उदाहरण के लिए जब वु जून ने मेरी कमजोरी के दौरान मेरी मदद की और मेरा साथ दिया तो यह दयालुता नहीं थी, क्योंकि वह उस समय एक कलीसिया अगुआ था और कमजोर भाई-बहनों की मदद करना और उनका साथ देना उसका कर्तव्य और जिम्मेदारी थी। इतना ही नहीं, यहाँ तक कि अगर वह कलीसिया अगुआ नहीं भी होता, जब तक उसके पास अंतरात्मा और विवेक है, वह किसी भाई या बहन को नकारात्मक या कमजोर पड़ते हुए देखकर मदद और संगति करता। इसके अलावा मेरी मनोदशा में सुधार मुख्य रूप से मुझमें परमेश्वर के वचनों की प्रभावशीलता के कारण था। मुझे परमेश्वर के प्रेम के लिए आभारी होना चाहिए, परमेश्वर को संतुष्ट करने और परमेश्वर का प्रतिदान चुकाने के लिए अपना कर्तव्य अच्छे से करना चाहिए, बजाय इसके कि हमेशा वु जून की दयालुता और उसका बदला चुकाने के तरीके के बारे में सोचता रहूँ। अब जबकि मुझे वु जून का मूल्यांकन लिखने के लिए कहा गया है, मुझे सत्य का अभ्यास करना चाहिए और ईमानदार होना चाहिए, सच्चाई से लिखना चाहिए। कलीसिया सिद्धांतों के आधार पर उसका मूल्यांकन और निरूपण करेगी। यहां तक कि अगर अंत में उसे बाहर भी निकाल दिया गया तो यह लोगों और चीजों का अत्यधिक विश्लेषण करने, सत्य अस्वीकारने और कलीसिया का कार्य अस्त-व्यस्त करने के उसके निरंतर व्यवहार का अंजाम होगा। यह परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का उस पर आना होगा। इसके बाद मैंने पश्चात्ताप में परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, वू जुन के व्यवहार के बारे में लिखते समय मैं ईमानदार नहीं था। मैंने इसे बस अनमने ढंग से लिखा, झूठ बोला और धोखा दिया और सफाई के कार्य में देरी की। मेरे व्यवहार से तुम्हें घृणा और घिन हुई। हे परमेश्वर, मैं तुम्हारी ओर लौटने और वु जून के व्यवहार को सच्चाई से लिखने के लिए तैयार हूँ। तुम मेरे दिल की जाँच-पड़ताल करो।” इसके बाद मैंने मूल्यांकन पूरा किया और इसे कलीसिया अगुआ को सौंप दिया। बाद में वू जुन को छद्म-अविश्वासी के रूप में चिह्नित किया गया और कलीसिया से बाहर निकाल दिया गया। यह समाचार सुनकर मुझे महसूस हुआ कि मैं कर्ज से दबा हूँ और मैंने खुद को फटकारा। मैंने देखा कि सत्य का अभ्यास करने में मेरी नाकामी ने सफाई के कार्य में देरी की।

इस अनुभव के माध्यम से मैंने स्पष्ट देखा कि “दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए” का विचार कोई सकारात्मक बात नहीं है और चाहे इसे कितनी भी अच्छी तरह से कायम रखा जाए, यह सत्य का अभ्यास करना नहीं है, बल्कि सत्य के साथ असंगत है। भविष्य में मुझे परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करने, परमेश्वर के वचनों के अनुसार लोगों व चीजों को देखने और कार्यकलाप और आचरण करने की जरूरत है। परमेश्वर का धन्यवाद!

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