98. मुखौटे के पीछे क्या छिपा था?
मई 2023 में मैं कलीसिया में पोस्टर डिजाइन कर रही थी। अगुआ ने देखा कि मेरे कौशल अच्छे हैं और मुझे टीम अगुआ के पद पर पदोन्नत कर दिया। अगुआ को मुझ पर भरोसा था, यह देखकर मुझे बहुत खुशी हुई। लेकिन मुझे कुछ चिंताएँ भी थीं। पहले मैं सिर्फ टीम की एक सदस्य थी और उस भूमिका में कम कुशल होना कोई बड़ी बात नहीं थी, लेकिन अब जब मैं एक टीम अगुआ बन गई तो अपेक्षाएँ ज्यादा थीं। क्या मेरा मौजूदा कौशल स्तर इन जरूरतों को पूरा करेगा? अगर मैं काम नहीं सँभाल पाई और मुझे बरखास्त कर दिया गया तो मुझे बहुत शर्मिंदगी होगी! जब मैं टीम अगुआ नहीं थी तो मेरे भाई-बहनों के बीच मेरी छवि अच्छी थी। लेकिन अगर उन्हें मेरे कौशल के वास्तविक स्तर के बारे में पता चल गया तो क्या वे सोचेंगे कि मैं सिर्फ दिखावा करती रही हूँ और मेरे पास वास्तविक प्रतिभा नहीं है? क्या इससे उनके बीच मेरी अच्छी छवि नष्ट नहीं हो जाएगी? तभी अगुआ ने मेरे द्वारा डिजाइन किए गए एक मूवी पोस्टर में कुछ मसले बताए। मुझे वाकई शर्मिंदगी हुई और मुझे चिंता हुई कि अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेगी। क्या उसे लगेगा कि मार्गदर्शन और निगरानी करने के लिए मेरे कौशल बहुत कम हैं? इस बात को ध्यान में रखते हुए मैंने एक समझौता किया। मुद्दों पर चर्चा करते समय मैं अपनी राय साझा करके शुरुआत नहीं करूँगी, बल्कि दूसरों को पहले बोलने दूँगी। अगर सभी की राय एक जैसी होगी तो मैं उनकी बात ही दोहराऊँगी, और एक जैसी नहीं हुईं तो मैं भी साफ-साफ कुछ नहीं कहूँगी। इस तरह अगर गलतियाँ भी होंगी तो मेरी कमियाँ उजागर नहीं होंगी और मेरी इज्जत बनी रहेगी। एक बार हम एक डिजाइन पर चर्चा कर रहे थे। मुझे लगा कि रचना में कुछ मसले हैं, लेकिन मैं निश्चित नहीं थी। मुझे चिंता थी कि मैं गलत हुई तो मुझे नीची नजरों से देखा जाएगा, इसलिए मैंने संगति करने की पहल नहीं की। बाद में जब अगुआ ने मेरी राय पूछी तो मैं घबरा गई, लेकिन सतह पर मैंने एक शांत मुखौटा पहना हुआ था। मैंने कहा, “मेरी राय बाकी सभी की राय जैसी ही है; मुझे कोई और मसला नहीं दिखता।” अगुआ ने सिर हिलाया और आगे कुछ नहीं कहा। पीछे मुड़कर सोचती हूँ तो मैं यह भी नहीं कह सकी, “मुझे समझ नहीं आ रहा है, मैं इस मामले पर स्पष्ट नहीं हूँ।” मैं थोड़ी परेशान हो गई, लेकिन मैंने बस थोड़ा सोचा और आगे बढ़ गई।
अगले दिन मैंने और अगुआ ने एक डिजाइन योजना पर चर्चा की। मैं थोड़ी घबराई हुई थी। मैंने बहुत देर तक डिजाइन देखा, लेकिन अपनी राय साझा करने की हिम्मत नहीं कर सकी। मुझे डर था कि अगर मैं गलत हुई तो अगुआ मुझे कैसे देखेगी। एक और बार मैंने एक डिजाइन में समस्याएँ देखीं, लेकिन मेरे पास कोई समाधान नहीं था। मैं ईमानदारी से बोलना चाहती थी, लेकिन मुझे चिंता थी कि अगर मैंने बोल दिया तो अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेगी। क्या वह सोचेगी कि मैं इतनी आसान समस्या को भी क्यों नहीं ठीक कर सकती? क्या उसे लगेगा कि मेरे कौशल में बहुत कमी है? यह सब सोचते हुए मैंने ईमानदारी से बात नहीं की। मैंने सोच में डूबे होने का नाटक किया और अगुआ से कहा, “मुझे इस डिजाइन के बारे में सोचने के लिए और समय चाहिए। क्यों न तुम पहले बताओ कि तुम क्या सोचती हो?” अगुआ ने सिद्धांतों के आधार पर अपने विचार साझा किए और मेरा दृष्टिकोण पूछा। ऐसा लगा जैसे मेरे पैरों के नीचे जमीन खिसक रही है। मैं ईमानदार होना चाहती थी, लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे मेरा मुँह बंद हो गया हो। आखिर में मैंने कहा, “यही तो मैं भी सोच रही थी।” ऐसा कहने के बाद मैं परेशान हो गई, जैसे कि मैंने अभी-अभी एक मरी हुई मक्खी निगल ली हो। यह स्पष्ट था कि मैं नहीं जानती थी कि इसे ठीक से कैसे संशोधित किया जाए, फिर भी मैंने दिखावा किया कि मुझे पता है कि क्या करना है, यह दिखाने के लिए कि मैं सक्षम हूँ और समस्या का विश्लेषण कर सकती हूँ। क्या मैं सिर्फ लोगों को धोखा देने और मूर्ख बनाने की कोशिश नहीं कर रही थी? मैं वाकई परेशान हो गई। दिन खत्म होने तक मैं थक कर चूर हो गई और मुझे कुछ भी हासिल नहीं हुआ।
अपनी भक्ति के दौरान मैंने सोचा, “अगुआ के साथ डिजाइन की समीक्षा करना मेरे कौशल को बेहतर बनाने का एक मौका हो सकता है। यह अच्छी बात है, लेकिन मैं मुक्ति के बजाय इतनी थकान क्यों महसूस करती हूँ?” फिर मैंने पढ़ा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं : “एक सृजित प्राणी के उचित स्थान पर खड़ा होना और एक साधारण व्यक्ति बनना : क्या ऐसा करना आसान है? (यह आसान नहीं है।) इसमें कठिनाई क्या है? वह यह है : लोगों को हमेशा लगता है कि उनके सिर पर कई प्रभामंडल और उपाधियाँ जड़ी हैं। वे खुद को महान विभूतियों और अतिमानवों की पहचान और दर्जा भी देते हैं और तमाम दिखावटी और झूठी प्रथाओं और बाहरी प्रदर्शनों में संलग्न होते हैं। अगर तुम इन चीजों को नहीं छोड़ते, अगर तुम्हारी कथनी-करनी हमेशा इन चीजों से बाधित और नियंत्रित होती है तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करना मुश्किल लगेगा। जिन चीजों को तुम नहीं समझते, उनके समाधानों के लिए अधीर न होना और ऐसी बातों को अक्सर परमेश्वर के समक्ष लेकर आना और उससे सच्चे दिल से प्रार्थना करना मुश्किल होगा। तुम ऐसा नहीं कर पाओगे। वास्तव में इसका कारण यह है कि तुम्हारी हैसियत, तुम्हारी उपाधियाँ, तुम्हारी पहचान और ऐसी तमाम चीजें झूठी और असत्य हैं क्योंकि वे परमेश्वर के वचनों के खिलाफ जाकर उनका खंडन करती हैं, क्योंकि ये चीजें तुम्हें बाँधती हैं ताकि तुम परमेश्वर के सामने न आ सको। ये चीजें तुम्हारे लिए क्या बुराइयाँ लेकर आती हैं? ये तुम्हें खुद को छिपाने, समझने का दिखावा करने, होशियार होने का दिखावा करने, एक महान हस्ती होने का दिखावा करने, एक सेलिब्रिटी होने का दिखावा करने, सक्षम होने का दिखावा करने, बुद्धिमान होने का दिखावा करने, यहाँ तक कि सब-कुछ जानने, सभी चीजों में सक्षम होने और सब-कुछ करने में सक्षम होने का दिखावा करने में कुशल बनाती हैं। वह इसलिए ताकि दूसरे तुम्हारी पूजा करें और तुम्हें सराहें। वे अपनी तमाम समस्याओं के साथ तुम्हारे पास आएँगे, तुम पर भरोसा करेंगे और तुम्हारा आदर करेंगे। इस तरह, यह ऐसा है मानो तुमने खुद को भुनने के लिए किसी भट्टी में झोंक दिया हो। तुम्हीं बताओ, क्या आग में भुनना अच्छा लगता है? (नहीं।) तुम नहीं समझते, लेकिन तुम यह कहने का साहस नहीं करते कि तुम नहीं समझते। तुम असलियत नहीं समझते लेकिन तुम यह कहने का साहस नहीं करते कि तुम असलियत नहीं समझते। तुमने स्पष्ट रूप से गलती की है लेकिन तुम इसे स्वीकारने का साहस नहीं करते। तुम्हारा दिल व्यथित है लेकिन तुम यह कहने की हिम्मत नहीं करते, ‘इस बार यह वाकई मेरी गलती है, मैं परमेश्वर और अपने भाई-बहनों का ऋणी हूँ। मैंने परमेश्वर के घर को इतना बड़ा नुकसान पहुँचाया है, लेकिन मुझमें सबके सामने खड़े होकर इसे स्वीकारने की हिम्मत नहीं है।’ तुम बोलने की हिम्मत क्यों नहीं करते? तुम मानते हो, ‘मुझे अपने भाई-बहनों द्वारा दिए गए प्रभामंडल और प्रतिष्ठा पर खरा उतरने की जरूरत है, मैं अपने प्रति उनके उच्च सम्मान और भरोसे को धोखा नहीं दे सकता, उन उत्कट अपेक्षाओं को तो बिल्कुल भी नहीं जो उन्होंने इतने सालों से मेरे प्रति रखी हैं। इसलिए मुझे दिखावा करते रहना होगा।’ यह कैसा छद्मवेश है? तुमने खुद को सफलतापूर्वक एक महान हस्ती और अतिमानव बना लिया है। भाई-बहन अपने सामने आने वाली किसी भी समस्या के बारे में पूछने, सलाह लेने, यहाँ तक कि तुम्हारे परामर्श की विनती करने तुम्हारे पास आना चाहते हैं। ऐसा लगता है कि वे तुम्हारे बिना जी नहीं सकते। लेकिन क्या तुम्हारा हृदय व्यथित नहीं होता?” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी असली मनोदशा उजागर कर दी। जब मैं अगुआ के साथ डिजाइन की योजनाओं पर चर्चा करती थी तो मैं कभी भी मुक्त नहीं होती थी। मुख्य कारण यह था कि मेरी प्रकृति वाकई अहंकारी थी और मैं खुद को गलतियाँ करने की अनुमति नहीं देती थी, कुछ समझने या करने में असमर्थ होना तो दूर की बात है। मैं खुद को आग में भूनने के लिए झौंक रही थी। जब से मुझे टीम अगुआ के रूप में पदोन्नत किया गया था, अगुआ के मन में मेरी छवि अच्छी थी और वह मुझे महत्व देती थी, मुझे चिंता थी कि मेरे काम में बहुत सारी कमियाँ उजागर होने से मेरे बारे में दूसरे जो सोचते हैं उस पर असर पड़ेगा। खासकर जब मैंने जो मूवी पोस्टर डिजाइन किया था, उसमें कुछ मसले थे, मैं और भी सतर्क हो गई। मैं अपनी बहुत सारी समस्याएँ उजागर करने से बचने के लिए पहले दूसरों को अपनी राय साझा करने देती थी। जब मैं और अगुआ एक साथ डिजाइन की समीक्षा करते थे तो मैं कुछ मसले पहचान पाती थी, लेकिन मैं गलत होने से डरती थी, इसलिए मैं ईमानदारी से बात नहीं करती थी। कभी-कभी मेरे पास स्पष्ट रूप से चीजों को ठीक करने की कोई योजना नहीं होती थी, लेकिन अगुआ द्वारा नीची नजरों से देखे जाने से बचने के लिए मैं जानकार होने का दिखावा करती थी, अगुआ की राय को दोहराती थी और कहती थी कि मैं चीजों को उसी तरह देखती हूँ। मैं दिखावा कर रही थी। मैं खुलेआम धोखेबाज बन रही थी। मेरी यह कहने की भी हिम्मत नहीं होती, “मुझे समझ नहीं आ रहा है, मैं इस पर स्पष्ट नहीं हूँ।” मैं अपनी इज्जत बचाने के लिए लगातार अपनी कमियाँ छिपाती रही। प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए मेरी परवाह बहुत ज्यादा थी! सच्चाई यह थी कि चूँकि मैंने अभी-अभी प्रशिक्षण शुरू किया था, इसलिए गलतियाँ करना पूरी तरह से सामान्य था। हर कोई मेरा वास्तविक कौशल स्तर साफ देख सकता था, इसलिए इसे छिपाने की कोई जरूरत नहीं थी। भले ही भाई-बहन मेरी कमियाँ देख लेते, वे मुझे नीची नजर से नहीं देखते—वे मेरी मदद करते। लेकिन मैंने यह दिखावा करने पर जोर दिया कि मैं सब कुछ जानती हूँ और सब कुछ कर सकती हूँ। मैंने अपनी कमियाँ और खामियाँ छिपाने की पूरी कोशिश की। मैं बहुत मूर्ख और अज्ञानी थी! मैं खुद को छिपाती रही और दूसरों के साथ बातचीत करते समय ईमानदार नहीं हो सकी। इस तरह से जीना कितना पाखंड, धूर्तता और धोखेबाजी से भरा था!
बाद में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “चाहे कोई भी संदर्भ हो, मसीह-विरोधी चाहे कोई भी कर्तव्य कर रहा हो, वह यह छाप छोड़ने का प्रयास करेगा कि वह कमजोर नहीं है, कि वह हमेशा मजबूत, आस्था से पूर्ण है, कभी नकारात्मक नहीं है, ताकि लोग कभी भी उसके वास्तविक आध्यात्मिक कद या परमेश्वर के प्रति उसके वास्तविक रवैये को नहीं देख पाएँ। ... अगर कोई बड़ी घटना घटती है, और कोई उनसे पूछता है कि वे इस घटना को कैसे समझते हैं, तो वे अपने विचार प्रकट करने से कतराते हैं, और इसके बजाय दूसरों को पहले बोलने देते हैं। उनके संकोच के कारण होते हैं : ऐसा नहीं है कि उनका अपना कोई विचार नहीं होता है, लेकिन वे डरते हैं कि उनका विचार कहीं गलत ना हो, कि अगर उन्होंने इसे सबके सामने रख दिया, तो दूसरे लोग इसका खंडन करेंगे, और उन्हें शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी और इसलिए वे अपने विचार व्यक्त नहीं करते हैं; या उनके पास कोई विचार ही नहीं होता है और वे उस मामले को स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाते हैं, वे यह सोचकर मनमाने ढंग से बोलने की हिम्मत नहीं कर पाते हैं कि उनकी गलती पर लोग हँसेंगे—इसलिए मौन ही उनका एकमात्र विकल्प होता है। संक्षेप में, वे इसलिए अपने विचार व्यक्त करने को तैयार नहीं होते हैं क्योंकि वे डरते हैं कि वे अपनी असलियत प्रकट कर देंगे, कि लोग यह देख लेंगे कि वे दरिद्र और दयनीय हैं, और इससे दूसरों के मन में उनकी जो छवि है वह प्रभावित हो जाएगी। इसलिए, जब बाकी लोग अपने नजरिए, विचारों और ज्ञान पर संगति कर लेते हैं, तो वे कुछ ऊँचे और ज्यादा मजबूत दावों को पकड़ लेते हैं, जिन्हें फिर वे ऐसे पेश करते हैं मानो ये उनके अपने नजरिए और अपनी समझ हों। वे उन्हें संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं और सबके साथ उन पर संगति करते हैं और इस तरह से दूसरों के दिलों में ऊँचा रुतबा हासिल कर लेते हैं। मसीह-विरोधी बेहद चालाक होते हैं : जब कोई दृष्टिकोण व्यक्त करने का समय आता है, तो वे कभी भी दूसरों से खुलकर बात नहीं करते हैं और उन्हें अपनी वास्तविक दशा नहीं दिखाते हैं, या लोगों को यह नहीं जानने देते हैं कि वे वास्तव में क्या सोचते हैं, उनकी योग्यता कैसी है, उनकी मानवता कैसी है, समझने की उनकी शक्तियाँ कैसी हैं, और क्या उन्हें सत्य का सही ज्ञान है। और इसलिए, डींग मारने और आध्यात्मिक तथा एक आदर्श व्यक्ति होने का दिखावा करने के साथ-साथ, वे अपने असली चेहरे और वास्तविक आध्यात्मिक कद को ढकने की भी पूरी कोशिश करते हैं। वे भाई-बहनों के सामने कभी भी अपनी कमजोरियों को प्रकट नहीं करते हैं, और ना ही वे कभी भी अपनी खुद की कमियों और दोषों को जानने का प्रयास करते हैं; इसके बजाय, वे उन्हें ढकने का पूरा प्रयास करते हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग दस))। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि मसीह-विरोधी चाहे कोई भी कर्तव्य करें या किसी भी स्थिति में हों, जब उन पर कुछ आ पड़ता है तो वे कभी भी अपनी राय आसानी से व्यक्त नहीं करते। वे दूसरों को अपनी सच्ची स्थिति के बारे में नहीं बताते, न ही वे दूसरों को अपनी काबिलियत या मानवता के बारे में जानने देते हैं, अपनी कमजोरियाँ उजागर होने से डरते हैं। अपनी कमियाँ छिपाने के लिए वे दूसरों के अच्छे सुझावों और विचारों को भी अपना बताते हैं, उन्हें सारांशित करते हैं और इस तरह प्रस्तुत करते हैं सब उन्होंने सोचा हो, दूसरों को गलत तरीके से यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि उनके पास अंतर्दृष्टि और काबिलियत है, इस प्रकार वे दूसरों द्वारा आदर पाने और पूजे जाने का लक्ष्य पूरा करते हैं। इसकी तुलना खुद से करने पर मैंने देखा कि मेरा व्यवहार बिल्कुल मसीह-विरोधी जैसा ही था! जब मैं और अगुआ एक डिजाइन की योजना पर चर्चा कर रहे थे, मुझे डर था कि अगुआ मेरे पेशेवर कौशल के बारे में बुरा सोचेगी, इसलिए अपनी राय व्यक्त करते समय मैंने अस्पष्ट रूप से बोलने, समझने का नाटक करने और अगुआ की बात दोहराने का प्रयास किया। मैंने ऐसा व्यवहार किया जैसे कि मैं अगुआ के समान ही राय रखती हूँ, इसका इस्तेमाल अपनी कमियाँ छिपाने के लिए किया। पीछे मुड़कर देखती हूँ तो मैंने हमेशा अपना कर्तव्य इसी तरह से निभाया है : लोगों के दिलों में अपनी छवि और रुतबे की रक्षा करने के लिए मैं कभी नहीं चाहती थी कि दूसरे मेरी कमियाँ या खामियाँ देखें। स्पष्ट रूप से ऐसे मुद्दे थे जिन्हें किसी जानकार व्यक्ति के साथ संगति करके जल्दी से सुलझाया जा सकता था, लेकिन मुझे लगा कि दूसरों की मदद लेने से मैं अक्षम और कमतर दिखूँगी, इसलिए मैं चुपके से चीजें खोजने और उन्हें समझने के लिए अकेले ही संघर्ष करना पसंद करती थी और मैं दूसरों से सलाह नहीं लेती थी। इससे काम की दक्षता कम हो गई और अन्य कार्यों में देरी हुई। मैं हमेशा खुद को किसी ऐसी इंसान के रूप में दिखाना चाहती थी जो सब कुछ जानती हो और कर सकती हो, दूसरों के लिए मुखौटा पहन रही थी। क्या मैं लोगों को गुमराह नहीं कर रही थी? मसीह-विरोधी हमेशा इसी तरह से खुद को छिपाते और भेष बदलते हैं। वे अपना असली आध्यात्मिक कद छिपाकर लोगों को धोखा देते और गुमराह करते हैं, लोगों को अपने सामने लाते हैं। मेरा व्यवहार किसी मसीह-विरोधी से कैसे अलग था? मैं जो प्रकट कर रही थी वह मसीह-विरोधी का स्वभाव था! इस एहसास ने मुझे डरा दिया। मुझे लगा कि अगर मैं नहीं बदली तो मैं प्रकट हो जाऊँगी और निकाल दी जाऊँगी। मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की, पश्चात्ताप करने और बदलने के लिए तैयार हो गई। मैं अब अपने अभिमान और छवि की रक्षा के लिए खुद को छिपाना और दूसरों को धोखा देना नहीं चाहती थी।
बाद में मैंने अपनी समस्याओं के आधार पर अभ्यास का मार्ग खोजा। मैंने पढ़ा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं : “कोई भी समस्या पैदा होने पर, चाहे वह कैसी भी हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें किसी भी तरीके से छद्म व्यवहार नहीं करना चाहिए या दूसरों के सामने नकली चेहरा नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारी कमियाँ हों, खामियाँ हों, गलतियाँ हों, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हों—तुम्हें उनके बारे में कुछ छिपाना नहीं चाहिए और उन सभी के बारे में संगति करनी चाहिए। उन्हें अपने अंदर न रखो। अपनी बात खुलकर कैसे रखें, यह सीखना जीवन-प्रवेश करने की दिशा में सबसे पहला कदम है और यही वह पहली बाधा है जिसे पार करना सबसे मुश्किल है। एक बार तुमने इसे पार कर लिया तो सत्य में प्रवेश करना आसान हो जाता है। यह कदम उठाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम अपना हृदय खोल रहे हो और वह सब कुछ दिखा रहे हो जो तुम्हारे पास है, अच्छा या बुरा, सकारात्मक या नकारात्मक; दूसरों और परमेश्वर के देखने के लिए खुद को खोलना; परमेश्वर से कुछ न छिपाना, कुछ गुप्त न रखना, कोई स्वांग न करना, धोखे और चालबाजी से मुक्त रहना, और इसी तरह दूसरे लोगों के साथ खुला और ईमानदार रहना। इस तरह, तुम प्रकाश में रहते हो, और न सिर्फ परमेश्वर तुम्हारी जाँच करेगा बल्कि अन्य लोग यह देख पाएँगे कि तुम सिद्धांत से और एक हद तक पारदर्शिता से काम करते हो। तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा, छवि और हैसियत की रक्षा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, न ही तुम्हें अपनी गलतियाँ ढकने या छिपाने की आवश्यकता है। तुम्हें इन बेकार के प्रयासों में लगने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम इन चीजों को छोड़ पाओ, तो तुम बहुत आराम से रहोगे, तुम बिना बाधाओं या पीड़ा के जियोगे, और पूरी तरह से प्रकाश में जियोगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। जब कोई अपना कर्तव्य निभा रहा हो और ऐसे मामलों का सामना कर रहा हो जिन्हें वह समझ नहीं सकता या सँभाल नहीं सकता तो उसे खुलकर दूसरों से मदद माँगनी चाहिए और ईमानदार व्यक्ति बनना चाहिए। उसे वास्तविक होना चाहिए और अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा नहीं करनी चाहिए। इस तरह वह परमेश्वर के इरादों के अनुरूप हो सकता है और प्रगति कर सकता है। लेकिन मैंने केवल अपने अभिमान के बारे में सोचा, लगातार अपनी कमियाँ छिपाईं और अपना भेष बदलने की कोशिश की। मैंने यह नहीं सोचा कि काम कितना अच्छा हो रहा है, न ही मैंने यह सोचा कि मैं अपना पेशेवर कौशल कैसे सुधारूँ। इस बिंदु तक मैंने सिद्धांतों को नहीं समझा था, मेरे कौशल में सुधार नहीं हुआ था और मेरा कर्तव्य निर्वहन मानक स्तर का नहीं था। केवल अपना अभिमान कायम रखने की कोशिश करने का क्या मतलब था? अगर मैं परमेश्वर की जरूरतों का अनुसरण करती और ईमानदार व्यक्ति के रूप में काम करती तो भले ही मेरी प्रतिष्ठा को थोड़ा नुकसान होता, लेकिन मेरे कौशल में सुधार हो सकता था और मैं अपने कर्तव्य बेहतर ढंग से कर सकती थी और इससे परमेश्वर प्रसन्न होता। क्या यह बहुत बेहतर नहीं होता? यह सोचकर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, मैं पश्चात्ताप के लिए तैयार थी। बाद में सभी के साथ संवाद करते समय जब मुझे कुछ समझ में नहीं आता था तो मैं खुद को छिपाती नहीं थी और सक्रियता से चर्चा के लिए अपने प्रश्न समूह के सामने रखती थी। इस तरह अभ्यास करने से मुझे मुक्ति का एहसास हुआ और मैंने दूसरों से कुछ हासिल किया।
इसके बाद मैंने कुछ खोज की, सोचने लगी, “टीम अगुआ के रूप में पदोन्नत होने के बाद मैं अपनी कमियाँ सही ढंग से क्यों नहीं देख पाई? कौन से गलत विचार मुझे नियंत्रित कर रहे थे?” खोज करते समय मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “जब कोई व्यक्ति भाई-बहनों द्वारा अगुआ के रूप में चुना जाता है या परमेश्वर के घर द्वारा कोई निश्चित कार्य करने या कोई निश्चित कर्तव्य निभाने के लिए पदोन्नत किया जाता है, तो इसका यह मतलब नहीं कि उसका कोई विशेष रुतबा या पद है या वह जिन सत्यों को समझता है, वे अन्य लोगों की तुलना में अधिक गहरे और संख्या में अधिक हैं—तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि यह व्यक्ति परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम है और उसे धोखा नहीं देगा। निश्चय ही, इसका यह मतलब भी नहीं है कि ऐसे लोग परमेश्वर को जानते हैं और परमेश्वर का भय मानते हैं। वास्तव में उन्होंने इसमें से कुछ भी हासिल नहीं किया है। पदोन्नयन और संवर्धन सीधे मायने में केवल पदोन्नयन और संवर्धन ही है, और यह भाग्य में लिखे होने या परमेश्वर की अभिस्वीकृति पाने के समतुल्य नहीं है। ... तो किसी को पदोन्नत और विकसित करने का क्या उद्देश्य और मायने हैं? वह यह है कि इस व्यक्ति को, एक व्यक्ति के रूप में पदोन्नत किया गया है, ताकि वह अभ्यास कर सके, और वह विशेष रूप से सिंचित और प्रशिक्षित हो सके, जिससे वह इस योग्य हो जाए कि सत्य सिद्धांतों, और विभिन्न कामों को करने के सिद्धांतों, और विभिन्न कार्य करने और विभिन्न समस्याओं को हल करने के सिद्धांतों, साधनों और तरीकों को समझ सके, साथ ही यह भी कि जब वह विभिन्न प्रकार के परिवेशों और लोगों का सामना करे, तो परमेश्वर के इरादों के अनुसार और उस रूप में, जिससे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा हो सके, उन्हें सँभालने और उनके साथ निपटने का तरीका सीख सके। इन बिंदुओं के आधार पर परखें, तो क्या परमेश्वर के घर द्वारा पदोन्नत और विकसित किए गए प्रतिभाशाली लोग, पदोन्नत और विकसित किए जाने की अवधि के दौरान या पदोन्नत और विकसित किए जाने से पहले अपना कार्य और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करने में पर्याप्त सक्षम हैं? बेशक नहीं। इस प्रकार, यह अपरिहार्य है कि विकसित किए जाने की अवधि के दौरान ये लोग काट-छाँट और न्याय किए जाने और ताड़ना दिए जाने, उजागर किए जाने, यहाँ तक कि बर्खास्तगी का भी अनुभव करेंगे; यह सामान्य बात है, यही है प्रशिक्षण और विकसित किया जाना” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (5))। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि जब परमेश्वर का घर किसी को तरक्की देता है और विकसित करता है तो इसका मतलब यह नहीं होता कि यह व्यक्ति पहले से ही सत्य समझता है और उसके पास वास्तविकता है या सिद्धांतों में पूरी तरह महारत हासिल है। पदोन्नति सिर्फ प्रशिक्षण का एक अवसर है और इसके लिए लोगों को अपनी कमियाँ सही ढंग से देखने की जरूरत होती है। मैंने खुद को बहुत ऊँचा समझा था, सोचती थी कि टीम अगुआ के रूप में पदोन्नत होने का मतलब है कि मेरे पास दूसरों की तुलना में बेहतर काबिलियत, कौशल और ऐसे अन्य गुण होने चाहिए। मैंने खुद को एक ऊँचे स्थान पर रखा और दूसरों को अपनी असलियत न दिखाने देने के लिए मैंने भेष बदला और खुद को छिपाया, अपनी कमियाँ छिपाने के लिए सभी तरह की तरकीबें अपनाईं और यहाँ तक कि अपनी राय साझा करते समय भी मैं चीजों के बारे में बहुत अधिक सोचती थी। दूसरों के साथ बातचीत करते समय मैं पारदर्शी नहीं थी और मैं खुद को थका देने की हद तक बाँध रही थी। चिंतन करूँ तो टीम अगुआ के रूप में पदोन्नत होना सिर्फ प्रशिक्षण का एक अवसर था। इस परिस्थिति ने मुझे सत्य का अनुसरण करने और सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य करने के लिए प्रेरित किया। अपने कर्तव्य करने में कमियाँ और विचलन होना सामान्य बात है और मैं इन अवसरों का उपयोग अपनी कमियों की भरपाई करने के लिए कर सकती हूँ ताकि अनुभव के माध्यम से मैं ज्यादा सत्य समझ सकूँ और ज्यादा सिद्धांत बूझ सकूँ और धीरे-धीरे मेरा कर्तव्य निर्वहन मानक स्तर का हो जाएगा। भविष्य में मुझे अपनी कमियों को ठीक से देखना चाहिए और व्यावहारिक होना सीखना चाहिए और मुझे सिद्धांत और कौशल सीखने में ज्यादा प्रयास करना चाहिए। मुझे इसी का अनुसरण करना चाहिए और इसमें प्रवेश करना चाहिए।
एक बार अगुआ हमारे काम में हमारा मार्गदर्शन कर रही थी और उसने हमें एक पृष्ठभूमि पर अपनी राय देने के लिए कहा। मैंने सुना कि जिन दो बहनों के साथ मैं सहयोग कर रही थी, उनकी राय मुझसे अलग थी और मैंने सोचा, “दोनों बहनों की राय एक जैसी है। अगर मैं गलत निकली तो यह बहुत शर्मनाक होगा। क्या वे सोचेंगी कि मुझमें काबिलियत नहीं है और मेरी पसंद अच्छी नहीं है?” जब मैंने इस बारे में विचार किया तो मैं झिझकने लगी, सोचा, “शायद मुझे बहनों से सहमत हो जाना चाहिए, ताकि अगर मैं गलत निकलूँ तो मुझे शर्मिंदगी महसूस न हो।” लेकिन उसी पल मुझे परमेश्वर के वचन याद आ गए जो मैंने पहले पढ़े थे : “कोई भी समस्या पैदा होने पर, चाहे वह कैसी भी हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें किसी भी तरीके से छद्म व्यवहार नहीं करना चाहिए या दूसरों के सामने नकली चेहरा नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारी कमियाँ हों, खामियाँ हों, गलतियाँ हों, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हों—तुम्हें उनके बारे में कुछ छिपाना नहीं चाहिए और उन सभी के बारे में संगति करनी चाहिए। उन्हें अपने अंदर न रखो। ... तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा, छवि और हैसियत की रक्षा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, न ही तुम्हें अपनी गलतियाँ ढकने या छिपाने की आवश्यकता है। तुम्हें इन बेकार के प्रयासों में लगने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम इन चीजों को छोड़ पाओ, तो तुम बहुत आराम से रहोगे, तुम बिना बाधाओं या पीड़ा के जियोगे, और पूरी तरह से प्रकाश में जियोगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिया। चाहे किसी की राय सही हो या गलत, अगर उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा है तो उन्हें उसे सामने लाकर खोज और संगति करनी चाहिए। अपने कर्तव्य के प्रति जिम्मेदार होने का यही मतलब है। इस विचार ने मेरे दिल को रोशन कर दिया और मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, अपने अभिमान को एक तरफ रखकर सच बोलने के लिए तैयार हो गई। मुझे हैरानी हुई कि अगुआ मेरी राय से सहमत हो गई और उसने हमें समायोजन के लिए कुछ निर्देश दिए। सुनने के बाद मुझे एक स्पष्ट समझ मिली। मुझे लगा कि अपने अभिमान की रक्षा न करना और खुद को नहीं छिपाना, ईमानदार होना और सच बोलना, मेरे दिल को शांति और सहजता देता है।
अब मैं अपने अभिमान से बेबस नहीं थी और मैं उन मामलों पर खुलकर और सरलता से चर्चा कर सकती थी, जिनके बारे में मैं स्पष्ट नहीं थी। जब अगुआ ने मेरी समस्याएँ बताती तो मैं उन्हें स्वीकार सकती थी, अपनी कमियों को सही ढंग से देख सकती थी और सीखने के लिए प्रासंगिक सिद्धांतों और पेशेवर ज्ञान की खोज कर सकती थी। कुछ समय बाद मैंने अपने तकनीकी कौशल में कुछ प्रगति की और अपने कर्तव्यों में कम गलतियाँ करने लगी। इस अनुभव के माध्यम से मुझे वाकई एहसास हुआ कि परमेश्वर ईमानदार लोगों को आशीष देता है और धोखेबाज लोगों से घृणा करता है और यह कि अपनी कमियाँ और खामियाँ स्वीकारना और ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास करना शर्मनाक नहीं है, इस तरह अभ्यास करने से मेरे दिल को शांति और सहजता मिलती है।