24. आरामपरस्ती में लिप्त होने पर चिंतन
अगस्त 2022 में कलीसिया में नए विश्वासियों के सिंचन कार्य की ज़िम्मेदारी मुझ पर थी। इतना महत्वपूर्ण कर्तव्य निभाने में सक्षम होने के लिए मैं परमेश्वर की बहुत आभारी थी और मैंने मन ही मन यह संकल्प लिया था कि मैं इस कर्तव्य को निश्चित रूप से अच्छी तरह से करूँगी। चूँकि इससे पहले मुझ पर सिंचन कार्य की ज़िम्मेदारी नहीं रही थी और मैं सिद्धांतों को ठीक से समझ नहीं पाई थी, इसलिए मैंने लगन से अध्ययन किया और संबंधित सिद्धांतों से खुद को अच्छी तरह परिचित कराने का प्रयास किया। यदि नए विश्वासियों की कोई भी मनोदशा या समस्याएँ होतीं, तो मैं तुरंत अपनी सहयोगी बहन के साथ संगति करके उन्हें सुलझा लेती थी। हालाँकि हर दिन बहुत व्यस्तता भरा होता था, फिर भी मेरे मन में काफी ऊर्जा रहती थी और मैंने कुछ समस्याएँ हल भी कीं। कुछ समय बाद मुझे पता चला कि इस काम में बहुत सारी बारीकियाँ शामिल थीं। मुझे न केवल नए लोगों की विभिन्न समस्याओं और कठिनाइयों को समय पर हल करना था, बल्कि सिंचनकर्ताओं के काम की जाँच करके और उनका जायजा लेकर उनकी कठिनाइयों को भी हल करना था। इसके अतिरिक्त, विलक्षण प्रतिभा वाले लोगों को खोजना, सिंचनकर्ताओं को विकसित करना आदि भी थे। मुझे महसूस होने लगा कि यह काम अच्छी तरह से करना वाकई बहुत कठिन था। इसके लिए बहुत सोच-विचार और बड़ी कीमत चुकानी पड़ती थी, जो बहुत ही थका देने वाला था! इसलिए मैं हमेशा यही उम्मीद करती थी कि समस्याएँ कम हों ताकि मेरा काम थोड़ा आरामदायक हो सके। बाद में, जैसे-जैसे सिंचन की आवश्यकता वाले नए विश्वासियों की संख्या बढ़ती गई, मुझ पर दबाव और भी बढ़ गया। मैंने मन में सोचा : “सभी नए विश्वासियों का अच्छी तरह से सिंचन करने और हर चीज़ का ठीक से ध्यान रखने में कितना समय और मेहनत लगेगी। यह तो बहुत ही थका देने वाला है!” परिणामस्वरूप, मैंने बस सिंचनकर्ताओं के साथ ही सभाएँ करना शुरू कर दिया। जिन नए विश्वासियों की धारणाएँ अधिक थीं, उन सबकी ज़िम्मेदारी मैंने सिंचनकर्ताओं को सौंप दी और स्वयं उनकी अधिक चिंता नहीं की। कभी-कभी मैं सिंचनकर्ताओं के काम के बारे में पूछ लेती थी, लेकिन वह महज एक औपचारिकता होती थी। कुछ समय बाद सिंचन कार्य में लगातार समस्याएँ उभरने लगीं। कुछ नए विश्वासी नकारात्मक और कमजोर थे और सभाओं में कभी-कभी ही आते थे; कुछ तो धार्मिक पादरियों की निराधार अफवाहों और भ्रांतियों से गुमराह हो गए थे। कुछ अन्य अपने परिवारों द्वारा रोके और सताए जाते थे, जिस कारण वे नियमित रूप से सभा नहीं कर पाते थे, ऐसी और भी कई बातें थीं। सिंचनकर्ता भी कठिनाइयों में जी रहे थे और कुछ हद तक नकारात्मक हो गए थे। अगुआओं ने एक पत्र भेजकर मुझसे कहा कि मैं जल्दी से कारण का पता लगाऊँ और इन विचलनों को सुधारूँ। उन्होंने यह भी याद दिलाया कि जिन नए विश्वासियों की धारणाएँ हैं लेकिन काबिलियत अच्छी है, उनका सिंचन मुझे व्यक्तिगत रूप से करना चाहिए। मुझे वास्तव में नए विश्वासियों की समस्याओं को हल करने में सक्रिय रूप से भाग लेना था और उन्हें सच्चे मार्ग में जड़ें जमाने में मदद करनी थी। जब मैंने अगुआओं को यह कहते सुना, तो मन में परेशानी का एहसास हुआ। मुझे लगा कि यह सब इसलिए हुआ क्योंकि मैंने वास्तविक काम नहीं किया था। इसके बाद मैं जल्दी से नए विश्वासियों की समस्याओं पर संगति करने और उन्हें हल करने गई, लेकिन नतीजे खास अच्छे नहीं रहे। मुझे लगने लगा कि यह काम सचमुच बहुत कठिन है और कितना अच्छा होता अगर मुझे कोई थोड़ा आसान कर्तव्य मिल जाता। एक बार सिंचनकर्ताओं ने काम में कुछ समस्याएँ और कठिनाइयाँ बताईं। मैं कुछ सिद्धांत खोजना चाहती थी और फिर उनके साथ मिलकर इन समस्याओं को हल करने के तरीके पर चर्चा करना चाहती थी, लेकिन फिर मैंने सोचा : “सिद्धांत खोजने में बहुत समय और मेहनत लगती है। मेरी सहयोगी बहन की काबिलियत अच्छी है और वह अच्छी तरह से संगति करना और समस्याओं को हल करना जानती है। मैं उससे जाकर समाधान करने को कहती हूँ।” इसलिए जो सिद्धांत मुझे खोजने चाहिए थे, वे मैंने नहीं खोजे और जिस बारे में मुझे संगति करनी चाहिए थी, उस बारे में मैंने संगति नहीं की। मैं बस अपनी बहन द्वारा मामले सुलझाने का इंतज़ार करती रही। बाद में जब हम पर चीजें आ पड़ीं, तो मैंने अपनी खराब काबिलियत का बहाना बनाकर सभी सबसे अधिक समस्याग्रस्त और कठिन काम अपनी सहयोगी को सौंप दिए, मानो यह बिल्कुल स्वाभाविक और उचित हो। मैं अपने कर्तव्य में दिन-ब-दिन कम से कम बोझ उठाने लगी। हर दिन मैं यंत्रवत ढंग से बस हाथ में लिए हुए काम करती थी। उस दौरान मेरे मन में लगातार अशांति और असहजता बनी रहती थी। क्योंकि नतीजों में लगातार गिरावट आ रही थी, इसलिए अगुआ बार-बार काम का जायजा लेते थे ताकि स्थिति को समझ सकें। मैं खुद को दबा हुआ और बेचैन महसूस करती थी, जैसे कि बहुत सारी समस्याएँ और कठिनाइयाँ थीं जिन्हें हल करना बाकी था। मुझे लगता था कि मुझ पर बहुत ज्यादा दबाव है और चिंता करने के लिए बहुत सारी बातें हैं। मैं अक्सर परेशान रहती थी और शिकायत करती थी : “मुझे यह कर्तव्य करते हुए अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है। अगुआ मुझे समझते क्यों नहीं? वे काम का इतनी बारीकी से जायजा क्यों ले रहे हैं?” मैं सचमुच उम्मीद करती थी कि काम में और कोई समस्या न आए।
एक दिन मुझे कोविड हो गया। मुझे अचानक बुखार चढ़ गया और पूरे शरीर में दर्द होने लगा। मुझमें बिल्कुल भी ताकत नहीं बची थी। मैं खाना नहीं खा पा रही थी और रात को सो नहीं पा रही थी। अपने दिल में मैं लगातार परमेश्वर से प्रार्थना करती थी : “प्रिय परमेश्वर, यह बीमारी और दर्द तुम्हारी इच्छा से मुझ पर आया है। लेकिन अब भी मुझे नहीं पता कि मुझे कौन सा सबक सीखना चाहिए। मैं अपनी समस्याएँ समझ सकूँ, इसमें मेरा मार्गदर्शन करो।” प्रार्थना के बाद मैंने इस अवधि के दौरान अपने कर्तव्य करने में अपनी मनोदशा और स्थिति पर विचार किया। मैंने सोचा कि कैसे अपना कर्तव्य करना एक सार्थक बात थी, लेकिन मैं अक्सर दमित और पीड़ित क्यों महसूस करती थी? अपना कर्तव्य करते हुए मैं इस स्थिति में कैसे आ गई? बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “अगर लोग लगातार भौतिक सुख और खुशी की तलाश करते हैं, अगर वे लगातार भौतिक सुख और आराम के पीछे भागते हैं, और कष्ट नहीं उठाना चाहते, तो थोड़ा-सा भी शारीरिक कष्ट, दूसरों की तुलना में थोड़ा ज्यादा कष्ट सहना या सामान्य से थोड़ा ज्यादा काम का बोझ महसूस करना उन्हें दमित महसूस कराएगा। यह दमन के कारणों में से एक है। अगर लोग थोड़े-से शारीरिक कष्ट को बड़ी बात नहीं मानते और वे भौतिक आराम के पीछे नहीं भागते, बल्कि सत्य का अनुसरण करते हैं और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य निभाने की कोशिश करते हैं, तो उन्हें अक्सर शारीरिक कष्ट महसूस नहीं होगा। यहाँ तक कि अगर वे कभी-कभी थोड़ा व्यस्त, थका हुआ या क्लांत महसूस करते भी हों, तो भी सोने के बाद वे बेहतर महसूस करते हुए उठेंगे और फिर अपना काम जारी रखेंगे। उनका ध्यान अपने कर्तव्यों और अपने काम पर होगा; वे थोड़ी-सी शारीरिक थकान को कोई महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं मानेंगे। हालाँकि जब लोगों की सोच में कोई समस्या उत्पन्न होती है और वे लगातार शारीरिक सुख की तलाश में रहते हैं, किसी भी समय जब उनके भौतिक शरीर के साथ थोड़ी सी गड़बड़ होती है या उसे संतुष्टि नहीं मिल पाती, तो उनके भीतर कुछ नकारात्मक भावनाएँ पैदा हो जाती हैं। तो इस तरह का व्यक्ति जो हमेशा जैसा चाहे वैसा करना चाहता है और दैहिक सुख भोगना और जीवन का आनंद लेना चाहता है, जब भी असंतुष्ट होता है तो अक्सर खुद को दमन की इस नकारात्मक भावना में फँसा हुआ क्यों पाता है? (इसलिए कि वह आराम और शारीरिक आनंद के पीछे भागता है।) यह कुछ लोगों के मामले में सच है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (5))। परमेश्वर के वचनों पर मनन करने के बाद मैं समझी कि मेरे दमन और पीड़ा में जीने का कारण यह नहीं था कि यह काम मुश्किल था। असल वजह यह थी कि मेरे सोच-विचार और नजरिए में खोट थी। मैं न तो सत्य पाने की कोशिश कर रही थी, न ही एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा रही थी, बल्कि मैं तो बस शारीरिक आराम के पीछे भाग रही थी। मैं सिर्फ यही सोचती थी कि कैसे अपनी चिंताएँ कम करूँ और अपने लिए रास्ता आसान बना लूँ। जब काम का बोझ ज्यादा होता था और उसमें मुझे अतिरिक्त ध्यान देने, ज्यादा तकलीफ उठाने और बड़ी कीमत चुकाने की जरूरत पड़ती थी, तो मैं कुड़कुड़ाती थी और मन में प्रतिरोध महसूस करती थी। जब काम में मुझे ढेरों समस्याएँ और मुश्किलें आती थीं, तो मैं उन्हें बड़ी मुसीबत समझती थी और इस बात की शिकायत करती थी कि मेरे लिए सब कितना मुश्किल है, या फिर उन्हें दूसरे भाई-बहनों पर डाल देती थी कि वे ही उन्हें सँभालें और सुलझाएँ। यहाँ तक कि मैं अपना कर्तव्य बदलकर कोई हल्का काम लेना चाहती थी ताकि इस परिवेश से बच सकूँ। मैं यह अच्छी तरह जानती थी कि जब अगुआ काम का जायजा लेते हैं तो वे एक अगुआ होने की अपनी जिम्मेदारी निभा रहे होते हैं। लेकिन जब वे मेरे सिर पर सवार हो गए और मेरे दैहिक हितों को ठेस पहुँचाई, तो मुझे लगा कि मेरा फायदा उठाया और मुझसे बहुत ज्यादा काम लिया जा रहा है, और मैं कुछ-न-कुछ लेकर बड़बड़ाने और शिकायतें करने लगी। असल में, मुझे तो इस बातकी शिकायत थी कि परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेश अच्छा नहीं था। यह परमेश्वर से असन्तुष्ट होना और प्रतिरोधी होना था। यह परमेश्वर का विरोध करना था! मैं सचमुच बहुत ही विद्रोही थी और मेरे अंदर परमेश्वर का डर मानने वाला दिल नाम मात्र को भी नहीं था!
बाद में मैंने सत्य की खोज जारी रखी और खुद पर चिंतन किया। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “लोग अपना कर्तव्य करते समय कठिनाइयों की शिकायत करते हैं, वे मेहनत नहीं करना चाहते, और जैसे ही उन्हें थोड़ा अवकाश मिलता है, वे आराम करते हैं, बेपरवाही से बकबक करते हैं, या आराम और मनोरंजन में हिस्सा लेते हैं। और जब काम बढ़ता है और वह उनके जीवन की लय और दिनचर्या भंग कर देता है, तो वे इससे नाखुश और असंतुष्ट होते हैं। वे भुनभुनाते और शिकायत करते हैं, और अपना कर्तव्य करने में अनमने हो जाते हैं। यह दैहिक सुखों का लालच करना है, है न? ... कलीसिया का काम या उनके कर्तव्य कितने भी व्यस्ततापूर्ण क्यों न हों, उनके जीवन की दिनचर्या और सामान्य स्थिति कभी बाधित नहीं होती। वे दैहिक जीवन की छोटी से छोटी बात को लेकर भी कभी लापरवाह नहीं होतीं और बहुत सख्त और गंभीर होते हुए उन्हें पूरी तरह से नियंत्रित करती हैं। लेकिन, परमेश्वर के घर का काम करते समय, मामला चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो और भले ही उसमें भाई-बहनों की सुरक्षा शामिल हो, वे उससे लापरवाही से निपटती हैं। यहाँ तक कि वे उन चीजों की भी परवाह नहीं करती, जिनमें परमेश्वर का आदेश या वह कर्तव्य शामिल होता है, जिसे उन्हें करना चाहिए। वे कोई जिम्मेदारी नहीं लेतीं। यह देह-सुखों के भोग में लिप्त होना है, है न? क्या दैहिक सुखों के भोग में लिप्त लोग कोई कर्तव्य करने के लिए उपयुक्त होते हैं? जैसे ही कोई उनसे कर्तव्य करने या कीमत चुकाने और कष्ट सहने की बात करता है, तो वे इनकार में सिर हिलाते रहते हैं। उन्हें बहुत सारी समस्याएँ होती हैं, वे शिकायतों से भरे होते हैं, और वे नकारात्मकता से भरे होते हैं। ऐसे लोग निकम्मे होते हैं, वे अपना कर्तव्य करने की योग्यता नहीं रखते, और उन्हें हटा दिया जाना चाहिए” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (2))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद आखिरकार मुझे यह एहसास हुआ कि आराम में लिप्त रहने और कर्तव्य निर्वहन में गैर-जिम्मेदार होने की समस्या की प्रकृति कितनी गंभीर है। जो लोग हमेशा आराम में लिप्त रहते हैं, वे अपना कर्तव्य बड़ी चालाकी और मक्कारी से करते हैं; आसान काम चुनते हैं और मुश्किल कामों से कतराते हैं और वे न तो कोई तकलीफ उठाना चाहते हैं, न ही कोई कीमत चुकाना। जब भी उन्हें मुश्किलें नजर आती हैं, वे फौरन भाग खड़े होते हैं और तरह-तरह के बहाने और तिकड़में लड़ाते हैं ताकि बड़ी मुश्किलों या ढेरों समस्याओं वाले काम दूसरों के सिर मढ़ दें। ऐसा इंसान भरोसे और काम का जिम्मा उठाने के लायक नहीं होता। मैं हूबहू ऐसी ही इंसान थी। मैं यह अच्छी तरह जानती थी कि सिंचन कार्य की जिम्मेदारी मेरी है और मुझे नए विश्वासियों का सिंचन करके उनकी धारणाओं और समस्याओं को समय पर सुलझाना चाहिए, ताकि वे जल्द से जल्द सच्चे मार्ग में जड़ें जमा सकें। यह मेरे कर्तव्य की बुनियादी जिम्मेदारी थी जिसे मुझे निभाना ही चाहिए था। लेकिन मैं यही शिकायत करती रहती थी कि नए विश्वासियों की ढेरों समस्याएँ हैं और उन समस्याओं को सुलझाना बहुत झंझट का और थका देने वाला काम है। इसलिए मैंने बहाने बनाकर, धारणाओं और मुश्किलों वाले सभी नए विश्वासियों को सिंचनकर्ताओं के हवाले कर दिया और खुद एक ऐसे बॉस की तरह उनसे बिल्कुल बेफिक्र हो गई जिसे किसी बात की कोई परवाह नहीं होती। नतीजा यह हुआ कि नए विश्वासियों की समस्याएँ समय पर हल नहीं हो पाईं और सिंचन कार्य की प्रगति में रुकावट आई। जब सिंचनकर्ताओं को अपने काम में मुश्किलें और समस्याएँ पेश आईं, तो मैं बेशर्मी से अपनी देह में खोई रहती थी और उन्हें सुलझाने को तैयार नहीं थी। ऊपर से, मैं इतनी धूर्त थी कि अपनी खराब काबिलियत का बहाना बनाया ताकि औचित्य के साथ सारी मुश्किलें और समस्याएँ अपनी सहयोगी बहन पर डाल सकूँ। क्योंकि मैं अपनी देह ख ख्याल करती थी, आराम फरमाती थी और कोई वास्तविक काम नहीं करती थी, इसलिए सिंचन कार्य के नतीजे अच्छे नहीं आ रहे थे। इसके बावजूद मैंने खुद पर कोई चिंतन नहीं किया और जब अगुआओं ने काम का जायजा लेकर असलियत का पता लगाया, तो मैंने उल्टे उन्हें लेकर प्रतिरोध और नाराजगी दिखाई। मैं तो जैसे कुछ भी समझने को तैयार ही नहीं थी! ऐसी मनोदशा और ऐसे व्यवहार के साथ मैं पर्यवेक्षक होने के लायक कैसे थी? मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा रही थी : मैं तो बुराई कर रही थी! मेरा दिल दुख और पछतावे से भर गया और मैंने सोचा कि मेरा इस महामारी की चपेट में आना भी परमेश्वर की ही अनुमति से हुआ है। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मेरा मार्गदर्शन करे ताकि मैं अपनी समस्याओं पर चिंतन करना जारी रखूँ और उन्हें पहचानूँ।
कुछ समय बाद मैं एक सभा में थी और मैंने सभी के सामने खुलकर अपनी मनोदशा के बारे में बताया। अगुआ ने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़कर सुनाया, जिससे मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव की कुछ समझ मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “नकली अगुआ असली काम नहीं करते, लेकिन वे जानते हैं कि एक अधिकारी की तरह कैसे कार्य करना है। अगुआ बनकर वे सबसे पहला काम क्या करते हैं? यह लोगों का अनुग्रह खरीदने के लिए है। वे ‘नए अधिकारी दूसरों को प्रभावित करने के लिए तत्पर रहते हैं’ का दृष्टिकोण अपनाते हैं : पहले वे लोगों को खुश करने के लिए कुछ चीजें करते हैं और कुछ चीजें सँभालते हैं जो हर किसी के रोजमर्रा के कल्याण में सुधार करती हैं। पहले वे लोगों में एक अच्छी छवि बनाने, सबको यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि वे जनता के साथ जुड़े हैं, ताकि हर कोई उनकी प्रशंसा करे और कहे, ‘यह अगुआ हमारे साथ माता-पिता जैसा व्यवहार करता है!’ फिर वे आधिकारिक तौर पर पदभार सँभाल लेते हैं। उन्हें लगता है कि उनके पास जनता का समर्थन है और कि उनकी स्थिति सुरक्षित हो गई है; फिर वे रुतबे के फायदों का आनंद लेना शुरू कर देते हैं, मानो उन पर उनका उचित अधिकार हो। उनका आदर्श वाक्य होता है, ‘जीवन सिर्फ अच्छा खाने और सुंदर कपड़े पहनने के बारे में है,’ ‘चार दिन की जिंदगी है, मौज कर लो,’ और ‘आज मौज करो, कल की फिक्र कल करना।’ वे आने वाले हर दिन का आनंद लेते हैं, जब तक हो सके मौजमस्ती करते हैं और भविष्य के बारे में कोई विचार नहीं करते, वे इस बात पर तो बिल्कुल विचार नहीं करते कि एक अगुआ को कौन-सी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए और कौन-से कर्तव्य करने चाहिए। वे सामान्य प्रक्रिया के तौर पर कुछ शब्दों और सिद्धांतों का प्रचार करते हैं और दिखावे के लिए कुछ तुच्छ कार्य करते हैं—वे कोई वास्तविक कार्य नहीं करते हैं। वे कलीसिया में वास्तविक समस्याओं का पता नहीं लगा रहे हैं और उन्हें पूरी तरह से हल नहीं कर रहे हैं, तो फिर उनके द्वारा ऐसे सतही कार्य करने का क्या अर्थ है? क्या यह भ्रामक नहीं है? क्या इस किस्म के नकली अगुआ को महत्वपूर्ण कार्य सौंपे जा सकते हैं? क्या वे अगुआओं और कर्मियों के चयन के लिए परमेश्वर के घर के सिद्धांतों और शर्तों के अनुरूप हैं? (नहीं।) ऐसे लोगों में न तो अंतरात्मा होती है और न ही विवेक, उनमें जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं होती, और फिर भी वे कलीसिया में कोई आधिकारिक पद सँभालना, अगुआ बनना चाहते हैं—वे इतने बेशर्म क्यों हैं? कुछ लोग, जिनमें जिम्मेदारी की भावना होती है, अगर खराब काबिलियत के हों, तो वे अगुआ नहीं हो सकते—और उन बेकार लोगों की तो बात ही छोड़ दो जिनमें जिम्मेदारी की कोई भावना नहीं होती है; वे अगुआ बनने के लिए और भी कम योग्य हैं। ऐसे लालची और निकम्मे नकली अगुआ आखिर कितने आलसी होते हैं? जब उन्हें किसी समस्या का पता लगता है और वे जानते हैं कि यह एक मुद्दा है, तो भी वे इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं और इस पर कोई ध्यान नहीं देते हैं। वे कितने गैर-जिम्मेदार होते हैं! वैसे तो वे बातचीत करने में अच्छे होते हैं और उनमें थोड़ी क्षमता भी प्रतीत होती है, लेकिन वे कलीसिया के काम में आने वाली विभिन्न समस्याएँ हल नहीं कर सकते, जिससे कार्य ठप्प हो जाता है; समस्याएँ बढ़ती चली जाती हैं, लेकिन ये अगुआ उन पर ध्यान नहीं देते हैं, और सामान्य प्रक्रिया के तौर पर कुछ सतही कार्य पूरे करने पर अड़े रहते हैं। और इसका क्या नतीजा होता है? क्या वे कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी नहीं करते, क्या वे उसे गलतियाँ करके बरबाद नहीं कर देते? क्या उनके कारण कलीसिया में अराजकता नहीं फैलती है और एकता में कमी नहीं होती है? यह अपरिहार्य परिणाम है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8))। मुझे ऐसा लगा मानो मैं परमेश्वर के रूबरू खड़ी हूँ और वह मुझे उजागर कर रहा है। मैं वैसी ही आलसी इंसान थी जैसा परमेश्वर ने उजागर किया था। आराम में लिप्त रहने की वजह से, मैंने वे समस्याएँ हल नहीं की थीं जो मैंने देखी थीं और सच कहूँ तो कोई भी वास्तविक काम किया ही नहीं था। उस दौरान की बात सोचूँ तो, मुझे नए विश्वासियों की धारणाओं और समस्याओं के बारे में सब मालूम था और मैं सिंचनकर्ताओं की मुश्किलें और उनकी मनोदशाएँ भी देख सकती थी। लेकिन मैंने कभी यह नहीं सोचा कि इन समस्याओं को जल्द से जल्द हल करने के लिए सत्य कैसे खोजा जाए। बल्कि, मैंने तो बस प्रक्रिया पूरी करके और बेमन से काम करके खुद को झंझट से बचाने की कोशिश की थी और बस थोड़ी-सी संगति की थी। मैंने लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए कुछ रटे-रटाए धर्म-सिद्धांत बोल दिए थे और बात वहीं छोड़ दी। कभी-कभी तो मैंने सीधे-सीधे समस्याएँ अपनी सहयोगी या सिंचनकर्ताओं के मत्थे मढ़ दी थीं कि वे ही उन्हें सुलझाएँ। मैंने बस हल्के-फुल्के काम उठाए थे, थका देने वाले कामों से किनारा कर लिया था और हर हाल में अपनी देह का ख्याल ही करती रही। मैं यह अच्छी तरह जानती थी कि नए विश्वासियों का सिंचन करना बहुत जरूरी था, क्योंकि इसी पर निर्भर था कि नए विश्वासी सच्चे मार्ग पर टिक पाएँगे या नहीं। लेकिन मैं कोई कीमत चुकाना नहीं चाहती थी और मुझे जो समस्याएँ दिखीं, उन्हें मैंने हल नहीं किया। मैं समस्याओं से भी दूर भागती रही और अपनी जिम्मेदारियों से भी पल्ला झाड़ती रही और भले ही मैं साफ देख सकती थी कि काम का नुकसान हो रहा है, मैंने उस पर रत्ती भर भी ध्यान नहीं दिया। मुझमें सचमुच जमीर नाम की चीज ही नहीं बची थी और मैं हद दर्जे की गैर-जिम्मेदार थी! इसके बावजूद, मैंने खुद पर कोई चिंतन नहीं किया था और यह सोचती थी कि चूँकि मुझे यह काम सँभाले अभी थोड़ा ही समय हुआ है, अगुआओं को मेरी मुश्किलें समझनी चाहिए और मुझसे बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं रखनी चाहिए। मुझमें सचमुच विवेक नाम की चीज ही नहीं थी! मैं तो शैतानी फलसफों जैसे “आज मौज करो, कल की फिक्र कल करना” और “हर दिन लापरवाह ढंग से गुजारो” के सहारे जी रही थी। अपना कर्तव्य निभाते समय मैं अपने उचित काम पर ध्यान नहीं देती थी। मैं केवल कुछ फालतू और गैर-जरूरी काम करती थी और अपने दिन लापरवाही में ही गँवाती रहती थी। ऊपर से देखने में तो नहीं लगता था कि मैं हर दिन निठल्ली बैठी रहती हूँ, लेकिन असल में मैंने कोई भी वास्तविक काम किया ही नहीं था और जो जिम्मेदारियाँ मुझे निभानी चाहिए थीं, वे मैंने पूरी नहीं की थीं। मेरे व्यवहार और एक ऐसे घटिया या कामचोर इंसान के व्यवहार में क्या फर्क रह गया था जो अपने उचित कार्य से जी चुराता है? पहले मैं ऐसे लोगों को हेय दृष्टि से देखती थी, कभी सोचा भी नहीं था कि मैं भी उन्हीं की जमात में शामिल हो जाऊँगी। मुझे खुद से घिन आ रही थी! मुझ जैसा इंसान, जिसमें रत्ती भर भी ईमानदारी न हो और जो पूरी तरह भरोसे के काबिल न हो, सचमुच कर्तव्य निभाने के लायक ही नहीं था। मैं तो झूठे अगुआओं और झूठे कार्यकर्ताओं की राह पर चल रही थी। अब जब बीमारी ने मुझे आ घेरा है, तो मैं चाहकर भी अपने कर्तव्य निभाने की ताकत नहीं जुटा पा रही हूँ। जब मेरा स्वास्थ्य ठीक था, तो मैंने जो समय बरबाद किया, उसका मुझे अब बेहद अफसोस हो रहा है। अगर यह बीमारी ठीक नहीं हुई और मैं मर गई, तो इस जीवन का यह पछतावा हमेशा मेरे साथ रहेगा। मैं जितना सोचती, उतना ही मेरा दिल डूबता जाता। मुझे हर पल यही लगता था कि परमेश्वर ने मुझे बिसार दिया है और मुझे एहसास हो गया था कि अगर मैंने सत्य का अनुसरण करना या अपना कर्तव्य ठीक से निभाना जारी नहीं रखा, तो मैं सचमुच मिटा दी जाऊँगी।
एक दिन आध्यात्मिक भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “कुछ लोग कर्तव्य निभाने के दौरान कष्ट सहने को तैयार नहीं रहते, कोई भी समस्या सामने आने पर हमेशा शिकायत करते हैं और कीमत चुकाने से इनकार कर देते हैं। यह कैसा रवैया है? यह अनमना रवैया है। अगर तुम अपना कर्तव्य अनमने होकर निभाओगे, इसे अनादर के भाव से देखोगे तो इसका क्या नतीजा मिलेगा? तुम अपना कार्य खराब ढंग से करोगे, भले ही तुम इस काबिल हो कि इसे अच्छे से कर सको—तुम्हारा प्रदर्शन मानक पर खरा नहीं उतरेगा और कर्तव्य के प्रति तुम्हारे रवैये से परमेश्वर बहुत नाराज रहेगा। अगर तुमने परमेश्वर से प्रार्थना की होती, सत्य खोजा होता, इसमें अपना पूरा दिल और दिमाग लगाया होता, अगर तुमने इस तरीके से सहयोग किया होता तो फिर परमेश्वर पहले ही तुम्हारे लिए हर चीज तैयार करके रखता ताकि जब तुम मामलों को सँभालने लगो तो हर चीज दुरुस्त रहे और तुम्हें अच्छे नतीजे मिलें। तुम्हें बहुत ज्यादा ताकत झोंकने की जरूरत न पड़ती; तुम हर संभव सहयोग करते तो परमेश्वर तुम्हारे लिए पहले ही हर चीज की व्यवस्था करके रखता। अगर तुम धूर्त या काहिल हो, अगर तुम अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाते, और हमेशा गलत रास्ते पर चलते हो तो फिर परमेश्वर तुम पर कार्य नहीं करेगा; तुम यह अवसर खो बैठोगे और परमेश्वर कहेगा, ‘तुम किसी काम के नहीं हो; मैं तुम्हारा उपयोग नहीं कर सकता। जाकर एक तरफ खड़े हो जाओ। तुम्हें चालाक बनना और सुस्ती बरतना पसंद है, है न? तुम आलसी और आरामपरस्त हो, है न? तो ठीक है, आराम ही करते रहो!’ परमेश्वर यह अवसर और अनुग्रह किसी और को देगा। तुम लोग क्या कहते हो : यह हानि है या लाभ? (हानि।) यह प्रचंड हानि है!” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “तुम परमेश्वर के आदेशों से कैसे पेश आते लेते हो, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है, और यह एक बहुत ही गंभीर मामला है। परमेश्वर ने जो लोगों को सौंपा है, यदि तुम उसे पूरा नहीं कर सकते, तो तुम उसकी उपस्थिति में जीने के योग्य नहीं हो और तुम्हें दंडित किया जाना चाहिए। यह पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है कि मनुष्यों को परमेश्वर द्वारा दिए जाने वाले सभी आदेश पूरे करने चाहिए। यह मनुष्य का सर्वोच्च दायित्व है, और उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उनका जीवन है। यदि तुम परमेश्वर के आदेशों को गंभीरता से नहीं लेते, तो तुम उसके साथ सबसे कष्टदायक तरीके से विश्वासघात कर रहे हो। इसमें, तुम यहूदा से भी अधिक शोचनीय हो और तुम्हें शाप दिया जाना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। परमेश्वर के वचनों से मैंने परमेश्वर की धार्मिकता और उसके अपमान न किए जा सकने वाले स्वभाव को महसूस किया। मैं समझ गई थी कि हमारा कर्तव्य परमेश्वर द्वारा सौंपा गया आदेश है, एक ऐसी जिम्मेदारी जिसे हम न नकारने को नैतिक रूप से बंधे हैं। कर्तव्य के प्रति लापरवाही और गैर-जिम्मेदारी बरतना परमेश्वर के साथ धोखा करना है, यह एक गंभीर अपराध है। ऐसे इंसान पर तो लानत होनी चाहिए। जो लोग अपनी देह के निजी स्वार्थों की परवाह नहीं करते और अपने कर्तव्य से गंभीरता और जिम्मेदारी से पेश आते हैं, वे परमेश्वर के कार्य और उसके मार्गदर्शन को पा सकते हैं। अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में वे धीरे-धीरे सत्य को समझते और उसे हासिल करते हैं और फिर सिद्धांतों के साथ काम करने लगते हैं। लेकिन मुझे सत्य से कोई प्रेम नहीं था, मुझे तो बस आराम पसंद था। जो काम साफ तौर पर मेरी बुनियादी जिम्मेदारियों में आते थे, वे मैंने नहीं किए और कभी-कभार अगर थोड़ा-बहुत कुछ किया भी, तो बिना मन लगाए लापरवाही से किया। मैं तो बस दिखावे के लिए, परमेश्वर को धोखा देने और अपने भाई-बहनों को बेवकूफ बनाने के लिए थोड़ा काम कर रही थी। मैं सचमुच कितनी बड़ी धोखेबाज थी! परमेश्वर इंसान के दिल की गहराइयों तक जाँचता है; वह मेरे हर कार्यकलाप और मेरे हर एक सोच-विचार की पड़ताल करता है। मुझ जैसा इंसान, जो आराम में लिप्त रहता है, स्वार्थी और धोखेबाज है, पूरी तरह भरोसे के काबिल नहीं है, परमेश्वर की घिन और नफरत का ही पात्र बनता है। लेकिन मैंने तब भी कोई आत्म-चिंतन नहीं किया। अगुआओं ने मुझे याद दिलाया, पर मैं तब भी अपनी देह का ही ख्याल कर रही थी, नतीजा यह हुआ कि मैं अपने कर्तव्य निभाने में पवित्रात्मा का कार्य नहीं पा सकी और समस्याओं की असलियत नहीं देख पाई। इसका यह भी मतलब हुआ कि नए विश्वासियों की मुश्किलें समय पर हल नहीं हो पाईं। मैंने अपने कर्तव्यों में अपराध किए थे। अब इस महामारी की चपेट में आना मुझ पर परमेश्वर की ताड़ना का ही पड़ना था; यह मेरे लिए परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का एक प्रकाशन भी था। अगर मैं पश्चात्ताप किए बिना ऐसे ही बनी रहती, तो भले ही कलीसिया मुझे बाहर न निकालती, परमेश्वर तो हर चीज की पड़ताल करता है और पवित्रात्मा मुझ पर काम नहीं करता। देर-सवेर मुझे निकाल दिया जाता। जैसा कि बाइबल कहती है : “और निश्चिन्त रहने के कारण मूढ़ लोग नष्ट होंगे” (नीतिवचन 1:32)। सर्वशक्तिमान परमेश्वर भी कहता है : “जिस चीज का तुम आज लालच के साथ आनंद उठा रहे हो, वही तुम्हारे भविष्य को बरबाद कर रही है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सुसमाचार को फैलाने का कार्य मनुष्य को बचाने का कार्य भी है)। यह समझने पर मैं गहरे पछतावे से भर गई और मुझे खुद से पूरी तरह नफरत हो गई। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : “प्रिय परमेश्वर, मैं बहुत स्वार्थी और धोखेबाज हूँ। अपने कर्तव्य निभाने में मैं लापरवाही बरतती हूँ और अपनी देह का ख्याल करती हूँ। मेरे इस रवैये ने कलीसिया के काम पर असर डाला है। प्रिय परमेश्वर, मैं पश्चात्ताप करने को तैयार हूँ। कृपा करके इस मनोदशा को बदलने में मेरा मार्गदर्शन कर।”
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “व्यक्ति के जीवन का मूल्य क्या है? क्या यह केवल खाने, पीने और मनोरंजन जैसे शारीरिक सुखों में शामिल होने की खातिर है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) तो फिर यह क्या है? तुम लोग अपने विचार साझा करो। (व्यक्ति को अपने जीवन में कम से कम एक सृजित प्राणी के कर्तव्य को पूरा करने का लक्ष्य हासिल करना चाहिए।) सही कहा। ... एक ओर, यह सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करने के बारे में है। दूसरी ओर, यह अपनी क्षमता और काबिलियत के दायरे में रहकर अपना सर्वश्रेष्ठ और हरसंभव योगदान देने के बारे में है; यह कम से कम उस बिंदु तक पहुँचने के बारे में है जहाँ तुम्हारी अंतरात्मा तुम्हें दोषी नहीं ठहराती है, जहाँ तुम अपनी अंतरात्मा के साथ शांति से रह सकते हो और दूसरों की नजरों में स्वीकार्य साबित हो सकते हो। इसे एक कदम आगे बढ़ाते हुए, अपने पूरे जीवन में, चाहे तुम किसी भी परिवार में पैदा हुए हो, तुम्हारी शैक्षिक पृष्ठभूमि या काबिलियत चाहे जो भी हो, तुम्हें उन सिद्धांतों की थोड़ी समझ होनी चाहिए जिन्हें लोगों को जीवन में समझना चाहिए। उदाहरण के लिए, लोगों को किस प्रकार के मार्ग पर चलना चाहिए, उन्हें कैसे रहना चाहिए, और एक सार्थक जीवन कैसे जीना चाहिए—तुम्हें कम से कम जीवन के असली मूल्य का थोड़ा पता लगाना चाहिए। यह जीवन व्यर्थ नहीं जिया जा सकता, और कोई इस पृथ्वी पर व्यर्थ में नहीं आ सकता। दूसरे संदर्भ में, अपने पूरे जीवनकाल के दौरान, तुम्हें अपना लक्ष्य पूरा करना चाहिए; यह सबसे महत्वपूर्ण है। हम किसी बड़े लक्ष्य, कर्तव्य या जिम्मेदारी को पूरा करने की बात नहीं करेंगे; लेकिन कम से कम, तुम्हें कुछ तो हासिल करना चाहिए। उदाहरण के लिए, कलीसिया में, कुछ लोग अपनी सारी कोशिश सुसमाचार फैलाने में लगा देते हैं, अपने पूरे जीवन की ऊर्जा समर्पित करते हैं, बड़ी कीमत चुकाते और कई लोगों को जीतते हैं। इस वजह से, उन्हें लगता है कि उनका जीवन व्यर्थ नहीं गया है, उसका मूल्य है और यह राहत देने वाला है। बीमारी या मृत्यु का सामना करते समय, जब वे अपने पूरे जीवन का सारांश निकालते हैं और उन सभी चीजों के बारे में सोचते हैं जो उन्होंने कभी की थीं, जिस रास्ते पर वे चले, तो उन्हें अपने दिलों में तसल्ली मिलती है। उन्हें किसी दोषारोपण या पछतावे का अनुभव नहीं होता। कुछ लोग कलीसिया में अगुआई करते समय या कार्य के किसी खास पहलू की अपनी जिम्मेदारी में कोई कसर नहीं छोड़ते। वे अपनी अधिकतम क्षमता का उपयोग करते हैं, अपनी पूरी ताकत लगाते हैं, अपनी सारी ऊर्जा खर्च करते हैं और जो काम करते हैं उसकी कीमत चुकाते हैं। अपने सिंचन, अगुआई, सहायता और समर्थन से, वे कई लोगों को उनकी कमजोरियों और नकारात्मकता के बीच मजबूत बनने और दृढ़ रहने में मदद करते हैं ताकि वे पीछे हटने के बजाय परमेश्वर की उपस्थिति में वापस आएँ और अंत में उसकी गवाही भी दें। इसके अलावा, अपनी अगुआई की अवधि के दौरान, वे कई महत्वपूर्ण कार्य पूरे करते हैं, बहुत-से दुष्ट लोगों को कलीसिया से निकालते हैं, परमेश्वर के चुने हुए अनेक लोगों की रक्षा करते हैं, और कई बड़े नुकसानों की भरपाई भी करते हैं। ये सभी चीजें उनकी अगुआई के दौरान ही हासिल होती हैं। वे जिस रास्ते पर चले, उसे पीछे मुड़कर देखते हुए, बीते बरसों में अपने द्वारा किए गए काम और चुकाई गई कीमत को याद करते हुए, उन्हें कोई पछतावा या दोषारोपण महसूस नहीं होता। उन्हें ये काम करने पर कोई पछतावा नहीं होता और वे मानते हैं कि उन्होंने एक सार्थक जीवन जिया है और उनके दिलों में स्थिरता और आराम है। यह कितना अद्भुत है! क्या यही वह फल नहीं जो उन्होंने प्राप्त किया है? (हाँ।) स्थिरता और राहत की यह भावना, पछतावे का न होना, ये सकारात्मक चीजों और सत्य का अनुसरण करने की फसल हैं। आओ, हम लोगों के लिए ऊँचे मानक न रखें। एक ऐसी स्थिति पर विचार करें जहाँ व्यक्ति को ऐसे कार्य का सामना करना पड़ता है जो उसे अपने जीवनकाल में करना चाहिए या वह करना चाहता है। अपना पद जान लेने के बाद, वह दृढ़ता से उस पर बना रहता है, पद पर टिका रहता है और जिस चीज पर काम करना चाहिए और जिसे पूरा करना चाहिए उसे हासिल और पूरा करने के लिए अपने हृदय की पूरी ताकत और अपनी सारी ऊर्जा खपा देता है। जब वह अंत में हिसाब देने के लिए परमेश्वर के सामने खड़ा होता है, तो वह काफी संतुष्ट महसूस करता है, उसके दिल में कोई दोषारोपण या पछतावा नहीं होता है। उसमें राहत का एहसास होता है कि उसने कुछ प्राप्त किया है, कि उसने एक मूल्यवान जीवन जिया है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (6))। परमेश्वर के वचनों से मैं समझी कि परमेश्वर ने मेरे लिए यह नियत किया था कि मैं अंत के दिनों में जीऊँ, परमेश्वर का कार्य स्वीकार करूँ और कलीसिया में अपने कर्तव्य निभाऊँ। वह नहीं चाहता था कि मैं अपनी देह का ख्याल करूँ, आराम में लिप्त रहूँ और यूँ ही व्यस्त दिखने का दिखावा करते हुए अपना जीवन बरबाद करूँ जबकि हासिल कुछ न हो। परमेश्वर का इरादा तो यह था कि मैं जीवन के सही मार्ग पर चलूँ अपना कर्तव्य निभाते हुए और अधिक सत्य की खोज करूँ और परमेश्वर के वचनों के अनुसार अपने भाई-बहनों की समस्याओं और मुश्किलों को सुलझाऊँ ताकि मैं सिद्धांतों के मुताबिक काम कर सकूँ और अपने कर्तव्य ऐसे निभा सकूँ जो मानक स्तर का हो। सिर्फ ऐसे जिया गया जीवन ही कीमती है। मैंने सोचा कि मैंने कितने मक्कार और चालाक तरीके से अपना कर्तव्य निभाया था। भले ही मेरी देह आराम में थी, पर मेरे दिल की गहराइयों में तो बस पीड़ा और अंधकार ही था और मुझे रत्ती भर भी शांति या खुशी नहीं थी। चंद पलों के आराम और मजे की खातिर, मैंने न सिर्फ अपने जीवन प्रवेश में रुकावट डाली, बल्कि अपने कर्तव्य में भी कितने ही पछतावे छोड़ दिए। मैं सचमुच बहुत जिद्दी और निपट मूर्ख थी! मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और यह पक्का इरादा किया कि भले ही मैं अपनी बीमारी से पूरी तरह ठीक नहीं हुई हूँ, मैं अपनी गलत मनोदशा को बदलने और देह के खिलाफ विद्रोह करने को तैयार हूँ ताकि नए विश्वासियों की धारणाओं और मनोदशाओं को फौरन सुलझा सकूँ अपना काम अच्छी तरह से कर सकूँ और अपनी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य पूरे कर सकूँ।
इसके बाद काम में जो भी समस्याएँ आतीं, उन्हें हल करने के लिए मैं अपनी सहयोगी के साथ सत्य की खोज करती। आमतौर पर मैं सिंचनकर्ताओं की भी एक साथ सिद्धांत खोजने में अगुआई करती और समय-समय पर काम में आए विचलनों और समस्याओं का सार निकालकर उन्हें हल करने का रास्ता खोजती। एक दिन बहन जेन शिन ने बताया कि जिस नए विश्वासी का वह सिंचन कर रही थी, उसने कई समस्याएँ खड़ी कर दी थीं। उसे समझ नहीं आ रहा था कि उन्हें कैसे हल किया जाए और वह चाहती थी कि मैं उनके बारे में संगति करूँ। कुछ ऐसी समस्याएँ थीं जिनके बारे में मुझे भी फौरन समझ नहीं आया कि कैसे संगति की जाए या उन्हें कैसे सुलझाया जाए। मैं सोचने लगी : “इन समस्याओं का साफ-साफ हल ढूँढ़ने के लिए तो बहुत सोचना-समझना और खोजना पड़ेगा। इसमें बहुत वक्त लगेगा। कितनी बड़ी मुसीबत है! मैं इन समस्याओं को ऐसे ही पड़ा रहने दे सकती हूँ और बाद में अपनी सहयोगी से उन्हें हल करवा लूँगी।” जब मैंने यह सोचा, तो मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से अपनी देह का ही ख्याल कर रही थी। मैंने फौरन परमेश्वर से प्रार्थना की : “प्रिय परमेश्वर, मैं जानती हूँ कि एक बार फिर मैं आराम का लालच कर रही हूँ और मक्कार और चालाक होने की ओर प्रलोभित हो रही हूँ, मैं देह के खिलाफ विद्रोह करने और इन समस्याओं को हल करने में अपनी पूरी ताकत झोंक देने को तैयार हूँ। तू मेरा मार्गदर्शन कर!” बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “जब व्यक्ति वास्तव में सत्य से प्रेम करता है तो उसके पास परमेश्वर के लिए काफ़ी इच्छा वाला दिल, एक ईमानदार दिल और सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने की प्रेरणा हो सकती है। वास्तविक ताकत रखते हुए वे कीमत चुकाने, अपनी ऊर्जा और समय समर्पित करने, अपने व्यक्तिगत लाभ त्यागने और देह की सभी उलझनें छोड़ने में सक्षम होते हैं, जिससे वे परमेश्वर के वचनों के अभ्यास, सत्य के अभ्यास और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश के लिए रास्ता साफ कर लेते हैं। अगर परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए तुम अपनी धारणाएँ छोड़ सकते हो, अपने दैहिक हित, प्रतिष्ठा, रुतबा, प्रसिद्धि और दैहिक आनंद छोड़ सकते हो—अगर तुम ऐसी तमाम चीजें छोड़ सकते हो तो फिर तुम सत्य वास्तविकता में ज्यादा से ज्यादा प्रवेश करोगे। तुम्हें जो भी कठिनाइयाँ और परेशानियाँ हैं, वे अब समस्याएँ नहीं रहेंगी—वे आसानी से हल हो जाएँगी—और तुम आसानी से परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर जाओगे। सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए एक ईमानदार दिल और परमेश्वर के लिए काफ़ी इच्छा रखने वाला दिल दो अपरिहार्य शर्तें हैं। अगर तुम्हारे पास सिर्फ ईमानदार दिल है, लेकिन तुम हमेशा कायर रहते हो, परमेश्वर के लिए काफ़ी इच्छा नहीं रखते और कठिनाइयों का सामना करने पर पीछे हट जाते हो तो ईमानदार दिल होना ही काफी नहीं है। अगर तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के लिए काफ़ी इच्छा ही है, और तुम थोड़े-से आवेगी हो, और तुम्हारी बस यही आकांक्षा है, लेकिन जब तुम्हारे साथ कुछ घटित होता है, तो तुम्हारे पास ईमानदार दिल नहीं होता, और तुम पीछे हट जाते हो, और अपने ही हित चुनते हो तो परमेश्वर के लिए काफ़ी इच्छा होना भी पर्याप्त नहीं है। तुम्हें एक ईमानदार दिल और परमेश्वर के लिए काफ़ी इच्छा रखने वाले दिल दोनों की आवश्यकता है। तुम्हारे दिल की ईमानदारी के स्तर और परमेश्वर के लिए काफ़ी इच्छा की ताकत से सत्य का अभ्यास करने की तुम्हारी प्रेरणा शक्ति तय होती है। अगर तुम्हारे पास ईमानदार दिल नहीं है और तुम्हारे दिल में परमेश्वर के लिए काफ़ी इच्छा नहीं है तो तुम परमेश्वर के वचनों को नहीं समझ पाओगे और तुममें सत्य का अभ्यास करने की प्रेरणा नहीं होगी। इस तरह तो तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाओगे और तुम्हारे लिए उद्धार पाना भी कठिन होगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे बहुत प्रेरणा मिली। अपना कर्तव्य निभाते समय मैं हमेशा मुश्किलों से कतराती थी और जहाँ थोड़ी भी मेहनत लगती वहाँ से पीछे हट जाती थी। असल समस्या यह थी कि मैं अपने कर्तव्य से सच्चे दिल से पेश नहीं आ रही थी और सत्य का अभ्यास करने के लिए कोई भी कष्ट उठाने या कीमत चुकाने को तैयार नहीं थी। जब मैंने इस पर सोचा तो मुझे एहसास हुआ कि जब मैं नए विश्वासियों की समस्याएँ नहीं सुलझा पाती थी तो इसका सीधा मतलब था कि मैं सत्य के उस पहलू को समझती ही नहीं थी। यही वह समय था जब मुझे सत्य की खोज करनी चाहिए और खुद को सत्य से लैस करना चाहिए। ऐसा माहौल मुझे परमेश्वर के करीब आने और उस पर भरोसा करने की ओर ले जा सकता था और उससे भी कहीं बढ़कर यह मेरे लिए सत्य पाने का एक मौका था। मुझे इन मौकों को सँजोना चाहिए, अपनी देह के खिलाफ विद्रोह करना चाहिए और इन समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य की खोज में परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए, वह कीमत चुकाते हुए जो मुझे चुकानी चाहिए। सिर्फ इसी तरह मैं परमेश्वर का प्रबोधन और मार्गदर्शन पा सकती थी और धीरे-धीरे सत्य को समझकर उसे हासिल कर सकती थी। अगर मैं लगातार आराम में लिप्त रही, मुश्किलों से पीछे हटी और थोड़ी मुश्किल आने पर कतराने लगी तो मैं कभी भी सत्य की वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाऊँगी और सत्य पाने का मेरे पास कोई रास्ता न होगा। आखिरकार नुकसान तो मेरा ही होगा। यह समझने के बाद मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और नए विश्वासियों की समस्याओं से जुड़े परमेश्वर के कुछ वचन ढूँढ़े। बाद में जेन शिन और मैंने नए विश्वासियों के लिए परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने के लिए एक सभा रखी। संगति के जरिए हमने नए विश्वासियों की समस्याएँ सुलझा दीं। सत्य समझने के बाद नए विश्वासियों को अभ्यास का एक मार्ग मिल गया था और उनकी मुश्किलें और समस्याएँ हल हो गई थीं। मैंने अपने दिल की गहराइयों से परमेश्वर का धन्यवाद किया! वास्तव में समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य की खोज करने से मैं कुछ समस्याओं की असलियत जान सकी और कुछ ऐसे सत्यों को समझ पाई जिन्हें मैं पहले नहीं समझी थी। इस तरह से अपना कर्तव्य निभाने से मेरे दिल को बड़ा चैन और सुकून मिला।
इस अनुभव के बाद मैंने देखा कि अपने कर्तव्य निभाते समय मुझे जिन भी तरह-तरह की मुश्किलों और समस्याओं का सामना करना पड़ा, उन सबमें परमेश्वर की अनुमति शामिल थी और परमेश्वर जानबूझकर मेरे लिए मुश्किलें खड़ी नहीं कर रहा था। परमेश्वर का इरादा तो इन विभिन्न मुश्किलों और समस्याओं का इस्तेमाल करके मुझे सत्य के सिद्धांतों की खोज करने के लिए प्रेरित करना था और इन विभिन्न मुश्किलों का इस्तेमाल करके मेरी भ्रष्टता और कमियों को प्रकट करना था ताकि मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने के लिए सत्य की खोज करूँ। वरना मैं हमेशा अपने भ्रष्ट स्वभाव के सहारे जीती रहती और अपना कर्तव्य निभाते समय आराम में लिप्त रहती और चालाकी और मक्कारी से काम लेती। इससे न सिर्फ कलीसिया के काम में देरी होती बल्कि आखिरकार यह मुझे ही बरबाद कर देता। यह परमेश्वर के वचन ही थे जिन्होंने मुझ जैसी नासमझ और जिद्दी इंसान को जगाया। उसके इस उद्धार के लिए परमेश्वर का धन्यवाद!