26. रुतबे के पीछे भागने को लेकर चिंतन

चांग शिंग, चीन

अपनी आस्था के वर्षों में मैंने मुख्य रूप से पाठ-आधारित कर्तव्य निभाए हैं और समय के साथ अधिकांश भाई-बहन मेरी प्रशंसा और मेरा आदर करने लगे। मुझे लगता था कि परमेश्वर ने वास्तव में मुझ पर अनुग्रह किया है और मैं हमेशा अपने कर्तव्य में प्रेरित रहता था। लेकिन तुलना के बिना कोई विषमता नहीं होती। जब मैंने अपनी उम्र के भाई-बहनों को देखा जिनकी आस्था समान समयावधि की थी और वे अगुआओं और पर्यवेक्षकों के रूप में सेवा दे रहे थे, तो मेरी मानसिकता बदल गई। मुझे लगा कि अगुआ या पर्यवेक्षक होना अधिक प्रतिष्ठित और प्रमुख बात है और मैंने सोचा कि अगर मैं एक दिन अगुआ या पर्यवेक्षक बन पाऊँ तो यह कितना अच्छा होगा।

अप्रैल 2022 में मैं कलीसिया में लोगों को बाहर निकालने के लिए दस्तावेज व्यवस्थित कर रहा था। एक बार ली वेई हमारे लिए एक सभा की अगुआई करने आई। मैंने देखा कि वह मेरी ही उम्र की थी, तकरीबन तीस साल की। जब मुझे पता चला कि वह एक जिला अगुआ है, तो मैं यह सोचकर हैरान और ईर्ष्यालु दोनों था, “ली वेई इतनी युवा है और पहले ही एक जिला अगुआ है! अगर उसे अगुआ चुना गया था, तो इसका मतलब यह रहा होगा कि उसकी काबिलियत सबसे अच्छी है और वह जिले की कलीसियाओं में सत्य का सर्वाधिक अनुसरण करती है। सभी भाई-बहन उसका आदर करते होंगे। अगर मैं भी उसकी तरह एक अगुआ या पर्यवेक्षक बन पाता, तो भाई-बहन निश्चित रूप से मेरा भी आदर करते।” लेकिन जब मैंने सोचा कि इतने सालों की आस्था के बाद मैं जिस सर्वोच्च पद पर पहुँचने में कामयाब रहा, वह सिर्फ एक टीम अगुआ का है, तो मुझे यह सोचकर थोड़ी निराशा हुई, “अगर भाई-बहनों को पता चला कि इतने वर्षों की आस्था के बाद भी मैं कभी कलीसिया अगुआ नहीं रहा, तो क्या वे सोचेंगे कि मैं कोई ऐसा व्यक्ति नहीं हूँ जो सत्य का अनुसरण करता है? हर किसी का कर्तव्य परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और निर्धारित होता है, तो परमेश्वर ने ली वेई को अगुआ क्यों बनाया, जबकि मैं केवल पाठ-आधारित कर्तव्य करने में सक्षम हूँ?” संयोगवश उसी समय कलीसिया एक अगुआ का चुनाव करने वाली थी। मैंने मन ही मन सोचा, “मैंने एक दशक से अधिक समय से परमेश्वर में विश्वास रखा है और इन सभी सालों में मैं पाठ-आधारित कर्तव्य निभाता आ रहा हूँ। मैं कुछ सत्य समझता हूँ और कुछ मसले हल कर सकता हूँ, तो क्या मैं कलीसिया अगुआ के रूप में भी प्रशिक्षण नहीं ले सकता?” मुझे उम्मीद थी कि दूसरे लोग मेरी सिफारिश करेंगे, लेकिन अंत में किसी ने भी ऐसा नहीं किया। मुझे थोड़ी निराशा महसूस हुई। लेकिन फिर मैंने सोचा, “ठीक है, यहाँ के लोग मेरे आसपास ज्यादा नहीं रहे हैं और मुझे अच्छी तरह से नहीं जानते। इसके अलावा मैंने कभी अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में सेवा नहीं की है और मेरे पास कार्य अनुभव की कमी है। अगर मुझे वास्तव में अगुआ का कर्तव्य दिया जाता, तो मैं शायद इसे अच्छी तरह से नहीं कर पाता।” इसलिए मैंने यह विचार छोड़ दिया।

जनवरी 2023 में मुझे दूसरा काम सौंपे जाने के चलते मैंने लेखों की छानबीन शुरू कर दी। जब मैंने अपनी पर्यवेक्षक ली किंग को देखा, तो मैं काफी परेशान हो गया और सोचने लगा, “ली किंग मेरी ही उम्र की है। हम दोनों ने कॉलेज में ही परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू किया था और कुछ साल पहले जब मैं टीम अगुआ था, तो ली किंग बस टीम की एक सदस्य थी। लेकिन कुछ ही सालों के अंतराल के बाद अब वह पाठ-आधारित कार्य का पर्यवेक्षण कर रही है, जबकि मैं बस टीम का सदस्य हूँ। जब भाई-बहन देखते होंगे कि ली किंग इतनी कम उम्र की होने पर भी पर्यवेक्षक है, तो उन्हें लगता होगा कि उसमें अच्छी काबिलियत है और वह सत्य का अनुसरण करती है। मैं इतने सालों से परमेश्वर में विश्वास रखता आया हूँ, तो मुझे पर्यवेक्षक बनने का मौका क्यों नहीं मिला? मुझे लगता था कि परमेश्वर ने मुझ पर वास्तव में अनुग्रह किया है क्योंकि मैं पाठ-आधारित कर्तव्य कर रहा था। लेकिन इन भाई-बहनों की तुलना में जो अगुआ, कार्यकर्ता या पर्यवेक्षक के रूप में सेवा करने में सक्षम हैं, मैं अभी भी एक साधारण विश्वासी हूँ। क्या इससे ऐसा नहीं लगता कि मैं सत्य का अनुसरण नहीं करता? अगर चीजें इसी तरह चलती रहीं, तो कोई भी मेरा आदर नहीं करेगा!” इस बारे में सोचने से मेरे अंदर शिकायतें उठने लगीं, “परमेश्वर दूसरों पर अनुग्रह करता है, लेकिन मुझ पर क्यों नहीं?” इसके बाद अपने कर्तव्य निभाते हुए मैं थोड़ा निष्क्रिय हो गया। मैंने ली किंग को भाई-बहनों की दशाओं पर संगति करते और कार्य की समस्याएँ हल करते हुए देखा और जब वह ऐसा करती थी, तो हर कोई ध्यान से सुनता था और कभी-कभी तो लोग नोट्स भी लेते थे। यह देखकर मेरे दिल में ईर्ष्या और जलन का मिला-जुला भाव आया, साथ ही इस स्थिति को स्वीकारने के प्रति इनकार का भाव भी पैदा हुआ और जब ली किंग संगति कर रही थी, तो मैं उसे सुनना नहीं चाहता था। बाद में मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा गलत थी। जब मैंने देखा कि ली किंग पर्यवेक्षक बन गई है, तो मुझे ईर्ष्या और अस्वीकृति महसूस हुई और मैंने इस बात की भी शिकायत की कि परमेश्वर ने मुझे पर्यवेक्षक क्यों नहीं बनाया। क्या इसमें परमेश्वर के प्रति मेरे समर्पण में कमी नहीं थी? इसलिए मैंने अपनी समस्या हल करने के लिए सत्य की खोज की।

एक दिन मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “परमेश्वर की पहचान, स्थिति और सार को कभी भी मनुष्य की पहचान, स्थिति और सार के बराबर नहीं माना जा सकता, न ही इन चीजों में कभी कोई बदलाव होगा—परमेश्वर हमेशा परमेश्वर रहेगा और मनुष्य हमेशा मनुष्य रहेगा। यदि कोई व्यक्ति इसे समझने में सक्षम है तो फिर उसे क्या करना चाहिए? उसे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए—यह चीजों को करने का सबसे तर्कसंगत तरीका है, और इसके अलावा कोई अन्य रास्ता नहीं है जिसे चुना जा सकता हो। यदि तुम समर्पण नहीं करते तो तुम विद्रोही हो और यदि तुम अवज्ञाकारी हो और बहस करते हो, तो तुम घोर विद्रोही बन रहे हो और तुम्हें नष्ट कर दिया जाना चाहिए। परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर पाना दर्शाता है कि तुम्हारे पास समझ-बूझ है; यही रवैया लोगों के पास होना चाहिए और केवल यही रवैया सृजित प्राणियों के पास होना चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हारे पास एक छोटी बिल्ली या कुत्ता है—क्या वह बिल्ली या कुत्ता यह माँग करने के योग्य है कि तुम उसके लिए विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट भोजन या मजेदार खिलौने खरीदो? क्या बिल्ली या कुत्ते इतने नासमझ होते हैं कि अपने मालिकों से माँग करें? (नहीं।) और क्या कोई कुत्ता यह देखकर अपने मालिक के साथ नहीं रहना चाहेगा कि किसी दूसरे घर के कुत्ते का जीवन उससे बेहतर है? (नहीं।) उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति यह सोचना होता है, ‘मेरा मालिक मुझे भोजन और रहने के लिए जगह देता है, इसलिए मुझे अपने मालिक के घर की रखवाली करनी चाहिए। भले ही मेरा मालिक मुझे खाना न दे या बहुत अच्छा खाना न दे, तो भी मुझे उसके घर की रखवाली करनी है।’ कुत्ते के मन में अपने स्थान से परे जाने के कोई अन्य अनुचित विचार नहीं होते। उसका मालिक उसके साथ अच्छा व्यवहार करे या न करे, जब भी मालिक घर आता है, कुत्ता बहुत खुश होता है, वह जितना खुश हो सकता है उतनी खुशी से लगातार दुम हिलाता रहता है। चाहे उसका मालिक उसे पसंद करे या न करे, चाहे उसका मालिक उसके लिए स्वादिष्ट चीजें खरीदे या न खरीदे, फिर भी उसका अपने मालिक के प्रति हमेशा एक जैसा व्यवहार होता है और वह उसके घर की रखवाली करता है। इस आधार पर आकलन करें तो क्या लोग कुत्तों से भी बदतर नहीं हैं? (हाँ।) लोग हमेशा परमेश्वर से माँग करते रहते हैं और हमेशा उससे विद्रोह करते रहते हैं। इस समस्या की जड़ क्या है? इसकी जड़ यही है कि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, वे सृजित प्राणियों के स्थान पर नहीं रह सकते और इसलिए वे अपनी सहज प्रवृत्ति खोकर शैतान बन जाते हैं; उनकी सहज प्रवृत्तियाँ परमेश्वर का विरोध करने, सत्य को अस्वीकार करने, बुराई करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण न करने की शैतानी प्रवृत्ति में बदल जाती हैं। उनकी मानवीय प्रवृत्तियों को कैसे बहाल किया जा सकता है? उनमें अंतरात्मा और विवेक होना चाहिए, उन्हें ऐसी चीजें करने के लिए तैयार किया जाना चाहिए जो एक व्यक्ति को करनी चाहिए, वे कर्तव्य निभाने चाहिए जो उन्हें करने चाहिए। यह वैसा ही है जैसे एक कुत्ता घर की रखवाली करता है और एक बिल्ली चूहे पकड़ती है—उनका मालिक उनके साथ चाहे कैसा भी व्यवहार करे, वे इन काम करने में अपनी सारी ताकत लगा देते हैं, वे खुद को इन कामों में झोंक देते हैं और वे अपने स्थान पर बने रहते हैं और अपनी सहज प्रवृत्ति का पूरा उपयोग करते हैं और इसीलिए उनका मालिक उन्हें पसंद करता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। परमेश्वर उजागर करता है कि शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद मनुष्य अपनी अंतरात्मा और विवेक खो देते हैं और परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह से भर जाते हैं। वे बिल्लियों और कुत्तों से भी बदतर होते हैं। जरा बिल्लियों और कुत्तों के बारे में सोचो : चाहे उनका मालिक उन्हें ठीक से खिलाए या खराब ढंग से, चाहे वह उन्हें सोफे पर सोने दे या छज्जे के नीचे, वे हमेशा अपने मालिक के लिए चूहे पकड़ने या घर की रखवाली करने में लगे रहते हैं, अपनी सहज प्रवृत्तियों का पूरा उपयोग करते हैं। अपने आप से इसकी तुलना करूँ तो भले ही मैंने एक अगुआ या कार्यकर्ता का कर्तव्य नहीं निभाया था, फिर भी मैंने परमेश्वर के वचनों के सिंचन और प्रावधान का वैसा ही आनंद लिया था और जब मेरा कठिनाइयों से सामना हुआ और मैंने परमेश्वर पर भरोसा कर उसकी ओर देखा, तो मुझे उसका मार्गदर्शन और अगुआई प्राप्त हुई। परमेश्वर ने मेरे प्रति जरा भी पक्षपात नहीं दिखाया था, लेकिन मैं हमेशा परमेश्वर से माँगें कर रहा था। जब मैंने कुछ भाई-बहनों को अगुआ या पर्यवेक्षक के रूप में चुने जाते देखा, तो मैंने परमेश्वर के बारे में शिकायत की। मुझे लगा कि परमेश्वर दूसरों पर अनुग्रह कर रहा है, लेकिन मुझ पर नहीं। परमेश्वर से ये माँगें करना दिखाता है कि मेरे पास कोई विवेक नहीं था और मैं उसके विरुद्ध विद्रोह कर रहा था। इन बातों को महसूस करके मुझे कुछ शर्मिंदगी महसूस हुई और मैं अपना ध्यान अपने कर्तव्य पर केंद्रित करने और इसे व्यावहारिक तरीके से करने के लिए तैयार हो गया।

दो महीने बाद एक अन्य पर्यवेक्षक भाई चेन यू को उसकी खराब काबिलियत के कारण दूसरा काम सौंपा गया। मैंने देखा कि एक और अवसर सामने आ गया है। चूँकि चेन यू को बरखास्त किया गया था, इसलिए निश्चित रूप से एक नया पर्यवेक्षक चुने जाने की जरूरत थी। साथ मिलकर काम करने वाले भाई-बहनों में काबिलियत और कार्य क्षमता के मामले में मैं थोड़ा बेहतर था। पर्यवेक्षक के रूप में मेरे चुने जाने की संभावना अधिक थी। मैंने सोचा, “मुझे अच्छा प्रदर्शन करने के लिए इस मौके का लाभ उठाना चाहिए। अगर मुझे चुना जाता है और हर कोई देखता है कि मुझे इतनी कम उम्र में पर्यवेक्षक बनाया गया है, तो वे निश्चित रूप से सोचेंगे कि मेरे पास अच्छी काबिलियत है और मैं सत्य का अनुसरण करता हूँ। यह कितना शानदार होगा!” मैं तब से अपने कर्तव्य में बहुत सक्रिय हो गया। मैं तकनीकों का अध्ययन कराने के लिए सभी को एक साथ लाता था और काम की समस्याएँ हल करने के लिए चर्चाओं में भी भाग लेता था। एक बार अपना कर्तव्य निभाते हुए अपने अहंकार और आत्मतुष्टता के कारण मैंने सिद्धांतों का उल्लंघन किया और मेरी काट-छाँट की गई। मैंने मन में सोचा, “कोई व्यक्ति काट-छाँट स्वीकार सकता है या नहीं, इस पर राय बनाने के लिए यह एक महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है कि वह सत्य स्वीकारता है या नहीं। मुझे खुद को जानने में अधिक ईमानदार होना चाहिए। इस तरह हर किसी के मन में मेरे बारे में अच्छी छवि बनेगी और फिर मुझे पर्यवेक्षक के रूप में चुने जाने की संभावनाएँ बढ़ जाएँगी!” इसलिए मैंने यह कहकर जवाब दिया, “आपकी काट-छाँट उचित है और मैं इसे स्वीकार करने के लिए तैयार हूँ। मेरा स्वभाव वास्तव में बहुत घमंडी है और यदि आपको मेरी समस्याएँ पता चलती हैं, तो मेरा मार्गदर्शन कीजिए क्योंकि इससे मुझे फायदा होगा।” कुछ ही समय बाद टीम को पर्यवेक्षक का चयन करना था और बेशक एक भाई ने मेरी सिफारिश की। लेकिन अंतिम चुनाव से पहले अगुआओं ने मुझे दूसरे कर्तव्य के लिए पदोन्नत कर दिया। भले ही पर्यवेक्षक बनने की मेरी इच्छा पूरी नहीं हुई, फिर भी मैं पदोन्नत होकर बहुत खुश था।

सितंबर 2023 में मुझे अगुआओं का एक पत्र मिला, तब आखिरकार मैंने रुतबे का अनुसरण करने को लेकर आत्म-चिंतन शुरू किया। पत्र में कहा गया था कि पर्यवेक्षक ली किंग हाल ही में डॉक्टर से मिलने घर गई थीं, लेकिन घर लौटने से पहले उन्होंने शिकायत की थी कि घर से दूर रहकर अपने कर्तव्य करना बहुत मुश्किल होता है और घर लौटने के एक महीने बाद ही उनकी शादी एक गैर-विश्वासी से हो गई और अब वह अपने कर्तव्य नहीं करना चाहती थीं। मैं यह सोचकर हैरान रह गया, “ली किंग इतने सालों से घर से दूर रहकर अपने कर्तव्य कर रही हैं और वे पर्यवेक्षक के बतौर सेवा दे रही थीं, जो इतना महत्वपूर्ण काम है। वे अचानक अपना कर्तव्य छोड़कर एक गैर-विश्वासी के साथ कैसे जा सकती हैं?” इस घटना का मुझ पर बहुत बड़ा असर हुआ। मुझे यह स्पष्ट हो गया कि रुतबा होने का मतलब यह नहीं है कि कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है, न ही इसका मतलब यह है कि परमेश्वर उसे स्वीकार करता है या उसका अनुमोदन करता है। मैंने परमेश्वर के इन वचनों के बारे में सोचा : “मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंजिल उसकी आयु, वरिष्ठता और उसके द्वारा सही गई पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता और सबसे कम इस आधार पर तय नहीं करता कि वह किस हद तक दया का पात्र है, बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। परमेश्वर के वचन बहुत स्पष्ट हैं। परमेश्वर लोगों के परिणामों को इस आधार पर निर्धारित करता है कि उनके पास सत्य है या नहीं, न कि इस आधार पर कि उनका रुतबा और वरिष्ठता क्या है या उन्होंने कितना कष्ट सहा है। मैंने मूल रूप से परमेश्वर के वचनों को अपने दिल में स्वीकार नहीं किया था और मैंने सत्य को अपने अनुसरण का लक्ष्य नहीं बनाया था। भले ही मैंने कई अगुआओं और कार्यकर्ताओं को देखा था जो सत्य का अनुसरण नहीं करते थे या वास्तविक कार्य नहीं करते थे, जो नकली अगुआ बन गए थे और बरखास्त कर दिए गए थे; भले ही मैंने कुछ लोगों को रुतबे के हठधर्मी अनुसरण के चलते असंतुष्टों पर हमला करते, उन्हें बाहर करते, मसीह-विरोधी बनते और निष्कासित होते देखा था, फिर भी मुझे कोई एहसास नहीं हुआ और मैंने सत्य का अनुसरण करने का प्रयास नहीं किया। इसके बजाय मैं रुतबे पर ही अड़ा रहा। मैं लगातार रुतबे के पीछे भागते रहना चाहता था। मैं वास्तव में मूर्ख और अड़ियल था! तब जाकर मैंने लगातार रुतबे के पीछे भागने की अपनी समस्या हल करने के लिए उचित तरीके से सत्य की खोज करने का मन बनाया।

बाद में अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “तुम रुतबे को इतना क्यों सँजोते हो? रुतबे से तुम्हें क्या फायदे मिल सकते हैं? अगर रुतबा तुम्हारे लिए आपदा, कठिनाइयाँ, शर्मिंदगी और दर्द लेकर आए, तो क्या तुम उसे फिर भी सँजोकर रखोगे? (नहीं।) रुतबा होने से बहुत सारे फायदे मिलते हैं, जैसे दूसरों की ईर्ष्या, आदर, सम्मान और चापलूसी, और साथ ही उनकी प्रशंसा और श्रद्धा मिलना। श्रेष्ठता और विशेषाधिकार की भावना भी होती है, जो रुतबे से तुम्हें मिलती है, जो तुम्हें अभिमान और खुद के योग्य होने का एहसास कराती है। इसके अलावा, तुम उन चीजों का भी आनंद ले सकते हो, जिनका दूसरे लोग आनंद नहीं लेते, जैसे कि रुतबे के लाभ और विशेष व्यवहार। ये वे चीजें हैं, जिनके बारे में तुम सोचने की भी हिम्मत नहीं करते, लेकिन जिनकी तुमने अपने सपनों में लालसा की है। क्या तुम इन चीजों को बहुमूल्य समझते हो? अगर रुतबा केवल खोखला है, जिसका कोई वास्तविक महत्व नहीं है, और उसका बचाव करने से कोई वास्तविक प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, तो क्या उसे बहुमूल्य समझना मूर्खता नहीं है? अगर तुम देह के हितों और भोगों जैसी चीजें छोड़ पाओ, तो प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा तुम्हारे पैरों की बेड़ियाँ नहीं बनेंगे(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग दो))। “जब तुम्‍हें किसी और के मन में रुतबा मिलता है, तब वे तुम्‍हारे साथ होने पर तुम्हारे प्रति सम्मान दिखाते हैं, और तुमसे बात करते समय विशेष रूप से विनम्र रहते हैं। वे हमेशा प्रेरणा के लिए तुम्‍हारी ओर देखते हैं, वे हमेशा हर चीज पहले तुम्‍हें करने देते हैं, वे तुम्‍हें रास्ता देते हैं, तुम्‍हारी चापलूसी करते हैं और तुम्‍हारी बात मानते हैं। सभी चीजों में वे तुम्‍हारी राय चाहते हैं और तुम्‍हें निर्णय लेने देते हैं। और तुम्‍हें इससे आनंद की अनुभूति होती है—तुम्‍हें लगता है कि तुम किसी और से अधिक ताकतवर और बेहतर हो। यह एहसास हर किसी को पसंद आता है। यह किसी के दिल में अपना रुतबा होने का एहसास है; लोग इसका आनंद लेना चाहते हैं। यही कारण है कि लोग रुतबे के लिए होड़ करते हैं, और सभी चाहते हैं कि उन्हें दूसरों के दिलों में रुतबा मिले, दूसरे उनका सम्मान करें और उन्‍हें पूजें। यदि वे इससे ऐसा आनंद प्राप्त नहीं कर पाते, तो वे रुतबे के पीछे नहीं भागते। उदाहरण के लिए, यदि किसी के मन में तुम्‍हारा रुतबा नहीं है, तो वह तुम्‍हारे साथ समान स्तर पर जुड़ेगा, तुम्‍हें अपने बराबर मानेगा। वह जरूरत पड़ने पर तुम्हारी बात काटेगा, तुम्हारे प्रति विनम्र नहीं रहेगा या तुम्हें आदर नहीं देगा और तुम्‍हारी बात खत्‍म होने से पहले ही उठकर जा भी सकता है। क्या तुम्हें बुरा लगेगा? जब लोग तुम्‍हारे साथ ऐसा व्यवहार करते हैं तो तुम्‍हें अच्छा नहीं लगता; तुम्‍हें अच्छा तब लगता है जब वे तुम्‍हारी चापलूसी करते हैं, तुम्हें आदर और सराहना की नजर से देखते हैं और हर पल तुम्हें पूजते हैं। तुम्‍हें तब अच्‍छा लगता है जब हर चीज तुम्हारे इर्द-गिर्द घूमती है, हर चीज तुम्‍हारे हिसाब से होती है, हर कोई तुम्‍हारी बात सुनता है, तुम्हें आदर और सराहना की नजर से देखता है और तुम्‍हारे निर्देशों का पालन करता है। क्या यह एक राजा के रूप में शासन करने, सत्ता पाने की इच्छा नहीं है? तुम्हारी कथनी और करनी रुतबा चाहने और उसे पाने से प्रेरित होती है और इसके लिए तुम दूसरों से संघर्ष, छीना-झपटी और प्रतिस्पर्धा करते हो। तुम्‍हारा लक्ष्य एक पद हासिल करना, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को अपनी बात सुनाना, उनसे समर्थन पाना और अपनी आराधना करवाना है। एक बार जब तुम उस पद पर आसीन हो जाते हो, तो फिर तुम्‍हें सत्ता मिल जाती है और तुम रुतबे के फायदों, दूसरों की प्रशंसा और उस पद के साथ आने वाले अन्य सभी लाभों का मजा ले सकते हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे समझ आया कि मैं अगुआ के तौर पर ली वेई से और पर्यवेक्षक के तौर पर ली किंग से ईर्ष्या क्यों करता था, वास्तव में इसकी वजह यह थी कि कैसे एक अगुआ और पर्यवेक्षक बनने के बाद उन्हें दूसरों का समर्थन और प्रशंसा मिली थी। मुझे श्रेष्ठता की भावना और रुतबे के साथ मिलने वाले फायदों से ईर्ष्या होती थी। जैसे परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करने से पहले मैंने बाहरी दुनिया के अगुआओं में पाया था और मैंने देखा था कि हर कोई उनका आदर के साथ अभिवादन करता था, वे जो भी राय व्यक्त करते थे, उनके अधीनस्थ उनका पालन करते थे और उन्हें मानते थे और लोगों के बीच उनमें श्रेष्ठता की भावना प्रबल होती थी। मैं सोचता था कि केवल इसी तरह जीने से ही व्यक्ति गरिमापूर्ण और सफल बनता है। परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद मैंने ली वेई और ली किंग को कम उम्र में अगुआ और पर्यवेक्षक बनते देखा और मैंने सोचा कि सभी भाई-बहन उनकी प्रशंसा करते हैं और उनसे ईर्ष्या करते हैं, उनकी अच्छी काबिलियत और सत्य के अनुसरण के लिए उनकी प्रशंसा करते हैं और इसलिए मैं भी एक अगुआ या कार्यकर्ता बनने के लिए तरसता था। इस तरह मैं भाई-बहनों की प्रशंसा और ईर्ष्या पा सकता था और जब मैं भीड़ में बोलता तो वे मुझे ध्यान से सुनते। इस तरह का जीवन कितना गरिमापूर्ण और सार्थक होता! मैंने देखा कि अगुआ या पर्यवेक्षक बनने की मेरी इच्छा भारी बोझ उठाने और परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होने की नहीं थी, बल्कि दूसरों के बीच रुतबा प्राप्त करने, उनके बीच प्रतिष्ठित होने, भाई-बहनों के समर्थन और प्रशंसा का आनंद लेने की थी। क्या यह वैसे ही नहीं था, जैसे गैर-विश्वासी सत्ता और अगुआई के पदों के पीछे भागते हैं? मैं जिस चीज के पीछे भाग रहा था वह रुतबे के लाभों का भोग था। मैं इस तरह से सत्य कैसे प्राप्त कर सकता था और कैसे बचाया जा सकता था?

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों को पसंद करता है और वह लोगों के जिस काम से सबसे ज्यादा घृणा करता है वह है शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे दौड़ना। कुछ लोग वाकई रुतबे और प्रतिष्ठा को सँजोते हैं, उन्हें उनसे गहरा लगाव होता है, वे उन्हें छोड़ना सहन नहीं कर सकते। उन्हें हमेशा यही लगता है कि रुतबे और प्रतिष्ठा के बिना जीने में कोई खुशी या आशा नहीं है; उनके लिए इस जीवन में आशा केवल तब ही होती है जब वे रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए जीते हैं और अगर उन्हें थोड़ी-सी प्रसिद्धि मिल भी जाती है तो वे अपनी लड़ाई जारी रखेंगे, कभी हार नहीं मानेंगे। अगर तुम्हारी सोच और दृष्टिकोण यही है, यदि तुम्हारा हृदय ऐसी बातों से भरा है तो तुम न तो सत्य से प्रेम कर सकते हो और न ही उसका अनुसरण कर सकते हो, परमेश्वर के प्रति तुम्हारी आस्था में सही दिशा और लक्ष्यों की कमी है, तुम आत्म-ज्ञान का अनुसरण नहीं कर सकते, अपनी भ्रष्टता दूर कर एक इंसान की छवि में नहीं जी सकते; तुम अपना कर्तव्य करते समय चीजों को अनदेखा करते हो, तुममें जिम्मेदारी की भावना नहीं होती, तुम बस इस बात से संतुष्ट हो जाते हो कि तुम कोई बुराई नहीं कर रहे, कोई विघ्न-बाधा खड़ी नहीं कर रहे और तुम्हें निकाला नहीं जा रहा है। क्या ऐसे लोग मानक-स्तर के तरीके से अपना कर्तव्य कर सकते हैं? और क्या उन्हें परमेश्वर के द्वारा बचाया जा सकता है? असंभव। तुम प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर कार्य करते समय यह भी सोचते हो, ‘जब तक मैं कोई बुरा काम नहीं कर रहा और उससे कोई अशांति पैदा नहीं होती तो फिर भले ही मेरी मंशा गलत हो, कोई उसे न तो देख सकता है और न ही मेरी निंदा कर सकता है।’ तुम्हें पता नहीं कि परमेश्वर सबकी पड़ताल करता है। यदि तुम सत्य नहीं स्वीकारते या उसका अभ्यास नहीं करते और अगर परमेश्वर तुम्हें ठुकरा दे तो समझो तुम्हारे लिए सब खत्म हो गया है। जिन लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता, वे सभी खुद को चतुर समझते हैं; वास्तव में उन्हें पता भी नहीं चलता कि उन्होंने कब उसे ठेस पहुँचा दी। कुछ लोग इन बातों को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते; उन्हें लगता है, ‘मैं तो केवल अधिक कार्य करने और अधिक जिम्मेदारियाँ लेने के लिए ही प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे पड़ा हूँ। इससे कलीसिया के कार्य में कोई विघ्न-बाधा या गड़बड़ी तो नहीं हो रही है और निश्चित रूप से परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान नहीं पहुँच रहा है। यह कोई बड़ी समस्या नहीं है। मुझे बस रुतबे से प्रेम है और मैं उसकी रक्षा करता हूँ, लेकिन यह कोई बुरा काम नहीं है।’ हो सकता है कि देखने में इस तरह का मकसद बुरा कार्य न लगे, लेकिन अंत में इसका नतीजा क्या होता है? क्या ऐसे लोगों को सत्य प्राप्त होता है? क्या वे उद्धार प्राप्त कर पाएँगे? बिल्कुल नहीं। इसलिए प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागना सही मार्ग नहीं है—यह मार्ग सत्य की खोज के बिल्कुल विपरीत दिशा में है। संक्षेप में, तुम्हारी खोज की दिशा या उद्देश्य चाहे जो भी हो, यदि तुम रुतबे और प्रतिष्ठा के पीछे दौड़ने पर विचार नहीं करते और अगर तुम्हें इसे दरकिनार करना बहुत मुश्किल लगता है तो वह तुम्हारे जीवन प्रवेश को प्रभावित करेगा। जब तक तुम्हारे दिल में रुतबा बसा हुआ है, तब तक यह तुम्हारे जीवन की दिशा और अनुसरण के लक्ष्य को नियंत्रित और प्रभावित करने में पूरी तरह से सक्षम होगा; ऐसी स्थिति में अपने स्वभाव में बदलाव लाने की बात तो तुम भूल ही जाओ, तुम्हारे लिए सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना भी बहुत मुश्किल होगा; तुम अंततः परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर पाओगे या नहीं, यह बेशक स्पष्ट है। इसके अलावा यदि तुम रुतबे के पीछे भागना कभी नहीं त्याग पाते तो इससे तुम्हारे मानक स्तर के अनुरूप कर्तव्य करने की क्षमता पर भी असर पड़ेगा। तब तुम्हारे लिए मानक स्तर का सृजित प्राणी बनना बहुत मुश्किल हो जाएगा। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? जब लोग रुतबे के पीछे भागते हैं तो परमेश्वर को इससे बेहद घृणा होती है, क्योंकि रुतबे के पीछे भागना शैतानी स्वभाव है, यह एक गलत मार्ग है, यह शैतान की भ्रष्टता से पैदा होता है, परमेश्वर इसका तिरस्कार करता है और परमेश्वर इसी चीज का न्याय और शुद्धिकरण करता है। लोगों के रुतबे के पीछे भागने से परमेश्वर को सबसे ज्यादा घृणा है और फिर भी तुम अड़ियल बनकर रुतबे के लिए होड़ करते हो, उसे हमेशा सँजोए और संरक्षित किए रहते हो, उसे हासिल करने की कोशिश करते रहते हो। क्या इन सभी में थोड़ा सा परमेश्वर-विरोधी होने का गुण नहीं है? लोगों के लिए रुतबे को परमेश्वर ने नियत नहीं किया है; परमेश्वर लोगों को सत्य, मार्ग और जीवन प्रदान करता है, ताकि वे अंततः मानक स्तर के सृजित प्राणी, एक छोटा और नगण्य सृजित प्राणी बन जाएँ—वह इंसान को ऐसा व्यक्ति नहीं बनाता जिसके पास रुतबा और प्रतिष्ठा हो और जिस पर हजारों लोग श्रद्धा रखें। और इसलिए इसे चाहे किसी भी दृष्टिकोण से देखा जाए, रुतबे के पीछे भागने का मतलब एक अंधी गली में पहुँचना है। रुतबे के पीछे भागने का तुम्हारा बहाना चाहे जितना भी उचित हो, यह मार्ग फिर भी गलत है और परमेश्वर इसे स्वीकृति नहीं देता। तुम चाहे कितना भी प्रयास करो या कितनी बड़ी कीमत चुकाओ, अगर तुम रुतबा चाहते हो तो परमेश्वर तुम्हें वह नहीं देगा; अगर परमेश्वर तुम्हें रुतबा नहीं देता तो तुम उसे पाने की लड़ाई में नाकाम रहोगे और अगर तुम लड़ाई करते ही रहोगे तो उसका केवल एक ही परिणाम होगा : बेनकाब करके तुम्हें हटा दिया जाएगा और तुम्हारे सारे रास्ते बंद हो जाएँगे(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर के वचन स्पष्ट रूप से रुतबे के पीछे भागने में शामिल नुकसान और दुष्परिणामों की व्याख्या करते हैं। यदि कोई व्यक्ति लगातार रुतबे पर अड़ा रहता है, तो भले ही वह कोई स्पष्ट गड़बड़ियाँ या बाधाएँ पैदा करते न दिखे, फिर भी यह उसे अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से करने से रोकेगा और इसके अलावा यह स्वभावगत परिवर्तन और उद्धार के उसके अनुसरण में देरी करेगा। अपने व्यवहार पर आत्म-चिंतन करते हुए मैंने देखा कि भले ही मैंने ऐसा कुछ नहीं किया था जो कलीसिया के काम में गड़बड़ी या बाधा डालता हो, लेकिन मेरा दिल लगातार रुतबे की कामना से भरा हुआ था। जब मैंने देखा कि ली वेई अगुआ बन गई है और ली किंग पर्यवेक्षक बन गई है, तो मेरे दिल में उथल-पुथल मच गई और मुझे पदोन्नति न मिलने पर निराशा और परेशानी महसूस हुई। मैंने यह भी शिकायत की कि परमेश्वर दूसरों पर अनुग्रह कर रहा है, लेकिन मुझ पर नहीं। जब मैंने देखा कि ली किंग पर्यवेक्षक बन गई है जबकि मैं अभी भी बस टीम का एक सदस्य था, तो मैं ईर्ष्यालु, स्वीकार न करने वाला और उसकी संगति सुनने के लिए अनिच्छुक हो गया और मैंने अपने कर्तव्य में अपना दिल लगाना बंद कर दिया। चेन यू को दूसरा काम सौंपे जाने के बाद मैंने पर्यवेक्षक के रूप में चुने जाने के लिए खुद को सक्रिय रूप से प्रस्तुत करने की कोशिश की। जब मेरे कर्तव्य में अहंकार और आत्मतुष्टता के कारण मेरी काट-छाँट की गई, तो मैंने खुद को जानने का दिखावा किया ताकि दूसरे सोचें कि मैं सत्य स्वीकार सकता हूँ, उम्मीद रखी कि वे चुनाव के दौरान मेरे लिए वोट देंगे। मुझे एहसास हुआ कि मेरे इरादे और सभी क्रियाकलाप रुतबा हासिल करने के लिए थे और मैं एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रहा था! परमेश्वर के वचनों से मैंने यह भी समझा कि लोगों को बचाने के लिए परमेश्वर इस उम्मीद में सत्य व्यक्त करता है कि लोग सत्य और स्वभावगत परिवर्तन का उचित रूप से अनुसरण करेंगे, अंततः एक सृजित प्राणी के रूप में मानक के अनुरूप बनेंगे, इसलिए नहीं कि वे किसी भी तरह की प्रतिष्ठा या रुतबे वाले लोग बनेंगे। मैं परमेश्वर के इरादों को नहीं समझ पाया। मैं हमेशा एक साधारण विश्वासी होने से असंतुष्ट रहता था और मैंने सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया; मैं हमेशा दूसरों से प्रशंसा पाने और अपनी आराधना करवाने के लिए रुतबा खोजना चाहता था। यह परमेश्वर के इरादों के बिल्कुल विपरीत था। अगर मैं इसी तरह चलता रहता, तो मेरा जीवन स्वभाव कभी नहीं बदल पाता, मैं अपने कर्तव्य कभी भी मानक के अनुरूप नहीं निभा पाता और अंततः मुझे बस हटा दिया जाता।

बाद में आत्म-चिंतन करने पर मुझे एहसास हुआ कि मेरा निरंतर रुतबे के पीछे भागना मेरे भीतर एक गलत दृष्टिकोण से उपजा है। मेरा मानना ​​था कि अगुआ और पर्यवेक्षक ही वे लोग होते हैं जो समूह में सबसे अधिक सत्य का अनुसरण करते हैं और चूँकि मैं हमेशा से एक साधारण विश्वासी रहा हूँ और कभी अगुआ या पर्यवेक्षक नहीं रहा, तो इसका मतलब यह था कि मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया है और परमेश्वर ने मुझे नहीं स्वीकारा है। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे इस भ्रामक दृष्टिकोण के भेद की कुछ पहचान हासिल हुई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब कोई व्यक्ति भाई-बहनों द्वारा अगुआ के रूप में चुना जाता है या परमेश्वर के घर द्वारा कोई निश्चित कार्य करने या कोई निश्चित कर्तव्य निभाने के लिए पदोन्नत किया जाता है, तो इसका यह मतलब नहीं कि उसका कोई विशेष रुतबा या पद है या वह जिन सत्यों को समझता है, वे अन्य लोगों की तुलना में अधिक गहरे और संख्या में अधिक हैं—तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि यह व्यक्ति परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम है और उसे धोखा नहीं देगा। निश्चय ही, इसका यह मतलब भी नहीं है कि ऐसे लोग परमेश्वर को जानते हैं और परमेश्वर का भय मानते हैं। वास्तव में उन्होंने इसमें से कुछ भी हासिल नहीं किया है। पदोन्नयन और संवर्धन सीधे मायने में केवल पदोन्नयन और संवर्धन ही है, और यह भाग्य में लिखे होने या परमेश्वर की अभिस्वीकृति पाने के समतुल्य नहीं है। उनकी पदोन्नति और विकास का सीधा-सा अर्थ है कि उन्हें उन्नत किया गया है, और वे विकसित किए जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। और इस विकसित किए जाने का अंतिम परिणाम इस बात पर निर्भर करता है कि क्या यह व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है और क्या वह सत्य के अनुसरण का रास्ता चुनने में सक्षम है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (5))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मेरा दिल और भी उज्जवल हो गया। अगुआ या पर्यवेक्षक के रूप में चुने जाने का मतलब यह नहीं है कि कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है, न ही इसका मतलब यह है कि वह सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर है। इसका सीधा सा मतलब है कि यह व्यक्ति अनुसरण करने का इच्छुक है, उसके पास कुछ काबिलियत है और वह परमेश्वर के घर द्वारा चुने जाने और उपयोग किए जाने की शर्तें पूरी करता है, इसलिए कलीसिया उसे बेहतर प्रशिक्षण का अवसर देती है। मगर क्या यह व्यक्ति अंततः सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल पाता है और क्या वह सत्य को प्राप्त कर पाता है और वास्तविकता में प्रवेश कर पाता है, यह इस बात पर निर्भर है कि क्या वह वास्तव में सत्य का अनुसरण करता है और उसी मार्ग पर चलता है। उदाहरण के लिए, ली किंग को ही लें। उसे शुरू में पर्यवेक्षक के रूप में इसलिए चुना गया था क्योंकि उसे अपने कर्तव्यों में दायित्व का एहसास था, लेकिन पर्यवेक्षक बनने के बाद उसने सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया और रुतबे के लाभों का आनंद लेना शुरू कर दिया। वह शायद ही कभी अपने कर्तव्यों में प्रकट किए भ्रष्ट स्वभावों के बारे में बात करती थी या यह कि कैसे उसने उनका समाधान करने के लिए सत्य की खोज की। उसे पर्यवेक्षक के पद पर रहकर काम का निर्देशन करना अच्छा लगता था और उसे लोगों की प्रशंसा और समर्थन पसंद था। जब वह बीमार हुई, तो उसने सोचा कि घर से दूर अपने कर्तव्य पूरे करना बहुत मुश्किल है और अंततः उसने अपने कर्तव्य छोड़ दिए, घर चली गई और शादी कर ली। मैंने हाल ही के समय के बारे में भी सोचा जब कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करने वाले एक अगुआ को गिरफ्तार किया गया था। सजा सुनाए जाने और अपने बच्चों को छोड़ने में असमर्थ होने के डर से उसने “तीन कथनों” पर हस्ताक्षर कर दिए और परमेश्वर से विश्वासघात कर दिया। इन तथ्यों से मैंने देखा कि रुतबा होने का मतलब यह नहीं है कि कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है या उसके पास सत्य वास्तविकताएँ हैं और इसका मतलब यह तो और भी नहीं है कि कोई व्यक्ति परमेश्वर द्वारा स्वीकृत या अनुमोदित है। सत्य का अनुसरण ही बचाए जाने और पूर्ण किए जाने का एकमात्र मार्ग है और यहाँ तक कि रुतबे के बिना भी जब तक कोई व्यक्ति ईमानदारी से सत्य का अनुसरण करता है और अपने कर्तव्य निभाता है, तो वह परमेश्वर का प्रबोधन और मार्गदर्शन प्राप्त कर सकता है, सत्य को समझ सकता है और वास्तविकता में प्रवेश कर सकता है। बाद में मैंने मनन किया, “परमेश्वर में विश्वास करने के इतने साल बाद भी मुझे अगुआ या पर्यवेक्षक के रूप में क्यों नहीं चुना गया? आखिर मुझमें क्या कमी है?” अगुआ या पर्यवेक्षक होने के लिए व्यक्ति में सत्य समझने की काबिलियत, कर्तव्यों में सिद्धांतों पर पकड़, दायित्व की भावना और कार्य क्षमता होना आवश्यक है। भले ही मेरे पास परमेश्वर के वचन समझने की कुछ क्षमता थी, लेकिन मैंने पाया कि मेरी देह मुझ पर हावी थी, अपने कर्तव्यों में दायित्व भाव की कमी थी और मेरी कार्य क्षमता कम थी। बहुत अधिक काम होने पर मैं घबरा जाता था और मुख्य बिंदु नहीं पकड़ पाता था और मैं समस्याओं का पता लगाने और उन्हें हल करने में भी अच्छा नहीं था। इन व्यवहारों के हिसाब से देखें तो मैं सचमुच अगुआ या पर्यवेक्षक बनने के लिए उपयुक्त नहीं था। इसके अलावा आत्म-चिंतन की इस अवधि के दौरान मैंने देखा कि अपनी आस्था के सभी वर्षों में मैं लगातार प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागता रहा था, मैं ऐसा व्यक्ति बिल्कुल नहीं था जो सत्य का अनुसरण करता हो। यहाँ तक कि इस बिंदु पर भी मेरे पास कोई सत्य वास्तविकता नहीं थी और मैं भाई-बहनों की वास्तविक समस्याएँ हल करने के लिए सत्य पर संगति नहीं कर पाता था। इसलिए यह वास्तव में उचित ही था कि मुझे अगुआ या पर्यवेक्षक के रूप में नहीं चुना गया था। कलीसिया द्वारा मेरे लिए पाठ-आधारित कर्तव्यों की व्यवस्था करना परमेश्वर का मुझ पर अनुग्रह करना और मुझे ऊपर उठाना था और मुझे परमेश्वर का धन्यवाद करना चाहिए।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और परमेश्वर के इरादों और अपेक्षाओं को बेहतर ढंग से समझ पाया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब परमेश्वर यह अपेक्षा करता है कि लोग अपने कर्तव्य को अच्छे से निभाएँ तो वह उनसे एक निश्चित संख्या में कार्य पूरे करने या किसी महान उपक्रम को संपन्न करने को नहीं कह रहा है, और न ही वह उनसे किन्हीं महान उपक्रमों का निर्वहन करवाना चाहता है। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि लोग जमीनी तरीके से वह सब करें, जो वे कर सकते हैं, और उसके वचनों के अनुसार जिएँ। परमेश्वर यह नहीं चाहता कि तुम कोई महान या उत्कृष्ट व्यक्ति बनो, न ही वह चाहता है कि तुम कोई चमत्कार करो, न ही वह तुममें कोई सुखद आश्चर्य देखना चाहता है। उसे ऐसी चीजें नहीं चाहिए। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि तुम मजबूती से उसके वचनों के अनुसार अभ्यास करो। जब तुम परमेश्वर के वचन सुनते हो तो तुमने जो समझा है वह करो, जो समझ-बूझ लिया है उसे क्रियान्वित करो, जो तुमने सुना है उसे अच्छे से याद रखो और जब अभ्यास का समय आए, तो परमेश्वर के वचनों के अनुसार ऐसा करो। उन्हें तुम्हारा जीवन, तुम्हारी वास्तविकताएँ और जो तुम लोग जीते हो, वह बन जाने दो। इस तरह, परमेश्वर संतुष्ट होगा। ... तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, मगर बेशक यह भी इसलिए है क्योंकि परमेश्वर ने तुम्हें चुना है—मगर परमेश्वर द्वारा तुम्हें चुने जाने का क्या अर्थ है? यह तुम्हें ऐसा व्यक्ति बनाना है, जो परमेश्वर पर भरोसा करता है, जो वास्तव में परमेश्वर का अनुसरण करता है, जो परमेश्वर के लिए सब-कुछ त्याग सकता है, और जो परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने में सक्षम है; जिसने अपना शैतानी स्वभाव त्याग दिया है, जो अब शैतान का अनुसरण नहीं करता या उसकी सत्ता के अधीन नहीं जीता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। परमेश्वर का वचन अनुस्मारकों, प्रोत्साहनों और चेतावनियों से भरा हुआ है और यह सब परमेश्वर के अंतरतम हृदय से लोगों को दी गई ईमानदार सलाह है। मैं बहुत प्रभावित था। परमेश्वर लोगों को इस उम्मीद के साथ अपना अनुसरण करने के लिए चुनता है कि वे सत्य और स्वभावगत परिवर्तन का अनुसरण करेंगे, उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होंगे और संतुष्टि और वफादारी से अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाएँगे। इस तरह परमेश्वर संतुष्ट हो जाएगा। परमेश्वर के घर का कार्य सिर्फ एक व्यक्ति द्वारा पूरा नहीं किया जा सकता, कार्य का पर्यवेक्षण करने के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं की आवश्यकता होती है, साथ ही भाई-बहनों को विशिष्ट कार्य करने पड़ते हैं। तभी कलीसिया का कार्य सामान्य रूप से आगे बढ़ सकता है। कलीसिया द्वारा मेरे लिए पाठ-आधारित कर्तव्यों की व्यवस्था करना मेरी प्रतिभा, मानवता और काबिलियत के व्यापक मूल्यांकन पर आधारित था और मुझे समर्पित होकर अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहिए। मेरे पास ऐसा ही विवेक होना चाहिए था। ये बातें समझने के बाद मैंने बहुत अधिक मुक्त और सहज महसूस किया और जब मैं अपनी ही उम्र के या कम उम्र के भाई-बहनों को या मुझसे कम समय तक परमेश्वर में विश्वास करने वालों को अगुआ या पर्यवेक्षक बनते देखता था, तो मुझे अब कोई नाराजगी महसूस नहीं होती थी, न ही मैं अब अगुआ या कार्यकर्ता न बनाए जाने के कारण हताश या निराश महसूस करता था। अब मैं अपने द्वारा प्रकट किए जाने वाले भ्रष्ट स्वभावों पर अधिक ध्यान देता हूँ और अपनी भक्ति के दौरान अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर करने के लिए सत्य खोजता हूँ। मैं अपने कर्तव्यों में अधिक प्रयास करने पर भी ध्यान केंद्रित करता हूँ। मैं काम में जो भी समस्याएँ देखता हूँ, उन्हें सक्रिय रूप से उठाता हूँ और उन पर चर्चा करता हूँ और मैं अपने भाई-बहनों के साथ सहयोग करने के तरीके पर ध्यान केंद्रित करता हूँ ताकि हम अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकें। चूँकि मेरी मानसिकता सही हो गई थी, इसलिए कुछ समय बाद मैंने अपने जीवन प्रवेश और अपने कर्तव्यों, दोनों में कुछ लाभ प्राप्त किए। परमेश्वर का धन्यवाद!

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