28. क्या माता-पिता अपने बच्चों का भाग्य बदल सकते हैं?

झेंग ची, चीन

सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारने के बाद परमेश्वर के वचन खाने और पीने से मुझे एहसास हुआ कि केवल परमेश्वर में विश्वास करने और उसकी आराधना करने से ही मानवजाति के पास अच्छा भाग्य और गंतव्य हो सकते हैं और मैं समझ गई कि इस अंधकारमय और बुरी दुनिया में परमेश्वर में विश्वास ही जीवन का एकमात्र सही मार्ग है। उस समय मेरा बेटा मिडिल स्कूल में था और मैं अक्सर उससे परमेश्वर में विश्वास करने के बारे में बात करती थी, उसे बताती थी कि मनुष्यों को परमेश्वर ने बनाया है और इसलिए परमेश्वर में विश्वास करना चाहिए और उसकी आराधना करनी चाहिए और अपने दिल में मैं उम्मीद करती थी कि मेरा बेटा मेरे साथ परमेश्वर में विश्वास करेगा। इस तरह वह परमेश्वर से देखरेख और सुरक्षा पा सकेगा और उसके पास एक अच्छी मंजिल होगी। परमेश्वर को पाने के कुछ समय बाद मैं कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाने लगी, लेकिन सीसीपी हर जगह ईसाइयों को गिरफ्तार और उन पर अत्याचार कर रही थी और निराधार अफवाहें फैला रही थी, इसलिए मेरे पति ने मुझे रोकना और सताना शुरू कर दिया, उसे डर था कि मेरी आस्था की वजह से मुझे गिरफ्तार किया जा सकता है, इससे मेरा परिवार भी फँस सकता है और वह अक्सर मुझसे बहस करता था। लेकिन मेरा बेटा मेरी आस्था का बहुत समर्थन करता था और वह अक्सर अपने पिता को मेरी राह में आड़े न आने के लिए मनाने की कोशिश करता था। हर बार जब मेरा बेटा सप्ताहांत में घर आता तो जब भी मेरे पास समय होता, मैं उसके साथ बाइबल की कहानियाँ साझा करती और परमेश्वर के वचन पढ़ती। कभी-कभी जब मैं उसे टीवी देखते और सक्रिय रूप से परमेश्वर के वचन न पढ़ते देखती तो मैं चिंतित हो जाती और उसे अपने साथ परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए कहती रहती। मेरा बेटा मौखिक रूप से सहमत हो जाता, लेकिन फिर बिना हिले-डुले वहीं बैठा रहता और मैं गुस्सा हो जाती और कभी-कभी उसे डांट भी देती। जब वह देखता कि मैं गुस्से में हूँ तो वह परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़ने फौरन चला आता था। मैं समझ सकती थी कि मेरा बेटा मेरे साथ बस औपचारिकता निभा रहा है, लेकिन मुझे लगा कि कुछ भी हो, यह उसके परमेश्वर के वचन बिल्कुल न पढ़ने से तो बेहतर है। जब मेरा बेटा हाई स्कूल में पहुँच गया तो मैं पास की ही एक कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाने लगी और जब भी सप्ताहांत आता, मैं घर जाने की पूरी कोशिश करती ताकि मैं उससे परमेश्वर में विश्वास करने के बारे में बात कर सकूँ। बाद में मेरा बेटा विश्वविद्यालय चला गया और मैंने उसे एक MP5 प्लेयर खरीदकर दिया ताकि वह उसे स्कूल ले जा सके और परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए समय निकाल सके। कुछ समय बाद मैं उसे फोन करके याद दिलाती, उसे “कुछ अनुपूरक आहार लेने” के लिए कहती, जिसका मतलब होता था कि उसे परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़ने चाहिए। जब मेरा बेटा छुट्टियों में घर आया तो मैंने उससे सबसे पहले यही पूछा, “क्या तुम स्कूल में परमेश्वर के वचन पढ़ रहे हो?” जब उसने कहा कि समय मिलने पर वह उन्हें पढ़ता है तो मुझे राहत महसूस हुई।

2011 के वसंत में किसी ने मेरी आस्था के बारे में अधिकारियों को सूचना दे दी और इसलिए सीसीपी द्वारा गिरफ्तार किए जाने से बचने के लिए मुझे अपने कर्तव्य करने के लिए घर छोड़ना पड़ा। उस समय मेरा बेटा दूर के एक विश्वविद्यालय में दूसरे वर्ष में था और मैं उसे फोन करने के लिए दर्जनों मील की यात्रा करके एक सार्वजनिक फोन का उपयोग करती थी, उसे याद दिलाती, “‘अपना अनुपूरक आहार लेना’ मत भूलना।” जब मैं उससे ऐसा करने का वादा सुनती थी तो मुझे सुकून मिलता था। मैंने हमेशा यह उम्मीद की थी कि स्नातक होने के बाद वह परमेश्वर में विश्वास करने आ सकेगा और मेरे साथ जुड़ सकेगा और मैं अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करती थी, उससे विनती करती थी कि वह मेरे बेटे के दिल को प्रेरित करे और परमेश्वर में विश्वास करने के लिए उसका मार्गदर्शन करे। लेकिन चीजें मेरी इच्छा के विपरीत हुईं। 2013 के पतझड़ में मेरा बेटा स्नातक करने के बाद एक सैन्य अकादमी में चला गया। तब मैं चिंतित हो गई, “सीसीपी एक नास्तिक पार्टी है और यह सैन्य कर्मियों को आस्था रखने की अनुमति नहीं देती। अकादमी में जाने के बाद मेरे बेटे को न केवल परमेश्वर के वचन पढ़ने से मना कर दिया जाएगा, बल्कि उसे हर दिन सीसीपी द्वारा ब्रेनवॉश भी किया जाएगा और उसे नास्तिक विचारों से भरा जाएगा। अगर यह जारी रहा तो वह निश्चित रूप से परमेश्वर से अधिकाधिक दूर होता जाएगा। क्या वह तब भी परमेश्वर में विश्वास कर पाएगा?” उन वर्षों के दौरान मैंने हमेशा यह उम्मीद की थी कि मेरा बेटा परमेश्वर में विश्वास करेगा और उसके पास एक अच्छी मंजिल होगी, लेकिन अब मेरी वह इच्छा पूरी तरह चकनाचूर हो चुकी थी। जब मैंने अपने बेटे के उस नरक जैसी जगह पर जाने के बारे में सोचा, तो मैं खा-पी नहीं पाती थी, सो नहीं पाती थी और रोए बिना नहीं रह पाती थी। मैंने सोचा कि कैसे वह अपने हाई स्कूल के वर्षों के दौरान हर दो सप्ताह में एक बार घर आता था और मैं अक्सर अपने कर्तव्यों के कारण समय पर वापस नहीं आ पाती थी। बाद में जब मैंने अपने कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ दिया तो मेरे पास उसके साथ संगति करने का समय नहीं रहा। मुझे लगा कि अगर मैंने स्थानीय स्तर पर ही अपने कर्तव्य निभाए होते तो मैं उसके साथ परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़ सकती थी और उसका और भी मार्गदर्शन कर सकती थी और शायद वह गलत रास्ते पर नहीं चलता। जब मैंने इस तरह सोचा तो मुझे लगा कि मैंने एक माँ के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं की हैं और मैंने अपने बेटे के प्रति ऋणी महसूस किया। और इससे भी ज्यादा, मैं उसके भविष्य और भाग्य को लेकर चिंतित थी। बाद में मैंने कलीसिया में कई युवा भाई-बहनों को देखा जो लगभग मेरे बेटे की उम्र के थे और मैंने उन्हें परमेश्वर में विश्वास करते और सही मार्ग पर चलते देखा, जबकि मेरा बेटा बाहर संसार का अनुसरण कर रहा था। मुझे हमेशा उसके बारे में पछतावा होता था, मुझे पछतावा होता था कि मैंने उस पर और अधिक प्रयास नहीं किए थे और मैंने उसके साथ परमेश्वर के और अधिक वचन नहीं पढ़े थे। जब मैं अपने कर्तव्यों में व्यस्त नहीं होती थी तो मैं अपने बेटे के बारे में सोचती और खुद को अपराधबोध और दुःख से भरा पाती।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े और मैं अपने बेटे के बारे में अपनी कुछ चिंताओं को छोड़ने में सक्षम रही। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जन्म देने और बच्चे के पालन-पोषण के अलावा बच्चे के जीवन में माता-पिता का उत्तरदायित्व उसके बड़ा होने के लिए बाहर से महज एक परिवेश प्रदान करना है और बस इतना ही होता है क्योंकि सृष्टिकर्ता के पूर्वनिर्धारण के अलावा किसी भी चीज का उस व्यक्ति के भाग्य से कोई सम्बन्ध नहीं होता। किसी व्यक्ति का भविष्य कैसा होगा, इसे कोई नियन्त्रित नहीं कर सकता; इसे बहुत पहले ही पूर्व निर्धारित किया जा चुका होता है, किसी के माता-पिता भी उसके भाग्य को नहीं बदल सकते। जहाँ तक भाग्य की बात है, हर कोई स्वतन्त्र है और हर किसी का अपना भाग्य है। इसलिए किसी के भी माता-पिता जीवन में उसके भाग्य को बिल्कुल भी नहीं रोक सकते या जब उस भूमिका की बात आती है जो वे जीवन में निभाते हैं तो उसमें जरा-सा भी योगदान नहीं दे सकते हैं(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। “‘बच्चों का सही मार्ग पर न चलने का संबंध उनके माता-पिता से है,’ यह कहना गलत है। चाहे कोई भी हो, अगर वह किसी निश्चित तरह का व्यक्ति है तो वह एक निश्चित मार्ग पर चलेगा। क्या यह तय नहीं है? (है।) व्यक्ति जिस मार्ग को अपनाता है उससे निर्धारित होता है कि वह क्या है। वह जिस मार्ग को अपनाता है और जिस तरह का व्यक्ति बनता है, यह स्वयं पर निर्भर करता है। ये ऐसी चीजें हैं जो पूर्व-नियत, जन्मजात हैं और जिनका संबंध व्यक्ति की प्रकृति से है। तो माता-पिता द्वारा दी गई शिक्षा की क्या उपयोगिता है? क्या यह किसी व्यक्ति की प्रकृति को नियंत्रित कर सकती है? (नहीं।) माता-पिता द्वारा दी गई शिक्षा मानव प्रकृति को नियंत्रित नहीं कर सकती और न ही इस समस्या को हल कर सकती है कि व्यक्ति किस मार्ग पर जाएगा। वह एकमात्र शिक्षा क्या है जो माता-पिता दे सकते हैं? अपने बच्चों के दैनिक जीवन में कुछ सरल व्यवहार, कुछ एकदम सतही विचार और स्व-आचरण के नियम—ये ऐसी चीजें हैं जिनका माता-पिता से कुछ लेना-देना है। बच्चों के बालिग होने से पहले माता-पिता को अपनी उचित जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए, यानी अपने बच्चों को यह सिखाना चाहिए कि वे सही मार्ग पर चलें, कड़ी मेहनत से पढ़ाई करें और बड़े होने पर बाकी लोगों से ऊपर उठने में सक्षम होने का प्रयास करें, बुरे काम न करें या बुरे इंसान न बनें। माता-पिता को अपने बच्चों के व्यवहार को भी नियंत्रित करना चाहिए, उन्हें विनम्र होना और अपने से बड़ों से मिलने पर उनका अभिवादन करना सिखाना चाहिए, और उन्हें व्यवहार से संबंधित अन्य बातें सिखानी चाहिए—यही वह जिम्मेदारी है जो माता-पिता को पूरी करनी चाहिए। अपने बच्चे के जीवन का ख्याल रखना और उसे स्व-आचरण के कुछ बुनियादी नियमों की शिक्षा देना—माता-पिता का प्रभाव इतना ही है। जहाँ तक उनके बच्चे के व्यक्तित्व का सवाल है, माता-पिता यह नहीं सिखा सकते। कुछ माता-पिता शांत स्वभाव के होते हैं और हर काम आराम से करते हैं, जबकि उनके बच्चे बहुत अधीर होते हैं और थोड़ी देर के लिए भी शांत नहीं रह पाते। वे 14-15 साल की उम्र में अपने से ही जीविकोपार्जन करने के लिए निकल पड़ते हैं, वे हर चीज में अपने फैसले खुद लेते हैं, उन्हें अपने माता-पिता की जरूरत नहीं होती और वे बहुत स्वतंत्र होते हैं। क्या यह उन्हें उनके माता-पिता सिखाते हैं? नहीं। इसलिए किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व, स्वभाव और यहाँ तक कि उसके सार, और साथ ही भविष्य में वह जो मार्ग चुनता है, इन सबका उसके माता-पिता से कोई लेना-देना नहीं है। ... ‘बिना सिखाए खाना खिलाना पिता की गलती है,’ इस अभिव्यक्ति में एक समस्या है। भले ही अपने बच्चों को शिक्षित करने की जिम्मेदारी माता-पिता की होती है मगर एक बच्चे का भाग्य उसके माता-पिता द्वारा नहीं बल्कि बच्चे की प्रकृति से निर्धारित होता है। क्या शिक्षा बच्चे की प्रकृति की समस्या हल कर सकती है? यह इसे बिल्कुल भी हल नहीं कर सकती। कोई व्यक्ति जीवन में जो मार्ग अपनाता है, वह उसके माता-पिता द्वारा निर्धारित नहीं होता, बल्कि परमेश्वर द्वारा पहले से निर्धारित होता है। ऐसा कहा जाता है कि ‘मनुष्य का भाग्य स्वर्ग द्वारा तय होता है,’ और यह कहावत मानवीय अनुभव से निकली है। व्यक्ति के बालिग होने से पहले तुम यह नहीं बता सकते कि वह कौन-सा मार्ग अपनाएगा। जब वह बालिग हो जाएगा, और उसके पास विचार होंगे और वह समस्याओं पर चिंतन कर सकेगा तब वह चुनेगा कि इस विस्तृत समुदाय में उसे क्या करना है। कुछ लोग कहते हैं कि वे वरिष्ठ अधिकारी बनना चाहते हैं, दूसरे कहते हैं कि वे वकील बनना चाहते हैं और फिर कुछ और कहते हैं कि वे लेखक बनना चाहते हैं। हर किसी की अपनी पसंद और अपने विचार होते हैं। कोई भी यह नहीं कहता, ‘मैं बस अपने माता-पिता द्वारा मेरी शिक्षा पूरी किए जाने का इंतजार करूँगा। मैं वही बनूँगा जो मेरे माता-पिता मुझे बनने के लिए शिक्षित करेंगे।’ कोई भी व्यक्ति इतना बेवकूफ नहीं है। बालिग होने के बाद लोगों के विचार उमड़ने और धीरे-धीरे परिपक्व होने लगते हैं, और इस तरह उनके आगे का मार्ग और लक्ष्य अधिक स्पष्ट होने लगते हैं। इस समय धीरे-धीरे यह जाहिर और स्पष्ट हो जाता है कि वह किस प्रकार का व्यक्ति है और किस समूह का हिस्सा है। यहाँ से हरेक इंसान का व्यक्तित्व, साथ ही उसका स्वभाव और वह किस मार्ग का अनुसरण कर रहा है, जीवन में उसकी दिशा और वह किस समूह से संबंधित है, सब धीरे-धीरे स्पष्ट परिभाषित होने लगता है। यह सब किस पर आधारित है? आखिरकार, यह उसी चीज पर आधारित है जो परमेश्वर ने पहले से निर्धारित किया है—इसका व्यक्ति के माता-पिता से कोई लेना-देना नहीं है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि माता-पिता की जिम्मेदारी बच्चों को जन्म देना और उनका पालन-पोषण करना है, उनके विकास के लिए एक अच्छा माहौल प्रदान करना है, वयस्क होने से पहले उन्हें अच्छा बनने, सही मार्ग पर चलने और खराब चीजें न करने की शिक्षा देना है और उन्हें आचरण के सबसे बुनियादी सिद्धांत सिखाना है। लेकिन किसी बच्चे का भाग्य और जीवन में वह जो मार्ग अपनाता है, वह सब परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत होता है और ये ऐसी चीजें नहीं हैं जिन्हें माता-पिता तय या नियंत्रित कर सकते हैं। बच्चे जब वयस्क हो जाते हैं तो उनके अपने-अपने विचार और अपनी-अपनी पसंद होती है और वे किस तरह के व्यक्ति हैं, किस समूह से संबंधित हैं और वे किस मार्ग पर चलना चुनते हैं, यह सब स्पष्ट हो जाता है। लेकिन मैंने यह गलत सोच लिया कि जब मेरा बच्चा बड़ा हो गया और उसने परमेश्वर में विश्वास नहीं किया या वह सही मार्ग पर नहीं चला तो यह एक माँ के रूप में मेरी विफलता थी और ऐसा इसलिए था क्योंकि मैंने उसे परमेश्वर के और अधिक वचन नहीं सुनाए थे या उसका अधिक मार्गदर्शन नहीं किया था, जिसके कारण वह दुनिया के मार्ग पर चला। पिछले दस वर्षों के दौरान मैं गहरे अपराधबोध में जी रही थी, लगातार उसके प्रति ऋणी महसूस कर रही थी। मैं बहुत सारे वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करती थी, लेकिन मैं लोगों और मामलों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं देखती थी। यह सचमुच शर्मनाक था! मेरे बेटे का आस्था के मार्ग पर न चलना भी उसकी उस प्रकृति से निर्धारित था जो सत्य से प्रेम नहीं करती। मैंने वास्तव में घर पर उससे अक्सर परमेश्वर में विश्वास करने के बारे में बात की थी, लेकिन उसे परमेश्वर के वचनों में दिलचस्पी नहीं थी। हर बार मुझे उसे बुलाना और आग्रह करना पड़ता था, वह मुझे खुश करने के लिए बस परमेश्वर के थोड़े से वचन पढ़ लेता था। जैसे-जैसे वह बड़ा हुआ, वह दुनिया, प्रसिद्धि और लाभ से मोहित हो गया, इसलिए स्वाभाविक रूप से उसने दुनिया के मार्ग पर चलने की कोशिश की। भले ही मैंने अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर न छोड़ा होता और उसे रोज परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाने के लिए मैं घर पर रुकी रहती, फिर भी वह परमेश्वर में विश्वास करने तक नहीं पहुँचता। उसका भाग्य और वह जिस मार्ग पर चलता है, वे ऐसी चीजें नहीं हैं जिन्हें मैं, उसकी माँ के रूप में, नियंत्रित कर सकती हूँ। यह उसकी प्रकृति से संबंधित है और परमेश्वर के पूर्वनियत करने पर भी निर्भर करता है। एक बहन थी जिसने कॉलेज से स्नातक होने के बाद अपना पूरा समय अपने कर्तव्य करने में समर्पित कर दिया, लेकिन उसे उसके अविश्वासी पिता ने पुलिस स्टेशन भेज दिया। रिहा होने के बाद उसने परमेश्वर में विश्वास करना और अपना कर्तव्य निभाना जारी रखा। एक और बहन एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में गई, जब उसने परमेश्वर के वचन सुने तो वह बहुत प्रभावित हो गई और उसने परमेश्वर में विश्वास करने का संकल्प ले लिया और इसलिए उसने अपनी स्नातक की पढ़ाई छोड़ दी और पूर्णकालिक रूप से अपना कर्तव्य निभाना और परमेश्वर के लिए खुद को खपाना शुरू कर दिया। इन तथ्यों से मैंने देखा कि लोग जिस मार्ग पर चलने का निर्णय लेते हैं, उसका उनके माता-पिता से वास्तव में कोई संबंध नहीं होता।

एक दिन मैंने भक्ति के दौरान परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “कुछ माँ-बाप की अपने बच्चों से इस प्रकार की अपेक्षाएँ होती हैं : ‘हमारे बच्चों को सही रास्ते पर चलना चाहिए, उन्हें परमेश्वर में विश्वास करना चाहिए, धर्मनिरपेक्ष संसार को त्याग देना चाहिए और अपनी नौकरी छोड़ देनी चाहिए। नहीं तो, जब हम राज्य में प्रवेश करेंगे, तो वे प्रवेश नहीं कर सकेंगे और हम उनसे अलग हो जाएँगे। कितना अद्भुत होगा अगर हमारा पूरा परिवार एक साथ राज्य में प्रवेश कर सके! हम स्वर्ग में भी एक साथ हो सकते हैं, जैसे हम यहाँ पृथ्वी पर हैं। राज्य में, हमें एक-दूसरे को अकेला नहीं छोड़ना चाहिए, हमें युगों-युगों तक साथ रहना चाहिए!’ फिर, पता चलता है कि उनके बच्चे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, बल्कि सांसारिक चीजों का अनुसरण करते हैं, बहुत सारा पैसा कमाना और बहुत अमीर बनना चाहते हैं; वे वही पहनते हैं जो फैशन में है, वे वही करते हैं और उसी बारे में बात करते हैं जो प्रचलन में है, और अपने माँ-बाप की इच्छाओं को पूरा नहीं करते। नतीजतन, ये माँ-बाप परेशान हो जाते हैं, प्रार्थना करते और व्रत रखते हैं, हफ्ते भर का, दस दिन या पंद्रह दिनों का व्रत करते हैं, और इस मामले में अपने बच्चों की खातिर काफी प्रयास करते हैं। अक्सर भूखे रहने से उनका सिर घूमता है, और वे अक्सर रोते हुए परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं। मगर, वे चाहे कैसे भी प्रार्थना करें या कितना भी प्रयास करें, उनके बच्चों को कोई फर्क नहीं पड़ता, उनकी आँखें नहीं खुलती हैं। जितना ज्यादा उनके बच्चे विश्वास करने से इनकार करते हैं, उतना ही ज्यादा ये माँ-बाप सोचते हैं : ‘अरे नहीं, मैं अपने बच्चों की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा, मैंने उन्हें निराश किया है। मैं उन तक सुसमाचार फैलाने में सक्षम नहीं रहा, और मैं उन्हें अपने साथ उद्धार के मार्ग पर भी नहीं ला पाया। बेवकूफ कहीं के—यह आशीषों का मार्ग है!’ वे बेवकूफ नहीं हैं; उन्हें बस इसकी जरूरत नहीं है। ये माँ-बाप ही बेवकूफ हैं जो अपने बच्चों को इस रास्ते पर धकेलने की कोशिश कर रहे हैं, है न? अगर उनके बच्चों को यह जरूरत होती, तो क्या इन माँ-बाप को इन चीजों के बारे में बात करने की जरूरत पड़ती? उनके बच्चे खुद-ब-खुद विश्वास करने लगते। ये माँ-बाप हमेशा सोचते हैं : ‘मैंने अपने बच्चों को निराश किया है। मैंने उन्हें छोटी उम्र से ही कॉलेज जाने के लिए प्रोत्साहित किया और जब से वे कॉलेज गए, तब से उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। वे सांसारिक चीजों के पीछे भागना बंद ही नहीं करते, और जब भी वापस आते हैं, तो सिर्फ काम करने, पैसा कमाने, किसको तरक्की मिली और किसने नई गाड़ी खरीदी, किसने किसी अमीर व्यक्ति से शादी की, कौन आगे की पढ़ाई करने या एक्सचेंज स्टूडेंट बनकर यूरोप गया, यही बातें करते हैं और बताते हैं कि दूसरों का जीवन कितना अच्छा चल रहा है। जब भी वे घर आते हैं, तो उन्हीं चीजों के बारे में बात करते हैं, और मैं उन्हें सुनना नहीं चाहता, मगर मेरे पास कोई और चारा भी नहीं है। मैं उन्हें परमेश्वर में विश्वास दिलाने के लिए चाहे कुछ भी कहूँ, वे फिर भी नहीं सुनेंगे।’ नतीजतन, उनके और उनके बच्चों के बीच दरार पड़ जाती है। जब भी वे अपने बच्चों को देखते हैं, तो उनका चेहरा काला पड़ जाता है; जब भी वे अपने बच्चों से बात करते हैं तो उनके हाव-भाव उदास हो जाते हैं। कुछ बच्चे नहीं जानते कि उन्हें क्या करना चाहिए, और सोचते हैं : ‘मुझे नहीं पता मेरे माँ-बाप को क्या दिक्कत है। अगर मैं परमेश्वर में विश्वास नहीं करता, तो नहीं करता। वे हमेशा मेरे साथ ऐसा रवैया क्यों रखते हैं? मैंने सोचा था कि कोई व्यक्ति परमेश्वर में जितना ज्यादा विश्वास करेगा, वह उतना ही बेहतर इंसान बनेगा। परमेश्वर के विश्वासियों को अपने परिवारों के प्रति इतना कम स्नेह कैसे हो सकता है?’ ये माँ-बाप अपने बच्चों को लेकर इतना अधिक परेशान रहते हैं कि उनकी नसें फटने लगती हैं, और वे कहते हैं : ‘वे मेरे बच्चे नहीं हैं! मैं उनके साथ संबंध तोड़ रहा हूँ, मैं उन्हें अस्वीकार कर रहा हूँ!’ वे ऐसा कहते हैं, मगर वास्तव में ऐसा महसूस नहीं करते। क्या ऐसे माँ-बाप बेवकूफ नहीं होते? (बिल्कुल।) वे हमेशा हर चीज पर काबू पाना और कब्जा करना चाहते हैं, हमेशा अपने बच्चों के भविष्य, उनकी आस्था और उन रास्तों को काबू में करना चाहते हैं जिन पर वे चलते हैं। कितनी बड़ी बेवकूफी है! यह सही नहीं है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (18))। परमेश्वर जो उजागर करता है वह बिल्कुल सटीक है। ठीक यही चीज मैंने अपने दिल में सोची थी और इसी तरह मैंने काम किया था। जब मेरा बच्चा स्कूल में था तो मैंने अपने दिल में पहले से ही योजना बना ली थी कि उसके स्नातक होने के बाद हम एक साथ परमेश्वर में विश्वास करेंगे और माँ-बेटे के रूप में राज्य में प्रवेश करेंगे। वह कितना अद्भुत होता! इसलिए जब मेरा बच्चा घर पर होता तो मैं उससे परमेश्वर में विश्वास करने के बारे में बात करने के लिए समय निकालती, परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए उससे बार-बार आग्रह करती और जब वह नहीं सुनता था तो मैं गुस्सा हो जाती और कभी-कभी उसे डाँट भी देती। जब वह दूसरे शहर के एक विश्वविद्यालय में पढ़ रहा था तो मैं उसे फोन करने और परमेश्वर के वचन पढ़ने की याद दिलाने के लिए दर्जनों मील की यात्रा करती थी और मैंने अविवेकी रूप से परमेश्वर के सामने प्रार्थना की और उससे माँगें कीं, उससे कहा कि वह मेरे बच्चे के दिल को छुए और उसे आस्था की ओर ले जाए। मैं तो अपना भाग्य भी नियंत्रित नहीं कर सकती थी, फिर भी मैं अपने बच्चे के भाग्य का आयोजन और उसमें हेरफेर करने की कोशिश करती रही, मैं उसे उस मार्ग पर चलाना चाहती थी जो मैंने उसके लिए नियोजित किया था। यह वास्तव में मेरा अहंकार और अतिआत्मविश्वास था! जब मुझे पता चला कि मेरे बेटे ने दुनिया का मार्ग चुना है तो मैं चिंतित, परेशान हो गई, खा या सो नहीं पाई और मुझे पछतावा हुआ कि मैंने उसे आस्था के मार्ग पर लाने के लिए और अधिक प्रयास नहीं किया। दरअसल, मेरी चिंता इसलिए थी क्योंकि मुझे डर था कि अगर मेरा बच्चा परमेश्वर में विश्वास नहीं करेगा, तो वह आपदा में फँस जाएगा। अपनी भावनाओं से नियंत्रित होकर मैंने परमेश्वर के इरादों की उपेक्षा की और अपने बेटे की इच्छा के विरुद्ध मैं उसे बस परमेश्वर में आस्था की ओर खींचने पर जोर देती रही। मैंने अविवेकपूर्ण ढंग से परमेश्वर से प्रार्थना तक की कि वह मेरा यह सपना पूरा करने में मदद करे कि मैं अपने बेटे के साथ राज्य में प्रवेश कर सकूँ। मैंने जो भी किया वह सचमुच मूर्खतापूर्ण था और परमेश्वर के लिए पूरी तरह से घृणित था!

बाद में मैंने परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़े : “माता-पिता के रूप में, जब वयस्क बच्चों के प्रति अपनाए जाने वाले उनके रवैये की बात आती है, तो उनके बच्चे चाहे जैसे भी जीवनयापन करें, उनकी नियति या जीवन चाहे जैसा भी हो, वे बस मौन आशीष दे कर उनके लिए अच्छी उम्मीद रखकर बस इसे होने दे सकते हैं। कोई भी माता-पिता इसमें से कुछ भी बदल नहीं सकते, न ही उसे नियंत्रित कर सकते हैं। हालाँकि तुमने अपने बच्चों को जन्म दिया है, उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया है, फिर भी जैसा कि हम पहले चर्चा कर चुके हैं, माता-पिता अपने बच्चों की नियति के विधाता नहीं हैं। माता-पिता अपने बच्चों के भौतिक शरीर को दुनिया में लाते हैं और उन्हें बड़े होने तक पालते-पोसते हैं, लेकिन उनके बच्चों की नियति कैसी होगी, यह ऐसी चीज नहीं है जो माता-पिता दे सकते हैं या चुन सकते हैं, और माता-पिता यकीनन इसका फैसला नहीं करते। तुम अपने बच्चों की खुशहाली की कामना करते हो, लेकिन क्या यह गारंटी देती है कि वे खुशहाल होंगे? तुम कामना नहीं करते कि वे दुर्भाग्य, बदकिस्मती, और तरह-तरह की अभागी घटनाओं का सामना करें, लेकिन क्या इसका अर्थ यह है कि वे इससे बच पाएँगे? तुम्हारे बच्चे चाहे जिसका भी सामना करें, इनमें से कुछ भी इंसानी इच्छा के अधीन नहीं है, न ही इनमें से कुछ भी तुम्हारी जरूरतों या अपेक्षाओं से नियत होता है। तो यह तुम्हें क्या बताता है? चूँकि बच्चे बड़े हो गए हैं, खुद अपनी देखभाल करने, चीजों के बारे में स्वतंत्र सोच और नजरिया रखने, स्व-आचरण के सिद्धांतों, जीवन के प्रति दृष्टिकोण रखने में सक्षम हैं, और अब वे अपने माता-पिता से प्रभावित, संचालित, प्रतिबंधित या प्रबंधित नहीं होते, इसलिए वे सचमुच वयस्क हो गए हैं। इसका क्या अर्थ है कि वे वयस्क हो गए हैं? इसका अर्थ है कि उनके माता-पिता को चाहिए कि वे जाने दें। लिखित भाषा में, इसे ‘त्यागना’ कहा जाता है, यानी बच्चों को जीवन में स्वतंत्र रूप से खोजबीन कर अपना पथ स्वयं लेने देना(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (19))। “परमेश्वर में विश्वास रखने वाले और सत्य और उद्धार का अनुसरण करने वाले व्यक्ति के रूप में, तुम्हारे जीवन में जो ऊर्जा और समय शेष है, उसे तुम्हें अपने कर्तव्य निर्वहन और परमेश्वर ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है, उसे निभाने में खर्च करना चाहिए; तुम्हें अपने बच्चों पर कोई समय नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारा जीवन तुम्हारे बच्चों का नहीं है, और यह उनके जीवन या जीवित रहने और उनसे अपनी अपेक्षाओं को संतुष्ट करने में नहीं लगाना चाहिए। इसके बजाय, इसे तुम्हें परमेश्वर द्वारा सौंपे गए कर्तव्य और कार्य को समर्पित करना चाहिए, और साथ ही एक सृजित प्राणी के रूप में अपना उद्देश्य पूरा करने में लगाना चाहिए। इसी में तुम्हारे जीवन का मूल्य और अर्थ निहित है। अगर तुम अपनी प्रतिष्ठा खोने, अपने बच्चों का गुलाम बनने, उनकी फिक्र करने, और उनसे अपनी अपेक्षाएँ संतुष्ट करने हेतु उनके लिए कुछ भी करने को तैयार हो, तो ये सब निरर्थक हैं, मूल्यहीन हैं, और इन्हें याद नहीं रखा जाएगा। अगर तुम ऐसा ही करते रहोगे और इन विचारों और कर्मों को जाने नहीं दोगे, तो इसका बस एक ही अर्थ हो सकता है कि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो, तुम एक ऐसे सृजित प्राणी नहीं हो जो मानक स्तर का है और तुम अत्यंत विद्रोही हो। तुम परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए जीवन या समय को नहीं संजोते हो। ... एक बार यह दायित्व पूरा हो जाए और तुम्हारे बच्चे बड़े हो जाएँ या वे बेहद कामयाब हो जाएँ या साधारण और सरल व्यक्ति रह जाएँ, इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि उनकी नियति तुम नियत नहीं करते, न ही तुम चुनाव कर सकते हो, और यकीनन तुमने उन्हें यह नहीं दिया है—यह परमेश्वर द्वारा नियत है। चूँकि यह परमेश्वर द्वारा नियत है, इसलिए तुम्हें इसमें दखल नहीं देना चाहिए या उनके जीवन या जीवित रहने में अपनी टांग नहीं अड़ानी चाहिए। उनकी आदतें, दैनिक कामकाज, जीवन के प्रति उनका रवैया, जीवित रहने की उनकी रणनीतियाँ, जीवन के प्रति उनका परिप्रेक्ष्य, संसार के प्रति उनका रवैया—इन सबका चयन उन्हें खुद करना है, और ये तुम्हारी चिंता का विषय नहीं हैं। उन्हें सुधारना तुम्हारा दायित्व नहीं है, न ही तुम हर दिन उनकी खुशी सुनिश्चित करने हेतु उनके स्थान पर कोई कष्ट सहने को बाध्य हो। ये तमाम चीजें गैर-जरूरी हैं। हर इंसान की नियति परमेश्वर द्वारा नियत है; इसलिए वे जीवन में कितने आशीष या कष्ट अनुभव करेंगे, उनका परिवार, शादी और बच्चे कैसे होंगे, वे समाज में कैसे अनुभवों से गुजरेंगे, जीवन में वे कैसी घटनाओं का अनुभव करेंगे, वे खुद ये चीजें पहले से भाँप नहीं सकते, न बदल सकते हैं, और इन्हें बदलने की क्षमता माता-पिता में तो और भी कम होती है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (19))। परमेश्वर के वचन उस रवैये को बहुत स्पष्ट कर देते हैं जिसके साथ हमें अपने बच्चों से पेश आना चाहिए। जब माता-पिता अपने बच्चों को वयस्क होने तक पाल-पोस लेते हैं तो उनकी जिम्मेदारियाँ पूरी हो जाती हैं। जहाँ तक यह सवाल है कि उनके बच्चे किस मार्ग पर चलते हैं या उनका भाग्य क्या होता है, ये ऐसी चीजें नहीं हैं जिन्हें माता-पिता तय कर सकें। अपने बेटे के प्रति मेरी जिम्मेदारियाँ बहुत पहले ही पूरी हो चुकी थीं, इसलिए मुझे अविवेकी रूप से अपने बच्चे के जीवन या उसके द्वारा अपनाए गए मार्ग में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। मुझे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना था और परमेश्वर से सब कुछ स्वीकार करना था। मैंने अय्यूब के बारे में सोचा। एक पिता के रूप में उसने भी उम्मीद की थी कि उसके बच्चे उसी की तरह परमेश्वर में विश्वास करेंगे और उसकी आराधना करेंगे, लेकिन अय्यूब के पास अपने बच्चों से पेश आने के सिद्धांत थे। उसने उन्हें बस सुसमाचार सुनाया और एक पिता के रूप में अपनी जिम्मेदारी पूरी की और जहाँ तक इस बात का सवाल था कि वे परमेश्वर में विश्वास करेंगे या नहीं, अय्यूब ने उन्हें उनकी इच्छा के विरुद्ध विश्वास करने के लिए घसीटने की कोशिश नहीं की और उसने उनके द्वारा चुने गए मार्ग में हस्तक्षेप नहीं किया। उसने अपने बच्चों के लिए परमेश्वर के सामने प्रार्थना नहीं की, परमेश्वर से यह आग्रह नहीं किया कि वह अपने में विश्वास करने के लिए उनके दिलों को प्रेरित करे। उसने बस परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण किया। अय्यूब का अभ्यास परमेश्वर के इरादों के अनुरूप था। अय्यूब से अपनी तुलना करने पर मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई। मैंने परमेश्वर के इतने सारे वचन खाए और पीए थे, फिर भी मेरे दिल में परमेश्वर का कोई स्थान नहीं था। परिस्थितियों का सामना करते समय मैंने सत्य नहीं खोजा या परमेश्वर के इरादों को हृदयंगम नहीं किया बल्कि इसके बजाय, मैंने बस अपनी इच्छानुसार आँख मूँदकर काम किया। मुझे अय्यूब के उदाहरण का अनुसरण करना था और अपने बेटे के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करना था।

अब मेरा बेटा अभी भी दुनिया में खोज कर रहा है, लेकिन मैं अब उसके भविष्य या भाग्य के बारे में चिंता नहीं करती, न ही मैं उसके लिए दुखी या परेशान होती हूँ। ये परमेश्वर के वचन ही थे जिन्होंने मेरे गलत विचारों को बदल दिया। परमेश्वर का धन्यवाद!

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