37. मैंने अपनी दमनकारी भावनाओं पर कैसे काबू पाया

हुआ शुआंग, चीन

दिसंबर 2023 में, मुझे एक जिला अगुआ चुना गया। हर दिन, ऐसे बहुत से काम होते थे जिनका जायजा लेकर उन्हें लागू करना होता था। शुरू में मेरी मानसिकता काफी अच्छी थी। मैं जानती थी कि मुझमें बहुत-सी कमियाँ हैं, इसलिए मैंने आगे का रास्ता खोजने के लिए ऊपरी अगुआओं के मार्गदर्शन वाले पत्र पढ़ने पर ध्यान दिया। मैंने अपनी सहयोगी बहनों से भी चर्चा और बातचीत की, और धीरे-धीरे, मैं काम का जायजा लेना सीख गई। कुछ दिनों बाद, मेरी सहयोगी बहनों ने कहा कि हमें महीने के अंत में काम पर एक रिपोर्ट लिखनी है। देखते ही यह स्पष्ट था कि रिपोर्ट करने के लिए बहुत सारी मदें थीं, जैसे कि प्रत्येक कार्य की प्रगति कैसी थी, क्या उनमें कोई समस्या या विचलन था, साथ ही भाई-बहनों के कर्तव्यों में कमियाँ और कठिनाइयाँ और उनकी दशाएँ कैसी थीं। हमें इन सभी और अन्य चीजों की जाँच करनी और उन्हें स्पष्ट रूप से समझना था। हमें कार्य-योजनाएँ और समाधान भी लिखने थे। मुझे अचानक बहुत चिढ़ होने लगी, मैंने सोचा, “काम की रिपोर्ट में इतने सारे विवरण देने होते हैं; इसमें कितनी मेहनत लगेगी और कितना दिमाग खपेगा?” मैं जितना पढ़ती गई, उतनी ही घबराती गई। खासकर जब मैंने देखा कि ऐसे काम थे जिनसे मैं अपरिचित थी और ऐसे संबंधित सिद्धांत और पेशेवर कौशल थे जिनका मुझे अध्ययन करने और जिनसे परिचित होने के लिए समय और प्रयास लगाना था, तो मैंने मन में सोचा, “मैंने अभी-अभी यह कर्तव्य शुरू किया है, तो अगर मैं इस महीने की कार्य रिपोर्ट पूरी नहीं भी कर पाई, तो मैं मेरी सहयोगी बहनों पर भरोसा कर सकती हूँ। लेकिन अगले महीने, क्या मुझे यह सब खुद नहीं सँभालना पड़ेगा? उसमें तो बहुत मेहनत लगेगी और वह बहुत झंझट का काम होगा!” पिछले कुछ दिनों के रुके हुए काम के बारे में सोचकर मेरा सिर चकरा गया, और मैं सचमुच इस कर्तव्य से भागना चाहती थी। मैं जानती थी कि ये विचार परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं हैं, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और साथ ही यह समझने की कोशिश करती रही कि आगे कैसे बढूँ। लेकिन कभी-कभी, जब मैं अपनी बहनों को काम में समस्याओं पर चर्चा करते हुए सुनती, तो मैं जान-बूझकर भजन सुनने के लिए हेडफोन लगा लेती और उनकी चर्चाओं में शामिल नहीं होती थी। इस तरह मुझे समस्याओं को हल करने के बारे में सोचना नहीं पड़ता था, न ही चिंता और थकान होती थी।

जैसे-जैसे मैं काम में गहराई से उतरी, मुझे एहसास हुआ कि हर काम में बहुत सारे विवरण शामिल हैं, और उन सभी के लिए समाधान निर्धारित करने और अच्छे नतीजे पाने के लिए सावधानीपूर्वक सोचने की जरूरत है। यह कार्यभार मेरे पिछले, एक ही काम वाले कर्तव्य की तुलना में बहुत अधिक था, इसलिए मेरे मन में बहुत प्रतिरोध था, मैंने सोचा, “मैं भला खुद को इतना क्यों थकाऊँ और इतनी चिंता क्यों करूँ? एक ही काम वाला कर्तव्य करना कितना बेहतर था। तब मुझे हर दिन इतना दबाव नहीं झेलना पड़ता था!” मैं जितना अधिक शारीरिक आराम चाहती, अगुआ होना उतना ही थकाऊ लगता। उस दौरान मैं बहुत दबी हुई और परेशान महसूस करती थी, और अक्सर मेरा मूड खराब रहता था। जब मेरी सहयोगी बहनें मेरे साथ काम पर चर्चा करतीं, तो मैं बस संक्षिप्त और बेमन से जवाब देती, और फिर मैं बस अपने ही कामों में सिर खपाए रहती थी। मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा ठीक नहीं है, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं हमेशा शिकायत करती हूँ कि यह कर्तव्य कितना चिंताजनक और थकाने वाला है। मैं अपनी देह के लिए आराम खोजती हूँ और खुशी-खुशी अपना कर्तव्य नहीं कर पाती हूँ। मैं इस दशा में नहीं रहना चाहती। कृपया मेरा मार्गदर्शन कर ताकि मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव को जान सकूँ।” बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और अपनी दशा के बारे में कुछ समझ हासिल की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ लोग कहते हैं, ‘सभी कहते हैं कि विश्वासी स्वतंत्र और मुक्त होते हैं, विश्वासी विशेष रूप से प्रसन्न, शांतिपूर्ण और आनंदमय जीवन जीते हैं। मैं दूसरों की तरह खुशी और शांति से क्यों नहीं जी पाता? मुझे कोई आनंद महसूस क्यों नहीं होता? मैं इतना दमित और थका हुआ क्यों महसूस करता हूँ? दूसरे लोग इतना सुखी जीवन कैसे जीते हैं? मेरा जीवन इतना दयनीय क्यों है?’ बताओ, इसका क्या कारण है? उनका दमन किस कारण हुआ? (उनके भौतिक शरीर संतुष्ट नहीं थे और उनकी देह पीड़ित थी।) जब व्यक्ति का भौतिक शरीर पीड़ित होता है और उसे लगता है कि इसके साथ गलत किया गया है, अगर वह अपने दिलो-दिमाग में इसे स्वीकार सकता है, तो क्या उसे यह महसूस नहीं होगा कि उसकी शारीरिक पीड़ा अब उतनी बड़ी नहीं रही? अगर उसे अपने दिलो-दिमाग में सुख, शांति और आनंद मिलता है, तो क्या वह अभी भी दमित महसूस करेगा? (नहीं।) इसलिए यह कहना कि दमन शारीरिक पीड़ा के कारण होता है, अमान्य है। अगर दमन अत्यधिक शारीरिक पीड़ा के कारण उत्पन्न होता है, तो क्या तुम लोग पीड़ित नहीं हो? क्या तुम लोग इसलिए दमित महसूस करते हो कि तुम जैसा चाहे वैसा नहीं कर पाते? क्या तुम लोग इसलिए दमनात्मक भावनाओं में फँस जाते हो कि तुम जैसा चाहे वैसा नहीं कर पाते? (नहीं।) क्या तुम लोग अपने दैनिक कार्य में व्यस्त रहते हो? (कुछ हद तक व्यस्त रहते हैं।) तुम सभी काफी व्यस्त रहते हो, सुबह से शाम तक काम करते रहते हो। सोने और खाने के अलावा तुम अपना लगभग पूरा दिन कंप्यूटर के सामने बिताते हो, अपनी आँखें और मस्तिष्क थका देते हो, अपना शरीर थका देते हो, लेकिन क्या तुम दमित महसूस करते हो? क्या यह थकान तुम में दमन लाएगी? (नहीं।) लोगों के दमन का कारण क्या होता है? यह निश्चित रूप से शारीरिक थकान के कारण नहीं होता, तो इसका कारण क्या होता है? अगर लोग लगातार भौतिक सुख और खुशी की तलाश करते हैं, अगर वे लगातार भौतिक सुख और आराम के पीछे भागते हैं, और कष्ट नहीं उठाना चाहते, तो थोड़ा-सा भी शारीरिक कष्ट, दूसरों की तुलना में थोड़ा ज्यादा कष्ट सहना या सामान्य से थोड़ा ज्यादा काम का बोझ महसूस करना उन्हें दमित महसूस कराएगा। यह दमन के कारणों में से एक है। अगर लोग थोड़े-से शारीरिक कष्ट को बड़ी बात नहीं मानते और वे भौतिक आराम के पीछे नहीं भागते, बल्कि सत्य का अनुसरण करते हैं और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य निभाने की कोशिश करते हैं, तो उन्हें अक्सर शारीरिक कष्ट महसूस नहीं होगा। यहाँ तक कि अगर वे कभी-कभी थोड़ा व्यस्त, थका हुआ या क्लांत महसूस करते भी हों, तो भी सोने के बाद वे बेहतर महसूस करते हुए उठेंगे और फिर अपना काम जारी रखेंगे। उनका ध्यान अपने कर्तव्यों और अपने काम पर होगा; वे थोड़ी-सी शारीरिक थकान को कोई महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं मानेंगे। हालाँकि जब लोगों की सोच में कोई समस्या उत्पन्न होती है और वे लगातार शारीरिक सुख की तलाश में रहते हैं, किसी भी समय जब उनके भौतिक शरीर के साथ थोड़ी सी गड़बड़ होती है या उसे संतुष्टि नहीं मिल पाती, तो उनके भीतर कुछ नकारात्मक भावनाएँ पैदा हो जाती हैं। तो इस तरह का व्यक्ति जो हमेशा जैसा चाहे वैसा करना चाहता है और दैहिक सुख भोगना और जीवन का आनंद लेना चाहता है, जब भी असंतुष्ट होता है तो अक्सर खुद को दमन की इस नकारात्मक भावना में फँसा हुआ क्यों पाता है? (इसलिए कि वह आराम और शारीरिक आनंद के पीछे भागता है।) यह कुछ लोगों के मामले में सच है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (5))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मुझे एहसास हुआ कि शारीरिक आराम पाने की मेरी चाहत पूरी न होने के कारण, मैं दमन और हताशा की नकारात्मक भावनाओं में जी रही थी और अपने कर्तव्य में हमेशा परेशान और चिड़चिड़ी रहती थी। पहले, जब एक ही काम वाला कर्तव्य करती थी, तो काम का बोझ बहुत ज़्यादा नहीं था, और मैं उसमें माहिर भी थी, इसलिए मैं उसे बड़ी सहजता से कर लेती थी। मेरा शरीर थकता नहीं था, और न ही दिल पर कोई बोझ होता था। अब, एक अगुआ के तौर पर, मुझे बहुत सारे काम की निगरानी करनी पड़ती थी और चिंता करने के लिए भी ज़्यादा बातें थीं और विचार करने और हल करने के लिए ज़्यादा समस्याएँ थीं। कई काम ऐसे थे जिनसे मैं परिचित नहीं थी, और मुझे यह भी नहीं पता था कि इन समस्याओं को कैसे हल किया जाए, इसलिए मुझे सब कुछ शुरू से सीखना पड़ा। इससे मैं दबी हुई और चिड़चिड़ी महसूस करने लगी, और इस स्थिति से भाग जाना चाहती थी। असल में, अगर मैं शारीरिक आराम और सुख-सुविधा के पीछे भागने के बजाय अपने कर्तव्य को प्राथमिकता देती, तो थक जाने पर भी, मुझे वह असहनीय नहीं लगता। मुझे एहसास हुआ कि मेरी सोच ही भटक गई थी।

बाद में, मैंने परमेश्वर के उन वचनों को खोजकर पढ़ा जो यह उजागर करते हैं कि लोग दबे हुए क्यों महसूस करते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ लोग अपने कर्तव्य करने और सत्य के बारे में संगति करने के लिए तैयार ही नहीं होते। उन्होंने कलीसियाई जीवन के साथ सामंजस्य नहीं बैठाया है, वे इससे सामंजस्य बैठाने में असमर्थ हैं और हमेशा खास तौर से दुखी और असहाय महसूस करते रहते हैं। खैर मैं उन लोगों से कहूँगा : तुम्हें जल्दी से चले जाना चाहिए। अपने लक्ष्य और दिशा तलाशने के लिए धर्मनिरपेक्ष दुनिया में जाओ और वह जीवन जिओ, जो तुम्हें जीना चाहिए। परमेश्वर का घर कभी किसी पर दबाव नहीं डालता। ... इस तरह के लोग हमेशा दमित महसूस करते हैं। स्पष्ट रूप से कहें तो उनकी इच्छा दैहिक सुख भोगने और अपनी इच्छाएँ पूरी करने की होती है। वे बहुत स्वार्थी हैं, वे सब-कुछ अपनी सनकों के अनुसार और जैसा चाहे वैसा करना चाहते हैं, नियमों की अवहेलना करते हैं और मामले सिद्धांतों के अनुसार नहीं सँभालते, बस अपनी भावनाओं, प्राथमिकताओं और इच्छाओं के आधार पर चीजें और अपने हितों के अनुसार कार्य करते हैं। उनमें सामान्य मानवता का अभाव होता है और ऐसे लोग अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देते। जो लोग अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देते, वे जो कुछ भी करते हैं, जहाँ भी जाते हैं, उसमें दमित महसूस करते हैं। यहाँ तक कि अगर वे अकेले भी रह रहे होते, तो भी वे दमित महसूस करते। अच्छे शब्दों में कहें तो ये लोग होनहार व्यक्ति नहीं होते और अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देते। ज्यादा सटीक रूप से कहें तो उनकी मानवता असामान्य होती है और वे थोड़े सीधे-सादे होते हैं। अपना उचित कार्य करने वाले लोग कैसे होते हैं? वे भोजन, कपड़े, मकान और परिवहन जैसी अपनी बुनियादी जरूरतों को सरल तरीके से लेने वाले लोग होते हैं। अगर ये चीजें सामान्य मानक तक होती हैं, तो उनके लिए यही पर्याप्त होता है। वे जीवन में अपने मार्ग, मनुष्यों के रूप में अपने मिशन, अपने जीवन-दृष्टिकोण और मूल्यों के बारे में ज्यादा परवाह करते हैं। मंदबुद्धि लोग पूरे दिन किस बारे में सोचा करते हैं? वे उचित मामलों पर विचार न करके हमेशा इस बारे में सोचा करते हैं कि कैसे काम में ढिलाई बरतें, कैसे चालें चलें ताकि जिम्मेदारी से बच सकें, कैसे अच्छा खाएँ और मौज-मस्ती करें, कैसे शारीरिक आराम और सुख से रहें। इसलिए वे परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य करने की व्यवस्था और परिवेश में दमित महसूस करते हैं। परमेश्वर के घर में लोगों से अपने कर्तव्यों से संबंधित कुछ सामान्य और व्यावसायिक ज्ञान सीखने की अपेक्षा की जाती है, ताकि वे उन्हें बेहतर ढंग से निभा सकें। परमेश्वर के घर में लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वे बार-बार परमेश्वर के वचनों को खाएँ-पिएँ ताकि वे सत्य की बेहतर समझ प्राप्त कर सकें, सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकें और जान सकें कि प्रत्येक कार्य के लिए सिद्धांत क्या हैं। ये सभी चीजें जिनके बारे में परमेश्वर का घर संगति करता है और जिनका उल्लेख करता है, उन विषयों, व्यावहारिक मामलों आदि से संबंधित होते हैं, जो लोगों के जीवन और उनके द्वारा अपने कर्तव्य निभाने के दायरे में आती हैं, और वे लोगों को अपना उचित कार्य करने और सही मार्ग पर चलने में मदद करने के लिए होती हैं। ये व्यक्ति जो अपने उचित कार्य पर ध्यान नहीं देते और मनमर्जी करते हैं, ये उचित चीजें नहीं करना चाहते। जो कुछ भी वे चाहते हैं, उसे करके वे जो अंतिम लक्ष्य प्राप्त करना चाहते हैं, वह है शारीरिक सुख, आनंद और आराम, और किसी भी तरह से प्रतिबंधित या अपकृत न होना। वे जो चाहते हैं यह उसे पर्याप्त रूप से खा पाने और जैसा चाहे वैसा कर पाने के लिए होता है। यह उनकी मानवता की गुणवत्ता और उनके आंतरिक लक्ष्यों के कारण होता है कि वे अक्सर दमित महसूस करते हैं। चाहे तुम उनके साथ सत्य के बारे में कैसे भी संगति कर लो, वे नहीं बदलेंगे और उनके दमन का समाधान नहीं होगा। वे बस इसी तरह के लोग होते हैं; वे बस ऐसी चीजें हैं जो अपना उचित कार्य नहीं करतीं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (5))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, आखिरकार मुझे एहसास हुआ कि जो लोग हमेशा आराम में लिप्त रहते हैं और अपनी शारीरिक इच्छाओं को संतुष्ट करते हैं, वे अपने उचित काम पर ध्यान नहीं देते और उनसे कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। ऐसे लोग बस अपनी इच्छाओं के अनुसार जीना चाहते हैं, लेकिन जब उचित काम करने की बात आती है, तो वे धूर्तता करते और चालाकी दिखाते हैं, और जब उन्हें चिंता करनी और देह से कष्ट उठाना पड़ता है तो वे दबे हुए और दुखी महसूस करते हैं। इन लोगों में अंतरात्मा और विवेक की कमी होती है। मैंने अपनी हाल की दशा को इसकी रोशनी में देखा। जब मैंने देखा कि हर दिन, मुझे विभिन्न कार्यों में मुद्दों और कठिनाइयों के बारे में सोचना और उन्हें हल करना पड़ता है और इसके लिए काफी दिमागी मेहनत की जरूरत होती है, तो मैं एक आसान और सरल कर्तव्य की कामना करने लगी ताकि मेरा शरीर अधिक आरामदायक हो सके। जब मैंने अपनी सहयोगी बहनों को काम पर चर्चा करते सुना, तो मैंने जानबूझकर भजन सुनने के लिए हेडफोन लगा लिए और चर्चा में शामिल नहीं हुई। जब मेरी बहनें काम के मुद्दों पर चर्चा करने के लिए मेरे पास आतीं, तो मैं उन्हें नज़रअंदाज़ करती थी और जब भी हो सकता था, उनसे बचती थी और अगर मैं सचमुच इससे बच नहीं पाती, तो मैं बस संक्षिप्त और बेमन से जवाब देती, जिससे कार्यों के कार्यान्वयन में गलतियाँ होतीं, और उन्हें दोबारा करना पड़ता था। ये मेरी देह में लिप्त रहने के परिणाम थे। मैंने उन लोगों के बारे में सोचा जो अपने उचित काम पर ध्यान देते हैं। जब कर्तव्य के कारण उन्हें चिंता करनी या बोझ उठाना पड़ता है, ज्ञान और पेशेवर कौशल सीखना और इनसे खुद को लैस करना पड़ता है, तो वे खुशी-खुशी अपना समय और ऊर्जा लगाते हैं, और वे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्यों को पूरा करने की कोशिश करते हैं। वहीं मैं लगातार आराम और सुख-सुविधा के पीछे भागती रही और जब कर्तव्यों के लिए मुझे चिंता करने या बोझ उठाने की जरूरत होती, तो मैं प्रतिरोधी महसूस करती और उनसे बचती थी। परमेश्वर ने मुझे एक अगुआ बनने का अवसर देकर मुझ पर अनुग्रह किया था और यह मेरे जीवन के विकास के लिए फायदेमंद था, क्योंकि एक अगुआ होने के लिए एक व्यक्ति को विभिन्न कार्यों में शामिल होना पड़ता है और खुद को सभी प्रकार के सिद्धांतों से लैस करना पड़ता है और कठिनाइयों का सामना करते समय, उन्हें सत्य सिद्धांतों को खोजना, अधिक प्रार्थना करना और परमेश्वर पर अधिक भरोसा करना पड़ता है। साथ ही, इसमें प्रासंगिक पेशेवर कौशल और ज्ञान सीखना, और अपनी समझ और अनुभव को व्यापक बनाना शामिल है, जिससे वे विभिन्न पहलुओं में प्रशिक्षण प्राप्त कर सकते हैं और अधिक तेजी से विकसित हो सकते हैं। यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर के घर में विकसित हो सकता है और कोई काम सँभाल सकता है, तो वह एक उपयोगी व्यक्ति है। लेकिन मैं शारीरिक सुख-सुविधाओं में लिप्त रही, शारीरिक रूप से आराम से रहना चाहती थी, और किसी भी चीज़ में कोई प्रयास या विचार करने को तैयार नहीं थी। क्या मैं पूरी तरह से निकम्मी नहीं थी? कोई आश्चर्य नहीं कि परमेश्वर कहता है कि ऐसे लोग “भविष्यहीन,” “अपनी मानवता में असामान्य,” और “अक्ल के कच्चे” होते हैं। यह महसूस करते हुए, मैंने देखा कि मैं कितने दयनीय तरीके से जी रही थी, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और एक संकल्प लिया, “हे परमेश्वर, मैं अपनी देह के खिलाफ विद्रोह करने और अपने उचित कर्तव्यों पर ध्यान केंद्रित करने को तैयार हूँ। अपने कर्तव्यों में, मैं अपनी विभिन्न कमियों को पूरा करने के लिए सत्य सिद्धांतों को खोजूँगी और पेशेवर कौशल और ज्ञान सीखूँगी और मैं आपके घर में एक उपयोगी व्यक्ति बनने का प्रयास करती हूँ!” बाद में, मेरी मानसिकता कुछ हद तक बदल गई। अपने कर्तव्यों को करने में मेरी दशा में भी काफी सुधार हुआ, और मैं अब पहले की तरह दबी हुई या चिड़चिड़ी महसूस नहीं करती थी। हालाँकि मुझे हर दिन बहुत काम करना पड़ता था, लेकिन मैंने अपनी पूरी कोशिश की और जब मेरे सामने कुछ ऐसा आया जो मुझे नहीं पता था कि कैसे करना है, तो मैंने खुद को प्रासंगिक सत्य सिद्धांतों और पेशेवर कौशल और ज्ञान से लैस किया। जब मैंने काम में समस्याएँ देखीं, तो मैंने उन्हें उठाया और अपनी सहयोगी बहनों के साथ समाधान पर चर्चा की।

मैंने सोचा कि मेरी दबी हुई भावनाएँ हल हो गई हैं। सब ठीक लग रहा था कि तभी एक दिन, एक महीने बाद, ऊपरी अगुआओं ने एक पत्र भेजा। उसमें लिखा था कि हमारे क्षेत्र की एक बहन पुलिस के निशाने पर थी। पुलिस ने गिरफ्तारी के लिए खास तौर पर इसी व्यक्ति का नाम लिया था, और हमें जल्दी से बहन को सूचित करना था, उसे छिपने के लिए कहना था। फिर हमें एक और पत्र मिला। उसमें लिखा था कि आस-पास की कलीसियाओं को सीसीपी द्वारा समन्वित गिरफ्तारियों का सामना करना पड़ा है। इसमें उस क्षेत्र के कई भाई-बहन शामिल थे जिनकी मैं निगरानी कर रही थी। इन दो खबरों को सुनकर, मुझे ऐसा लगा जैसे अचानक काले बादल सिर पर मँडरा रहे हों, और एक बार फिर, मैं दबी हुई और दुख की स्थिति में डूब गई। इन गिरफ्तारियों ने कलीसिया के विभिन्न कार्यों में काफी बाधाएँ पैदा कीं, और कई लोगों को सुरक्षा जोखिमों का सामना करना पड़ा और वे सामान्य रूप से अपने कर्तव्य नहीं कर सके। मैं जानती थी कि कलीसिया के काम को अच्छी तरह से करने के लिए, मुझे और भी अधिक सोचने और प्रयास करने की आवश्यकता होगी। जब मैंने इन कठिनाइयों के बारे में सोचा, तो मुझे बहुत अधिक दबाव महसूस हुआ और खासकर जब मैंने काम में समस्याओं की अंतहीन धारा देखी जो कभी पूरी तरह से हल नहीं हो सकती थी, तो मैं पस्त हो गई और कुछ भी करने की प्रेरणा नहीं बची, लेकिन मेरे पास असहाय होकर अपने काम में लगे रहने के अलावा कोई और चारा नहीं था। एक बार, एक सहयोगी बहन ने मुझे याद दिलाया कि एक पत्र था जिसका मैंने जवाब नहीं दिया था और मैं उस पर बरस पड़ी, “मुझे जवाब देने का समय नहीं मिला!” यह कहने के बाद, मुझे एहसास हुआ कि मैं अपनी निराशा अपने कर्तव्य पर निकाल रही थी, और यह पूरी तरह से विवेकहीन था। मैंने अनिच्छा से पत्र निकाला और उसका जवाब दिया। उसके बाद, कुछ और मौके आए जब मैं सारे काम के ढेर के कारण चिड़चिड़ी हो गई और अपनी बहनों से कठोरता से बात की। अपने आत्म-चिंतन में, मुझे एहसास हुआ कि मैं एक बार फिर अपनी देह की चिंताओं और परेशानियों के कारण दमन की नकारात्मक भावनाओं में जी रही थी।

मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “बहुत सालों से जिन विचारों पर लोगों ने अपने अस्तित्व के लिए भरोसा रखा था, वे उनके हृदय को इस स्थिति तक दूषित कर रहे हैं कि वे विश्वासघाती, डरपोक और नीच हो गए हैं। उनमें न केवल इच्छा-शक्ति और संकल्प का अभाव है, बल्कि वे लालची, अभिमानी और स्वेच्छाचारी भी बन गए हैं। उनमें खुद से ऊपर उठने के संकल्प का सर्वथा अभाव है, यही नहीं, उनमें इन अंधेरे प्रभावों की बाध्यताओं से पीछा छुड़ाने की लेशमात्र भी हिम्मत नहीं है। लोगों के विचार और जीवन इतने सड़े हुए हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करने के बारे में उनके दृष्टिकोण अभी भी बेहद वीभत्स हैं। यहाँ तक कि जब लोग परमेश्वर में विश्वास के बारे में अपना दृष्टिकोण बताते हैं तो इसे सुनना मात्र ही असहनीय होता है। सभी लोग कायर, अक्षम, नीच और दुर्बल हैं। उन्हें अंधेरे की शक्तियों के प्रति क्रोध नहीं आता, उनके अंदर प्रकाश और सत्य के लिए प्रेम पैदा नहीं होता; बल्कि, वे उन्हें बाहर निकालने का पूरा प्रयास करते हैं(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विषमता होने के अनिच्छुक क्यों हो?)। “क्या तुम शैतान के प्रभाव में जी कर, और शांति, आनंद और थोड़े-बहुत दैहिक सुख के साथ जीवन बिताकर संतुष्ट हो? क्या तुम सभी लोगों में सबसे अधिक निम्न नहीं हो? उनसे ज्यादा मूर्ख और कोई नहीं है जिन्होंने उद्धार को देखा तो है लेकिन उसे प्राप्त करने का प्रयास नहीं करते; वे ऐसे लोग हैं जो देह-सुख में लिप्त होकर शैतान का आनंद लेते हैं। तुम्हें लगता है कि परमेश्वर में अपनी आस्था के लिए तुम्‍हें चुनौतियों और क्लेशों या कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ेगा। तुम हमेशा निरर्थक चीजों के पीछे भागते हो, और तुम जीवन के विकास को कोई अहमियत नहीं देते, बल्कि तुम अपने फिजूल के विचारों को सत्य से ज्यादा महत्व देते हो। तुम कितने निकम्‍मे हो! तुम सूअर की तरह जीते हो—तुममें और सूअर और कुत्ते में क्या अंतर है? जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, बल्कि शरीर से प्यार करते हैं, क्या वे सब पूरे जानवर नहीं हैं? क्या वे मरे हुए लोग जिनमें आत्मा नहीं है, चलती-फिरती लाशें नहीं हैं? ... मैं तुम्‍हें एक सच्चा मानवीय जीवन देता हूँ, फिर भी तुम अनुसरण नहीं करते। क्या तुम कुत्ते और सूअर से भिन्न नहीं हो? सूअर मनुष्य के जीवन की कामना नहीं करते, वे शुद्ध होने का प्रयास नहीं करते, और वे नहीं समझते कि जीवन क्या है। प्रतिदिन, उनका काम बस पेट भर खाना और सोना है। मैंने तुम्‍हें सच्चा मार्ग दिया है, फिर भी तुमने उसे प्राप्त नहीं किया है : तुम्‍हारे हाथ खाली हैं। क्या तुम इस जीवन में एक सूअर का जीवन जीते रहना चाहते हो? ऐसे लोगों के जिंदा रहने का क्या अर्थ है? तुम्‍हारा जीवन घृणित और ग्लानिपूर्ण है, तुम गंदगी और व्यभिचार में जीते हो और किसी लक्ष्य को पाने का प्रयास नहीं करते हो; क्या तुम्‍हारा जीवन अत्यंत निकृष्ट नहीं है? क्या तुम परमेश्वर का सामना करने का साहस कर सकते हो? यदि तुम इसी तरह अनुभव करते रहे, तो क्या केवल शून्य ही तुम्हारे हाथ नहीं लगेगा? तुम्हें एक सच्चा मार्ग दे दिया गया है, किंतु अंततः तुम उसे प्राप्त कर पाओगे या नहीं, यह तुम्हारी व्यक्तिगत खोज पर निर्भर करता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मैंने इस पर विचार किया कि मैं शारीरिक आराम और सुख-सुविधा पर इतना ध्यान क्यों देती हूँ, और मैंने देखा कि ऐसा इसलिए था क्योंकि मैं शैतान के जीवित रहने के नियमों, जैसे “जब तक जियो मौज करो करो,” और “आज मौज करो, कल की फिक्र कल करना” से प्रभावित और विषाक्त हो गई थी। मैंने इन विचारों को ज्ञान की बातें मान लिया था। साथ ही मेरी आलसी प्रकृति के कारण, मैं बचपन से ही कठिनाई और मेहनत से डरती थी। मैंने आराम और सुख-सुविधा के जीवन को अपना लक्ष्य बना लिया था, और मैं इस तरह से काम करने या जीने को तैयार नहीं थी जिससे मैं बहुत ज़्यादा थक जाऊँ। मैंने खुद पर बहुत ज़्यादा दबाव डालने से परहेज किया, जब तक मैं चिंता मुक्त रह सकती थी, तब तक संतुष्ट महसूस करती थी, और अपना पेट भरना, पीना और सोना ही मेरा दैनिक ध्यान बन गया था। यह रवैया मेरे कर्तव्यों में भी आ गया था। इस बार, सीसीपी द्वारा गिरफ्तारियों के कारण कलीसिया के विभिन्न कार्यों में बाधा आने और अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए मुझे अधिक समय और प्रयास लगाने की जरूरत होने पर, मैं कठिनाई में शिकायत किए और चिल्लाए बिना नहीं रह सकी। मैं उन दिनों को याद करने लगी जब मैं केवल एक ही काम वाला कर्तव्य सँभालती थी, और मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर में मेरी आस्था का आधार कम देकर बड़ी आशीषें पाने की इच्छा थी। जब मेरे कर्तव्य में बहुत सारे मुद्दे और कठिनाइयाँ थीं जिनके लिए मुझे यह सोचना पड़ता था कि कैसे संगति करूँ और उन्हें हल करूँ, और मुझे शारीरिक चिंता और कठिनाई सहनी पड़ती थी, तो मैं प्रतिरोधी महसूस करती और क्रोधित हो जाती, यहाँ तक कि अपनी निराशा अपनी सहयोगी बहनों पर भी निकाल देती थी। मुझमें सचमुच मानवता की कमी थी! एक सृजित प्राणी के रूप में, मेरा कर्तव्य करना मेरे लिए पूरी तरह से सही और उचित है, और यह अपने लिए अच्छे कर्म तैयार करने का एक तरीका भी है। अपना कर्तव्य करके और सत्य का अनुसरण करके, मैं अपने भ्रष्ट स्वभावों को त्याग सकती हूँ, और उद्धार पा सकती हूँ। फिर भी मुझे लगा कि एक अगुआ होना मेरे शारीरिक आराम में बाधा डालता है, इसलिए मैं अड़ियल हो गई और विरोध करने लगी। मुझमें सचमुच विवेक की कमी थी! मैं लगातार अपनी देह को संतुष्ट करने की कोशिश करती थी, बार-बार अपने कर्तव्य के प्रति प्रतिरोधी महसूस करती थी, अपने कर्तव्य को बेमन से सँभालती, कलीसिया के काम में गड़बड़ी और बाधा डालती, और बार-बार पाप करती थी।

बाद में, मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “हर वयस्क को एक वयस्क की जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, चाहे उन्हें कितने भी दबाव का सामना करना पड़े, जैसे मुसीबतें, बीमारियाँ, यहाँ तक कि विभिन्न कठिनाइयाँ भी—ये वे चीजें हैं जो सभी को अनुभव करनी और सहनी चाहिए। ये एक सामान्य व्यक्ति के जीवन का हिस्सा होती हैं। अगर तुम दबाव नहीं झेल सकते या पीड़ा नहीं सह सकते, तो इसका मतलब है कि तुम बहुत नाजुक और बेकार हो। जो जीवित है, उसे यह कष्ट अवश्य सहना होगा, और कोई भी इसे टाल नहीं सकता। चाहे समाज में हो या परमेश्वर के घर में, यह सभी के लिए समान होती है। यही वह जिम्मेदारी है जिसे तुम्हें उठाना चाहिए, एक भारी बोझ जिसे एक वयस्क को उठाना चाहिए, वह चीज जो उसे उठानी चाहिए, और तुम्हें इससे बचना नहीं चाहिए। ... एक लिहाज से तुम्हें वे जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभाना सीखना चाहिए, जो वयस्कों को लेने और उठाने चाहिए। दूसरे लिहाज से तुम्हें अपने रहने और काम करने के परिवेश में दूसरों के साथ सामान्य मानवता के साथ सामंजस्यपूर्वक रहना सीखना चाहिए। बस जैसा चाहे वैसा मत करो। सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व का क्या उद्देश्य होता है? यह काम बेहतर ढंग से पूरा करने और वे दायित्व और जिम्मेदारियाँ बेहतर ढंग से निभाने के लिए है, जिन्हें एक वयस्क के रूप में तुम्हें पूरा करना और निभाना चाहिए, ताकि तुम्हारे काम में आने वाली समस्याओं के कारण होने वाला नुकसान कम किया जा सके, और तुम्हारे कार्य के परिणाम और दक्षता बढ़ाई जा सके। यही वह चीज है जो तुम्हें हासिल करनी चाहिए। अगर तुम में सामान्य मानवता है, तो तुम्हें लोगों के बीच काम करते समय इसे हासिल करना चाहिए। जहाँ तक काम के दबाव की बात है, चाहे यह ऊपर वाले से आता हो या परमेश्वर के घर से, या अगर यह दबाव तुम्हारे भाई-बहनों द्वारा तुम पर डाला गया हो, यह ऐसी चीज है जिसे तुम्हें सहन करना चाहिए। तुम यह नहीं कह सकते, ‘यह बहुत ज्यादा दबाव है, इसलिए मैं इसे नहीं करूँगा। मैं बस अपना कर्तव्य करने और परमेश्वर के घर में काम करने में फुरसत, सहजता, खुशी और आराम तलाश रहा हूँ।’ यह नहीं चलेगा; यह ऐसा विचार नहीं है जो किसी सामान्य वयस्क में होना चाहिए, और परमेश्वर का घर तुम्हारे आराम करने की जगह नहीं है। हर व्यक्ति अपने जीवन और कार्य में एक निश्चित मात्रा में दबाव और जोखिम उठाता है। किसी भी काम में, खास तौर से परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम्हें इष्टतम परिणामों के लिए प्रयास करना चाहिए। बड़े स्तर पर यह परमेश्वर की शिक्षा और माँग है। छोटे स्तर पर यह वह रवैया, दृष्टिकोण, मानक और सिद्धांत है, जो हर व्यक्ति को अपने आचरण और कार्यकलापों में अपनाना चाहिए(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (5))। परमेश्वर कहता है कि एक वयस्क के रूप में, व्यक्ति को एक वयस्क की जिम्मेदारियों और दायित्वों को सँभालना चाहिए, और कठिनाइयाँ चाहे जीवन में हों और कर्तव्य में एक वयस्क को दबाव का सामना और उसे वहन करना चाहिए, न कि उसे टालना या उससे बचना चाहिए। परमेश्वर के घर में, जो लोग ईमानदारी से अपना कर्तव्य करते हैं, जब उन्हें काम के दबाव या कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, जिसके लिए उनकी देह को कष्ट सहना पड़ता है, तो उनके पास परमेश्वर को संतुष्ट करने वाला दिल होता है। वे परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं, सत्य खोज सकते हैं, और अपनी देह के खिलाफ विद्रोह कर सकते हैं; वे अपने कर्तव्य में ईमानदार और व्यावहारिक होते हैं, और वे सर्वोत्तम नतीजे पाने का प्रयास करते हैं। ऐसे लोगों में जिम्मेदारी की भावना होती है और वे परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होते हैं। लेकिन मैं आलसी, महत्वाकांक्षाहीन और पतित विचारों के साथ जी रही थी। मैं कोई भी कठिनाई सहन नहीं कर पाती थी, और मैं कुछ भी हासिल न कर पाने की राह पर थी। साफ कहूँ तो, मैं निकम्मी थी और इंसान कहलाने के लायक भी नहीं थी। असल में, शारीरिक कष्ट सहना और कुछ दबाव झेलना एक अच्छी बात है, क्योंकि यह मुझे सत्य पर विचार करने में और अधिक मेहनत करने के लिए प्रेरित कर सकता है, जो मेरे जीवन के विकास के लिए फायदेमंद है। हालाँकि मुझमें कई कमियाँ हैं और मैं अभी भी कुछ जटिल मुद्दों को हल नहीं कर पाती, लेकिन मुझे इन चीजों से बचना नहीं चाहिए, बल्कि एक जिम्मेदार व्यक्ति बनना चाहिए, अधिक प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर पर अधिक भरोसा करना चाहिए, मुद्दों को हल करने के लिए अपनी सहयोगी बहनों के साथ मिलकर सत्य खोजना चाहिए, और वह सब कुछ करना चाहिए जो मैं कर सकती हूँ। वयस्कों के लिए परमेश्वर की अपेक्षाओं और उम्मीदों को समझने के बाद, मेरी मानसिकता कुछ हद तक बदल गई, और मैं एक जिम्मेदार वयस्क बनना चाहती थी। बाद में, जब ऊपरी अगुआओं ने विभिन्न कार्यों का जायजा लेने के लिए पत्र भेजे, तो मुझे अब प्रतिरोध या चिड़चिड़ाहट महसूस नहीं हुई, और मैं यह पहचान सकी कि ये चीजें मेरी जिम्मेदारी हैं, और मैं अपने प्राथमिक कार्य को पूरा करने के लिए अपनी पूरी कोशिश करने को तैयार हो गई।

कुछ समय बाद, काम और व्यस्त हो गया, और जब ऊपरी अगुआओं ने काम का बारीकी से जायजा लिया, तब भी मुझे दबाव महसूस हुआ, लेकिन मुझे यह भी एहसास हुआ कि अगुआओं का पर्यवेक्षण मेरे कर्तव्य को अच्छी तरह से करने में मेरी मदद के लिए था, और यह पर्यवेक्षण मुझे अपने कर्तव्य में और अधिक प्रयास करने के लिए चेतावनी दे सकता और याद दिला सकता था, मुझे शारीरिक आराम में लिप्त होने और अपने कर्तव्य में ढिलाई बरतने से रोक सकता था, और मुझे कर्तव्य में अपनी दक्षता में सुधार करने के लिए प्रेरित कर सकता था। मैंने उन कार्यों में भी भाग लिया जिनकी निगरानी मेरी सहयोगी बहनें कर रही थीं, और हमने एक साथ संगति की और समाधान खोजे। कभी-कभी जब मैं समस्याओं का ढेर देखती, जिन्हें हल करने के लिए विस्तृत संगति की जरूरत होती, तो भी मैं दमन और चिड़चिड़ाहट की भावनाएँ प्रकट करती, लेकिन मैं तुरंत अपनी गलत दशा के खिलाफ विद्रोह कर पा रही थी, खुद को यह कहकर चेतावनी देती : “मैं एक वयस्क हूँ, और मुझमें एक वयस्क की जिम्मेदारी और दृढ़ता की भावना होनी चाहिए, मुझे दबाव सहना चाहिए, और आगे बढ़ना चाहिए।” मैंने परमेश्वर से भी प्रार्थना की, उससे मेरे दिल को मेरे कर्तव्य और उचित काम करने पर केंद्रित रखने के लिए कहा। फिर, सिद्धांतों के अनुसार, मैं समस्याओं की प्राथमिकता तय करती और एक-एक करके हल करती। जिन मुद्दों का मैंने पहले सामना नहीं किया था, उनके लिए मैं प्रासंगिक पेशेवर सामग्री का अध्ययन करती, खुद को सत्य सिद्धांतों से लैस करती, और इस पर विचार करते हुए कि समस्याओं की वास्तविक जड़ें कहाँ थीं, प्रार्थना करती। इस तरह, समस्याएँ धीरे-धीरे हल हो गईं। जब मैंने देखा कि मेरे भाई-बहनों की दशाएँ ठीक नहीं थीं और उनके कर्तव्यों पर असर पड़ रहा था, तो मैं तुरंत उनके साथ समाधान के लिए संगति करने को परमेश्वर के वचन खोजती। हालाँकि इसके लिए थोड़े और प्रयास और कष्ट की जरूरत थी, लेकिन मुझे बहुत संतुष्टि महसूस हुई। क्योंकि मैं अक्सर भाई-बहनों के साथ काम की विभिन्न समस्याओं के बारे में बातचीत करती थी, और संबंधित सत्यों और सिद्धांतों पर विचार करती थी, मेरी दशा में सुधार होता रहा, और मैं आध्यात्मिक रूप से अधिक बोधगम्य हो गई। मैंने समस्याओं को पहले से अधिक सटीकता से भी देखा, और धीरे-धीरे, मैंने कुछ सिद्धांतों और मार्गों को समझ लिया। मैंने परमेश्वर के कथन के सत्य का प्रत्यक्ष अनुभव किया : “अगर तुम दृढ़ संकल्प वाले व्यक्ति हो, अगर तुम उन जिम्मेदारियों और दायित्वों को उठा सकते हो जो लोगों को वहन करने चाहिए, वे चीजें जो सामान्य मानवता वाले लोगों को हासिल करनी चाहिए, और वे चीजें जो वयस्कों को अपने अनुसरण के उद्देश्यों और लक्ष्यों के रूप में हासिल करनी चाहिए, और अगर तुम अपनी जिम्मेदारियाँ उठा सकते हो, तो तुम चाहे जो भी कीमत चुकाओ और चाहे जितना भी दर्द सहो, तुम शिकायत नहीं करोगे, और जब तक तुम इसे परमेश्वर की अपेक्षाओं और इरादों के रूप में पहचानते हो, तुम किसी भी पीड़ा को सहन करने में सक्षम होगे और अपना कर्तव्य अच्छे से निभा पाओगे। उस समय तुम्हारी मानसिक स्थिति कैसी होगी? वह अलग होगी; तुम अपने दिल में शांति और स्थिरता महसूस करोगे और आनंद अनुभव करोगे। देखो, सिर्फ सामान्य मानवता को जीने की कोशिश करने और उन जिम्मेदारियों, दायित्वों और मिशन का अनुसरण करने से, जिन्हें सामान्य मानवता वाले लोगों को वहन करना और हाथ में लेना चाहिए, लोग अपने दिलों में शांति और खुशी महसूस करते हैं और आनंद अनुभव करते हैं। वे उस बिंदु तक भी नहीं पहुँचे, जहाँ वे सिद्धांतों के अनुसार मामलों का संचालन कर सत्य प्राप्त कर रहे हों, और उनमें पहले से ही कुछ बदलाव आ चुका हो(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (5))। जब मैंने अपने कर्तव्य की समस्याओं को हल करने में अपना दिल लगाया, अपनी कमी को लक्षित करते हुए सीखा, और अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने की पूरी कोशिश की, तो मेरे दिल को अब कष्ट महसूस नहीं हुआ, बल्कि और भी सुकून मिला। अब मुझमें दमन की भावनाओं का आना कम होता जा रहा है, और कभी-कभी जब वे उभर भी आती हैं, तो अब मुझ पर उनका कोई असर नहीं होता। बिना एहसास हुए ही, मैंने उचित बातों पर ध्यान देना शुरू कर दिया, और मेरे अंदर अपने कर्तव्यों के प्रति जिम्मेदारी का एहसास आ गया है। मुझमें ये सारे बदलाव परमेश्वर के वचनों के ही नतीजे हैं। परमेश्वर का धन्यवाद!

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