4. छोड़ना कैसे सीखें और अपने बच्चों को स्वतंत्र बनना कैसे सिखाएँ
मैंने अपना बचपन माँ के पास बिताया और उसी के साथ रहकर बड़ी हुई, मैंने देखा कि वह मेरे और मेरे भाई-बहनों की नौकरी, शादी और जीवन की खातिर कितनी कड़ी मेहनत करती थी। अब भले ही हम सबकी शादी हो चुकी है और हमारे बच्चे हैं, वह आज भी हमारे बच्चों की देखभाल में बहुत समय और ऊर्जा लगाती है। मेरी सास भी वैसी ही है, उसने अपने बच्चों को ही नहीं, बल्कि अपने हर पोते-पोती को भी पालने में मदद की और उसे परिवार का सम्मान और आसपास के लोगों से सराहना मिली। मुझे लगा यह एक माँ की जिम्मेदारी है और मुझे भी ऐसा ही करना चाहिए। धीरे-धीरे एक अच्छी पत्नी और प्रेममयी माँ बनना मेरा लक्ष्य बन गया।
2005 में मैंने परमेश्वर का अंत के दिनों का सुसमाचार स्वीकारा। परमेश्वर के वचनों से मुझे पता चला कि परमेश्वर देहधारी हुआ है, वह लोगों का न्याय करने और उन्हें शुद्ध करने के लिए सत्य व्यक्त कर रहा है, ताकि लोग पाप की जड़ को जान सकें, भ्रष्ट स्वभाव को उतार फेंकें और परमेश्वर का उद्धार हासिल कर सकें। मैं बहुत उत्साहित थी। मैंने देखा कि बहुत से लोगों ने अभी तक परमेश्वर की वाणी नहीं सुनी है और वे उसके सामने नहीं आए हैं, इसलिए मैं भी सुसमाचार प्रचार के कार्य में शामिल हो गई। 2013 में जब मैं सुसमाचार का प्रचार कर रही थी तो एक बुरे व्यक्ति ने मेरी रिपोर्ट कर दी। इसलिए मुझे मजबूरी में अपना घर छोड़कर कहीं और जाकर अपना कर्तव्य करना पड़ा।
देखते ही देखते पूरा एक दशक बीत गया। अप्रैल 2023 में मैं घर लौटी और मुझे अपनी माँ से पता चला कि मेरी बेटी की शादी पहले ही हो चुकी है, उसका बच्चा अब दो महीने से ज्यादा का हो चुका है। मैं अपनी बेटी के शहर गई और आखिरकार उससे मिली। मेरी बेटी ने बताया कि एक बार जब वह अपनी ननद के साथ एक ही कमरे में सो रही थी तो नींद में वह बार-बार पुकार रही थी, “माँ ... माँ ...” यह सुनकर मेरे दिल में पीड़ा हुई। जब वह गर्भवती थी और अपने बच्चे को जन्म देने वाली थी, मैं उसके साथ नहीं थी और मैंने एक माँ की जिम्मेदारी नहीं निभाई। मैं वाकई अपनी बेटी के पास रुककर उसकी मदद करना चाहती थी, उसे ज्यादा स्नेह देना और उसकी देखभाल करना चाहती थी, उसके प्रति अपना कर्ज चुकाना चाहती थी। मेरे पति ने भी मुझे रुकने के लिए कहा। मैंने मन ही मन सोचा, “अगर मैं कोई और कर्तव्य ले लूँ और उनके पास लौट जाऊँ तो मैं अपनी बेटी की मदद कर सकती हूँ। वह कमजोर है और बच्चे की देखभाल नहीं कर पा रही है उसे इस वक्त मेरी सबसे ज्यादा जरूरत है।” इसलिए मैं रुकने पर विचार करने के लिए मान गई। लेकिन बाद में एहसास हुआ कि सुसमाचार फैलाने के लिहाज से यह समय बहुत अहम था। मैं कलीसिया अगुआ थी और कलीसिया में बहुत सारा कार्य था, जिन्हें निपटाना जरूरी था। उस समय मुझे कोई ऐसा नहीं मिला जो मेरे कर्तव्य सँभाल सके, इसलिए अगर मैं अपने परिवार की देखभाल करने के लिए कलीसिया के कार्य को छोड़ देती और उसकी उपेक्षा करती तो यह परमेश्वर के इरादे के अनुरूप नहीं होता। एक ओर कलीसिया का कार्य था और दूसरी ओर मेरी बेटी की मुश्किलें थीं। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि कैसे चुनूँ। मुझे भीतर गहरा द्वंद्व महसूस हो रहा था। इसलिए मैंने यह तय किया कि जब तक मैं उनके साथ हूँ, तब तक जितनी हो सके उनकी मदद करूँ। मैं घर के काम और बच्चे की देखभाल करते हुए अपनी बेटी के साथ संगति करने के लिए परमेश्वर के वचनों के अंश खोजती और रात को उठकर दूध गर्म करती और पोती को पिलाती। हालाँकि मैं हर रात ठीक से आराम नहीं कर पाती थी, कभी-कभी मैं इतनी थक जाती थी कि पसीने से भीग जाती थी और मेरी पीठ और कमर में दर्द होता था। फिर भी मुझे संतोष था कि मैं वही कर रही हूँ जो मुझे करना चाहिए। समय तेजी से बीत गया और कब जाने का समय आ गया, पता ही नहीं चला। हालाँकि मैं रुकना चाहती थी, फिर भी मैं चली आई क्योंकि मैं अपने कर्तव्य के बारे में सोच रही थी। बाद में अपना कर्तव्य निभाते हुए भी मैं बार-बार यही सोचती रही कि लौटकर अपनी बेटी की देखभाल कैसे करूँ। अब अपने कर्तव्य के प्रति मेरे अंदर वो दायित्व बोध नहीं था और जब मैंने देखा कि काम का जायजा लेने की जरूरत है और मेरे भाई-बहनों की समस्याएँ क्या हैं, मैं बस सामान्य सी संगति करती थी और उनकी समस्याओं को ध्यान से हल नहीं करती थी। मैं तो यहाँ तक चाहती थी कि जल्दी से कोई उपयुक्त व्यक्ति मिल जाए जो मेरी जगह कर्तव्य सँभाल ले, ताकि मुझे वापस जाकर अपनी बेटी की देखभाल करने का मौका मिल सके। क्योंकि मैं अपने कर्तव्य में उदासीन दशा में थी। मैं समय पर सुसमाचार या सिंचन कार्य का जायजा नहीं ले रही थी, जिससे कार्य में देरी हो रही थी। ऊपरी अगुओं ने मेरी समस्याएँ बताईं और कहा कि मेरे अंदर कर्तव्य को लेकर कोई दायित्व-बोध नहीं है। मैंने इस पर मनन किया कि कैसे हाल के दिनों में मैं अपनी बेटी के प्रति अपराध बोध की भावना में जी रही थी, कैसे मेरे पास काम का जायजा लेने की कोई प्रेरणा नहीं थी और इन चीजों के कारण काम प्रभावित हो रहा था। मुझे बहुत बेचैनी हो रही थी। मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा ठीक नहीं है, इसलिए मैंने जल्दी से परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की। मैंने परमेश्वर से विनती की कि वह मुझे मेरे स्नेह के बंधन से बाहर निकाले ताकि मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकूँ।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “मान लो कि तुममें से कोई कहता है : ‘मैं अपने बच्चों को कभी छोड़ नहीं सकता। वे जन्म से ही कमजोर, और स्वाभाविक रूप से कायर और डरपोक हैं। उनकी काबिलियत भी इतनी अच्छी नहीं है और समाज में दूसरे लोग हर वक्त उन पर धौंस जमाते रहते हैं। मैं उन्हें नहीं छोड़ सकता।’ तुम्हारा अपने बच्चों को छोड़ने में सक्षम नहीं होने का मतलब यह नहीं है कि तुमने उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने का काम पूरा नहीं किया है, यह सिर्फ तुम्हारे स्नेह का प्रभाव है। तुम कह सकते हो : ‘मैं हमेशा परेशान और सोचता रहता हूँ कि क्या मेरे बच्चे अच्छे से खाना खा रहे हैं, या क्या उन्हें पेट की कोई समस्या तो नहीं है। अगर वे समय पर खाना न खाएँ और लंबे समय तक बाहर का खाना मँगाते रहें, तो क्या उन्हें पेट की समस्याएँ हो जाएँगी? क्या उन्हें किसी प्रकार की बीमारी हो जाएगी? और अगर वे बीमार पड़े, तो क्या उनकी देखभाल करने वाला, उनके प्रति प्यार दिखाने वाला कोई होगा? क्या उनके जीवनसाथी उनकी चिंता और देखभाल करते हैं?’ तुम्हारी चिंताएँ सिर्फ तुम्हारे स्नेह और अपने बच्चों के साथ तुम्हारे खून के रिश्ते से उत्पन्न होती हैं, मगर ये तुम्हारी जिम्मेदारियाँ नहीं हैं। परमेश्वर ने माँ-बाप को जो जिम्मेदारियाँ सौंपी हैं, वे बच्चों के बालिग होने से पहले उनके पालन-पोषण और देखभाल करने की जिम्मेदारियाँ ही हैं। अपने बच्चों के बालिग हो जाने के बाद, माँ-बाप की उनके प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं रहती। यह उन जिम्मेदारियों के मद्देनजर है जो माँ-बाप को परमेश्वर के विधान के परिप्रेक्ष्य से पूरे करने चाहिए। बात समझ आई? (हाँ।) तुम्हारी भावनाएँ चाहे कितनी भी मजबूत हों, या जब माँ-बाप के रूप में तुम्हारे सहज-बोध की बात आती है, तो यह तुम्हारा अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करना नहीं, बल्कि सिर्फ तुम्हारी भावनाओं का प्रभाव है। तुम्हारी भावनाओं के प्रभाव मानवता के विवेक से, या उन सिद्धांतों से उत्पन्न नहीं होते हैं जो परमेश्वर ने मनुष्य को सिखाए हैं, या मनुष्य द्वारा सत्य के प्रति समर्पण करने से उत्पन्न नहीं होते, और वे निश्चित रूप से मनुष्य की जिम्मेदारियों से तो उत्पन्न नहीं होते, बल्कि, वे मनुष्य की भावनाओं से उत्पन्न होते हैं—वे भावनाएँ कहलाती हैं। ... तुम परमेश्वर द्वारा दी गई माँ-बाप की जिम्मेदारियों की परिभाषा के अनुसार जीने के बजाय, बस अपनी भावनाओं में जीते हो, अपनी भावनाओं के अनुसार अपने बच्चों से पेश आते हो। तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं जी रहे हो, बल्कि सिर्फ अपनी भावनाओं के अनुसार इन सभी चीजों को महसूस करते, देखते और सँभालते हो। इसका मतलब यह है कि तुम परमेश्वर के मार्ग पर नहीं चल रहे हो। यह स्पष्ट है। माँ-बाप के रूप में तुम्हारी जिम्मेदारियाँ—जैसा कि परमेश्वर ने तुम्हें सिखाया है—उसी पल समाप्त हो गईं जब तुम्हारे बच्चे बालिग हो गए। क्या अभ्यास का वह तरीका जो परमेश्वर ने तुम्हें सिखाया है, आसान और सरल नहीं है? (बिल्कुल है।) अगर तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करते हो, तो निरर्थक चीजों में समय बर्बाद नहीं करोगे, अपने बच्चों को एक हद तक आजादी दोगे, उन्हें विकसित होने का मौका दोगे, और उनके लिए कोई अतिरिक्त कठिनाई या बाधा नहीं बनोगे, या उन पर कोई अतिरिक्त बोझ नहीं डालोगे। और, क्योंकि वे बालिग हैं, तो ऐसा करने से वे एक बालिग व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य के साथ, चीजों को सँभालने और देखने के लिए एक बालिग व्यक्ति के स्वतंत्र तौर-तरीकों के साथ, और संसार के प्रति एक वयस्क व्यक्ति के स्वतंत्र दृष्टिकोण के साथ, इस संसार का, अपने जीवन का, और अपने दैनिक जीवन और अस्तित्व में आने वाली विभिन्न समस्याओं का सामना कर सकेंगे। ये तुम्हारे बच्चों की स्वतंत्रता और अधिकार हैं, और इससे भी बढ़कर, ये वे चीजें हैं जो उन्हें बालिगों के रूप में करनी चाहिए, और इन चीजों का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (18))। “माँ-बाप अपने बच्चों के लिए मुफ्त की आया या गुलाम नहीं हैं। माँ-बाप की अपने बच्चों से चाहे जो भी अपेक्षाएँ हों, उनके लिए यह आवश्यक नहीं कि वे अपने बच्चों को मनमाने ढंग से उन्हें आदेश देने दें और बदले में मुआवजा भी न पाएँ, न ही यह जरूरी है कि वे अपने बच्चों के नौकर, आया या गुलाम बन जाएँ। तुम्हारे मन में अपने बच्चों के लिए चाहे जैसी भी भावनाएँ हों, तुम अभी भी एक स्वतंत्र व्यक्ति हो। तुम्हें उनके बालिग जीवन की जिम्मेदारी नहीं उठानी चाहिए मानो कि सिर्फ इसलिए ऐसा करना बिल्कुल सही है क्योंकि वे तुम्हारे बच्चे हैं। ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं है। वे बालिग हैं; तुम उन्हें पाल-पोसकर बड़ा करने की अपनी जिम्मेदारी पहले ही पूरी कर चुके हो। जहाँ तक बात है कि वे भविष्य में अच्छा जीवन जिएँगे या बुरा, वे अमीर होंगे या गरीब, और खुशहाल जीवन जिएँगे या दुखी रहेंगे, यह उनका अपना मामला है। इन बातों का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। माँ-बाप होने के नाते, तुम्हारे ऊपर उन चीजों को बदलने का कोई दायित्व नहीं है। ... माँ-बाप को इस बात की जिम्मेदारी अपने ऊपर नहीं लेनी चाहिए कि उनके बच्चों के बालिग होने के बाद उनकी नौकरी, उनके करियर, परिवार या शादी में सब कुछ ठीक रहेगा या नहीं। तुम इन चीजों के बारे में चिंता कर सकते हो, और उनके बारे में पूछताछ कर सकते हो, पर तुम्हें उनका पूरा जिम्मा लेने, अपने बच्चों को अपने साथ बाँधकर रखने, जहाँ भी जाओ उन्हें अपने साथ लेकर जाने, जहाँ भी जाओ वहाँ उन पर नजर रखने, और उनके बारे में यह सोचते रहने की जरूरत नहीं है : ‘क्या उन्होंने आज ठीक से खाना खाया होगा? क्या वे खुश हैं? क्या उनका काम अच्छा चल रहा है? क्या उनका बॉस उनकी सराहना करता है? क्या उनका जीवनसाथी उनसे प्यार करता है? क्या उनके बच्चे आज्ञाकारी हैं? क्या उनके बच्चों को अच्छे ग्रेड मिलते हैं?’ इन चीजों का तुमसे क्या लेना-देना है? तुम्हारे बच्चे अपनी समस्याएँ खुद हल कर सकते हैं, तुम्हें इसमें शामिल होने की कोई जरूरत नहीं है। मैंने यह क्यों पूछा कि इन चीजों का तुमसे क्या लेना-देना है? क्योंकि इससे मेरा अभिप्राय यह है कि इनका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। तुमने अपने बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर ली हैं, तुमने उन्हें पाल-पोसकर बालिग बना दिया है, तो तुम्हें अब पीछे हट जाना चाहिए। ऐसा करने का मतलब यह नहीं कि तुम्हारे पास करने के लिए कुछ नहीं होगा। अभी भी बहुत-सी चीजें हैं जो तुम्हें करनी चाहिए। जब उन मकसदों की बात आती है जिन्हें तुम्हें इस जीवन में पूरा करना चाहिए, तो अपने बच्चों को पाल-पोसकर बालिग बनाने के अलावा, तुम्हारे पास पूरे करने के लिए और भी कई मकसद हैं। अपने बच्चों के माँ-बाप होने के अलावा, तुम एक सृजित प्राणी भी हो। तुम्हें परमेश्वर के समक्ष आना चाहिए, और उससे मिला अपना कर्तव्य स्वीकारना चाहिए। तुम्हारा कर्तव्य क्या है? क्या तुमने इसे पूरा कर लिया है? क्या तुमने खुद को इसके प्रति समर्पित कर दिया है? क्या तुम उद्धार के मार्ग पर चल पड़े हो? तुम्हें पहले इन चीजों के बारे में सोचना चाहिए। जहाँ तक बात है कि तुम्हारे बच्चे बालिग होने के बाद कहाँ जाएँगे, उनका जीवन कैसा होगा, उनकी परिस्थितियाँ कैसी होंगी, वे खुशहाल और प्रसन्न महसूस करेंगे या नहीं, इन बातों से तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है। तुम्हारे बच्चे व्यावहारिक संदर्भ में और मानसिक रूप से पहले से ही स्वतंत्र हैं। तुम्हें उन्हें स्वतंत्र होने देना चाहिए, उन्हें जाने देना चाहिए, और उन्हें काबू में करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। चाहे चीजों के व्यावहारिक संदर्भ में हो या स्नेह या खून के रिश्ते के संदर्भ में, तुम पहले ही अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर चुके हो, और अब तुम्हारे और तुम्हारे बच्चों के बीच कोई रिश्ता नहीं है। ... अगर तुम्हारे बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं तो इसका मतलब है कि तुमने उनके प्रति अपनी सभी जिम्मेदारियाँ पूरी कर ली हैं। फिर, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परिस्थितियाँ सही होने पर तुम अपने बच्चों के लिए क्या करते हो, चाहे तुम उनकी चिंता या परवाह करते हो, यह स्नेह मात्र है, और यह अनावश्यक है। या अगर तुम्हारे बच्चे तुमसे कुछ करने के लिए कहते हैं, तो यह भी अनावश्यक है, तुम यह सब करने के लिए बाध्य नहीं हो। तुम्हें यह समझना चाहिए” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (18))। मैंने परमेश्वर के वचनों की रोशनी में आत्म-चिंतन किया। मेरे बच्चों से पेश आते हुए भी मैं अपने स्नेह पर निर्भर रहती थी और चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं देखती थी। परमेश्वर कहता है कि माता-पिता की जिम्मेदारी केवल यही है कि जब तक बच्चे वयस्क नहीं हो जाते, तब तक वे उनकी परवरिश और देखभाल करने का अपना कर्तव्य निभाएँ, लेकिन जब बच्चे बड़े हो जाते हैं और वयस्क बन जाते हैं तो उनकी जिम्मेदारियाँ पूरी हो जाती हैं। लेकिन मैं यह गलत सोचती थी कि माता-पिता को हमेशा अपने बच्चों की देखभाल करनी चाहिए और जब उन्हें मुश्किलें हों तो माता-पिता को हर समय उनके साथ रहकर उनकी समस्याएँ हल करने में मदद करनी चाहिए, ताकि वे स्नेह और खुशी महसूस कर सकें। मैं सोचती थी कि एक सक्षम माँ को यही करना चाहिए। खासकर जब मैं यह सोचती थी कि मैं अपनी बेटी की शादी या उसके बच्चे होने के समय उसके साथ नहीं थी और उसे वह देखभाल नहीं मिल पाई जो मैं देना चाहती थी तो मुझे उसके प्रति अपराध बोध हुआ और मैं उसकी देखभाल के लिए रुकना चाहती थी। इस गलत परिप्रेक्ष्य में जीते हुए मैं चीजों को तर्क के आधार नहीं देख पा रही थी। मेरी बेटी अब वयस्क हो चुकी थी, फिर भी मैं उसकी देखभाल करना चाहती थी। मैंने तो यहाँ तक सोच लिया था कि मैं अपने कर्तव्य में इस तरह से बदलाव कर लूँ ताकि मैं उसके साथ रह सकूँ और उसकी देखभाल कर सकूँ। इस कारण मैं अपने कर्तव्यों में केवल उदासीनता से औपचारिकताएँ निभा रही थी, कुछ कार्यों के लिए अगुआओं को बार-बार मुझे याद दिलाना और प्रेरित करना पड़ता था, जिससे कार्य पर असर पड़ रहा था। मैं हमेशा अपनी बेटी से जुड़ी हर चीज की जिम्मेदारी खुद लेना चाहती थी, सोचती थी कि वह मेरी मदद के बिना जीवन नहीं सँभाल सकती। मैं बहुत ज्यादा भावुक हो रही थी और परमेश्वर के वचनों के आधार पर चीजों को नहीं देख पा रही थी। अब मैंने समझा कि मेरी जिम्मेदारियाँ पहले ही पूरी हो चुकी थीं। मेरी बेटी 32 साल की है और वह वयस्क है, एक समझदार औरत है, जिसकी अपनी सोच है और जो अपना जीवन ठीक से जीने में पूरी तरह सक्षम है। उसे भी बच्चों को पालने में आने वाली मुश्किलों का अनुभव करना चाहिए। और फिर मैं उसकी कोई बिना वेतन वाली आया नहीं हूँ। अगर मैं अपनी सारी ऊर्जा और समय उसी पर खर्च कर दूँ तो यह मूर्खता होगी। असल में बच्चों का कुछ मुश्किलें झेलना कोई बुरी बात नहीं है। यह उनके लिए अच्छा होता है। मुझे छोड़ना सीखना था और अपनी बेटी को स्वतंत्र रूप से बढ़ने देना था। पीछे मुड़कर देखती हूँ तो पाती हूँ कि मैं हमेशा ही अपनी बेटी की बचपन से बहुत परवाह करती थी। मैंने कभी उसे घर का काम नहीं करने दिया ताकि वह पढ़ाई पर ध्यान दे सके और जब वह बड़ी हुई, तब भी उसे खाना बनाना नहीं आता था। इस बार जब मैं वापस गई तो मैंने देखा कि उसने चिकन सूप बनाना सीख लिया था और वह धीरे-धीरे घर के विभिन्न काम सँभालना भी सीख रही थी। अगर मैं घर पर होती तो मैं सब कुछ अपने हाथ में ले लेती और मेरी बेटी किसी भी तरह से विकास नहीं कर पाती। एक माँ होने के नाते मुझे छोड़ना सीखना था और अपनी बेटी को आगे बढ़ने और विकसित होने का मौका देना था। मैं एक सृजित प्राणी हूँ, अपनी बेटी की नौकर नहीं हूँ और मुझे अपना मिशन भी पूरा करना है। मुझे एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना है और सत्य का अनुसरण करना है ताकि उद्धार प्राप्त कर सकूँ।
अपनी गलत सोच और दृष्टिकोणों के बारे में जानने के बाद मैंने यह चिंतन करना शुरू किया, “‘एक अच्छी पत्नी और प्रेममयी माँ’ बनने का यह गलत विचार आखिर आया कहाँ से?” मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश देखा : “इस असली समाज में जीने वाले लोगों को शैतान बुरी तरह भ्रष्ट कर चुका है। लोग चाहे पढ़े-लिखे हों या नहीं, उनके विचारों और दृष्टिकोणों में ढेर सारी परंपरागत संस्कृति रची-बसी है। खास कर महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने पतियों की देखभाल करें, अपने बच्चों का पालन-पोषण करें, नेक पत्नी और प्यारी माँ बनें, अपना पूरा जीवन पति और बच्चों के लिए समर्पित कर उनके लिए जिएँ, यह सुनिश्चित करें कि परिवार को रोज तीन वक्त खाना मिले और साफ-सफाई जैसे सारे घरेलू काम करें। नेक पत्नी और प्यारी माँ होने का यही स्वीकार्य मानक है। हर महिला भी यही सोचती है कि चीजें इसी तरह की जानी चाहिए और अगर वह ऐसा नहीं करती तो फिर वह नेक औरत नहीं है, और अंतरात्मा का और नैतिकता के मानकों का उल्लंघन कर चुकी है। इन नैतिक मानकों का उल्लंघन कुछ महिलाओं की अंतरात्मा पर बहुत भारी पड़ता है; उन्हें लगता है कि वे अपने पति और बच्चों को निराश कर चुकी हैं और नेक औरत नहीं रहीं। लेकिन परमेश्वर पर विश्वास करने, उसके ढेर सारे वचन पढ़ने, कुछ सत्य समझ चुकने और कुछ मामलों की असलियत जान जाने के बाद तुम सोचोगी, ‘मैं सृजित प्राणी हूँ और मुझे इसी रूप में अपना कर्तव्य निभाकर खुद को परमेश्वर के लिए खपाना चाहिए।’ इस समय क्या नेक पत्नी और प्यारी माँ होने, और सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य करने के बीच कोई टकराव होता है? अगर तुम नेक पत्नी और प्यारी माँ बनना चाहती हो तो फिर तुम अपना कर्तव्य पूरे समय नहीं कर सकती, लेकिन अगर तुम अपना कर्तव्य पूरे समय करना चाहती हो तो फिर तुम नेक पत्नी और प्यारी माँ नहीं बन सकती। अब तुम क्या करोगी? अगर तुम अपना कर्तव्य अच्छे से करने का फैसला कर कलीसिया के कार्य के लिए जिम्मेदार बनना चाहती हो, परमेश्वर के प्रति वफादार रहना चाहती हो, तो फिर तुम्हें नेक पत्नी और प्यारी माँ बनना छोड़ना पड़ेगा। अब तुम क्या सोचोगी? तुम्हारे मन में किस प्रकार की विसंगति उत्पन्न होगी? क्या तुम्हें ऐसा लगेगा कि तुमने अपने पति और बच्चों को निराश कर दिया है? इस प्रकार का अपराधबोध और बेचैनी कहाँ से आती है? जब तुम एक सृजित प्राणी का कर्तव्य नहीं निभा पातीं तो क्या तुम्हें ऐसा लगता है कि तुमने परमेश्वर को निराश कर दिया है? तुम्हें कोई अपराधबोध या ग्लानि नहीं होती क्योंकि तुम्हारे दिलोदिमाग में सत्य का लेशमात्र संकेत भी नहीं मिलता है। तो फिर तुम क्या समझीं? परंपरागत संस्कृति और नेक पत्नी और प्यारी माँ होना। इस प्रकार तुम्हारे मन में ‘अगर मैं नेक पत्नी और प्यारी माँ नहीं हूँ तो फिर मैं नेक और भली औरत नहीं हूँ’ की धारणा उत्पन्न होगी। उसके बाद से तुम इस धारणा के बंधनों से बँध जाओगी, और परमेश्वर में विश्वास करने और अपने कर्तव्य करने के बाद भी इसी प्रकार की धारणाओं से बँधी रहोगी। जब अपना कर्तव्य करने और नेक पत्नी और प्यारी माँ होने के बीच टकराव होता है तो भले ही तुम अनमने ढंग से अपना कर्तव्य करने का फैसला कर परमेश्वर के प्रति थोड़ी-सी वफादारी रख लो, फिर भी तुम्हें मन ही मन बेचैनी और अपराधबोध होगा। इसलिए अपना कर्तव्य करने के दौरान जब तुम्हें कुछ फुर्सत मिलेगी तो तुम अपने पति और बच्चों की देखभाल करने के मौके ढूँढ़ोगी, उन्हें और भी अधिक समय देना चाहोगी, और सोचोगी कि भले ही तुम्हें ज्यादा कष्ट झेलना पड़ रहा है तो भी यह ठीक है, बशर्ते अपने मन को सुकून मिलता रहे। क्या यह एक नेक पत्नी और प्यारी माँ होने के बारे में परंपरागत संस्कृति के विचारों और सिद्धांतों के असर का नतीजा नहीं है? अब तुम दो नावों पर सवार हो, अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहती हो लेकिन नेक पत्नी और प्यारी माँ भी बनना चाहती हो। लेकिन परमेश्वर के सामने हमारे पास सिर्फ एक जिम्मेदारी और दायित्व होता है, एक ही मिशन होता है : सृजित प्राणी का अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना। क्या तुमने यह कर्तव्य अच्छे से निभाया? तुम फिर से रास्ते से क्यों भटक गईं? क्या तुम्हें वास्तव में कोई अपराध बोध नहीं है, क्या तुम्हारा दिल तुम्हें धिक्कारता नहीं है? चूँकि अभी तक तुम्हारे दिल में सत्य की बुनियाद नहीं पड़ी है, तुम्हारे दिल पर सत्य का शासन नहीं है, इसलिए अपना कर्तव्य करते हुए तुम रास्ते से भटक सकती हो। भले ही अब तुम अपना कर्तव्य कर पा रही हो, तुम वास्तव में अभी भी सत्य के मानकों और परमेश्वर की अपेक्षाओं से बहुत दूर हो। क्या तुम अब इस तथ्य को स्पष्ट रूप से समझ सकती हो? परमेश्वर का यह कहने का क्या अर्थ है, ‘परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है’? इसका अर्थ हर व्यक्ति को यह एहसास कराना है : हमारा जीवन और हमारे प्राण परमेश्वर ने रचे हैं, ये हमें उसी से मिले हैं—अपने माता-पिता से नहीं, प्रकृति से तो बिल्कुल भी नहीं, ये चीजें हमें परमेश्वर ही देता है। हमारे माता-पिता से सिर्फ हमारी देह उत्पन्न हुई है, जैसे कि हमारे बच्चे हमसे उत्पन्न होते हैं, लेकिन उनकी किस्मत पूरी तरह परमेश्वर के हाथ में होती है। हम परमेश्वर पर विश्वास कर सकते हैं, यह भी परमेश्वर का दिया हुआ अवसर है; यह उसने निर्धारित किया है और उसका अनुग्रह है। इसलिए तुम्हें किसी दूसरे के प्रति दायित्व या जिम्मेदारी निभाने की जरूरत नहीं है; तुम्हें सृजित प्राणी के रूप में सिर्फ परमेश्वर के प्रति अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। लोगों को सबसे पहले यही करना चाहिए, यही व्यक्ति के जीवन का प्राथमिक कार्य है। अगर तुम अपना कर्तव्य अच्छे से पूरा नहीं करतीं, तो तुम योग्य सृजित प्राणी नहीं हो। दूसरों की नजरों में तुम नेक पत्नी और प्यारी माँ हो सकती हो, बहुत ही अच्छी गृहिणी, संतानोचित संतान और समाज की आदर्श सदस्य हो सकती हो, लेकिन परमेश्वर के समक्ष तुम ऐसी इंसान रहोगी जिसने अपना दायित्व या कर्तव्य बिल्कुल भी नहीं निभाया, जिसने परमेश्वर का आदेश तो स्वीकारा मगर इसे पूरा नहीं किया, जिसने इसे मँझधार में छोड़ दिया। क्या इस तरह के किसी व्यक्ति को परमेश्वर की स्वीकृति हासिल हो सकती है? ऐसे लोग व्यर्थ होते हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के जरिए मैंने अपनी समस्याओं पर मनन किया। सीसीपी के उत्पीड़न के कारण मुझे अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ना पड़ा था, जिस वजह से मैं अपनी बेटी की देखभाल नहीं कर पाई थी, इसलिए मैं हमेशा उसके प्रति अपराध बोध की दशा में जीती रही। असल बात यह थी कि मैं पारंपरिक संस्कृति से प्रभावित थी। मैंने मान लिया था कि एक औरत को अपना जीवन पति और बच्चों के इर्द-गिर्द केंद्रित करना चाहिए, उनके रोजमर्रा के खान-पीन, जीवन की जरूरतों और दिनचर्या का अच्छे से ध्यान रखना चाहिए। मैंने यहाँ तक सोच लिया था कि मुझे अपने बच्चों की अगली पीढ़ी की परवरिश और देखभाल भी करनी चाहिए और मुझे लगता था कि यही मेरी जिम्मेदारियाँ निभाने का मतलब है, वरना मुझे अच्छी औरत नहीं होने के लिए आलोचना झेलनी पड़ती। “एक अच्छी पत्नी और प्रेममयी माँ” बनना वह मानक है जिससे पीढ़ी दर पीढ़ी महिलाओं के नैतिक आचरण को परखा गया है। इसलिए जब मेरी बेटी की शादी हुई और उसके बच्चे हुए तो मैं स्वाभाविक रूप से यह मान बैठी कि मुझे उसके बच्चों की परवरिश करनी चाहिए, उनके कपड़े, खाना, रहन-सहन और आना-जाना, सभी चीजों का ध्यान रखना चाहिए, ताकि मेरी बेटी एक माँ की देखभाल और पोषण का सुख पा सके और खुश रह सके। मुझे लगा था कि एक माँ के रूप में अपनी जिम्मेदारी निभाने का यही अर्थ है। जब मेरी बेटी इन चीजों का आनंद नहीं ले पाई तो मुझे उसके प्रति अपराध बोध हुआ। इसलिए मैं चाहती थी कि मुझे दूसरा कर्तव्य सौंप दिया जाए और मैं अपनी बेटी के पास लौटकर उसकी देखभाल करना चाहती थी। यहाँ तक कि मैंने अपना कर्तव्य निभाने की प्रेरणा तक खो दी थी। मैंने देखा कि मैं न तो परमेश्वर के प्रति वफादार थी और न ही समर्पित, मेरे दिल में मेरे परिवार और बेटी की जगह परमेश्वर से भी ऊपर हो गई थी। फिर मैं कैसे खुद को विश्वासी कह सकती थी? अब इसके बारे में सोचती हूँ, भले ही मैं अपनी बेटी की देखभाल करती, लेकिन यदि मैं अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभा पाती, सत्य का अनुसरण करने के लिए मेरे पास समय और ऊर्जा न होती और मैं अपने दिन देह की भावनाओं में व्यस्त रहते हुए बिताती, अंत में निष्फल जिंदगी जीते हुए मैं मर ही जाती। ऐसी जिंदगी का क्या मूल्य या अर्थ होता? परमेश्वर ने मुझे जीवन दिया है, उसी ने ही मुझे परिवार और बेटी दी है। यह परमेश्वर ही था जिसने मुझ पर अनुग्रह किया और मुझे अपनी वाणी सुनने की अनुमति दी, ताकि मैं सत्य समझ सकूँ, जान सकूँ कि मुझे कैसा आचरण करना चाहिए और सभी प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों का भेद पहचान सकूँ, उसे यह आशा थी कि मैं जल्द ही शैतान के बंधनों और भ्रष्टता से मुक्त हो जाऊँ, सत्य प्राप्त करूँ और आखिरकार बचा ली जाऊँ। लेकिन मैंने परमेश्वर के इस श्रमसाध्य इरादे को नहीं समझा। मैं हमेशा अपनी बेटी और परिवार के हितों के बारे में ही सोचती रही, मैंने कलीसिया के कार्य पर विचार नहीं किया। मैं अपने स्नेह में जीती रही; कर्तव्य के लिए मेरे मन में कोई दायित्व बोध नहीं था और मैंने यह भी महसूस नहीं किया कि मुझे परमेश्वर का कोई कर्ज चुकाना है। मुझमें सच में कोई अंतरात्मा या विवेक नहीं था, मैं तो इंसान कहलाने लायक भी नहीं थी! मैं शैतान के पारंपरिक विचारों से बहुत गहराई तक विषाक्त हो चुकी थी। सत्य के बिना, मैं सच में दयनीय थी!
बाद में परमेश्वर के वचनों से मुझे वयस्क बच्चों के साथ व्यवहार करने के लिए अभ्यास का मार्ग मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अगर माता-पिता हमेशा अपने बच्चों के लिए सब-कुछ करना चाहते हैं और उनकी मुश्किलों की कीमत चुकाना चाहते हैं, स्वेच्छा से उनके गुलाम बनना चाहते हैं, तो क्या यह बहुत ज्यादा नहीं है? यह गैर-जरूरी है, क्योंकि यह माता-पिता से जो करने की अपेक्षा होनी चाहिए उससे बहुत ज्यादा है। ... हर इंसान की नियति परमेश्वर द्वारा नियत है; इसलिए वे जीवन में कितने आशीष या कष्ट अनुभव करेंगे, उनका परिवार, शादी और बच्चे कैसे होंगे, वे समाज में कैसे अनुभवों से गुजरेंगे, जीवन में वे कैसी घटनाओं का अनुभव करेंगे, वे खुद ये चीजें पहले से भाँप नहीं सकते, न बदल सकते हैं, और इन्हें बदलने की क्षमता माता-पिता में तो और भी कम होती है। इसलिए, अगर बच्चे किसी मुश्किल का सामना करें, तो माता-पिता को सक्षम होने पर सकारात्मक और सक्रिय रूप से मदद करनी चाहिए। अगर नहीं, तो माता-पिता के लिए यह श्रेष्ठ है कि वे आराम करें और इन मामलों को एक सृजित प्राणी के नजरिये से देखें, अपने बच्चों से भी समान रूप से सृजित प्राणियों जैसा बर्ताव करें। जो कष्ट तुम सहते हो, उन्हें भी वे कष्ट सहने चाहिए; जो जीवन तुम जीते हो, वह उन्हें भी जीना चाहिए; अपने छोटे बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करने की जिस प्रक्रिया से तुम गुजरे हो, वे भी उससे गुजरेंगे; समाज और लोगों के बीच जो तोड़-मरोड़, जालसाजी और धोखा तुमने अनुभव किए हैं, जो भावनात्मक उलझनें और आपसी मतभेद और ऐसी ही चीजें जिनका तुमने अनुभव किया है, वे भी उनका अनुभव करेंगे। तुम्हारी तरह वे सब भी भ्रष्ट मनुष्य हैं, सभी बुराई की धारा में बह जाते हैं, शैतान द्वारा भ्रष्ट हैं; तुम इससे बच नहीं सकते, न ही वे बच सकते हैं। इसलिए सभी कष्टों से बचे रहने और संसार के समस्त आशीषों का आनंद लेने में उनकी मदद करने की इच्छा रखना एक नासमझी भरा भ्रम और मूर्खतापूर्ण विचार है। गरुड़ के पंख चाहे जितने भी विशाल क्यों न हों, वे नन्हे गरुड़ की जीवन भर रक्षा नहीं कर सकते। नन्हा गरुड़ आखिर उस मुकाम पर जरूर पहुँचेगा जब उसे बड़े होकर अकेले उड़ना होगा। जब नन्हा गरुड़ अकेले उड़ने का फैसला करता है, तो कोई नहीं जानता कि उसका आसमान किस ओर फैला हुआ है या वह अपनी उड़ान के लिए कौन-सी जगह चुनेगा। इसलिए, बच्चों के बड़े हो जाने के बाद माता-पिता के लिए सबसे तर्कपूर्ण रवैया जाने देने का है, उन्हें जीवन को खुद अनुभव करने देने का है, उन्हें स्वतंत्र रूप से जीने देने का है, और जीवन की विविध चुनौतियों का स्वतंत्र रूप से सामना कर उनसे निपटने और उन्हें सुलझाने देने का है। अगर वे तुमसे मदद माँगें, और तुम ऐसा करने में सक्षम और सही हालात में हो, तो बेशक तुम मदद कर सकते हो, और जरूरी सहायता दे सकते हो। लेकिन तुम्हें एक तथ्य समझना होगा : तुम चाहे जो भी मदद करो, पैसे देकर या मनोवैज्ञानिक ढंग से, यह सिर्फ अस्थायी हो सकती है, और कोई ठोस चीज बदल नहीं सकती। उन्हें जीवन में अपना रास्ता खुद बनाना है, और उनके किसी मामले या नतीजे की जिम्मेदारी लेने को तुम बिल्कुल बाध्य नहीं हो। यही वह रवैया है जो माता-पिता को अपने वयस्क बच्चों के प्रति रखना चाहिए” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (19))। “अगर तुम्हारा समय, ऊर्जा और दिमाग सिर्फ सत्य और सिद्धांतों पर केंद्रित रहता है, और अगर तुम सिर्फ सकारात्मक चीजों के बारे में सोचते हो, जैसे कि अपना कर्तव्य अच्छे से कैसे निभाएँ और परमेश्वर के समक्ष कैसे आएँ, और अगर तुम इन सकारात्मक चीजों पर अपनी ऊर्जा और समय खर्च करते हो, फिर तुम्हें अलग परिणाम हासिल होगा। तुम्हें जो हासिल होगा वह सबसे मूलभूत लाभ होगा। तुम्हें पता चल जाएगा कि कैसे जीना है, कैसा आचरण करना है, हर तरह के व्यक्ति, घटना और चीज का सामना कैसे करना है। एक बार जब तुम जान जाओगे कि हर प्रकार के व्यक्ति, घटना और चीज का सामना कैसे करना है, तो यह काफी हद तक तुम्हें स्वाभाविक रूप से परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने में सक्षम बनाएगा। जब तुम स्वाभाविक रूप से परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने में सक्षम हो जाओगे, तो तुम्हें पता भी नहीं चलेगा और तुम उस प्रकार के व्यक्ति बन जाओगे जिसे परमेश्वर स्वीकार और प्यार करता है। इस बारे में सोचो, क्या यह अच्छी बात नहीं है? शायद तुम अभी तक यह नहीं जानते, मगर अपना जीवन जीने, और परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों को स्वीकारने की प्रक्रिया में, तुम अनजाने में ही परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना, लोगों और चीजों को देखना, आचरण करना और कार्य करना सीख जाओगे। इसका मतलब यह है कि तुम अनजाने में ही परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण करोगे, उसकी अपेक्षाओं के प्रति समर्पित होगे और उन्हें संतुष्ट करोगे। तब तुम उस तरह के व्यक्ति बन चुके होगे जिसे परमेश्वर स्वीकारता है, जिस पर वह भरोसा करता है और जिससे प्यार करता है, और तुम्हें इसकी भनक भी नहीं लगेगी। क्या यह बढ़िया नहीं है? (बिल्कुल है।) इसलिए, अगर तुम सत्य का अनुसरण करने और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए अपनी ऊर्जा और समय खर्च करते हो, तो अंत में तुम्हें जो हासिल होगा वे सबसे मूल्यवान चीजें होंगी” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (18))। परमेश्वर के वचनों से मुझे यह समझ आया कि वयस्क बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। हर व्यक्ति की नियति परमेश्वर की संप्रभुता और पूर्वनियोजन से निर्धारित होती है, जीवन में बच्चों को जो कष्ट और आशीष मिलते हैं, वे सब परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित होते हैं, यह कोई ऐसी बात नहीं है जिसे माता-पिता बदल सकते हैं। माता-पिता के रूप में हमें बच्चों के साथ परमेश्वर के वचनों के अनुसार व्यवहार करना चाहिए। जैसे परमेश्वर ने कहा है, हम एक ऐसे संसार में जन्म लेते हैं जिसे शैतान ने भ्रष्ट कर दिया है, जहाँ हमें दूसरों के बीच जीते हुए अराजकता, उलझनों और जटिलताओं का सामना करना पड़ता है और हम जीवन की कड़वाहट और मिठास, दोनों का अनुभव करते हैं। बच्चों को भी इन चीजों से गुजरना चाहिए और उन्हें भी विभिन्न मुश्किलों का सामना करना सीखना चाहिए। अगर कभी हमारे बच्चों को सच में हमारी मदद की जरूरत हो तो हमें अपनी क्षमताओं के दायरे में रहकर उनकी मदद करनी चाहिए, चाहे वह सोच में मार्गदर्शन देना हो या आर्थिक रूप से मदद करना हो। अगर हमारे पास समय हो तो हम उनके बच्चों की थोड़ी देखभाल कर सकते हैं; लेकिन अगर समय नहीं है तो हमें इसके लिए जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए। हमें अभी भी अपने कर्तव्य पूरे करने हैं और एक सृजित प्राणी के रूप में हमें सुसमाचार के कार्य के लिए अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, यही सबसे महत्वपूर्ण बात है।
जून 2024 में मैं कुछ जरूरी मामलों को निपटाने के लिए घर गई। वहाँ जाकर मुझे पता चला कि मेरी बेटी का काम ठीक नहीं चल रहा है, परिवार गंभीर आर्थिक समस्याओं से जूझ रहा है और वह खुद का व्यवसाय शुरू करना चाहती है। मेरे दामाद को दूसरे शहर में नौकरी तो मिल गई थी, लेकिन रहने की कोई जगह नहीं थी। मुझे चिंता हुई कि कहीं उन्हें ज्यादा कष्ट न सहना पड़े, इसलिए मैं उसकी मुश्किलों के लिए समाधान ढूँढ़ने के तरीकों के बारे में सोचने लगी। लेकिन मेरी बेटी ने कहा : “माँ, तुम्हें मेरी चिंता करने की जरूरत नहीं है। मैं अपनी समस्याओं का हल खुद निकाल लूँगी।” बेटी की यह बात सुनकर मुझे थोड़ी शर्म आई और मैंने सोचा कि परमेश्वर ने क्या कहा है : “जो कष्ट तुम सहते हो, उन्हें भी वे कष्ट सहने चाहिए; जो जीवन तुम जीते हो, वह उन्हें भी जीना चाहिए; ... सभी कष्टों से बचे रहने और संसार के समस्त आशीषों का आनंद लेने में उनकी मदद करने की इच्छा रखना एक नासमझी भरा भ्रम और मूर्खतापूर्ण विचार है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (19))। हाँ, वह अब वयस्क हो चुकी है और स्वतंत्र भी, अब मुझे उसके जीवन में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। मुझे उसे छोड़ना सीखना होगा और उसे खुद से चीजों को सँभालने देना होगा। इन बातों को सोचकर मेरे मन को शांति मिली। मुझे अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए और उसकी चिंता छोड़ देनी चाहिए। हालाँकि कभी-कभी मैं अब भी अपनी बेटी की मुश्किलों के बारे में सोचती हूँ, लेकिन दिल से जानती हूँ कि यह सब उसे खुद अनुभव करना है और मुझे अपना दिल अपने कर्तव्य में लगाना चाहिए। जब मैंने इस तरह अभ्यास किया तो मुझे अपने भीतर एक तरह की मुक्ति और आजादी की भावना महसूस हुई।