5. भूलने की बीमारी के दिन

चेन जिंग, चीन

1 मई 2003 को शाम 5 बजे के बाद का समय था। मैं एक सभा के बाद घर लौट रही थी, तभी मैंने देखा कि बहन ली नान पब्लिक फोन के पास खड़ी हैं। उसने हाथ हिलाकर मुझे अपने पास बुलाया। वह बेचैन दिख रही थी, मानो मुझसे कुछ कहना चाहती हो, इसलिए मैं जल्दी से उसके पास गई। उसने दबी आवाज में कहा कि उसने एक अन्य बहन को संदेश भेजा था, लेकिन बहन ने कोई जवाब नहीं दिया। जब हम बात कर रहे थे, तभी पब्लिक फोन की घंटी बजी। मुझे लगा कि शायद बहन ही फोन कर रही होगी, इसलिए मैंने फोन उठा लिया। मुझे हैरानी हुई कि यह किसी पुरुष की आवाज थी। मुझे एहसास हुआ कि कुछ ठीक नहीं है, इसलिए मैंने जल्दी से फोन काट दिया। मैंने और ली नान ने अभी एक-दूसरे से शायद ही कुछ कहा होगा कि हमने देखा कि जहाँ हम खड़ी थीं, वहां से थोड़ी ही दूर एक हरे रंग की जीप चरमराहट की आवाज के साथ रुकी। सादे कपड़ों में चार या पाँच पुलिसवाले बाहर निकले और सीधे दौड़ते हुए आए और भागते हुए चिल्लाने लगे, “वे यहाँ हैं! जल्दी करो! ये वही हैं! सर्वशक्तिमान परमेश्वर के विश्वासी!” अचानक गिरफ्तारी का सामना होने पर मेरा दिल मुँह को आ गया और मैं मन ही मन परमेश्वर से लगातार प्रार्थना करने लगी, “प्रिय परमेश्वर, मेरे दिल की रक्षा करना, मुझे यहूदा मत बनने देना।” जब मैंने प्रार्थना पूरी की तो मुझे एहसास हुआ कि मेरे पास अभी भी मेरा पेजर और आईसी कार्ड है, इसलिए मैंने उनकी नजरों से बचाकर उन चीजों को पास की खाई में गिरा दिया। तभी मुझे एहसास हुआ कि मेरे पास सभा के रिकॉर्ड हैं, इसलिए मैंने उन्हें जल्दी से निकाला, फाड़ा और जमीन पर फेंक दिया। एक पुलिसवाले ने देखा और चिल्लाया, “वह महिला क्या फाड़ रही है?” दूसरे पुलिसकर्मी ने गुस्से में कागज के फटे हुए टुकड़े छीन लिए और मुझे व ली नान को अपनी जीप में घुसा दिया, वह पूरे समय हमारे साथ गाली-गलौज करता रहा।

पुलिस स्टेशन में हमसे अलग-अलग पूछताछ की गई। जब मैं कमरे में पहुँची तो मैंने देखा कि तीन पुलिसकर्मी मेज के पीछे खड़े हैं। उन्होंने मेरी ओर ऐसे देखा जैसे मैं कोई दुश्मन हूँ और जोर से दाँत पीसने लगे। मुझे थोड़ी घबराहट हुई और मैं परमेश्वर से प्रार्थना करती रही, “प्रिय परमेश्वर, मुझे यहूदा बनने से बचाओ। चाहे वे मुझसे कैसे भी पूछताछ करें, मुझे अपने भाई-बहनों के साथ गद्दारी नहीं करनी है।” प्रार्थना करने के बाद मेरा दिल धीरे-धीरे शांत हो गया। एक पुलिसवाले ने मुझ पर सवाल दागने शुरू कर दिए, “तुम्हारा नाम क्या है? तुम कहाँ रहती हो? तुम्हारी उम्र कितनी है? तुम कब से परमेश्वर में विश्वास रखती हो? तुम्हारे अगुआ कौन हैं? कलीसिया में कितने लोग हैं? ...” मैंने उन्हें सिर्फ अपना असली नाम और घर का पता बताया, कलीसिया के बारे में कुछ नहीं बताया। पुलिसकर्मियों में से एक ने मेज पर जोरदार मुक्का मारा और कहा, “बोलो! नहीं तो हमें तुमसे निपटना पड़ेगा!” मैंने कुछ नहीं कहा और उन तीनों ने बारी-बारी मुझसे कई घंटों तक लगातार पूछताछ की। मैंने मन ही मन सोचा, “ऐसा लग रहा है कि जब तक मैं उन्हें कुछ नहीं बताऊँगी, वे मुझे नहीं छोड़ेंगे। शायद मैं उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति का नाम बता सकती हूँ जिसे निष्कासित कर दिया गया है? वह व्यक्ति कलीसिया से संबंधित नहीं है।” लेकिन फिर मेरे दिमाग में परमेश्वर के वचन आए : “मैं उन लोगों पर अब और दया नहीं करूँगा, जिन्होंने गहरी पीड़ा के समय में मेरे प्रति रत्ती भर भी निष्ठा नहीं दिखाई, क्योंकि मेरी दया का विस्तार केवल इतनी दूर तक ही है। इसके अतिरिक्त, मुझे ऐसा कोई इंसान पसंद नहीं, जिसने कभी मेरे साथ विश्वासघात किया हो, और ऐसे लोगों के साथ जुड़ना तो मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं, जो अपने मित्रों के हितों को बेच देते हैं। चाहे जो भी व्यक्ति हो, मेरा यही स्वभाव है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। परमेश्वर के स्वभाव का अपमान नहीं किया जा सकता। परमेश्वर उनसे सबसे अधिक घृणा करता है जो उसके साथ विश्वासघात करते हैं। कलीसिया से गद्दारी कराने के लिए पुलिस मुझसे सवाल पूछती रही। अगर मैं एक बात कहती तो वह निश्चित रूप से अधिक जानकारी के लिए दबाव डालती रहती। मैं किसी भी तरह से परमेश्वर के साथ विश्वासघात नहीं कर सकती। यह सोचकर मैंने उसे कुछ नहीं बताया। यह देखकर कि मैं अभी भी नहीं बोल रही हूँ, एक अधेड़ पुलिसकर्मी कामुक मुस्कान के साथ मेरे पास आया और अपने हाथ से मेरी ठुड्डी पकड़ ली। उसने कहा, “तुम शायद तब बोलोगी जब मैं तुम्हें चुम्मा दे दूँगा? या साथ में रात बिताना कैसा रहेगा?” मुझे खासकर इस बात से घिन हुई कि वे कितने दुष्ट हैं और मैंने बेहद गुस्से में कहा, “तुम एक पुलिस अधिकारी हो। तुम इस तरह कैसे बात कर सकते हो? इस तरह तो गुंडे बात करते हैं!” उनमें से एक पास आया और गर्दन आगे बढ़ाकर हाँफते हुए चिल्लाया, “तुम बोलोगी या नहीं? अगर नहीं तो हम तुम्हें पीट-पीटकर मार डालेंगे! हम तुम्हें अपने डंडे का स्वाद चखाएँगे!” फिर वह अपना डंडा लेने चला गया। मैं तब डर गई और अपने दिल में मैंने जल्दी से परमेश्वर को पुकारा कि वह मुझे साहस और आस्था दे, मुझे यहूदा बनने से बचाए। एक पुलिसकर्मी ने मेरी ओर घूरकर देखा और सीधे मेरी ओर लपका। मैंने सहज ही अपनी छाती को अपनी बाँहों से ढक लिया लेकिन फिर भी उसने मुझे इतना क्रूर झटका दिया कि मैं लड़खड़ा गई। उसने उग्रता से कहा, “नहीं बोलने की यही सजा है! अभी भी अकड़ रही हो? अब देखो मैं तुम्हारे साथ क्या कर सकता हूँ!” डंडा पकड़े हुए एक और पुलिसकर्मी चिल्लाया, “मैं तुम्हें सच नहीं बोलने के लिए सबक सिखाऊँगा। देखो तुम्हें यह कैसा लगता है!” यह कहते हुए उसने अपना डंडा उठाया और उससे हिंसक तरीके से मुझ पर प्रहार किया। मैं सहज रूप से दाईं ओर घूम गई और उसका डंडा मेरे सिर के बाईं ओर जोर से लगा। जब उसने मुझे मारा तो मेरे सिर में बस एक गुनगुनाहट सी आवाज आ रही थी, फिर मैं जमीन पर गिर पड़ी और बेहोश हो गई। मुझे पता भी नहीं चला कि मैं कितने समय तक बेहोश रही। मेरा दिमाग पूरी तरह से खाली था और मुझे कुछ भी याद नहीं आ रहा था। मैंने सोचा, “मैं यहाँ कैसे पहुँची?” मेरा सिर सुन्न हो गया था और हल्का दर्द भी हो रहा था। मैं जमीन पर लेटी रही और हिल नहीं पा रही थी। मुझे बस इतना महसूस हो रहा था कि मेरा दाहिना हाथ ढीला पड़ गया था, मैं अपने शरीर के दाहिने हिस्से को महसूस नहीं कर पा रही थी, और मैं इसे नियंत्रित नहीं कर पा रही थी, मानो मेरे शरीर का आधा हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया हो। काफी देर बाद मुझे आखिरकार याद आया कि परमेश्वर में विश्वास रखने के कारण मुझे गिरफ्तार किया गया था। मेरी हालत देखकर पुलिस ने मुझसे पूछताछ करना बंद कर दी। वे मुझे उठाकर हिरासत जेल में ले गए और मुझे जमीन पर पटक दिया।

जैसे ही मैं हिरासत जेल में पहुँची, कई बहनों से मुझे से घेर लिया और यह देखकर कि मुझे इस तरह पीटा गया है, उन्होंने गुस्से में कहा, “वे इतने क्रूर कैसे हो सकते हैं? वे किसी चंगे-भले इंसान की पीट-पीटकर ऐसी हालत कैसे बना सकते हैं? उनमें बिल्कुल भी मानवता नहीं है! वे वाकई दानवों का गिरोह हैं!” बहनों ने मेरे हाथ-पैर सहलाए और मुझे सांत्वना दी। मैं इतनी भावुक हो गई कि रोने लगी। मुझे पता था कि यह परमेश्वर का प्रेम है और मेरे दिल में गर्माहट आ गई। मेरे साथ आठ बहनें बंद थीं। शिन मिंग उनमें से एक थी। हम दोनों एक ही कोठरी में थीं। जब मैं पहली बार हिरासत जेल में आई थी तो मैं अभी भी अपेक्षाकृत स्पष्ट रूप से सोच पा रही थी, मेरी बोली और प्रतिक्रियाएँ सामान्य थीं, लेकिन मैं अपने शरीर के दाहिने हिस्से को आसानी से हिला ही नहीं पा रही थी। मैं अपना दाहिना हाथ सीधा नहीं फैला पाती थी और मुझे उसे ऐसे पकड़ना पड़ता था जैसे मैं टोकरी पकड़ रही हूँ। मैं अपना चेहरा ठीक से नहीं धो पाती थी और मैं ट्यूब दबाकर टूथपेस्ट भी नहीं निकाल पाती थी। खाने के समय मैं सिर्फ अपने बाएँ हाथ से ही चम्मच का इस्तेमाल कर पाती थी। चलते समय मैं अपना दाहिना पैर बस घसीट पाती थी, मानो मेरे आधे शरीर में लकवा मार गया हो। मेरी बहनों को डर था कि मैं लकवाग्रस्त हो जाऊँगी, इसलिए वे हर दिन दोपहर की ब्रेक के दौरान व्यायाम करने में मेरी मदद करती थीं। एक बहन मेरी बाजू ऊपर उठाती, दूसरी मेरी बाजू की मालिश कर रक्त प्रवाह को बढ़ाने में मदद करती, जबकि एक अन्य बहन मेरी टाँग हिलाने में मदद करती, अपने पैर का इस्तेमाल कर मुझे थोड़ा-थोड़ा करके आगे धकेलती या फिर नीचे बैठ कर अपने हाथों से मेरी टाँग को आगे बढ़ाती। यह देखकर कि मेरा शरीर ऐसी दशा में आ गया है, मैं वाकई कमजोर पड़ने लगी, सोचने लगी, “मेरे शरीर का एक हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया है, मैं अपनी देखभाल नहीं कर सकती और मैं अपनी देखभाल करवाकर अपनी बहनों पर बोझ डाल रही हूँ। क्या मैं एक बेकार इंसान नहीं बन गई हूँ?” मैं यह सोचकर बहुत परेशान हो गई। नकारात्मक और कमजोर महसूस करते हुए मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश के बारे में सोचा : “कार्य के इस चरण में हमसे परम आस्था और प्रेम की अपेक्षा की जाती है। थोड़ी-सी लापरवाही से हम लड़खड़ा सकते हैं, क्योंकि कार्य का यह चरण पिछले सभी चरणों से अलग है : परमेश्वर लोगों की आस्था को पूर्ण कर रहा है—जो कि अदृश्य और अमूर्त दोनों है। परमेश्वर वचनों को आस्था में, प्रेम में और जीवन में परिवर्तित करता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मार्ग ... (8))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे आस्था दी। परमेश्वर ने मेरी आस्था पूर्ण बनाने के लिए मेरे साथ ऐसा होने की अनुमति दी थी। हालाँकि पुलिस ने मुझे अपंग बना दिया था, लेकिन परमेश्वर द्वारा मेरी देखभाल करने और मेरे साथ परमेश्वर के वचनों की संगति करने के लिए बहनों का उपयोग करने से मैंने उसके प्रेम का अनुभव किया। हालाँकि मुझे नहीं पता था कि मैं कब ठीक हो पाऊँगी, परमेश्वर को लगातार मेरा मार्गदर्शन करते देखकर मुझे आगे बढ़ने की आस्था मिली।

हिरासत जेल में बहनें हर दिन व्यायाम कराने में मेरी मदद करती थीं। वे मुझे सुबह कपड़े पहनाती थीं, खाने के समय मुझे भाप में पकी हुई मकई की रोटी देती थीं और रात को वे बिस्तर बिछाने में मेरी मदद करती थीं। वे अक्सर मेरे साथ परमेश्वर के वचनों की संगति भी करती थीं और मेरे लिए भजन गाती थीं। उन्हें इस तरह मेरी देखभाल करते देखकर मैं बहुत भाव-विह्वल हो गई। और मुझे पुलिस से इतनी नफरत हो गई कि उन्होंने मुझे इस तरह अपंग बना दिया कि सामान्य काम करना भी मुश्किल हो गया। इसके बावजूद वे मुझे हर दिन सुबह से लेकर शाम 7 बजे तक अन्य लोगों की तरह बैठाए रखते थे और मेरा पूरा शरीर बिल्कुल ही ठंडा पड़ जाता था। रात को भी वे मुझसे एक घंटे के लिए काम करवाते थे, लेकिन बहनें काम में मेरी मदद करने के लिए बारी-बारी से मेरी जगह लेती थीं। एक महीने बाद सीसीपी ने मुझे “सामाजिक व्यवस्था बिगाड़ने” के लिए श्रम के माध्यम से दो साल की पुनः शिक्षा की सजा सुनाई। मैं बहुत परेशान थी। मैं आधी लकवाग्रस्त थी, खुद की देखभाल नहीं कर सकती थी और मैं किसी बेकार इंसान की तरह थी—मैं इन दो वर्षों की लंबी अवधि कैसे काट पाती? बहनों ने मुझे यह कहते हुए सांत्वना दी, “हमारे पास भरोसा करने के लिए परमेश्वर है और वह हमारी मदद करेगा। हमें परमेश्वर में आस्था रखनी चाहिए!” जेल ले जाते समय बहनों ने कई भजन गाए। उनमें से एक था “परमेश्वर के महिमा दिवस को देखना मेरी अभिलाषा है,” जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया : “अपने हृदय में परमेश्वर के उपदेशों के साथ, मैं कभी भी शैतान के सामने घुटने नहीं टेकूँगा। यद्यपि हमारे सिर धड़ से अलग हो सकते हैं और हमारा खून बह सकता है, लेकिन परमेश्वर के लोगों की रीढ़ की हड्डी झुक नहीं सकती। मैं परमेश्वर के लिए शानदार गवाही दूँगा, और राक्षसों और शैतान को अपमानित करूँगा। पीड़ा और कठिनाइयाँ परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित हैं, और मैं मृत्युपर्यंत उसके प्रति वफादार और समर्पित रहूँगा। मैं फिर कभी परमेश्वर के रोने या चिंता करने का कारण नहीं बनूँगा। मैं अपना प्यार और अपनी निष्ठा परमेश्वर को अर्पित कर दूँगा और उसे महिमान्वित करने के अपने लक्ष्य को पूरा करूँगा(मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ)। इसे सुनते समय मुझे बहुत प्रोत्साहन मिला और मैं साथ में गाने लगी और जितना ज्यादा मैंने गाया, मेरी आस्था उतनी ही बढ़ती गई। भले ही मुझे अपंग बना दिया गया था और जेल की सजा सुनाई गई थी, लेकिन इस कष्ट का एक अर्थ था। इस कष्ट के साथ मैं परमेश्वर के लिए गवाही दे सकती थी और दुष्ट शैतान को अपमानित कर सकती थी। यह शानदार बात थी। यह सोचकर मैंने अब और नकारात्मक महसूस नहीं किया और मैं परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने के लिए तैयार हो गई। हम जितना ज्यादा गाती गईं, उतनी ही ज्यादा भावुक होती गईं और कुछ तो गाते-गाते रोती रहीं—इसलिए नहीं कि उन्हें घर की याद आ रही थी या वे सजा सुनाए जाने से परेशान थीं, बल्कि इसलिए कि उन्हें अपने दिल में खुशी और सुख की अनुभूति हुई और उन्हें महसूस हुआ कि परमेश्वर की गवाही देने में सक्षम होना कितने गौरव की बात है!

वहाँ के जेल प्रहरियों ने देखा कि मैं शारीरिक श्रम नहीं कर सकती और वे मुझे अपने यहाँ नहीं रखना चाहते थे। उन्होंने इस विषय पर काफी देर तक चर्चा की, फिर अनिच्छा से मुझे अंदर ले लिया। उन्होंने मुझे कार्यशाला में काम करने में लगा दिया। जब पर्यवेक्षक ने देखा कि मैं कुछ नहीं कर सकती तो मुझे शौचालय साफ करने के लिए भेज दिया गया। क्योंकि मेरे दाहिने हिस्से में कोई संवेदना नहीं थी, मैं पूरी तरह से अपने बाएं पैर पर झुककर चलती थी और अपने दाहिने पैर को घसीटते हुए मुश्किल से चल पाती थी। फर्श साफ करते समय मैं अपने बाएँ पैर पर झुक जाती थी और अपने दाहिने पैर को घसीटती थी, सिर्फ अपने बाएँ हाथ का इस्तेमाल करके मुश्किल से पोछा लगाती थी। जब भी मैं एक जगह पोछा लगाती थी तो वापस खड़े होने के लिए बहुत प्रयास करना पड़ता था। मैं हर दिन सुबह से रात 10 बजे तक सफाई करती थी। मुझे अंदर से अन्याय महसूस होता था, सोचती थी, “शरीर की ऐसी दशा में भी मुझे काम करने के लिए मजबूर करना, वे वाकई लोगों के साथ इंसान जैसा व्यवहार नहीं करते!” मुझे इससे भी अधिक गुस्सा इस बात पर आया कि जेल प्रहरी हर दिन प्रशिक्षण दल के कैदियों के साथ मुझसे भी सुबह का व्यायाम करवाते थे। हमें दौड़ना पड़ता था और मेरे टीम के बीच में खड़े होने के कारण जब सब दौड़ने लगते थे तो वे मुझे नीचे गिरा देते थे। इसके बावजूद वे मुझे रुकने नहीं देते थे। मैं कभी भी कसरत नहीं कर पाती थी, इसलिए विभागाध्यक्ष मुझे पूरे प्रांगण का चक्कर लगाने की सजा देता था। मैं अपना दाहिना पैर नहीं उठा पाती थी, इसलिए मुझे चलते समय उसे घसीटना पड़ता था। प्रांगण का एक लंबा चक्कर लगाने के बाद मैं इतना थक जाती कि आगे नहीं बढ़ पाती थी और मेरे जूते के किनारे घिस जाते थे। जैसे-जैसे समय बीतता गया, मैं इसे और बर्दाश्त नहीं कर सकी और अंदर से बहुत कमजोर पड़ गई। शिन मिंग ने मेरे साथ संगति की, मुझे प्रोत्साहन दिया, ढाढस बँधाया और परमेश्वर के वचनों का एक अंश सुनाया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “तुम्हें सत्य के लिए कष्ट उठाने होंगे, तुम्हें सत्य के लिए खुद को बलिदान करना होगा, तुम्हें सत्य के लिए अपमान सहना होगा और तुम्हें और अधिक सत्य प्राप्त करने की खातिर और अधिक कष्ट सहना होगा। यही तुम्हें करना चाहिए। ... तुम्हें उस सबका अनुसरण करना चाहिए जो खूबसूरत और अच्छा है और तुम्हें जीवन में एक ऐसे मार्ग का अनुसरण करना चाहिए जो ज्यादा अर्थपूर्ण है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर के वचन सुनकर मैं समझ गई कि इस कष्ट के माध्यम से परमेश्वर मुझमें सत्य का संचार करना चाहता है। यह कष्ट सहना सार्थक है और मुझे इसका आस्था के साथ अनुभव करना चाहिए। यूँ तो मैं अपंग थी और मुझे अभी भी कार्य करना पड़ता था, परमेश्वर मेरे साथ था और बहनें मेरी बगल में थीं, अक्सर मेरे साथ परमेश्वर के वचनों पर संगति करती थीं। मैंने महसूस किया कि परमेश्वर ने मुझे कभी नहीं छोड़ा था। मैंने परमेश्वर का प्रेम महसूस किया।

क्योंकि मेरा कोई इलाज नहीं किया गया था, मेरी हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती गई। मैं अपने शरीर के दाहिने हिस्से को हिलाने की हिम्मत नहीं करती थी, क्योंकि जब मैं ऐसा करती थी तो असहनीय तकलीफ होती थी। लेटने पर मैं अपनी स्थिति से उठ नहीं पाती थी और मुझे बहनों की मदद लेनी पड़ती थी। मेरा दाहिना हाथ वाकई अकड़ गया था और मैं अपने दाँत ब्रश करते समय अपना मुँह भी नहीं धो पाती थी। शिन मिंग ने विभागाध्यक्ष से विनती की और आखिरकार उन्होंने मुझसे शौचालय साफ कराना बंद कर दिया। लेकिन वे मुझे लेटने नहीं देते थे। हर दिन मुझे 10 घंटे से ज्यादा बैठना पड़ता था, उसके बाद ही वे मुझे सोने देते थे। मैं दर्द सहन करती रहती और मुश्किल से दीवार के सहारे टिकी रहती, हिलने की हिम्मत नहीं करती। बाद में मेरी हालत और भी बिगड़ती गई। चम्मच पकड़ते समय मेरा बायाँ हाथ काँपने लगता और खाने के समय मैं अपना खाना हर जगह गिरा देती थी। मेरा दिमाग पूरी तरह से खाली था, मानो मेरे पास कोई विचार ही नहीं था। यह जानने के अलावा कि मैं परमेश्वर में विश्वास रखती हूँ और बहनों को परमेश्वर के वचनों पर संगति करते हुए सुनना चाहती हूँ, मुझे और कुछ भी नहीं पता था। मेरी यादें हमेशा टूटी-फूटी होती थीं। मैं हाल ही में हुई चीजें भूल जाती थी और चीजों को सिर्फ अस्थायी रूप से ही याद रख पाती थी। मेरा दिमाग धीमी गति से प्रतिक्रिया करता था और मैं चीजों को शून्य भाव से देखती रहती थी। कभी-कभी मैं बिना जाने ही बेवकूफी से हँस देती थी। जब कोई बहन मुझे रुकने के लिए कहती थी, तभी मुझे कुछ होश आता था और मैं हँसना बंद करती थी। उस समय मेरा आईक्यू एक छोटे बच्चे जैसा था और मैं तोड़-तोड़कर और बहुत धीमे-धीमे बोलती थी। मैं अक्सर बिस्तर पर गठरी बनकर बैठी रहती थी, अपने हाथों-पैरों को घूरती रहती थी और अक्सर अनजाने में ही हँसती रहती थी। एक बार शिन मिंग काम खत्म करके कोठरी में लौटी तो मैं उसे देखकर खीसें निपोरती रही, मानो मैंने कोई रिश्तेदार देख लिया हो। उसने मेरा कंधा थपथपाया और पूछा, “तुम किस बात पर मुस्कुरा रही हो? क्या तुम जानती हो कि मेरा नाम क्या है?” मैंने बस खीसें निपोरना जारी रखा, अपना सिर हिलाया और कहा, “मुझे ... नहीं ... पता।” थोड़ी देर बाद मुझे याद आया और मैंने कहा, “तुम्हारा ... नाम ... मिंग ... है।” लेकिन चाहे मैंने कितना भी सोचा हो, मुझे उसका उपनाम याद नहीं आया। श्रम शिविर के प्रमुख ने मेरी हालत देखी और उसे डर था कि मैं शिविर में मर जाऊँगी और उसे इसकी जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी, इसलिए उसने शिविर के डॉक्टर को मुझे इंजेक्शन लगाने के लिए आने दिया। लेकिन डॉक्टर ने मेरी जाँच किए बिना ही मुझे बेतरतीब ढंग से दवा दे दी। नतीजतन मेरी हालत में सुधार तो हुआ ही नहीं हुआ, बल्कि यह सचमुच बदतर हो गई। मेरे हाथ-पैर सूजने लगे, मैं अपनी उंगलियाँ नहीं हिला पा रही थी और मेरे पैर की उंगलियाँ लाल पड़ गईं और सूज गईं, मानो मुझे शीतदंश हो गया हो। उनके पास मुझे प्रांतीय अस्पताल ले जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। जाँच में पाया गया कि मेरे सिर में चोट लगने के कारण द्रव जमा हो गया था, जो नसों पर दबाव डाल रहा था और हेमिप्लेजिया का कारण बन रहा था। डॉक्टर ने कहा कि अगर समय रहते सर्जरी करके द्रव नहीं निकाला गया तो मैं मर सकती हूँ। लेकिन मेरा परिवार ऑपरेशन का खर्च नहीं उठा सकता था, इसलिए वे मुझे वापस श्रम शिविर ले आए। वापस आते समय मैंने उन्हें धीमे से कहते हुए सुना, “वह इलाज का खर्च नहीं उठा सकती, लेकिन हम उसे यहाँ मरने नहीं दे सकते। हमें उसे मेडिकल पैरोल दे देनी चाहिए।” मेरी याददाश्त आ-जा रही थी और मैं किसी भी चीज को लेकर बहुत ज्यादा चिंतित नहीं थी। मैं सिर्फ यह जानती थी कि मैं परमेश्वर में विश्वास रखती हूँ और अपना जीवन-मरण परमेश्वर को सौंपती हूँ।

जब मैं वापस शिविर में आई तो उन्होंने मुझे एक अलग कोठरी में रखा और मैं उन बहनों से संपर्क नहीं कर सकी, जिनके साथ मैं थी। उस दौरान मैं बहुत दर्द में थी। मैं बस अपने बिस्तर पर बैठी रहती और दरवाजे की तरफ देखती रही, उम्मीद करती रहती कि कोई बहन मुझे दिख जाएगी। जब मैं बहनों के साथ होती थी तो वे अक्सर मेरे साथ परमेश्वर के वचनों की संगति करती थीं और मेरी हिम्मत बँधाती थीं, लेकिन अब मैं बहुत अकेली पड़ गई थी और खोयी हुई रहती थी। मेरा दिमाग ठीक से काम नहीं कर रहा था और मैं परमेश्वर के वचन याद नहीं कर पा रही थी, न ही मैं बहनों को मेरे साथ परमेश्वर के वचनों की संगति करते हुए सुन पा रही थी—क्या परमेश्वर अब मुझे नहीं चाहता? मुझे बहुत पीड़ा हुई और मैं सोचने लगी कि परमेश्वर के बिना मेरे जीवन का क्या मतलब है। फिर मैंने मरने के बारे में सोचा। मैंने खाना बंद कर दिया। कोठरी से कोई व्यक्ति शिन मिंग को खोजने गया और जब पर्यवेक्षक आसपास नहीं था तो वह मेरे पास आई। मैं उसे देखकर बहुत खुश हुई। वह मेरे बिस्तर पर आई और उसने मुझे थपथपाया। मेरे हाथ और बाँह की मालिश करने में मदद करते हुए उसने पूछा, “तुम खाना क्यों नहीं खा रही हो? क्या इससे तुम्हारी सेहत को कोई फायदा होगा?” आँसू बहाते हुए मैंने कहा, “मुझे ... तुम्हारी याद ... आती है। उन्होंने ... मुझे यहाँ ... रखा है ... यहाँ कोई नहीं है ... जो मेरे साथ ... परमेश्वर के वचनों की ... संगति कर सके। मैं ... इतनी ... अकेली हूँ। क्या परमेश्वर ... अब मुझे ... नहीं चाहता? मेरे जीवन का ... अब कोई ... मतलब नहीं है।” शिन मिंग ने मुझे दिलासा देते हुए कहा, “परमेश्वर अभी भी हमें चाहता है। वह बस इस बात का इंतजार कर रहा है कि हम उसके लिए गवाही दें! हमें अच्छी तरह से जीना है!” फिर उसने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक भजन सुनाया : “मैं मैं परमेश्वर से प्रेम करने को संकल्पित हूँ।” “हर बात, हर चीज—सब तुम्हारे हाथों में है; मेरा भाग्य तुम्हारे हाथों में है और तुमने मेरा पूरा जीवन ही अपने हाथों में थामा हुआ है। अब मैं तुमसे प्रेम करना चाहता हूँ, और चाहे तुम मुझे अपने से प्रेम करने दो या न करने दो, चाहे शैतान कितना भी विघ्न डाले, मैं तुमसे प्रेम करने के लिए दृढ़-संकल्प हूँ। मैं खुद परमेश्वर के पीछे जाने और उसका अनुसरण करने के लिए तत्पर हूँ। अब भले ही परमेश्वर मुझे त्याग देना चाहे, मैं फिर भी उसका अनुसरण करूँगा। वह मुझे चाहे या न चाहे, मैं फिर भी उससे प्रेम करता रहूँगा, और अंत में मुझे उसे प्राप्त करना होगा। मैं अपना हृदय परमेश्वर को अर्पण करता हूँ, और चाहे वह कुछ भी करे, मैं अपने पूरे जीवन उसका अनुसरण करूँगा। चाहे कुछ भी हो, मुझे परमेश्वर से प्रेम करना चाहिए और उसे प्राप्त करना चाहिए; मैं तब तक आराम नहीं करूँगा, जब तक मैं उसे प्राप्त नहीं कर लेता(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के लिए सच्चा प्रेम स्वाभाविक है)। शिन मिंग ने मुझसे कहा, “हमें परमेश्वर में सच्ची आस्था रखनी चाहिए! चाहे हमारे साथ कुछ भी हो जाए, हमें अंत तक उसका अनुसरण करना चाहिए। हमारा जो संकल्प पहले था, वह डगमगाना नहीं चाहिए। केवल यही परमेश्वर से सच्चा प्रेम करना और सच्ची आस्था रखना है। अब स्थिति अलग है और बहनें यहाँ नहीं हैं, इसलिए तुम्हें लगता है कि परमेश्वर तुम्हें नहीं चाहता। क्या तुम परमेश्वर को गलत नहीं समझ रही हो? तुम्हारी आस्था कहाँ है? परमेश्वर ने हमारे लिए इस स्थिति की व्यवस्था इस उम्मीद से की है कि हम उसके लिए अपनी गवाही में अडिग रहेंगे। हमें परमेश्वर में अपनी आस्था रखनी चाहिए!” शिन मिंग की संगति के बाद मैं जान गई कि ऐसा नहीं है कि परमेश्वर मुझे नहीं चाहता है और मुझे अच्छी तरह से जीना है और मैं कायर नहीं बन सकती हूँ। मुझे अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करना था चाहे कुछ भी हो। मेरे पास फिर से आशा थी, मेरा दिल उज्ज्वल हो गया और मैं फिर से खुश हो गई। जब शिन मिंग जाने वाली थी तो मैंने उसका हाथ पकड़ लिया, उसे जाने नहीं दिया और कहा, “मैं ... परमेश्वर के वचन ... सुनना चाहती हूँ।” उसने कहा कि वह मुझसे मिलने फिर से आएगी, मुझे सलाह दी कि जब हालात मुश्किल हो जाएँ तो मैं परमेश्वर से ज्यादा प्रार्थना करूँ और परमेश्वर मुझे सुनेगा। उसके जाने के बाद मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “प्रिय ... परमेश्वर, मुझे ... बहुत ... अकेलापन महसूस हो रहा है, यहाँ ... कोई नहीं है, मेरा ... दिमाग ... ठीक से काम ... नहीं कर रहा है, मैं ... तुम्हारे वचन ... सुनना चाहती हूँ, मेरे लिए ... किसी को ... भेज दो, मैं ... तुम्हारे वचन ... सुनना चाहती हूँ।”

मेरे यह प्रार्थना करने के अगले दिन विभागाध्यक्ष ने कहा, “चेन, कोठरी में तुम्हारे साथ रहने के लिए यह रही एक साथी। वह तुम्हारा साथ दे सकती है।” जब मैंने देखा कि यह बहन हे ली थी तो मैं रोमांचित हो गई! मुझे पता था कि परमेश्वर ने मेरी प्रार्थना सुन ली है। हे ली भी मुझे देखकर खुश हुई। मुझे गले लगाते हुए उसने कहा, “मैंने सुना है कि पिटाई से तुम बुरी तरह घायल हो गई हो और मैं तुम्हें देखना चाहती थी और आखिरकार अब मैं तुम्हें देख पा रही हूँ!” हे ली हर दिन ध्यान से मेरी देखभाल करती थी, व्यायाम करने में मेरी मदद करती थी, मुझसे बातें करती थी, वह अक्सर मेरे साथ परमेश्वर के वचनों पर संगति करती थी, मुझे प्रोत्साहित करती थी और सांत्वना देती थी। समय के साथ मेरा दिमाग प्रतिक्रिया देने लगा और मैं उसके साथ बातचीत कर सकती थी। एक दिन मैंने अपने हाथों को देखा और हे ली से कहा, “कब … मेरी हालत … ठीक होगी? क्या यह … ठीक हो जाएगी?” फिर उसने मुझे संगति दी, “क्या परमेश्वर ने ये वचन नहीं कहे हैं? ‘सर्वशक्तिमान परमेश्वर एक सर्वशक्तिशाली चिकित्सक है! बीमारी में रहने का मतलब बीमार होना है, परन्तु आत्मा में रहने का मतलब स्वस्थ होना है। जब तक तुम्हारी एक भी साँस बाकी है, परमेश्वर तुम्हें मरने नहीं देगा(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 6)। ‘परीक्षणों से गुजरते समय लोगों का कमजोर होना या उनके भीतर नकारात्मकता आना या परमेश्वर के इरादों या अभ्यास के मार्ग के बारे में स्पष्टता का अभाव होना सामान्य बात है। लेकिन कुल मिलाकर तुम्हें परमेश्वर के कार्य पर आस्था होनी चाहिए और अय्यूब की तरह तुम्हें भी परमेश्वर को नकारना नहीं चाहिए(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। हमें परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना चाहिए और निराशा में नहीं पड़ना चाहिए। परमेश्वर सर्वशक्तिमान है और हम बीमारी से उबरते हैं या नहीं, यह उसके हाथों में है। हमें बिल्कुल भी शिकायत नहीं करनी चाहिए! ऐसे भयंकर परीक्षणों के दौरान अय्यूब ने कभी परमेश्वर में आस्था नहीं गँवाई, इसलिए हमें परमेश्वर के वचनों में विश्वास रखना चाहिए और उसमें सच्ची आस्था रखनी चाहिए!” यह सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई। मैंने सोचा कि परमेश्वर के वचन महान हैं।

दिसंबर के आसपास मेरी हालत थोड़ी बेहतर हुई। मैं अपने पैर धो रही थी, तभी मैंने अचानक देखा कि मेरी दाहिनी टाँग और पैर सफेद हो गए हैं। उस पैर के नाखून छह महीने से नहीं बढ़े थे। मैंने पहले कभी इस पर ध्यान नहीं दिया था। मैंने सोचा, “मेरे हाथ-पैर में सुधार का कोई लक्षण नहीं दिख रहा है। जैसा वे दिख रहे हैं उससे लगता है कि मैं निश्चित ही मर जाऊँगी। मैं सिर्फ 41 साल की हूँ। क्या मैं वाकई इसी तरह मर जाऊँगी?” मैंने थोड़ा-सा भारी मन महसूस किया और परमेश्वर से प्रार्थना की, “प्रिय परमेश्वर, मुझे तुम पर अपनी आस्था के कारण गिरफ्तार किया गया है। अगर मैं मर भी जाऊँ तो मुझे इसका कोई अफसोस नहीं होगा। अगर मैं जीवित रह सकी तो मैं तुम पर विश्वास करती रहूँगी!” मैंने बीच-बीच में रुकते हुए अपने दिल में इन शब्दों में प्रार्थना की। प्रार्थना के बाद मैंने अपने शरीर में खून दौड़ता महसूस किया और थोड़ी-सी गर्माहट महसूस की। मैंने पहले ऐसा महसूस नहीं किया था। अगले दिन जब हे ली शौचालय जाने में मेरी मदद कर रही थी, मैंने पाया कि मैं अपना दाहिना पैर थोड़ा ऊपर उठा सकती हूँ। इससे पहले जब भी मैं शौचालय जाती थी, हे ली को हमेशा मेरा पैर दहलीज के ऊपर खींचना पड़ता था। इस बार वह बस नीचे झुकने ही वाली थी, लेकिन इससे पहले कि वह मेरा पैर खींचती, मैंने खुद ही ऐसा कर लिया! यह देखकर हम दोनों बहुत रोमांचित हो गईं और मुझे परमेश्वर के प्रति बहुत आभार महसूस हुआ। 26 दिसंबर को मेरी मेडिकल पैरोल मंजूर हो गई। मुझे उम्मीद नहीं थी कि ऐसा होगा। उस समय सिर्फ दो लोगों को ही मेडिकल पैरोल दी जा सकती थी, लेकिन जेल में तीन गंभीर रूप से बीमार लोग थे, इसलिए मुझे हैरानी हुई कि मुझे यह दी गई थी। पर्यवेक्षक ने कहा, “चेन, तुम्हारा पति तुम्हें लेने आया है। तुम घर जा सकती हो। तुम एक साल की सजा घर पर काटोगी। तुम्हें सुसमाचार प्रचार करने की अनुमति नहीं है और हम तुम्हारी स्थानीय सरकार को तुम पर नजर रखने के लिए सूचित करेंगे।” मैं बहुत खुश थी। शिन मिंग भी मेरे लिए खुश थी। उसने जल्दी से चीजें समेटने में मेरी मदद की और गेट से बाहर निकलने में मुझे सहारा दिया। मेरे पति को श्रम शविर को 2,000 युआन के बॉन्ड का भुगतान करना पड़ा, तभी मैं धरती पर मौजूद इस नरक से बाहर निकल पाई।

जब मैं घर पहुँची तो मैं बस बिस्तर पर लेट सकती थी। मैं अपने हाथ या पैर नहीं हिला पाती थी। एकदम बेजान हो गई थी। वह साल घर पर वाकई बहुत मुश्किल था। हम पर 10,000 युआन से ज्यादा का कर्ज था। हमें मेरी मेडिकल पैरोल के लिए भी पैसे उधार लेने पड़े थे। मैं कोई इलाज नहीं करवा सकी क्योंकि हमारे पास पैसे नहीं थे। मैं कभी-कभी बीमारी की वजह से परेशान रहती थी, लेकिन मुझे पता था कि यह परमेश्वर के हाथों में है और मैं ठीक हो जाऊँगी या नहीं, यह परमेश्वर पर निर्भर है। परमेश्वर मेरा सबसे बड़ा सहारा है। मैं अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करती थी और धीरे-धीरे आध्यात्मिक रूप से मजबूत हो गई। मैं उस समय परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए तड़प रही थी, लेकिन क्योंकि सीसीपी अभी भी मुझ पर नजर रख रही थी, इसलिए भाई-बहन मुझसे संपर्क नहीं कर पा रहे थे। मेरी माँ एक विश्वासी थी और वह मेरे लिए परमेश्वर के वचनों की एक हस्तलिखित प्रति लेकर आई। मैं रोमांचित थी और मैंने वह तुरंत उससे ले ली। मैंने इसे बार-बार पढ़ा। हालाँकि मुझे इसमें से कुछ भी याद नहीं था, लेकिन मैं इसे समझ सकती थी। मैंने बहुत खुशी और सहजता महसूस की और इस बारे में नहीं सोचा कि मैं जियूँगी या मर जाऊँगी। जब तक मैं परमेश्वर के वचन पढ़ सकती थी, तब तक मैं संतुष्ट थी। दो या तीन महीने बाद मैं किसी दवाई या इंजेक्शन के बिना ही सहारा लेकर लचक-लचककर चलने लगी और मैं खुद से खाना भी खा सकती थी।

2004 में एक दिन मैंने अपनी दराज में कागज का एक पैकेट देखा। जब मैंने उसे खोला तो मुझे उलझी हुई एक कैसेट टेप दिखाई दी और मैंने मन ही मन सोचा, “क्या यह भजनों की कैसेट है?” मैंने अपने बेटे से इसे सुलझाकर प्लेयर में डालने के लिए कहा और मुझे हैरानी हुई कि यह बजने लगी। मैं परमेश्वर के वचनों के भजन सुनकर बहुत उत्साहित थी! उसके बाद मैं हर दिन बार-बार इन भजनों को सुनती थी, हर बार जब मैं सुनती थी तो मेरा दिल और भी अधिक उज्ज्वल हो जाता था। मुझे विशेष रूप से “विजेताओं का गीत” सुनने पर बहुत प्रेरणा मिली : “क्या तुम लोगों ने कभी वे आशीष स्वीकार किए हैं जो तुम्हारे लिए तैयार किए गए थे? क्या तुम लोगों ने कभी उन वादों का पीछा किया है जो तुम लोगों के लिए किए गए थे? तुम लोग मेरे प्रकाश के मार्गदर्शन में अन्धकार की शक्तियों का शिकंजा तोड़कर बाहर आ जाओगे। तुम अंधकार के बीच प्रकाश का मार्गदर्शन नहीं खोओगे। तुम सभी चीजों के मालिक होगे। तुम शैतान के सामने विजेता होगे। तुम बड़े लाल अजगर के देश के पतन पर मेरी जीत के सबूत के रूप में अनगिनत लोगों के बीच उठ खड़े होगे। तुम लोग सिनिम की जमीन पर दृढ़ और अटल रहोगे। तुम जो कष्ट सहते हो उनके परिणामस्वरूप विरासत में मेरे आशीष प्राप्त करोगे और तुम पूरे ब्रह्माण्ड में मेरी महिमा के प्रकाश की किरणें बिखेरोगे(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 19)। मैंने समझ गई कि अंत के दिनों में परमेश्वर का कार्य बड़े लाल अजगर के उत्पीड़न का उपयोग करके विजेताओं के एक समूह को पूर्ण बनाना है। यूँ तो मैं कुछ मुश्किलों से गुजरी थी और अपंग हो गई थी, लेकिन इस परिवेश के माध्यम से मेरी आस्था पूर्ण बन चुकी थी और मैं परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन के कारण अडिग रहने में सक्षम थी। अपंग होने के बाद न सिर्फ मैंने अपनी याददाश्त खो दी, बल्कि मैं अपनी देखभाल भी नहीं कर पाती थी। मैं बार-बार नकारात्मक और कमजोर महसूस करती थी और यह केवल परमेश्वर की सहायता से ही संभव हुआ कि बहनों ने मुझे बार-बार उसके वचनों पर संगति प्रदान की, जिससे मुझे इस कठिन परिस्थिति से बाहर निकलने की आस्था मिली। इसने मुझे दिखाया कि परमेश्वर के वचन रोशनी हैं और वे किसी भी समय लोगों के लिए आगे का मार्ग रोशन कर सकते हैं और उन्हें अनुसरण करने का मार्ग दे सकते हैं। इस स्थिति से गुजरते हुए भले ही मेरी देह को कुछ कष्ट हुआ, लेकिन मैं सत्य समझने में सक्षम हो गई, परमेश्वर में मेरी आस्था बढ़ गई, मैंने परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता के बारे में कुछ समझ हासिल की। मेरा कष्ट सहना इतना सार्थक रहा था! परमेश्वर के वचनों ने मुझे प्रेरित किया और मेरी हालत दिन-ब-दिन बेहतर होती गई। मेरी याददाश्त वापस आ गई और मैं सुसंगत रूप से बोलने में सक्षम हो गई। 2005 तक मैं धीरे-धीरे चलने लगी। उस वर्ष के अंत में अपनी छोटी बहन से मिलने मैं ट्रेन से अकेले ही दूसरे शहर गई और मैंने उसे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के सुसमाचार का उपदेश दिया। जब मेरे रिश्तेदारों ने मुझे इतनी अच्छी तरह से ठीक होते देखा तो कुछ ने कहा, “सचमुच एक परमेश्वर है!” कुछ ने कहा, “तुम्हारा परमेश्वर वाकई सर्वशक्तिमान है!” मेरी बड़ी बहन की सास ने भी मेरे अनुभव सुनने के बाद परमेश्वर का अंत के दिनों का सुसमाचार स्वीकार लिया। बाद में मेरी हालत पूरी तरह से ठीक हो गई। मेरा पैर अब लंगड़ाता नहीं था और मैं एक सामान्य इंसान बन गई। मेरे आस-पास के लोग यह देखकर आश्चर्यचकित थे कि मैं कितनी जल्दी ठीक हो गई। एक बार मैं सड़क पर शिन मिंग से टकरा गई और मैं यह व्यक्त नहीं कर सकती कि मैं कितनी रोमांचित महसूस कर रही थी। मैंने उसे तुरंत गले लगाया और हम इतनी भावुक हो गईं कि रो पड़ीं। जब 2018 में मेरी फॉलो-अप जाँच हुई, डॉक्टर ने मेरे एक्स-रे को हैरानी से बहुत देर तक देखा और कहा कि मेरे सिर में रिसकर जमा हो रहा खून पहले ही सूख चुका है। मस्तिष्क में गंभीर चोट लगने के बाद एकत्र खून का बिना किसी इलाज के सूख जाना वाकई चमत्कार था! जब मैंने डॉक्टर को यह कहते सुना तो मैंने पूरे दिल से परमेश्वर का धन्यवाद किया! मैं धीरे-धीरे लकवाग्रस्त व्यक्ति से सामान्य इंसान में बदल गई थी—यह कुछ ऐसा था जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता।

इस अनुभव के बाद मैंने देखा कि परमेश्वर सभी चीजों का प्रबंधन करता है और लोगों का जीना-मरना सब उसके हाथों में है। जैसा कि परमेश्वर कहता है : “मनुष्य का हृदय और आत्मा परमेश्वर की मुट्ठी में होते हैं और उसके जीवन की हर चीज परमेश्वर की दृष्टि में रहती है। चाहे तुम यह सब मानो या न मानो, एक-एक चीज चाहे वह सजीव हो या मृत, परमेश्वर के विचारों के अनुसार ही उसकी दशा, बदलेगी, नवीनीकृत और गायब होगी। परमेश्वर इसी तरह सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है)। इस विशेष अनुभव से परमेश्वर में मेरी आस्था बहुत अधिक बढ़ गई। परमेश्वर ने मुझे जीवन में दूसरा अवसर दिया। भविष्य में चाहे मुझे जिस किसी उत्पीड़न या क्लेश का सामना करना पड़े, मैं परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए अपनी आस्था में हमेशा अडिग रहूँगी और उसके प्रेम का बदला चुकाने के लिए अपना कर्तव्य अच्छे से निभाऊँगी।

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