44. अब मैं अपना मान-सम्मान बचाने की कोशिश नहीं करती
सितंबर 2023 में, भाई-बहनों ने मुझे कलीसिया का अगुआ चुना, मैं मुख्य रूप से सिंचन कार्य के लिए जिम्मेदार थी। यह खबर सुनकर, मुझे बहुत दबाव महसूस हुआ। मैंने सोचा, “कलीसिया के कार्य में बहुत से काम शामिल हैं। मैंने अभी-अभी प्रशिक्षण लेना शुरू किया है और कोई अनुभव नहीं है। अगर मैं जाकर भाई-बहनों के कार्य का जायजा लेती हूँ और कुछ बातें ऐसी हों जिन्हें मैं सँभाल न सकूँ, तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे कहेंगे कि मुझमें विवेक की कमी है, मैं खुद तो काम करना जानती नहीं और दूसरों के काम का जायजा लेती हूँ?” क्योंकि मैं नहीं चाहती थी कि वे मेरी कमियों को जानें और मुझे नीची नजर से देखें, इसलिए मैंने अगुआ का कर्तव्य करने से इनकार कर दिया। मैंने पर्यवेक्षक से कहा, “बेहतर होगा कि मैं अपने मौजूदा कर्तव्य में ही कड़ी मेहनत करूँ।” पर्यवेक्षक ने मुझसे मिलकर संगति की, “तुम खुद से बहुत ज्यादा अपेक्षा रखती हो। हर किसी में कमियाँ होती हैं, हमारे काम में कुछ कमियों का होना बहुत सामान्य है। हमसे परमेश्वर की अपेक्षाएँ इतनी ज्यादा नहीं हैं। परमेश्वर हमारे कर्तव्य के प्रति हमारे रवैये को महत्व देता है, वह देखता है कि हम अपने काम में पूरा प्रयास करते हैं या नहीं।” पर्यवेक्षक की बात सुनकर, मुझे लगा कि वह सही कह रहा है। हर किसी में कमियाँ और खामियाँ होती हैं, इसलिए हम सभी को और अधिक प्रशिक्षण और अध्ययन करने की जरूरत है। मुझे इस कर्तव्य से इनकार नहीं करना चाहिए था। बाद में, मैंने आत्म-चिंतन किया। जब यह कर्तव्य मुझे सौंपा गया तो मैं बार-बार इनकार क्यों करना चाहती थी?
एक दिन भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “यदि तुम परमेश्वर के इरादे पूरे करने के लिए सभी चीजों में अपनी सारी निष्ठा देना चाहते हो, तो तुम इसे केवल एक कर्तव्य निभाकर नहीं कर सकते हो; तुम्हें परमेश्वर द्वारा दिए गए हर आदेश को स्वीकार करना चाहिए। चाहे वह तुम्हारी पसंद के अनुसार हो और तुम्हारी रुचियों से मेल खाता हो, या कुछ ऐसा हो जो तुम्हें पसंद नहीं है, पहले कभी नहीं किया हो, या कठिन हो, फिर भी तुम्हें इसे स्वीकार करना चाहिए और समर्पण करना चाहिए। तुम्हें न केवल इसे स्वीकार करना चाहिए, बल्कि तुम्हें सक्रिय रूप से सहयोग भी करना चाहिए, और अनुभव और प्रवेश करते समय इसके बारे में सीखना चाहिए। भले ही तुम्हें कष्ट झेलना पड़े, भले ही तुम थके-माँदे हो, अपमानित हो, या बहिष्कृत कर दिए गए हो, फिर भी तुम्हें अपनी पूरी निष्ठा लगा देनी चाहिए। केवल इस तरह से अभ्यास करके ही तुम सभी चीजों में अपनी पूरी निष्ठा दे पाओगे और परमेश्वर के इरादे पूरे कर पाओगे। तुम्हें इसे अपना व्यक्तिगत कामकाज नहीं, बल्कि कर्तव्य मानना चाहिए जिसे निभाना ही है। लोगों को कर्तव्यों को कैसे समझना चाहिए? उन्हें इसे सृष्टिकर्ता—परमेश्वर—द्वारा किसी व्यक्ति को करने के लिए दी गई चीज समझना चाहिए; लोगों के कर्तव्य ऐसे ही आरंभ होते हैं। परमेश्वर जो आदेश तुम्हें देता है, वह तुम्हारा कर्तव्य होता है, और यह पूरी तरह स्वाभाविक और उचित है कि तुम परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार अपना कर्तव्य निभाओ। अगर तुम्हें यह स्पष्ट है कि यह कर्तव्य परमेश्वर का आदेश है, कि यह तुम पर परमेश्वर के प्रेम और आशीष की वर्षा है, तो तुम परमेश्वर से प्रेम करने वाले हृदय के साथ अपना कर्तव्य स्वीकार कर सकोगे, और तुम अपना कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहोगे और तुम परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सभी मुश्किलों से उबरने में सफल रहोगे। जो लोग खुद को सचमुच परमेश्वर के लिए खपाते हैं, वे परमेश्वर के आदेश को कभी नहीं ठुकराते, वे कभी कोई कर्तव्य नहीं ठुकरा सकते। परमेश्वर तुम्हें चाहे जो भी कर्तव्य सौंपे, उसमें चाहे कितनी भी मुश्किलें क्यों न हों, तुम्हें मना करने के बजाय उसे स्वीकार करना चाहिए। अभ्यास का मार्ग यही है, यानी परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सभी चीजों में सत्य का अभ्यास करना और अपनी पूरी निष्ठा लगा देना। यहाँ केंद्र बिंदु कहाँ है? यह ‘सभी चीजों में’ है। ‘सभी चीजों’ का मतलब जरूरी नहीं कि वे चीजें हों जो तुम्हें पसंद हों या जिनमें तुम अच्छे हो, ये वे चीजें तो बिल्कुल भी नहीं हैं जिनसे तुम वाकिफ हो। कभी-कभी वे ऐसी चीजें होंगी जिनमें तुम कुशल नहीं हो, ऐसी चीजें होंगी जिन्हें तुम्हें सीखने की जरूरत है, ऐसी चीजें जो कठिन हैं, या ऐसी चीजें होंगी जिनमें तुम्हें कष्ट सहना होगा। लेकिन चाहे कोई भी चीज हो, जब तक परमेश्वर ने यह तुम्हें सौंपी है, तुम्हें उससे यह स्वीकारनी चाहिए; तुम्हें इसे स्वीकार कर पूरी निष्ठा के साथ अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए और परमेश्वर के इरादे पूरे करने चाहिए। यही अभ्यास का मार्ग है। चाहे जो हो जाए, तुम्हें हमेशा सत्य खोजना चाहिए और एक बार जब तुम निश्चित हो जाते हो कि किस प्रकार का अभ्यास परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है तो तुम्हें इसी प्रकार अभ्यास करना चाहिए। केवल ऐसा करके ही तुम सत्य का अभ्यास कर रहे होते हो, और केवल इसी तरह से तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि परमेश्वर के इरादे पूरा करने के लिए, हमें परमेश्वर से आने वाला कोई भी कर्तव्य स्वीकार लेना चाहिए। जो कर्तव्य हमें मिलता है, हो सकता है कि हमने उसे पहले कभी न किया हो, इसलिए हमें उसे सीखने के लिए समय और मेहनत लगानी होगी, हमारी देह को और अधिक कष्ट सहने की जरूरत होगी। हमारी कमियों के कारण हमारे मान-सम्मान को ठेस पहुँच सकती है, लेकिन चाहे जो भी हो, हमारे पास एक सरल और आज्ञाकारी दिल होना चाहिए। एक सृजित प्राणी का कर्तव्य के प्रति यही रवैया होना चाहिए। इसकी तुलना में मैंने खुद को देखा, जब मुझे पता चला कि मुझे कलीसिया में अगुआ चुना गया है, मैं जानती थी कि अगुआओं को कलीसिया के विभिन्न कार्यों का जायजा लेना होता है, लेकिन मुझमें हर तरह से कमी थी, इसलिए मुझे चिंता हुई कि अगर कार्य का जायजा लेते समय मेरे सामने कुछ ऐसी समस्याएँ आ गईं जिन्हें मैं सँभालना नहीं जानती और मैं भाई-बहनों को कोई समाधान नहीं बता सकी, तो हर कोई निश्चित रूप से मुझे नीची नजर से देखेगा और कहेगा कि मैं अयोग्य हूँ। इसलिए, मैंने यह कहने के बहाने ढूँढ़े कि मैं कई काम करना नहीं जानती और इस काम के लायक नहीं हूँ। जब यह कर्तव्य मिला, तो मैंने यह नहीं सोचा कि परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील कैसे बनूँ और अपना कर्तव्य कैसे सँभालूँ; इसके बजाय, मैं इससे इनकार करना चाहती थी ताकि लोग मुझे नीची नजर से न देखें। मैंने कलीसिया के कार्य की बिल्कुल भी रक्षा नहीं की। मैं खास तौर से स्वार्थी और नीच थी। परमेश्वर ने मुझे अगुआ का कर्तव्य निभाने देकर मुझ पर अनुग्रह किया। यह सत्य पाने का एक शानदार अवसर था, मुझे एक सक्रिय और सकारात्मक रवैये के साथ अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना चाहिए। जब मैं यह समझ गई, तो मैं अपनी गलत मानसिकता को बदलने के लिए तैयार थी। भले ही मुझमें बहुत सारी कमियाँ और खामियाँ थीं, मैं अपने भाई-बहनों से सीखने को तैयार थी। इसलिए, मैंने पर्यवेक्षक से कहा कि मैं अगुआ बनने के लिए प्रशिक्षण लेने को तैयार हूँ।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “उनमें पहला प्रकार उन लोगों का था जो कार्य की विभिन्न मदों के निरीक्षक बन सकते हैं। उनसे पहली अपेक्षा यह होती है कि उनमें सत्य को समझने की योग्यता और काबिलियत हो। यह न्यूनतम अपेक्षा है। दूसरी अपेक्षा यह है कि वे कोई बोझ उठाएँ—यह अपरिहार्य है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (5))। “कुछ लोग पूछ सकते हैं : ‘पदोन्नत और विकसित किए जाने के लिए प्रतिभाशाली लोगों को जिन कसौटियों पर खरा उतरना चाहिए उनमें सत्य को समझना, सत्य वास्तविकता होना, और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम होना क्यों शामिल नहीं है? ऐसा कैसे है कि इनमें परमेश्वर को जानने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम होना, परमेश्वर के प्रति वफादार होना और एक मानक स्तर का सृजित प्राणी होना शामिल नहीं है? क्या इन चीजों को पीछे छोड़ दिया गया है?’ मुझे बताओ, अगर कोई सत्य समझता है, उसने सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लिया है, वह परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम है, परमेश्वर के प्रति वफादार है, उसमें परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है, और यही नहीं, वह परमेश्वर को जानता है, उसका प्रतिरोध नहीं करेगा, और एक मानक स्तर का सृजित प्राणी है, तो क्या उसे अब भी विकसित करने की जरूरत है? अगर उसने ये सारी चीजें सचमुच हासिल कर ली हैं, तो क्या विकास का परिणाम पहले ही सिद्ध नहीं हो चुका है? (हाँ।) इसलिए, पदोन्नत और विकसित किए जाने वाले प्रतिभाशाली लोगों से जो अपेक्षाएँ होती हैं, उनमें ये कसौटियाँ शामिल नहीं हैं। क्योंकि उम्मीदवारों को इंसानों के बीच से लेकर पदोन्नत और विकसित किया जाता है जो सत्य नहीं समझते और जो भ्रष्ट स्वभावों से भरे हुए हैं, इसलिए इन पदोन्नत और विकसित किए जाने वाले उम्मीदवारों में पहले से सत्य वास्तविकता का होना या उनका पहले ही पूरी तरह से परमेश्वर को समर्पित होना असंभव है, परमेश्वर के प्रति पूरी तरह वफादार होना तो दूर की बात है, और वे परमेश्वर को जानने और परमेश्वर का भय मानने वाला दिल रखने से तो निश्चित रूप से और भी दूर हैं। सभी प्रकार के प्रतिभाशाली लोगों को पदोन्नत और विकसित किए जाने के लिए सबसे पहले जिन कसौटियों पर खरा उतरना चाहिए, वे वही हैं जिनका हमने अभी-अभी जिक्र किया—ये ही सबसे अधिक वास्तविक और विशिष्ट कसौटियाँ हैं” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (5))। “मुझे बताओ, तुम साधारण और सामान्य इंसान कैसे बन सकते हो? कैसे तुम, जैसा कि परमेश्वर कहता है, एक सृजित प्राणी का उचित स्थान ग्रहण कर सकते हो—कैसे तुम अतिमानव या कोई महान हस्ती बनने की कोशिश नहीं कर सकते? एक साधारण और सामान्य इंसान बनने के लिए तुम्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? यह कैसे किया जा सकता है? कौन जवाब देगा? (सबसे पहले, हमें यह स्वीकारना होगा कि हम साधारण लोग हैं, बहुत ही आम लोग। ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जिन्हें हम नहीं समझते, नहीं जानते, जिनकी असलियत नहीं जान पाते। हमें स्वीकारना चाहिए कि हम भ्रष्ट और दोषपूर्ण हैं। इसके बाद, हमें सच्चा दिल रखना होगा और खोजने के लिए बार-बार परमेश्वर के सामने आना होगा।) पहली बात, खुद को यह कहते हुए कोई उपाधि देकर उससे बँधे मत रहो, ‘मैं अगुआ हूँ, मैं टीम का मुखिया हूँ, मैं निरीक्षक हूँ, इस काम को मुझसे बेहतर कोई नहीं जानता, मुझसे ज्यादा इन कौशलों को कोई नहीं समझता।’ अपनी स्व-प्रदत्त उपाधि के फेर में मत पड़ो। जैसे ही तुम ऐसा करते हो, वह तुम्हारे हाथ-पैर बाँध देगी, और तुम जो कहते और करते हो, वह प्रभावित होगा। तुम्हारी सामान्य सोच और निर्णय भी प्रभावित होंगे। तुम्हें इस रुतबे की बेबसी से खुद को आजाद करना होगा। पहली बात, खुद को इस आधिकारिक उपाधि और पद से नीचे ले आओ और एक आम इंसान की जगह खड़े हो जाओ। अगर तुम ऐसा करते हो, तो तुम्हारी मानसिकता कुछ हद तक सामान्य हो जाएगी। तुम्हें यह भी स्वीकार करना और कहना चाहिए, ‘मुझे नहीं पता कि यह कैसे करना है, और मुझे वह भी समझ नहीं आया—मुझे कुछ शोध और अध्ययन करना होगा,’ या ‘मैंने कभी इसका अनुभव नहीं किया है, इसलिए मुझे नहीं पता कि क्या करना है।’ जब तुम वास्तव में जो सोचते हो, उसे कहने और ईमानदारी से बोलने में सक्षम होते हो, तो तुम सामान्य विवेक से युक्त हो जाओगे। दूसरों को तुम्हारा वास्तविक स्वरूप पता चल जाएगा, और इस प्रकार वे तुम्हारे बारे में एक सामान्य दृष्टिकोण रखेंगे, और तुम्हें कोई दिखावा नहीं करना पड़ेगा, न ही तुम पर कोई बड़ा दबाव होगा, इसलिए तुम लोगों के साथ सामान्य रूप से संवाद कर पाओगे। इस तरह जीना निर्बाध और आसान है; जिसे भी जीवन थका देने वाला लगता है, उसने उसे ऐसा खुद बनाया है। ढोंग या दिखावा मत करो। पहली बात, जो कुछ तुम अपने दिल में सोच रहे हो, उसे खुलकर बताओ, अपने सच्चे विचारों के बारे में खुलकर बात करो, ताकि हर कोई उन्हें जान और उन्हें समझ ले। नतीजतन, तुम्हारी चिंताएँ और तुम्हारे और दूसरों के बीच की बाधाएँ और संदेह समाप्त हो जाएँगे। तुम किसी और चीज से बाधित हो। तुम हमेशा खुद को टीम का मुखिया, अगुआ, कार्यकर्ता, या किसी पदवी, हैसियत और प्रतिष्ठा वाला इंसान मानते हो : अगर तुम कहते हो कि तुम कोई चीज नहीं समझते, या कोई काम नहीं कर सकते, तो क्या तुम खुद को बदनाम नहीं कर रहे? जब तुम अपने दिल की ये बेड़ियाँ हटा देते हो, जब तुम खुद को एक अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में सोचना बंद कर देते हो, और जब तुम यह सोचना बंद कर देते हो कि तुम अन्य लोगों से बेहतर हो और महसूस करते हो कि तुम अन्य सभी के समान एक आम इंसान हो, और कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें तुम दूसरों से कमतर हो—जब तुम इस रवैये के साथ सत्य और काम से संबंधित मामलों में संगति करते हो, तो प्रभाव अलग होता है, और परिवेश भी अलग होता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है)। परमेश्वर के वचनों से मैं परमेश्वर के घर में लोगों को बढ़ावा देने और विकसित करने के सिद्धांत समझी। ऐसा नहीं है कि केवल वही लोग अगुआ बनने के लिए पदोन्नत और विकसित किए जा सकते हैं जिनके पास सत्य वास्तविकता है या जो सभी तरह के कार्य कर सकते हैं। बल्कि अगर तुम्हारे पास सत्य समझने की क्षमता है, तुममें अच्छी मानवता है, तुम अपना कर्तव्य निभाने में बोझ उठाते हो और अनुभव न होने पर भी सीखने को तैयार हो, तो तुम्हें विकसित किया जा सकता है। इसके अलावा, अगर तुम्हें अगुआ चुना जाता है, तो तुम्हें खुद को ऊँचे आसन पर नहीं रखना चाहिए, तुम्हें खुद को सही स्थिति में रखना चाहिए और यह स्वीकारना चाहिए कि तुम सिर्फ एक साधारण इंसान हो और चाहे कोई भी काम हो, तुम उसे करने के लिए पैदा नहीं हुई थी; जब तुम्हारे सामने ऐसी चीजें आएँ जिन्हें तुम करना नहीं जानती या समझ नहीं पाती, तो तुम अपने भाई-बहनों से मदद माँग सकती हो। मुझे याद आया कि जब मैंने पहली बार नवागंतुकों को सींचने का प्रशिक्षण शुरू किया था, तो मुझे नहीं पता था कि यह काम कैसे करना है, लेकिन उस समय मुझे एहसास हुआ कि नवागंतुकों को सींचना समस्याओं को हल करने के लिए सत्य का उपयोग करने का प्रशिक्षण है, जो मेरे जीवन प्रवेश के लिए फायदेमंद था, इसलिए मेरे पास अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करने की प्रेरणा थी। जब मैंने अपने भाई-बहनों के साथ थोड़ा-थोड़ा करके प्रशिक्षण लिया, तो कुछ समय बाद मैं भी कुछ समस्याओं को हल करने में सक्षम हो गई। मुझे एहसास हुआ कि चाहे कोई भी काम हो, ऐसा नहीं है कि मैं उसे तभी कर सकती हूँ जब मैं उसे करना जानती हूँ और समझती हूँ; मुझे हमेशा अध्ययन और प्रशिक्षण की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। लेकिन, मैं अपने घमंडी स्वभाव के वश में थी और सोचती थी कि अगर मैं कलीसिया में अगुआ बनी, तो मुझे दूसरों से ज्यादा समझना होगा और दूसरों से बेहतर काम करना होगा। केवल इसी तरह से मैं दूसरे लोगों के काम का जायजा लेने के योग्य होऊँगी। मैंने यह भी सोचा कि अगर मैं खुद यह नहीं कर सकती या नहीं समझती, तो दूसरे लोग निश्चित रूप से मुझे नीची नजर से देखेंगे, इसलिए मैंने कर्तव्य से इनकार कर दिया। मुझे अपनी असली क्षमता का पता नहीं था। मुझमें विवेक की बहुत कमी थी! वास्तव में, हमसे परमेश्वर की अपेक्षाएँ ज्यादा नहीं हैं—बस साधारण इंसान बनना और शांति से अपनी कमियों का सामना करना, जो बातें हम नहीं समझते, उनके बारे में भाई-बहनों से सक्रिय रूप से मदद माँगना और अपनी कमियों की भरपाई के लिए सत्य खोजना। अगर हम इस तरह धीरे-धीरे प्रशिक्षण लें, तो हमारी प्रगति तेज होगी। यह समझने के बाद, मैं इस भ्रामक दृष्टिकोण को छोड़ने के लिए तैयार थी कि “मैं एक अगुआ हूँ, मुझे दूसरों से बेहतर होना चाहिए और दूसरों से ज्यादा समझना चाहिए” और एक ईमानदार इंसान बनने का अभ्यास किया। मैंने अपने दिल की गहराई से अगुआ का कर्तव्य स्वीकार कर लिया।
शुरू में, मैं केवल उस कलीसिया के लिए जिम्मेदार थी जिसमें मैं थी। मैं कलीसिया के कर्मियों और कार्य से अपेक्षाकृत परिचित थी, लेकिन कुछ ही समय बाद, पर्यवेक्षक ने मुझे कुछ और कलीसियाओं के काम की जिम्मेदारी लेने के लिए कहा। मैंने मन में सोचा, “इन कलीसियाओं में भाई-बहनों की कार्य क्षमता बहुत अच्छी है। वे मुझसे ज्यादा समय से परमेश्वर में विश्वास रखा है। मैं उनके जितनी अच्छी नहीं हूँ। अगर उनके काम का जायजा लेते समय मैं बहुत सी चीजें न कर पाऊँ, तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे मुझे नीची नजर से देखेंगे?” मैंने पर्यवेक्षक को संदेश भेजा कि मैं इसके लायक नहीं हूँ और यह नहीं कर सकती। पर्यवेक्षक ने मुझसे पहले प्रशिक्षण लेकर देखने को कहा। बाद में मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया जो मैंने पहले पढ़ा था : “अपने कर्तव्य को निभाने वाले सभी लोगों के लिए, फिर चाहे सत्य को लेकर उनकी समझ कितनी भी उथली या गहरी क्यों न हो, सत्य वास्तविकता में प्रवेश के अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि हर काम में परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचा जाए, और अपनी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं, व्यक्तिगत मंशाओं, अभिप्रेरणाओं, घमंड और हैसियत का त्याग किया जाए। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—कम से कम इतना तो व्यक्ति को करना ही चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने वाला कोई व्यक्ति अगर इतना भी नहीं कर सकता, तो उस व्यक्ति को कर्तव्य निभाने वाला कैसे कहा जा सकता है? यह अपने कर्तव्य को पूरा करना नहीं है। तुम्हें पहले परमेश्वर के घर के हितों के बारे में सोचना चाहिए, परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना चाहिए, और कलीसिया के कार्य का ध्यान रखना चाहिए। इन चीजों को पहले स्थान पर रखना चाहिए; उसके बाद ही तुम अपनी हैसियत की स्थिरता या दूसरे लोग तुम्हारे बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता कर सकते हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि जब तुम इसे दो चरणों में बाँट देते हो और कुछ समझौते कर लेते हो तो यह थोड़ा आसान हो जाता है? यदि तुम कुछ समय के लिए इस तरह अभ्यास करते हो, तो तुम यह अनुभव करने लगोगे कि परमेश्वर को संतुष्ट करना इतना भी मुश्किल काम नहीं है। इसके अलावा, तुम्हें अपनी जिम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और कर्तव्य पूरे करने चाहिए, और अपनी स्वार्थी इच्छाओं, मंशाओं और उद्देश्यों को दूर रखना चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता दिखानी चाहिए, और परमेश्वर के घर के हितों को, कलीसिया के कार्य को और जो कर्तव्य तुम्हें निभाना चाहिए, उसे पहले स्थान पर रखना चाहिए। कुछ समय तक ऐसे अनुभव के बाद, तुम पाओगे कि यह आचरण का एक अच्छा तरीका है। यह सरलता और ईमानदारी से जीना और नीच और भ्रष्ट व्यक्ति न होना है, यह घृणित, नीच और निकम्मा होने की बजाय न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है। तुम पाओगे कि किसी व्यक्ति को ऐसे ही कार्य करना चाहिए और ऐसी ही छवि को जीना चाहिए। धीरे-धीरे, अपने हितों को तुष्ट करने की तुम्हारी इच्छा घटती चली जाएगी” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मैं समझ गई कि अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करने के लिए मुझे अपने मान-सम्मान और रुतबे को छोड़ना होगा और हर बात में परमेश्वर के घर के हितों को प्राथमिकता देनी होगी। केवल इसी से परमेश्वर संतुष्ट होगा। यह कर्तव्य मिलना परमेश्वर द्वारा मुझे ऊँचा उठाना था, जो मुझे और अधिक सत्य खोजने और सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित कर रहा था। मैंने सोचा कि म्यांमार में स्थिति कितनी तनावपूर्ण है, जहाँ लगातार युद्ध हो रहा है। मुझे नहीं पता था कि मैं कब तक अपना कर्तव्य कर पाऊँगी। अब जब मुझे कर्तव्य करने का मौका मिला है, तो मुझे इसे सँजोकर रखना चाहिए, मैं सिर्फ इसलिए इससे इनकार नहीं कर सकती क्योंकि मुझे चिंता है कि दूसरे मेरे बारे में क्या सोचेंगे। चाहे आगे मेरे कर्तव्य में कोई भी समस्या उजागर हो, मुझे शांति से अपनी कमियों का सामना करना चाहिए। जब मैंने इस तरह से सोचा, तो मेरे दिल को थोड़ी और सहजता महसूस हुई। एक दिन, मैं अपने सहयोगी भाई और बहन से मिली और आने वाले काम पर चर्चा की। उस समय मैंने उन दोनों से खुलकर बात की और कहा, “मुझमें बहुत सी कमियाँ हैं और मैं बहुत से काम नहीं कर सकती, इसलिए हमें सहयोग करने की जरूरत है।” जब मैंने यह कहने के लिए मुँह खोला, तो मेरा चेहरा शर्म से लाल हो गया। भले ही मुझे लगा कि मेरा थोड़ा मान-सम्मान चला गया है, लेकिन अपनी कमियों को स्वीकारने और दिल से बात करने के बाद मेरे दिल को बहुत सहजता महसूस हुई। मेरे भाई-बहन ने मुझे नीची नजर से नहीं देखा, वे काम को अच्छी तरह से करने के लिए मेरे साथ मिलकर सहयोग करने को तैयार थे।
एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और अपने कर्तव्य से इनकार करने के मूल कारण के बारे में कुछ समझ हासिल की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “सत्य की खोज करने के बजाय, अधिकतर लोगों के अपने तुच्छ एजेंडे होते हैं। अपने हित, इज्जत और दूसरे लोगों के मन में जो स्थान या प्रतिष्ठा वे रखते हैं, उनके लिए बहुत महत्व रखते हैं। वे केवल इन्हीं चीजों को सँजोते हैं। वे इन चीजों पर मजबूत पकड़ बनाए रखते हैं और इन्हें ही बस अपना जीवन मानते हैं। और परमेश्वर उन्हें कैसे देखता या उनसे कैसे पेश आता है, इसका महत्व उनके लिए गौण होता है; फिलहाल वे उसे नजरअंदाज कर देते हैं; फिलहाल वे केवल इस बात पर विचार करते हैं कि क्या वे समूह के मुखिया हैं, क्या दूसरे लोग उनकी प्रशंसा करते हैं और क्या उनकी बात में वजन है। उनकी पहली चिंता उस पद पर कब्जा जमाना है। जब वे किसी समूह में होते हैं, तो प्रायः सभी लोग इसी प्रकार की प्रतिष्ठा, इसी प्रकार के अवसर तलाशते हैं। अगर वे अत्यधिक प्रतिभाशाली होते हैं, तब तो शीर्षस्थ होना चाहते ही हैं, लेकिन अगर वे औसत क्षमता के भी होते हैं, तो भी वे समूह में उच्च पद पर कब्जा रखना चाहते हैं; और अगर वे औसत क्षमता और योग्यताओं के होने के कारण समूह में निम्न पद धारण करते हैं, तो भी वे यह चाहते हैं कि दूसरे उनका आदर करें, वे नहीं चाहते कि दूसरे उन्हें नीची निगाह से देखें। इन लोगों की इज्जत और गरिमा ही होती है, जहाँ वे सीमा-रेखा खींचते हैं : उन्हें इन चीजों को कसकर पकड़ना होता है। भले ही उनमें कोई सत्यनिष्ठा न हो, और न ही परमेश्वर की मान्यता या अनुमोदन हो, मगर वे उस आदर, हैसियत और सम्मान को बिल्कुल नहीं खो सकते जिसके लिए उन्होंने दूसरों के बीच कोशिश की है—जो शैतान का स्वभाव है। मगर लोग इसके प्रति जागरूक नहीं होते। उनका विश्वास है कि उन्हें इस इज्जत की रद्दी से अंत तक चिपके रहना चाहिए। वे नहीं जानते कि ये बेकार और सतही चीजें पूरी तरह से त्यागकर और एक तरफ रखकर ही वे असली इंसान बन पाएंगे। यदि कोई व्यक्ति जीवन समझकर इन त्यागे जाने योग्य चीजों को बचाता है तो उसका जीवन बर्बाद हो जाता है। वे नहीं जानते कि दाँव पर क्या लगा है। इसीलिए, जब वे कार्य करते हैं तो हमेशा कुछ छिपा लेते हैं, वे हमेशा अपनी इज्जत और हैसियत बचाने की कोशिश करते हैं, वे इन्हें पहले रखते हैं, वे केवल अपने झूठे बचाव के लिए, अपने उद्देश्यों के लिए बोलते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं, अपने लिए करते हैं। वे हर चमकने वाली चीज के पीछे भागते हैं, जिससे सभी को पता चल जाता है कि वे उसका हिस्सा थे। इसका वास्तव में उनसे कोई लेना-देना नहीं होता, लेकिन वे कभी पृष्ठभूमि में नहीं रहना चाहते, वे हमेशा अन्य लोगों द्वारा नीची निगाह से देखे जाने से डरते हैं, वे हमेशा दूसरे लोगों द्वारा यह कहे जाने से डरते हैं कि वे कुछ नहीं हैं, कि वे कुछ भी करने में असमर्थ हैं, कि उनके पास कोई कौशल नहीं है। क्या यह सब उनके शैतानी स्वभावों द्वारा निर्देशित नहीं है? जब तुम इज्जत और हैसियत जैसी चीजें छोड़ने में सक्षम हो जाते हो, तो तुम अपने भीतर अधिक निश्चिंत और अधिक मुक्त हो पाते हो; तुम ईमानदार होने की राह पर कदम रख देते हो। लेकिन कई लोगों के लिए इसे हासिल करना आसान नहीं होता। मिसाल के लिए, जब कैमरा दिखता है, तो लोग आगे आने के लिए धक्कामुक्की करने लगते हैं; वे कैमरे में दिखना पसंद करते हैं, जितनी ज्यादा कवरेज, उतनी बेहतर; वे पर्याप्त कवरेज न मिलने से डरते हैं और उसे प्राप्त करने का अवसर पाने के लिए हर कीमत चुकाते हैं। क्या यह सब उनके शैतानी स्वभावों द्वारा निर्देशित नहीं है? ये उनके शैतानी स्वभाव हैं। तो तुम्हें कवरेज मिल जाती है—फिर क्या? लोग तुम्हारे बारे में अच्छी राय रखते हैं—तो क्या? वे तुम्हारी आराधना करते हैं—तो क्या? क्या इनमें से कोई भी चीज साबित करती है कि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है? इसमें से किसी भी चीज का कोई मूल्य नहीं है। जब तुम इन चीजों पर काबू पा लेते हो—जब तुम इनके प्रति उदासीन हो जाते हो और इन्हें महत्वपूर्ण नहीं समझते, जब इज्जत, अभिमान, हैसियत, और लोगों की सराहना तुम्हारे विचारों और व्यवहार को अब नियंत्रित नहीं कर पाते, तुम्हारे कर्तव्य-पालन के तरीके को तो बिल्कुल भी नियंत्रित नहीं करते—तब तुम्हारा कर्तव्य-पालन और भी प्रभावी हो जाता है, और भी शुद्ध हो जाता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं समझ गई कि सभी लोग रुतबे को सँजोकर रखते हैं और वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें हर बात में अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे का ध्यान रखते हैं। मुझे शुरुआत की बात याद आई, जब मुझे कलीसिया में अगुआ चुना गया था। क्योंकि मैंने अभी-अभी प्रशिक्षण लेना शुरू किया था और मुझमें बहुत सी कमियाँ थीं, मुझे डर था कि भाई-बहनों के काम का जायजा लेते समय, अगर मैं बहुत सी चीजें करना नहीं जानती, तो मैं सचमुच अयोग्य दिखूँगी। ताकि लोग मुझे नीची नजर से न देखें, इसलिए मैंने बार-बार अपने कर्तव्य से इनकार कर दिया। मैं अगुआ बनने का प्रशिक्षण ले सकी, यह परमेश्वर द्वारा मुझे ऊँचा उठाना था। परमेश्वर को उम्मीद थी कि मैं सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चल सकूँगी और धीरे-धीरे अपने भ्रष्ट स्वभावों को सुलझा सकूँगी। लेकिन, मैंने इस कृपा की सराहना नहीं की और अपने मान-सम्मान को बचाने के लिए अपने कर्तव्य को टालने की कोशिश करती रही। यह परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह था। इन वर्षों में, मैंने परमेश्वर के इतने सारे वचनों के सिंचन और आपूर्ति का आनंद लिया था, लेकिन जब कलीसिया के कार्य को मेरे सहयोग की आवश्यकता हुई, तो मैंने यह नहीं सोचा कि अपनी जिम्मेदारियों को कैसे पूरा करूँ या परमेश्वर के अनुग्रह का मूल्य कैसे चुकाऊँ। मुझमें सचमुच मानवता की बहुत कमी थी! असल में, जब से मैं अगुआ बनी, मैंने धीरे-धीरे भेद पहचानने के क्षेत्र में खुद को कुछ सत्यों से लैस किया और समस्याओं को हल करने के लिए सत्य का उपयोग करने का प्रशिक्षण लिया। एक अगुआ के रूप में, मैंने बहुत सी चीजों का अनुभव किया और मुझे सत्य प्राप्त करने के कई अवसर मिले। ये सभी वास्तविक लाभ थे! अगर मैं अगुआ के रूप में सेवा नहीं करती और दूसरों के काम का जायजा नहीं लेती, तो मेरी अपनी कमियाँ उजागर नहीं होतीं और मेरा मान-सम्मान बच जाता। लेकिन, अंततः मैं सत्य प्राप्त नहीं कर पाती और मेरे स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आता। क्या अंत में सब कुछ व्यर्थ नहीं हो जाता? अंत में, मैं केवल उद्धार का मौका खो देती और खुद को बर्बाद कर लेती। यह सोचने में डरावना है। बाद में, मैं मान-सम्मान से ज्यादा बाधित हुए बिना सामान्य रूप से अपना कर्तव्य कर सकी।
एक बार, मैं एक कलीसिया में उनकी एक सभा में शामिल होने गई। एक बहन ने काम के बारे में बातचीत में स्पष्ट विचार व्यक्त किए और मैं उनमें कुछ जोड़ना चाहती थी। लेकिन, क्योंकि मुझे लगा कि मेरी बहन ने बहुत अच्छी तरह और बहुत व्यापक रूप से बात की है, मैंने कुछ नहीं कहा। मैंने मन में सोचा, “अगर मैं यहाँ आकर थोड़ी सलाह नहीं देती, तो मेरे भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे यह नहीं सोचेंगे कि मैं सचमुच किसी काम की नहीं हूँ और मुझमें कोई कार्य क्षमता नहीं है?” यह सोचते ही मुझे लगा कि मेरा थोड़ा मान-सम्मान चला गया है और सोचा कि मेरे भाई-बहनों ने निश्चित रूप से मेरी असलियत जान ली है। इसलिए मैं अब उनकी सभाओं में शामिल नहीं होना चाहती थी। उन दिनों, मैंने उनके काम का जायजा नहीं लिया और न ही उसके बारे में जाना। उस समय, मुझे कुछ हद तक आत्म-ग्लानि महसूस हुई, “मैंने काम का जायजा इसलिए नहीं लिया क्योंकि मुझे डर था कि भाई-बहन मुझे नीची नजर से देखेंगे। क्या यह कर्तव्य की उपेक्षा नहीं है? अगर मैं लंबे समय तक काम का जायजा नहीं लेती, तो मैं निश्चित रूप से यह कर्तव्य खो दूँगी और सत्य प्राप्त करने के कई अवसर खो दूँगी। मैं लगातार यह नहीं सोच सकती कि दूसरे लोग मेरे बारे में क्या सोचते हैं। लोग मुझे कितना भी सम्मान दें, इसका कोई फायदा नहीं है। मुख्य बात यह है कि परमेश्वर मेरे बारे में क्या सोचता है और यही सबसे महत्वपूर्ण है।” इसलिए, मैंने अपने मान-सम्मान की परवाह करना छोड़ दिया और काम का जायजा लेने चली गई। बाद में, मैंने अपने लिए एक योजना बनाई, जिसमें यह बताया कि मैं एक सप्ताह में किन कलीसियाओं का और काम के किन पहलुओं का जायजा लूँगी। शुरू में, मैं बहुत घबराई हुई थी। मुझे डर था कि मैं खुद को अच्छी तरह से व्यक्त नहीं कर पाऊँगी और मेरे भाई-बहन मुझे नीची नजर से देखेंगे। जब भी ऐसा होता, मैं शांत हो जाती और परमेश्वर से प्रार्थना करती, कहती कि वह मुझे मान-सम्मान से बाधित होने से बचाए। जब मैंने अपनी मानसिकता को ठीक किया, तो मैं अपने दिल को शांत कर सकी और सामान्य रूप से काम का जायजा ले सकी। इसके अलावा, काम का जायजा लेते हुए मुझे पता चला कि सभी भाई-बहनों में कुछ खूबियाँ हैं और इनके माध्यम से मैं अपनी कमजोरियों की भरपाई कर सकी। कभी-कभी, अगर काम का जायजा लेते समय मेरे सामने कोई ऐसी समस्या आती जिसे मैं भेद नहीं पाती, तो मैं सीधे उनसे कहती, “मैं अभी भी इस समस्या को भेद नहीं पा रही हूँ, इसलिए मैं बाद में खोजूँगी।” इस तरह से अभ्यास करने से, मेरे दिल को बहुत सहजता महसूस हुई। मैं जो यह थोड़ी समझ हासिल कर सकी और यह छोटा सा बदलाव ला सकी, यह परमेश्वर के वचनों से प्राप्त एक नतीजा है। परमेश्वर का धन्यवाद!