46. अच्छे दोस्तों की कमियों के बारे में बोलने से दोस्ती लंबी और अच्छी होती है

ज़ियान, चीन

2023 में, मैं ये शुन के साथ मिलकर पाठ-आधारित कर्तव्य कर रही थी। ये शुन की कार्यक्षमता मुझसे बेहतर है, और वह ज्यादा कुशल भी है। आम तौर पर, अगर मेरी कोई भी दशा होती, तो वह मेरी मदद करने के लिए परमेश्वर के वचनों पर संगति करती थी। हमारी आपस में बहुत अच्छी बनती थी। फरवरी 2024 में, एक सभा के दौरान, ये शुन ने परमेश्वर के वचनों के आधार पर अपने घमंडी स्वभाव को पहचाना, लेकिन उसकी समझ बहुत सतही थी। उसके बाद, लान शिन ने कर्तव्य निभाने के दौरान ये शुन के कुछ घमंडी और दूसरों को बेबस करने वाले व्यवहार की ओर इशारा किया। उसने कहा कि आम तौर पर जब ये शुन उसकी समस्याएँ बताती थी, तो उसके लहजे में कुछ तिरस्कार होता था, जिससे वह बहुत बेबस महसूस करती थी। और कुछ समय तो उसे ऐसा लगा कि उसकी काबिलियत खराब है और वह उस कर्तव्य के लायक नहीं है, तो ये शुन ने उससे तिरस्कारपूर्वक कहा कि अगर वो नहीं कर सकती तो इस्तीफा दे दे, यह सुनकर वह बहुत निराश हो गई। जब लान शिन बात कर रही थी, तो ये शुन का चेहरा धीरे-धीरे उतर गया। जब लान शिन ने अपनी संगति पूरी की, ये शुन रोने लगी, बोली कि वह दूसरों को बेबस करती और बुरा काम करती है, और उसका मन उदास था। मुझे लगा कि लान शिन द्वारा बताई गई समस्याओं को ये शुन ने पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया था, लेकिन फिर मैंने यह भी सोचा कि ये शुन अपनी इज़्ज़त को बहुत महत्व देती है, और इसलिए यह सामान्य था कि जब लान शिन ने उसकी समस्याएँ बताईं तो वह उन्हें तुरंत स्वीकार नहीं कर पाई। थोड़ी देर बाद वह कुछ बेहतर हो जाएगी, और इसलिए मैंने और कुछ नहीं कहा। खाना खाते समय, लान शिन ने ये शुन से बात करने के लिए कई बार कोशिश की, लेकिन ये शुन ने उसे नज़रअंदाज़ कर दिया। माहौल कुछ अजीब सा हो गया। मैं और ये शुन एक ही दफ्तर में एक साथ काम करते थे, और दोपहर के भोजन के बाद, लान शिन कंप्यूटर में मेरी मदद करने के लिए हमारे दफ्तर आई। तब ये शुन बाहर चली गई, मानो वह जानबूझकर लान शिन से बच रही हो। पहले, वह और लान शिन अक्सर एक साथ बातें करते और हँसते थे, लेकिन अब, ऐसा लग रहा था जैसे वह कोई और ही इंसान हो। मुझे एहसास हुआ कि ये शुन लान शिन के प्रति पूर्वाग्रह से भर गई थी। मैं उसकी दशा के बारे में पूछना चाहती थी, और यह बताना चाहती थी कि उसका रवैया सत्य को स्वीकार न करने वाला है और इससे लोग बेबस महसूस करेंगे। लेकिन फिर मैंने सोचा : “लान शिन ने अभी-अभी उसकी समस्याएँ बताई हैं, लेकिन उसने अभी तक अपनी दशा को ठीक नहीं किया है। अगर मैं अब जाकर उसकी आलोचना करूँ, तो क्या वह और भी नकारात्मक हो जाएगी? अगर बाद में वह मेरे बारे में गलत राय बना ले और मुझे नज़रअंदाज़ करे, तो मैं क्या करूँगी? हम एक ही दफ्तर में काम करते हैं और हर समय एक-दूसरे को देखते हैं। अगर हमारे रिश्ते में खटास आ गई, तो भविष्य में साथ रहना कितना मुश्किल हो जाएगा। बाद में, अगर मेरी कोई दशा हुई या काम में कोई समस्या आई, तो अगर वह मेरी मदद नहीं करेगी तो मैं क्या करूँगी? क्या मैं खुद को ही शर्मिंदा नहीं करूँगी?” यह सोचकर, मैं जो कहने वाली थी उसे मन में ही रखा। लेकिन, मैं साफ देख सकती थी कि ये शुन की दशा अच्छी नहीं थी, और इस बारे में संगति न करने के लिए मुझे आत्म-ग्लानि महसूस हुई। तब मैंने हिम्मत जुटाकर पूछा : “लगता है तुम्हारी दशा कुछ ठीक नहीं है। क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि लान शिन द्वारा बताई गई समस्याओं को तुरंत स्वीकार करना मुश्किल हो रहा है? अगर तुम्हारे मन में कोई भी विचार हैं, तो तुम खुलकर संगति कर सकती हो। उन्हें अपने अंदर दबाकर मत रखो!” ये शुन ने धीमी आवाज़ में कहा, “मैं ठीक हूँ। मैं इस पर विचार कर रही हूँ।” और फिर कुछ नहीं बोली। यह देखकर कि वह खुलकर संगति नहीं करना चाहती, मुझे अचानक समझ नहीं आया कि क्या कहूँ। मुझे चिंता थी कि अगर मैंने कुछ और कहा, तो वह मुझसे चिढ़ जाएगी और मेरे बारे में गलत राय बना लेगी। इसलिए, मैंने बस प्रोत्साहन के कुछ शब्द कहे और जल्दबाजी में बातचीत खत्म कर दी।

बाद में, ये शुन लगातार दो दिनों तक चुपचाप खाने और काम करने में लगी रही। जब हम उससे कुछ पूछते थे, तो वह बस दो-चार शब्द बोल देती थी, वरना वह बिल्कुल भी बात नहीं करती थी। पहले, जब भी हमारे काम में कोई ऐसी समस्या होती थी जिसकी असलियत मैं जान नहीं पाती थी, तो ये शुन सक्रिय रूप से अपनी राय व्यक्त करती और कुछ सुझाव देती थी। अगर मेरे कार्य संबंधी पत्रों में कोई ऐसी जगह होती जहाँ मेरी संगति स्पष्ट नहीं होती, तो वह उन्हें बेहतर बनाने में मेरी मदद करती थी। लेकिन, इन दो दिनों के दौरान, जब हमारे काम में समस्याएँ आईं, तो ये शुन ने संगति भी नहीं की। मैं उन समस्याओं को सामने रखकर उन पर चर्चा करना चाहती थी, लेकिन जब मैंने देखा कि ये शुन का मिजाज ठीक नहीं है, तो मुझे लगा कि काम पर चर्चा करने से कोई नतीजा निकलना मुश्किल होगा और इसलिए मैंने उनका जिक्र नहीं किया। नतीजतन, काम प्रभावित हुआ। बाद में, मैं ये शुन के व्यवहार को उजागर करना चाहती थी ताकि वह अपनी समस्याओं को समझ सके। लेकिन फिर मैंने सोचा कि लान शिन ने तो बस उसके घमंडी स्वभाव का ज़िक्र ही किया था, और नतीजा ये हुआ कि ये शुन की दशा इतनी खराब हो गई थी। अगर मैं फिर से यह कहूँ कि वह सत्य को स्वीकार नहीं करती, तो क्या वह मेरे प्रति पूर्वाग्रह से नहीं भर जाएगी, और कर्तव्य करते हुए उसके दिल में एक दीवार नहीं होगी? तब हमारे लिए साथ रहना कितना मुश्किल हो जाएगा? इसलिए, मैंने ये शुन से चतुराई से कहा : “अगर तुम्हारे मन में कोई विचार है, तो तुम उनके बारे में बात कर सकती हो। अगर तुम इसी तरह कभी कुछ नहीं बोलोगी, तो तुम लोगों को बेबस कर दोगी। परमेश्वर ने इस तरह का माहौल इसलिए बनाया है ताकि हम अपने भ्रष्ट स्वभावों पर विचार कर सकें। यह हमारे जीवन प्रवेश के लिए फायदेमंद है।” उसने धीमी आवाज़ में कहा : “मैं धीरे-धीरे इसे समझने की कोशिश कर रही हूँ। मैं ठीक हूँ। ऐसे ही ठीक है। अगर मैं भविष्य में कम बोलूँगी, तो किसी को बेबस महसूस नहीं होगा।” जब मैंने देखा कि ये शुन अभी भी गुस्से में बात कर रही है, तो मैं फिर से झिझक गई। “अगर मैं उसकी समस्याएँ बताऊँ और वह उन्हें स्वीकार न करे, तो क्या वह मुझे भी नज़रअंदाज़ करेगी? छोड़ो, जब वह खुलकर संगति करने को तैयार होगी, तब तक इंतज़ार करते हैं।” बाद में, जब हमने एक साथ काम पर चर्चा की, तब भी ये शुन ने ज्यादा कुछ नहीं कहा। लान शिन ने ये शुन का व्यवहार देखा, और उसे समझ नहीं आया कि क्या करे। उसे लगा कि यह उसकी गलती है, और उसने बहुत आत्म-ग्लानि महसूस की। उसकी दशा भी कुछ हताश थी। उन दो दिनों में, मैं बस इसी मामले के बारे में सोचती रही। अपना कर्तव्य करते समय भी मेरा मन शांत नहीं हो पा रहा था। मैंने अपनी दशा के बारे में बताने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की ताकि वह मेरा मार्गदर्शन कर सके और मैं खुद को समझ सकूँ।

बाद में, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “ज़्यादातर लोग सत्य का अनुसरण और अभ्यास करना चाहते हैं, लेकिन अधिकतर समय उनके पास ऐसा करने का केवल संकल्प और इच्छा ही होती है; सत्य उनका जीवन नहीं बना है। इसके परिणामस्वरूप जब लोगों का बुरी शक्तियों से वास्ता पड़ता है या ऐसे राक्षसी लोगों या बुरे लोगों से उनका सामना होता है जो बुरे कामों को अंजाम देते हैं, या जब ऐसे नकली अगुआओं और मसीह विरोधियों से उनका सामना होता है जो अपना काम इस तरह से करते हैं जिससे सिद्धांतों का उल्लंघन होता है—इस तरह कलीसिया के कार्य में बाधा पड़ती है, और परमेश्वर के चुने लोगों को हानि पहुँचती है—वे डटे रहने और खुलकर बोलने का साहस खो देते हैं। जब तुम्हारे अंदर कोई साहस नहीं होता, इसका क्या अर्थ है? क्या इसका अर्थ यह है कि तुम डरपोक हो या कुछ भी बोल पाने में अक्षम हो? या फिर यह कि तुम अच्छी तरह नहीं समझते और इसलिए तुम में अपनी बात रखने का आत्मविश्वास नहीं है? दोनों में से कुछ नहीं; यह मुख्य रूप से भ्रष्ट स्वभावों द्वारा बेबस होने का परिणाम है। तुम्हारे द्वारा प्रदर्शित किए जाने वाले भ्रष्ट स्वभावों में से एक है कपटी स्वभाव; जब तुम्हारे साथ कुछ होता है, तो पहली चीज जो तुम सोचते हो वह है तुम्हारे हित, पहली चीज जिस पर तुम विचार करते हो वह है नतीजे, कि यह तुम्हारे लिए फायदेमंद होगा या नहीं। यह एक कपटी स्वभाव है, है न? दूसरा है स्वार्थी और नीच स्वभाव। तुम सोचते हो, ‘परमेश्वर के घर के हितों के नुकसान से मेरा क्या लेना-देना? मैं कोई अगुआ नहीं हूँ, तो मुझे इसकी परवाह क्यों करनी चाहिए? इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। यह मेरी जिम्मेदारी नहीं है।’ ऐसे विचार और शब्द तुम सचेतन रूप से नहीं सोचते, बल्कि ये तुम्हारे अवचेतन द्वारा उत्पन्न किए जाते हैं—जो वह भ्रष्ट स्वभाव है जो तब दिखता है जब लोग किसी समस्या का सामना करते हैं। ऐसे भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारे सोचने के तरीके को नियंत्रित करते हैं, वे तुम्हारे हाथ-पैर बाँध देते हैं और तुम जो कहते हो उसे नियंत्रित करते हैं। अपने दिल में, तुम खड़े होकर बोलना चाहते हो, लेकिन तुम्हें आशंकाएँ होती हैं, और जब तुम बोलते भी हो, तो इधर-उधर की हाँकते हो, और बात बदलने की गुंजाइश छोड़ देते हो, या फिर टाल-मटोल करते हो और सत्य नहीं बताते। स्पष्टदर्शी लोग इसे देख सकते हैं; वास्तव में, तुम अपने दिल में जानते हो कि तुमने वह सब नहीं कहा जो तुम्हें कहना चाहिए था, कि तुमने जो कहा उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा, कि तुम सिर्फ बेमन से कह रहे थे, और समस्या हल नहीं हुई है। तुमने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई है, फिर भी तुम खुल्लमखुल्ला कहते हो कि तुमने अपनी जिम्मेदारी निभा दी है, या जो कुछ हो रहा था वह तुम्हारे लिए अस्पष्ट था। क्या यह सच है? और क्या तुम सचमुच यही सोचते हो? क्या तब तुम पूरी तरह से अपने शैतानी स्वभाव के नियंत्रण में नहीं हो? भले ही तुम जो कुछ कहते हो उसका कुछ हिस्सा तथ्यों के अनुरूप हो, लेकिन मुख्य स्थानों और महत्वपूर्ण मुद्दों पर तुम झूठ बोलते हो और लोगों को धोखा देते हो, जो साबित करता है कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो झूठ बोलता है, और जो अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार जीता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर उजागर करता है कि कई बार लोग सत्य का अभ्यास करने को तैयार तो होते हैं, लेकिन अपने स्वार्थी और कपटी भ्रष्ट स्वभावों के वश में होने के कारण, वे अपने हितों के बारे में बहुत ज्यादा सोचते हैं, और भले ही वे भाई-बहनों की समस्याओं को साफ-साफ देखते हैं, फिर भी वे उनकी ओर इशारा करने या उन्हें उजागर करने की हिम्मत नहीं करते। अगर वे इशारा करते भी हैं, तो घुमा-फिराकर करते हैं, आधी बात कहकर आधी छोड़ देते हैं और परमेश्वर के घर के हितों का ध्यान नहीं रखते। मेरी दशा बिल्कुल यही थी। मैंने देखा था कि ये शुन ने लान शिन का मार्गदर्शन स्वीकार नहीं किया था, और जब लान शिन ने उससे बात की तो उसने उसे नज़रअंदाज़ कर दिया, जिससे लान शिन बेबस महसूस करने लगी। मुझे समय पर संगति करके मदद करनी चाहिए थी। लेकिन, मुझे चिंता थी कि अगर ऐसे नाजुक मौके पर मैंने यह इशारा किया कि वह सत्य को स्वीकार नहीं करती, तो वह इसे तुरंत स्वीकार नहीं कर पाएगी और मेरे बारे में गलत राय बना लेगी, और इसलिए बाद में अगर मुझे कोई कठिनाई हुई तो वह मेरी मदद नहीं करेगी। इसलिए, मैंने बस चतुराई से उसकी दशा के बारे में पूछा था। जब मैंने देखा कि वह खुलकर बात करने को तैयार नहीं है, तो मुझे फिर से चिंता होने लगी कि उसकी समस्याओं को उजागर करने से वह मेरे प्रति चिढ़ जाएगी, और इसलिए मैं कहने वाली बात को निगल गई थी। बाद में, ये शुन की दशा फिर भी नहीं बदली। कई दिनों तक, उसने हमसे ज्यादा बात नहीं की, और हम काम के बारे में सामान्य रूप से संवाद या चर्चा नहीं कर सकते थे। न ही हम काम को अमल में लाने में अच्छे नतीजे हासिल कर सके। मैंने ये शुन की समस्याओं को साफ-साफ देखा था, लेकिन मैंने उन्हें उजागर करने की हिम्मत नहीं की क्योंकि मैं खुद को बचाना चाहती थी। मैं बस खड़ी देखती रही जबकि लान शिन की दशा और कलीसिया का काम प्रभावित हो रहा था। मेरे दिल में केवल अपने ही हित थे। मैंने कलीसिया के काम की बिल्कुल भी रक्षा नहीं की। मैं बहुत कपटी और स्वार्थी थी!

बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े और सत्य का अभ्यास करने में अपनी असमर्थता के मूल कारण के बारे में कुछ समझ पाई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “सांसारिक आचरण के फलसफों का एक सिद्धांत कहता है, ‘अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है।’ इसका मतलब है कि इस अच्छी दोस्ती को कायम रखने के लिए अपने मित्र की समस्याओं के बारे में चुप रहना चाहिए, भले ही वे उन्हें स्पष्ट रूप से दिखाई दें। वे लोगों के चेहरे पर वार न करने या उनकी कमियों की आलोचना न करने के सिद्धांतों का पालन करते हैं। वे एक दूसरे को धोखा देते हैं, एक दूसरे से छिपते हैं और एक दूसरे के साथ साजिश में लिप्त होते हैं। यूँ तो वे स्पष्ट रूप से जानते हैं कि दूसरा व्यक्ति किस तरह का है, पर वे इसे सीधे तौर पर नहीं कहते, बल्कि अपना संबंध बनाए रखने के लिए शातिर तरीके अपनाते हैं। ऐसे संबंध व्यक्ति क्यों बनाए रखना चाहेगा? यह इस समाज में, अपने समूह के भीतर दुश्मन न बनाना चाहने के लिए होता है, जिसका अर्थ होगा खुद को अक्सर खतरनाक स्थितियों में डालना। यह जानकर कि किसी की कमियाँ बताने या उसे चोट पहुँचाने के बाद वह तुम्हारा दुश्मन बन जाएगा और तुम्हें नुकसान पहुँचाएगा और खुद को ऐसी स्थिति में न डालने की इच्छा से तुम सांसारिक आचरण के ऐसे फलसफों का इस्तेमाल करते हो, ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो।’ इसके आलोक में, अगर दो लोगों का संबंध ऐसा है तो क्या वे सच्चे दोस्त माने जा सकते हैं? (नहीं।) वे सच्चे दोस्त नहीं होते, एक-दूसरे के विश्वासपात्र तो बिल्कुल नहीं होते। तो, यह वास्तव में किस तरह का संबंध है? क्या यह एक मूलभूत सामाजिक संबंध नहीं है? (है।) ऐसे सामाजिक संबंधों में लोग खुले दिल से की गई चर्चा में शामिल नहीं हो सकते हैं, न ही गहरे संपर्क रख सकते हैं, न यह बता सकते हैं कि वे क्या चाहते हैं। वे अपने दिल की बात या जो समस्याएँ वे दूसरे लोगों में देखते हैं या ऐसे शब्द जो दूसरे लोगों के लिए लाभदायक हों, जोर से नहीं कह सकते। इसके बजाय, वे कहने के लिए अच्छी बातें चुनते हैं ताकि औरों से सद्भावनापूर्ण संबंध बनाए रखें। वे सच बोलने या सिद्धांतों को कायम रखने की हिम्मत नहीं करते, इस प्रकार वे अपने प्रति शत्रुतापूर्ण सोच विकसित करने से दूसरों को रोकते हैं। जब किसी व्यक्ति के लिए कोई भी खतरा पैदा नहीं कर रहा होता है तो क्या वह व्यक्ति अपेक्षाकृत आराम और शांति से नहीं रहता? क्या ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ को प्रचारित करने में लोगों का यही लक्ष्य नहीं है? (है।) स्पष्ट रूप से यह जीवित रहने का एक कुटिल और धूर्त तरीका है जिसमें रक्षात्मकता का तत्त्व है, जिसका लक्ष्य आत्म-संरक्षण है। इस तरह जीते हुए लोगों का कोई विश्वासपात्र नहीं होता, कोई करीबी दोस्त नहीं होता, जिससे वे जो चाहें कह सकें। लोगों के बीच बस एक दूसरे के प्रति रक्षात्मकता होती है, आपसी शोषण होता है और आपसी साजिशबाजी होती है और साथ ही हर व्यक्ति उस रिश्ते से जो चाहता है, वह लेता है। क्या ऐसा नहीं है? मूल रूप से ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ का लक्ष्य दूसरों को ठेस पहुँचाने और दुश्मन बनाने से बचना है, किसी को चोट न पहुँचाकर अपनी रक्षा करना है। यह व्यक्ति द्वारा खुद को चोट पहुँचने से बचाने के लिए अपनाई जाने वाली तकनीक और तरीका है। इसके सार के इन विभिन्न पहलुओं को देखते हुए, क्या लोगों के नैतिक आचरण से यह माँग कि ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ नेक है? क्या यह सकारात्मक माँग है? (नहीं।) तो फिर यह लोगों को क्या सिखा रहा है? कि तुम्हें किसी को नाराज नहीं करना चाहिए या किसी को चोट नहीं पहुँचानी चाहिए, वरना तुम खुद चोट खाओगे; और यह भी कि तुम्हें किसी पर भरोसा नहीं करना चाहिए। अगर तुम अपने किसी अच्छे दोस्त को चोट पहुँचाते हो तो दोस्ती धीरे-धीरे बदलने लगेगी : वे तुम्हारे अच्छे, करीबी दोस्त न रहकर अजनबी या तुम्हारे दुश्मन बन जाएँगे। लोगों को ऐसा करना सिखाने से कौन-सी समस्याएँ हल हो सकती हैं? भले ही इस तरह से कार्य करने से, तुम शत्रु नहीं बनाते और कुछ शत्रु कम भी हो जाते हैं तो क्या इससे लोग तुम्हारी प्रशंसा और अनुमोदन करेंगे और हमेशा तुम्हारे मित्र बने रहेंगे? क्या यह नैतिक आचरण के मानक को पूरी तरह से हासिल करता है? अपने सर्वोत्तम रूप में, यह सांसारिक आचरण के एक फलसफे से अधिक कुछ नहीं है। क्या इस कथन और अभ्यास का पालन करना अच्छा नैतिक आचरण माना जा सकता है? बिल्कुल नहीं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (8))। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि मैं ये शुन की समस्याओं की ओर सीधे तौर पर इशारा करने की हिम्मत इसलिए नहीं कर पाई क्योंकि मैं सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफों के अनुसार जी रही थी। मैंने “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है,” और “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो” जैसी कहावतों को सांसारिक आचरण का अपना तरीका बना लिया था। मैंने सोचा था कि लोगों के साथ घुलने-मिलने के लिए, तुम्हें उनके लिए रियायतें करनी ही होती हैं, ऐसी बातें कहनी चाहिए जो दूसरों को अच्छी लगें और किसी को नाराज नहीं करना चाहिए, और केवल इसी तरह से लोगों के साथ अपने रिश्ते को बचाया जा सकता है और भीड़ में अपनी जगह बनाई जा सकती है। जब मैं परमेश्वर में विश्वास नहीं करती थी, अगर कोई कुछ गलत करता था, तो मैं सीधे तौर पर उसकी ओर इशारा करने की हिम्मत नहीं करती थी। अगर मैं कुछ कहती भी थी, तो बहुत चतुराई से कहती थी, और इसलिए मेरे अपने सहकर्मियों के साथ बहुत अच्छे संबंध थे। परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी, मैं अपने भाई-बहनों के साथ घुलने-मिलने के लिए सांसारिक आचरण के इन्हीं फलसफों पर निर्भर रही। जब मैंने अपने भाई-बहनों को इस तरह से काम करते देखा जो सिद्धांतों के खिलाफ था और कलीसिया के काम के लिए फायदेमंद नहीं था, तो मैंने इस डर से उसकी ओर इशारा नहीं किया कि कहीं मैं सौहार्दपूर्ण माहौल को नुकसान न पहुँचा दूँ। खास तौर पर, जब मैंने देखा कि ये शुन लान शिन द्वारा बताई गई समस्याओं को स्वीकार नहीं करती और अपने भ्रष्ट स्वभाव में जीते हुए हमारे कर्तव्यों में बाधा डाल रही है, तो मुझे संगति करनी चाहिए थी, उसे चीजें बतानी चाहिए थी, और सत्य को स्वीकार न करने के गंभीर परिणामों को समझने में उसकी मदद करनी चाहिए थी। लेकिन, मुझे हमारे रिश्ते पर असर पड़ने का डर था, और इसलिए मैंने केवल घुमा-फिराकर उसकी दशा के बारे में पूछा, उसकी समस्याओं को स्पष्ट नहीं किया। नतीजतन, वह लगातार गुस्से में रही और अपना कर्तव्य ठीक से नहीं किया, जिससे काम में बाधा आई। मुझे एहसास हुआ कि सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफों के अनुसार जीना लोगों के प्रति बिल्कुल भी ईमानदार या मददगार होना नहीं है, और यह कलीसिया के काम की रक्षा नहीं करता है। यह मुझे और भी कपटी और स्वार्थी बनाता है : यह तो सरासर दूसरों को और खुद को नुकसान पहुँचाना है! जब वे लोग जिनमें वास्तव में मानवता है, देखते हैं कि उनके भाई-बहन एक भ्रष्ट स्वभाव में जी रहे हैं, तो वे प्रेम के आधार पर परमेश्वर के वचनों के बारे में संगति करेंगे, और अपने भाई-बहनों को उनके अपने भ्रष्ट स्वभावों को समझने में मदद करेंगे। लेकिन, मैंने केवल यह सोचा था कि जब मैं उसकी समस्याएँ बता दूँगी तो क्या ये शुन मेरे बारे में गलत राय बनाएगी और क्या भविष्य में हमारे लिए साथ रहना मुश्किल हो जाएगा। मैंने केवल खुद को बचाने के बारे में ही सोचा था। मैंने अपनी बहन के जीवन प्रवेश या कलीसिया के काम के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचा था। मुझे एहसास हुआ कि भले ही मैंने कई सालों तक परमेश्वर में विश्वास किया था, लेकिन मैं जरा भी नहीं बदली थी। मुझमें सामान्य मानवता नहीं थी, और मैं सचमुच परमेश्वर के लिए घृणित बन गई थी। जब मुझे यह समझ आया, तो मेरा दिल आत्म-ग्लानि और पछतावे से भर गया। मैंने अपनी दशा के बारे में परमेश्वर से यह प्रार्थना भी की, कि वह मुझे सत्य का अभ्यास करने में मार्गदर्शन दे।

बाद में, मैंने एक अनुभवजन्य गवाही वीडियो देखा। उसमें परमेश्वर के वचनों के दो अंश उद्धृत किए गए थे जो मेरे लिए विशेष रूप से मददगार थे। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कई बार सामंजस्य का अर्थ धैर्य और सहनशीलता होता है, किंतु इसका अर्थ अपने विचारों पर दृढ़ और सिद्धांतों पर अडिग रहना भी होता है। सामंजस्य का अर्थ चीजें आसान बनाने के लिए सिद्धांतों से समझौता करना, या ‘खुशामदी’ बनने की कोशिश करना, या संतुलन के मार्ग पर टिके रहना नहीं है—और किसी की ठकुरसुहाती करना तो इसका अर्थ निश्चित रूप से नहीं है। ये सिद्धांत हैं। एक बार तुमने इन सिद्धांतों को अपना लिया, तो तुम अनजाने ही परमेश्वर के इरादे के अनुसार बोलोगे, कार्य करोगे और सत्य की वास्तविकता जियोगे, और इस तरह एकता प्राप्त करना आसान है। अगर परमेश्वर के घर में लोग सांसारिक आचरण के फलसफों के अनुसार जीते हैं, या एक-दूसरे के साथ मिलकर रहने में अपनी खुद की धारणाओं, रुझानों, इच्छाओं, स्वार्थी मकसदों, खूबियों और होशियारी पर निर्भर करते हैं, तो यह परमेश्वर के सामने जीने का ढंग नहीं है, और वे आपसी एकता हासिल करने में अक्षम हैं। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि जब लोग शैतानी स्वभाव से जीते हैं तो वे एकता हासिल नहीं कर सकते(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सामंजस्‍यपूर्ण सहयोग के बारे में)। “अगर तुम्हारे पास एक चापलूस का इरादा और दृष्टिकोण है तो तब तुम सभी मामलों में सत्य का अभ्यास नहीं करोगे या सिद्धांतों को कायम नहीं रखोगे और तुम हमेशा असफल होओगे और नीचे गिरोगे। यदि तुम जागरूक नहीं होते और कभी सत्य नहीं खोजते तो तुम छद्म-विश्वासी हो और तुम कभी सत्य और जीवन हासिल नहीं करोगे। तब तुम्हें क्या करना चाहिए? इस तरह की चीजों से सामना होने पर तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी ही चाहिए और उसे पुकारना चाहिए, उससे उद्धार के लिए विनती करनी चाहिए और यह माँगना चाहिए कि वह तुम्हें आस्था और शक्ति दे और सिद्धांतों को कायम रखने में तुम्हें समर्थ बनाए, वो करो जो तुम्हें करना चाहिए, चीजों को सिद्धांतों के अनुसार सँभालो, उस स्थिति में मजबूती से खड़े रहो जहाँ तुम्हें होना चाहिए, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करो और परमेश्वर के घर के कार्य को होने वाले किसी भी नुकसान को रोको। अगर तुम अपने स्वार्थों, अपने अभिमान और एक चापलूस होने के अपने दृष्टिकोण के खिलाफ विद्रोह करने में सक्षम हो और अगर तुम एक ईमानदार, अविभाजित हृदय के साथ वह करते हो जो तुम्हें करना चाहिए तो तुम शैतान को हरा चुके होगे और सत्य के इस पहलू को प्राप्त कर चुके होगे। यदि तुम हमेशा शैतान के फलसफे के अनुसार जीने, दूसरों के साथ अपने संबंध सुरक्षित रखने, कभी भी सत्य का अभ्यास न करने, और सिद्धांतों का पालन न करने की हिम्मत करने पर अड़े रहते हो, तो क्या तुम अन्य मामलों में सत्य का अभ्यास कर पाओगे? तुम्हारे पास अभी भी आस्था या शक्ति नहीं होगी। यदि तुम सत्य नहीं खोजते या स्वीकार नहीं करते, तो क्या परमेश्वर में ऐसी आस्था से तुम सत्य प्राप्त कर पाओगे? (नहीं।) और यदि तुम सत्य प्राप्त नहीं कर सकते, तो क्या तुम बचाए जा सकते हो? नहीं बचाए जा सकते। यदि तुम हमेशा शैतान के फलसफे के अनुसार जीते हो, सत्य वास्तविकता से पूरी तरह वंचित रहते हो, तो तुम कभी भी नहीं बचाए जा सकते। यह बात तुम्हें स्पष्ट होनी चाहिए कि उद्धार के लिए सत्य प्राप्त करना एक आवश्यक शर्त है। तो फिर, तुम सत्य कैसे प्राप्त कर सकते हो? यदि तुम सत्य का अभ्यास कर सकते हो, सत्य के अनुसार जी सकते हो और सत्य तुम्हारे जीवन का आधार बन जाता है, तो तुम सत्य प्राप्त कर जीवन पा लोगे, तब तुम बचाए जाने वाले लोगों में से एक होगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर ने कहा कि सच्चे सहयोग का मतलब केवल सहनशीलता और सहिष्णुता नहीं है, बल्कि तुम्हारे पास सिद्धांत होने चाहिए और तुम्हें अपनी बात पर कायम रहना चाहिए। तुम बीच का रास्ता नहीं अपना सकते या खुशामदी नहीं बन सकते। केवल सत्य सिद्धांतों के आधार पर लोगों के साथ व्यवहार करने और उनके साथ सहयोग करने से ही व्यक्ति परमेश्वर के इरादे के अनुरूप होता है। अगर तुम लगातार सांसारिक व्यवहार के शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हो, अपने पारस्परिक संबंधों की रक्षा करते हो, सत्य सिद्धांतों को कायम नहीं रख सकते, और परमेश्वर के वचनों का अभ्यास नहीं कर सकते, तो अंत में, तुम निश्चित रूप से सत्य को प्राप्त नहीं कर पाओगे, और तुम उन लोगों में से एक होगे जिन्हें परमेश्वर द्वारा हटा दिया जाएगा। मैं एक खुशामदी के विचारों और दृष्टिकोणों के अनुसार जी रही थी। मैं साफ-साफ जानती थी कि मुझे ये शुन की समस्याओं की ओर इशारा करना चाहिए और उसे खुद को समझने और अपनी दशा को बदलने में मदद करनी चाहिए, लेकिन मुझे लगातार चिंता थी कि अगर मैंने उनकी समस्याओं की ओर इशारा किया, तो इससे हमारे बीच का रिश्ता खराब हो जाएगा। इसलिए, मैंने खुलकर संगति करने का अभ्यास नहीं किया था। सतह पर, हम दोनों के बीच जाहिरा तौर पर एक सामंजस्यपूर्ण रिश्ता था, लेकिन उसने कभी अपनी समस्याओं को नहीं समझा और उसकी दशा बद से बदतर होती गई। हर कोई बेबस था, और काम प्रभावित हुआ था। ये सभी चीजें मेरे सत्य का अभ्यास न करने के परिणाम थे। मैं ऐसे ही चलती नहीं रह सकती थी। मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना था और ये शुन के सत्य को स्वीकार न करने के व्यवहार और इसमें उसकी प्रकृति की ओर इशारा करना था। अगर उसने संगति और खुलासे के बाद सत्य को स्वीकार कर लिया, तो यह उसके लिए अच्छा होगा—यह एक सच्ची मदद होगी। लेकिन, अगर उसने संगति के बाद भी इसे स्वीकार नहीं किया और लगातार विरोध करती रही, तो मुझे कुछ भेद पहचानने की जरूरत होगी। उस रात, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे यह विनती कि वह मुझे आस्था दे ताकि मैं ये शुन की समस्याओं की ओर इशारा कर सकूँ। प्रार्थना करने के बाद, मैंने पहल करके ये शुन की दशा के बारे में पूछा, और उसके सत्य को स्वीकार न करने और सत्य से विमुख होने के व्यवहारों की ओर इशारा किया। मेरी बात सुनने के बाद, ये शुन को अपनी दशा के बारे में कुछ समझ आई और वह इसे बदलने को तैयार हो गई। मैंने देखा कि वह सत्य को स्वीकार करने को तैयार थी, लेकिन शुरुआत में, वह एक भ्रष्ट स्वभाव में जी रही थी और उससे तुरंत उबर नहीं पा रही थी। मैंने यह भी अनुभव किया कि जब तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करती हो, तो तुम्हारा दिल सहज और शांत महसूस करता है।

अगले दिन सभा में, जब ये शुन अपनी दशा के बारे में संगति कर रही थी, तो उसने कहा कि वह जानती है कि वह अपने घमंडी स्वभाव से लोगों को बेबस कर रही है, और सत्य को स्वीकार नहीं करती है। लेकिन, उसने इस तरह से काम करने की प्रकृति और परिणामों को नहीं समझा था। मेरा मन फिर से दुविधा में पड़ गया : “शायद मुझे उसकी मदद के लिए फिर से इशारा करना चाहिए, ताकि उसे विवरणों की और अधिक समझ हो जाए। अगर वह केवल एक मोटी-मोटी रूपरेखा समझती है, तो यह भविष्य में उसके लिए चीजों को बदलने और प्रवेश करने में मददगार नहीं है। लेकिन अगर मैं इस ओर इशारा करूँ, तो क्या वह सोचेगी कि मैं उससे बहुत ज्यादा अपेक्षाएँ कर रही हूँ? क्या होगा अगर वह इसे स्वीकार नहीं कर सकती और फिर से निराश हो जाती है? अगर वह मेरे बारे में पूर्वाग्रह बना लेती है, तो हम भविष्य में कैसे साथ रहेंगे? शायद मुझे उसे धीरे-धीरे खुद ही चीजों को समझने देना चाहिए।” यह सोचकर, मैं फिर से थोड़ा पीछे हट गई। इस समय, मुझे एहसास हुआ कि मेरी झिझक अभी भी इसलिए थी क्योंकि मैं उसके साथ अपना रिश्ता बनाए रखना चाहती थी। मैंने चुपचाप परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे विनती की कि वह मुझे आस्था दे और मैं अपनी बहन के साथ एक ईमानदार दिल से व्यवहार कर पाऊँ। मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : “शिक्षाप्रद बोली की अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? वह मुख्य रूप से प्रेरित करने वाली, सलाह देने वाली, राह दिखाने वाली, नसीहत देने वाली, समझने वाली और दिलासा देने वाली होती है। साथ ही, कुछ विशेष परिस्थितियों में, दूसरों की गलतियों को सीधे तौर पर उजागर करना और उनकी काट-छाँट करना जरूरी हो जाता है, ताकि वे सत्य कीकी समझ और पश्चात्तापी हृदय हासिल करपाएँ। केवल तभी नतीजे पाए जा सकते हैं। अभ्यास का यह तरीका लोगों के लिए बहुत लाभकारी होता है। यह उनकी वास्तविक मदद है और यह उनके लिए शिक्षाप्रद है, है कि नहीं?(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (3))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझाया कि लोगों के लिए केवल प्रोत्साहन और उत्साह के शब्द ही मददगार नहीं होते। लोगों की समस्याओं को लेकर उनकी काट-छाँट करना और उनकी कमियों और खामियों की ओर इशारा करना उनके लिए और भी अधिक निर्माणकारी होता है। यह लोगों को अपनी दशा को बेहतर ढंग से समझने और समस्याओं को हल करने के लिए सत्य खोजने में मदद कर सकता है, और यह उनके जीवन प्रवेश के लिए भी फायदेमंद है। अब, ये शुन सत्य को स्वीकार न करने की अपनी प्रकृति और परिणामों को नहीं समझती थी। इस ओर इशारा करके, मैं उसे खुद को बेहतर ढंग से समझने में मदद कर सकती थी। यह उसके अपने जीवन प्रवेश और कलीसिया के काम दोनों के लिए फायदेमंद होगा। ये शुन मेरे बारे में जो भी सोचे, वह महत्वपूर्ण नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मुझे परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना चाहिए और अपनी बहन को सच्ची मदद देनी चाहिए। इसलिए, मैंने ये शुन की दशा के संबंध में परमेश्वर के वचनों के कई अंश पढ़े, और इस ओर इशारा किया कि उसकी समझ सतही है और उसमें कोई बारीकी नहीं है। फिर, परमेश्वर के वचनों को शामिल करते हुए, मैंने इस तरह से काम करने की प्रकृति और परिणामों के बारे में संगति की। संगति के माध्यम से, ये शुन ने स्वीकार किया कि उसे वर्तमान में बहुत गहरी समझ नहीं है, और वह बदलाव लाने को तैयार थी। उसने मौके पर ही लान शिन से माफी भी माँगी। लान शिन ने भी अपनी दशा के बारे में संगति की। सभी ने अपने बारे में खुलकर बात की, और किसी के बीच कोई बाधा नहीं रही। मैंने सचमुच अनुभव किया कि कैसे परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने से लोगों को मदद और लाभ मिलता है। जब तक लोग सत्य को स्वीकार करने को तैयार हैं, तब भाई-बहनों के बीच एक-दूसरे की कमियाँ बताना, मदद करना, संगति और खुलासा करना, यह सब न केवल लोगों को निराश नहीं करेगा, बल्कि वास्तव में लोगों को खुद को बेहतर ढंग से समझने में मदद करेगा, और हर कोई अपने जीवन प्रवेश में प्रगति करेगा। ये सत्य का अभ्यास करने के लाभ हैं।

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