61. मैं अब अपनी खराब काबिलियत से बेबस नहीं हूँ
2021 में मैं कलीसिया में पाठ-आधारित कर्तव्य कर रही थी, लेकिन 2022 की शुरुआत में मेरा कर्तव्य बदल दिया गया। बाद में मैंने आत्म-चिंतन किया और एहसास हुआ कि मेरे गंभीर भ्रष्ट स्वभाव और लगातार अपने ही विचारों पर अड़े रहने के कारण ही, मैं अपना कर्तव्य मानक के अनुसार पूरा नहीं कर पाई। कुछ महीनों बाद, अगुआओं ने मुझसे पाठ-आधारित कर्तव्य जारी रखने के लिए कहा। एक दिन, मुझे अनजाने में पता चला कि पहले मेरा कर्तव्य मेरी खराब काबिलियत के कारण बदला गया था, और इस बार पाठ-आधारित काम की मात्रा बढ़ने और कार्यकर्ताओं की कमी के कारण ही कलीसिया ने मुझे इस काम पर वापस आने की व्यवस्था की थी। यह सुनकर, मुझे बहुत दुख हुआ और मैंने सोचा, “मैंने तो सोचा था कि इस बार मुझे इसलिए वापस बुलाया गया है क्योंकि मुझमें कुछ काबिलियत है और मैं यह कर्तव्य सँभाल सकती हूँ, लेकिन मुझे उम्मीद नहीं थी कि भाई-बहन मुझे ऐसे आँकते हैं। लगता है कि इस कर्तव्य में मैं चाहे कितनी भी मेहनत करूँ, सब बेकार जाएगा। जिन भाई-बहनों ने अभी-अभी पाठ-आधारित काम करना शुरू किया है, उनकी काबिलियत अच्छी है, और कुछ समय तक विकसित किए जाने के बाद, वे मुझसे आगे निकल जाएँगे। मैं तो इस कर्तव्य में बस अस्थायी रूप से मज़दूरी ही कर रही हूँ। अच्छी काबिलियत वाले भाई-बहन अपने काम में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, और उनके बचाए जाने की उम्मीद भी ज्यादा है; लेकिन मेरी खराब काबिलियत का मतलब है कि मैं महत्वपूर्ण काम नहीं सँभाल सकती, और मेरा कर्तव्य किसी भी समय बदला जा सकता है, तो फिर मेरे उद्धार की क्या उम्मीद हो सकती है? यह करने के बजाय, मेरे लिए सुसमाचार का प्रचार करना और नए विश्वासियों को सींचना बेहतर होगा। कम से कम सुसमाचार के काम में, मैं कुछ अच्छे कर्म तैयार कर सकती हूँ, और बचे रहने की कुछ उम्मीद तो होगी।” ये बातें सोचकर, मैं बहुत हताश हो गई, और मुझे पाठ-आधारित काम करने के लिए वापस आने पर पछतावा भी हुआ।
बाद में, मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा ठीक नहीं है, इसलिए मैं प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आई, “परमेश्वर, मैंने बहनों को यह कहते सुना कि पहले मेरा कर्तव्य मेरी खराब काबिलियत के कारण बदला गया था। मुझे बहुत दुख हो रहा है, लेकिन मैं जानती हूँ कि मुझे नकारात्मक होना या गलतफहमी में पड़ना नहीं चाहिए। मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ कि आप मुझे अपना इरादा समझने के लिए प्रबुद्ध करें, ताकि मुझमें ऊपर की ओर प्रयास करने की आस्था हो।” उस पल, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “प्रत्येक व्यक्ति के लिए परमेश्वर की इच्छा है कि उसे पूर्ण बनाया जाए, अंततः उसके द्वारा उसे प्राप्त किया जाए, उसके द्वारा उसे पूरी तरह से शुद्ध किया जाए, और वह ऐसा इंसान बने जिससे वह प्रेम करता है। चाहे मैं तुम लोगों को पिछड़ा हुआ कहता हूँ या निम्न क्षमता वाला—यह सब तथ्य है। मेरा ऐसा कहना यह प्रमाणित नहीं करता कि मेरा तुम्हें छोड़ने का इरादा है, कि मैंने तुम लोगों में आशा खो दी है, और यह तो बिल्कुल नहीं कि मैं तुम लोगों को बचाना नहीं चाहता। आज मैं तुम लोगों के उद्धार का कार्य करने के लिए आया हूँ, जिसका तात्पर्य है कि जो कार्य मैं करता हूँ, वह उद्धार के कार्य की निरंतरता है। प्रत्येक व्यक्ति के पास पूर्ण बनाए जाने का एक अवसर है : बशर्ते तुम तैयार हो, बशर्ते तुम खोज करते हो, अंत में तुम इस परिणाम को प्राप्त करने में समर्थ होगे, और तुममें से किसी एक को भी त्यागा नहीं जाएगा। यदि तुम निम्न क्षमता वाले हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी निम्न क्षमता के अनुसार होंगी; यदि तुम उच्च क्षमता वाले हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी उच्च क्षमता के अनुसार होंगी; यदि तुम अज्ञानी और निरक्षर हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी निरक्षरता के अनुसार होंगी; यदि तुम साक्षर हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ इस तथ्य के अनुसार होंगी कि तुम साक्षर हो; यदि तुम बुज़ुर्ग हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी उम्र के अनुसार होंगी; यदि तुम आतिथ्य प्रदान करने में सक्षम हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ इस क्षमता के अनुसार होंगी; यदि तुम कहते हो कि तुम आतिथ्य प्रदान नहीं कर सकते और केवल कुछ निश्चित कार्य ही कर सकते हो, चाहे वह सुसमाचार फैलाने का कार्य हो या कलीसिया की देखरेख करने का कार्य या अन्य सामान्य मामलों में शामिल होने का कार्य, तो मेरे द्वारा तुम्हारी पूर्णता भी उस कार्य के अनुसार होगी, जो तुम करते हो। वफादार होना, बिल्कुल अंत तक समर्पण करना, और परमेश्वर के प्रति सर्वोच्च प्रेम रखने की कोशिश करना—यह तुम्हें अवश्य करना चाहिए, और इन तीन चीजों से बेहतर कोई अभ्यास नहीं है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के सामान्य जीवन को बहाल करना और उसे एक अद्भुत मंजिल पर ले जाना)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे दिल को छू लिया। परमेश्वर ने हर किसी के लिए उद्धार का अवसर तैयार किया है, और चाहे किसी की काबिलियत खराब हो या अच्छी, चाहे कोई वृद्ध हो या युवा, परमेश्वर हर व्यक्ति से उसके वास्तविक आध्यात्मिक कद और काबिलियत के अनुसार माँगें करता है, और हर व्यक्ति के लिए उपयुक्त कर्तव्य की व्यवस्था करता है। कोई व्यक्ति चाहे जो भी कर्तव्य करे, जब तक वह सत्य का अनुसरण करता है और परमेश्वर के प्रति वफादार रहता है, परमेश्वर बिना किसी पक्षपात के समान रूप से अपना उद्धार देगा। मुझे अनुभवात्मक गवाही वीडियो “बूढ़े अब भी परमेश्वर की गवाही दे सकते हैं” के भाई का खयाल आया। हालाँकि वह बहुत बूढ़ा था और बीमार भी था, उसने अपनी क्षमता के अनुसार मेजबानी का कर्तव्य निभाया, और परमेश्वर की गवाही देने के लिए अनुभवजन्य लेख लिखने का अभ्यास किया। वह कुछ सत्य समझने में सक्षम था, और उसके जीवन में प्रगति दिखाई दी। यह परमेश्वर की निष्पक्षता और धार्मिकता को दर्शाता है। परमेश्वर हर व्यक्ति से उसकी पृष्ठभूमि, आध्यात्मिक कद और काबिलियत के अनुसार माँगें रखता है, और वह किसी के लिए भी मुश्किलें खड़ी करने की कोशिश नहीं करता। लेकिन मैं परमेश्वर का इरादा नहीं समझी, और मैंने भ्रामक रूप से सोचा कि केवल अच्छी काबिलियत वाले ही बचाए जा सकते हैं, और खराब काबिलियत वाले बचाए नहीं जा सकते। इसलिए जब मुझे पता चला कि भाई-बहन मुझे खराब काबिलियत वाले के रूप में आँकते हैं, और मैं पाठ-आधारित काम के लायक नहीं हूँ, तो मुझे लगा कि मैं कलीसिया में कोई बड़ी भूमिका नहीं निभा सकती, कि परमेश्वर मुझे पसंद नहीं करता, और मेरे उद्धार पाने की कोई उम्मीद नहीं है। मुझे पाठ-आधारित काम करने के लिए वापस आने पर पछतावा भी हुआ। मैं अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में जी रही थी, परमेश्वर को गलत समझ रही थी और मैं सचमुच मूर्ख थी, मुझमें विवेक नहीं था! सच तो यह है कि परमेश्वर जानता है कि मेरी काबिलियत कैसी है, और भाई-बहन भी जानते थे। चूँकि कलीसिया ने मेरे लिए पाठ-आधारित काम करने की व्यवस्था की, मुझे समर्पण करना चाहिए, जो मैं समझती हूँ और कर सकती हूँ, उसका उपयोग करके काम करने की पूरी कोशिश करनी चाहिए, और साफ अंतरात्मा से काम करना चाहिए। यही मुझे करना चाहिए था। मैं अपनी खराब काबिलियत के कारण हताश नहीं रह सकती थी।
इसके बाद, मैंने खोजना शुरू किया, खुद से पूछा, “जब मुझे अपनी खराब काबिलियत के बारे में पता चला, तो मैं इतनी हताश और परेशान क्यों हो गई?” मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “जब कुछ लोग किसी उच्च-स्तर के अगुआ को यह कहते हुए सुनते हैं कि उन्हें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है तो उन्हें लगता है कि वे सत्य को समझने में सक्षम नहीं हैं, कि परमेश्वर यकीनन उन्हें नहीं चाहता है, कि उन्हें आशीष मिलने की कोई आशा नहीं है; लेकिन दुखी महसूस करने के बावजूद वे सामान्य रूप से अपना कर्तव्य करने में सक्षम होते हैं—ऐसे लोगों के पास थोड़ी समझ होती है। जब कुछ लोग किसी को यह कहते हुए सुनते हैं कि उन्हें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है, तो वे निराश हो जाते हैं और आगे अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते हैं। वे सोचते हैं, ‘तुम कहते हो कि मुझे कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है—क्या इसका मतलब यह नहीं हुआ कि मुझे आशीष मिलने की कोई उम्मीद नहीं है? चूँकि मुझे भविष्य में कोई आशीष नहीं मिलेगा तो मैं अभी भी किस लिए विश्वास कर रहा हूँ? मैं सेवा करने के लिए मजबूर होना स्वीकार नहीं करूँगा। अगर बदले में कुछ नहीं मिलना है तो तुम्हारे लिए मेहनत कौन करेगा? मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ!’ क्या ऐसे लोगों के पास अंतरात्मा और विवेक होता है? वे परमेश्वर के अनुग्रह का इतना आनंद लेते हैं और फिर भी वे इसका बदला चुकाना नहीं जानते और वे सेवा करना भी नहीं चाहते। ऐसे लोग खत्म हो जाते हैं। वे अंत तक सेवा भी नहीं कर पाते और उन्हें परमेश्वर में कोई सच्ची आस्था नहीं होती है; वे छद्म-विश्वासी हैं। यदि उनके पास परमेश्वर के लिए एक ईमानदार दिल और परमेश्वर में सच्ची आस्था है, तो उनका मूल्यांकन चाहे कैसे भी किया जाए, यह उन्हें खुद को और अधिक सच्चे और सटीक रूप से जानने में सक्षम ही करेगा—उन्हें इस मामले को सही तरीके से देखना चाहिए और इसका असर परमेश्वर का अनुसरण करने या अपना कर्तव्य निभाने पर नहीं पड़ने देना चाहिए। अगर वे आशीष प्राप्त न भी कर पाएँ, तो भी उन्हें अंत तक परमेश्वर के लिए सेवा करने को तैयार रहना चाहिए और बिना किसी शिकायत के ऐसा करने में खुश होना चाहिए और उन्हें खुद को परमेश्वर द्वारा सभी चीजों के आयोजन की दया पर छोड़ देना चाहिए—केवल तभी वे अंतरात्मा और विवेक वाले व्यक्ति होंगे। किसी व्यक्ति को आशीष मिलता है या वह बदकिस्मती झेलता है, यह परमेश्वर के हाथ में है, परमेश्वर इस पर संप्रभु है और वही इसकी व्यवस्था करता है, और यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे लोग माँग सकें या जिसे हासिल करने के लिए प्रयास कर सकें। बल्कि यह इस बात पर निर्भर है कि वह व्यक्ति परमेश्वर के वचनों का आज्ञापालन कर सकता है या नहीं, सत्य को स्वीकार कर सकता है या नहीं और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकता है या नहीं—परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति को उसके कर्मों के अनुसार प्रतिफल देगा। यदि किसी में इतनी-सी भी ईमानदारी है और जो कर्तव्य उन्हें करना चाहिए उसमें वह अपनी पूरी शक्ति जुटाकर लगा देता है तो यह पर्याप्त है, और वह परमेश्वर की स्वीकृति और आशीष अर्जित करेगा” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। “मसीह-विरोधी केवल लाभ और आशीष प्राप्त करने के उद्देश्य से परमेश्वर पर विश्वास करते हैं। यहाँ तक कि अगर वे कुछ कष्ट सहते हैं या कुछ कीमत चुकाते हैं, तो वह सब भी परमेश्वर के साथ सौदा करने के लिए होता है। आशीष और पुरस्कार प्राप्त करने की उनकी मंशा और इच्छा बहुत बड़ी होती है, और वे उससे कसकर चिपके रहते हैं। वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए अनेक सत्यों में से किसी को भी स्वीकार नहीं करते और अपने हृदय में हमेशा सोचते हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करना आशीष प्राप्त करने और एक अच्छी मंजिल सुनिश्चित करने के लिए है, कि यह सर्वोच्च सिद्धांत है, और इससे बढ़कर कुछ भी नहीं हो सकता। वे सोचते हैं कि लोगों को आशीष प्राप्त करने के अलावा परमेश्वर पर विश्वास नहीं करना चाहिए, और अगर यह सब आशीष के लिए नहीं है, तो परमेश्वर पर विश्वास का कोई अर्थ या महत्व नहीं होगा, कि यह अपना अर्थ और मूल्य खो देगा। क्या ये विचार मसीह-विरोधियों में किसी और ने डाले थे? क्या ये किसी अन्य की शिक्षा या प्रभाव से निकले हैं? नहीं, वे मसीह-विरोधियों के अंतर्निहित प्रकृति सार द्वारा निर्धारित होते हैं, जिसे कोई भी नहीं बदल सकता। आज देहधारी परमेश्वर के इतने सारे वचन बोलने के बावजूद, मसीह-विरोधी उनमें से किसी को भी स्वीकार नहीं करते, बल्कि उनका विरोध करते हैं और उनकी निंदा करते हैं। सत्य के प्रति उनके विमुख होने और सत्य से घृणा करने की प्रकृति कभी नहीं बदल सकती। अगर वे बदल नहीं सकते, तो यह क्या संकेत करता है? यह संकेत करता है कि उनकी प्रकृति दुष्ट है। यह सत्य का अनुसरण करने या न करने का मुद्दा नहीं है; यह दुष्ट स्वभाव है, यह निर्लज्ज होकर परमेश्वर के विरुद्ध हल्ला मचाना और परमेश्वर का विरोध करना है। यह मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार है; यह उनका असली चेहरा है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग दो))। परमेश्वर के वचनों द्वारा उजागर किए जाने के कारण, मैंने समस्या की जड़ ढूँढ़ ली। पता चला कि मेरी नकारात्मकता और गलतफहमियों के पीछे मेरे अनुसरण का गलत नजरिया छिपा था। मैंने परमेश्वर में विश्वास के माध्यम से आशीषें पाने को अनुसरण का एक उचित लक्ष्य माना, और जब आशीषें पाने की मेरी इच्छा पूरी नहीं हुई, तो मैं हतोत्साहित, निराश, नकारात्मक और दुखी हो गई। जब मेरा मूल्यांकन किया गया कि मेरी काबिलियत खराब है और मैं पाठ-आधारित काम के लिए उपयुक्त नहीं हूँ, तो मुझे लगा कि मेरा काम तमाम है, और चाहे मैं कितना भी अनुसरण करूँ, यह बेकार होगा, देर-सबेर मुझे निकाल दिया जाएगा। नतीजतन, मैं एक नकारात्मक दशा में जीती रही और मुझमें अपने कर्तव्य करने की प्रेरणा नहीं रही। मैंने देखा कि मैं सिर्फ आशीषें पाने के लिए अपने कर्तव्य कर रही थी, और मैं “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” और “बिना पुरस्कार के कभी कोई काम मत करो” जैसे शैतानी फलसफों के अनुसार जी रही थी। मैं जो कुछ भी करती थी, वह “लाभ” शब्द से प्रेरित होता था। अगर कोई चीज मेरे भविष्य के लिए फायदेमंद होती या आशीषें ला सकती, तो मैं उसे करने को तैयार थी, और मैं खुद को कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम पाती। लेकिन अगर कोई चीज मेरे लिए फायदेमंद नहीं होती, तो मैं उसे करने को तैयार नहीं होती थी, और मैं तो उससे बचना या उसे मना करना चाहती थी। मैंने देखा कि मैं सचमुच स्वार्थी और लाभ से प्रेरित थी! जब मैंने पहली बार परमेश्वर में विश्वास किया था, उस समय को याद करती हूँ, तो मैंने देखा कि मैंने एक अच्छा परिणाम और मंज़िल पाने के लिए परमेश्वर का अनुसरण करने हेतु सब कुछ त्याग दिया, और चाहे कलीसिया ने मेरे लिए कोई भी कर्तव्य सौंपा हो, मैं उन्हें स्वीकार करने और उनके प्रति समर्पित होने में सक्षम थी, और मैं कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम थी। मुझे लगा कि मैं बचाई जाऊँगी और बची रहूँगी और इसलिए मुझमें अंतहीन ऊर्जा थी। लेकिन जब भाई-बहनों ने मुझे खराब काबिलियत वाला माना, तो मुझे लगा कि मेरे पास पदोन्नत और विकसित होने का कोई अवसर नहीं है, मैं महत्वपूर्ण काम करने में असमर्थ हूँ, और कि मुझे अंततः निकाल दिया जाएगा। इसलिए मैं नकारात्मक हो गई, गलतफहमी पाल ली, और पाठ-आधारित काम जारी रखने को तैयार नहीं थी। हालाँकि मैं परमेश्वर में विश्वास करती और उसका अनुसरण करती हुई दिखती थी, मेरा ध्यान अभी भी अपने भविष्य और मंज़िल पर था। मैं अपने कर्तव्यों के प्रदर्शन के बदले एक अच्छा परिणाम और मंज़िल चाहती थी, और इसमें, मैं परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने और उसे धोखा देने की कोशिश कर रही थी। मैं एक मसीह-विरोधी के रास्ते पर चल रही थी! ये बातें महसूस होने पर, मुझे बहुत अपराधबोध हुआ। मैंने सोचा कि कैसे कलीसिया ने मेरे लिए पाठ-आधारित काम करने की व्यवस्था की और मुझे अपने कर्तव्यों में प्रशिक्षित होने का अवसर दिया, और मैंने देखा कि यह परमेश्वर का अनुग्रह था! लेकिन मैंने आभारी होने के बारे में नहीं सोचा, न ही परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाने के बारे में। इसके बजाय, मैं हमेशा बस परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की कोशिश करना चाहती थी। मुझमें वह जमीर और विवेक भी नहीं था जो एक व्यक्ति में होना चाहिए। मुझमें सचमुच मानवता की कमी थी! मुझे लगा कि मैं सचमुच परमेश्वर की ऋणी हूँ, मैं इतनी गहराई से भ्रष्ट होने के लिए खुद से नफरत करती थी और मैं अब इस नकारात्मकता में नहीं रहना चाहती थी।
बाद में, मैंने सोचना जारी रखा, “जब भाई-बहनों ने कहा कि मेरी काबिलियत खराब है, तो मैं हताश और दुखी हो गई। इसका एक और कारण था, यह कि मैं यह नहीं समझ पाई थी कि अच्छी और बुरी काबिलियत में क्या अंतर है, और मैं खुद के साथ सही से पेश नहीं आ पाई हूँ।” मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “लोगों की काबिलियत कैसे मापी जानी चाहिए? इसे इस आधार पर मापा जाना चाहिए कि वे परमेश्वर के वचनों और सत्य को किस सीमा तक गहराई से समझते हैं। मापन का यह सबसे सटीक तरीका है। कुछ लोग वाक्-पटु, हाजिर-जवाब और दूसरों को सँभालने में विशेष रूप से कुशल होते हैं—लेकिन जब वे धर्मोपदेश सुनते हैं, तो उनकी समझ में कभी भी कुछ नहीं आता, और जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, तो वे उन्हें नहीं समझ पाते हैं। जब वे अपनी अनुभवजन्य गवाही के बारे में बताते हैं, तो वे हमेशा शब्द और धर्म-सिद्धांत बताते हैं, और इस तरह खुद के महज नौसिखिया होने का खुलासा करते हैं, और दूसरों को इस बात का आभास कराते हैं कि उनमें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है। ये खराब काबिलियत वाले लोग हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य सही ढंग से पूरा करने के लिए सत्य को समझना सबसे महत्त्वपूर्ण है)। “बात चाहे सत्य की गहरी समझ की हो या किसी पेशे को सीखने की या किसी विशिष्ट कौशल की, अच्छी काबिलियत वाले लोग उनके भीतर के सिद्धांतों को समझने में, चीज़ों की जड़ तक पहुँचने में, और उनकी वास्तविकता और सार की पहचान करने में सक्षम होते हैं। इस तरह से वे जो कुछ भी करते हैं, जिस भी काम में वे लगे होते हैं, उसमें सही निर्णय लेते हैं, और सही मानकों और सिद्धांतों को निर्धारित करते हैं। अच्छी काबिलियत यही होती है। अच्छी काबिलियत वाले लोग परमेश्वर के घर के विभिन्न कार्यों की निगरानी करने में सक्षम होते हैं। साधारण या खराब काबिलियत वाले लोग ऐसे काम करने में असमर्थ होते हैं। यह किसी भी तरह से परमेश्वर के घर के द्वारा कुछ लोगों का पक्ष लेना या कुछ लोगों को नीची निगाह से देखना या भेदभाव करना नहीं है—बात केवल इतनी है कि बहुत से लोग अपनी काबिलियत के कारण निगरानी का काम नहीं सँभाल सकते। और, वे निगरानी का काम क्यों नहीं सँभाल सकते? इसका मूल कारण क्या है? वह यह है कि वे सत्य को नहीं समझते। और, वे सत्य को क्यों नहीं समझते? ऐसा इसलिए कि उनकी काबिलियत औसत या बहुत खराब होती है। यही कारण है कि सत्य उनकी पहुँच से बाहर होता है और वे सुनने पर भी सत्य को समझने में असमर्थ होते हैं। कुछ लोग सत्य को समझने में इसलिए असमर्थ होते हैं कि वे ध्यान से नहीं सुनते हैं, या हो सकता है कि वे अभी युवा हों और अभी तक परमेश्वर में आस्था के बारे में उनकी कोई संकल्पना नहीं है, और इसमें उनकी कोई बहुत रुचि नहीं होती। परंतु ये मुख्य कारण नहीं होते। मुख्य कारण होता है कि उनकी काबिलियत अपर्याप्त होती है। निम्न श्रेणी की काबिलियत वाले लोगों का चाहे जो कर्तव्य हो, या चाहे जितने लंबे समय से कोई काम कर रहे हों, उन्होंने चाहे जितने धर्मोपदेश सुने हों या तुम उनके साथ सत्य पर कैसी भी संगति करो, उनकी बुद्धि में कोई बात घुसती नहीं। वे अपने कर्तव्य निर्वाह की गाड़ी किसी तरह खींचते रहते हैं, चीजों को पूरी तरह उलट-पुलट कर देते हैं, और कुछ भी हासिल नहीं कर पाते। कुछ लोग जो टीम अगुआ के रूप में सेवा करते हैं और कुछ कामों की निगरानी का जिम्मा सँभालते हैं, पहली बार काम की जिम्मेदारी लेने पर सिद्धांतों को नहीं समझ पाते हैं। कई असफलताओं के बाद, वे खोजने तथा प्रश्न पूछने के माध्यम से सत्य को समझ लेते हैं और उन्हें सिद्धांतों का बोध हो जाता है। फिर, इन सिद्धांतों के आधार पर वे निगरानी का काम सँभाल सकते हैं और अपने कंधों पर काम की जिम्मेदारी उठा सकते हैं। काबिलियत होने का यही मतलब है। अन्य लोगों के मामले में, तुम उन्हें सभी सिद्धांत बता दो और उन्हें लागू करने के तरीकों की भी विस्तार से जानकारी दे दो, और उस समय ऐसा प्रतीत होगा कि वे तुम्हारी बात को समझ रहे हैं, लेकिन फिर भी काम करते समय उन्हें सिद्धांतों का बोध नहीं होता। इसके बजाय, वे अपने ही विचारों और कल्पनाओं पर भरोसा करते हैं, और इन्हें ही सही भी मानते हैं। किंतु, वे स्पष्ट रूप से नहीं बता सकते और वास्तव में नहीं जानते कि वे सिद्धांतों के अनुसार काम कर रहे हैं या नहीं। अगर ऊपर वाले उनसे सवाल पूछें, तो वे घबरा जाते हैं और नहीं जानते कि क्या कहें। वे केवल तभी आश्वस्त महसूस करते हैं जब ऊपर वाले निगरानी का काम सँभालें और मार्गदर्शन प्रदान करें। इससे पता चलता है कि उनकी काबिलियत बहुत खराब है। ऐसी खराब काबिलियत के साथ अपने कर्तव्यों को संतोषजनक तरीके से पूरा करना तो दूर, वे न तो परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी कर सकते हैं, न ही सत्य सिद्धांतों पर खरे उतर सकते हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य सही ढंग से पूरा करने के लिए सत्य को समझना सबसे महत्त्वपूर्ण है)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि अच्छी काबिलियत वाले लोग परमेश्वर के वचन सुनने के बाद मुख्य बातें समझ सकते हैं, और इन वचनों से, वे सत्य को समझ सकते हैं, आत्म-चिंतन कर खुद को जान सकते हैं और अभ्यास और प्रवेश का मार्ग खोज सकते हैं। इसके अलावा, अच्छी काबिलियत वाले लोगों में आध्यात्मिक समझ होती है और वे अनुभव करने में सक्षम होते हैं। परिस्थितियों का सामना करते समय, वे अनुमान लगा सकते हैं, और परमेश्वर के अपेक्षित सिद्धांतों के अनुसार सटीक रूप से अभ्यास कर सकते हैं। दूसरी ओर, खराब काबिलियत वाले लोग सत्य को समझने और अनुभव करने में कमजोर होते हैं, और चाहे वे कितने भी उपदेश सुन लें, उनके जीवन की प्रगति धीमी होती है। वे अपने कर्तव्यों में सिद्धांतों को समझने के लिए संघर्ष करते हैं, अक्सर सिर्फ विनियमों से चिपके रहते हैं, और उनके कर्तव्य का परिणाम थोड़ा कम अच्छा होता है। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए, मैंने आत्म-चिंतन किया, “मैं कई सालों से पाठ-आधारित काम कर रही हूँ और मैंने बहुत से सिद्धांत सुने हैं, लेकिन मैंने ज्यादा प्रगति नहीं की है। खासकर जब थोड़े जटिल मुद्दों का सामना करना पड़ता है तो मैं भ्रमित हो जाती हूँ और बस विनियमों से चिपके रहने लगती हूँ। हर बार जब मैं कोई काम पूरा करती हूँ तो उसे अभी भी अगुआओं द्वारा जाँचे जाने और निर्देशित किए जाने की जरूरत होती है, और मेरी कार्य कुशलता बहुत कम है।” तभी मुझे एहसास हुआ कि मेरी काबिलियत वाकई खराब थी। अतीत में, मुझे लगता था कि मेरी काबिलियत अच्छी है, लेकिन यह सत्य सिद्धांतों के आधार पर नहीं, बल्कि सिर्फ मेरी अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर मापा गया था। हालाँकि मैं कुछ काम कर सकती थी, लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि मेरी काबिलियत अच्छी है, बस यह कि लंबे समय तक यह काम करने के बाद, मैंने काम में कुछ अनुभव पाया था। लेकिन सचमुच अच्छी काबिलियत वाले भाई-बहनों की तुलना में, मुझमें अभी भी बहुत कमी थी। इस समय, मुझे अपनी वास्तविक काबिलियत का सही मूल्यांकन मिला, और अपने दिल में, मैं भाई-बहनों के मेरे मूल्यांकन को स्वीकार और मान सकी। हालाँकि मेरी काबिलियत बहुत अच्छी नहीं थी, फिर भी कलीसिया ने मुझे पाठ-आधारित काम करने का अवसर दिया था। यह परमेश्वर का अनुग्रह था। मुझमें जमीर की कमी नहीं हो सकती, और मुझे सक्रिय रूप से काम करना था और परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाने के लिए अपना कर्तव्य निभाना था।
इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और आशीषें पाने का मेरा गलत दृष्टिकोण कुछ हद तक बदल गया। परमेश्वर कहता है : “आशीषों के अनुसरण को उचित उद्देश्य मानना किस तरह से गलत है? यह पूरी तरह से सत्य का विरोधी है, और लोगों को बचाने के परमेश्वर के इरादे के अनुरूप नहीं है। चूँकि आशीष प्राप्त करना लोगों के अनुसरण के लिए उचित उद्देश्य नहीं है, तो फिर उचित उद्देश्य क्या है? सत्य का अनुसरण, स्वभाव में बदलावों का अनुसरण, और परमेश्वर के सभी आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने में सक्षम होना : ये वे उद्देश्य हैं, जिनका लोगों को अनुसरण करना चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो, काट-छाँट किए जाने के कारण तुम धारणाएँ और गलतफहमियाँ पाल लेते हो, और समर्पण में असमर्थ हो जाते हो। तुम समर्पण क्यों नहीं कर सकते? क्योंकि तुम्हें लगता है कि तुम्हारी मंजिल या आशीष पाने के तुम्हारे सपने को चुनौती दी गई है। तुम नकारात्मक और परेशान हो जाते हो, और अपना कर्तव्य त्याग देना चाहते हो। इसका क्या कारण है? तुम्हारे अनुसरण में कोई समस्या है। तो इसे कैसे हल किया जाना चाहिए? यह अनिवार्य है कि तुम ये गलत विचार तुरंत त्याग दो, और अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या हल करने के लिए तुरंत सत्य की खोज करो। तुम्हें खुद से कहना चाहिए, ‘मुझे छोड़कर नहीं जाना चाहिए, मुझे अभी भी एक सृजित प्राणी का कर्तव्य ठीक से निभाना चाहिए और आशीष पाने की अपनी इच्छा एक तरफ रख देनी चाहिए।’ जब तुम आशीष पाने की इच्छा छोड़ देते हो और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हो, तो तुम्हारे कंधों से एक भार उतर जाता है। और क्या तुम अभी भी नकारात्मक हो पाओगे? हालाँकि अभी भी ऐसे अवसर आते हैं जब तुम नकारात्मक हो जाते हो, लेकिन तुम इसे खुद को बाधित नहीं करने देते, और अपने दिल में प्रार्थना करते और लड़ते रहते हो, और आशीष पाने और मंजिल हासिल करने के अनुसरण का उद्देश्य बदलकर सत्य के अनुसरण को लक्ष्य बनाते हो, और मन ही मन सोचते हो, ‘सत्य का अनुसरण एक सृजित प्राणी का कर्तव्य है। आज कुछ सत्यों को समझना—इससे बड़ी कोई फसल नहीं है, यह सबसे बड़ा आशीष है। भले ही परमेश्वर मुझे न चाहे, और मेरी कोई अच्छी मंजिल न हो, और आशीष पाने की मेरी आशा चकनाचूर हो गई है, फिर भी मैं अपना कर्तव्य ठीक से निभाऊँगा, मैं इसके लिए बाध्य हूँ। कोई भी वजह हो, मैं उसे अपने कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित नहीं करने दूँगा, मैं उसे परमेश्वर के आदेश की पूर्ति को प्रभावित नहीं करने दूँगा; मैं इसी सिद्धांत के अनुसार आचरण करता हूँ।’ और इसमें, क्या तुमने दैहिक बाधाएँ पार नहीं कर लीं? कुछ लोग कह सकते हैं, ‘अच्छा, अगर मैं अभी भी नकारात्मक हूँ तो क्या?’ तो इसे हल करने के लिए दोबारा सत्य की तलाश करो। तुम चाहे कितनी बार भी नकारात्मकता में पड़ो, अगर तुम उसे हल करने के लिए बस सत्य की तलाश करते रहते हो, और सत्य के लिए प्रयत्नशील रहते हो, तो तुम धीरे-धीरे अपनी नकारात्मकता से बाहर निकल आओगे। और एक दिन, तुम महसूस करोगे कि तुम्हारे भीतर आशीष पाने की इच्छा नहीं है और तुम अपने गंतव्य और परिणाम से बाधित नहीं हो, और तुम इन चीजों के बिना अधिक आसान और स्वतंत्र जीवन जी रहे हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के अभ्यास में ही होता है जीवन प्रवेश)। परमेश्वर के वचनों से, मुझे अनुसरण का सही लक्ष्य मिला। आस्था आशीषों की खातिर नहीं रखनी चाहिए, बल्कि सत्य का अनुसरण करने, स्वभाव में बदलाव लाकर परमेश्वर के प्रति समर्पण हासिल करने के लिए होनी चाहिए। चाहे मेरा परिणाम या मंज़िल अच्छी हो या न हो, मैं एक सृजित प्राणी हूँ, और इस नाते, मुझे परमेश्वर के प्रति समर्पित होना चाहिए, उसकी आराधना करनी चाहिए और अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए। यह वह विवेक है जो एक सृजित प्राणी में होना चाहिए। मुझे हमारे उद्धार के लिए वे ग्यारह कसौटियाँ याद आईं जो परमेश्वर हमसे पूरी करने की अपेक्षा करता है, जिनमें से एक कहती है : “यदि तुम सचमुच में सेवा करने वाले हो, तो क्या तुम अनमनेपन या नकारात्मक तत्वों के बिना निष्ठापूर्वक मुझे सेवा प्रदान कर सकते हो?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (2))। मनन करूँ तो अपना कर्तव्य करने में सचमुच मेरी अपनी इच्छाएँ और माँगें नहीं होनी चाहिए, और चाहे परमेश्वर चीजों का कैसा भी आयोजन करे, मुझे समर्पण करना चाहिए, अपने लिए चुनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। भले ही परमेश्वर कहे कि मैं एक सेवाकर्मी हूँ, मुझे फिर भी वफादारी से परमेश्वर के लिए सेवा करनी चाहिए और एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी जगह पर खड़ा रहनी चाहिए। इस अवसर पर भाई-बहनों को मेरी खराब काबिलियत का मूल्यांकन करते हुए सुनना परमेश्वर द्वारा अनुमत था और इसमें मेरे लिए सीखने को एक सबक था। इस स्थिति के माध्यम से, आशीष पाने और परमेश्वर से सौदा करने की मेरी नीच मंशा उजागर हुई, जिससे मुझे तुरंत पहचानने, पश्चाताप करने और अनुसरण को लेकर अपने पिछले गलत विचारों को सुधारने का मौका मिला। यह परमेश्वर का प्रेम था! इसके बिना, मैं खुद को कभी नहीं जान पाती और मेरे लिए सत्य का अनुसरण करने और उद्धार पाने के मार्ग पर चलना मुश्किल होता। इस एहसास के साथ, मुझे अब इस स्थिति के प्रति कोई प्रतिरोध महसूस नहीं हुआ, और मैं अब अपने भविष्य या मंज़िल के बारे में चिंता या परेशानी नहीं करना चाहती थी।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिससे मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “‘भले ही मेरी योग्यता कम है, लेकिन मेरे पास एक ईमानदार दिल है।’ ये शब्द बहुत वास्तविक लगते हैं, और उस अपेक्षा के बारे में बताते हैं जो परमेश्वर लोगों से चाहता है। कैसी अपेक्षा? यही कि यदि लोगों में योग्यता की कमी है, तो यह दुनिया का अंत नहीं है, लेकिन उनके पास ईमानदार हृदय होना चाहिए, और यदि उनके पास यह है, तो वे परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने में सक्षम होंगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारी स्थिति या पृष्ठभूमि क्या है, तुम्हें एक ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए, ईमानदारी से बोलना चाहिए, ईमानदारी से कार्य करना चाहिए, पूरे हृदय और मस्तिष्क से अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम होना चाहिए, अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, चालाकी करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, धूर्त या कपटी व्यक्ति मत बनो, झूठ मत बोलो, धोखा मत दो, और घुमा-फिरा कर बात मत करो। तुम्हें सत्य के अनुसार कार्य करना चाहिए और ऐसा व्यक्ति बनना चाहिए जो सत्य का अनुसरण करे। बहुत से लोगों को लगता है कि उनमें कम योग्यता है और वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से या मानक के अनुरूप नहीं निभाते हैं। वे जो करते हैं उसमें अपना सर्वश्रेष्ठ देते हैं, लेकिन वे सिद्धांतों को कभी भी समझ नहीं पाते हैं, और अभी बहुत अच्छे परिणाम नहीं दे पाते हैं। अंततः वे केवल यह शिकायत कर पाते हैं कि उनकी योग्यता बहुत कम है, और वे नकारात्मक हो जाते हैं। तो, क्या जब किसी व्यक्ति की योग्यता कम हो तो आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं है? कम योग्यता होना कोई घातक बीमारी नहीं है, और परमेश्वर ने कभी नहीं कहा कि वह कम योग्यता वाले लोगों को नहीं बचाता। जैसा कि परमेश्वर ने पहले कहा था, वह उन लोगों से दुखी होता है जो ईमानदार लेकिन अज्ञानी हैं। अज्ञानी होने का क्या मतलब है? कई मामलों में अज्ञानता कम योग्यता के कारण आती है। जब लोगों में योग्यता कम होती है तो उन्हें सत्य की सतही समझ होती है। यह विशिष्ट या पर्याप्त व्यावहारिक नहीं होती, और अक्सर सतही स्तर या शाब्दिक समझ तक ही सीमित होती है—यह धर्म-सिद्धांतों और विनियमों तक ही सीमित होती है। इसीलिए वे कई समस्याओं को स्पष्ट रूप से देख नहीं पाते हैं, और अपना कर्तव्य निभाते समय कभी भी सिद्धांतों को नहीं समझ पाते हैं, या अपना कर्तव्य अच्छी तरह नहीं निभा पाते हैं। तो क्या परमेश्वर कम योग्यता वाले लोगों को नहीं चाहता? (वह चाहता है।) परमेश्वर लोगों को कैसा मार्ग और दिशा दिखाता है? (एक ईमानदार व्यक्ति बनने का।) क्या ऐसा कहने मात्र से तुम एक ईमानदार व्यक्ति बन सकते हो? (नहीं, तुममें एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजनाएँ होनी चाहिए।) एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजनाएँ क्या हैं? सबसे पहले, परमेश्वर के वचनों के बारे में कोई संदेह नहीं होना। यह ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजनाओं में से एक है। इसके अलावा, सबसे महत्वपूर्ण अभिव्यंजना है सभी मामलों में सत्य की खोज और उसका अभ्यास करना—यह सबसे महत्वपूर्ण है। तुम कहते हो कि तुम ईमानदार हो, लेकिन तुम हमेशा परमेश्वर के वचनों को अपने मस्तिष्क के कोने में धकेल देते हो और वही करते हो जो तुम चाहते हो। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजना है? तुम कहते हो, ‘भले ही मेरी योग्यता कम है, लेकिन मेरे पास एक ईमानदार दिल है।’ फिर भी, जब तुम्हें कोई कर्तव्य मिलता है, तो तुम इस बात से डरते हो कि अगर तुमने इसे अच्छी तरह से नहीं किया तो तुम्हें पीड़ा सहनी और इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी, इसलिए तुम अपने कर्तव्य से बचने के लिए बहाने बनाते हो या फिर सुझाते हो कि इसे कोई और करे। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजना है? स्पष्ट रूप से, नहीं है। तो फिर, एक ईमानदार व्यक्ति को कैसे व्यवहार करना चाहिए? उसे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए, जो कर्तव्य उसे निभाना है उसके प्रति निष्ठावान होना चाहिए और परमेश्वर के इरादों को पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। यह कई तरीकों से व्यक्त होता है : एक तरीका है अपने कर्तव्य को ईमानदार हृदय के साथ स्वीकार करना, अपने दैहिक हितों के बारे में न सोचना, और इसके प्रति अधूरे मन का न होना या अपने लाभ के लिए साजिश न करना। ये ईमानदारी की अभिव्यंजनाएँ हैं। दूसरा है अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए अपना तन-मन झोंक देना, चीजों को ठीक से करना, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य में अपना हृदय और प्रेम लगा देना। अपना कर्तव्य निभाते हुए एक ईमानदार व्यक्ति की ये अभिव्यंजनाएँ होनी चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि किसी व्यक्ति की काबिलियत उसके उद्धार पाने का मानक नहीं है, बल्कि अहम यह है कि व्यक्ति सत्य को समझ और उसका अभ्यास कर सकता है या नहीं, और अंत में उसका जीवन स्वभाव बदलता है या नहीं। कुछ लोग, हालाँकि उनकी काबिलियत खराब होती है और वे सत्य को धीरे-धीरे समझते हैं, लेकिन वे सत्य का अनुसरण करते हैं, ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास करते हैं, और अपने कर्तव्यों में अपना दिल लगाते और पूरी कोशिश करते हैं। ऐसे लोग अंततः उद्धार पा सकते हैं। अपने बारे में सोचूँ तो, मेरी काबिलियत खराब थी और मैं विनियमों से चिपके रहने लगती थी, इसलिए मुझे अच्छे परिणाम नहीं मिले। यही हकीकत थी। लेकिन परमेश्वर कहता है कि खराब काबिलियत होना कोई जानलेवा बीमारी नहीं है। चूँकि मेरी काबिलियत खराब है और मैं सत्य को धीरे-धीरे समझती हूँ, मुझे परमेश्वर के वचनों पर और अधिक मेहनत करनी चाहिए। मुझे ऊपरवाले के उपदेशों और संगति को और अधिक सुनना चाहिए, और किसी भी समस्या या कठिनाई के बारे में भाई-बहनों से और अधिक खोजना, संगति और चर्चा करनी चाहिए। इस तरह, मैं प्रगति कर सकती हूँ और कुछ वास्तविक काम कर सकती हूँ। मैंने कलीसिया में उजागर हुए झूठे अगुवाओं और मसीह-विरोधियों के बारे में सोचा। कुछ के पास अच्छी काबिलियत और गुण थे, लेकिन क्योंकि उन्होंने सत्य का बिल्कुल भी अनुसरण नहीं किया, और अपने कर्तव्य केवल अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर किए, अंत में, उन्होंने कलीसिया के काम में गड़बड़ की और बाधा डाली, और उन्हें निष्कासित और हटा दिया गया। जबकि कुछ भाई-बहनों की काबिलियत भले ही अच्छी न हो, लेकिन वे परमेश्वर के वचनों से जो समझते हैं, उसका अभ्यास करते हैं, अपने कर्तव्य पूरे मन से करते हैं और मेहनती होते हैं, और कलीसिया उनके लिए जो भी कर्तव्य की व्यवस्था करती है, वे उसके प्रति समर्पित होते हैं। क्योंकि वे सही लोग हैं, सही दिल रखते हैं, और परमेश्वर और अपने कर्तव्यों के प्रति एक ईमानदार रवैया रखते हैं, वे अपने कर्तव्यों में कुछ परिणाम पा सकते हैं। बेशक, अगर किसी व्यक्ति की काबिलियत सचमुच खराब है, इस हद तक कि वे परमेश्वर के वचन या सत्य को समझ ही नहीं सकते, तो उनके लिए सत्य पाना, जीवन स्वभाव में बदलाव लाना और परमेश्वर द्वारा बचाया जाना मुश्किल हो जाता है। यह भी एक हकीकत है। इसलिए, कोई व्यक्ति उद्धार पा सकता है या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह परमेश्वर के वचन समझ सकता है या नहीं, क्या वह सत्य को समझ और उसका अभ्यास कर सकता है, और क्या उसका जीवन स्वभाव बदलता है। ये सबसे महत्वपूर्ण बातें हैं।
उसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और अभ्यास के मार्ग के बारे में अधिक स्पष्ट हो गई। परमेश्वर कहता है : “लोगों की क्षमता बढ़ाने का अर्थ है, तुम लोगों से अपनी बोध क्षमता बढ़ाने की अपेक्षा करना, ताकि तुम परमेश्वर के वचन समझ सको और यह जान सको कि उन पर कैसे कार्य करना है। यह सबसे बुनियादी अपेक्षा है। अगर तुम मेरा कहा समझे-बूझे बिना मेरा अनुसरण करते हो तो क्या तुम्हारी आस्था भ्रमित नहीं है? मैं चाहे जितने भी वचन कहूँ, अगर वे तुम्हारी पहुँच से बाहर हैं, अगर तुम उन्हें समझ नहीं पाते, फिर चाहे मैं कुछ भी कहूँ, तो इसका अर्थ है कि तुम लोग कम काबिल हो। बोध क्षमता न होने से तुम मेरी कही कोई बात नहीं समझ पाते जिससे वांछित परिणाम हासिल करना बहुत मुश्किल हो जाता है; बहुत-कुछ है, जो मैं तुम लोगों से सीधे नहीं कह सकता, और अभीष्ट प्रभाव प्राप्त नहीं किया जा सकता, जिससे अतिरिक्त कार्य आवश्यक हो जाता है। चूँकि तुम लोगों की बोध क्षमता, चीजों को देखने की तुम्हारी क्षमता, और जीवन जीने के तुम्हारे मानक अत्यंत कम हैं, इसलिए तुम लोगों में ‘क्षमता बढ़ाने’ का काम किया ही जाना चाहिए। यह अपरिहार्य है, और इसका कोई विकल्प नहीं है। केवल इसी तरह कुछ परिणाम प्राप्त किया जा सकता है, अन्यथा वे सभी वचन व्यर्थ हो जाएँगे, जो मैं कहता हूँ। और तब क्या तुम लोग इतिहास में पापियों के रूप में याद नहीं किए जाओगे? क्या तुम लोग दुनिया के सबसे नीच लोग नहीं बन जाओगे? क्या तुम लोग नहीं जानते कि तुम लोगों पर कौन-सा कार्य किया जा रहा है, और तुमसे क्या अपेक्षित है? तुम लोगों को अपनी क्षमता का पता अवश्य होना चाहिए : वह मेरी अपेक्षा पर बिल्कुल खरी नहीं उतरती। और क्या इससे मेरे कार्य में देरी नहीं होती? तुम लोगों की वर्तमान क्षमता और तुम्हारे चरित्र की अवस्था के आधार पर, तुम में से एक भी ऐसा नहीं है जो मेरी गवाही देने के उपयुक्त हो, न ही तुम में से कोई ऐसा है जो मेरे भावी कार्य के भारी उत्तरदायित्व सँभालने में समर्थ हो। क्या तुम लोग गहराई से शर्मिंदा महसूस नहीं करते? अगर तुम ऐसे ही चलते रहे, तो तुम मेरे इरादे कैसे पूरे कर सकोगे? तुम्हें अपना जीवन पूरी तरह से जीना चाहिए। समय व्यर्थ न जाने दो—ऐसा करने का कोई मूल्य नहीं। तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम्हें किन चीजों से लैस होना चाहिए। खुद को हरफनमौला मत समझो, तुम्हें अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना है! अगर तुम्हें मानवता का न्यूनतम सामान्य ज्ञान भी नहीं है, तो फिर कहने के लिए और क्या बचता है? क्या यह सब व्यर्थ नहीं है?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, क्षमता बढ़ाना परमेश्वर का उद्धार पाने के लिए है)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि हालाँकि मेरी काबिलियत खराब थी, मैं सत्य में धीरे-धीरे प्रवेश करती थी और मेरी कार्य कुशलता दूसरों से कम थी, लेकिन मैं खुद से उम्मीद नहीं छोड़ सकती, नकारात्मक नहीं हो सकती, या पीछे नहीं हट सकती। मुझे सक्रिय रूप से सत्य के लिए प्रयास करना था, प्रासंगिक सिद्धांत सीखने थे, अपनी काबिलियत में सुधार करना था, और अपने कर्तव्यों को पूरा करने की पूरी कोशिश करनी थी। अगर भाई-बहनों का यह मूल्यांकन न होता, तो मैं खुद को नहीं जान पाती। मैं हमेशा सोचती थी कि मेरी काबिलियत अच्छी है और मैं कुछ काम करने में सक्षम हूँ, और मैं आत्म-प्रशंसा और आत्म-संतुष्टि की दशा में जीती थी। अगर मैं इसी तरह चलती रहती, तो मैं कभी कोई प्रगति नहीं कर पाती। परमेश्वर का इरादा समझने के बाद, मैं अब अपनी खराब काबिलियत से बेबस नहीं थी, और चाहे मैं इस कर्तव्य में कितने भी समय तक रहूँ, मैं अपनी शक्ति अर्पित करने और अपने कर्तव्य पर डटे रहने को तैयार थी। भले ही एक दिन अपनी काबिलियत के अपर्याप्त होने के कारण मेरे कर्तव्य में फिर से बदलाव कर दिया जाए, मैं परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने को तैयार थी। बाद में, मैंने अपनी काबिलियत में सुधार करने पर ध्यान देना शुरू कर दिया। मैंने अपने कर्तव्य में सक्रिय रूप से अध्ययन और शोध किया, अपने कर्तव्यों में पिछली गलतियों और विचलनों पर चिंतन किया और उनका सार निकाला, और सिद्धांतों के अनुसार काम करने पर ध्यान केंद्रित किया। अनजाने में ही, मैंने अपने कर्तव्यों में कुछ प्रगति करनी शुरू कर दी, और जैसे-जैसे मैंने ऊपर की ओर प्रयास किया, मेरे कर्तव्यों में मेरी कुशलता भी बेहतर हुई।
इस अनुभव के माध्यम से, मैंने अपने लिए परमेश्वर के प्रेम और उद्धार को महसूस किया, और मैंने देखा कि परमेश्वर की अलग-अलग काबिलियत वाले लोगों से अलग-अलग अपेक्षाएँ होती हैं। किसी व्यक्ति की काबिलियत चाहे जैसी भी हो, जब तक वे ईमानदारी से सत्य का अनुसरण करते हैं, और अपने कर्तव्यों में वफादार और समर्पित रहते हैं, तो चाहे वे कोई भी हों, उनके पास उद्धार का मौका होता है। यह परमेश्वर की धार्मिकता है।