63. मैं अपने कर्तव्य में बोझ उठाने को तैयार हूँ

शियाओ युशिन, चीन

जुलाई 2023 के मध्य में मैं कलीसिया में पाठ-आधारित कर्तव्य निभा रही थी, दो अन्य बहनों के साथ कार्य कर रही थी : एक नई सदस्य, वांग शू और दूसरी लिन शी थी। अगस्त के अंत में अगुआओं ने लिन शी को अस्थायी रूप से दूसरा कार्य करने को कहा और इसलिए टीम में केवल वांग शू और मैं ही बचे। आमतौर पर पर्यवेक्षक हमारे साथ कार्य पर चर्चा के बाद मुझे अधिक कठिन कार्य का कार्यान्वयन करने और संभालने को कहती थी और वांग शू के लिए सरल कार्य करने की व्यवस्था करती थी। शुरू में तो मैं इसे सही ढंग से लेती थी, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया मुझे टीम के बहुत से कार्यों की चिंता होने लगी, पर्यवेक्षक हमेशा मुझे अधिक कठिन कार्य सौंपने लगी थी जिन्हें अच्छे से करने में बहुत समय और प्रयास लगता था। नतीजतन मेरे पास बहुत कम खाली समय बचता था, मैं मन ही मन कुछ असंतुलित महसूस करने और शिकायत करने लगी, “सारे कठिन कार्य मुझे ही क्यों सौंपे जाते हैं? भले ही वांग शू लंबे समय से प्रशिक्षण नहीं ले रही है और उसे अभी भी सिद्धांतों की ठोस समझ नहीं है, लेकिन उसने पहले पाठ-आधारित कार्य किया है और उसे इसकी बुनियादी समझ है। क्या वह थोड़े-बहुत अधिक कठिन कार्यों का भी प्रशिक्षण नहीं ले सकती? सारी चीजें मुझे ही सौंप दिए जाने की वजह से मैं सारा दिन भयंकर तनाव में रहती हूँ और इस तरह से कर्तव्य करना बहुत थका देने वाला होता है!” जितना मैं इसके बारे में सोचती, उतनी ही परेशान होती जाती।

एक दिन अगुआओं ने मुझे एक पाठ-आधारित कार्य को पूरा करने के लिए कुछ पत्र लिखने को कहा जो बहुत जरूरी था। मैंने झटपट दो पत्र लिख डाले जिन्हें लिखने के लिए मुझे काफी सोच-विचार करना पड़ा। पत्र लिखने के बाद मैंने राहत की साँस ली और सोचा, “अभी एक सम्प्रेषण पत्र लिखना बाकी है और इसे जिस तरह से भी देखो, इसे लिखने की बारी वांग शू की है। इस तरह मेरे लिए भी चीजें ज्यादा आसान हो जाती हैं।” लेकिन मुझे उम्मीद नहीं थी कि पर्यवेक्षक मुझे फिर से सम्प्रेषण पत्र लिखने के लिए नामित करेगी और मेरे मन में बहुत प्रतिरोध हुआ, “फिर से मैं ही क्यों? तुम वांग शू को सम्प्रेषण पत्र लिखने का प्रशिक्षण लेने को क्यों नहीं कहती? निष्पक्ष और उचित होने का यही एकमात्र तरीका है! भले ही वांग शू के पेशेवर कौशल थोड़े कमजोर हैं, क्या मैं उसके लिखे हुए में कुछ और जोड़कर उसे बेहतर नहीं बना सकती? इस तरह मैं थोड़ी ऊर्जा बचा सकती हूँ।” लेकिन पर्यवेक्षक ने पहले ही सारी व्यवस्था कर दी थी, इसलिए मैं मना नहीं कर सकती थी। उन दिनों जब भी मैं सोचती थी कि पर्यवेक्षक मुझे हमेशा कोई न कोई कार्य सौंप ही देती है और ज्यादातर कार्य में बहुत दिमाग लग जाता है तो मैं उदास और चिड़चिड़ी हो जाती थी और चाहती थी कि लिन शी जल्दी वापस आ जाए ताकि मेरे लिए चीजें थोड़ी आसान हो जाएँ। उसके बाद मैं अपने कर्तव्यों को पहले जितने सकारात्मक रूप में नहीं निभा पाती थी। मुझे लगता था कि चूँकि टीम में सिर्फ दो ही लोग हैं तो अगर मैं खाली न बैठकर रोज थोड़ा-बहुत कार्य करती रहूँ तो उतना काफी होगा। इस तरह मुझे ज्यादा थकान भी नहीं होगी। क्योंकि मैंने अपनी अपेक्षाओं को कम कर दिया था और चीजों की योजना सख्ती से नहीं बनाती थी, जो चीजें उसी दिन पूरी हो सकती थीं, वे अगले दिन तक टल जाती थीं और यह विचार भी मेरे मन में बार-बार आता था कि मैं यह कार्य नहीं करना चाहती। भले ही मुझे एहसास हो गया था कि अपने कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया गलत है और अपने कर्तव्य पालन के बारे में परमेश्वर के कुछ वचन भी पढ़े, लेकिन मैंने अपनी समस्याओं पर कभी गंभीरता से विचार नहीं किया और ये मनोदशाएँ हल नहीं हुईं। जब हम साथ मिलकर कार्य पर चर्चा कर रहे थे तो मैं कुछ भी कहना नहीं चाहती थी, मुझे डर था कि कहीं पर्यवेक्षक देख न ले कि मेरे पास कुछ विचार हैं और मुझे वह कार्य न सौंप दे। बाद में मैंने अपने कर्तव्य के प्रति अपने रवैये पर विचार किया। हालाँकि मैंने वही किया पर्यवेक्षक ने मेरे लिए जिसकी व्यवस्था की थी, फिर भी मेरे दिल में बहुत सारी शिकायतें थीं। परमेश्वर को यह स्वीकार नहीं कि हम हमेशा अपने कर्तव्यों को इतनी अनिच्छा से करें। मैंने अपनी मनोदशा के बारे में परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे प्रबुद्ध कर मेरा मार्गदर्शन करे ताकि मैं आत्मचिंतन करने और खुद को समझने योग्य बन सकूँ।

अपनी भक्ति के दौरान जब मैं आत्म-चिंतन कर रही थी तो मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “कर्तव्यों का दायरा बहुत व्यापक होता है और इसमें कई क्षेत्र शामिल होते हैं—लेकिन तुम चाहे कोई भी कर्तव्य निभाओ, सीधे तौर पर कहें तो यह तुम्हारा दायित्व है और यह तुम्हें करना चाहिए। अगर तुम उसे अपने दिल से अच्छी तरह निभाने का प्रयास करोगे, तो परमेश्वर तुम्हारा अनुमोदन करेगा और तुम्हें परमेश्वर का सच्चा विश्वासी मानेगा। तुम चाहे कोई भी हो, अगर तुम अपने कर्तव्य से बचने या जी चुराने की कोशिश करोगे, तो फिर यह समस्या है। नरमी से कहा जाए तो तुम बहुत आलसी हो, बहुत धूर्त हो, तुम निठल्ले और आरामपसंद हो और श्रम से घृणा करते हो। इसे अधिक गंभीरता से कहा जाए तो तुम अपना कर्तव्य निभाने के इच्छुक नहीं हो और तुममें कोई वफादारी या समर्पण नहीं है। यदि तुम इस छोटे-से कार्य का जिम्मा लेने के लिए शारीरिक प्रयास भी नहीं कर सकते, तो तुम क्या कर सकते हो? तुम ठीक से क्या करने में सक्षम हो? यदि कोई व्यक्ति वास्तव में अपने कर्तव्य के प्रति वफादार है और उसमें जिम्मेदारी की भावना है, तो अगर परमेश्वर किसी चीज की अपेक्षा करता है, अगर परमेश्वर के घर को किसी चीज की आवश्यकता है, तो वह अपनी पसंद देखे बिना वो सब-कुछ करेगा जो उससे करने के लिए कहा जाता है। क्या यह कर्तव्य-निर्वहन का ही एक सिद्धांत नहीं है कि व्यक्ति जो कुछ भी करने में सक्षम है और जो कुछ उसे करना चाहिए, वह उसकी जिम्मेदारी ले और उसे अच्छी तरह करे? (हाँ।) ... हर चीज कहनी आसान है, करनी कठिन। जब लोग वास्तव में किसी काम की जिम्मेदारी लेते हैं, तो एक लिहाज से यह महत्वपूर्ण है कि उनका चरित्र कैसा है और दूसरे लिहाज से, क्या वे सत्य से प्रेम करते हैं या नहीं। पहले चरित्र के बारे में बात करते हैं। यदि व्यक्ति अच्छे चरित्र का है, तो वह हर चीज का सकारात्मक पक्ष देखता है, और चीजों को सकारात्मक दृष्टिकोण से और सत्य के आधार पर स्वीकार करने और समझने में सक्षम होता है; अर्थात् उसका हृदय, चरित्र और आत्मा ईमानदार हैं—यह चरित्र के दृष्टिकोण से है। इसके बाद, चलो हम दूसरे पहलू के बारे में बात करें—वह सत्य से प्रेम करता है या नहीं। सत्य से प्रेम करने का अर्थ सत्य को स्वीकार करने में सक्षम होना है अर्थात् चाहे तुम परमेश्वर के वचनों को समझते-बूझते हो या नहीं, और चाहे तुम परमेश्वर का इरादा समझते हो या नहीं, चाहे उस कार्य के बारे में, उस कर्तव्य के बारे में जिसे निभाने की तुमसे अपेक्षा की जाती है, तुम्हारा विचार, मत और दृष्टिकोण सत्य के अनुरूप हो या नहीं, अगर तुम फिर भी उसे परमेश्वर से स्वीकार लेते हो, और आज्ञाकारी और ईमानदार हो, तो यह काफी है, यह तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने के योग्य बनाता है, और यह न्यूनतम अपेक्षा है। अगर तुम आज्ञाकारी और ईमानदार हो, तो कोई कार्य करते हुए तुम लापरवाह नहीं रहोगे और धोखेबाजी से ढिलाई नहीं बरतोगे, बल्कि उसमें अपना सारा दिल और शक्ति झोंक दोगे। अगर व्यक्ति की भीतरी दशा खराब है और उनमें नकारात्मकता पैदा होती है, तो उनका जोश ठंडा पड़ जाता है और वे लापरवाह होना चाहते हैं; वे अपने हृदय में अच्छी तरह जानते हैं कि उनकी दशा ठीक नहीं है, फिर भी वे सत्य को खोजकर उसे ठीक करने की कोशिश नहीं करते। ऐसे लोगों को सत्य से प्रेम नहीं होता, वे केवल अपना कर्तव्य निभाने के थोड़े-बहुत ही इच्छुक होते हैं; वे कोई प्रयास करने या कठिनाई सहने के इच्छुक नहीं होते हैं और वे हमेशा धोखेबाजी से ढिलाई बरतने की कोशिश करते हैं। वास्तव में, परमेश्वर इन सबकी पहले ही पड़ताल कर चुका है—तो वह इन लोगों पर ध्यान क्यों नहीं देता? परमेश्वर बस यह प्रतीक्षा कर रहा है कि उसके चुने हुए लोग जाग जाएँ, उन लोगों का भेद पहचान कर उन्हें उजागर करें और उन्हें हटा दें। लेकिन, ऐसे लोग फिर भी अपने मन में यही सोचते हैं, ‘देखो मैं कितना चतुर हूँ। हम वही खाना खाते हैं, लेकिन काम करने के बाद तुम लोग पूरी तरह से थक जाते हो और मैं बिल्कुल भी नहीं थकता। मैं चतुर हूँ। मैं उतनी कड़ी मेहनत नहीं करता; जो कोई कड़ी मेहनत करता है, वह मूर्ख है।’ क्या उनका ईमानदार लोगों को इस नजरिये से देखना सही है? नहीं। वास्तव में, जो लोग अपना कर्तव्य निभाते हुए कड़ी मेहनत करते हैं, वे सत्य का अभ्यास कर रहे होते हैं और परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे होते हैं, इसलिए वे ही सबसे चतुर लोग हैं। वे किस कारण चतुर हैं? वे कहते हैं, ‘मैं ऐसा कुछ भी नहीं करता जो परमेश्वर मुझसे करने के लिए नहीं कहता, और मैं वह सब करता हूँ जो वह मुझसे करने के लिए कहता है। वह जो कुछ भी करने को कहता है, मैं करता हूँ, और उसमें अपना दिल और अपनी पूरी ताकत लगा देता हूँ, मैं बिल्कुल भी आधे-अधूरे मन से काम नहीं करता। मैं यह कार्य किसी व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि परमेश्वर के लिए करता हूँ। परमेश्वर मुझसे बहुत प्यार करता है, मुझे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए यह करना चाहिए।’ यह सही मनःस्थिति है। लिहाजा जब कलीसिया लोगों को दूर करती है, तो जो लोग अपना कर्तव्य निभाने में धूर्त होते हैं, वे सभी हटा दिए जाते हैं, जबकि वो ईमानदार लोग जो परमेश्वर की पड़ताल को स्वीकार करते हैं, वे बने रहते हैं। इन ईमानदार लोगों की दशाएँ सुधरती जाती हैं और उनके साथ जो भी चीजें घटित होती हैं उनमें परमेश्वर उनकी रक्षा करता है। और उन्हें यह सुरक्षा किस कारण से मिलती है? इस कारण से कि वे दिल से ईमानदार हैं। वे अपना कर्तव्य निभाते हुए कठिनाई या थकावट से नहीं डरते, और उन्हें जो भी काम सौंपा जाता है उसमें वे मीनमेख नहीं निकालते; वे कभी प्रश्न नहीं पूछते, जैसा कहा जाता है वे बस वैसा ही करते हैं, वे बिना कोई जाँच-पड़ताल या विश्लेषण किए बिना या किसी भी अन्य बात पर विचार किए बिना आज्ञा का पालन करते हैं। वे कोई चाल नहीं चलते, बल्कि वे सभी चीजों में आज्ञाकारी होने में सक्षम होते हैं। उनकी आंतरिक दशा हमेशा बहुत सामान्य होती है। खतरे से सामना होने पर परमेश्वर उनकी रक्षा करता है; जब उन्हें कोई बीमारी या महामारी होती है, तब भी परमेश्वर उनकी रक्षा करता है—और भविष्य में वे सिर्फ आशीषों का आनंद उठाएँगे। कुछ लोग इस मामले की असलियत समझ ही नहीं पाते। जब वे ईमानदार लोगों को कर्तव्य निभाते हुए स्वेच्छा से कष्ट और थकावट सहते देखते हैं तो उन्हें लगता है कि ये ईमानदार लोग बेवकूफ हैं। मुझे बताओ, क्या यह बेवकूफी है? यह ईमानदारी है, यही सच्ची आस्था है। कई ऐसी चीजें हैं जिन्हें व्यक्ति सच्ची आस्था के बिना वास्तव में कभी समझ या समझा नहीं सकता है। वास्तव में हो क्या रहा है, यह बात सबसे स्पष्ट रूप से सिर्फ वो लोग जानते हैं जो सत्य को समझते हैं, जो हमेशा परमेश्वर के समक्ष रहते हैं, उनके साथ सामान्य संबंध रखते हैं और जो वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं और ईमानदारी से उसका भय मानते हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग चार))। परमेश्वर उजागर करता है कि जो लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं, लेकिन कष्ट या कीमत नहीं चुकाना चाहते और हमेशा बचने की कोशिश करते हैं, वे आलसी होते हैं, आराम पसंद होते हैं और मेहनत से घृणा करते हैं। ऐसे लोगों में कोई मानवता नहीं होती और वे अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान नहीं होते। मैंने परमेश्वर के वचनों की तुलना में अपनी मनोदशा और व्यवहार पर विचार किया। लिन शी के स्थानांतरण के बाद टीम में केवल वांग शू और मैं ही बचे थे। हालाँकि पहले मैं अपने कर्तव्य का बोझ उठाने को तैयार थी, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, मुझे बहुत सारे कार्यों की चिंता करनी पड़ी और पर्यवेक्षक लगातार मेरे लिए अधिक कठिन कार्यों की व्यवस्था करती रहती थी जिनके लिए मुझे प्रयास करना पड़ता था और कीमत चुकानी पड़ती थी जिससे मेरा सिर हर दिन बेहद तनावग्रस्त रहता था। मुझे लगने लगा था कि इस तरह अपना कर्तव्य निभाने में बहुत अधिक कष्ट होता है, इसलिए मैं शिकायत करती और बड़बड़ाती रहती। अपने शरीर को कष्ट और थकान से बचाने के लिए मैं लगातार वांग शू पर कार्य थोपने के बारे में सोचती थी ताकि मुझे अधिक आराम मिल सके, लेकिन पर्यवेक्षक ने मेरे लिए तमाम मुश्किल कार्यों की व्यवस्था कर दी। जब मेरे अपने दैहिक हित पूरे नहीं हो पाते थे तो मैं प्रतिरोधी और असंतुष्ट महसूस करती थी। भले ही मैं कार्य कर रही थी, लेकिन मैं ऐसा सिर्फ विकल्प न होने के कारण कर रही थी और मेरा दिल बेसब्री से उस समय का इंतजार कर रहा था जब लिन शी वापस आएगी ताकि हम कार्य का बोझ बाँट सकें और मुझे कम कष्ट सहना पड़े। जब हम सब मिलकर कार्य पर चर्चा करते थे तो मैं धूर्तता दिखाते हुए अपनी राय जाहिर न करती, मुझे डर रहता था कि पर्यवेक्षक कहीं मुझे और कार्य करने को न कह दे। मैं तो यह कर्तव्य भी नहीं करना चाहती थी। मैंने देखा कि मैं बिल्कुल उसी तरह की आलसी इंसान हूँ जिसे आराम पसंद है और मेहनत से नफरत है और जिसे परमेश्वर ने उजागर किया है। जो लोग अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभाते हैं, वे अपने कर्तव्य को अपनी मूल जिम्मेदारियों का हिस्सा मानते हैं। चाहे उन्हें कितना भी कष्ट सहना पड़े या कितनी भी बड़ी कीमत चुकानी पड़े, जो भी कार्य उन्हें करना चाहिए, वे उसका भार उठाने की पहल करते हैं और उस कार्य को करने में अपना तन-मन लगा देते हैं। वे आलसी या टाल-मटोल करने वाले नहीं होते और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने की जिम्मेदारी लेने में कर्तव्यनिष्ठ होते हैं। यह मनुष्य के लिए आश्वस्त करने वाला और परमेश्वर के लिए संतोषजनक होता है। लेकिन दूसरी ओर, मैंने अपना कर्तव्य निभाते समय हमेशा दैहिक हित का ध्यान रखा। मैं आलसी और टाल-मटोल करने वाली थी, अपने कर्तव्य में पूरा तन-मन लगाने में असमर्थ थी। मैंने देखा कि मैं एक बुरे चरित्र वाली इंसान हूँ जो अपने कर्तव्य के बहाने आराम करने और परमेश्वर के घर का खाना खाने में लिप्त रहती थी। मैं बहुत ही नीच और घिनौनी थी! परमेश्वर ने मुझे अपना कर्तव्य निभाने और सत्य प्राप्त करने का अवसर दिया, लेकिन मैंने दैहिक हित का ध्यान रखा और उसे संजोया नहीं। एक बार यह अवसर हाथ से निकल गया तो पछतावे के लिए भी वक्त नहीं बचेगा। मैं अब अपने कर्तव्य को ऐसे नहीं निभा सकती थी। मुझे जल्दी से सब कुछ बदलना था।

बाद में पर्यवेक्षक ने हमारे साथ सभा की और परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े। उसमें एक अंश मेरी मनोदशा पर एकदम सटीक बैठता था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को समझ नहीं लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। उस प्रकृति में विशिष्ट रूप से क्या शामिल होता है? उदाहरण के लिए, तुम स्वार्थी क्यों हो? तुम अपने पद की रक्षा क्यों करते हो? तुम्हारी भावनाएँ इतनी प्रबल क्यों हैं? तुम उन अधार्मिक चीजों से प्यार क्यों करते हो? ऐसी बुरी चीजें तुम्हें अच्छी क्यों लगती हैं? ऐसी चीजों को पसंद करने का आधार क्या है? ये चीजें कहाँ से आती हैं? तुम इन्हें स्वीकार कर इतने खुश क्यों हो? अब तक, तुम सब लोगों ने समझ लिया है कि इन सभी चीजों के पीछे मुख्य कारण यह है कि मनुष्य के भीतर शैतान का जहर है। तो शैतान का जहर क्या है? इसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, यदि तुम पूछते हो, ‘लोगों को कैसे जीना चाहिए? लोगों को किसके लिए जीना चाहिए?’ तो लोग जवाब देंगे, ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।’ यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का फलसफा और तर्क लोगों का जीवन बन गए हैं। लोग चाहे जिसका भी अनुसरण करें, वे ऐसा बस अपने लिए करते हैं, और इसलिए वे केवल अपने लिए जीते हैं। ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए’—यही मनुष्य का जीवन-दर्शन है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। ये शब्द पहले ही भ्रष्ट इंसान की प्रकृति बन गए हैं, और वे भ्रष्ट इंसान की शैतानी प्रकृति की सच्ची तस्वीर हैं। यह शैतानी प्रकृति पहले ही भ्रष्ट इंसान के अस्तित्व का आधार बन चुकी है। कई हजार सालों से वर्तमान दिन तक भ्रष्ट इंसान शैतान के इस जहर से जिया है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे बोझ उठाने की इच्छा न होने का मूल कारण थोड़ा-बहुत समझ आया। मैं हमेशा से ही जीवित रहने के शैतानी नियमों के अनुसार जीती आई थी, जैसे “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” और “कभी घाटे का सौदा मत करो।” ये बातें मेरे दिल में गहराई से बैठ गई थीं और मेरी प्रकृति बन गई थीं। इन शैतानी जहर के अनुसार जीने से मैं और भी ज्यादा स्वार्थी और नीच होती चली गई, मैं अपने आचरण और हर कार्य में अपने दैहिक हितों को ध्यान में रखती थी। शुरुआत में हम तीनों मिलकर कार्य करती थीं और हर कोई कार्य का बोझ बाँट लेती थी। यह शरीरिक तौर पर ज्यादा थकाऊ नहीं था और मैं सामान्य रूप से कार्य कर पाती थी। लेकिन लिन शी के दूसरे कर्तव्यों के लिए चले जाने के बाद मेरी स्वार्थी और नीच प्रकृति बेनकाब हो गई। जब पर्यवेक्षक ने मेरे लिए ज्यादा मुश्किल कार्य करने की व्यवस्था की तो मैंने प्रतिरोध और शिकायत की, मुझे लगा कि मेरे साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार किया जा रहा है। मैं अपने कर्तव्य को अपनी जिम्मेदारी ही नहीं मानती थी। दरअसल मैं लंबे समय से पाठ-आधारित कर्तव्य निभा रही थी और कुछ सिद्धांत समझ चुकी थी। मेरे लिए ज्यादा कार्य संभालना सही था : मुझे यह कर्तव्य करना चाहिए था। लेकिन मैं स्वार्थी और नीच थी और कष्ट नहीं सहना चाहती थी। मैं अपना पूरा प्रयास करने को तैयार नहीं थी और कार्य के नतीजों पर विचार नहीं करती थी। मुझमें सचमुच कोई दायित्व-बोध नहीं था। मैं परमेश्वर के वचनों के सिंचन और पोषण का आनंद तो लेती थी, लेकिन परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान देने के लिए उसकी खातिर मैं खुद को ईमानदारी से नहीं खपाती थी। जब कर्तव्य मेरे दैहिक हितों से टकराते तो मैं कलीसिया के कार्य पर विचार नहीं करती थी, बल्कि अपने कर्तव्य और जिम्मेदारियों को भी पूरा नहीं करना चाहती थी। मैं बहुत ज्यादा स्वार्थी और नीच थी! मैंने सोचा कि कर्तव्य परमेश्वर से आता है, इसलिए अपने कर्तव्य के प्रति हमारा रवैया ही परमेश्वर के प्रति हमारा रवैया होता है। अपने कर्तव्य को नकारना और अपनी जिम्मेदारियों से बचना परमेश्वर के साथ विश्वासघात है! जब मैंने यह सोचा तो मैं बहुत परेशान हो गई और आत्म-ग्लानि से भर गई। मैं परमेश्वर से पश्चात्ताप करने और अपना अपेक्षित कर्तव्य निभाने को तैयार थी, और एक ऐसी इंसान बनना चाहती थी जिसमें जमीर हो और जो विवेकशील हो।

बाद में पर्यवेक्षक ने मुझसे खुलकर बात की और इस बारे में संगति की कि इस तरह से कार्य की व्यवस्था मुख्यतः इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए की गई थी कि वांग शू ने अभी-अभी प्रशिक्षण लेना शुरू किया था और उसे कार्य से परिचित होने के लिए समय चाहिए था, जबकि मैं यह कर्तव्य लंबे समय से निभा रही थी और इसके पेशेवर कौशल सहित सभी पहलुओं से अधिक परिचित थी। इसलिए उसने मेरे लिए और अधिक कार्य करने की व्यवस्था की। पर्यवेक्षक ने मुझे परमेश्वर के वचन भी पढ़कर सुनाए : “यदि तुम लोग सत्य का अनुसरण करते हो तो तुम लोगों को अपने कार्य करने के तरीके को बदलना चाहिए। तुम्हें अपने हितों और अपने व्यक्तिगत इरादों और इच्छाओं को त्याग देना चाहिए। जब तुम लोग कार्य करते हो तो तुम्हें सबसे पहले सत्य पर एक साथ संगति करनी चाहिए और आपस में कार्य विभाजित करने से पहले परमेश्वर के इरादों और अपेक्षाओं को समझना चाहिए और साथ ही इस बात पर भी नजर रखनी चाहिए कि कौन किसमें अच्छा है और कौन बुरा। तुम्हें उन कार्यों को लेना चाहिए जिन्हें तुम करने में सक्षम हो और अपने कर्तव्य को दृढ़ता से निभाना चाहिए। चीजों के लिए लड़ो या छीना-झपटी मत करो। तुम्हें समझौता करना और सहनशील होना सीखना चाहिए। यदि किसी ने अभी-अभी कोई कर्तव्य निभाना शुरू किया है या किसी कार्य क्षेत्र के लिए कोई कौशल बस सीखा ही है, लेकिन वह कुछ कार्य करने में सक्षम नहीं है, तो तुम्हें उन्हें मजबूर नहीं करना चाहिए। तुम्हें उन्हें ऐसे कार्य सौंपने चाहिए जो थोड़े आसान हों। इससे उनके लिए अपने कर्तव्य निर्वहन में परिणाम प्राप्त करना आसान हो जाता है। सहनशील, धैर्यवान और सैद्धांतिक होने का यही मतलब है। यही वो चीज है जो सामान्य मानवता में होनी चाहिए; परमेश्वर भी लोगों से इसी की अपेक्षा करता है और लोगों को भी इसी का अभ्यास करना चाहिए। यदि तुम किसी कार्य क्षेत्र में काफी कुशल हो और दूसरों से ज्यादा उस क्षेत्र में सबसे लंबे समय से कार्य कर रहे हो, तो फिर तुम्हें अधिक कठिन कार्य सौंपा जाना चाहिए। तुम्हें इसे परमेश्वर से स्वीकार करना चाहिए और समर्पण करना चाहिए। नुकताचीनी मत करो और यह कहते हुए शिकायत न करो कि ‘मुझे परेशान क्यों किया जा रहा है? वे अन्य लोगों को आसान कार्य देते हैं और मुझे कठिन कार्य देते हैं। क्या वे मेरे जीवन को कठिन बनाने की कोशिश कर रहे हैं?’ ‘तुम्हारे जीवन को कठिन बनाने की कोशिश कर रहे हैं’? इससे तुम्हारा क्या मतलब है? कार्य व्यवस्थाएँ प्रत्येक व्यक्ति के अनुरूप होती हैं; जो लोग सक्षम होते हैं वे अधिक कार्य करते हैं। यदि तुमने बहुत कुछ सीखा है और परमेश्वर द्वारा तुम्हें बहुत कुछ दिया गया है, तो तुम्हारे कंधों पर अधिक भारी बोझ डाला जाना चाहिए—इसलिए नहीं कि तुम्हारा जीवन कठिन बने, बल्कि इसलिए कि यह तुम्हारे लिए बिल्कुल उपयुक्त है। यह तुम्हारा कर्तव्य है, इसलिए अपनी मर्जी से चुनने या ना कहने या इससे अपनी जान छुड़ाने की कोशिश न करो। तुम्हें क्यों लगता है कि यह कठिन है? असल बात तो यह है कि यदि तुम इसे दिल लगा कर करोगे तो तुम आसानी से यह कार्य कर सकते हो। तुम्हारा यह सोचना कि यह कठिन है, कि यह पक्षपातपूर्ण व्यवहार है और तुम्हें जानबूझकर परेशान किया जा रहा है—यह एक भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा है। यह अपने कर्तव्य को निभाने से इनकार करना है, परमेश्वर से स्वीकार करना नहीं है। यह सत्य का अभ्यास करना नहीं है। जब तुम अपनी मर्जी से अपने कर्तव्य चुनते हो और जो भी कार्य मामूली और आसान हो केवल उन्हें ही करते हो, केवल वही करते हो जिससे तुम अच्छे दिखो तो यह एक भ्रष्ट शैतानी स्वभाव है। तुम्हारा अपने कर्तव्य को स्वीकार न कर पाना या समर्पण न कर पाना यह साबित करता है कि तुम अभी भी परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोही हो, कि तुम उसका विरोध कर रहे हो और उसे ठुकरा रहे हो और उसकी व्यवस्थाओं और अपेक्षाओं से बच रहे हो। यह एक भ्रष्ट स्वभाव है। जब तुम्हें पता चले कि यह एक भ्रष्ट स्वभाव है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? यदि तुम्हें लगता है कि दूसरों को दिए गए कार्य आसानी से पूरे किए जा सकते हैं जबकि तुम्हें दिए गए कार्य तुम्हें लंबे समय तक व्यस्त रखते हैं और उनके लिए तुम्हें काफी शोध करने की आवश्यकता होती है और तुम इसके कारण दुखी हो, तो क्या तुम्हारा यह दुखी महसूस करना सही है? बिल्कुल नहीं। तो, जब तुम्हें लगे कि यह सही नहीं है तो तुम्हें क्या करना चाहिए? यदि तुम विरोध करते हो और यह कहते हो कि, ‘जब भी वे लोगों में कार्य बांटते हैं, तो वे मुझे सबसे कठिन, गंदे और कड़ी मेहनत वाले कार्य देते हैं, और दूसरों को ऐसे कार्य देते हैं जो मामूली, आसान और महत्वपूर्ण होते हैं। क्या उन्हें लगता है कि वे मुझे जहाँ चाहे वहाँ धकेल सकते हैं? यह कार्यों को वितरित करने का एक उचित तरीका नहीं है!’—यदि तुम्हारी यही सोच है, तो यह गलत है। चाहे कार्यों के वितरण में कोई भटकाव हो या न हो और चाहे उन्हें उचित रूप से वितरित किया जाए या नहीं, परमेश्वर किस चीज की पड़ताल करता है? वह एक व्यक्ति के दिल की पड़ताल करता है। वह देखता है कि क्या उसके दिल में समर्पण है, क्या वह परमेश्वर के कोई बोझ उठा सकता है और क्या वह परमेश्वर से प्रेम करता है। परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार तुम्हारे यह सारे बहाने अमान्य हैं, तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन मानक के अनुरूप नहीं है और तुममें सत्य वास्तविकता का अभाव है। तुम्हारे अंदर बिल्कुल भी समर्पण नहीं है और जब तुम कोई ऐसा कार्य करते हो जिसमें बहुत मेहनत लगती है या जो तुच्छ होता है तो तुम शिकायत करने लगते हो। आखिर यहाँ समस्या क्या है? सबसे पहले तो तुम्हारी मानसिकता ही गलत है। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया गलत है। यदि तुम हमेशा अपने अभिमान और हितों के बारे में सोचते रहते हो और परमेश्वर के इरादों की परवाह नहीं करते और तुम्हारे अंदर बिल्कुल भी समर्पण नहीं है, तो यह वह सही रवैया नहीं है जो तुम्हें अपने कर्तव्य के प्रति रखना चाहिए। यदि तुम ईमानदारी से खुद को परमेश्वर के लिए खपाते और तुम्हारे पास परमेश्वर-प्रेमी दिल होता, तो तुम उन कार्यों को कैसे करते जो तुच्छ, मेहनत वाले या कठिन हैं? तुम्हारी मानसिकता अलग होती : तुम कठिन कार्य करना पसंद करते और अपने कंधे पर भारी बोझ उठाने की कोशिश करते। तुम उन कार्यों को अपने हाथों में ले लेते जिन्हें अन्य लोग करना नहीं चाहते और तुम इन्हें केवल परमेश्वर के प्रेम के लिए और उसे संतुष्ट करने के लिए करते। तुम बिना कोई शिकायत किए खुशी से यह कार्य करते। तुच्छ, कड़ी मेहनत वाले और कठिन कार्य लोगों की असलियत दिखा देते हैं। तुम उन लोगों से कैसे अलग हो जो केवल आसान और महत्वपूर्ण कार्य ही लेते हैं? तुम उनसे कोई बेहतर नहीं हो। क्या बात ऐसी ही नहीं है? तुम्हें इन चीजों को इसी तरह से देखना चाहिए। तो फिर, जो चीज सबसे ज्यादा लोगों की असलियत का खुलासा करती है वह उनके द्वारा अपने कर्तव्य का पालन करना है। कुछ लोग हर समय बड़ी-बड़ी बातें करते हैं और दावा करते हैं कि वे परमेश्वर से प्रेम करने और उसके प्रति समर्पण करने के लिए तैयार हैं, लेकिन जब उन्हें अपने कर्तव्य निभाने में कोई कठिनाई आती है, तो वे सभी प्रकार की शिकायतों और नकारात्मक शब्दों का उपयोग करना शुरू कर देते हैं। यह स्पष्ट है कि वे लोग पाखंडी हैं। यदि कोई सत्य का प्रेमी है, तो जब उसे अपने कर्तव्य को करने में किसी कठिनाई का सामना करना पड़ेगा, तो वह परमेश्वर से प्रार्थना करेगा और अपने कर्तव्य को ईमानदारी से निभाते हुए सत्य की तलाश करेगा, भले ही इसकी उचित व्यवस्था न की गई हो। भले ही उसका सामना भारी, तुच्छ, या कठिन कार्यों से क्यों न हो जाए वह शिकायत नहीं करेगा, और वह परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाले हृदय के साथ अपने कार्यों को अच्छी तरह से करने और अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने में सक्षम हो सकता है। उसे ऐसा करने में बहुत आनंद मिलता है और परमेश्वर को यह देखकर सुकून मिलता है। इस तरह के व्यक्ति को परमेश्वर की स्वीकृति मिलती है। जैसे ही किसी को तुच्छ, कठिन या ऐसे कार्यों का सामना करना पड़े जिसमें बहुत मेहनत करनी पड़े और वह चिड़चिड़ा और क्रोधित हो जाता है और वह किसी को भी अपनी आलोचना नहीं करने देता, तो वह ऐसा व्यक्ति नहीं है जो खुद को ईमानदारी से परमेश्वर के लिए खपाता है। उन्हें केवल बेनकाब कर निकाला जा सकता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे शर्मिंदा कर दिया। मैंने विचार किया कि कलीसिया ने मुझे कई सालों तक पाठ-आधारित कर्तव्य निभाने के लिए तैयार किया था और मैं वांग शू से ज्यादा सिद्धांत समझती थी। ज्यादा कठिन कार्य सौंपे जाने का बोझ उठाना मेरी जिम्मेदारी थी और मुझे बहस करके इससे बचने की कोशिश नहीं करनी चाहिए थी। पर्यवेक्षक ने कलीसिया के कार्य की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए ही इस तरह की व्यवस्था की थी और ये व्यवस्थाएँ उचित भी थीं। वांग शू ने अभी-अभी प्रशिक्षण लेना शुरू किया था और अभी भी सिद्धांतों से परिचित होने की प्रक्रिया में थी। अगर उसे मुश्किल और जटिल कार्य सौंपा जाता तो इससे कार्य की प्रगति में देरी होती और वह दबाव में आ जाती। इसलिए उसे पहले कुछ आसान कार्य दिए जाने चाहिए ताकि वह प्रशिक्षण ले सके, एक बार जब वह विभिन्न सिद्धांतों को अच्छी तरह समझ लेगी तो सौंपे जाने पर वह कठिन कार्य भी कर पाएगी। लेकिन मैंने इस बात पर जरा भी विचार नहीं किया और नाराज तक हो गई। मुझमें सचमुच मानवता और विवेक नाम की कोई चीज नहीं थी। अब मैं समझ गई हूँ कि हमें अपना कर्तव्य निभाते हुए कलीसिया के हितों की रक्षा करनी चाहिए, एक-दूसरे के प्रति सहिष्णु और समझदार बनना सीखना चाहिए और सभी को अपने कर्तव्यों में अपनी भूमिका निभानी चाहिए। इस तरह मिलकर कार्य करने से कार्य अच्छे से पूरा हो सकता है। मुझे लगता था कि पर्यवेक्षक का हमेशा मुझसे मुश्किल कार्य करवाना अनुचित है। अब मुझे एहसास हुआ कि चीजों को देखने का यह नजरिया गलत है। कर्तव्य निभाते समय ज्यादा या कम करने या उचित-अनुचित होने जैसी कोई बात नहीं होती। परमेश्वर हममें से हर एक के आध्यात्मिक कद और काबिलियत से परिचित है, वह जानता है कि हम कितना कर सकते हैं। बोझ परमेश्वर का आशीष है और लोगों को परमेश्वर द्वारा दिया गया एक अवसर भी है ताकि वे प्रशिक्षण ले सकें। हालाँकि ज्यादा कठिन कार्य करने के लिए सावधानीपूर्वक विचार और सोच-विचार की आवश्यकता होती है, लेकिन यह हमें सिद्धांतों के बारे में ज्यादा सोचने के लिए भी प्रेरित कर सकता है और हमारे पेशेवर कौशल के स्तर को बेहतर बना सकता है। इसके अलावा अगर हम अपने कर्तव्य में ज्यादा दबाव लेते हैं तो हम खुद को इस तरह प्रशिक्षित कर सकते हैं कि हमारा दिल जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार हो जाए। ये सभी अच्छी बातें हैं। लेकिन मैं अपने स्वार्थी और घृणित शैतानी स्वभाव के अनुसार जी रही थी, परमेश्वर के श्रमसाध्य इरादों को समझ नहीं पा रही थी, बल्कि लगातार अपने कर्तव्य से बचना चाहती थी। मुझे सचमुच नहीं पता था कि मेरे लिए क्या अच्छा है, मैंने परमेश्वर के इरादों पर पानी फेर दिया था। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से मैंने अपनी मनोदशा को कुछ हद तक बदल दिया, मैंने मन ही मन सोचा कि अब मुझे समर्पण और अपने कर्तव्य का पालन करना है।

बाद में वांग शू को अस्थायी रूप से दूसरा कार्य सौंप दिया गया और मुझे बहुत से कार्य संभालने पड़े। मुझे अपने दैनिक कार्यों की योजना बनानी होती थी और आदर्श रूप से उन्हें एक ही दिन में पूरा करना होता था। मेरा सिर हर दिन तनावग्रस्त रहता था, मैं बेसब्री से लिन शी के जल्द वापस आने का इंतजार कर रही थी ताकि चीजें मेरे लिए आरामदायक हो जाएँ। जब मैंने इस बारे में सोचा तो मुझे परमेश्वर के कुछ वचन याद आए जो मैंने पहले पढ़े थे : “हर वयस्क को एक वयस्क की जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, चाहे उन्हें कितने भी दबाव का सामना करना पड़े, जैसे मुसीबतें, बीमारियाँ, यहाँ तक कि विभिन्न कठिनाइयाँ भी—ये वे चीजें हैं जो सभी को अनुभव करनी और सहनी चाहिए। ये एक सामान्य व्यक्ति के जीवन का हिस्सा होती हैं। अगर तुम दबाव नहीं झेल सकते या पीड़ा नहीं सह सकते, तो इसका मतलब है कि तुम बहुत नाजुक और बेकार हो। जो जीवित है, उसे यह कष्ट अवश्य सहना होगा, और कोई भी इसे टाल नहीं सकता। चाहे समाज में हो या परमेश्वर के घर में, यह सभी के लिए समान होती है। यही वह जिम्मेदारी है जिसे तुम्हें उठाना चाहिए, एक भारी बोझ जिसे एक वयस्क को उठाना चाहिए, वह चीज जो उसे उठानी चाहिए, और तुम्हें इससे बचना नहीं चाहिए। अगर तुम हमेशा इस सबसे बचने या इसे त्यागने का प्रयास करते हो, तो तुम्हारी दमनात्मक भावनाएँ बाहर निकल आएँगी, और तुम हमेशा उनमें उलझे रहोगे। हालाँकि अगर तुम यह सब ठीक से समझ और स्वीकार सको, और इसे अपने जीवन और अस्तित्व का एक आवश्यक हिस्सा मानो, तो ये मुद्दे तुम्हारे लिए नकारात्मक भावनाएँ विकसित करने का कारण नहीं होने चाहिए। एक लिहाज से तुम्हें वे जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभाना सीखना चाहिए, जो वयस्कों को लेने और उठाने चाहिए। दूसरे लिहाज से तुम्हें अपने रहने और काम करने के परिवेश में दूसरों के साथ सामान्य मानवता के साथ सामंजस्यपूर्वक रहना सीखना चाहिए। बस जैसा चाहे वैसा मत करो। सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व का क्या उद्देश्य होता है? यह काम बेहतर ढंग से पूरा करने और वे दायित्व और जिम्मेदारियाँ बेहतर ढंग से निभाने के लिए है, जिन्हें एक वयस्क के रूप में तुम्हें पूरा करना और निभाना चाहिए, ताकि तुम्हारे काम में आने वाली समस्याओं के कारण होने वाला नुकसान न्यूनतम किए जा सकें और तुम्हारे कार्य के नतीजों और दक्षता को अधिकतम किया जा सके। यही वह चीज है जो तुम्हें हासिल करनी चाहिए। अगर तुम में सामान्य मानवता है, तो तुम्हें लोगों के बीच काम करते समय इसे हासिल करना चाहिए। जहाँ तक काम के दबाव की बात है, चाहे यह ऊपरवाले से आता हो या परमेश्वर के घर से या अगर यह दबाव तुम्हारे भाई-बहनों द्वारा तुम पर डाला गया हो, यह ऐसी चीज है जिसे तुम्हें सहन करना चाहिए। तुम यह नहीं कह सकते, ‘यह बहुत ज्यादा दबाव है, इसलिए मैं इसे नहीं करूँगा। मैं बस अपना कर्तव्य करने और परमेश्वर के घर में काम करने में फुरसत, सहजता, खुशी और आराम तलाश रहा हूँ।’ यह नहीं चलेगा; यह ऐसा विचार नहीं है जो किसी सामान्य वयस्क में होना चाहिए और परमेश्वर का घर तुम्हारे आराम में लिप्त होने की जगह नहीं है। हर व्यक्ति अपने जीवन और कार्य में एक निश्चित मात्रा में दबाव और जोखिम उठाता है। किसी भी काम में, खास तौर से परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम्हें इष्टतम परिणामों के लिए प्रयास करना चाहिए। बड़े स्तर पर यह परमेश्वर की शिक्षा और माँग है। छोटे स्तर पर यह वह रवैया, दृष्टिकोण, मानक और सिद्धांत है, जो हर व्यक्ति को अपने आचरण और कार्यकलापों में अपनाना चाहिए। जब तुम परमेश्वर के घर में कोई कर्तव्य निभाते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के घर के विनियमों और प्रणालियों का पालन करना सीखना चाहिए, तुम्हें अनुपालन करना सीखना चाहिए, नियम सीखने चाहिए और तमीज से आचरण करना चाहिए। यह व्यक्ति के आचरण का एक अनिवार्य हिस्सा है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (5))। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि परमेश्वर आशा करता है कि हम उसकी अपेक्षाओं के अनुसार आचरण करें और वयस्कों के रूप में हम उन जिम्मेदारियों को उठाएँ जो हमसे अपेक्षित हैं, अपने हृदय में उचित बातें रखें और अपना उचित कार्य करें। जब हम कोई कार्य करें तो हममें दायित्व-बोध होना चाहिए, चाहे हम किसी भी समस्या या कठिनाई का सामना करें, हमें प्रार्थना करनी चाहिए, परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए, उनके समाधान के लिए सत्य खोजना चाहिए और उन सभी कार्यों को पूरा करना चाहिए जिन्हें हम अच्छी तरह से कर सकते हैं। जिनमें जमीर और विवेक है, ऐसे लोगों को यही करना चाहिए। मैंने विचार किया कि पिछले दो महीनों में परमेश्वर ने मेरे लिए यह परिवेश तैयार किया है। एक ओर इसने मेरे स्वार्थी और घृणित भ्रष्ट स्वभाव को बेनकाब किया, मुझे यह भी सिखाया कि कैसे बोझ उठाना है, कैसे जिम्मेदारी लेनी है, एक जमीरयुक्त और विवेकशील व्यक्ति बनना है। मैं परमेश्वर के इरादे पर पानी नहीं फेर सकती थी। मुझे अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करना था और देह के खिलाफ विद्रोह करना था। इसके बाद मैंने अपनी मानसिकता को ठीक किया और योजना बनाई कि मैं हर दिन क्या करूँगी। भले ही मेरे पास करने के लिए बहुत कार्य है और समय कम है, फिर भी मैं कर्तव्य निभाते हुए अपने हृदय को शांत रख पाती हूँ। कभी-कभी कुछ कठिन कार्यों को करने के लिए बहुत सोच-विचार और मनन करना पड़ता है, लेकिन मैं इन्हें सत्य प्राप्त करने और सिद्धांतों में प्रवेश करने के अवसर मानती हूँ, इसलिए हर दिन के अंत में मुझे ऐसा लगता है जैसे मैंने कुछ हासिल किया है। मैंने अनुभव किया है कि जब हम परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करते हैं तो हमारा हृदय शांत और सहज होता है। उन दो महीनों में मुझे जो परिवेश मिला, वह मेरे लिए एक प्रकाशन था और परमेश्वर का उद्धार भी था। अपने हृदय में मौन रहकर मैं परमेश्वर को धन्यवाद देती हूँ और उसकी स्तुति करती हूँ।

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