64. संकट के समय कर्तव्य का पालन कैसे करें

गाओ जियाकी, चीन

जुलाई 2023 में मैं अभी बस कलीसिया अगुआ बनी ही थी। 13 अगस्त को मैं अपना कार्य खत्म करके अपने मेजबान परिवार के पास लौटी। जैसे ही मैंने दरवाजा खोला, जो नजारा मेरी आँखों के सामने आया उसे देखकर मैं चौंक गई। अंदर सब-कुछ उल्टा-पुल्टा और अस्त-व्यस्त पड़ा था, रसोई और हॉल की बिजली जल रही थी। मुझे अचानक एहसास हुआ, “अरे नहीं—कुछ तो हुआ है! शायद मेरी सहयोगी बहन प्रचारक सुन फी और हमारी मेजबान बहन को गिरफ्तार कर लिया गया है।” मैं दौड़कर बेडरूम में गई और देखा कि उस कमरे को भी उलट-पुलट दिया गया है। मैं घबरा गई, “अगर पुलिस ने घर में कैमरा लगा रखा है और मुझे यहाँ आते हुए देखा तो उन्हें पता चल जाएगा कि मैं कोई महत्वपूर्ण कार्य कर रही हूँ। वे जरूर आकर मुझे गिरफ्तार कर लेंगे।” घबराहट में मैंने जल्दी से कुछ कपड़े समेटे और वहाँ से निकल गई। मैं दूसरे मेजबान घर चली गई। उस रात मैं करवटें बदलती रही और सो नहीं पाई। मैंने मन ही मन सोचा, “जिन बहनों को गिरफ्तार किया गया है, उन्हें कई कलीसियाओं के कर्मचारियों और उस घर के बारे में भी पता है जहाँ पुस्तकें रखी हैं। इसके अलावा उनके कंप्यूटरों में भाई-बहनों की पहचान की जानकारी भी है। अगर उन्हें कंप्यूटर बंद करने का समय न मिला हो तो संभव है कि यह जानकारी पुलिस के हाथ लग गई हो और दूसरे भाई-बहन भी गिरफ्तार हो सकते हैं। अब इसके बाद की स्थिति से जल्द से जल्द निपटना होगा। मुझे सबसे पहले उन भाई-बहनों को सूचित करना होगा जिनकी सुरक्षा को खतरा है कि वे जल्दी से छिप जाएँ और फिर परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें वहाँ से हटा दें।” लेकिन फिर मैंने सोचा कि बिना किसी से बात किए मुझे बाहर निकलकर अकेले ही इस बाद की स्थिति से निपटना होगा। मैं यह कार्य ज्यादा समय से नहीं कर रही थी और मुझे कई कार्यों की समझ नहीं थी या उन पर मेरी पकड़ नहीं थी। मैं इस बाद की स्थिति से कैसे निपटूँगी? जब मैंने इन वास्तविक मुश्किलों के बारे में सोचा तो लगा जैसे मेरा दिल किसी पत्थर से कुचला जा रहा है; मैं सचमुच दबा हुआ महसूस कर रही थी। मैं थोड़ी डरी हुई भी थी। मुझे डर था कि पुलिस सीसीटीवी फुटेज की जाँच करेगी तो मुझे ढूंढकर गिरफ्तार कर लेगी। अगर मुझे गिरफ्तार कर लिया गया और मैं पुलिस की यातना नहीं झेल पाई, परमेश्वर को धोखा दिया और यहूदा बन गई तो मरने के बाद मुझे सजा के लिए नरक में डाल दिया जाएगा। मैं एक दशक से परमेश्वर में विश्वास रखती आ रही थी और नहीं चाहती थी कि मेरा परिणाम ऐसा हो। मैं अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करना चाहती थी और वह दिन देखना चाहती थी जब परमेश्वर महिमान्वित होगा। इन वास्तविक कठिनाइयों और भविष्य की हर अज्ञात चीज का सामना करते हुए मैं चिंता और घबराहट में जी रही थी और इस तरह एक लंबी रात काट रही थी।

अगले दिन एक अन्य प्रचारक ली शू से पता चला कि प्रचारक सुन फे और मेरी सहयोगी बहन को गिरफ्तार कर लिया गया है। जब मैंने यह खबर सुनी तो मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर की सुरक्षा ने मुझे इस विपत्ति से बचने में मदद की है। वरना मैं भी गिरफ्तार होने वालों में से एक होती। लेकिन जैसे ही मैंने पुस्तकों को स्थानांतरित करने के बारे में सोचा, मेरे मन में थोड़ा डर बैठ गया, “अगर गिरफ्तार हुए लोग यहूदा बन गए और उस घर को धोखा दे दिया जहाँ पुस्तकें रखी हैं तो क्या मेरा वहाँ जाना सीधे शेर की माँद में जाना नहीं होगा? पहले गिरफ्तार हुए कुछ लोग यहूदा बन गए थे। कुछ ने ‘थ्री स्टेट्समेंट्स’ पर हस्ताक्षर करके परमेश्वर को धोखा दिया था। उन पर पशु का चिह्न दाग दिया गया था। वे सभी मुझसे ज्यादा समय से परमेश्वर में विश्वास रखते आ रहे थे। अगर गिरफ्तारी के बाद वे अडिग नहीं रह पाए तो मैं कैसे उम्मीद कर सकती हूँ? अगर मुझे गिरफ्तार कर लिया गया और मैंने यहूदा बनकर परमेश्वर को धोखा दे दिया तो मुझे उद्धार पाने का कोई मौका नहीं मिलेगा। क्या मेरा इतने सालों तक विश्वास रखना व्यर्थ नहीं चला जाएगा?” यह सोचकर मैं डर गई और जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। लेकिन फिर मैंने सोचा, “अब मैं ही एकमात्र व्यक्ति हूँ जिसे पता है कि किस घर में पुस्तकें रखी हैं। अगर मैंने जाकर परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें वहाँ से नहीं हटाईं और पुस्तकें पुलिस के हाथ पड़ गईं तो मेरा जमीर आजीवन अशांत रहेगा, मैं मरते दम तक पछतावे, अपराधबोध और आत्मग्लानि में जिऊँगी।” मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आ गए : “तुम्हें परमेश्वर के आदेशों से कैसे पेश आना चाहिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह एक बहुत ही गंभीर मामला है। परमेश्वर ने जो तुम्हें सौंपा है, यदि तुम उसे पूरा नहीं कर सकते, तो तुम उसकी उपस्थिति में जीने के योग्य नहीं हो और तुम्हें दंड स्वीकारना चाहिए। यह पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है कि मनुष्य परमेश्वर द्वारा दिए जाने वाले सभी आदेशों कोपूरा करें। यह मनुष्य का सर्वोच्च दायित्व है, और उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उनका जीवन है। यदि तुम परमेश्वर के आदेशों को हल्के में लेते हो, तो यह परमेश्वर के साथ भयंकर विश्वासघात है। इसमें तुम यहूदा से भी अधिक निंदनीय हो और तुम्हें शाप दिया जाना चाहिए। परमेश्वर के आदेशों को कैसे लिया जाए, लोगों को इसकी पूरी समझ हासिल करनी चाहिए, और उन्हें कम से कम यह समझ होनी चाहिए : परमेश्वर मनुष्य को जो आदेश देता है, वह मनुष्य को परमेश्वर से मिला उत्कर्ष है, उसके द्वारा मनुष्य पर बरसाया गया विशेष अनुग्रह है, और यह सबसे शानदार चीज है। अन्य सब-कुछ छोड़ा जा सकता है, यहाँ तक कि अपना जीवन भी लेकिन परमेश्वर के आअदेशों को पूरा किया जाना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे यह समझाया कि मनुष्य के लिए परमेश्वर का आदेश मनुष्य की जिम्मेदारी और मिशन है। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह खतरनाक परिवेशों का बहादुरी से सामना करने, अपनी वफादारी दिखाने और परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों की रक्षा करने की अपनी जिम्मेदारी से इनकार न करे। लेकिन मैंने अपने कर्तव्य का निष्ठापूर्वक पालन नहीं किया था। मैं ही एकमात्र व्यक्ति थी जिसे पता था कि किस घर में पुस्तकें रखी हैं। मुझे परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों को जल्द से जल्द वहाँ से हटाना था, लेकिन इस जोखिम के बावजूद कि पुलिस पुस्तकें छीन लेगी, अपनी सुरक्षा के लिए मैं बाद की स्थिति का सामना करने को तैयार नहीं थी। मेरा व्यवहार परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने वाला था। मेरे अंदर रत्तीभर भी जमीर और विवेक नहीं था। जिस व्यक्ति में सचमुच जमीर और विवेक होगा, वह खतरनाक परिवेश में भी परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा के लिए खड़ा होगा और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करेगा। अगर मैंने मौत से डरकर और जिंदगी से चिपके रहकर पुस्तकें हटाने की हिम्मत नहीं की और इसके परिणामस्वरूप पुस्तकें बड़े लाल अजगर के हाथों में पड़ गईं तो मैं युग-युगांतर तक पापी बनकर धिक्कारी जाऊँगी, शाप की भागी बनूँगी और यहूदा से भी ज्यादा निंदित की जाऊँगी। इस समय मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : “तुम्हें जानना चाहिए कि तुम्हारे आसपास का सारा परिवेश मेरी अनुमति और मेरी व्यवस्था से बना है। इस बारे में स्पष्ट रहो और मैंने तुम्हें जो परिवेश दिया है उसमें मेरे दिल को संतुष्ट करो। इस या उस चीज से डरो मत, सेनाओं का सर्वशक्तिमान परमेश्वर निश्चित रूप से तुम्हारे साथ होगा; वह तुम लोगों के पीछे खड़ा सहायक बल है और तुम्हारी ढाल है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 26)। “तुम्हें इस या उस चीज से नहीं डरना चाहिए; चाहे तुम्हें कितनी भी मुसीबतों या खतरों का सामना करना पड़े, तुम्हें किसी भी अड़चन से बाधित हुए बिना मेरे सम्मुख अडिग रहना चाहिए ताकि मेरी इच्छा बेरोक-टोक पूरी हो सके। यह तुम्हारा कर्तव्य है; अन्यथा मैं अपना कोप तुम पर उतारूँगा और अपने हाथ से मैं...। फिर तुम अंतहीन मानसिक पीड़ा सहोगे। तुम्हें सब कुछ सहना होगा; मेरे लिए तुम्हें हर चीज का त्याग करने और अपनी पूरी ताकत से मेरा अनुसरण करने को तैयार रहना होगा और कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार रहना होगा। अब वह समय है जब मैं तुम्हें परखूँगा : क्या तुम अपनी वफादारी मुझे अर्पित करोगे? क्या तुम मार्ग के अंत तक वफादारी से मेरा अनुसरण कर सकते हो? डरो मत; मेरे सहारे के रहते कौन कभी इस मार्ग को अवरुद्ध कर सकता है? यह याद रखो! याद रखो! हर चीज में मेरे अच्छे इरादे निहित हैं और हर चीज मेरी जाँच-पड़ताल के अधीन है। क्या तुम अपनी हर कथनी-करनी में मेरे वचन का अनुसरण कर सकते हो? जब तुम्हारी अग्नि परीक्षाएँ होंगी तो क्या तुम घुटने टेकोगे और पुकारोगे? या तुम दुबक जाओगे और आगे बढ़ने में असमर्थ रहोगे?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 10)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझाया कि कलीसिया परमेश्वर की अनुमति से ही सीसीपी की गिरफ्तारियों और उत्पीड़न को सहती है, हमें आस्था रखनी चाहिए कि परमेश्वर हमारे साथ है और इस तरह के परिवेश का निर्माण हमारी परीक्षा लेने के लिए किया जाता है। अब जबकि कलीसिया में गिरफ्तारियाँ की जा रही थीं, मेरा कर्तव्य था कि मैं बाद की स्थिति से अच्छी तरह निपटूँ और परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों की रक्षा करूँ। यह एक जिम्मेदारी और दायित्व था जिसे मुझे पूरा करना था। मैं बुजदिल बनकर नहीं जी सकती थी; मुझमें आस्था होनी चाहिए थी कि सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है। तब मुझे एहसास हुआ कि उस मौके पर बस किसी कार्य से मेरा बाहर जाना हुआ और अगले ही दिन बहनों को गिरफ्तार कर लिया गया। यह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं का ही परिणाम था कि मैं गिरफ्तारी से बच गई और वहीं रुककर बाद की स्थिति का सामना करने में सक्षम हुई। जब मुझे यह एहसास हुआ तो मुझमें आस्था पैदा हुई और अपने दिल में ऊर्जा का एक उफान सा महसूस हुआ। मैंने सोचा, “आज पुस्तकों का स्थानांतरण करते समय मेरा गिरफ्तार होना या न होना परमेश्वर पर निर्भर है। सब-कुछ परमेश्वर के हाथों में है। अब यह समय के विरुद्ध एक दौड़ है। मैं एक पल के लिए भी देरी नहीं कर सकती। जितनी जल्दी पुस्तकें स्थानांतरित हो जाएँगी, उतनी ही जल्दी वे सुरक्षित रहेंगी। वरना पुलिस उन्हें कभी भी जब्त कर सकती है।” बाद में मैंने बहनों से इस मामले पर बात की और हम कार्रवाई करने के लिए अलग हो गए। पुस्तकें स्थानांतरित करने जाते समय मैं लगातार प्रार्थना करती रही। मैंने एक पल के लिए भी अपने मन से परमेश्वर का ध्यान नहीं हटाया। परमेश्वर की सुरक्षा के चलते हमने वहाँ से पुस्तकें सुरक्षित तौर पर स्थानांतरित कर दीं। लगभग दो हफ्ते बाद मुझे पता चला कि पुलिस घर की तलाशी लेने आई थी, लेकिन उन्हें कुछ नहीं मिला। यह सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई। अगर पुलिस ने पुस्तकें जब्त कर ली होतीं तो मुझे जिंदगी भर पछतावा रहता। यह एक शाश्वत अपराध होता!

3 सितंबर की सुबह ली शू आई और मुझे कुछ और समाचार सुनाए। उसने बताया कि दो दिन पहले एक और व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया गया है, वह यहूदा बन गया और उसने उन घरों के पते बता दिए जहाँ कलीसिया पुस्तकें रखती थी। जिस घर में मैंने हाल ही में पुस्तकें रखी थीं, उसका भी पता बता दिया गया था। पुस्तकों को फिर से तुरंत स्थानांतरित करने की जरूरत थी। यह खबर सुनकर मैं स्तब्ध रह गई और मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूँ। मैं बेचैन हो गई, “सचमुच एक के बाद एक मुसीबतें आ रही हैं। अब मुझे तुरंत वहाँ से पुस्तकें हटानी होंगी वरना जब यहूदा पुलिस को उस घर में लाएगा, तब तक तो बहुत देर हो चुकी होगी।” लेकिन फिर मैंने सोचा, “उस यहूदा ने तो उन घरों के पते पहले ही बता दिए हैं जहाँ कलीसिया पुस्तकें रखती है। मुझे यह नहीं पता कि पुलिस किन घरों में पहले जा चुकी है और किन घरों में नहीं। अगर मैं अभी पुस्तकें हटाते समय पुलिस से टकरा गई तो चाहकर भी बच नहीं पाऊँगी। अगर मुझे गिरफ्तार कर लिया गया और पुलिस को पता चल गया कि मैं अगुआ हूँ तो वे मुझे बिल्कुल नहीं छोड़ेंगे। अगर ऐसा हुआ और मैं यातनाएँ बर्दाश्त नहीं कर पाई और यहूदा बन गई तो मेरा कोई अच्छा नतीजा या मंजिल नहीं होगी।” जब मैंने यह सोचा तो मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं जाकर पुस्तकें हटाऊँ। यह सोचते ही मेरे दिल में आत्मग्लानि हुई, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, इस अचानक आए परिवेश का सामना करते हुए मैं अपने दिल में भय महसूस कर रही हूँ। मुझे डर है कि अगर मुझे गिरफ्तार कर लिया गया, मैं यातनाएँ बर्दाश्त नहीं कर पाई और परमेश्वर को धोखा दे दिया तो मेरा कोई अच्छा नतीजा या मंजिल नहीं होगी। अब परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें खतरे में हैं और उन्हें स्थानांतरित करना जरूरी है, लेकिन मैं स्वार्थी हूँ, नीच हूँ और अपने बचने का रास्ता ढूँढ़ रही हूँ। मुझमें वाकई जमीर या विवेक नाम की कोई चीज नहीं है! प्रिय परमेश्वर, मुझे आस्था और क्षमता दो ताकि मैं इस मामले में तुम्हें संतुष्ट कर पाऊँ।” बाद में मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : “आस्था एक ही लट्ठे से बने पुल की तरह है : जो लोग हर हाल में जीवन जीने की लालसा से चिपके रहते हैं उन्हें इसे पार करने में परेशानी होगी, परन्तु जो अपनी जान देने को तैयार रहते हैं, वे बिना किसी फिक्र के, मजबूती से कदम रखते हुए उसे पार कर सकते हैं। अगर मनुष्य कायरता और भय के विचार रखते हैं तो ऐसा इसलिए है कि शैतान ने उन्हें मूर्ख बनाया है, उसे डर है कि हम आस्था का पुल पार कर परमेश्वर में प्रवेश कर जाएँगे(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 6)। मुझे परमेश्वर में बहुत कम आस्था थी। जब भी मेरे सामने कोई खतरनाक परिवेश आता था तो मैं केवल अपने दैहिक हितों के बारे में सोचती थी; मुझे चिंता रहती थी कि अगर मुझे गिरफ्तार कर लिया गया, मैं यातनाएँ न सह पाई और परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर यहूदा बन गई तो मैं अपने उद्धार का अवसर गँवा बैठूँगी। मैं यह नहीं सोचती थी कि भाई-बहनों और परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों की रक्षा कैसे करूँ, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा कैसे करूँ। मैंने देखा कि मेरे विचार बहुत ही घृणित और घिनौने हैं, मुझे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता की कोई समझ नहीं है। मैंने विचार किया कि पिछली बार जब मैंने पुस्तकें स्थानांतरित की थीं, तब भी मेरे दिल में कितनी घबराहट थी, परमेश्वर के वचनों ने ही मुझे आस्था और साहस दिया था और आखिरकार मैं पुस्तकों को वहाँ से सुरक्षित तौर पर स्थानांतरित कर पाई थी। कुछ ही देर में पुलिस उस घर में पहुँच गई जहाँ पुस्तकें रखी थीं। मैंने देखा कि परमेश्वर की अनुमति के बिना शैतान आधा कदम भी सीमा से बाहर जाने की हिम्मत नहीं करता, सभी लोग, घटनाएँ और चीजें परमेश्वर के हाथों में हैं। जब मुझे यह एहसास हुआ तो मुझमें बाद की स्थिति को संभालने की आस्था पैदा हुई।

उस शाम मैंने इस दौरान जो कुछ भी प्रकट किया था, उस पर विचार किया और परमेश्वर के वचन पढ़े : “मुख्यभूमि चीन के परिवेश में क्या अपना कर्तव्य करते समय कोई भी जोखिम उठाने से बचना और यह पक्का करना मुमकिन है कि कुछ भी बुरा न हो? सबसे सतर्क व्यक्ति भी यह गारंटी नहीं दे सकता। मगर सतर्कता जरूरी है। पहले से अच्छी तरह तैयार होने से चीजें थोड़ी बेहतर होंगी और कुछ गलत होने पर नुकसान को कम करने में मदद मिल सकेगी। अगर कोई तैयारी नहीं है तो नुकसान बड़ा होगा। क्या तुम इन दो स्थितियों के बीच अंतर को स्पष्ट रूप से देख सकते हो? इसलिए चाहे सभाओं की बात हो या किसी तरह का कर्तव्य निभाने की, सतर्क रहना सबसे अच्छा है और कुछ बचाव के उपाय करना जरूरी है। जब कोई निष्ठावान व्यक्ति अपना कर्तव्य निभाता है तो वह थोड़ा और समग्र रूप से और अच्छी तरह से सोच सकता है। वह इन चीजों को जितना हो सके उतना व्यवस्थित करना चाहता है ताकि अगर कुछ गलत हो जाए तो नुकसान कम से कम हो। उसे लगता है कि यह नतीजा हासिल करना जरूरी है। जिस व्यक्ति में निष्ठा नहीं है वह इन चीजों के बारे में नहीं सोचता। उसे ये चीजें जरूरी नहीं लगती हैं और वह उन्हें अपनी जिम्मेदारी या कर्तव्य नहीं मानता। जब कुछ गलत हो जाता है तो वह बिल्कुल भी दोषी महसूस नहीं करता। यह निष्ठा की कमी की अभिव्यक्ति है। मसीह-विरोधी परमेश्वर के प्रति कोई निष्ठा नहीं दिखाते। जब उन्हें काम सौंपा जाता है तो वे इसे बहुत खुशी से स्वीकार लेते हैं और कुछ अच्छी घोषणाएँ करते हैं, मगर जब खतरा आता है तो वे सबसे तेजी से भागते हैं; सबसे पहले भागने वाले, सबसे पहले बचकर निकलने वाले वही होते हैं। इससे पता चलता है कि उनका स्वार्थ और घिनौनापन बहुत गंभीर है। उन्हें जिम्मेदारी या निष्ठा का कोई एहसास नहीं है। जब किसी समस्या का सामना करना पड़ता है तो वे केवल भागना और छिपना जानते हैं, और वे सिर्फ खुद को बचाने के बारे में सोचते हैं, कभी अपनी जिम्मेदारियों या कर्तव्यों पर विचार नहीं करते। अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा की खातिर मसीह-विरोधी लगातार अपनी स्वार्थी और घिनौनी प्रकृति दिखाते हैं। वे परमेश्वर के घर के काम या अपने कर्तव्यों को प्राथमिकता नहीं देते। वे परमेश्वर के घर के हितों को तो और भी कम प्राथमिकता देते हैं। इसके बजाय, वे अपनी सुरक्षा को प्राथमिकता देते हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग दो))। परमेश्वर उजागर करता है कि जब मसीह-विरोधियों को रुतबा मिल जाता है तो उनके हृदय आनंद से भर जाते हैं, वे अपने रुतबे को संजोते हैं और उसका आनंद लेते हैं। लेकिन जब तुम उन्हें जोखिम उठाने को कहते हो तो वे मौका मिलते ही अपनी सुरक्षा के लिए तुरंत छिप जाते हैं या भाग निकलते हैं, अपने कर्तव्य के प्रति जरा भी वफादारी नहीं दिखाते और परमेश्वर के घर के हितों को भूल जाते हैं। वे बेहद स्वार्थी और नीच होते हैं। मैंने जो प्रकट किया था, क्या वह भी ठीक यही मनोदशा नहीं थी? परमेश्वर ने मुझ पर अगुआ का कर्तव्य निभाने का अनुग्रह किया था और मुझे प्रशिक्षण का अवसर दिया था। परमेश्वर को उम्मीद थी कि मैं अपने कर्तव्य के प्रति वफादार और आज्ञाकारी रहूँगी। लेकिन एक अगुआ के रूप में जब परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें पुलिस द्वारा जब्त की जा रही थीं और मुझे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने और अपनी वफादारी प्रदर्शित करने की जरूरत थी तो सबसे पहले मैंने यह नहीं सोचा कि नुकसान को कम करने के लिए पुस्तकों को स्थानांतरित कैसे किया जाए। इसके बजाय मुझे डर था कि अगर मुझे गिरफ्तार कर लिया गया, मैं यातनाएँ सहन नहीं कर पाई और यहूदा बनकर परमेश्वर के साथ विश्वासघात किया तो मेरा न तो कोई अच्छा परिणाम होगा और न ही अच्छी मंजिल होगी। इसलिए मैं पीछे हट गई। क्या मुझमें जमीर या विवेक नाम की कोई चीज थी? मैं परमेश्वर द्वारा उजागर किए गए मसीह-विरोधियों जैसी ही थी—बेहद स्वार्थी, नीच और मानवता से रहित। मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “अगर तुम कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, अगर तुम्हारे अपराध बहुत अधिक बढ़ जाते हैं, तो तुम्हारा परिणाम निश्चित है। यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि तुम्हारे सभी अपराध, वह गलत मार्ग जिस पर तुम चलते हो, और पश्चात्ताप करने से तुम्हारा इनकार—ये सभी मिलकर बुरे कर्मों का ढेर बन जाते हैं; और इसलिए तुम्हारा परिणाम यह है कि तुम नरक में जाओगे—तुम्हें दंडित किया जाएगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे अपने दिल में भय महसूस हुआ। भले ही मैं परमेश्वर में विश्वास रखती थी और ऊपरी तौर पर अपना कर्तव्य निभाती थी, लेकिन निर्णायक मोड़ आया तो मैंने कलीसिया के कार्य की रक्षा नहीं की और परमेश्वर के प्रति कोई वफादारी नहीं दिखाई। फिर मुझे कैसे बचाया जा सकता था? अब मैं अपने स्वार्थी और घृणित भ्रष्ट स्वभाव पर निर्भर होकर नहीं जीना चाहती थी। मैं अपनी सुरक्षा के लिए अपने खोल में छिपा कछुआ नहीं बनना चाहती थी। जब तक मेरे शरीर में साँस है, मैं कलीसिया के हितों की रक्षा करूँगी।

मैंने यह भी विचार किया कि मैं इसलिए बुजदिल और डरपोक थी क्योंकि मुझे भय था कि अगर मुझे गिरफ्तार कर लिया गया, मैं यातना न सह पाई और यहूदा बन गई तो मेरा कोई अच्छा परिणाम या मंजिल नहीं होगी। अपनी खोज में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “परमेश्वर के पास उसके प्रत्येक अनुयायी के लिए व्यवस्थाएँ हैं। उनमें से प्रत्येक व्यक्ति के लिए परमेश्वर द्वारा तैयार किया गया एक परिवेश है, जिसमें वह अपना कर्तव्य निभा सकता है, और उसके पास परमेश्वर का अनुग्रह और कृपा है जो उनके आनंद लेने के लिए है। उसके पास विशेष परिस्थितियाँ भी होती हैं, जिन्हें परमेश्वर उसके लिए तैयार करता है, और बहुत सारी पीड़ा होती है जो उसे सहनी होती है—यह वैसा बिल्कुल नहीं होता जैसा लोग निर्विघ्न रूप से आगे बढ़ने की कल्पना करते हैं। इसके अलावा, यदि तुम यह स्वीकारते हो कि तुम सृजित प्राणी हो, तो तुम्हें सुसमाचार फैलाने की अपनी जिम्मेदारी पूरी करने और अपना कर्तव्य समुचित रूप से निभाने की खातिर कष्ट भुगतने और कीमत चुकाने के लिए स्वयं को तैयार करना होगा। ... प्रभु यीशु के उन शिष्यों की मौत कैसे हुई? उनमें ऐसे अनुयायी थे जिन्हें पत्थरों से मार डाला गया, घोड़े से बाँध कर घसीटा गया, सूली पर उलटा लटका दिया गया, पाँच घोड़ों से खिंचवाकर उनके टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए—हर प्रकार की मौत उन पर टूटी। उनकी मृत्यु का कारण क्या था? क्या उन्हें उनके अपराधों के लिए कानूनी रूप से दंडित किया गया था? नहीं। उन्होंने प्रभु का सुसमाचार फैलाया था, लेकिन दुनिया के लोगों ने उसे स्वीकार नहीं किया, इसके बजाय उनकी भर्त्सना की, पीटा और डाँटा-फटकारा और यहाँ तक कि मार डाला—इस तरह वे शहीद हुए। ... अब लोग गहरे दुख के साथ उनकी मृत्यु पर विचार करते हैं, किन्तु चीजें इसी प्रकार थीं। परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग इसी तरीके से मारे गए, इसे कैसे समझाया जाए? जब हम इस विषय का जिक्र करें, तो तुम लोग स्वयं को उनकी स्थिति में रखो, क्या तब तुम लोगों के हृदय उदास होते हैं, और क्या तुम भीतर ही भीतर पीड़ा का अनुभव करते हो? तुम सोचते हो, ‘इन लोगों ने परमेश्वर का सुसमाचार फैलाने का अपना कर्तव्य निभाया, इन्हें अच्छा इंसान माना जाना चाहिए, तो फिर उनका अंत, और उनका परिणाम ऐसा कैसे हो सकता है?’ वास्तव में, उनके शरीर इसी तरह मृत्यु को प्राप्त हुए और चल बसे; यह मानव संसार से प्रस्थान का उनका अपना माध्यम था, तो भी इसका यह अर्थ नहीं था कि उनका परिणाम भी वैसा ही था। उनकी मृत्यु और प्रस्थान का साधन चाहे जो रहा हो, या यह चाहे जैसे भी हुआ हो, यह वैसा नहीं था जैसे परमेश्वर ने उन जीवनों के, उन सृजित प्राणियों के अंतिम परिणाम को परिभाषित किया था। तुम्हें यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए। इसके विपरीत, उन्होंने इस संसार की घोर निंदा करने और परमेश्वर के कर्मों की गवाही देने के लिए ठीक उन्हीं साधनों का उपयोग किया। इन सृजित प्राणियों ने अपने सर्वाधिक बहुमूल्य जीवन का उपयोग किया—उन्होंने परमेश्वर के कर्मों की गवाही देने के लिए अपने जीवन के अंतिम क्षण का उपयोग किया, परमेश्वर के महान सामर्थ्य की गवाही देने के लिए उपयोग किया, और शैतान तथा इस संसार के समक्ष यह घोषित करने के लिए किया कि परमेश्वर के कर्म सही हैं, प्रभु यीशु परमेश्वर है, वह प्रभु है, और परमेश्वर का देहधारी शरीर है। यहाँ तक कि अपने जीवन के बिल्कुल अंतिम क्षण तक उन्होंने प्रभु यीशु का नाम कभी नहीं नकारा। क्या यह इस संसार के ऊपर न्याय का एक रूप नहीं था? उन्होंने अपने जीवन का उपयोग किया, संसार के समक्ष यह घोषित करने के लिए, मानव प्राणियों के समक्ष यह पुष्टि करने के लिए कि प्रभु यीशु प्रभु है, प्रभु यीशु मसीह है, वह परमेश्वर का देहधारी शरीर है, कि उसने समस्त मानवजाति के छुटकारे के लिए जो कार्य किया, उसी के कारण मानवता जीवित रह पाई है—यह सच्चाई कभी बदलने वाली नहीं है। जो लोग प्रभु यीशु के सुसमाचार को फैलाने के लिए शहीद हुए, उन्होंने किस सीमा तक अपना कर्तव्य निभाया? क्या यह अंतिम सीमा तक किया गया था? यह अंतिम सीमा कैसे परिलक्षित होती थी? (उन्होंने अपना जीवन अर्पित किया।) यह सही है, उन्होंने अपने जीवन से कीमत चुकाई। परिवार, सम्पदा, और इस जीवन की भौतिक वस्तुएँ, सभी बाहरी चीजें हैं; स्वयं से संबंधित एकमात्र चीज जीवन है। प्रत्येक जीवित व्यक्ति के लिए जीवन सबसे अधिक प्रिय और संजोने योग्य होता है, सबसे बहुमूल्य होता है, और यही कारण है कि ये लोग मानवजाति के प्रति परमेश्वर के प्रेम की पुष्टि और गवाही के रूप में अपनी सबसे बहुमूल्य वस्तु—जीवन—अर्पित कर सके। अपनी मृत्यु के दिन तक उन्होंने परमेश्वर के नाम को नहीं नकारा, न ही परमेश्वर के कार्य को नकारा, और उन्होंने जीवन के अपने अंतिम क्षणों का उपयोग इस तथ्य के अस्तित्व की गवाही देने के लिए किया—क्या यह गवाही का सर्वोच्च रूप नहीं है? यह अपना कर्तव्य निभाने का सर्वश्रेष्ठ तरीक़ा है; अपना उत्तरदायित्व इसी तरह पूरा किया जाता है। जब शैतान ने उन्हें धमकाया और आतंकित किया, और अंत में जब उसने उनसे उनके प्राणों की कीमत भी वसूल ली, तब भी उन्होंने अपना कर्तव्य नहीं छोड़ा। यही अपना कर्तव्य चरम सीमा तक पूरा करना है। इससे मेरा क्या आशय है? क्या मेरा आशय यह है कि तुम लोग भी परमेश्वर की गवाही देने और उसका सुसमाचार फैलाने के लिए इसी तरीके का उपयोग करो? तुम्हें हूबहू ऐसा करने की आवश्यकता नहीं है, किन्तु तुम्हें समझना होगा कि यह तुम्हारा दायित्व है, यदि परमेश्वर ऐसा चाहे, तो तुम्हें इसे कुछ ऐसा मानकर स्वीकार करना चाहिए जिसे करने को तुम कर्तव्यबद्ध हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सुसमाचार का प्रचार करना वह कर्तव्य है जिसे सभी विश्वासी पूरा करने को बाध्य हैं)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि गिरफ्तार होने के डर की, यातनाओं का सामना न कर पाने और यहूदा बन जाने की असली वजह यह थी कि मैं अपने जीवन को बहुत ज्यादा संजोती थी। भले ही जबान से तो मैं कहती थी कि इंसान की जिंदगी परमेश्वर के हाथों में है, लेकिन मेरा दिल सचमुच इस पर यकीन नहीं करता था और इसलिए जब भी मेरे सामने खतरनाक परिवेश आते तो मैं बच निकलना चाहती थी। दरअसल चाहे मुझे गिरफ्तार किया जाए, कितनी भी यातनाएँ दी जाएँ और चाहे मुझे पीट-पीटकर मार डाला जाए, यह सब परमेश्वर की संप्रभुता में है : मुझे समर्पण कर यह सब स्वीकार कर लेना चाहिए। मुझे प्रभु यीशु के शिष्यों का विचार आया। कुछ को घोड़ों के पीछे घसीटकर मार डाला गया और कुछ को सूली पर उल्टा लटका दिया गया। उन्होंने हर तरह की यातनाएँ सहीं, लेकिन मरते दम तक वे वफादार और परमेश्वर के प्रति अपनी गवाही में अडिग रहे। उन्हें मौत का डर नहीं था, उन्होंने प्रभु के सुसमाचार प्रचार को अपनी जिम्मेदारी और मिशन समझा। वे परमेश्वर के लिए सब-कुछ त्याग सकते थे और अपने जीवन या मृत्यु की परवाह नहीं करते थे। मैंने कुछ भाई-बहनों की गिरफ्तारी पर भी विचार किया, लेकिन वे परमेश्वर के प्रति समर्पण के लिए प्रार्थना कर पाए, उन्होंने परमेश्वर पर भरोसा करके इस परिवेश का अनुभव किया, परमेश्वर की अगुआई और मार्गदर्शन देखा। कुछ ने परमेश्वर से तब प्रार्थना की जब उन्हें इतनी यातना दी जा रही थी कि वे उसे और सहन नहीं कर पा रहे थे; उनकी आत्मा अस्थायी तौर पर उनकी देह से निकल गई और देह को कोई दर्द महसूस नहीं हुआ। कुछ को गिरफ्तार किया गया, भले ही उनकी देह को यातना देकर मार डाला गया, फिर भी उन्होंने परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त की। इसके विपरीत जो लोग गिरफ्तार होने पर यहूदा के रूप में प्रकट हुए, उन्होंने परमेश्वर के घर के हितों से समझौता किया और परमेश्वर को धोखा दिया क्योंकि वे अपने जीवन को महत्व देते थे और खुद को बचाना चाहते थे। हालाँकि वे देह में जीवित रहते हैं, लेकिन परमेश्वर की नजर में वे पहले ही मर चुके होते हैं। वे चलती-फिरती लाशें होते हैं और अनंत काल तक दंड के भागी होते हैं। जैसा कि प्रभु यीशु ने कहा है : “जो कोई अपना प्राण बचाना चाहे, वह उसे खोएगा; और जो कोई मेरे लिये अपना प्राण खोएगा, वह उसे पाएगा(मत्ती 16:25)। मैंने विचार किया कि मैं लगातार खुद को बचाना चाहती थी और मैंने कलीसिया के कार्य की रक्षा नहीं की थी और ऐसी निर्णायक घड़ी में परमेश्वर को धोखा दे रही थी। क्या मेरे व्यवहार की प्रकृति यहूदा जैसी ही नहीं थी? मैंने परमेश्वर के वचनों पर मनन किया, मैं मृत्यु के विषय को कुछ हद तक समझ गई थी और अब मुझे गिरफ्तार होने की चिंता और डर नहीं था। मुझमें आस्था जग गई थी कि सब-कुछ परमेश्वर के हाथों में है, मैं परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं को समर्पित होने को तैयार थी। इसके बाद मैंने बाद की स्थिति से निपटने के लिए अपना पूरा प्रयास किया।

शाम को मुझे पता चला कि कई और भाई-बहन गिरफ्तार हो गए हैं। मैंने देखा कि परिवेश बद से बदतर होता जा रहा है, मुझे फौरन परमेश्वर के वचनों की पुस्तकों को कहीं और स्थानांतरित करना होगा। अब अन्य कलीसियाओं से संपर्क करने का समय नहीं था और मेरा दिल चिंता से बेचैन हुआ जा रहा था। मुझे अचानक याद आया कि जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया है और जो यहूदा बन गए हैं, उन्हें मेरे घर के बारे में पता नहीं है। अगर मैं पुस्तकें अपने घर ले जाती हूँ तो कम से कम वे कुछ समय के लिए सुरक्षित रहेंगी और फिर मैं दूसरी कलीसियाओं से संपर्क करके उन्हें किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँचा सकती हूँ। अगले दिन मैं पुस्तकें अपने घर ले आई। इसके बाद हमने पुस्तकों को सुरक्षित रूप से कहीं और स्थानांतरित करने के लिए परमेश्वर पर भरोसा किया, मेरा बेचैन मन थोड़ा-बहुत शांत हुआ।

मैंने इस समय के अपने अनुभवों पर विचार किया, मैंने परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता देखी और अपने स्वार्थी और घृणित भ्रष्ट स्वभावों की कुछ समझ प्राप्त की। साथ ही मैंने मृत्यु का अर्थ और मूल्य भी समझा और मेरे हृदय को मुक्ति मिली। मैं यह अनुभव और समझ परमेश्वर के अनुग्रह से ही प्राप्त कर पाई।

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