65. बीमारी के बीच परमेश्वर के प्रेम का अनुभव करना

यीशिन, चीन

2003 में, मैंने परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार किया। मुझे पता भी नहीं चला और जल्द ही मेरे पेट की समस्याएँ, निम्न रक्तचाप, निम्न रक्त शर्करा और दूसरी बीमारियाँ ठीक हो गईं। मैं बहुत खुश और आभारी थी। मैंने मन ही मन सोचा, “परमेश्वर न केवल लोगों की परवाह और सुरक्षा करता है, बल्कि लोगों को स्वच्छ करने और बचाने के लिए अपने वचन भी व्यक्त करता है और उन्हें एक सुंदर मंजिल तक पहुँचाता है। परमेश्वर में विश्वास करके मैंने सही चुनाव किया है!” हर दिन, मैं परमेश्वर के वचन पढ़ने और भजन सीखने के लिए समय निकालती थी, खुद को खपाने को लेकर मुझमें जोश था और चाहे बारिश हो या धूप, सर्दी हो या हवा, मैं अपने कर्तव्य में लगी रहती थी। इस दौरान, मेरे परिवार ने मुझे सताया, रिश्तेदारों और पड़ोसियों ने मेरा मजाक उड़ाया और मुझे बदनाम किया, सीसीपी ने भी मुझे सताया और मेरा पीछा किया, लेकिन इन परिस्थितियों ने मुझे अपना कर्तव्य करने से नहीं रोका। जब भी मैं इन बातों के बारे में सोचती, तो मैं अपने प्रयासों और खुद को खपाने को याद करती थी, मुझे लगता था कि मैं परमेश्वर की सच्ची विश्वासी हूँ और मुझे यकीन था कि इसी तरह चलते रहने से, मैं बचा ली जाऊँगी और जीवित रहूँगी। मुझे बहुत खुशी महसूस होती थी।

2020 में, मुझे कई दिनों तक खाँसी रही, लेकिन मैंने इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। 2021 तक, मेरी खाँसी और गंभीर हो गई। मुझे दिन भर खाँसी आती रहती थी, खासकर जब मैं लेटती थी, तो मेरी खाँसी रुकती ही नहीं थी। मैं खाँसते-खाँसते कब सो जाती थी, मुझे पता ही नहीं चलता था और मुझे अक्सर चक्कर आते थे, दिल घबराता था, साँस फूलती थी और ठंडा पसीना आता था। जल्द ही, मेरा वजन 100 पाउंड से घटकर लगभग 80 पाउंड रह गया। बाद में, मेरी हालत और खराब हो गई। तेज खाँसी से मेरे पूरे सीने और पेट में दर्द होने लगा, जिससे मैं आराम नहीं कर पाती थी, केवल सीधा लेटने पर ही मुझे थोड़ा बेहतर महसूस होता था। मुझे ठंड बहुत ज्यादा लगने लगी थी। जहाँ दूसरे लोग हल्के कपड़े पहनते थे, वहीं मुझे मोटे कपड़े पहनने पड़ते थे और सोते समय मुझे मोटे कंबल ओढ़ने पड़ते थे। हल्के-फुल्के काम करने से ही मैं इतनी थक जाती थी कि मुश्किल से हिल-डुल पाती थी, मेरी साँस फूलने लगती थी और मैं बोल भी नहीं पाती थी। मेरा पेट फूल जाता था और दर्द महसूस होता था, मैं अक्सर खा भी नहीं पाती थी। पेट पर कहीं भी दबाने से मुझे दर्द होता था और लगातार खाँसने पर यह और बढ़ जाता था। मैंने मन ही मन सोचा, “मेरे लक्षण किसी गंभीर बीमारी जैसे क्यों लग रहे हैं?” महामारी के बाद, मैं पेट का अल्ट्रासाउंड कराने के लिए अस्पताल गई, डॉक्टर ने गंभीरता से बताया कि मेरी पित्त नलिकाओं में बहुत सारी छोटी-छोटी पथरियाँ हैं और मेरे पेडू वाले हिस्से में तरल पदार्थ मौजूद है, जिसे साफ तौर पर पानी का जमाव या खून का थक्का नहीं कहा जा सकता। उसने बार-बार मुझसे आगे की जाँच के लिए एक बड़े अस्पताल में जाने का आग्रह भी किया, कहा कि मुझे तुरंत जाना चाहिए। मुझे कुछ संदेह हुआ। मैंने सोचा कि चूँकि मैं इतने सालों से परमेश्वर के लिए त्याग कर रही हूँ और खुद को खपा रही हूँ, तो परमेश्वर को मुझे गंभीर रूप से बीमार होने से बचाना चाहिए। मैंने सोचा, “कुछ भाई-बहनों ने मेरे जितना त्याग नहीं किया है, खुद को नहीं खपाया है या कष्ट नहीं सहा है, लेकिन वे स्वस्थ हैं और सामान्य रूप से अपने कर्तव्य कर सकते हैं। मैंने इतना कष्ट सहा है और त्याग किया है, फिर भी मुझे एक के बाद एक बीमारी होती रहती है। परमेश्वर ने मुझे सुरक्षित क्यों नहीं रखा? क्या ऐसा हो सकता है कि परमेश्वर मुझसे घृणा करने लगा है और उसने मुझे त्याग दिया है? वरना मैं बीमारियों से क्यों जूझती रहती?” जितना मैंने सोचा, उतना ही मुझे दर्द महसूस हुआ। मुझे नहीं पता था कि परमेश्वर से प्रार्थना करते समय क्या कहूँ, मैं नहीं जानती थी कि परमेश्वर के वचनों का कौन-सा अध्याय पढ़ूँ। मैं अपने कुछ कर्तव्यों में व्यस्त रहना चाहती थी, लेकिन मैं इतनी थक गई थी कि हिल भी नहीं पा रही थी। मुझे अपने अंदर एक अकथनीय बेचैनी महसूस हुई और मैं बिल्कुल भी ऊर्जा नहीं जुटा पा रही थी।

अगले दिन, मुझे याद आया कि डॉक्टर ने मेरी हालत कितनी गंभीर बताई थी, मैं बहुत चिंतित और परेशान हो गई। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं इस बीमारी के कारण बहुत पीड़ा में हूँ। मेरा आध्यात्मिक कद वास्तव में छोटा है और मुझे नहीं पता कि इसका अनुभव कैसे करूँ। मैं तुमसे विनती करती हूँ कि इस मामले में तुम अपना इरादा समझने में मेरा मार्गदर्शन करो और यह जानने में मेरी मदद करो कि आगे जो भी हो उसका अनुभव कैसे करना है।” बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “परमेश्वर पर विश्वास करते हुए लोग भविष्य के लिए आशीष पाने में लगे रहते हैं; यही उनके विश्वास का लक्ष्‍य होता है। सभी लोगों की यही मंशा और आशा होती है, लेकिन उनकी प्रकृति की भ्रष्टता परीक्षणों और शोधन के माध्यम से जरूर दूर की जानी चाहिए। लोग जिन-जिन पहलुओं में शुद्ध नहीं होते और भ्रष्टता दिखाते हैं उन पहलुओं में उन्हें परिष्कृत किया जाना चाहिए—यह परमेश्वर की व्यवस्था है। परमेश्वर तुम्हारे लिए एक परिवेश बनाता है, तुम्हें उसमें परिष्कृत होने के लिए बाध्य करता है जिससे तुम अपनी भ्रष्टता को जान जाओ। अंततः तुम उस मुकाम पर पहुँच जाते हो जहाँ तुम अपने मंसूबों और इच्छाओं को छोड़ने और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के प्रति समर्पण करना चाहते हो, भले ही इसका मतलब मृत्यु हो। इसलिए अगर लोग कई वर्षों के शोधन से न गुजरें, अगर वे एक हद तक पीड़ा न सहें, तो वे अपनी सोच और हृदय में देह की भ्रष्टता की बाध्यताएँ तोड़ने में सक्षम नहीं होंगे। जिन किन्हीं पहलुओं में लोग अभी भी अपनी शैतानी प्रकृति की बाध्यताओं में जकड़े हैं और जिन भी पहलुओं में उनकी अपनी इच्छाएँ और माँगें बची हैं, उन्हीं पहलुओं में उन्हें कष्ट उठाना चाहिए। केवल दुख भोगकर ही सबक सीखे जा सकते हैं, जिसका अर्थ है सत्य पाने और परमेश्वर के इरादे समझने में समर्थ होना। वास्तव में, कई सत्य कष्ट और परीक्षणों से गुजरकर समझ में आते हैं। कोई भी व्यक्ति आरामदायक और सहज परिवेश या अनुकूल परिस्थिति में परमेश्वर के इरादों को नहीं समझ सकता है, परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि को नहीं पहचान सकता है, परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की सराहना नहीं कर सकता है। यह असंभव होगा!(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन लोगों की आस्था में उनके इरादे और आशा को और साथ ही परमेश्वर के परीक्षणों और शोधनों के पीछे के अर्थ को भी उजागर करते हैं। परमेश्वर कोई अर्थहीन कार्य नहीं करता, न ही वह ऐसा कोई कार्य करता है जो लोगों के लिए हानिकारक हो। मुझे ऐसी बीमारी होने का मतलब यह नहीं था कि परमेश्वर मुझे त्यागना चाहता था, बल्कि परमेश्वर मेरा परीक्षण और शोधन कर रहा था, मेरी आस्था की अशुद्धियों को स्वच्छ कर रहा था। मुझे याद आया कि जब मैं पहली बार अपनी बीमारियों से ठीक हुई थी, तो मैं खुद को खपाने में बहुत जोशीली थी और मैंने परमेश्वर के प्रेम का मूल्य ईमानदारी से चुकाने का संकल्प लिया था, चाहे मैंने कितना भी कष्ट सहा हो या खुद को खपाया हो, मैंने यह सब खुशी-खुशी और अपनी इच्छा से किया था। मैंने खुद को परमेश्वर की सच्ची विश्वासी माना था और मुझे विश्वास था कि अगर मैं इसी तरह चलती रही, तो उद्धार मिल जाएगा। लेकिन जब मैं फिर से बीमार पड़ी, तो मेरी थोड़ी-सी आस्था, मेरे स्वार्थ और परमेश्वर के बारे में मेरी गलतफहमी, सभी का खुलासा हो गया। ऐसा लगा जैसे मैं कोई और ही इंसान बन गई थी। यह ठीक वैसा ही था जैसा परमेश्वर ने उजागर करते हुए कहा है : “अधिकतर लोग शांति और अन्य लाभों के लिए परमेश्वर पर विश्वास करते हैं। जब तक तुम्हारे लिए लाभप्रद न हो, तब तक तुम परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते, और यदि तुम परमेश्वर के अनुग्रह प्राप्त नहीं कर पाते, तो तुम खीज जाते हो। तुमने जो कहा, वो तुम्हारा असली आध्यात्मिक कद कैसे हो सकता है?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अभ्यास (3))। प्रारंभ से ही मेरे त्याग और खुद को खपाना मेरी अपनी खातिर थे। इसमें मैं परमेश्वर को धोखा देने और उससे सौदेबाजी करने की कोशिश कर रही थी। मैं बहुत स्वार्थी और नीच थी, मुझमें परमेश्वर को संतुष्ट करने की बिल्कुल भी कोई इच्छा नहीं थी। अगर इस बीमारी ने मुझे बेनकाब न किया होता, तो मुझे एहसास ही नहीं होता कि इतने सालों में मैंने अपनी आस्था में जो भी त्याग किए थे, वे सब अनुग्रह और आशीषों की खातिर थे, मैं परमेश्वर से सौदेबाजी करने की कोशिश कर रही थी। परमेश्वर ने मेरे उद्धार के लिए ही इस परिस्थिति की व्यवस्था की थी और मुझे इस तरह बेनकाब किया था। लेकिन मैं परमेश्वर का इरादा नहीं समझी, मैंने उससे शिकायत की और उसे गलत समझा। मुझे परमेश्वर का बहुत ऋणी महसूस हुआ और मैंने पश्चात्ताप करने के लिए उससे प्रार्थना की।

उस रात मैंने परमेश्वर के वचनों का एक भजन वीडियो देखा जिसका शीर्षक था, “अय्यूब और पतरस की तरह गवाह बनो” : “तुम कह सकते हो कि तुम पर विजय पा ली गई है, पर क्या तुम मृत्युपर्यंत समर्पित रह सकते हो? इस बात की परवाह किए बिना कि इसमें कोई संभावना है या नहीं, तुम्हें बिल्कुल अंत तक अनुसरण करने में सक्षम होना चाहिए, और कैसा भी परिवेश हो, तुम्हें परमेश्वर में विश्वास नहीं खोना चाहिए। अतंतः तुम्हें गवाही के दो पहलू प्राप्त करने चाहिए : अय्यूब की गवाही—मृत्युपर्यंत समर्पण; और पतरस की गवाही—परमेश्वर से परम प्रेम। एक मामले में तुम्हें अय्यूब की तरह होना चाहिए : उसने समस्त भौतिक संपत्ति गँवा दी और शारीरिक बीमारी से घिर गया, फिर भी उसने यहोवा का नाम नहीं त्यागा। यह अय्यूब की गवाही थी। पतरस मृत्युपर्यंत परमेश्वर से प्रेम करने में सक्षम रहा—जब उसने अपनी मृत्यु का सामना किया, तब भी उसने परमेश्वर से प्रेम किया, जब उसे क्रूस पर चढ़ाया गया, तब भी उसने परमेश्वर से प्रेम किया। उसने अपने भविष्य का विचार नहीं किया या सुंदर आशाओं अथवा अव्यावहारिक विचारों का अनुसरण नहीं किया, और केवल परमेश्वर से प्रेम करने और परमेश्वर की समस्त व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने का प्रयास किया। इससे पहले कि यह माना जा सके कि तुमने गवाही दी है, इससे पहले कि तुम ऐसा व्यक्ति बन सको जिसे जीते जाने के बाद पूर्ण बना दिया गया है, तुम्हें यह स्तर हासिल करना होगा(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, विजय के कार्य की आंतरिक सच्चाई (2))। यह भजन सुनकर मैं रो पड़ी। अय्यूब ने इतने बड़े परीक्षणों का सामना किया। उसने अपनी दौलत खो दी, उसके बच्चे मर गए, उसका शरीर फोड़ों से भर गया, मगर इतनी ज्यादा पीड़ा में भी अय्यूब ने न केवल परमेश्वर को नहीं नकारा और न ही उसके बारे में शिकायत की, बल्कि उसने परमेश्वर की प्रशंसा की, उसके नाम का गुणगान किया और परमेश्वर के लिए जोरदार गवाही दी। पतरस ने अपना जीवन परमेश्वर को जानने और उससे प्रेम करने की खोज में बिताया, अपनी मृत्यु के समय भी उसने कहा कि उसने परमेश्वर से पर्याप्त प्रेम नहीं किया है। चाहे परमेश्वर ने उससे किए अपने वादे पूरे किए हों या नहीं, उसने फिर भी परमेश्वर में विश्वास किया और उससे प्रेम किया। पतरस ने परमेश्वर की गवाही दी और परमेश्वर के दिल को सुकून पहुँचाया। अय्यूब और पतरस ऐसे लोग थे जिन्होंने सचमुच परमेश्वर को परमेश्वर माना। वे परमेश्वर के प्रति समर्पित थे, उनमें परमेश्वर से सौदेबाजी करने या उससे माँगें करने की कोई इच्छा नहीं थी और परमेश्वर ने उनकी गवाहियों से महिमा पाई। लेकिन जहाँ तक मेरी बात है, जब मेरी बीमारी बढ़ गई थी और परमेश्वर ने मेरी इच्छाएँ और माँगें पूरी नहीं की थीं, तो मेरे मन में प्रतिरोध था और मैंने मन ही मन शिकायत की थी। मैं परमेश्वर के वचन पढ़ने और प्रार्थना करने में भी नियमित नहीं रह पाई थी। मुझमें जरा-सा भी समर्पण या विवेक नहीं था और मैंने परमेश्वर की गवाही तो बिल्कुल नहीं दी। मैंने कभी नहीं सोचा था कि इतने सालों तक परमेश्वर में विश्वास रखने और परमेश्वर के इतने सारे वचन खाने-पीने और इतने सारे धर्मोपदेश सुनने के बाद भी मैं इस तरह का व्यवहार करूँगी और हमेशा परमेश्वर से सौदेबाजी करने की कोशिश करूँगी। मैं सचमुच स्वार्थी और नीच थी! जितना मैंने इस बारे में सोचा, उतनी ही मैं परमेश्वर की ऋणी महसूस करने लगी। मैंने रोते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मुझे लगता था कि तुममें विश्वास रखने के इतने सालों में अपना कर्तव्य निभाना तुम्हें संतुष्ट करने के लिए था, लेकिन इस बीमारी में हुए खुलासे के माध्यम से मुझे आखिरकार एहसास हुआ है कि मेरे त्याग और खुद को खपाना, सब आशीषें पाने की खातिर थे। मैंने तुम्हें कभी सचमुच परमेश्वर नहीं माना। परमेश्वर, मैं बहुत भ्रष्ट हूँ और तुम्हारे प्रेम के लायक नहीं हूँ। मेरी बीमारी का चाहे जो भी हो, मैं तुम्हारे आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने को तैयार हूँ।” धीरे-धीरे, मेरी दशा बेहतर होती गई; मैं हर दिन अपने कर्तव्य में प्रयास करने में सक्षम थी और मैं अपनी बीमारी से उतनी बेबस नहीं थी। जब मैंने कर्तव्य करने में अपना दिल लगाया, तो मुझे आश्चर्य हुआ कि मेरी सेहत में थोड़ा सुधार हो गया और मुझे अब उतनी ठंड नहीं लगती थी। मैं परमेश्वर की बहुत आभारी थी! उसके बाद, मैंने अपना कर्तव्य करते हुए इलाज के लिए दवा लेना जारी रखा।

जुलाई 2022 में, मुझे कई दिनों तक तेज बुखार रहा और खाँसी होती रही और मैं लगातार थकी हुई महसूस करती थी। सीढ़ियाँ चढ़ते समय मेरी साँस फूल जाती थी और मेरा दिल ऐसे धड़कता था जैसे फट जाएगा। मैंने मन ही मन सोचा, “इस बार मुझे समर्पण करना है और शिकायत नहीं करनी है।” लेकिन सितंबर तक मेरी बीमारी बद से बदतर होती चली गई। मेरी खाँसी और बढ़ गई, मुझे लगातार दो हफ्तों तक तेज बुखार रहा और दवा लेने के बाद भी कोई सुधार नहीं हुआ। पहले तो मुझे लगा कि यह बस मामूली सर्दी-बुखार है, लेकिन जब मेरी हालत बिगड़ती गई, तो मैं जाँच के लिए अस्पताल गई। शुरुआती जाँच में पता चला कि मेरे फेफड़ों में पानी भर गया है और टीबी होने का अंदेशा है। डॉक्टर ने गंभीरता से इस बात पर जोर दिया कि फेफड़ों में बहुत ज्यादा पानी भरने के कारण मेरा दाहिना फेफड़ा अब काम नहीं कर रहा है, मेरी हालत बहुत गंभीर हो गई है और मुझे तुरंत इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती होना पड़ेगा, मैं अब और देर नहीं कर सकती थी। मेरा दिल बैठ गया और मैंने सोचा, “मेरी बीमारी इतनी गंभीर कैसे हो गई? मैं पिछले दो सालों में कई बार गंभीर रूप से बीमार पड़ी, भले ही मैं कमजोर रही, पर मैंने अपना कर्तव्य करना कभी बंद नहीं किया। मेरी हालत में सुधार क्यों नहीं हुआ, बल्कि और खराब क्यों हो गई?” मैं बहुत हताश और डरी हुई महसूस कर रही थी, मैंने सोचा, “मैंने 19 सालों तक परमेश्वर में विश्वास रखा है। मैंने अपना कर्तव्य करने के लिए परिवार और काम का त्याग किया है, मैंने वह सारा कष्ट सहा है जो मुझे सहना चाहिए। मुझे जो दौड़ दौड़नी थी, वह मैंने दौड़ी है और चाहे मैं कितनी भी बीमार रही, मैं अपने कर्तव्य में लगी रही हूँ। मैंने सोचा था कि परमेश्वर का अनुसरण करने से, मुझे आशीषें मिलेंगी और मैं बचा ली जाऊँगी, लेकिन अब पता चला कि मैं इतनी बीमार हूँ कि शायद मर जाऊँगी। अगर मैं मर गई, तो मैं बचाए जाने का मौका पूरी तरह से खो दूँगी। तो क्या मेरे सारे प्रयास और खुद को खपाना व्यर्थ नहीं चले जाएँगे?” यह सोचकर मेरा दिल बहुत भारी हो गया और मैं पूरी तरह से निराश महसूस करने लगी। इस समय मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा में कुछ तो गड़बड़ है और मैंने रोते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मुझे लग रहा है कि मैं मरने वाली हूँ। मेरे पास अब सचमुच कोई समाधान नहीं है और मेरा दिल दर्द से भरा है। परमेश्वर, तुम्हारा इरादा समझने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो।” प्रार्थना करने के बाद मुझे परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश याद आए :

5. यदि तुम हमेशा मेरे प्रति बहुत निष्ठावान रहे हो, मेरे लिए तुममें बहुत प्रेम है, मगर फिर भी तुम बीमारी की पीड़ा, वित्तीय तनाव, और अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के द्वारा त्यागे जाना सहते हो या जीवन में किसी भी अन्य दुर्भाग्य को सहन करते हो, तो क्या तब भी मेरे लिए तुम्हारी निष्ठा और प्यार बना रहेगा?

6. यदि जिसकी तुमने अपने हृदय में कल्पना की है उसमें से कुछ भी मेरे किए से मेल नहीं खाता, तो तुम्हें अपने भविष्य के मार्ग पर कैसे चलना चाहिए?

7. यदि तुम्हें वह कुछ भी प्राप्त नहीं होता है जो तुमने प्राप्त करने की आशा की थी, तो क्या तुम मेरे अनुयायी बने रह सकते हो?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (2)

परमेश्वर की अपेक्षाओं का सामना करते हुए मेरा मन अचानक साफ हो गया। ये अपेक्षाएँ वे मानक हैं जिनसे परमेश्वर यह मापता है कि किसी व्यक्ति का स्वभाव बदला है या नहीं। वे इस बात की भी शर्तें हैं कि कोई विश्वासी उद्धार पा सकता है या नहीं। जो लोग सचमुच परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, वे उसके प्रति वफादार और प्रेमपूर्ण होते हैं, परिस्थिति चाहे जैसी भी हो, वे परीक्षाओं का सामना कर सकते हैं। भले ही परमेश्वर जो करता है, वह उनकी कल्पनाओं या आशाओं के अनुरूप न हो, वे फिर भी परमेश्वर का अनुसरण कर सकते हैं और उसके प्रति वफादार बने रह सकते हैं। पीछे मुड़कर सोचती हूँ तो मैंने एक बार परमेश्वर के सामने कसम खाई थी और एक दृढ़ संकल्प लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए, मैं परमेश्वर का अनुसरण करूँगी, चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी बदल जाएँ और चाहे मुझे कितना भी दर्द, क्लेश, परीक्षण या शोधन का अनुभव क्यों न हो, मैं परमेश्वर में अपनी आस्था बनाए रखूँगी और अंत तक उसका अनुसरण करूँगी। लेकिन तथ्यों ने खुलासा कर दिया कि मुझमें आस्था की कमी थी और मुझमें जरा भी विवेक नहीं था। जब मैं बीमार पड़ी और मुझे जीने की कोई उम्मीद नहीं दिखी, तो मैंने परमेश्वर से बहस की, यह सोचते हुए कि जब मैं अपनी गंभीर बीमारियों के दौरान भी अपने कर्तव्यों में लगी रही, तो क्यों मेरी बीमारी ठीक होने के बजाय और बिगड़ती जा रही थी। यहाँ तक कि मैंने अपने सालों के त्याग और खुद को खपाने को, जिसमें बीमार रहते हुए अपने कर्तव्य करने का दर्द भी शामिल था, परमेश्वर के सामने रख दिया, मैंने इन्हें अपनी पूँजी और योग्यताएँ माना। मैंने सोचा कि भले ही मेरी कोई बड़ी उपलब्धियाँ नहीं थीं, पर कम से कम मैंने कष्ट तो सहा था, इसलिए परमेश्वर को मेरे साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। मैंने परमेश्वर से बहस की, यह शिकायत करते हुए कि वह मेरे साथ अन्याय कर रहा है। मुझे अपने पिछले त्यागों पर भी पछतावा हुआ। मैं कितनी विद्रोही और अविवेकी थी! मैंने देखा कि मेरी आस्था में मेरे सालों के त्याग और खुद को खपाना सिर्फ बदले में अनुग्रह और आशीषें पाने के लिए थे। मैंने उन लोगों के बारे में सोचा जो परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते। वे परमेश्वर द्वारा दी गई सभी चीजों को खाते, पीते और उनका आनंद लेते हैं, लेकिन न तो आभार जताते हैं और न ही स्वर्ग की आराधना करते हैं, प्राकृतिक और मानव-निर्मित आपदाओं का सामना करते हुए वे परमेश्वर से शिकायत करते हैं और उसका विरोध करते हैं। क्या मैं इन छद्म-विश्वासियों जैसी ही नहीं थी? सच तो यह है कि धरती का अनाज खाने से लोगों का बीमार पड़ना पूरी तरह से सामान्य है। बीमारी का इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि कोई परमेश्वर में विश्वास रखता है या नहीं, फिर भी मैंने अपनी बीमारी के कारण परमेश्वर से शिकायत की, उस पर सवाल उठाए और उसके खिलाफ अवमानना की। मैंने देखा कि मुझमें कोई अंतरात्मा या विवेक नहीं था। मुझमें परमेश्वर का भय मानने वाला दिल जरा भी नहीं था। मैं कितनी विद्रोही थी! इस बीमारी ने मुझे पूरी तरह से बेनकाब कर दिया और मैंने देखा कि मेरा आध्यात्मिक कद सचमुच कितना दयनीय था। मुझमें परमेश्वर के प्रति बिल्कुल भी वफादारी नहीं थी। इस बारे में सोचकर मुझे गहरा अपराध बोध हुआ। फिर मुझे परमेश्वर के वचन याद आए : “मैंने पूरे समय मनुष्य के लिए बहुत कठोर मानक रखा है। अगर तुम्हारी वफादारी इरादों और शर्तों के साथ आती है, तो मैं तुम्हारी तथाकथित वफादारी के बिना रहना चाहूँगा, क्योंकि मैं उन लोगों से घृणा करता हूँ, जो मुझे अपने इरादों से धोखा देते हैं और शर्तों द्वारा मुझसे जबरन वसूली करते हैं। मैं मनुष्य से सिर्फ यही चाहता हूँ कि वह मेरे प्रति पूरी तरह से वफादार हो और सभी चीजें एक ही शब्द : आस्था—के वास्ते—और उसे साबित करने के लिए करे। मैं तुम्हारे द्वारा मुझे प्रसन्न करने की कोशिश करने के लिए की जाने वाली खुशामद का तिरस्कार करता हूँ, क्योंकि मैंने हमेशा तुम लोगों के साथ ईमानदारी से व्यवहार किया है, और इसलिए मैं तुम लोगों से भी यही चाहता हूँ कि तुम भी मेरे प्रति एक सच्ची आस्था के साथ कार्य करो(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, क्या तुम परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हो?)। “तुम्हें जानना ही चाहिए कि मैं किस प्रकार के लोगों को चाहता हूँ; वे जो अशुद्ध हैं उन्हें राज्य में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है, वे जो अशुद्ध हैं उन्हें पवित्र भूमि को मैला करने की अनुमति नहीं है। तुमने भले ही बहुत कार्य किया हो, और कई सालों तक कार्य किया हो, किंतु अंत में यदि तुम अब भी बुरी तरह मैले हो, तो यह स्वर्ग की व्यवस्था के लिए असहनीय होगा कि तुम मेरे राज्य में प्रवेश करना चाहते हो! संसार की स्थापना से लेकर आज तक, मैंने अपने राज्य में उन्हें कभी आसान प्रवेश नहीं दिया जो मेरी चापलूसी करते हैं। यह स्वर्गिक नियम है, और कोई इसे तोड़ नहीं सकता है!(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। मैंने महसूस किया कि परमेश्वर के वचनों में अधिकार और सामर्थ्य है, मैंने परमेश्वर के पवित्र और धार्मिक स्वभाव को भी महसूस किया, जिसका अपमान नहीं किया जा सकता। स्वर्ग के राज्य के द्वार पर परमेश्वर का पहरा है, अशुद्ध और भ्रष्ट लोगों को राज्य में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है। परमेश्वर किसी को उसके श्रम या प्रयासों के कारण अपने राज्य में आसानी से प्रवेश नहीं देगा। यह एक स्वर्गिक नियम है जिसे कोई नहीं तोड़ सकता। मैंने अपनी आस्था के इतने सालों के बारे में सोचा। मैंने अपने बाहरी त्यागों, खुद को खपाने, कष्ट सहने और प्रयासों को स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने की पूँजी माना। मुझमें परमेश्वर के प्रति सबसे बुनियादी समर्पण भी नहीं था, तो परमेश्वर मुझसे घृणा कैसे नहीं करता? परमेश्वर विश्वसनीय है और वह मनुष्य के लिए जो कुछ भी करता है वह सच्चा है। परमेश्वर यह भी आशा करता है कि लोगों में उसके प्रति सच्ची आस्था और सच्ची वफादारी हो, लेकिन अपनी आस्था के इन सालों में, मैंने हमेशा सौदेबाजी के इरादे रखे, अपने कर्तव्यों में उसे धोखा देने की कोशिश की और मेरे भ्रष्ट स्वभाव जरा भी नहीं बदले। मैं परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के योग्य किस तरह से थी? यह सोचकर, मुझे भय महसूस हुआ। मैं भाग्यशाली थी कि परमेश्वर ने मुझे समय पर बेनकाब कर दिया, वरना मैं गलत परिप्रेक्ष्य से अनुसरण करती रहती और अंत में पूरी तरह से बरबाद हो जाती। मैं सचमुच परमेश्वर की आभारी थी! मैंने मन ही मन प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं बहुत भ्रष्ट हूँ। चाहे मेरी बीमारी का कोई इलाज हो या न हो, मैं यह मामला तुम्हें सौंपती हूँ। चाहे मैं जियूँ या मरूँ, मेरा मानना है कि यह सब तुम्हारे हाथों में है।” प्रार्थना करने के बाद, मुझे और अधिक सहज महसूस हुआ।

अप्रत्याशित रूप से, जब मैं समर्पण करने को तैयार हो गई, तो मेरा छोटा भाई अचानक कहीं और से लौट आया। मेरी हालत के बारे में जानने के बाद, उसने बड़ी मुश्किल से मेरे लिए अस्पताल में इलाज की व्यवस्था की। मुझे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ। इतनी गंभीर महामारी के चरम पर, किसी भी अस्पताल में भर्ती होना लगभग असंभव था, इसलिए मैंने कभी उम्मीद नहीं की थी कि मुझे इतनी जल्दी भर्ती कर लिया जाएगा और इलाज मिलेगा। मैं अच्छी तरह समझ गई थी कि यह परमेश्वर था जो मेरे लिए रास्ता बना रहा था। कृतज्ञता के आँसुओं के साथ, मैंने अपने दिल की गहराइयों से परमेश्वर को धन्यवाद दिया और उसकी प्रशंसा की! जाँच के बाद, पता चला कि मेरे फेफड़ों में पानी भर गया है और मुझे टीबी वाली प्लूरिसी है। सर्जरी के बाद, मेरे दाहिने फेफड़े ने फिर से सामान्य रूप से काम करना शुरू कर दिया। मेरी साँसें फिर से सहज हो गईं और मेरा हौसला बहुत बढ़ गया। अस्पताल में भर्ती होने के एक हफ्ते बाद, अस्पताल ने टीबी वाली प्लूरिसी का इलाज करने वाले दूसरे अस्पताल से संपर्क करने में भी मेरी मदद की। इस तरह, दोनों बीमारियों का एक साथ इलाज हुआ। मैंने देखा कि मेरे भाई का लौटना और मेरा इलाज के लिए भर्ती हो पाना, सब परमेश्वर के हाथों में था। परमेश्वर ने मेरे लिए जिस परिस्थिति की व्यवस्था की थी, वह ऐसी थी जिसे मैं सह सकती थी, मैंने परमेश्वर के प्रति जो चिंता, आस्था की कमी और गलतफहमियाँ प्रकट की थीं, उनके लिए मुझे पछतावा हुआ। एक महीने बाद, मुझे अस्पताल से छुट्टी मिल गई। मैंने अपना कलीसियाई जीवन फिर से शुरू कर दिया और अपना कर्तव्य फिर से निभाने लगी।

इस बीमारी के माध्यम से, मैं समझ गई कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह अर्थपूर्ण है और उसमें परमेश्वर के श्रमसाध्य इरादे शामिल हैं। मैंने जो कष्ट सहे, वे मेरी गहरी भ्रष्टता के कारण थे, यह मेरे लिए परमेश्वर का शुद्धिकरण और उद्धार भी था। अगर यह बीमारी और मौत का करीब आना न होता, तो मुझे एहसास ही नहीं होता कि आशीषें पाने के मेरे इरादे कितने गंभीर थे और मैं इस भ्रम में जीती रहती कि मैं कष्ट सह रही हूँ और कीमत चुका रही हूँ। यह परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन और न्याय ही था जिसने मुझे अपने स्वार्थ, नीचता और अपनी आस्था की अशुद्धियों को देखने दिया, जिससे मैं अनुसरण करने के लिए सही लक्ष्य और दिशा पा सकी, और आशीषें पाने के अपने इरादों को कुछ हद तक छोड़ सकी। अब मैं ज्यादातर सामान्य रूप से जी सकती हूँ और काम कर सकती हूँ, भले ही मेरी हालत कभी-कभी फिर से खराब हो जाती है, मैं जानती हूँ कि यह वह कष्ट है जो मुझे सहना चाहिए और मैं मन से समर्पण कर सकती हूँ। मैं अब परमेश्वर से यह उम्मीद नहीं करती कि वह मुझे स्वास्थ्य दे, मैं अपनी शारीरिक स्थिति के अनुसार अपनी पूरी क्षमता से अपना कर्तव्य भी निभा सकती हूँ। चाहे मेरी बीमारी पूरी तरह से ठीक हो सके या नहीं, मैं लगन से सत्य का अनुसरण करूँगी, स्वभाव में बदलाव लाने की खोज करूँगी और अपना कर्तव्य पूरा करूँगी।

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